हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 55 ☆ लघुकथा – दमडी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा ‘दमडी’। आज की लघुकथा हमें मानवीय संवेदनाओं, मनोविज्ञान एवं  विश्वास -अविश्वास  के विभिन्न परिदृश्यों से अवगत कराती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  इस  संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 55 ☆

☆  लघुकथा – दमडी

माँ! देखो वह दमडी बैठा है, कहाँ ? सहज उत्सुकता से उसने पूछा।  बेटे ने संगम तट की ढलान पर पंक्तिबद्ध बैठे हुए भिखारियों की ओर इशारा किया। गौर से देखने पर वह पहचान में आया – हाँ लग तो दमडी ही रहा है पर कुछ ही सालों में कैसा दिखने लगा ? हड्डियों का ढांचा रह गया है। दमडी नाम सुनते ही  मानों किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। दमडी की दयनीय अवस्था देखकर दया और क्रोध का भाव एक साथ माँ के मन में उमडा। दमडी ने किया ही कुछ ऐसा था। बीती बातें बरबस याद आने लगीं – दमडी मौहल्ले में ही रहता था, सुना था कि वह दक्षिण के किसी गांव का है। कद काठी में लंबा पर इकहरे शरीर का। बंडी और धोती उसका पहनावा था। हररोज गंगा नहाने जाता था। एक दिन घर के सामने आकर खडा हो गया, बोला –बाई साहेब रहने को जगह मिलेगी क्या ? आपके घर का सारा काम कर दिया करूँगा। माँ ने उसे रहने के लिए नीचे की एक कोठरी दे दी। दमडी  के साथ उसका एक तोता भी आया, सुबह चार बजे से दमडी  उससे बोलना शुरू करता – मिठ्ठू बोलो राम-राम। इसी के साथ उसका पूजा पाठ भी चलता रहता। सुबह हो जाती और दमडी  गंगा नहाने निकल जाता।  सुबह शाम उसके मुँह पर राम-राम ही रहता। माँ खुश थी कि घर में पूजा पाठी आदमी आ गया है। वह घर के काम तो करता ही बच्चों की देखभाल भी बडे प्यार से करता। दमडी  की दिनचर्या और उसके व्यवहार से हम सब उससे हिलमिल गए थे। दमडी  अब हमारे घर का हिस्सा हो गया। यही कारण था कि उसके भरोसे पूरा घर छोडकर हमारा पूरा परिवार देहरादून शादी में चला गया। माँ पिताजी के मन में यही भाव रहा होगा कि दमडी  तो है ही फिर घर की क्या चिंता।

उस समय  मोबाईल फोन था नहीं और घर के हालचाल जानने की जरूरत भी नहीं समझी किसी ने। शादी निपटाकर हम खुशी खुशी घर आ गए। कुछ दिन लगे सफर की थकान उतारने में फिर घर की चीजों पर ध्यान गया। कुछ चीजें जगह से नदारद थी, माँ बोली अरे रखकर भूल गए होगे तुम लोग। एक दिन सिलने के लिए सिलाई मशीन निकाली गई, देखा उसका लकडी का कवर और नीचे का हिस्सा तो था पर सिलाई मशीन गायब। अब स्थिति की गंभीरता समझ में आई और चीजें देखनी शुरु की गई तो लिस्ट बढने लगी। अब पता चला कि सिलाई मशीन, ट्रांजिस्टर, टाईपराईटर, बहुत से नए कपडे और भी बहुत सा सामान  गायब था। दमडी  तो घर में ही था उसका  मिठ्ठू बोलो राम-राम भी हम रोज सुन रहे थे। सब कमरों में ताले वैसे ही लगे थे, जैसे हम लगा गए थे, फिर सामान गया कहाँ ? दमडी को  बुलाया गया वह एक ही बात दोहरा रहा था—बाईसाहेब  मुझे कुछ नहीं पता। कोई आया था घर में, नहीं बाई, तो घर का सामान गया कहाँ ? हारकर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई। पुलिस मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पूरी कर रही थी, रोज शाम को पुलिसवाले आ जाते, चाय – नाश्ता करते और दमडी की पिटाई होती। पुलिस की मार से दमडी चिल्लाता और हम बच्चे पर्दे के पीछे खडे होकर रोते। रोज के इस दर्दनाक ड्रामे से घबराकर पुलिस के सामने पिताजी ने हाथ जोड लिए। इस पूरी घटना का एक भावुक पहलू यह था कि चोरी गया ट्रांजिस्टर मेरे मामा का दिया हुआ था जिनका बाद में अचानक देहांत हो गया था। माँ दमडी के सामने रो रोकर कह रही थी हमारे भाई की आखिरी निशानी थी बस वह दे दो, किसी को बेचा हो तो हमसे पैसे ले लो, खरीदकर ला दो। माँ के आँसुओं से भी दमडी टस से मस ना हुआ। उसने अंत तक कुछ ना कबूला और माँ ने उसे यह कहकर घर से निकाल दिया कि तुम्हें देखकर हमें फिर से सारी बातें याद आयेंगी।

