हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ई मेल@अनजान ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार

(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ ई मेल @ अनजान ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

( यह रचना कोरोना की दूसरी लहर के दौरान उस समय प्राप्त हुई थी जब मैं स्वयं भी कोरोना से जूझ रहा था। आज मैं उस दौर को याद करता हूँ तो सिहर जाता हूँ। हम समय के साथ कितनी जल्दी अवसाद भरे दौर को पिछली ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह भूल जाते हैं। डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की उसी रचना को प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसे पढ़कर संभवतः आप भी अतीत में झाँक सकें। यह दस्तावेज लिख दिया गया है ताकि सनद रहे और वक्त जरुरत काम आवे ….. – हेमन्त बावनकर)

प्रिय,

आज एक लंबे अंतराल के बाद तुमसे मुखातिब हुई हूँ। तुम तो जानते ही हो मैं तुमसे तभी बात करती हूँ, जब मैं भीतर से डिप्रेस हो जाती हूँ या फिर बहुत खुश हो जाती हूँ। वैसे भी नॉर्मल समय में हम बात करें भी तो क्या करें। तुम वहाँ उतने दूर अपनी सारी जिम्मेदारियों को संभालते अकेले… पता नहीं कितनों की गुहार सुनते हो… और अतंतः तटस्थ रहकर अपनी अहम भूमिका निभाने में तप्तर..।

कोविड-19 की दूसरी लहर ने समस्त संसार का हाल बेहाल कर रखा है। पहली लहर के डर से अभी बाहर निकल ही रहे थे कि दूसरी लहर अपनी चपेट में सबको लीलती जा रही है। ऑक्सीजन और वेंटीलेटर, बेड जैसे शब्द जो कभी हमारी जिंदगी में झांकते ही नहीं थे अब वे हमारे रोज़ की बोलचाल की भाषा में आ गए हैं। हर घर करोना के डर से सहमा सहमा सा है।

आज सुबह से परेशान हूँ। उठते ही सिर भारी भारी सा लग गया। आँख भी सही समय पर खुली नहीं.. थोडी देर से ही जग गयी थी.. उठी और तुरंत लेट भी गयी.. पर मन नहीं माना और उठ ही गयी और सुबह के कामों में लग गयी। रेडिओ पर सुबह की न्यूज सनकर मन अधिक घायल हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने चिंता व्यक्त की कि कोविड की तीसरी लहर छोटे बच्चों पर वार कर सकती है…। पहली लहर में वृद्ध, दूसरी में युवा और तीसरी में बच्चे!!  और तिस पर शाम के पेपर में बीस नवजात बच्चों को कोविड- पॉजिटीव होने की खबर ने मुझे अंतर्मुखी कर दिया है। क्या बात करूँ मैं और क्या कहूँ..। आजकल अपनी हो या किसी की भी तबियत थोडी सी भी नासाज़ हो जाती है तो चिंता सी हो जाती है। पिछले पंद्रह दिनों से जो खबरें आ रही थीं उससे तो मेरी सोच समझ पर जैसे पाला ही पड़ गया था।

सुबह से सिर दर्द से परेशान थी। सोचा, पिछले कुछ दिनों से लैप टाप पर लगातार काम कर रही हूँ… लॉक डाउन की वजह से दोपहर के समय में कोई न कोई फिल्म देख रहे हैं.. यही कारण हो जिसका आँखों पर असर हो रहा होगा इसलिए सर दर्द अचानक बढ गया। साथ ही बाजुओं का पुराना दर्द भी उठ गया तो कुछ परेशान सी हो गयी। हालाँकि पेन किलर ले ली और फिर ऑन लाईन क्लास में जुट गयी। लेक्चर देते समय सारी परेशानियाँ रफुचक्कर हो जाती है मेरी। मुझे भीतर से एक अनजान सी खुशी मिलती है और स्ट्रैस भी कम हो जाता है। ऑन लाइन क्लासेस में फिजिकल क्लासेस सा मजा नहीं आता पर अब इसकी आदत सी हो गयी है। अपने कमरे में बंद होकर लैप-टॉप की विंडों पर छोटे छोटे वृत्तों में पार्टिसिपेंटस से सेल्फी के फोटों अजीबोगरीब नामों से मुखातीब होना अजीब लगता है। ये बच्चे भी कितने क्रिएटीव हैं खुद को एक शानदार नाम देने में..एक छात्र है जिसका नाम शानूर है और उसने अपना नाम रखा है किंग ऑफ नूर… आहा…..। खैर अब तो इस तालाबंदी में ऑनलाइन क्लास मेरी लाइफ लाइन सी हो गयी है। अब तो मैं पुस्तकें भी ऑनलाइन पढ़ रही हूँ। मोबाइल पर फॉंट को इनलार्ज कर पढना सुविधाजनक होता है… हाँ कुछ नुकसानदेह भी हैं…फिर भी समय की धारा के साथ चलना तो है ही न।

