हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 267 ☆ कथा – एक नेक काम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय कथा – ‘एक नेक काम‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 267 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ एक नेक काम

बाहर चले गये या बाहर रह रहे बच्चों का घर आना बहुत सुख देने वाला होता है, और उनका जाना बहुत दुखदायक। मीनू इस बार जब ससुराल से आयी तो मां बाप को हमेशा की तरह बहुत खुशी हुई। दोनों छोटी बहनों को भी। खासतौर से इसलिए कि उसके साथ बुलबुल भी था। बुलबुल अब दो साल का हो गया था। पिछली बार जब मीनू आयी थी तब  वह इधर-उधर घिसट ही पाता था। अब  वह सयाना हो गया था,खूब बातूनी। उसकी तोतली ज़बान दिन भर चलती थी। ढेर सारी जिज्ञासा और ढेर सारे सवाल। नाना नानी और दोनों मौसियो के लिए जीता-जागता खिलौना। मीनू के पास न अब वह रहता था, न सोता था।

नानी उसे अपने पास लिटा कर खूब सारी कहानियां सुनातीं— राजाओं, राजकुमारियों की, परियों और राक्षसों की। बच्चे वैसे भी अद्भुत श्रोता होते हैं। हर बात उनके लिए सच होती है, हर किस्सा विश्वसनीय। परी, राक्षस, सब उनकी कल्पना में जिन्दा हो जाते हैं। उनके साथ उठते, बैठते, बतयाते हैं। बुलबुल भी नानी की कहानियां सुनते-सुनते कभी किलक कर ताली बजाने लगता,  कभी भयभीत होकर कबूतर की तरह उनकी गोद में दुबक जाता। सारे वक्त उसकी आंखें उत्सुकता से फैली रहतीं और पुतलियां नानी के चेहरे के चारों तरफ घूमती रहतीं। फिर एकाएक नानी पातीं कि वह किसी क्षण नींद में डूब गया है। उसके गुलाबी ओंठ नींद में खुल जाते और उसकी सांसों की मीठी महक नानी के चेहरे को छूने लगती।

मां के घर आकर मीनू आलसी हो जाती है। मां कोई काम नहीं करने देती। कहती हैं, अपने घर में बहुत काम करती होगी। यहां थोड़ा आराम कर ले। मां और बहनें सारा काम करती हैं और मीनू आराम फरमाती है। लेटी लेटी कोई किताब पलटती है या सोती है। यहां आकर जैसे वह एक बार फिर बच्ची हो जाती है। मां उसके लिए सोच सोच कर नये पकवान बनाती है और मना मना कर उसे खिलाती है।

मीनू ऊबती है तो परिचितों के घर बैठने के लिए चली जाती है। उसकी हमउम्र सहेलियों में से ज़्यादातर शादी के बाद ससुराल चली गयीं। जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई वे समय काटने के लिए किसी डिग्री या ट्रेनिंग के चक्कर में फंसी हैं। ऐसी सहेलियों को मीनू से ईर्ष्या होती है क्योंकि मध्यम वर्ग की लड़की की सही वक्त पर शादी हो जाना सौभाग्य की बात है।

बुलबुल के आने से मीनू के पिता भी खूब खुश हैं। वे कहीं भी जाने के लिए तैयार होते हैं कि बुलबुल कहता है, ‘नानाजी, कहां जा रहे हो? हम भी चलेंगे।’ वह सब जगह नाना की उंगली पकड़े घूमता है, चाहे वह बाज़ार हो या उनके मित्रों का घर।

गरज़ यह कि मीनू की उपस्थिति से घर में बड़ा सुकून है। उसकी बात कोई नहीं टालता, न मां-बाप, न बहनें।जब मर्जी आती है, वह मां को, पिता को, बहनों को झिड़क देती है और सब उसकी बात को शान्ति से सुन लेते हैं और मान लेते हैं। मां को आराम है क्योंकि पिता और बहनों पर वह खूब अनुशासन रखती है।

मीनू के आने से घर की महरी भी खुश है। वजह यह है कि जाते वक्त कुछ मिल जाने की आशा है— रुपये और शायद पुरानी साड़ी और ब्लाउज़। इसीलिए वह मीनू की अतिरिक्त सेवा करती है। काम खत्म होने पर अक्सर उसके हाथ- पांव दबाने बैठ जाती है।

