हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 48 – परीक्षा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “परीक्षा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 48 ☆

☆ लघुकथा –  परीक्षा☆

मैंने परीक्षा कक्ष में जा कर मैडम से कहा, “अब आप बाथरूम जा सकती है.”मैडम ने  “थैं” कहा और बाहर चली गई.  मैं परीक्षा कक्ष में घूमने लगा. मगर, मेरी निगाहे बरबस छात्रों की उत्तरपुस्तिका पर चली गई थी. सभी छात्रों ने वैकल्पिक प्रश्नों के सही उत्तर कांट कर गलत उत्तर लिख रखे थे.

यानी सभी छात्रों ने एक साथ नकल की थी. छात्रों के 20 अंकों के उत्तर गलत थे.  मुझ से  रहा नहीं गया.  एक छात्र से पूछ लिया, “ये गलत उत्तर किस ने बताएं है ?”
सभी छात्र आवाक रह गए. और एक छात्र ने डरते डरते कहा, “मैडम ने !”

“ये सभी उत्तर गलत है,” मैं जोर से चिल्लाया, “अपने उत्तर कांट कर अपनी मरजी से उत्तर लिखों. वरना, इस परीक्षा में सब फेल हो जाओगे.”

तभी केंद्राध्यक्ष ने आ कर कहा, “क्यों भाई ! क्यों चिल्ला रहे हो ? जानते नहीं हो कि ये परीक्षा है.”

मैं चुप हो गया. क्या जवाब देता. ये परीक्षा है ?

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 45 ☆ व्यवहार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आज के सामाजिक परिवेश में जीवन के कटु सत्य को उजागर करती एक लघुकथा  “व्यवहार। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 45 – साहित्य निकुंज ☆

☆ व्यवहार ☆

मंजू कॉलेज और घर का सब काम करते हुए साथ में सास की सेवा भी तल्लीनता से कर रही थी पतिदेव भी प्रोफेसर है। पता नहीं क्यों वह मंजू में इंटरेस्ट नहीं लेते हैं।

 मंजू ने एक दिन पूछ लिया..” क्या बात है आखिर हमारे दो-दो बच्चे हो गए हैं सब की शादी हो गई है। अब बुढ़ापा हम दोनों का ही साथ में कटेगा आपको क्या हो गया है। आप हमसे बात क्यों नहीं करते।”

पतिदेव ने कहा..” देखो हमें पता है तुम्हारा मन मुझमें नहीं लगता तुम्हारा मन बाहर लगता है। इसलिए अब हमें  तुमसे कोई संबंध नहीं रखना।”

मंजू ने कहा ..”यह आपसे किसने कहा।”

“माताजी बता रही थी कि उन्होंने तुमको बात करते सुना है…।”

मंजू ने कहा.. “कॉलेज के लोगों से तो 10 तरह की बातें होती हैं अब उन्होंने क्या समझ लिया यह तो वही जाने।”

मंजू की आंखों में आंसू छलक पड़े कि जिस सास  के दुर्व्यवहार के बावजूद भी इतने बरसों से उसकी सेवा कर रही है।आज वही अंतिम समय में अपनी बहू को घर से निकालने पर तुली हुई है याने उसके व्यवहार में आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 29 ☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “एक सवाल मजदूर का”। मजदूर का ही नहीं हम सब का भी एक सवाल है कि जिन  मजदूरों को गाड़ियों में भर भर कर जैसे भी भेजा है उनमें से कितने वापिस आएंगे ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 29 ☆

☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का

 

बाबा मजदूर क्या होता है?

मजदूर बहुत मेहनतकश इंसान होता है बेटवा!

अच्छा! मजदूर  काम क्या करता है?

बडी-  बडी इमारतें बनाता है, पुल बनाता है, मेहनत – मजूरी के जितने काम होते हैं सब करत है वह.

और वह रहता कहाँ है?

ऐसी ही झोपडिया में, जैसे हम रहत हैं, हम मजदूर ही तो हैं .