कल से अच्छी खबरे नहीं आ रही हैं। मेरे दो छात्रों की पॉजीटीव हो जाने की खबर से अंदर से हिल गयी… उनसे बात करूँ भी तो कैसे सोच ही रही थी कि खबर आयी मेरी कजिन को अस्पताल में बेड ही नहीं मिल रहा है…. जबकि भाई स्वयं डॉक्टर है…. पैसा, सिफारिश या प्रतिष्ठा कुछ भी काम नहीं आ रहा था… काफी सारी जद्दोजहद के बाद किसी नीजि अस्पताल में उसे बेड मिला….थोडी राहत मिली… सोचने लगी जिनके पास पैसा है उनकी हालत ये है तो उनका क्या जिनके पास पैसा भी नहीं है और ना ही सिफारिश… वे क्या करेंगे… क्या इस महामारी से मुक्त होने के लिए मात्र मौत ही एकमात्र अंतिम रास्ता है? … कभी पापा ने कहा था.. गरिबों के लिए मौत ही एक मात्र दवा है…उस दिन मुझे पापा की बात पर बहुत गुस्सा आया था.. लेकिन आज जिन स्थितियों को सुन रहे हैं, देख रहे.. लोगों को ऑक्सीजन के लिए  रोते देखते हैं तो लगता है कि बात में सच का कुछ अंश नजर आता है….हे भगवान…. टीवी पर खबरें देख रही थी, सुना कि किसी अस्पताल में  एक दिन में 20 मरीजों की मौत हो गई थी क्योंकि अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में पाइप के जरिए पहुंचने वाली ऑक्सीजन खत्म हो गई थी… मरीज धीरे-धीरे बेहोशी की हालत में पहुंच गए…. आज की तारिख में लोग अक्षरश: सांस लेने के लिए झटपटा रहे हैं… सुन सुन कर डिप्रेशन आ रहा है। सिर दर्द की गोली लेने पर भी सर दर्द खतम नहीं हो रहा था.. आँखें बंद कर लेटने पर भी नींद नहीं आ रही थी आखिर सिर पर तेल डाला और काफी समय बाद थोडी राहत सी मिली। पर मन पता नहीं क्या क्या सोच कर परेशान हो रहा था। सोशल मीडिया पर भी वही सारी बातें होती हैं.. इस सदी के इस दशक ने पता नहीं कौनसा पाप किया होगा जो अपने माथे पर करोना लिख लाया हैं….।

लग रहा था कि करोना हमारी आँखें खोल रहा है। हमने पर्यावरण के साथ जो खिलवाड़ किया है उसकी सज़ा हमें मिल रही है और प्रकृति अपना प्रतिशोध इस तरह ले रही है। पर क्या सचमुच हम संज्ञानी हो रहै हैं…. ऑक्सीजन की किल्लत और अस्पतालों में होनेवाली मौतों की खबरें दिल दहला देनेवाली है… पता चला है कि इसमें भी भ्रष्ट्राचार है, कालाबाज़ारी है, डुप्लिकेट दवाई देकर लोगों को ठगा जा रहा है…बेड बुकिंग कर लोगों को ट्रीटमेंट  लेने से वंचित कर रहे हैं…  कितने जलील हैं ये लोग… इन्सान कहें इन्हें? डॉक्टरों को हम भगवान का रूप समझते हैं…और वो भी…. इन सबका अंत अब कहाँ जाकर होगा… लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनमें अभी इमानदारी, इन्सानियत बाकी है… जो प्लाज्मा दे रहे हैं, बेड दिलाने, ऑक्सीजन मुहैय्या करने में जरुरतमंदों की मदद कर रहे हैं… मानवता के प्रति समर्पित इन लोगों को देखने के बाद इस 21 वीं सदी के इन्सान की इन्सानियत पर दोबार विश्वास होता है… और लगता है… अच्छाई मरी नहीं है वह अभी भी कायम है।