महरी के साथ उसकी तेरह चौदह साल की बेटी आती है। नाम आश्चर्यजनक है— सुकर्ती। यह ‘सुकृति’ शब्द बिगड़कर कैसे निम्न वर्ग तक पहुंच गया, यह अनुसंधान का विषय है। वैसे हर सन्तान माता-पिता की नज़र में ‘सुकृति’ ही होती है। सुकर्ती किसी घर से कृपा-स्वरूप मिली गन्दी फ्राक पहने, रबर की चप्पलें फटफटाती, सूखा झोंटा खुजाती, मां के साथ घूमती रहती है। मां बर्तन मांजती है तो वह धो देती है। लेकिन उसे झाड़ू पोंछा लगाने की अनुमति नहीं मिलती क्योंकि उसकी सफाई के बाद भी घर में बहुत सी गन्दगी छूट जाती है।

बुलबुल सुकर्ती से भी बहुत हिल गया है। उसकी गोद में चढ़ा घूमता है। कई बार उसके साथ उसके घर भी हो आया है।

सुकर्ती को देखकर कई बार मीनू के मन में आया है कि उसे अपने साथ ले जाए। बुलबुल को खिलाने के लिए कोई चाहिए। एक  ननद है जो अपनी पढ़ाई में लगी रहती है। सास ससुर ज़्यादा बूढ़े हैं। उनसे  वह ठीक से संभलता नहीं। मीनू ने इसके बारे में मां से बात की और फिर दोनों ने ही महरी से। महरी बात को टाल देती है। बेटी के सूखे बालों पर प्यार से हाथ फेरकर कहती है, ‘बाई, अब इसी की वजह से घर में कुछ अच्छा लगता है। दोनों लड़के ‘न्यारे’ हो गये। यह भी चली जाएगी तो घर में मन कैसे लगेगा? जो रूखा सूखा मिलता है सो ठीक है। आंखों के सामने तो है। बड़ी हो जाएगी तो हाथ पीले कर देंगे।’

लेकिन मीनू और उसकी मां इतनी आसानी से हारने वाले नहीं। मां, मीनू और दोनों बहनें हमेशा महरी को एक ही धुन सुनाती रहती हैं, ‘सुकर्ती को भेज दो। आराम से रहेगी। अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी। भले घर में रहकर शऊर सीख जाएगी। यहां देखो कैसे घूमती है। वहां जाएगी तो शकल बदल जाएगी। तुम देखोगी तो पहचान भी नहीं पाओगी। और फिर मीनू तो साल- डेढ़- साल में आती ही रहती है। उसके साथ सुकर्ती  भी आएगी।’

महरी एक कान से सुनती है, दूसरे से निकाल देती है। अकेले में सुकर्ती के सामने भी प्रलोभन लटकाये जाते हैं, ‘वहां अच्छा खाना, अच्छे कपड़े मिलेंगे। वहां कार भी है। खूब घूमने को मिलेगा। काम क्या है? बस, बुलबुल को खिलाना और थोड़ी ऊपरी उठा-धराई।’

सुनते सुनते सुकर्ती अपनी वर्तमान ज़िन्दगी और उस काल्पनिक ज़िन्दगी के बीच तुलना करने लगती है। उसे अपनी वर्तमान ज़िन्दगी में खोट नज़र आने लगते हैं। सामने कल्पना की इंद्रधनुषी दुनिया विस्तार लेती है जिसमें सब कुछ सुन्दर, चमकदार है, वर्तमान अभाव और अपमान नहीं है।

रात को जब थककर महरी सोने के लिए लेटती है तो उसके सिर पर हाथ फेरकर कहती है, ‘तू कहीं मत जाना बेटा। हम जैसे भी हैं अच्छे हैं। चली जाएगी तो देखने को तरस जाएंगे। जो मिलता है, उसी में हमें संतोष है।’

