हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #6 – शब्बो-राजा ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है   – शब्बो-राजा )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #6 – शब्बो-राजा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

ज्येष्ठ-आषाढ़ यानि मई-जून के महीनों में पलकमती नदी के तन का पानी सूख जाता है। किनारे  फटने लगते हैं। शहर के मवेशियों के झुंड सुबह-सुबह खुरों से धूल उड़ाते हुए जंगल में घास चरने जाते और शाम को वापस अपने ठौर पर लौटते हैं। बस्ती के लोग भी गरमी से बेहाल अपने घरों में क़ैद हो जाते थे। बारिश की आस में सोहागपुरी सुराहियों के ठंडे पानी से प्यास बुझाते थे।

सावन-भादों यानी जुलाई-अगस्त के महीनों में मानसूनी बादल पहाड़ों के शिखरों से नर्मदा की तलहटी तक पूरी ज़मीन को तर-बतर करके वातावरण को एक रूमानी ख़ुशबू से सराबोर कर देते हैं। पलकमती नदी किनारों को तोड़ती हुई बहने लगती थी। पहाड़ों से तेज़ बहाव के उन्माद में बहकर आतीं बड़ी छोटी इमारती और जलाऊ लकड़ी पकड़ने के लिए तारबाहर के कुछ दुस्साहसी युवक नदी में कूदकर लकड़ियों को पकड़ते थे। उनमें राजाराम, मुराद खान और  मुन्ना खान प्रमुख थे। साथ में लखन यादव, हरि शंकर ग्वालि, सुरेश पटवा भी मुझ उफनती नदी में एक किनारे से कूद लकड़ी पर सवार होकर दूसरे किनारे लग जाया करते थे। जैसा उन्माद मेरे बहाव में होता था वैसा ही ख़ून का उबाल उन जवानों के ख़ून और अरमानों में था। वे उफान से भरी नदी में कूद भँवर से बचते हुए लकड़ी के भारी लक्कड़ पर सवार होकर अपने आपको अकबर बादशाह समझते हुए दूसरी पार लग जाते थे।

आज़ादी के बाद अंग्रेज़ यहाँ से चले गए। लेकिन एक एडवर्ड डेरिक वॉन अपने पाँच लड़कों जॉर्ज, विन्स्टोन, एडवर्ड, एडविन और हेनरी व एक लड़की गार्ड़िनिया के साथ यहीं तारबाहर में रेल लाइन के किनारे बस गए। रनिंग-रूम के मुख्य ख़ानसामा शेख़ हयात और उनके दो सहायक असग़र और दिलावर भी परिवार बसा कर उनके पास ही जम गए थे। असग़र का मुराद और दिलावर का मुन्ना नाम का लड़का था। दिलावर की एक लड़की शबनम भी थी। घर-मुहल्ले में उसे शब्बो के नाम से बुलाते थे। उनके पीछे कल्लू और दम्मु धोबी के भरेपूरे परिवार रहते थे।

मुराद और मुन्ना रेल्वे लाइन के किनारे बने घरों में पड़ोसी थे। वे मुहल्ले की बकरियाँ और कुछ गाय-भैंस जंगल में ले जाकर चराया करते थे। रामचरन धोबी का लड़का राजाराम भी कभी-कभी उनके साथ जाया करता था। वे तीनो एक साथ गिल्ली-डंडा, गड़ा-गेंद सुआ-कंचा या अण्डा-डावरी खेला करते थे। तीनो की उम्र यही कुछ 18-20 के बीच थी। मार्च के  महीने में एक दिन राजाराम दोपहर में मुन्ना को खेलने के लिए बुलाने आया। मुन्ना और मुराद बकरी चराने गए हुए थे। माता-पिता भी काम से बाहर गए थे।

मुन्ना की बहिन शब्बो घर पर अकेली थी। उसकी उम्र यही 16-17 साल के आसपास थी। शादी की बात चलती लेकिन दहेज की रक़म न होने से बात बन नहीं पाती थी। यौवन उसका शबाब पर था। उसके उरोजों और नितम्बों में पुष्ट भराव और कटि पर दुबलापन उसकी चाल में एक लहर पैदा करता था। उसकी चाल की मस्ती जवान लड़कों के दिलों में तीर की तरह उतर जाती थी। ऋषि वात्सायन के हिसाब से वह मृगी जातक की कन्या थी। जब चलती थी तो उसके सुडौल गोलाकार नितम्ब आपस में टकरा कर देखने वाले के दिल में स्पंदन पैदा करते थे। उसे इसका अहसास रहता कि लड़के उसे पीछे से निहारते हैं। वह और भी लहरिया चाल से चलती थी।

राजाराम सुबह भट्टी से कपड़े उतारने से लेकर शाम को धुलाई से प्रेस तक के काम दिन भर करता था। माँ-बाप का सबसे छोटा लड़का होने से उसकी खिलाई पिलाई अच्छी थी। मटन-मछली उसके रोज़ के खाने में शामिल रहती थी। राजाराम औसत क़द का भरी-भरी पुष्ट माँसपेशियों वाला वृषभ जाति का गबरू जवान पुरुष था। क्रिकेटर सचिन और धोनी जैसा ऊर्जा और उत्साह से लबालब भरा।

जब राजा शब्बो के घर पहुँचा तब वो बोरों  से ढाँक कर बने कच्चे गुसलखाने में नहा रही थी। उसने बोरों की झीनी परत से राजा को आते देख लिया। राजा गुसलखाने के बिलकुल नज़दीक आकर आवाज़ लगा रहा था। शब्बो साँस थामकर बैठी रही। राजा की आवाज़ आनी बंद हो गई तो उसने नहाने के लिए बदन पर पानी उँडेला। राजा वहीं खड़ा था उसने चौंक कर गुसलखाने में झाँका तो वह शबनम में भीगे जादुई सौंदर्य को देखता ही रह गया। शब्बो ने उसी समय ऊपर देखा तो वह भी अपलक राजा की आँखों में खो गई। जिसे लोग पहले नज़र का इश्क़ कहते हैं, दोनो को वही हो गया था। राजा और शब्बो के दिलों में कामदेव विराजमान हो चुके थे। वे अपने आप में खोए-खोए रहने लगे। शब्बो आँटा गूँथते, कुएँ से पानी भरकर लाते, बकरियों को दुहते और चौका-बर्तन समेटते हर समय अनमनी और खोई-खोई सी रहने लगी। माँ के बुलाने पर उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उससे बात करता तो एकटक उसे देखे जाती। उसकी आँखों में एक नशा सा छाया रहता था। उसका शबाब पहले से और भी ज़्यादा निखर आया था। मुहल्ले की सारी औरतें उससे जलतीं और उसकी ग़ज़ब की सुंदरता का राज पूछती वह बेचारी हल्की सी मुस्कान छोड़कर चली जाती।