बाबा तुमने भी शहरों में बडी- बडी बिल्डिंग बनाई हैं?

हाँ, अरे पूरे देश में घूमे हैं काम खातिर. जहाँ सेठ ले गए, चले गए मुंबई,कलकत्ता बहुत जगह.

तो तुमने अपने लिए बडा – सा घर क्यों नहीं बनाया बाबा,  कित्ती छोटी झोपडी है हमार, शुरु हुई कि खत्म  – बेटा मासूमियत से पर थोडी नाराजगी के साथ बोला.

गंगू के पास मानों शब्द ही नहीं थे, कैसे समझाता बेटे को कि मजदूर दूसरों के घर बनाता है लेकिन उसके पैरों तले जमीन नहीं होती. टी.वी.पर आती मजदूरों के दर- ब- दर भटकने की दर्दनाक खबरें उसका कलेजा छलनी कर रहीं थीं. कोरोना से जुडे अनेक सवालों पर चर्चाएं चल रही थी पर गंगू के मन में तो एक ही सवाल चल रहा था –  मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम नहीं चलता लेकिन कोई भी उन्हें एक टुकडा जमीन और दो रोटी चैन से खाने को क्यों नहीं देता?

मजदूर यह सवाल कभी पूछ सकता है  क्या?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 47 – प्यार बढ़ता गया ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “प्यार बढ़ता गया। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 47 ☆

☆ लघुकथा –  प्यार बढ़ता गया☆

नौ को आठ का जबान लड़ाना अच्छा नहीं लगा. उस ने गुस्से में सात को थप्पड़ रसीद कर दिया. सात ने छः को, छः ने पांच को. मगर यह सिलसिला एक पर आ कर रुक गया. एक किस को थप्पड़ रसीद करता. यह उस का स्वभाव नहीं था . उस ने प्यार से शून्य को बुलाया और पास बैठा लिया.

यह देख कर नौ घबरा गया. वह समझ गया कि शून्य के साथ लग जाने से एक का मान उस से एक ज्यादा हो गया, “ अब आप मेरे साथ भी वही सलूक करेंगे ?”

“ नहीं , अब मैं इसी तरह सभी का मान बढ़ता रहूँगा,” कहते हुए दस ने सभी अंकों को एक के बाद, एक प्यार से जमाना शुरू कर दिया.

अब नौ पछता रहा था कि यदि उस ने गुस्सा न किया होता तो उस का मान सब से अधिक होता.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 45 – लघुकथा – अदृश्य ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “अदृश्यअतिसुन्दर लघुकथा जिसके पीछे एक लम्बी कहानी दिखाई देती है जो वास्तव में अदृश्य है और पाठक को उसकी विवेचना स्वयं करनी होगी। इस लघुकथा की खूबसूरती यह है कि प्रत्येक पाठक की भिन्न विचारधारा के अनुरूप इस लघुकथा के पीछे विभिन्न कथाएं दिखाई देंगी जो उनकी  विभिन्न परिकल्पनाओं पर आधारित होंगी । इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 45 ☆

☆ लघुकथा  – अदृश्य

प्रतिदिन की भांति दिव्या उठी। माँ से लाड प्यार कर ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगी। फिर माँ के पूजन के बाद एक लिफाफे को निकाल प्रणाम कर, फिर पूजा के जगह पर रख देना प्रतिदिन का नियम था। कभी उसने लिफाफे को देखने के लिए जिद नहीं की, क्योंकि माँ ने मना कर रखी थी।

आज ना जाने क्यों वह बार-बार माँ से पूछने लगी- “माँ आखिर इस लिफाफे में क्या है? जो आप मुझसे बताना नहीं चाहती। मां ने रुधें गले से आवाज लगाई “दिव्या जैसे भगवान दिखाई नहीं देते और हमारी सभी चीजों को सही वक्त पर हमें देते हैं, ठीक उसी प्रकार यह वह अदृश्य रूप में ईश्वर है। जिनके कारण आज तुम मेरे पास सुरक्षित हो। नहीं तो पता नहीं क्या हो गया होता” और आंखों से आंसू बहने लगे। दिव्या बोली “माँ मुझे तो देखने दो।”