लेकिन सुकर्ती की आंखों में वह चमकदार दुनिया कौंधती है। वह कोई जवाब नहीं देती।

मीनू महीने भर रहने की सोच कर आयी थी, लेकिन एक दिन उसके पतिदेव आ धमके। बहुत से पति पत्नी-विछोह नहीं सह पाते। दो दिन बाद ही तबीयत बिगड़ने लगती है। यह नहीं कि हर स्थिति में पत्नी के प्रति बहुत प्रेम ही हो, बस पत्नी एक आदत बन जाती है, ज़िन्दगी के ढर्रे का एक ज़रूरी हिस्सा, जिसकी अनुपस्थिति में ढर्रा गड़बड़ाने लगता है। अक्सर पत्नी की अनुपस्थिति कुछ ऐसी लगती है जैसे घर की कोई बहुत उपयोगी ऑटोमेटिक मशीन बिगड़ गयी हो। घर में उसकी उपस्थिति ज़रूरी होती है, लेकिन उसके प्रति कोई स्नेह या समझदारी का भाव नहीं होता।

तो दामाद साहब मीनू को ले जाने के लिए पधार गये। भारतीय समाज में दामादों का पधारना एक घटना होती है। घर में एक ज़लज़ला उठता है। प्रेम और ख़िदमत के भाव गड्डमड्ड हो जाते हैं।

यहां भी यही हुआ। सास और दोनों सालियां दामाद साहब की सेवा में लग गये। क्या खिलायें? कहां घुमायें? दामाद से संबंध में केवल स्नेह का ही भाव नहीं होता, अन्यथा साले को अपनी बहन के घर में भी वैसा ही सम्मान मिलता। इसकी पृष्ठभूमि में वरपक्ष की श्रेष्ठता और कन्यापक्ष की घटिया स्थिति होती है। दामाद की खातिर के लिए और उसे अच्छी विदाई देने के लिए सास-ससुर कोनों में फुसफुसाते हैं, कर्ज लेते हैं और दामाद साहब सब जानते हुए भी टांग पर टांग  धरे शेषशायी मुद्रा में पड़े विदाई के सुखद  क्षण की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

दामाद के आने से मीनू की मां खुश भी हुई और दुखी भी। बेटी के चले जाने की सोच कर दिल भारी हो गया। विवाह के बाद बेटी पर कैसे अधिकार खत्म हो जाता है। उधर से हुक्म आता है और उसका तुरन्त पालन करना पड़ता है। मां अब अक्सर चिन्तित रहती थीं। काम करते-करते रुक कर सोच में डूब जाती थीं। मीनू के साथ-साथ बुलबुल के चले जाने की बात उन्हें और ज़्यादा व्याकुल करती थी।

मां वैसे भी बहुत संवेदनशील थीं। बेटियों की जुदाई उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। मीनू की शादी में विदा के वक्त ऐसी हड़बड़ायीं कि सीढ़ी से उतरने में लुढक गयीं। घुटने और हाथ में खासी चोट आयी । उसी स्थिति में मीनू को उनसे विदा लेनी पड़ी थी। अब मीनू के जाने में तीन-चार दिन थे, लेकिन वे अकेली होने पर अपने आंसू पोंछती रहती थीं। पति और दोनों छोटी बेटियों पर चिड़चिड़ाती रहतीं। 

दामाद साहब के आने के बाद से महरी पर सुकर्ती को भेजने के लिए दबाव बढ़ने लगा था। अब महरी के लिए बात को टालना मुश्किल हो रहा था। अन्ततः बात सुकर्ती के बाप तक पहुंच गयी। एक दिन सवेरे वह मीनू  के घर आया। सांवला, तगड़ा, सलीके से बात करने वाला आदमी था।

हाथ जोड़कर मीनू से बोला, ‘आप ले जाओ बाई सुकर्ती को।  हमने सुना तो हमें बड़ी खुशी हुई। लड़की की जिन्दगी सुधर जाएगी। बल्कि वहीं कोई लड़का देख कर उसकी शादी करवा देना। उसकी मां की बात पर ध्यान मत देना। वह मूरख है। सुकर्ती आपके साथ जरूर जाएगी।’

घर में सब खुश हो गये। किला फतह हो गया। लेकिन उस दिन से महरी बहुत उदास रहने लगी। आती तो बहुत धीरे-धीरे बात करती। सुकर्ती से पहले से ज़्यादा प्यार से बात करती। पहले से ज़्यादा उसका खयाल करती।