मौजूदा स्थितियों में तुम्हें नहीं लगता की हम स्वार्थी हो गए हैं.. सेल्फ सेंटर्ड… हमारे भीतर का प्रेम का स्त्रोत सूखता जा रहा है…। दूसरी ओर स्थितियाँ ऐसी भी हो गयी हैं कि हम कुछ भी न करने की स्थिति में पहूँच गए हैं… बुत बन गए हैं..लोग प्राणवायू के लिए तडप रहे हैं और हम प्राणहीन…ऐसे में लगता है कोई झकझोरे में हमें… हमारी नसे काटकर देखें कि हमारी धमनियों में बहनेवाला खून कहीं जम तो नहीं गया…वर्तमान स्थितियों में हमारी सांसे तो चल रही हैं पर उनका संगीत नदारद हो गया है। न हम प्रेम करने की स्थिति में है न हीं लडने की….दूरियां बनाकर मास्क चढाएं सहमें सहमें डर के सायें में जिए जा रहे हैं… एक दूसरे की चिंता में घुले जा रहे हैं… जीवन का कोलाहल थम सा गया है… सन्नाटा छाया है सडकों पर ….खौफ का मंजर है… इस महामारी में इन्सान या तो खबर बन रहा है या फिर एक संख्या मात्र। शोहरत बुखारी ने का एक शेर याद आया है, वे कहते हैं,

किस अजाब में छोडा है तुने इस दिल को

न सुकून याद में तेरा न भूलने में करार।

                                                                                                                                            तुम्हारी मैं

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 104 – लघुकथा – आलौकिक आभा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “आलौकिक आभा। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 104 ☆

? लघुकथा – आलौकिक आभा ?

पुराने दियों को समेटते समेटते आभा का मन  एक बार फिर पुरानी बातों को सोचने पर विवश हो उठा। वृद्धावस्था में मां पिताजी का साथ छोड़ कर, अपने परिवार को लेकर प्रकाश उसी शहर में अलग रहने लगा था।

दोनों बच्चे पढ़ाई कर रहे थे और पतिदेव पेपर पर नजर गड़ाए समाचारों पर लिखे राजनीति की चर्चा फोन पर कर रहे थे। सुनिए… आज मां पिताजी से मिलने चलते हैं। आभा ने पास आकर कहा। तिलमिला उठा प्रकाश… तुमने सोचा भी कैसे कि मैं वहां जाऊंगा? मेरे परिवार से कोई रिश्ता नहीं है उन दोनों का और हां तुम भी वहां नहीं जाना। कोई जरूरत नहीं है दया दिखाने की।

आभा के चेहरे पर दीपावली की सारी खुशियां जाती रही। दीये का प्रकाश क्या? सिर्फ एक काली अमावस के लिए होता है? नहीं, मन में निर्णय कर वह काम पर लग गई।

शाम को पति देव घर आए टेबिल पर सजा खाना देख बहुत ही खुश होकर पास आकर कहा… कोई मेहमान आने वाले हैं क्या? आभा ने कहा.. नहीं, बस यूं ही आज जल्दी खाना  बना लिया।

हाथ मुंह धोकर वह बच्चों के साथ बैठा और खाने का स्वाद जाना पहचाना आ जाने के बाद उसकी आंखें भर आई।

आभा की तरफ कुछ कहने ही जा रहा था कि दूसरे कमरे से मां लगभग हंसते रोते हुए निकलकर आई और कहने लगी… सच ही कहा बहू तूने, प्रकाश अपने मां पिताजी को कभी भुला नहीं सकता। बस थोड़ा लापरवाह और जिद्दी हो गया है।

सिर पर हाथ सहलाती मां अपने प्रकाश को मानों बाहों में समेटना चाह रही थी। तभी पिताजी बाहर आकर कहने लगे… अरी भाग्यवान आज तो प्रकाश को समेटों नहीं उसका अलौकिक प्यार फैलने दो ताकि हम सब उस का आनंद ले सकें।

यह कहकर उन्होने भी प्रकाश को मां के साथ सीने से लगा लिए। प्रकाश कुछ समझता या कहता। आभा ने सभी को कहा… विश यू वेरी हैप्पी दिवाली। आप सभी को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएँ और बधाइयाँ।

आज सच मानिए दीये की अलौकिक आभा चमक रही थी। मन ही मन अपने परिवार को समेट कर।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #65 – अपनी रोटी मिल बाँट कर खाओ ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #65 – अपनी रोटी मिल बाँट कर खाओ ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था। उसका मंत्री बहुत बुद्धिमान था। एक बार राजा ने अपने मंत्री से प्रश्न किया – मंत्री जी! भेड़ों और कुत्तों की पैदा होने कि दर में तो कुत्ते भेड़ों से बहुत आगे हैं, लेकिन भेड़ों के झुंड के झुंड देखने में आते हैं और कुत्ते कहीं-कहीं एक आध ही नजर आते है। इसका क्या कारण हो सकता है?