माँ ने आखिरकार छोटी सी तस्वीर को निकाल कर दिखा दी। जल्दी जल्दी तैयार होकर वह ऑफिस के लिए निकल गई क्योंकि जिस कंपनी में वह काम करती है। उसके बॉस की शादी की 25वीं सालगिरह है और आज वह पहली बार बाकी कर्मचारियों के साथ उन्हें देखेगी।

मन में बहुत उत्साह था। क्योंकि छोटे कर्मचारियों को बॉस किसी भी मीटिंग में या कार्यक्रम में शामिल नहीं करते थे। आज पहली बार दिव्या को बुलाया गया था। सजे हुए हॉल में जैसे ही दिव्य पहुंची। सभी बॉस को बधाइयां दे रहे थे। परंतु दिव्या दरवाजे के पास पहुंच कर ठिठक कर खड़ी हो गई। हाथ से फूलों का गुलदस्ता नीचे गिर गया। वो और कोई नहीं लिफाफे वाले अदृश्य ईश्वर है। फूलों का गुलदस्ता बॉस के चरणों में रख दिव्या बहुत खुश होकर माँ को बताने घर चल पड़ी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 41 – अंश कला देवी ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “अंश कला देवी । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 41 ☆

☆ अंश कला देवी 

स्त्री ऊर्जा के कई आंशिक रूप हैं जो वास्तव में प्रकृति के विभिन्न रूप में से हैं और कुछ लोग उनकी प्रार्थना करते हैं कि वे हमें हमारे जीवन को शांतिपूर्वक चलाने में सहायता करें, जबकि अन्य कुछ रूपों से लोग डरते हैं ऊर्जा के इन आंशिक रूपों की देवियों को ‘अंश कला देवी’ कहा जाता है । अंशकला देवी दोनों प्रकार की होती हैं जो हमारे जीवन को शांतिपूर्ण बनाती हैं और जिनसे हम डरते हैं । स्त्री ऊर्जा के आंशिक चरणों की मुख्य 26 अंशकला देवी है :

1) स्वाहा देवी (अर्थ : माध्यम की देवी) :  स्वाहा देवी वो माध्यम है जिससे अग्नि में डाली गयी वस्तु भस्म होकर शुद्ध होती है । वह अग्नि की पत्नी है । स्वाहा की दुनिया भर में पूजा की जाती है । यदि हव्य (oblation) उनके नाम को दोहराए बिना अर्पण किया जाता है, तो देवता इसे स्वीकार नहीं करते हैं ।

2) दक्षिणा देवी (अर्थ : दान की देवी) : ये यज्ञ के पूरा होने के बाद धन के रूप में पुरोहित को दिए जाने वाले दान की देवी है । वह यज्ञ देव (बलिदान के देवता) की पत्नी है इस देवी के बिना, दुनिया के सभी कर्म व्यर्थ हो जाएंगे ।

3) दीक्षा देवी (अर्थ : यज्ञ के अनुसार संकल्प पूर्ण दान की देवी) :  भोजन या कपड़े आदि के रूप में दान की देवी, जिसे उनके द्वारा यज्ञ पूरा करने के बाद पुजारी को दिया जाता है । वह यज्ञ देव की पत्नी है, यह देवी शुद्ध ज्ञान प्रदान करती है ।

4) स्वधा देवी (अर्थ : पितरों के निमित्त दिया जानेवाला अन्न या भोजन की देवी) : आत्म-शक्ति, शासन, अपनी जगह या घर की देवी । ये प्रथा, प्रचलन या आदत अदि को संदर्भित करती है । यह देवी पितृ (मृतक पूर्वजों) की पत्नी है, जिनकी मनुष्यों द्वारा पूजा की जाती है । इस देवी का सम्मान किए बिना पितरों को दिया गया चढ़ावा व्यर्थ साबित होता है ।