अन्ततः वह दिन आ गया जब मीनू को प्रस्थान करना था। मां का कलेजा फटने लगा। सब सामान तैयार हो गया। घर के सब सदस्य बुलबुल को बारी-बारी से गोद में लेकर प्यार करने लगे। सुकर्ती अपनी पोटली लेकर आ गयी थी। साथ मां-बाप थे। महरी का जी दुख से भरा था। आंखों में आंसू भरे, आंचल को मुंह में ठूंसे वह चुपचाप खड़ी थी। लेकिन सुकर्ती एक लुभावनी दुनिया की आशा में खुश थी।

मीनू विदा हो गयी। पिता और सुकर्ती का बाप उन्हें छोड़ने स्टेशन गये। मेहमान अपने पीछे सन्नाटा, शून्य और दुख छोड़ गये। घर के पुराने सन्तुलन को मीनू और बुलबुल के आगमन ने तोड़ा था और अब घर उसी पुराने सन्तुलन पर लौटने की पीड़ादायक प्रक्रिया से गुज़र रहा था।

मीनू के जाते ही मां आंखों को साड़ी से ढक कर पलंग पर ढह गयीं और दोनों बेटियां कुर्सियों पर चुप-चुप बैठ गयीं।

महरी एक कोने में बांहों पर सिर रखे बैठी थी। थोड़ी देर में उसके मुंह से रुलाई का हल्का सवार निकलने लगा, जैसे कि पीड़ा को दबाये रखना कठिन हो गया हो।

उसकी आवाज़ सुनकर मीनू की मां चौंक कर पलंग पर बैठ गयीं। दोनों बहने भी चौंकीं।

मां उठकर उसके पास आयीं और उसके नज़दीक उकड़ूं बैठ गयीं। उनके चेहरे पर आश्चर्य का भाव था। बैठकर बोलीं, ‘अरे, तुम रो रही हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि सुकर्ती आराम से रहेगी। रोने की क्या बात है?’

जवाब में महरी का स्वर और ऊंचा हो गया। मीनू की मां की समझ में नहीं आ रहा था कि महरी खुश होने के बजाय रो क्यों रही थी। दोनों बहनें भी यह समझ नहीं पा रही थीं कि  सुकर्ती के इतनी अच्छी जगह जाने पर महरी को खुशी क्यों नहीं हो रही थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गरीब का घर – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– गरीब का घर –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — गरीब का घर — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मैं अस्सी से कम शब्दों में एक अद्भुत घटना को बांध रहा हूँ। एक गरीब आदमी ने अपनी मृत्यु के समय अपनी पत्नी से कहा, “वहाँ थोड़ा पैसा है। मैंने बचा रखा है। सोचता था संकट आये तो तुमसे कहूँगा घबराना मत, पैसा है।” उसकी पत्नी उसके प्राण के लिए रोते — रोते उसी के प्रवाह में बोली, “मैंने भी थोड़ा पैसा बचा रखा है। सोचती थी संकट आये तो तुमसे कहूँगी घबराना मत, पैसा है।” 

***

© श्री रामदेव धुरंधर
07 – 12 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – बीज ? ?

वह धँसता चला जा रहा था। जितना हाथ-पाँव मारता, उतना दलदल गहराता। समस्या से बाहर आने का जितना प्रयास करता, उतना भीतर डूबता जाता। किसी तरह से बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, बुद्धि कुंद हो चली थी।

अब नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

एकाएक उसे स्मरण आया कि जिसके विरुद्ध क्राँति होनी होती है, क्राँति का बीज उसीके खेत में गड़ा होता है।

अंतिम उपाय के रूप में उसने समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आरम्भ किया। आद्योपांत निरीक्षण के बाद अंतत: समस्या के पेट में मिला उसे समाधान का बीज।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – जन्मदिन… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा जन्मदिन।

? लघुकथा – जन्मदिन ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

पहली कक्षा में पढने वाला अक्षत शहर के नामीगिरामी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है. हर कक्षा में एयर कंडीशनर ,भव्यइमारत ,बहुत बड़ा खुला खेल का मैदान,सुंदर बगीचा इस स्कूल को सबसे अधिक प्रतिष्ठित बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं. एक साल की फ़ीस लाखों में है .