मंत्री बोला – “महाराज! इस प्रश्न का उत्तर आपको कल सुबह मिल जायेगा।”

राजा के सामने उसी दिन शाम को मंत्री ने एक कोठे में बिस कुत्ते बंद करवा दिये और उनके बीच रोटियों से भरी एक टोकरी रखवा दी।”

दूसरे कोठे में बीस भेड़े बंद करवा दी और चारे की एक टोकरी उनके बीच में रखवा दी। दोनों कोठों को बाहर से बंद करवाकर,वे दोनों लौट गये।

सुबह होने पर मंत्री राजा को साथ लेकर वहां आया। उसने पहले कुत्तों वाला कोठा खुलवाया। राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बीसो कुत्ते आपस में लड़-लड़कर अपनी जान दे चुके हैं और रोटियों की टोकरी ज्यों की त्यों रखी है। कोई कुत्ता एक भी रोटी नहीं खा सका था।

इसके पश्चात मंत्री राजा के साथ भेड़ों वाले कोठे में पहुंचा। कोठा खोलने के पश्चात राजा ने देखा कि बीसो भेड़े एक दूसरे के गले पर मुंह रखकर बड़े ही आराम से सो रही थी और उनकी चारे की टोकरी एकदम खाली थी।

वास्तव में अपनी रोटी मिल बाँट कर ही खानी चाहिए और एकता में रहना चाहिए।

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 76 ☆ भारत की भी सोचो, भाई ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है प्रवासी भारतीय विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा भारत की भी सोचो, भाई ! डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 76 ☆

☆ लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई ! ☆

वह अमेरिका से कई साल बाद भारत वापस आया है। मुंबई  से बी.ई. करने के बाद एम.एस. करने के लिए अमेरिका चला गया था। माता-पिता ने अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च किया था  उसे विदेश भेजने में। जी-जान लगा दी उन्होंने, बीस लाख फीस और रहने-खाने का खर्च अलग से। नौकरी करनेवालों के लिए इतना खर्च उठाना आसान नहीं होता फिर भी यह सोचकर कि विदेश जाएगा तो उसका भविष्य संवर जाएगा, भेज दिया। भारत में आजकल यही चल रहा है, घर-घर की कहानी है – बच्चे विदेश में और माता-पिता अकेले पड़े बुढ़ापा काट रहे हैं। इंजीनियरिंग पूरी करो, बैंक तैयार बैठे हैं लोन देने के लिए, लोन लो और एम.एस. के लिए विदेश का रुख, फिर डॉलर में सैलरी और प्रवासी-भारतीय बन जाओ।

उसे देखकर अच्छा लगा – रंग निखर आया था और शरीर भी भर गया था। उसकी माँ भी बहुत खुश थी, बार-बार कहतीं- “अमेरिका में धूल नहीं है ना ! इसे डस्ट से एलर्जी है, यहाँ था तो बार-बार बीमार पड़ता था। जब से अमेरिका पढ़ने गया है बीमार ही नहीं पड़ा, हेल्थ भी इंप्रूव हो गई। वहाँ घर, कॉलेज हर जगह एअरकंडीशन रहता  है, हीटिंग सिस्टम है, बहुत पॉश है सब कुछ वहाँ।” बेटा भी धीरे से बोला- आंटी ! यहाँ तो आए दिन बिजली, पानी की समस्या से ही जूझते रहो। ट्रैफिक में  घुटन होने लगती हैं उफ् कितनी भीड है इंडिया में !