ऐसा ही कुछ हाल राजा का था। वह नदी किनारे धोबी घाट की सिल पर कपड़े फींचता तो कपड़े फटने तक फींचता जाता था। प्रेस करता तो एक ही कपड़े पर स्त्री चलाता जाता था। काम से फ़ुरसत होकर वह केबिन से सिगनल खींचने वाले साँडे पर आकर बैठ जाता, जहाँ से शब्बो का घर सीधा दिखता था। शाम होते ही यह रिवाज सा था कि गोपाल सेठ की हवेली से पंडा बाबू और वॉन साहिब के घर से पोटर खोली तक लोग चड्डी-बनियान पर ही वहाँ आकर बतियाते रहते थे। लेकिन वॉन साहिब हमेशा ख़ाकी ड्रेस में घुटनों तक जुराबें पहनकर जूतों में टिपटाप आते थे। उनका हैट हमेशा सिर पर रहता था। नसवार सूँघी लाल नाक उसके ऊपर दो पैनी गोल आँखें सामने वाले को तौलती हुई सी देखतीं रहतीं थीं।

सोहागपुर में आज भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ इश्क़ज़दा लोग एक दूसरे को जी भरकर देख सकें, बातें कर सकें, मिल सकें। एक ही उपाय है कि भाई-बहन का दिखावटी रिश्ता क़ायम कर लो तब मिलना सम्भव है। अब थोड़े लोग मड़ई तरफ़ मोटर साइकल पर निकलने लगे हैं। लेकिन उस ज़माने में मोटर साइकल के बारे में तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे। साइकिल भी लोगों के पास नहीं होती थी। दोनो कसमसाकर रह जाते थे। मुहब्बत न रिवाज जानती है, न धर्म और न हैसियत, बस हो जाती है। बिना कुछ सोचे-समझे। सोच-समझ कर रिश्ता तो हो सकता है पर मुहब्बत नहीं। जो मुहब्बत के पचड़े में पड़ते हैं उनमें से गिने चुने सफल होते हैं बाक़ी नाकाम होकर उसी नाकामी के साथ ज़िंदगी गुज़ारते हैं या उसे अंदरूनी ताक़त बनाकर सारी मुश्किलों से पार निकल जाते हैं। कुछ भाई-बहन के रिश्ते के रास्ते से मुहब्बत के बारीक धागे को ज़माने की सुई में पिरोकर इश्क़ का पैरहन उधेड़-उधेड़ कर ताज़िंदगी सीते रहते हैं। देखें, हमारे इन दो मुहब्बतज़दा किरदारों की क़िस्मत में क्या लिखा है।

मिलने की सूरत या तो डोल ग्यारस की रात को जब बच्चे बूढ़े जवान पूरी रात गणेश प्रतिमा और झाँकी देखने निकलते, तब सम्भव थी या मुहर्रम की रात या दशहरा की रात जब थाने के पीछे जहाँ अब दुकानें लग गयीं हैं वहाँ ताज़िये मुहर्रम पर या दुर्गा मूर्ति दशहरे पर पूरी रात रखी जातीं थीं। तब तक दिल में लगी आग सुलगते रहती रही। ऊपर राख जम जाती थी परंतु अंदर शोले भड़कते रहते थे।

उस साल मुहर्रम और दशहरा एक ही दिन पड़े थे। दुर्गा प्रतिमा थाने के पीछे और ताज़िये पलकमती नदी किनारे मछली बाज़ार तरफ़ रखे गए थे। हिंदू मुसलमान बिना किसी भेद-भाव के दुर्गा दर्शन और ताज़िये के नीचे से निकलने की रस्म निभा रहे थे। शब्बो अपनी अम्मी के साथ बस्ती के रिश्तेदारों के बीच वहाँ बैठी थी जहाँ ताज़िये रखे थे। राजा दुर्गा प्रतिमा देख कर दोस्तों के साथ ताज़िये की तरफ़ जा रहा था वहीं शब्बो ताज़िये देख कर दुर्गा प्रतिमा की तरफ़ जा रही थी। दोनों की नज़रें मिली। बात हो गई। राजा तबियत ठीक न होने का बहाना करके दोस्तों से विदा होकर घर की तरफ़ चला। थोड़ी दूर जाकर वह शब्बो को ढूँढने दशहरा मैदान की तरफ़ मुड़ लिया। उसकी आँखें शब्बो से मिलीं। आँखों-आँखों में मिलने का इकरार हुआ। थोड़ी देर बाद शब्बो निस्तार के बहाने एक छोटी लड़की के साथ निकली और रास्ते में से उसे वापस विदा करके राजा का हाथ थाम के पुल के नीचे आ पहुँची। दोनो आलिंगनबद्ध होकर सुधबुध भूल कर खड़े रहे। जैसे अब कभी जुदा नहीं होना है।

मुराद और मुन्ना पुल की दूसरी ओर से जहाँ ताज़िये रखे थे वहाँ से निस्तार के लिए पुल के नीचे पहुँचे तो वहाँ कुछ साये उनको दिखाई दिए। कौतूहल वश वे वहाँ पहुँचे तो राजा और शब्बो को एक दूसरे की बाहों में समाए देखा। राजा ने कहा कि वो शब्बो को निस्तार के लिए लाया था।

मुराद मन ही मन शब्बो को चाहता था। वह सब समझ गया। उसके तन बदन में आग लग गयी। बात आयी गई हो गई। मुराद राजा और शब्बो पर नज़र रखने लगा। उसका शक पक्का हो गया कि मुहब्बत का खेल चल रहा है। जो उसे पूरी चाहिए थी शायद बँट गई है। शब्बो की मुस्कान जूठी हो गई है। शब्बो का राजा से लिपटता साया सोते जागते उसकी आँखों के सामने नाचता रहता था। उसकी सांसें तेज़ और तेज़ होती जाती थीं। वह अपनी मज़बूत बाँहों में ऐसी ताक़त महसूस करता था कि यदि चाँद को पकड़ पाए तो उसे लोंच खरोंच कर रुई के फ़वबों की तरह आसमान में बिखेर दे। चाँद के हल्के काले दाग़ में हाथ घुसेड़ कर बीच से चीर दे। वह रोटी का एक टुकड़ा हड्डी वाले मटन टुकड़े के साथ मुँह में डालता और चबाता रहता जब तक कि गोश्त लिपटी हड्डी चूर-चूर होकर उसके ऊदर में न समा जाती। सुख-दुःख, मिलन-विछोह, रात-दिन की तरह  मुहब्बत-अदावत का भी चोली-दामन का साथ है। ये कभी अलग नहीं होती हैं। एक दूसरे के पीछे चिपकी चली आती हैं। ईसा से 600 साल पहले बुद्ध ने कहा था कि राग के साथ द्वेष भी सहज ही उत्पन्न होता है। दो लोग प्रेम में रहते हैं तो दुनिया के लोगों को सहज ही अच्छा नहीं लगता। माँ भी जब एक बच्चे को दुलार करती है तो दूसरे को अच्छा नहीं लगता। लोग प्रेम का जाप ज़रूर करते हैं लेकिन दुनिया को चलाने वाली चीज़ द्वेष है। राजा और शब्बो के प्रेम प्रसंग में भी राजा, मुराद और मुन्ना के बीच घातक द्वेष ने जन्म ले लिया। मुराद बार-बार मुन्ना से राजा और शब्बो के प्रसंग की बात उनके माता-पिता को बताने को कहता। मुन्ना के पिता को हृदय रोग था। तनावपूर्ण स्थिति उनकी जान ले सकती थी। इसलिए मुन्ना उन्हें नहीं बताना चाहता था। इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता था।