कल स्कूल से लौटकर अक्षत बहुत उत्साहित था –‘ मम्मी , कल जॉनी का बर्थडे है बहुत मजा आएगा. हम सबको गिफ्ट मिलेगी .’ मम्मी जानती है इन स्कूलों में तामझाम होते ही रहते हैं .बर्थडे पर क्लास के सब बच्चों को केक चौकलेट्स देने का प्रचलन है .

अगले दिन अक्षत स्कूल से लौटा,बड़े उत्साह से अपनी गिफ्ट पेन्सिल रबर.स्केल रखने का पाऊच दिखाया और बताया सबने चॉकलेट केक खाया . मम्मी ने उत्सुकता से पूछ ही लिया –‘यह जॉनी तुम्हारी क्लास में है या…..’

‘ओ मम्मा—-जॉनी किसी क्लास में नहीं पढ़ता. वह तो हमारे स्कूल का डौगी है . प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर बैठा रहता है…..’मम्मी का मुंह विस्मय से खुला ही रह गया —‘क्या –‘ तब तक अक्षत अपनी गिफ्ट दोस्तों को दिखाने बाहर निकल गया .

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 50 – खुशी के पल… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खुशी के पल…।)

☆ लघुकथा # 50 – खुशी के पल… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

आज इतना जल्दी-जल्दी सब काम कर रही हो? खाना भी बनाकर रख दिया, नाश्ता भी कर दिया, कहीं जाने की तैयारी है क्या? लग रहा है आज तुम्हारी किटी पार्टी है!

हां अरुण आज हमारी पार्टी है और मैं ही पार्टी दे रही हूं। नाश्ता भी पैक करा कर ले जाऊंगी।  तुम यह समझ लो हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। तुम्हें अकेले ही जाना होगा?

ठीक है मैं किसी को छोड़ने को कहां कह रही हूं।

मैं अपनी सहेली मीरा के साथ चली जाऊंगी।

तभी मीरा घर के बाहर जोर से चिल्लाती है – चलो चलना नहीं है क्या?

बहन, हां मैं तो तैयार हूं चल रही हूं।

बहन, चलो पैदल चलते हैं। 50 समोसे के लिए पास की दुकान वाले को बोल दिया है। और बाकी नाश्ता पैक कर के कमला मौसी ले आएंगी।

तभी एक ऑटो वाला आता है वह कहता है – बहन जी कहां जाना है?

हां भैया चलना तो है पर दुकान वाला अभी समोसे तले तो चलते हैं। अरे बहन जी छोड़ो दुकान वाले को बाहर से ले लेना रास्ते में बहुत सारे मिलेंगे। और वह दुकान वाले को चिल्ला के बोलता है दे दो बहन जी ऑटो में ही बैठकर खा लेंगी।

तभी रूबी बोलती है कि नहीं नहीं भैया हमें थोड़ा ज्यादा लेना है तुम जाओ?

हां मैं समझ गया बहन जी आप लोगों को भंडारा करना है ठीक है 5 समोसा मुझे भी दे दो इस गरीब का भी कुछ भला कर देना।

अरे भैया मुझे स्टेशन जाना है छोड़ोगे क्या जल्दी?

 तभी एक आदमी भी ऑटो में आकर बैठ जाता है।

हां हां रुक जाओ। यह बहन जी लोगों को लेकर चलता हूं। रहने दो मैं दूसरे ऑटो से जाऊंगी तुम इन्हें लेकर जाओ।

क्या भैया कहां से पनौती आ गये?

मैं अच्छा खासा मैडम लोगों से पैसे भी लेता और खाने को भी मिल रहा था चलो अब?

पता नहीं कहां-कहां से लोग आ जाते हैं रूबी ने चिल्ला कर कहा देखो मीरा गलतफहमी कैसी कैसी लोगों को हो जाती है।

चलो सखी थोड़ी सी देर हम लोग खुश हो जाते हैं तो इसमें घर वाले को एतराज होता है। अब बाहर यह ऑटो वाले को देखो यह भी…।

दोनों सखियां जोर-जोर से हंसने लगते हैं। सच्ची दोस्त ही यह बात समझ सकती है।

छोड़ो सखी सबको खुशी के पल जहां से मिले उसे ले लेना चाहिए।

****

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उजास ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – उजास ? ?