इसके बाद कई साल दमडी का कुछ पता ना चला। कोई कहता कि मोहल्ले के लडकों ने उससे चोरी करवाई थी, कोई कुछ और कहता। हम भी धीरे धीरे सब भूलने लगे। आज अचानक उसे इतनी दयनीय स्थिति में देखकर माँ से रहा ना गया पास जाकर बोली – कैसे हो दमडी ? बडी क्षीण सी आवाज में हाथ जोडकर वह बोला – माफ करना बाईसाहेब। माँ वहाँ रुक ना सकी, सोच रही थी पता नहीं इसकी क्या मजबूरी रही होगी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 72 – हाइबन-कांच का पुल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “ हाइबन-कांच का पुल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 72☆

☆  हाइबन-कांच का पुल ☆

बैमारगिरी पहाड़ के बीच 400 मीटर दूर दो पहाड़ी चोटियां स्थित है।  ये पहाड़ी चोटियां जमीन से 200 फीट ऊंची है । इसी चोटी पर मानव निर्मित पारदर्शी पैदल पुल बनाया जा रहा है । यह पुल जिसे अंग्रेजी में ग्लास स्काईवॉक कहते हैं । जिसका मतलब है आकाश में कांच के पैदल सेतू पर घूमना । उसी का एहसास देता दुनिया का पहला आकाशीय पैदल पथ चीन के हांग झौऊ प्रांत में बनाया गया है। दूसरा पुल भारत के सिक्किम में बनाया गया है। तीसरा और बिहार का पहला एकमात्र आकाशीय पैदल पथ 19 करोड़ की लागत से राजगीर की बैमारगिरी पहाड़ी की चोटी पर बनाया जा रहा है।

इस पुल का 80% कार्य पूर्ण हो चुका है। मार्च 21 में 85 फुट लंबा और 5 फुट चौड़ा पुल दर्शकों के लिए खोल दिया जाएगा । यदि कमजोर दिल वाला कोई व्यक्ति इस पुल के ऊपर से नीचे की ओर, 200 फिट की गहरी खाई को देखे तो तुरंत बेहोश हो सकता है । कारण, वह स्वयं को आकाश में लटका हुआ पाएगा। जिसे महसूस कर के हार्ट अटैक का शिकार हो सकता है। इस कारण इस आकाशीय पैदल पुल पर जाने के लिए मजबूत दिल वालों को ही प्रवेश दिया जाएगा।

 

तपती खाई~

ग्लास ब्रिज के बीच

गिरी युवती।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-12-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ भूकंप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ भूकंप ☆