बात अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था पर होने लगी। मैंने कहा- अमेरिकी राष्ट्रपति  ने अपने भाषण में कहा था कि  अमेरिकी  युवा उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के विद्यार्थी यहाँ से पढ़कर जाते हैं।                                              

वह बोला- हाँ आँटी ! अमेरिका में अधिकतर चीन, जापान, भारत तथा अरब देशों के ही विद्यार्थी हैं। इनसे अमेरिका को आर्थिक लाभ बहुत होता है।

मैंने कहा- हाँ ये तो ठीक है पर — वह तपाक से बोला- चिंता की कोई बात नहीं है। मेरे जैसे जो भारतीय विद्यार्थी वहाँ हैं, वे अमेरिका में ही बस जाएंगे। उनके बच्चे होंगे तो उनकी भारतीय सोच अलग होगी, वे पढेंगे, उच्च शिक्षा भी प्राप्त करेंगे। धीरे-धीरे अमेरिका की यह समस्या खत्म हो जाएगी। बोलते समय वह बड़े आत्मविश्वास के साथ मुस्कुरा रहा था।

अमेरिका की समस्या को सुलझाने में तत्पर आज के भारतीय युवक  अपने देश की समस्याओं के बारे में कभी कुछ सोचते भी हैं ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 93 – लघुकथा – असली वनवास ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “असली वनवास।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 93 ☆

☆ लघुकथा — असली वनवास ☆ 

सीता हरण, लक्ष्मण के नागपोश और चौदह वर्ष के वनवास के कष्ट झेल कर आते हुए राम की अगवानी के लिए माता पूजा की थाली लिए पलकपावड़े बिछाए बैठी थी. रामसीता के आते ही माता आगे बढ़ी, ” आओ राम ! चौदह वर्ष आप ने वनवास के अथाह दुखदर्द सहे हैं. मैं आप की मर्यादा को नमन करती हूं.” कहते हुए माता ने राम के मस्तिष्क पर टीका लगाते हुए माथा चुम लिया.

मगर, राम प्रसन्न नहीं थे. वे बड़ी अधीरता से किसी को खोज रहे थे, ” माते ! उर्मिला कहीं दिखाई नहीं दे रही है ?”

”क्यों पुत्र ! पहले मैं आप लोगों की आरती कर लूं. बाद में उस से मिल लेना.”

यह सुनते ही राम बोले, ” माता ! असली वनवास तो उर्मिला और लक्ष्मण ने भोगा है इसलिए सब से पहले इन दोनों की आरती की जाना चाहिए.” यह कहते हुए राम ने सीता को आरती की थाल पकड़ा दी.

यह सुनते ही लक्ष्मण का गर्विला सीना राम के चरण में झुक  गया, ” भैया ! मैं तो सेवक ही हूं और रहूंगा. ”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

06-03-2018

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दीप पर्व विशेष – चौराहे का दीया ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ कथा – कहानी ☆ दीप पर्व विशेष – चौराहे का दीया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

दंगों से भरा अखबार मेरे हाथ में है पर नज़रें खबरों से कहीं दूर अतीत में खोई हुई हैं।

इधर मुंह से लार टपकती उधर दादी मां के आदेश जान खाए रहते। दीवाली के दिन सुबह से घर में लाए गये मिठाई के डिब्बे और फलों के टोकरे मानों हमें चिढ़ा रहे होते। शाम तक उनकी महक हमें तड़पा डालती। पर दादी मां हमारा उत्साह सोख डालतीं,  यह कहते हुए कि पूजा से पहले कुछ नहीं मिलेगा। चाहे रोओ, चाहे हंसो।

हम जीभ पर ताले लगाए पूजा का इंतजार करते पर पूजा खत्म होते ही दादी मां एक थाली में मिट्टी के कई  दीयों में सरसों का तेल डालकर जब हमें समझाने लगती – यह दीया मंदिर में जलाना है, यह दीया गुरुद्वारे में और एक दीया चौराहे पर,,,,,

और हम ऊब जाते। ठीक है, ठीक है कहकर जाने की जल्दबाजी मचाने लगते। हमें लौट कर आने वाले फल, मिठाइयां लुभा-ललचा रहे होते। तिस पर दादी मां की व्याख्याएं खत्म होने का नाम न लेतीं। वे किसी जिद्दी,प्रश्न सनकी अध्यापिका की तरह हमसे प्रश्न पर प्रश्न करतीं कहने लगतीं – सिर्फ दीये जलाने से क्या होगा ? समझ में भी आया कुछ ?