अमावस की गहन रात में चार पथिक मिले। जिज्ञासा ने चारों से एक ही प्रश्न पूछा, ‘क्या दिख रहा है?’ ….’घुप्प अंधेरा है’, पहले ने उत्तर दिया। दूसरे ने कहा, ‘सवाल ही ग़लत है। अंधेरे में कभी कुछ दिखता है क्या?’ तीसरे ने कहा, ‘बेहद लम्बी काली रात है।’ चौथे ने कहा, ‘रात है, सो सुबह की आस है।’… समय साक्षी है कि केवल चौथा पथिक ही उजास तक पहुँचा।

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© संजय भारद्वाज  

(संध्या 4:58 बजे, 13 सितम्बर 2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 49 – घाट घाट का पानी…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – घाट घाट का पानी।)

☆ लघुकथा # 49 – घाट घाट का पानी श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अरे आशा बड़े दिनों बाद कॉलोनी में दिख रही हो, तुम्हारा तो ट्रांसफर हो गया था । क्या फिर से तुम दिल्ली आ गयी?

आखिर हमारे शहर का जादू चली गया तुम्हारा मन नहीं लगा।

अरुण भाभी आपका मन बिना मजाक किए लगता नहीं है और खाना भी हजम नहीं होता। आज भी आप मंदिर इसी तरह जाती हैं, इस बार मुझे क्वार्टर इस सामने वाले घर में मिला है। चलिए ना थोड़ी देर बैठिये।

हां हां आऊंगी अभी तो मुझे मंदिर पूजा करने जाना है, तुम्हें पता है मैं हर सोमवार को मंदिर जाती हूं।

तुम्हारा तो इतनी जगह ट्रांसफर हो चुका है?

क्या करूं भाभी इन 10 सालों में आपका कहीं ट्रांसफर नहीं हुआ।  पर हमें तो तीन जगह देखना पड़ा क्या करूं?

भगवान और किस्मत को जो मंजूर रहता है, वही होता है।

हां हां बातें बनाना तो कोई तुमसे सीखे।  आखिर तुमने घाट-घाट का पानी जो पिया है!

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 210 – डोर बेल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित हृदयस्पर्शी लघुकथा डोर बेल”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 210 ☆

🌻लघु कथा🌻 डोर बेल🌻

 

बचपन सभी का बहुत प्यारा होता है। बचपन की यादें सारी जिंदगी जीने का मकसद बन जाती है।

किसी का बचपन संवर कर अच्छा किसी का बहुत अच्छा और किसी का स्वर्णिम बन जाता है। परन्तु कुछ का बचपन एक किस्सा बन जाता है।

मिट्टी का घरौंदा धीरे- धीरे घर बना। और रहने लगा एक परिवार। मासूम सी बिटिया अपने छोटे भाई और माँ पिताजी के साथ।

पिता जी बड़े प्यार से बिटिया को डोरबेल बुलाते थे, क्योंकि बाहर से आने के पहले ही वह दरवाजे पर खड़ी मिलती थी।

ठंड अपने पूर्ण जोश से दस्तक दे रही थी। रात पाली काम करके आज पिता जी लौटे। उनके हाथ एक खुबसुरत रंगबिरंगा कंबल था।

आज डोर बेल दरवाजे पर नही आई। माँ ने कहा शायद ठंड की वजह से सिमटी पडी सो रही है। पिताजी डोरबेल के पास पहुंचे। पर यह क्या???