पहले धरती में कंपन अनुभव हुआ। फिर तने जड़ के विरुद्ध बिगुल फूँकने लगे। इमारत हिलती-सी प्रतीत हुई। जो कुछ चलायमान था, सब डगमगाने लगा। आशंका का कर्णभेदी स्वर वातावरण में गूँजने लगा, हाहाकार का धुआँ अस्तित्व को निगलने हर ओर छाने लगा।

उसने मन को अंगद के पाँव-सा स्थिर रखा। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। अब बाहर और भीतर पूरी तरह से शांति है।

 

©  संजय भारद्वाज

17 जनवरी 2020 , दोपहर 3:52 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ धन बनाम ज्ञान ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “धन बनाम ज्ञान ”)

☆ लघुकथा – धन बनाम ज्ञान ☆

दोनों कॉलेज के दोस्त अरसे बाद आज रेलवे स्टेशन पर अकस्मात् मिले थे। आशीष वही सादे और शिष्ट् कपड़ों में था, हालांकि कपड़े अब सलीके से इस्त्री किये हुए और थोड़े कीमती लग रहे थे, जबकि दिनेश उसी तरह से सूट-बूट में था, पर उसके कपड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता था कि उन्हें बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा चुका है। आशीष के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कुराहट और रौनक थी, जबकि दिनेश का चेहरा पीला पड़ गया लगता था, और उसमें अब वह चुस्ती-फुर्ती नज़र नहीं आ रही थी जो कॉलेज के दिनों में कभी हुआ करती थी।

आशीष तो उसे पहचान भी नहीं पाता, यदि दिनेश स्वयं आगे बढ़ कर उसे अपना परिचय न देता।

“अरे दिनेश यह क्या, तुम तो पहचान में भी नहीं आ रहे यार? कहाँ हो? क्या कर रहे हो आजकल?” आशीष ने तपाक से उसे गले लगाते हुए कहा।

“बस, ठीक हूँ यार, तुम अपनी कहो?” दिनेश ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा।

“तुम तो जानते ही हो बंधु, हम तो हमेशा मजे में ही रहते हैं”, आशीष ने उसी जोशोखरोश से कहा, “अच्छा, वो तेरा मल्टीनेशनल कंपनी वाला बिज़नेस कैसा चल रहा है, कितना माल इकट्ठा कर लिया?”

“क्या माल इकट्ठा कर लिया यार, बस गुजारा ही चल रहा है। वैसे वह काम तो मैंने कब का छोड़ दिया था, और छोड़ दिया था तो बहुत अच्छा किया, वर्ना बिल्कुल बर्बाद ही हो जाता। उस कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया, और लोगों का काफी पैसा हजम कर गयी। आजकल तो मैं अपना निजी काम कर रहा हूँ ट्रेडिंग का। गुजारा हो रहा है। तुम क्या कर रहे हो?”

“मैं आजकल इंदौर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हूँ”, आशीष ने बताया, “कुल मिला कर बढ़िया चल रहा है।”

“तो तुम आखिर जीत ही गए आशीष”, रितेश ने हौले से कहा तो आशीष चौंक गया, “कैसी जीत?”

“वही जो एक बार तुममें और मुझमें शर्त लगी थी”, रितेश ने कहा।

“कैसी शर्त? मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं?” आशीष को कुछ याद न आया।

“भूल गए शायद, चलो मैं याद करवा देता हूँ”, कह कर रितेश ने बताया, “जब पहली बार किसी ने मुझे इस मल्टीनेशनल कंपनी का रुपए दे कर सदस्य बनने, अन्य लोगों को सदस्य बनाने और इसके महंगे-महंगे उत्पादों को बेच कर लाखों रुपए कमा कर अमीर बनने का लालच दिया, तो मैं उसमें फंस गया था। मैंने तुम्हें भी हर तरह का लालच दे कर इसका सदस्य बनाने की कोशिश की तो तुमने साफ मना कर दिया था। तुमने मुझे भी इस लालच से दूर रह कर पढ़ाई में मन लगाने की ताक़ीद दी थी। परंतु मैं नहीं माना। मुझे आज भी याद है कि तुमने कहा था, ‘धन और ज्ञान में से यदि मुझे एक चुनना पड़े तो मैं हमेशा ज्ञान ही चुनूँगा, क्योंकि धन से ज्ञान कभी नहीं कमाया जा सकता, परंतु ज्ञान से धन कभी भी कमाया जा सकता है। स्वयं ही देख लो, पढ़-लिख कर तुम फर्श से अर्श तक पहुंच गए, और मैं अर्श से फर्श पर…।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 74 ☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा   “सहना नहीं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 74 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆

“कितनी बार कहा, जा चली जा मायके। मेरी नजर से दूर पर जाती ही नहीं।”

“क्यों जाऊं मांजी..? मैं तो यहीं छाती पर होरा  भूंजूँगी । क्या बिगाड़ा है आपका? बहुत सह लिया, अब सहना नहीं।”

“पता नहीं क्या कर रखा है शरीर का? 4 साल में एक बच्चा भी न जन सकी।”

पारो का रोना दिवाकर से देखा नहीं गया। उसने अब फैसला कर लिया बोला – “पारो अब तुम चिंता मत करो।  मैंने 1 साल के लिए मुंबई ब्रांच के काम लिए है … चलने की तैयारी करो।”

“क्या हुआ बेटा कहाँ जा रहे हो?”

“माँ,  मुंबई ट्रांसफर हो गया है,  पारो का चेकअप  भी हो जाएगा  हम जल्दी ही आ जाएंगे।”

“ठीक है बेटा खुश खबरी देना।”

रास्ते में दिवाकर ने कहा “पारो  मेरी कमी के कारण तुम्हें माँ के दिन रात ताने सहने पड़ते है। हमारे  डा. दोस्त ने वचन दिया है 9 महीने के अंदर हमें एक बच्चा गोद दिलवा देंगे। तुम जिंदगी भर तानों से बच जाओगी।”

साल भर बाद माँ बच्चे के साथ पारो का भी स्वागत कर रही थी।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆

तुम्हारा लाँग वॉक मार डालेगा मुझे…रुको… इतना तेज़ मत चलो… मैं इतना नहीं चल सकती…दम लगने लगता है मुझे…हम कभी साथ नहीं चल सकते.., हाँफते-हाँफते उसने कहा था। वह रुक गया। आगे जाकर राहें ही जुदा हो गईं।

बरसों बाद वे एक मोड़ पर मिले। …क्या करती हो आजकल?… लाँग वॉक करती हूँ…कई-कई घंटे…साथ वॉक करें कल? …नहीं मैं इतना नहीं चल सकता… मेरा वॉक अब बहुत कम हो गया है…दम लगने लगता है मुझे… हम कभी साथ नहीं चल सकते..,उसने फीकी हँसी के साथ कहा। राहें फिर जुदा हो गईं।

©  संजय भारद्वाज

4.10 संध्या, 30.112020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ घरवाली ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक लघुकथा “घरवाली।)

☆ लघुकथा – घरवाली ☆

‘आपका घर कहां है?’

‘जी ढाबे में’

‘और आपका ?’

‘जी, सराय में’

‘आपका हुजूर?’

‘जी होटल में दिन काट रहा हूं’

‘और आपका जी॑’

‘घर के बारे में सोचा ही नहीं’

‘ घर घरवाली से होता है, बिना घरवाली के घर यानी भूतों का डेरा, ऐसी अंधियारी रात जिसका कभी होता नहीं सबेरा’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ख्वाहिश ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा  ख्वाहिश।  

☆ लघुकथा – ख्वाहिश ☆

हम दोनों पक्की सहेलियां थीं। मेरे कपड़े और खिलौने उसके कपड़े और खिलौनों से ज्यादा महंगे होते थे क्योंकि उसके पिता मेरे पिता के यहाँ काम करते थे।