दूसरी तरफ़ आशिक़ और माशूक़ के दिलों में मुहब्बत की आग भड़क रही थी। दशहरे की रात के आलिंगन से उनके बदन की ख़ुशबू एक दूसरे में समा चुकी थी। वह ख़ुशबू उन्हें एक दूसरे के पास खींच लाती थी। शब्बो का चेहरा और दमकने लगा था। जब राजा रेल्वे लाइन के नज़दीक कैबिन से निकल कर सिग्नल तक जाते सांडों पर आकर बैठता तो शब्बो दालान में बड़ा आईना लेकर ऐसे कोण पर रखकर  सँवरने लगती जहाँ से उसके पीछे बैठा राजा उसे पूरा दिखता और राजा वहाँ से उसका चेहरा देख पाता था। मुराद और मुन्ना यह देख कर जल-भुन कर रह जाते। मुन्ना शब्बो के बाल खींचकर आईना उठा उसे कमरे के अंदर धकेल कर कुँडी चढ़ा देता। प्रेमी-प्रेमिकाओं के मार्ग की बाधाएँ उनकी आग और भड़का देती।

पलकमती नदी सोहागपुर में घुसने के पहले ईसाई क़ब्रिस्तान तक पूर्व से पश्चिम की तरफ़ बहती है। वहाँ से उत्तर की ओर घूम जाती है। नदियों की चाल कुछ-कुछ साँपों जैसी होती है,  सीधी-सपाट न चलकर सर्पाकार चलती हैं। जहाँ ऊँची ज़मीन या रुकावट आई वहाँ से मुड़ जाती हैं। ऐसा लचीलापन आदमी को भी ज़िंदगी गुज़ारने  में सहायक होता है। डारविन ने भी विकासवाद का सिद्धांत गढ़ते समय जल की इसी विशेषता को ध्यान में लाकर उन जीवों की सूची बनाई थी जो सामने कठिनाई आने पर बदलना शुरू कर देते हैं। उसने दुनिया के सामने origin of species जैसी महानतम खोज दुनिया को दी जिससे आज के मानव जीवन को सरल स्वस्थ और आनंददायक बनाया जा  सके।

नदी किनारे क़ब्रिस्तान के बाद बाएँ हाथ पर तीन-चार घर चर्मकारों के फिर बसोडों  के थे। वे आसपास के गाँव में मरे मवेशियों का चमड़ा नदी किनारे पर डालकर ही उतारा करते थे। जानवर के शव को जंगली कुत्ते या सियार न ख़राब कर  पाएँ, उसके पहले ही उनको यह काम करना होता था क्योंकि हिंसक जानवर मृत पशु के चमड़े को जगह-जगह से काट कर ख़राब कर देते थे। चमड़ा उतारने वाले अपनी खुरपी से पुट्ठों की तरफ़ से चमड़ा उतरना शुरू करते थे। कंधों तक एक पूरा चमड़ा उतार लेते थे। जंगली कुत्ते, सियार, गिद्द, कौवे उनके ऊपर मँडराते रहते थे। वे किसी योगी की साधना से काम में रत रहते थे। काम कोई भी हो लगन से ही कुशलता आती है। जानवरों की हड्डियाँ एकत्र करके बड़े शहरों में उद्योगपतियों को बेच आते थे। वे उनको गोली-कैप्सूल पैक करने की जिलेटिन बनाने या शक्कर बनाने के लिए सल्फ़र के रूप में उपयोग कर लेते थे।

चमार-बसोड के घरों के बाद ग्वालियों की बस्ती शुरू होती थी। पहला घर जैरमा ग्वाली का पड़ता था। जिसकी ग्वालिन बहुत मोटी थी। साठ चुन्नट का बड़ा घेरदार लहंगा पहनती थी। सामने करबला घाट था। वहाँ उस समय चार-पाँच पुरुष पानी भरा रहता था। लड़के बीस फ़ुट ऊँचाई से डाई लगाकर नदी के अंदर ड़ुपकी लगाते थे। मुराद, मुन्ना, राजा, सुरेश, इमरत, लखन, मदन, सुमा सब वहाँ नहाने आते थे। घाट की दूसरी तरफ़ रेत का बड़ा सा मैदान था, जिसमें शंकर लाल पहलवान आठ दस पट्ठों को कुश्ती सिखाया करते थे। लड़के उन्हें शंकर भैया कह कर बुलाते थे। सोहागपुर के लोगों में यह चलन है कि वे जिसे सम्मान देना हो उसे भैया कहकर सम्बोधित करने लगते थे। जैसे अरविन्द भैया, रज्जन भैया, रवि भैया, शरद भैया, रम्मु भैया आदि-आदि।

कुश्ती सीखने वालों में राजा का बड़ा भाई गुड्डा भी आता था। एक दिन उसके साथ राजा भी आया। वो सुरेश के पास बैठ गया। कुश्ती-रियाज़ ख़त्म होने के बाद उसने अपनी प्रेम कहानी सुरेश को सुनाई और मुश्किल बताई कि मुराद और मुन्ना सब जान गए हैं। सुरेश उस समय लंगोट का पक्का और हनुमान भक्त पहलवान था। किताबें और कुश्ती उसके शौक़ थे। वह रोज़ हनुमान चालीसा और शनिवार को सुंदरकाण्ड का पाठ करता था। उसने राजा को अपनी सोच के हिसाब से और दोनो के अलग धर्म की दुहाई देकर शब्बो को भुलाने की समझाइश दी परंतु वह उलटे घड़े पर पानी डालने जैसा था। राजा के दिमाग़ के अंदर कुछ भी नहीं गया।

प्रेमांध लोग कुछ भी कर सकते हैं। तुलसीदास साँप को रस्सी समझ कर हवेली पर चढ़ रत्नावली के पास पहुँचे थे। उस समय गरमियों में लोग खटिया डालकर आँगन में सोया करते थे। वह चैत की चाँदनी भरी रात थी। राजा को नींद नहीं आ रही थी। वह आसमान में खिले चाँद सितारों को निहार रहा था। अचानक उठा और शब्बो के घर की तरफ़ चल दिया। साँड़े पर जाकर बैठ गया। सामने आँगन में शब्बो अपनी माँ के साथ सो रही थी। थोड़ी दूर से पलंग से उसके पिता उठे और शब्बो की माँ को धीरे से जगाकर घर के भीतर ले गए। खिली चाँदनी में राजा ने देखा तो उससे रहा नहीं गया वह उठा और खटिया के नज़दीक पहुँचा। देखा ज़माने से बेख़बर उसकी शब्बो गहरी नींद में सोई हुई थी। उसने शब्बो के चेहरे पर हाथ फेरा तो वो चौंककर उठ पड़ी। उसने राजा को भींचकर गले लगा लिया। अगले ही क्षण वह काँप उठी। उसने राजा को धक्के देकर भाग जाने को कहा। राजा खटिया से नीचे गिरा। आवाज़ से मुन्ना जाग गया। राजा उठ कर भागा। तब तक बाजु के आँगन में मुराद भी जाग गया था। दोनों ने राजा को भागते हुए देख लिया।