डोर बेल तो ठंड से अकड गई थी। तुरंत दौड़ कर सरकारी अस्पताल ले जाया गया। जहाँ डा. ने कहा कि देर हो गई।

पिता जी कंबल में लपेटे डोरबेल को ले जा रहे थे। कानों में उसकी घंटी  बजी – – – पिता जी डोर बेल टूट गई।

चौक के पास एनाउंसमेंट नेताओं का हो रहा था। सभी को कंबल बाँटा जा रहा है। अपना आधार कार्ड दिखा कर कंबल लेते जाए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 266 ☆ लघुकथा – अपना अपना धर्म ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम लघुकथा – ‘अपना अपना धर्म‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 266 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अपना अपना धर्म

नवीन भाई रिटायर होने के बाद घोर धार्मिक हो गये हैं। पहले दोस्तों के साथ बैठकर कभी-कभी सुरा-सेवन हो जाता था। दफ्तर में भी दिन भर में हजार पांच सौ रुपया ऊपर के कमा लेते थे। अब सब प्रकार के पापों से तौबा कर ली है। अब लौं नसानी, अब ना नसैंहौं। परलोक की फिक्र करना है।

अब रोज नहा-धो कर नवीन भाई करीब एक घंटा पूजा करते हैं। सभी देवताओं की स्तुति  गाते हैं। बाद में भी बैठे-बैठे ध्यानस्थ हो जाते हैं। बार-बार आंख मूंद कर हाथ जोड़ते हैं, कानों को हाथ लगाते हैं। शाम को कॉलोनी के छोटे से मन्दिर में बैठ जाते हैं। वहां अन्य भक्तों से सत्संग हो जाता है, शंका-निवारण भी हो जाता है। हर साल तीर्थ यात्रा का प्लान भी बन गया है। परिवार के सदस्य उनके ‘सुधरने’ से प्रसन्न हैं।

नवीन भाई के घर में खाना बनाने वाली लगी है। पहले कई खाना बनाने वालीं काम छोड़ चुकीं क्योंकि नवीन भाई को खाने में मीन-मेख निकालने की आदत रही। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वे शान्त और सहनशील हो गये हैं।

कुछ दिन पहले घर में खाना बनाने के लिए केसरबाई लगी है। बड़ी धर्म-कर्म वाली है। घर में प्रवेश करते ही बच्चों समेत सबसे हाथ जोड़कर ‘राधे-राधे’ कहती है। सफेद साड़ी पहनती है जिसका छोर गर्दन में लपेटकर पुरी भक्तिन बनी रहती है। रास्ते में किसी मन्दिर से चन्दन का सफेद टीका लगा लेती है। किचिन में घुसते ही मोबाइल पर भजन चालू कर लेती है और उसके साथ सुर में सुर मिलाकर गुनगुनाती रहती है। टीवी पर कोई धार्मिक चैनल चलता हो तो काम भूल कर बड़ी देर तक वहीं खड़ी रह जाती है।

नवीन भाई की पत्नी उससे प्रसन्न रहती हैं क्योंकि वह किसी बात को लेकर झिकझिक नहीं करती। अपने में मगन रहती है। लेकिन नवीन भाई को उसके गुनगुनाने से चिढ़ होती है। उसका सुर फूटते ही उनके ओंठ टेढ़े हो जाते हैं।

केसरबाई को आने में कई बार देर होती है। कहीं बिलम जाती है। आने पर बताती है कि रास्ते में कहीं कथा या भागवत सुनने बैठ गयी थी। सुनकर नवीन भाई का रक्तचाप बढ़ता है। मन को एकाग्र करना मुश्किल होता है। बीच में एक बार तीन-चार दिन के लिए मिसेज़ चौबे के साथ वैष्णो देवी चली गयी थी। तब भी नवीन भाई का बहुत खून जला था। मिसेज़ चौबे हर साल एक महिला को अपने खर्चे पर अपने साथ तीर्थ यात्रा पर ले जाती हैं। उनके खयाल से ऐसा करने से उन्हें अतिरिक्त पुण्य की प्राप्ति होती है। 

नवीन भाई केसरबाई की भक्ति से चिढ़ते हैं क्योंकि उन्होंने पढ़ा है कि हर आदमी का निश्चित धर्म होता है और उसे अपने धर्म के हिसाब से ही काम करना चाहिए। दूसरे के धर्म की नकल नहीं करनी चाहिए। केसरबाई  का धर्म दूसरों की सेवा करना है, इसीसे उसका कल्याण होगा। उसके मुंह से धर्म-कर्म की बातें उन्हें फालतू लगती हैं। वे गीता का हवाला देते हैं कि अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