5) स्वेच्छा देवी (अर्थ : अपनी इच्छा की देवी) :  यह इच्छा की देवी है जो अच्छा करती है । यह वायु की पत्नी है । अगर स्वेच्छा से उपहार नहीं दिया जाता है तो उपहारों का कोई फायदा नहीं होता ।

6) पुष्टि देवी (अर्थ : पोषण की देवी) : यह पोषण या अनुमोदन की देवी है और गणपति की पत्नी है । यदि यह देवी अस्तित्व में ना हो, तो पुरुष और स्त्री कमजोर हो जाएँगे, क्योंकि वह सभी ताकतों का स्रोत है ।

7) तुष्टि देवी (अर्थ : तुष्ट होने की अवस्था की देवी) : शांति या खुशी की देवी । यह अनंत की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में ना हो तो दुनिया में कोई खुशी नहीं होगी ।

8) संपत्ति देवी (अर्थ : धन दौलत जायदाद आदि जो किसी के अधिकार में हो और खरीदी या बेची जा सकती हो की देवी) : संपत्ति की देवी । यह इशाना (अमीर) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती तो पूरी दुनिया गरीब और स्वदेशी हो जाएगी ।

9) धरती देवी (अर्थ : भूमि की देवी) : यह दृढ़ संकल्प की देवी एवं कपिल (अर्थ : लाल भूरे रंग) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो पूरी दुनिया भयानक और डरपोक हो जायेंगी ।

10) सती देवी (अर्थ : सत की देवी) : सत्त्व की देवी जो मानव में सभी अच्छी गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार है । वह सत्य (सत्य) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो लोगों के बीच कोई मित्रता और शांति नहीं होगी ।

11) दया देवी (अर्थ : करुणा और सहानुभूति की देवी) : करुणा और सहानुभूति की देवी । यह मोह (भ्रम, सुस्तता) की पत्नी है । यदि यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो दुनिया नरक हो जाएगी और एक भयंकर युद्ध क्षेत्र बन जाएगी ।

12) प्रतिष्ठा देवी (अर्थ : ख्याति की देवी) : प्रतिष्ठा की देवी । यह पुण्य (दान, इनाम) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो दुनिया ख़त्म हो जाएगी ।

13) सिद्ध देवी (अर्थ : परिपूर्ण करने वाली देवी), और कीर्ति देवी (अर्थ : प्रसिद्धि की देवी) : ये दोनों सुकर्मा (अर्थ : अच्छा स्वभाव) की पत्नियां हैं । अगर वे अस्तित्व में ना रहें तो पूरी दुनिया प्रतिष्ठा से बेकार हो जाएगी और मृत शरीर की तरह निर्जीव हो जाएगी ।

14) क्रिया देवी : कार्य की देवी वह उद्योग (अर्थ : व्यापार) की पत्नी है । अगर वह अस्तित्व में नहीं रहती है तो पूरी दुनिया निष्क्रिय हो जाएगी और कार्य करना बंद कर देगी ।

15) मिथ्या देवी (अर्थ : झूठी मान्यताओं की देवी) : वह अधर्म (अप्राकृतिकता, गलतता) की पत्नी है । हठी और चरित्रहीन लोग इस देवी की पूजा करते हैं । अगर यह देवी पूरी दुनिया में अस्तित्व में नहीं रहती है तो ब्राह्मण ही अस्तित्व में नहीं रहेगा । सत युग के दौरान दुनिया में कहीं भी यह देवी दिखाई नहीं देती थी । वह त्रेता युग के दौरान यहाँ और वहाँ एक सूक्ष्म रूप में दिखाई देने लगी थी । द्वापार युग में उन्होंने अधिक विकास प्राप्त किया और फिर उनके अंग और मजबूत हो गए । कलियुग में वह अपने पूर्ण स्तर और विकास के रूप में विकसित हुई और अपने भाई कपट (अर्थ :धोखा) के साथ हर जगह चली आयी ।