नीलू को पढ़ने के साथ-साथ कॉपी किताबें और अपना सामान करीने से रखने का बहुत शौक था पिताजी से उसने एक छोटी सी पेटी की ख्वाहिश भी रखी थी।

उसके जन्मदिन के दिन उसके घर में पेटी आई भी पर उसके पिता ने कहा… “कि नहीं यह तो तुम्हारी पक्की सहेली याने मेरे साहब की बेटी के लिए है, क्योंकि कल उसका  जन्मदिन  है। तुम्हें अगले जन्मदिन पर खरीद देंगे।”

पूरे साल भर नीलू पेटी में कॉपी किताबें सजाने के सपने देखती रही जन्मदिन आया लेकिन पेटी नहीं आई। पिताजी 2 दिन के दौरे के लिए शहर से बाहर चले गए उसने राह देखी शायद लौटकर पेटी लेकर आएं लेकिन पेटी फिर भी नहीं आई। नीलू जब भी मेरे घर आती मेरी पेटी को हसरत भरी निगाहों से देखती। उसे हाथों में उठाती है पर उसका इंतजार प्रेमचंद के गबन उपन्यास की नायिका को चंद्रहार मिलने की आतुरता जैसा  कट रहा था।

साल पे साल बीतते गए पर पेटी फिर भी नहीं आई। आखिरकार उसकी शादी के दिन जब दहेज के सामानों में एक पेटी रखी थी उसे देखकर उसने सभी कीमती जेवरात और सामानों को छोड़कर उस पेटी को गोद में उठा लिया और उसकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अच्छी खबर☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “लघुकथा – अच्छी खबर”। )  

☆ लघुकथा – अच्छी खबर ☆

दादी गुरप्रीत कौर का बुखार उतर ही नहीं रहा था।

बहू ज्ञानप्रीत कौर ने डॉ सतवीर सिंह को बताया – “प्रा जी। ये न बिलकुल किसी की नहीं सुनती। कल रात भर छत पर पता ही नहीं चला कब चली गई और खुले में बिस्तर बिछा कर कंबल ओढ़ कर सो गई? सबेरे जब पूछा तो बोलीं –  अरे मैं देख रही थी, इतने दिनों से ऐसी ठंड में दिल्ली बार्डर पर सरदार जी और कीरत पुत्तर जी खुले में कैसे सो रहे हैं?”

पारिवारिक डॉ सतवीर ने देखा चाची  को तेज बुखार है और शरीर काँप रहा है। बुखार का कारण सुनकर वे संतुष्ट हुए और ज्ञानप्रीत को बोले “भाभी, मैं दवाइयाँ लिख दे रहा हूँ, किसी से मँगवा लेना। सब ठीक हो जाएगा।“ फिर दादी से बोले – “दादी अब बिस्तर से नहीं उतरना। और चिंता मत करना। वहाँ बहुत लोग हैं एक दूसरे का ख्याल रखने के लिए।“

दादी सर्दी में काँपते हुए बोली – “पर पुत्तर टी वी पर देखा दिल्ली बार्डर पर बहुत सारे बेरिकेड, पुलिस फोर्स, पानी, आँसूगैस की व्यवस्था भी हो रही है।”

डॉ सतवीर ने समझाया – “दादी वो दिल्ली बार्डर है कोई वाघा – अटारी बार्डर थोड़े ही है। और बेरिकेड के उसपार पुलिस फोर्स में अपने ही भाई हैं। चिंता मत करो, जल्दी ही अच्छी खबर मिलेगी।”

पर बच्चों के समझाने से दादी का मन थोड़े ही मानने वाला था। चिंता होना भी स्वाभाविक ही था। सरदारजी की बायपास सर्जरी हो चुकी थी। शादी को पचास बरस से ऊपर हो गए थे। शादी ब्याह और परिवार में मौत के अलावा कभी भी उनसे इतने दिन अलग नहीं रहे। नौ बरस का उनका पोता गुरमीत उनकी सेवा में लग गया। जो माँगती दौड़ दौड़ कर लाता। जब तक दादी  नहीं खाती, तब तक उसके गले से एक कौर नहीं उतरता।