हम नालायक बच्चों की तरह हार मान लेते। और आग्रह करते – दादी मां। आप ही बताइए।

– ये दीये इसलिए जलाए जाते हैं ताकि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे से एक सी रोशनी, एक सा ज्ञान हासिल कर सको। सभी धर्मों में विश्वास रखो।

– और चौराहे का दीया किसलिए, दादी मां ?

हम खीज कर पूछ लेते। उस दीये को जलाना हमें बेकार का सिरदर्द लगता। जरा सी हवा के झोंके से ही तो बुझ जाएगा। कोई ठोकर मार कर तोड़ डालेगा।

दादी मां जरा विचलित न होतीं। मुस्कुराती हुई समझाती

– मेरे प्यारे बच्चो। चौराहे का दीया सबसे ज्यादा जरूरी है। इससे भटकने वाले मुसाफिरों को मंजिल मिल सकती है। मंदिर गुरुद्वारे  को जोड़ने वाली एक ही ज्योति की पहचान भी।

तब हमे बच्चे थे और उन अर्थों को ग्रहण करने में असमर्थ। मगर आज हमें उसी चौराहे के दीये की खोजकर रहे हैं, जो हमें इस घोर अंधकार में भी रास्ता दिखा दे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत के पिताजी के दोस्त थे  शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर  असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने  का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.

अपेक्षा अक्सर घातक ही होती है अगर वह गलत वक्त पर गलत व्यक्तियों से की जाय और न तो न्याय संगत हो न ही तर्कसंगत. जहाँ तक साहब जी की मैडमकी बात है तो पुत्र का चयन भी राष्ट्रीय स्तर की प्रशासनिक परीक्षा में होने से उनके आत्मविश्वास, रौब और रुआब में कोई कमी नहीं आई थी. नारी जहां अपनी सोच और अपने रूखे व्यवहार का स्त्रोत बदलने में देर नहीं लगातीं वहीं पुरुष का आत्मविश्वास और ये सभी दुर्गुण उसके पदासीन होने तक ही रह पाते हैं पर हां आंच ठंडी होने में समय लगता है जो व्यक्ति के अनुसार ही अलग अलग होता है. तो साहब को सरकारी बंगले से सरकारी वाहन , सरकारी ड्राईवर, माली और प्यून के बिना खुद के घर में रहने के शॉक से गुजरना पड़ा. वो सारे रीढ़विहीन जी हुजूरे अब कट मारने लगे और मोबाइल भी इस तरह खामोश हो गया जैसे उनकी पदविहीनता को मौन श्रद्धांजलि दिये जा रहा हो. ये समय उन…

डॉक्टर, साहब जी की बीमारी समझ गये और अवसाद याने depression का पहले सामान्य इलाज ही किया. पर नतीजा शून्य था क्योंकि अवसाद की जड़ें गहरी थीं. थकहारकर एक्सपेरीमेंट के नाम पर सलाह दी कि “सर आप अपने घर के एक शानदार कमरे को ऑफिस बना लीजिए और वो सब रखिये जो आपके आलीशान चैंबर में रहा होगा. AC, heavy curtains, revolving chair, teakwood large table, two or three phones, intercoms, etc. etc. जब ये सब करना पड़ा तो किया गया और फिर सब कुछ उसी तरह सज गया सिर्फ कॉलबेल या इंटरकॉम को अटैंड करने वाले को छोड़कर. अंततः ऐसे मौके पर भूले हुए क्लासफेलो याद आये. सादर आमंत्रित किया गया. मालुम था कि असहमत को इस काम के लिये दोस्ती के नाम पर यूज़ किया जा सकता है. असहमत के पिता जी भी इंकार नहीं कर पाये, क्योंकि इस कहावत पर उनका विश्वास था कि कुछ भी हो, निवृत्त हाथी भी सवा लाख…