16) शांति देवी (अर्थ  : शांति की देवी) और लज्जा देवी (अर्थ  : विनम्रता की देवी) : ये दो देवी अच्छी प्रकृति की हैं । अगर वे अस्तित्व में ना रहे तो दुनिया सुस्त और आलसी हो जाएगी ।

17) बुद्धि देवी (अर्थ  : समझने और जानने की इच्छा की देवी), मेधा देवी (अर्थ  : ज्ञान की देवी) और धृत देवी (अर्थ  : संभाले रखने की देवी) : यह तीनों देवियाँ ज्ञान की पत्नियां है । अगर ये देवियाँ अस्तित्व में ना रहे तो दुनिया अज्ञानता और मूर्खता में डूब जाएगी ।

18) मूर्ति (अर्थ  : रूपों की देवी) : वह धर्म (सही कर्तव्य) की पत्नी है । उनकी अनुपस्थिति में सार्वभौमिक आत्मा जीवन शक्ति से विरक्त, असहाय और अर्थहीन हो जाएगी ।

19) श्रीदेवी : यह सौंदर्य और समृद्धि की देवी है । वह माली की पत्नी है । इनकी अनुपस्थिति दुनिया को निर्जीव बना देगी ।

20) निन्द्रा देवी : यह नींद की देवी है । यह कालाग्नि (समय की अग्नि ) की पत्नी है । ये देवी रात्रि के दौरान दुनिया में हर किसी को प्रभावित करती है और उनकी चेतना को खो कर उन्हें नींद में डाल देती है । इस देवी की अनुपस्थिति में दुनिया एक पागलों की शरण स्थली बन जाएगी ।

21) रात्री (अर्थ  : रात्रि  की देवी), संध्या (अर्थ  : शाम की देवी) और दिवस (अर्थ  : दिन की देवी) : ये तीनों काल (अर्थ : समय) की पत्नियां हैं । उनकी अनुपस्थिति में किसी को भी समय की कोई समझ नहीं होगी और कोई भी समय की गणना और निर्धारण करने में सक्षम नहीं होगा ।

22) विसापू (अर्थ  : यह भूख की देवी है) और दहम (अर्थ  : यह प्यास की देवी है) : ये दो देवियाँ लोभ (अर्थ  : लालच) की पत्नियाँ हैं, वे दुनिया को प्रभावित करती हैं और इस तरह उन्हें चिंतित और दुखी बनाती हैं ।

23) प्रभा देवी (अर्थ  : प्रकाश की देवी) और दहक देवी (अर्थ  : अग्नि से उत्पन्न प्रकाश और गर्मी की देवी) : ये दोनों तेजस की पत्नियां हैं इनके बिना भगवान को सृष्टि के कार्य को जारी रखना असंभव हो जायेगा ।

24) मृत्यु देवी (अर्थ : मृत्यु की देवी) और जरा देवी (अर्थ : मातृत्व की देवी) : ये दोनों प्रकृस्ताजवारा (अर्थ  : अनिर्मित भगवान), और काल (अर्थ : समय) की  पुत्री हैं । और यदि ये अस्तित्व में रहना बंद कर देती हैं, तो ब्रह्मा नयी रचना नहीं बना सकते हैं । क्योंकि मृत्यु  सृजन, जन्म की पूर्व शर्त है । यदि कोई मृत्यु नहीं है तो जन्म भी नहीं है ।

25) तन्द्रा देवी (अर्थ : नींद की झपकी) और प्रीति (अर्थ : खुशी की देवी जो प्रेम से आती है) : ये दोनों निद्रा (अर्थ : नींद) की पुत्रियाँ हैं और सुख (अर्थ : खुशी) की पत्नियाँ हैं । ये देवी ब्रह्मा के आदेश पर दुनिया भर में घूमती रहती हैं ।