चीता जब शिकार पर झपट्टा मारता है तो थोड़ा पीछे झुक जाता है। मुराद और मुन्ना ने राजा पर कुछ भी प्रकट न होने दिया। खेलना कूदना सामान्य रखा। शाम को राजा को  घर बुलाया ताज़ी मछली सालन के साथ रोटी चावल खाया। उसके अगली दोपहर को बंशी लेकर मछली पकड़ने का कार्यक्रम बन गया। मुराद मुन्ना और राजा तीनों वंशी, तिलेंडा, केंचुए, आँटे की गोलियाँ और रोटियों के बीच में तली मिर्चियाँ रखकर ईसाई क़ब्रिस्तान के किनारे से निकलकर नयागाँव के बाहर-बाहर नदी किनारे बस्ती से तक़रीबन तीन मील दूर वहाँ पहुँचे जहाँ पानी गहरा था और मछली ख़ूब थीं।

तीनों अपनी वंशी डालकर तिलेंडा हिलने का इंतज़ार करते। जब गल का हुक मछली के गलफड़ें में फँस जाता तो ऊपर का तिलेंडा हिलता। ठीक उसी समय जिस दिशा में वह हिल रहा है उसकी उलटी दिशा में वंशी को  तेज़ी से खींच देते। मछली फड़फड़ातीं हुई हाथ में आ जाती। शाम हो चली थी। पक्षी अपने डेरों पर लौटने लगे थे। उन तीनो ने रोटी मिर्ची खाईं, फिर लेट गए। मुराद ने एक लम्बी रस्सी निकाली और एक खेल की पेशकश की। रस्सी से एक के हाथ पैर बाँध दिए जाएँगे उसे ख़ुद खोलना होगा। पहले कौन बँधेगा कहने भर की देर थी। राजा बोला मैं। उसे जोखिम भरे खेल खेलने का बहुत शौक़ था। मुराद और मुन्ना ने राजा को नदी किनारे ही एक ऊँची जगह पर पैर लटका कर बिठाया। मुन्ना राजा के हाथ पीछे बाँधने लगा। बाँधकर उसने रस्सी नीचे मुराद की तरफ़ फेंकी। हाथ पर रस्सी की कसावट से राजा को कुछ शक हुआ लेकिन वो बैठा रहा। मुराद उसके पैर में रस्सी खींचकर बाँधने लगा। उसका ग़ुस्से से तमतमाता चेहरा राजा के सामने था। राजा ने उसे देखा तो दहल गया। उसने पैर फेंकना शुरू ही किया था कि मुराद ने अपनी कमर में शर्ट के अंदर रखा हुआ ख़ंजर निकाला और राजा के पेट में सीधा भौंक दिया। राजा सीधा मुराद के ऊपर गिरा। मुराद ने ख़ंजर नहीं छोड़ा। राजा के पेट से निकाल कर तीन बार और उसकी आँतों में घुसा कर घुमा दिया। राजा की आँते बाहर लटक गईं। मुराद और मुन्ना सन्न रह गए। मुन्ना बोला- यार अपन ने तो सोचा था कि इसे रस्सी से बाँधकर नदी में डाल देंगे। दम निकल जाने पर रस्सी खोलकर डूबकर मर जाने की बात बता देंगे। फिर उन्होंने वहीं गड्डे में लाश को दबाया, काँटेदार झड़ियाँ लाकर उसके ऊपर रख दीं। नदी में ख़ंजर और कपड़े धोकर घर लौट गए।

रात को क़बरबिज्जु और सियारों ने राजा के शव को निकाल कर खाया। सुबह गिद्द मँडराने लगे। चमारों ने देखा की गिद्द कहाँ उड़ रहे हैं। वे खुरपी लेकर उस दिशा में चल दिए। जो देखा उसकी ख़बर पुलिस को दी। पोस्टमार्टम हुआ। प्रेमी की लाश सुपुर्देख़ाक कर दी गई। मुराद और मुन्ना को ख़ंजर सहित बंदी बनाया गया। सोहागपुर में सनसनी फैल गई। प्रकरण चला सरकारी वक़ील डब्लू. एन. शर्मा ने अभियोजन पक्ष की ओर से एवं मूसा वक़ील ने बचाव पक्ष की ओर से पैरवी की। घटना का कारण एक ख़ूनी-अदावत थी। अब घटना की चीरफाड़ एक अदालत में होने लगी। वह अदालत भी नदी किनारे पर ही है। राजा को जब ख़ंजर मारा तो वह मुराद के ऊपर गिरा उस समय ख़ंजर उसके फेंफड़ों तक गप गया था और उसकी तत्काल मौत हो गई थी। क़ब्रिस्तान के चौकीदार और नयागाँव ने खेतों में मौजूद किसानों ने उन तीनों को जाते देखा था और मुराद व मुन्ना ही लौटकर आए थे। ख़ंजर और ख़ून सने कपड़े अभियुक्तों से बरामद हुए थे। उनका इक़बालिया बयान पुलिस ने अदालत के सामने रखा था। हत्या का आरोप  सिद्ध हुआ। उस समय लोगों की उम्र बाप से पूछकर तय की जाती थी। जन्म प्रमाण पत्र नहीं होते थे। मूसा वक़ील ने मुराद और मुन्ना के वालिदान से एक शपथ-पत्र दिलवा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की थी, कि आरोपी अपराध के समय नाबालिग़ थे। लेकिन अभियोजन पक्ष ने वालिदान द्वारा स्कूल में भर्ती करते समय लिखाई गई तारीख़ का साक्ष्य पेश कर दिया, जिस पर आरोपियों के वालिदान के दस्तखत थे।  मुराद और मुन्ना को बीस-बीस साल की बामशक़्क़त क़ैद की सज़ा सुनाई गई।