असहमत के ज्वाईन करते ही साहब का डमी ऑफिस शुरु हो गया. असहमत का रोल मल्टी टास्किंग था, पीर बावर्ची भिश्ती, खर सब कुछ वही था, सिर्फ आका का रोल साहब खुद निभा रहे थे.इस प्रयोग ने काफी प्रभावित किया, साहब को लगी अवसाद याने डिप्रेशन की बीमारी को और धीरे धीरे असहमत साहब का प्रिय विश्वासपात्र बनता गया.असहमत भी मिल रही importance और चाय, लंच, नाश्ते के कारण काफी अच्छा महसूस कर रहा था पर जो एक जगह रम जाये वो जोगी और असहमत नहीं और अभी तो बहुत कुछ घटना बाकी था जिसमें असहमत का हिसाब बराबर करना भी शामिल था. साहब भी बिना मलाई के अफसरी करते करते बोर भी हो गये थे और अतृप्त भी. चूंकि अपने मन की हर बात वो अब असहमत से शेयर करने लगे थे तो उन्होंने उससे दिल की बात कह ही डाली कि “वो अफसर ही क्या जो सिर्फ तनख्वाह पर पूरा ऑफिस चलाये ” और इसी बात पर ही असहमत के फ़ितरती दिमाग को रास्ता सूझ गया हिसाब बराबर करने का. तो अगले दिन इस डमी ऑफिस में कहानी के तीसरे पात्र का आगमन हुआ जो बिल्कुल हर कीमत पर अपना काम करवाने वाले ठेकेदारनुमा व्यक्तित्व का स्वामी था. साहब भी भूल गये कि ऑफिस डमी है और लेन देन का सौदा असहमत की मौजूदगी में होने लगा. आगंतुक ने अपने डमी रुके हुये बिल को पास करवाने की पेशगी रकम पांच सौ के नोटो की शक्ल में पेश की और साहब ने अपनी खिली हुई बांछो के साथ फौरन वो रकम लपक ली, थोड़ा गिना, थोड़ा अंदाज लगाया और जेब में रखकर हुक्म दिया “जाओ असहमत जरा इनकी फाईल निकाल कर ले आओ. फाईल अगर होती तो आती पर फाईल की जगह आई “एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम”. साहब हतप्रभ पर टीम चुस्त, पूरी प्रक्रिया हुई, हाथ धुलवाते ही पानी रंगीन और साहब का चेहरा रंगहीन. ये शॉक साहब को वास्तविकता के धरातल पर पटक गया और उन्होंने आयुक्त को समझाया कि सर ये सब नकली है और हमारे ऑफिस ऑफिस खेल का हिस्सा है. पर आयुक्त मानने को तैयार नहीं, कहा “पर नोट तो असली हैं, शिकायत भी असली है और शिकायतकर्ता भी असली है. आपका पुराना कस्टमर है और शायद पुराना हिसाब बराबर करने आया है. फिर उन्होंने रिश्वतखोर अफसर को अरेस्ट करने का आदेश दिया.

अरेस्ट होने की सिर्फ बात सुनकर ही साहब की सारी हेकड़ी निकल गई और अपने साथ साथ ले गई साहबी, अकड़, लालच, संवेदनहीनता, उपेक्षा करने की आदत, सब कुछ होने के बाद भी असंतुष्टि और साथ ही डिप्रेशन की बीमारी भी. सारा रौब पलायन होने के बाद व्यक्तित्व में आ गई निचले दर्जे की विनम्रता जिसे गिड़गिड़ाना भी कह सकते हैं. ये वह अवस्था होती है जब अपने अलावा उपस्थित हर व्यक्ति महत्वपूर्ण लगने लगता है. अंततः साहब को जो इलाज चाहिए था वो इस शॉक थेरैपी से मिल गया और असहमत के फितूरी दिमाग से रचे गये इस नाटक ने न केवल नाटक का पटाक्षेप किया बल्कि अपने हिसाब बराबर करने का मौका भी पाया. साहब की बीमारी के निदान और उनके हृदय परिवर्तन की खुशी में असहमत ने फिर अपने नकली बॉस को असली ऑर्डर दिया ” अंकल जी, जाइये इस पूरी टीम को और इसके नायक याने मेरे लिये, घर की बनी कड़क चाय और लजी़ज नाश्ते का इंतजाम कीजिये. कहानी यहीं खत्म हुई साहब भी अवसादहीन और प्रफुल्लित हुये और असहमत ने भी चाय नाश्ते के बाद घर की राह पकड़ी.

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस ?

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में भीड़ ऐसी कि पैर रखने को जगह नहीं। भारतीय समाज की विशेषता यही है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 102 – लघुकथा – धनलक्ष्मी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “धनलक्ष्मी । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 102 ☆

? लघुकथा – धनलक्ष्मी ?