26) श्रद्धा देवी (अर्थ : भक्ति के विश्वास) और भक्ति देवी (अर्थ : वैराग्य की देवी) : ये देवी सांसारिक सुखों के प्रति उलझन और दुनिया के लोगों की आत्माओं को मोक्ष देती हैं ।

आप इन देवी-देवताओं के महत्व को समझ सकते हैं । मैं आपको इनमें से 3-4 के विषय में बता देता हूँ । सबसे पहले ‘स्वाहा देवी’ को ले लो, जो हमारी भेंट को अग्नि को देती है। इसे अन्यथा लें, जब हम भोजन खाते हैं तो यह हमारे पेट में पहुँचता है जहाँ जठारग्नि (पेट में भोजन के पाचन के लिए जिम्मेदार अग्नि) इसे पचती है । तो क्या ‘स्वाहा देवी’ से ये प्रार्थना करना गलत है, की ‘कृपया देवी मेरे द्वारा खाया हुआ भोजन पचाकर मुझे स्वस्थ बनाएं’। इसी प्रकार यदि हम अग्नि को कुछ भी देते हैं तो हम स्वाहा देवी’ से प्रार्थना करते हैं ताकि यह जलने के बाद एक या दूसरे रूप में उपयोगी हो सके ।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 44 ☆ पेंशन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आज के सामाजिक परिवेश में जीवन के सत्य को उजागर करती एक लघुकथा  “पेंशन”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 44 – साहित्य निकुंज ☆

☆ पेंशन ☆

“क्या हुआ तुम क्यों अम्मा को चिल्ला रही हो ?”

“अरे तुम तो ड्यूटी चले जाते हो अम्मा सुनती नहीं हैं, चलते बनता नहीं है फिर भी बर्तन मांजने बैठ जाती हैं. एक पल भी बैठने नहीं देती .”

“देखो तुमसे कितनी बार कहा अम्मा का ध्यान रखा करो. उन्हें कुछ करने नहीं दिया करो .”

वहां से अम्मा की कराहने की आवाज़  आती है ….”वे कहती है बेटा अब ऐसे जीने से अच्छा है भगवान् हमें उठा ले कितना जियेगे .”

“नहीं अम्मा ऐसा नहीं कहते आप आराम करो हम अभी आते हैं “

इतने में बहू आती है ..” कहती है क्यों अम्मा क्या शिकायत कर रही थी इनसे .”

“ नहीं हमने कुछ नहीं कहा ..”

इतने में बहू अम्मा का हाथ मरोड़ती और दबी आवाज में कहती है..” तुम्हें सिर्फ इसलिए खिला पिला रहे हैं,  क्योंकि  हर महीने तुम्हारी पेंशन जो आती है.”

अम्मा ने अपना हाथ बहू के सिर पर रख दिया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 28 ☆ लघुकथा – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”। हमने अपने जीवन  में यह देखा है कि यदि मनुष्य कोई बात मन में ठान ले और उसे पूरी करने पर उतर आये तो उसे  पूरी अवश्य कर लेता है   जैसा शीर्षक है वैसी ही कहानी है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 28 ☆

☆ लघुकथा – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

अम्माँ देखो ये क्या है तुम्हारे बक्से में? दो थैलें रखे हैं, इन पर लिखा है-  विश्वास और संतुष्टि. किसने लिखा ये ? तुमने कि बापू ने? क्यों लिखा था अम्माँ बोलो ना –

वह बक्से में पुराने कपडे देख रही थी कि बेटी की नजर सूती कपडों के बने दो थैलों पर पडी. उसने ही सहेज कर रखे थे,  सोचने लगी –  कितने रंग दिखाती है ये जिंदगी? एक पल के लिए लगता है कि सब कुछ खत्म और कभी वहीं से जीवन में नई कोपलें फूट पडती हैं . उन थैलों को हाथ में लेते ही  ऐसा लगा मानों किताब के कई पन्ने एक साथ फडफडा कर पीछे पलट गए हों.