शब्बो पथरा गई थी। उसने खाना छोड़ दिया था। उसका दिमाग़ फिर गया था। “आजा-राजा आजा-राजा” चिल्लाते पड़ी रहती थी। चार महीने जी सकी वो, फिर वो भी अल्लाह को प्यारी हो गई। जिसने जीवन दिया, प्रेम दिया लेकिन जीने नहीं दिया। उसने या रिवायत ने या दीवारों ने या ख़ुदगर्ज़ी ने या कपट ने। पता नहीं कैसी दुनिया और कैसा समाज बनाया है इन इंसानों ने। सतपुड़ा के आँचल में पलते गोंड़, भील और कोरखू लोगों में ऐसी रवायत नहीं है। प्यार होता है। पता भी नहीं चलता। एक दूसरे के हो जाते हैं। ज़िंदगी मज़े से गुज़ार के गुज़रते हैं। किसी को ख़बर तक नहीं होती। मुन्ना और मुराद के बाप और मुन्ना की माँ इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके। सज़ा की एलानी के साथ वो भी क़ब्रिस्तान की नज़र हुए। मुराद की एक बहन मग्गो बची थी। जिसे मुहल्ले वालों ने सम्भाला। एक चिंगारी सात ज़िंदगी समय से पहले भस्म कर गई। कुछ लोगों ने उस घटना को मज़हबी रंग देने की कोशिश की थी लेकिन दोनों मज़हब के समझदार बुज़ुर्गों ने मामले को सम्भाला। वैसे भी सोहागपुर में समवेत संस्कृति शुरू से ही विकसित हुई है। हिंदू-मुसलमान-ईसाई-सिक्ख सभी यहाँ मिलकर रहते और त्योहार मानते रहे हैं।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #53 – समय का सदुपयोग ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52  ? समय का सदुपयोग ?  श्री आशीष कुमार☆

किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।

एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।

उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।

अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।

तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।

उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।

आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।

साधु ने कहा – तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।

शिक्षा:- जो व्यक्ति काम को टालता रहता है, समय का सदुपयोग नहीं करता और केवल भाग्य भरोसे रहता है वह हमेशा दुःखी रहता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ खेळायची खोली भाग २ ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

☆ जीवन रंग ☆ खेळायची खोली भाग २  ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

धुसफुसत शुकतारा उठली. “मला फक्त एवढंच म्हणायचंय की ते सगळं तुम्ही माझ्यावर सोपवा. उद्या जर असंच उकडत असलं तर तुम्ही…”

विषयांतर करण्यासाठी चंद्रोदयनं विचारलं, “पाखी कुठंय?”

“बबनूच्या घरी गेलीय. सारा वेळ फक्त खेळ आणि खेळ! म्हटलं टेप चालू करून देते, नाचाची प्रॅक्टीस कर. पोरीचं उत्तर – नाही. चित्र काढ – नाही. टॉम अँड जेरी बघ – नाही. सगळ्याला नाही म्हणण्यात पोर पटाईत. अगदी तुमच्यासारखी!”

शेवटच्या वाक्यातला खोचक भाव चंद्रोदयने सहन केला. स्वाभाविक होत चंद्रोदय म्हणाला, “पाखीला एकदा हाका मारून बघ ना. आली तर तिच्याशी थोडा वेळ गप्पागोष्टी करीन.”

अचानक भुवया उंचावून ठेच लागलेल्या माणसाप्रमाणे शुकतारा त्याच्याकडे पाहू लागली. शंकाकुल होत म्हणाली, “मी तिला घेऊन येते पण कृपा करून पोरीला बिघडवू नका.”

शुकतारानं हळूच डोळ्यातलं पाणी पुसलं. आज संध्याकाळी पाखीच्या नाचाची रंगीत तालीम. रंगीत तालमीसाठी प्रिटोरिया हॉलमध्ये पाखीला घेऊन जाणं तिच्या आजीला जमलं नसतं. कंबर धरल्यामुळे शुकताराला त्या दिवशी सरळ उभंही राहता येत नव्हतं. शुकताराच्या शरीरानं आज संप पुकारला होता. आजच्या महत्वाच्या दिवशी या दुखण्यानं डोकं वर काढलं नसतं तर चाललं नसतं का? आता पाखीला कोण घेऊन जाईल?

इतके दिवस घेतलेली मेहनत फुकट जाणार की काय, अशी भीती वाटली तिला! तसं झालं असतं तर चंद्रोदयला तोंड दाखवायची तिला लाज वाटली असती. तिला हार मानावी लागली असती. त्याच्यापाशी दूरदृष्टी होती. त्याचे विचारही पारदर्शी असत. एवढं समजत असलं तरी अभ्यासाव्यतिरिक्त कोणत्याही बाबतीत पाखीने प्राविण्य मिळवावं असं काही त्याला वाटत नसे. स्वत: काही करत नाही, पण देहबोलीतून शुकताराच्या मार्गात अडथळे आणतो.

ए.सी. सहन होत नाही म्हणून नंदिता दुसऱ्या खोलीत झोपली होती. ताबडतोब आईशी बोलायला हवं. संध्याकाळ होण्याआधीच पर्यायी व्यवस्था करायला हवी. तितक्यात  शुकताराला दिपांजनाच्या आईची-रेणूची आठवण झाली. ‘रंगीत तालमीसाठी पाखीलाही घेऊन जा’ अशी तिला गळ घालता आली असती. तिने रेणूला फोन लावला. सगळी हकीकत ऐकल्यावर रेणू म्हणाली, “आज मी गडियात माझ्या माहेरी आलेय. आई-बाबांच्या लग्नाचा आज तिसावा वाढदिवस आहे. अनेक नातेवाईक येणार आहेत. ते सर्व सोडून बाहेर पडणं मला जमणार नाही.”रेणूने फोन ठेवला. शुकतारा आणखीच अस्वस्थ झाली.

श्री हर्ष दत्त यांनी लिहिलेल्या ‘पाखिदेर खेलाघर’ या बंगाली कथेचा भावानुवाद

अनुवाद – सुश्री सुमती जोशी

मोबाईल ९८३३२२२१०६. ई-मेल आयडी [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 67 ☆ जख्म ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  एक विचारणीय एवं प्रेरक लघुकथा जख्म।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 67 ☆

☆ जख्म ☆

दोस्तों से आगे निकलने की होड़ में वह पिता की हिदायत भूल गया – उस बदनाम गली से कभी मत जाना। कंधे पर स्कूल का बैग लिए वह दौड़ रहा था और आँखों की कोरों से देख रहा था अजीब मंजर, तरह – तरह के इशारे करती लड़कियां, जवान औरतें, प्रौढा भी। होठों पर गहरी लाली, मुँह में पान – तंबाकू भरा हुआ।  चेहरे पर अजीब से हाव – भाव। अब तो आ गया था इस गली में? दोस्तों से रेस जीत गया था लेकिन आँखों की कोरों से दिखे नजारे उसे बेचैन कर रहे थे, कौन थीं वो औरतें?       