लगातार व्यापार में मंदी और घर के तनाव से आकाश बहुत परेशान हो उठा था। घर का माहौल भी बिगड़ा हुआ था। कोई भी सही और सीधे मुंह बात नहीं कर रहा था। सभी को लग रहा था कि आकाश अपनी तरफ से बिजनेस पर ध्यान नहीं दे रहा है और घर का खर्च दिनों दिन बढ़ता चला जा रहा है।

आज सुबह उठा चाय और पेपर लेकर बैठा ही था कि अचानक आकाश के पिताजी की तबीयत खराब होने लगी घर में कोहराम मच गया। एक तो त्यौहार, उस पर कड़की और फिर ये हालात। किसी तरह हॉस्पिटल में भर्ती कराया। घर आकर पैसों को लेकर वह बहुत परेशान था कि पत्नी उमा आकर बोली… चिंता मत कीजिए सब ठीक हो जाएगा। मैं और तीनों बेटियों ने कुछ ना कुछ काम करके कुछ रुपये जमा कर रखा है, जो अब आपके काम आ सकता है। बेटियों ने ट्यूशन और सिलाई का काम किया है।

पिताजी का इलाज आराम से हो सकता है। आकाश अपनी तीनों बेटियों और पत्नी से नफरत करने लगा था। क्योंकि उसे तीन बेटियां हो गई थी। रुपयों से भरा बैग देकर उमा ने कहा… आपका ही है, आप पिताजी को स्वस्थ  कर घर ले कर आइए।

आकाश अपनी पत्नी और बेटियों का मुंह देखता ही रह गया। सदा एक दूसरे को कोसा करते थे परिवार में सभी लोग। परंतु आज वह रुपए लेकर अस्पताल गया, मां समझ ना सकी कि इतने रुपए कहां से लाया।

मां ने समझाया… आज धनतेरस है शाम को मैं तेरे बाबूजी के साथ रह लूंगी। घर जा कर पूजा कर लेना।

पूजा का सामान लेकर वह घर पहुंचा। पत्नी ने सारी तैयारी कर रखी थी और तीनों बेटियों को लेकर एक जगह बैठ गई थी। आकाश ने पूजा शुरू की और आज सबसे पहले अपनी धनलक्ष्मी और धनबेटियों को पुष्प हार पहना, तिलक लगाकर वह बहुत प्रसन्न था।

मन ही मन सोच रहा था सही मायने में आज तक मैं लक्ष्मी का अपमान करता रहा आज सही धनतेरस की पूजा हुई है। उमा और तीनों बेटियां बस अपने पिताजी को देखे जा रही थी। घर दीपों से जगमगा रहा था। बेटियों ने बरसों बाद अपने पिताजी को गले लगाया और माँ के नेत्र तो आंसुओं से भीगते चले जा रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ रद्दीवाला ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय कहानी  रद्दीवाला। )

☆ कथा – कहानी ☆ !! ” रद्दीवाला ” !! ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी , अपनी चार चक्कों की गाड़ी , जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए -वह कबाड़ी ” ,रद्दी..,-पुराना.,.सामान..रद्दी..” की आवाज लगाता घूमता  रहता । अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने  अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का,उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एका-ध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है।कभी-कभार एका-ध छोटा-मोटा सामान उठा लेना,बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं । रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।

उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा-” मै बाहर जा,रही हूँ ,  इससे तीस रूपये ले लेना । ” कह वह चली गई।

मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा । पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा-” कोई जल्दी नहीं,  आराम से देना,  थोड़ा सुस्ता लो। ” वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। ” पानी पीओगे ? ” मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।

मेरे पानी देने पर , पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा- ” शुक्रिया “

“अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ?  “

“पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है । “

 मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा  लगा। पुराने ही सही,  बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं  उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।

“इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला  है , या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत  देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। “दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों  में एक चमक भरते बोला-” फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं , तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।”

“दो माले जैसे….? ” मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि….,

रद्दीवाला जब ” रद्दी…रद्दी…” की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर   ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ” ये सब उठा लो ” सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की…,  ” तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा। ‘  सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि….”  रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा। “

बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में…, आश्चर्य और प्रसन्नता  है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- ” मैंने कौन-सा स्साला पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।”  रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा,  साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।

अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी “रद्दी- रद्दी” की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।

आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,” -ऐ… जाता कहाँ..?… पैसे…?” 

वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का-सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि ” साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए….- । ”  उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया।  फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ ” ऐ…, जाता कहाँ…?… पैसे…?”  अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।

इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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