कई बार नवीन भाई का मन होता है कि वे केसरबाई से कहें कि धर्म-कर्म की बातें छोड़कर अपने काम की तरफ ध्यान दे। फिर यह सोचकर चुप रह जाते हैं कि वह कहीं नाराज़ होकर उनका काम न छोड़ दे। बिना बखेड़ा किये उनका काम करती रहे, यही बहुत है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मुस्कान ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य। माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक अप्रतिम लघुकथा “मुस्कान। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।) 

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मुस्कान ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

(यह किसी भी संवेदनशील लेखक की मनोवैज्ञानिक दृष्टि ही हो सकती है। इस लघुकथा के संदर्भ उनके ही शब्दों में – “दो तीन पूर्व मैंने इस स्थिति को डाकघर में देखा है, कथा हेतु संवाद बदले गये हैं ।”)

बैंक में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुये अमोल पंक्ति में लगा हुआ था। लगभग बारह बजे का समय था तो बैंक में ग्राहकों की भीड थी और उसके आगे भी काफी लोग लगे हुये थे।

समय व्यतीत करने के लिये वह अपने स्थान से आसपास देख रहा था, बार बार उसका ध्यान उसके वाले काउंटर पर काम कर रहे कर्मचारी की ओर जा रहा था। लगभग चौबीस पच्चीस की आयु वाला युवा जिस गति से कंप्यूटर चला रहा था उसी गति से तेज स्वर में सामने खडे लोगों से भी उलझने जैसी बातें भी कर रहा था। झल्लाहट, हल्का क्रोध, रोष उसकी बातों से प्रकट हो रहा था। अगले ग्राहक ने सौ के नोटों की बहुत सी गड्डियां काउंटर पर रखीं, उसने आंखें तरेर कर उसे देखा और फटाफट नोट मशीन में रख दिये। जमा पर्ची की रसीद पर जोर से मुहर लगाई और पटकते हुये काउंटर की खिडकी पर रखी। अगले ग्राहक को जोर से बोला- लाइये आपका क्या काम है, यूं ही देखते मत रहिये।

उसके इस व्यवहार को देख कर पंक्ति में खडे लोग अनेक प्रकार की टिप्पणियां कर रहे थे। अचानक उसका कोई फोन आया जिसे सुनते हुये भी उसने सामने वाले को आवेश में ही कुछ उत्तर दिया। तनाव उसके मुख पर स्पष्ट देखा जा सकता था।

उसी समय पीछे से उसकी ही आयु का अन्य युवक आया और झुक कर उससे धीमे स्वर में कुछ बात की जिसे सुनकर उसके चेहरे पर एक निर्मल मुस्कुराहट आई जिसने उसका रूप ही बदल गया था।

पांच मिनट बाद अमोल की बारी आई, उस कर्मचारी को देखते हुये उसने कहा साहब आप मुस्कुराते हुये बहुत स्मार्ट लगते हैं। यह सुनकर उसके मुख पर अनेक भाव आकर चले गये और तत्काल ही उसने कहा क्या मतलब, आप अपना काम कहिये।

अमोल ने भी मुस्कुराते हुये कहा मुझे अपना एटीएम कार्ड नया बनवाना है मैं सभी आवश्यक कागज लाया हूं, यह कह कर उसे आवेदन सौंप दिया। कर्मचारी कागज देखने लगा तभी अमोल फिर कहा सर आपकी स्माइल अच्छी लगती है। यह सुनकर उसने दृष्टि उठाई और पुनः वैसे ही मुस्कुराते हुये कहा सर इतनी भीड में कहां मुस्कुरा सकते हैं। झट अमोल ने कहा देखिये अभी तो मुस्कुराये कि नहीं, इसपर उसकी मुस्कुराहट और गहरी हो गई और उसने कहा आपका कार्ड परसों तक घर आ जायेगा। धन्यवाद, और कुछ काम हो तो कहिये।

पंक्ति से निकलते हुये अमोल ने देखा पीछे खडे सारे ग्राहकों के चेहरे पर भी एक मीठी-सी मुस्कान थी।  

 ©  सदानंद आंबेकर

म नं सी 149, सी सेक्टर, शाहपुरा भोपाल मप्र 462039

मो – 8755 756 163 E-mail : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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