दूसरे दिन वह फिर निकला उस गली से, अनजाने में नहीं। वह दौड़ रहा था पर थोडा धीरे, सामने थे फिर वही दृश्य, वही हाव – भाव। यहाँ हर दिन सब कुछ एक सा क्यों है?  पिता की सख्त नाराजगी और उस गली की औरतों के ताने सुनने के बाद भी वह रोज उस गली से गुजरने लगा। अब दौड़ता नहीं था। दौड़ना है ही नहीं, ये ट्रेन की खिडकी से दिखते चित्र थोडे ही हैं जो ट्रेन की रफ्तार के साथ तेजी से गायब होते जाते हैं। बदनाम गली का एक चित्र उभरा – माँ ने सात आठ साल के लडके को पैसे दिये – जा बाजार से कुछ खा लेना और कमरे में चली गई किसी  के साथ। किसी प्रौढा स्त्री के लिए एक समय का खाना ही काफी था कमरे में बंद होने के लिए। आँचल में बच्ची को समेटे नाबालिग लड़की को कलपते सुना – दीमक लग गई  हमारे जीवन में तो, बच्ची का क्या होगा।

जख्म गहरा था, बदनाम गली कह देने से क्या होगा? ‘तिरे जे बूडे सब अंग’। वह फिर गया उस गली में और रुक गया उस बिलखती  माँ के सामने – बहन, ठीक समझो तो दे दो अपने बच्चों को, मैं पालूंगा। फिर एक नहीं, दो नहीं ना जाने कितने बच्चे उन बदनाम गलियों से उसके पीछे चल दिए। स्नेहालय बन रहा था —-

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 – लघुकथा – कारण ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – कारण।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 ☆

☆ लघुकथा – कारण ☆ 

“लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।” 

 इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर! वहाँ चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”

“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद है !” अनीता ने कहा, ” यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”

“दुखसुख की बातें करेंगे। और क्या ?”  सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे। मोबाइल पर कुछ देखेंगे।” 

“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,” अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है।  मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकूँगी।”

अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, ” तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ?  जब कि तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।

उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आंख से आंसू निकल गए, ” घर जा कर सास की जलीकटी बातें सुनने से अच्छा है यहां सुकून  के दो-चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – रामबाण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – रामबाण ?

( 5 जून से आरम्भ पर्यावरण विमर्श की रचनाओं में आज पाँचवी रचना।)

बावड़ी को जाने वाले रास्ते पर खड़े विशाल पीपल में भूत बसता है। गाँव के लोग दोपहर के समय और शाम के बाद उस तरफ जाते ही नहीं। उसकी डालियाँ तोड़ना तो दूर, पत्तियाँ तक छूना वर्जित था। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में भय समान रूप से व्याप्त था। पीपल सदा हरा रहा, पत्तियों से सदा भरा रहा।…यह पिछली सदी की बात है।

सदी ने करवट बदली। मनुष्य ने अनुसंधान किया कि पीपल सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देता है। फिर भौतिकता की आंधी चली। पेड़, पौधे, पर्यावरण, परंपरा सब उखड़ने लगे। बावड़ियाँ पाट दी गईं, पीपल काट दिये गए। ऑक्सीजन की हत्या कर साँस लेने का सपना पालनेवाला नया शेखचिल्ली पैदा हो चुका था।..शेखचिल्ली जिस डाली पर बैठता, उसे ही काट देता। शनैः- शनैः न जंगल बचे, न पीपल। शेखचिल्ली की देह भी लगभग मुरझा चली।

एकाएक पता चला कि सुदूर आदिवासी क्षेत्र में पीपल-वन है। पीपल ही पीपल। सघन पीपल, हरे पीपल, भरे पीपल। अनुसंधानकर्ता ने एक आदिवासी से पूछा- वहाँ ले चलोगे? आदिवासी ने साफ मना कर दिया। अधिक कुरेदने पर बोला- जाना तो दूर हम उस तरफ देखते भी नहीं।….क्यों?….वो भूतों की नगरी है। हर पीपल पर कई- कई भूत बसते हैं।

अनुसंधानकर्ता ने अनुसंधानपत्र में लिखा, ‘रामबाण टोटके कालजयी होते हैं।’

#लक्ष्य की दिशा में आज एक कदम बढ़े। शुभ दिवस#

©  संजय भारद्वाज

(शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा संग्रह से।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – एकदा नैमिषारण्ये ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – एकदा नैमिषारण्ये  ?

( 5 जून से आरम्भ पर्यावरण विमर्श की रचनाओं में आज चौथी रचना।)

सूत जी बोले, ‘नैमिषारण्य में एक सुंदर देश है..।’ श्रद्धालुओं के चेहरे पर उस सौंदर्य का वर्णन सुनने की उत्सुकता जगी।

‘उस देश के बारे में बताइये न प्रभु!’, सामूहिक स्वर में मनुहार थी।

‘इस देश में हर तरफ हरीतिमा है। देश का प्रत्येक नगर आकर्षक उद्यानों से सुशोभित है। यहाँ की नदियों में प्रवाहित होता सलिल अमृत-सा निर्मल और प्राणों को पुष्ट करने वाला है। यहाँ के निवासी नदियों को माता के रूप में पूजते हैं। उनकी आरती उतारते हैं। गौ को वे अपनी जननी के समान मान देते हैं। अपने स्वामित्व की आधी भूमि पर ही वे अलट-पलट कर कृषि करते हैं, शेष भूमि पशुओं के चरने के लिए छोड़ दी जाती है। यहाँ हरे वृक्षों की कटाई प्रतिबंधित है, उनकी रक्षा करने और महात्म्य सुनने का भी विधान है। पंचमहाभूतों की प्रतिष्ठा है। प्रकृति के घटकों में ही ईश्वर के दर्शन किये जाते हैं। स्वर्ग के सुख और देवता भी ईर्ष्या करें, ऐसा मनोरम है ये देश!’

कथा सुनाई जाती रही, पीढ़ियों तक श्रोता तृप्त होते रहे। कालांतर में अपने पूर्वजों से इस देश का वर्णन सुनने वाली नई पीढ़ी ने उत्सुकता से सूत जी से कहा, ‘ उस सुंदर देश की कथा सुनाइये न!’

सूत जी बोले, ‘नैमिषारण्य में एक सुंदर देश था..!’

#लक्ष्य की दिशा में आज एक कदम बढ़े। शुभ दिवस#

©  संजय भारद्वाज

(शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा संग्रह से।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ आँख खुल गयी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” सहित और कई संग्रहों में प्रकाशित हुई है।  आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद कहानी – आँख खुल गयी। )

?  आँख खुल गयी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान” ?

पापा की पोस्टिंग रेलवे की नौकरी की वजह से बदलती रहती थी और हमारा स्कूल भी। जब तक हम दोनों भाई बहन छोटे थे तब तक कोई समस्या नहीं थी पर जैसे-जैसे हम बड़े होने लगे हमे स्कूल बदलने में परेशानी होने लगी। हर बार नयी जगह नया सिलेबस, नए अध्यापक, नए दोस्त। ये सब हमे चिड़चिड़ा करने लगा. मेरा तो स्कूल में रिजल्ट भी गिरने लगा। मम्मी और पापा इस से चिंता में आ गए। स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग के दौरान अध्यपक ने भी उनको स्कूल बार-बार चेंज नहीं करने की सलाह दी। आखिरकार ये तय हुआ की हम दिल्ली में ही रह कर अपनी पढ़ाई पूरी करेंगे और पापा अकेले ही अपनी पोस्टिंग के अनुसार अलग रहेंगे। पापा अपनी छुट्टियों के हिसाब से हमसे मिलने आया जाया करते थे। बढ़ती उम्र ने हमे आत्मनिर्भर बना दिया था और उसका मतलब हमारे लिए था “अपने फैसले खुद लेना और अपने हिसाब से ज़िंदगी जीना”। मम्मी भी ज्यादा रोक-टोक नहीं करती थी। पापा जब भी आते वो हमारी बेढंगी दिनचर्या नोटिस करते थे, पर कुछ बोलने पर मम्मी उन्हें ये कह कर चुप करा देती थी कि “बच्चे अब समझदार हो गए है नए ज़माने के है ज्यादा रोक-टोक अच्छी नहीं”।