सन् 2020 की बात है. नया साल शुरु हुआ ही था. शुभकामनाओं के संदेश अभी फीके भी नहीं पडे थे. खबर सुनाई पड रही थी कि विदेश में कोरोना नाम की बीमारी आई है हजारों लोग हर दिन मर रहे हैं. चीन, इटली, स्पेन में बीमारी की खबर सुनते – सुनते  अपने देश में भी फैल गई. और फिर एक दिन घोषणा हुई कि पूरे देश में कामकाज बंद. सबसे बडी मुसीबत पडी मजदूरों पर, कमाएं ना तो खाएं क्या बेचारे? भूखों मरने की नौबत आ गई थी. बस, ट्रेन सब अचानक बंद करवा दी गई. बडे- बडे शहरों में आसपास के गांवों से ना जाने कितने मजदूर आते हैं काम करने, सब परेशान थे.

हम और तुम्हारे बाबू ने भी सोचा कि गांव जाना ही ठीक रहेगा. बीमारी हारी में अपनों के पास रहना ही ठीक होता है. तुम दोनों बहुत छोटे रहे, उसी समय हमने दो बडे थैले बनाए – एक पर लिखा विश्वास दूसरे पर संतुष्टि. जरूरत का सामान साथ रख हम पैदल चल दिए गांव की ओर. मन में विश्वास था कि हम अपने गांव पहुँच जाएंगे, संतोष इस बात का था कि हमारे पास जो कुछ है,  बहुत है. रास्ते में बहुत लोग खाने – पीने का सामान बाँट रहे थे पर हम मना कर दिए लेने से. तुम्हारे बाबू बोले जिन लोगों के पास खाने को कुछ नहीं है आप उनको दें.  हम कई दिन चलते रहे, थक जाते तो कहीं सडक किनारे रुक जाते, अपने विश्वास के सहारे गांव पहुँच ही गए बिटिया.

बिटिया की आँखें आश्चर्य से फैल गईं – अपना गांव तो दिल्ली से बहुत दूर है अम्माँ,इतना चले कैसे हम दोनों को गोद में उठाकर?

रमिया की आँखों के सामने उस सफर  का हरेक पल साकार हो रहा था, आँखें भर आईं. बडे प्यार से बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए इतना ही बोली –  मन के हारे हार है मन के जीते जीत.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 46 – बता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “बता। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 46 ☆

☆ लघुकथा –  बता ☆

“माना कि मानव ने वृक्षों का भरपूर उपयोग कर इमारतों के जंगल सजा लिया, मगर तू तो आरी है और यह भी जानती है कि हम सभी वृक्ष जीते जी भी काम आते है और मरने के बाद भी.“

“हाँ, यह निर्विवाद सत्य है .”

“मगर तू यह बता कि मरने के बाद मानव क्या काम आता है ?”

यह सुन कर आरी के साथ-साथ मानव की हंसी भी गायब हो चुकी थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 5 ☆ नींव के पत्थर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा “विश्व में कविता समाहित या कविता में विश्व?”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 5 ☆ 

☆  नींव के पत्थर ☆ 

महल के कलश कितने भव्य हैं… मीनारें तो देखो कितनी सुंदर हैं…. दीवारों पर की गई पच्चीकारी अद्वितीय है…. छतों पर अद्भुत चित्रकारी है… वातायनों और गवाक्षों पर कैसी मनोहर बेलें हैं… दर्शक भावविभोर रहकर प्रशंसा कर रहे थे।

किसी ने एक भी शब्द नहीं कहा उन सीढ़ियों के लिए जो पूर्ण समर्पण के साथ मौन रहकर उठाये थीं उन सबका भार और अदेखे रह गये महल का असहनीय भार पल-पल अपने सिर पर उठाये नींव के पत्थर।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

३-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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