ज्ञानप्रीत देख रही थी जब से गुरमीत के दादा सरदार गुरशरन सिंह और गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह दिल्ली के लिए पिण्ड (गाँव) के सब लोगों के साथ रवाना हुए हैं उसका चेहरा मुरझा गया है। पिण्ड के और बच्चों के साथ अपने चाचा अजीत सिंह जी के घर बना रहता।

दादी दिन भर से बुखार में बड़बड़ाती रही। “अजीब बात है … परजातन्त्र है …  लोगों ने इतनी सीटों से जिता कर लोगों की भलाई के लिए कानून बनाने का हक दिया … हक के लिए लड़ने के हक पर सियासत करने का हक थोड़े ही दिया है … सियासत कल मेज के इस ओर थी … आज मेज के उस ओर है … कल फिर इस ओर होगी … एक बेटा देश की हिफाजत के लिए है … उसे देश की हिफाजत करने दो …  एक जमीन की हिफाजत के लिए है … उसे जमीन की हिफाजत करने दो …” और सरदार जी और बेटे को याद करके पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाती रही।

गुरमीत के कुछ भी समझ नहीं आ रहा था … उसे परजातन्त्र … कानून … हक … सियासत …शब्द बड़े अजीब लग रहे थे। सुबह से शाम हो गई। देर शाम दादी का बुखार कुछ कम हुआ तो दौड़ कर चाचा अजीत सिंह के घर अपने दोस्तों के साथ जा पहुंचा।

ज्ञानप्रीत कौर को अपनी सास की सेहत में सुधार देख कर तसल्ली हुई। दो बार गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह का फोन आया किन्तु, उसने उनको कुछ भी नहीं बताया। इतने में सास की आवाज आई – “ज्ञान,  इनको फोन लगा दे, बात करने का जी कर रहा है।”

ज्ञानप्रीत कौर कुछ कहती कि- इतने में गुरमीत दौड़ कर आया और रसोई घर से थाली और  चम्मच ले आया। दादी के कमरे में रखा टॉर्च लेकर छत की ओर जाने लगा। दादी बोली – “गुरमीत पुत्तर क्या हुआ? कुछ बोल तो सही।”

गुरमीत छत की ओर दौड़ते हुए बोला – “दादी, जब तक दादा अपनी बात मनवाकर नहीं आते। रोज शाम सात बजे मैं और मेरे दोस्त एक मिनट थाली चम्मच बजाएँगे और एक मिनट टॉर्च जलाएंगे।”

गुरप्रीत और ज्ञानप्रीत हतप्रभ एक दूसरे का चेहरा देखते रह गए। दोनों मन ही मन में अपने-अपने अर्थ निकाल रहे थे और गुरमीत छत पर चला गया।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

18 दिसंबर 2020

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ डर के आगे जीत है- (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ डर के आगे जीत है – (2) ☆

उसे लगता इस समय बाहर मृत्यु खड़ी है। दरवाज़ा खुला कि उसका वरण हुआ। सो घंटों वह दरवाज़ा बंद रखती। स्नान करने जाती तो कई बार दो घंटे भीतर ही दुबकी रहती। वॉशरूम में रुके रहना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। मन जब प्रतीक्षारत मृत्यु के चले जाने की गवाही देता, वह चुपके से दरवाज़ा खोलकर बाहर आती।

आज फिर वह बाथरूम में थर-थर काँप रही थी। मौत मानो दरवाज़ा तोड़कर भीतर प्रवेश कर ही लेगी। एकाएक सारा साहस बटोरकर उसने दरवाज़ा खोल दिया और निकल आई मौत का सामने करने।

आश्चर्य! दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसका भय काल के गाल में समा चुका था।

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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