उन्हें हमारी दिनचर्या बिलकुल पसंद नहीं आती थी वो पुराने ख्याल के जो थे और हमें उनका टोकना पसंद नहीं आता था। हम दोनों ही पक्ष “जनरेशन गैप” को कोस कर अपने-अपने विचार लिए आगे बढ़ जाते. शायद हमे धीरे-धीरे उनके बिना रहने की आदत होती जा रही थी। फिर वो वक़्त आया जब पापा की आखिरी पोस्टिंग दिल्ली में ही हो गयी। अब तो बस रोज़ की टोका-टाकी तय थी। छोटी मोटी चिक-चिक तो रोज़ की दिनचर्या हो गयी थी। एक दिन इसी बात को लेकर मैं और मेरी बहन बात कर रहे थे ” रोज़ की टोका-टोकी मुझे पसंद नहीं आती, आखिर हम भी बड़े हो गए है हमे भी सब समझता है। इस से तो पापा बाहर ही अच्छे थे कम से कम शान्ति तो थी ” तभी मेरी बहन का रंग उड़ा चेहरा देख कर मैं पीछे पलटा और देखा पापा और मम्मी ठीक मेरे पीछे खड़े थे। मेरा चेहरा शर्म से पीला पड़ गया। पापा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चले गए। मैं भी सर झुकाये अपने कमरे में चला गया। अब रोज़ पापा बिना कुछ कहे सीधे ऑफिस चले जाते और आने के बाद भी बात नहीं करते। उनकी खामोशी मुझे अच्छी नहीं लग रही थी, पर अब शान्ति देख मैं कही न कहीं चैन की सांस भी ले रहा था।

एक दिन अचानक मैं जब घर लौटा तो सभी टीवी चैनल पर न्यूज़ देख रहे थे, जिस पर कोरोना की वजह से बंद की खबर दिखाई जा रही थी। अब सबको बंद की वजह से घर में ही रहना पड़ रहा था. मुझे तो ये काला-पानी की सजा लग रही थी। रोज़ की खबरों ने दिमाग ख़राब कर रखा था और धीरे-धीरे ये डर में तब्दील होने लगा, जब अचानक मुझे एक दिन लगा की मुझे गले में खराश महसूस हो रही है और हल्का बुखार भी। मैं अंदर ही अंदर बहुत डर गया और मुझे रोना आ गया। मेरे रोने की आवाज़ सुनकर पापा जो की रात को पानी पीने रसोई में आये थे मेरे कमरे में आ गए। मुझे घबराया हुआ देख उन्होंने पूछा “क्या हुआ बेटा” उन शब्दों ने जैसे मेरे अंदर एक सुकून की लहर दौड़ा दी। पापा ने जब हाथ सर पर रखा तो मानो मुझे लगा कि मैं अब ठीक हूँ और कोई है जो मुझे संभाल लेगा। पापा ने टेम्प्रेचर चेक किया मुझे कोई बुखार नहीं था, रोज़ की खबर सुन-सुन कर मेरे दिमाग में वहम ने घर कर लिया था। पापा ने मुझे गरम दूध में हल्दी मिला कर पिलाया और सुला दिया। सुबह जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा पापा वहीँ कुर्सी पर ही सो गए। मुझे ये देख कर खुद पर बहुत शर्म आ रही थी।

मुझे समझ आ गया अपनों का साथ और बड़ो का हाथ हमारे सर पर कितना जरुरी होता है। उनकी हमारी बिगड़ी हुई दिनचर्या पर टोका-टाकी हमारे भले के लिए थी। जो दिनचर्या हम लॉकडाउन में मज़बूरी में निभा रहे थे वही तो पापा हमे हमेशा से समझाते थे , टाइम पे उठना , टाइम पे सोना , घर का खाना , जल्दी उठकर व्यायाम करना कुल मिला कर अपने पुराने तौर तरीको से स्वस्थ्पूर्ण। जीवन जीना, जो हमे बंदिश लगता था। पर अब इस बंद के दौर ने संयुक्त परिवार और हमारे देश के प्रति हमारे कर्तव्य और उनके महत्व को अच्छी तरह से समझा दिया था। अब हम सब वो चीज़ें करने लगे थे जो हमारी ही देश की धरोहर है, और हमे स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीना सिखाती है।

आज हम मॉडर्न बनाने के चक्कर में अपनों से दूर हो रहे है, गलत दिनचर्या अपना रहे हैं ऊपर से खुश रहने के लिए अंदर से खोखले होते जा रहे है। ये हम सब के लिए आँखे खोलने का वक़्त है हमे अपनी संस्कृति चाहे वो संयुक्त परिवार में रहना हो या हमारी देसी दिनचर्या इन सब को अपनाना चाहिए। ये मूल-मन्त्र ही हमें हर समस्या से निकालने में मदद कर सकता है।

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे  ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है   – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे  )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में 26 दिसंबर 1914 को हिंगनघाट, वर्धा में देवीदास के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। उसका नाम मुरलीधर रखा गया। देवीदास ब्रिटिश सरकार के जिला प्रशासन और राजस्व विभाग में अधिकारी थे। मुरलीधर को अंग्रेज़ी तौर तरीक़ों की तर्ज़ पर बचपन में बाबा करके पुकारा जाता था। वह आठ बच्चों में सबसे बड़ा था। उसका बचपन एक अच्छी हैसियत के ब्रिटिश नौकरशाह के सबसे बड़े बेटे के रूप में शिकार और खेलों की रोमांचक  घटनाओं के बीच बीता था। वह चौदह वर्ष की उम्र में बंदूक लेकर भालू और हिरण का शिकार करता था। जब वह गाड़ी चलाने योग्य हुआ तो पिता ने उसे पैंथर की खाल से बनी कुशन की गद्दियों वाली स्पोर्ट्स कार भेंट की थी। यद्यपि वह एक धनी परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन हमेशा भारतीय समाज में व्याप्त  असमानता के बारे में सोचता रहता था। वह अपने पिता की नाराज़गी के बावजूद नौकरों के बच्चों के साथ नियमित रूप से खेलता था। दीवाली के दिन जब पूरा शहर जगमगा रहा था तब दोस्तों के साथ बाज़ार में मटरगश्ती करते हुए उसका एक अंधे भिखारी से सामना हुआ। उसने मौज में आकर अपनी सिक्कों से भरी जेब को भिखारी के कटोरे में खाली कर दिया। भिखारी को बहुत सारे सिक्कों की खनक से और कटोरे के भार से महसूस हुआ कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। वह बोला- “मै एक मजबूर भिखारी  हूँ। मेरे कटोरे में पत्थर मत डालो, बाबा।”, लड़के ने जवाब दिया “ये चोखे सिक्के हैं, पत्थर नहीं। आप चाहें तो कुछ ख़रीद कर इन्हें परख लें।”

इस घटना ने लड़के के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ा कि इस तरह के दुःखी इंसान  उसकी ज़िंदगी के बिलकुल करीब मौजूद हैं, जिनकी जिंदगियों में आशा और विश्वास सिरे से नदारद हो चुके हैं। उसे अपने पिता की विलासिता से भरी दुनिया में ग़रीबों के प्रति मौजूद उपेक्षापूर्ण निर्दयता से चिढ़ होती थी। लोग इतने बेरहम कैसे हो सकते हैं कि आसपास बजबजाती ग़रीबी और भूखमरी से अनजान बने रहकर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। 

मुरलीधर एक डॉक्टर बनने की इच्छा रखता था, लेकिन उसके पिता ने उसे वकील बनने के लिए मजबूर किया। वह चाहते थे कि उनका बेटा बड़ा वकील बनकर परिवार की मिल्कियत को संभाले। लड़के ने धनाढ्य वातावरण के जीवन को बहुत अच्छी तरह से अपना लिया। अपने दिन घुड़सवारी, शिकार, क्लब में ताश के पत्तों और टेनिस खेलने में बिताता था। वह अमीरों का एक समृद्ध जीवन जी रहा था जो मानते हैं कि पैतृक विशेषाधिकार केवल भाग्यशाली को जीने का मौका देते हैं और उनका ग़रीबों के भाग्य के प्रति कोई दायित्व नहीं है। इस विलासिता पूर्ण जीवन के बीच वह बेचैन रहता था। एक दिन उसे लगा जैसे उसे दुनिया में एक बड़ा उद्देश्य पूरा करना है।

मुरलीधर कानून में प्रशिक्षित होकर वर्धा में वकालत शुरू करके एक सफल वकील बन गया। वह महात्मा गांधी और बिनोवा भावे से प्रभावित होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के कारण अंग्रेज सरकर द्वारा कैद में डाला गया। उन्होंने भारतीय नेताओं के लिए एक बचाव वकील के रूप में काम करना शुरू किया। महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए सेवाग्राम आश्रम में कुछ समय बिताया और गांधीजी के अनुयायी बन गए। उन्होंने चरखे से बनाई खादी पहनकर गांधीजी  के विचारों प्रचार किया। जब गांधीजी को पता चला कि मुरलीधर ने एक ब्रिटिश अफ़सर के अत्याचार व उत्पीड़न  से एक भारतीय लड़की को बचाया है, तब उन्होने उसे “सत्य का निडर साधक” नाम दिया था।

उन दिनों कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को एक सामाजिक कलंक माना जाता था। ऐसे रोगी समाज की मुख्य धारा से कटकर उपेक्षित जीवन जीने को अभिशप्त थे। मुरलीधर ने इस विचारधारा को, कि कोढ़ एक संक्रामक छुआछूत रोग है, को दूर करने का प्रयास किया। यहां तक कि उन्होंने एक कोढ़ी को साथ रहने की अनुमति दी। यह साबित करने के उद्देश्य से एक प्रयोग के हिस्से के रूप में उन्हें इंजेक्शन भी लेने पड़े थे। तुलसीराम नाम के कुष्ठ पीड़ित व्यक्ति के साथ मुलाक़ात ने उनकी आत्म-छवि को चकनाचूर कर दिया। उसने देखा तुलसीराम कुष्ठ रोग के अंतिम चरण में वह एक मांस के टुकड़ों के साथ हाथ-पैर की उंगलियों के बिना कीड़े और घावों के साथ वास्तव में एक जीवित लाश था। वह संक्रमण से घबरा गया। उसने खुद को निडर बनाने के बारे में सोचा। अगले 6 महीनों के लिए वह इस संकट की बेदर्द पीड़ा में रहा। उसने सोचा “जहाँ भय है वहाँ प्रेम नहीं है, और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कोई भगवान नहीं है।” भय और घृणा से घिरे कोढ़ियों की इस समस्या पर काबू पाने का उसे केवल एक ही तरीका लग रहा था कि उसे कुष्ठ पीड़ित लोगों के साथ रहना और काम करना होगा। उन्होंने सोचा और संकल्प किया “मुझे किसी भी चीज़ से कभी डर नहीं लगा जब मैंने एक भारतीय महिला का सम्मान बचाने के लिए ब्रिटिश ठोकरों से लड़ाई लड़ी, गांधी जी ने मुझे ‘अभय साधक’ कहा, जो सत्य का निर्भीक साधक था। जब वरोरा के सफाईकर्मियों ने मुझे नाले की सफाई के लिए चुनौती दी, तो मैंने ऐसा किया, लेकिन जब मैंने तुलसीराम की जीवित लाश देखी, मैं डर गया। मुझे इस डर पर क़ाबू पाकर कुष्ठ पीड़ितों के प्रति प्रेम में बदलना होगा।”

मुरलीधर ने कुष्ठ रोगियों की सेवा करने का निर्णय इस कारण लिया कि उन्हें एक ऐसे समाज का हिस्सा बनने में घृणा महसूस होती थी जो ऐसे दलित मनुष्यों की दुर्दशा के प्रति बहुत ही उदासीन था। उन्होंने इस उदासीनता को ‘मानसिक कुष्ठ’ के रूप में माना, जो कि सबसे भयावह बीमारी है जो किसी के अंगों को ही नहीं गला रही है, लेकिन अन्य मनुष्यों के लिए दया और करुणा महसूस करने के लिए प्रेम की  ताकत खो रही है।

उन्होंने लिखा:- “मैंने भगवान से अपनी आत्मा मांगी, लेकिन मेरी आत्मा नदारत थी। मैंने अपने में भगवान की तलाश की, लेकिन मेरे भीतर भगवान भी नदारत था, तब मैंने सेवा हेतु भाई-बहनों की मांग की, मुझे उनमें आत्मा, भगवान और जीवन लक्ष्य मिल गया।”

उन्होंने 1949 में 4 रुपये, 6 कुष्ठ रोगियों और एक लंगड़ी गाय के साथ वरोरा में आश्रम स्थापित करके पूरे महाराष्ट्र में अपना काम फैलाया है। अब वे बाबा कहलाने लगे थे। कई संगठनों ने बाबा के कार्यों से प्रेरणा ली है और देश भर में और यहां तक कि पूरी दुनिया में काम करते रहे हैं। दुनिया भर में मुरलीधर ने जो प्रभाव डाला, वह अचूक है और उनकी आत्मा एक दुर्लभ रत्न है जिसे दुनिया भाग्यशाली मानती थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52 – गुरु दक्षिणा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52  ? गुरु दक्षिणा  ?  श्री आशीष कुमार☆

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र, जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’

यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’

उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’

वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- “जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’’

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।

गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’ 

तीनों ने सर झुका लिया।

गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा-  ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।”  

गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’

तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।

वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’

गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें।’

“यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी। सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है। वस्तुतः, हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’  पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।

अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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