हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 224 ☆ कहानी – इलाज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी – ‘इलाज’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 224 ☆

☆ कहानी – इलाज

डा. प्रकाश शहर के नामचीन चिकित्सक हैं। दिन में एक अस्पताल में बैठते हैं। शाम को अपने क्लिनिक में बैठते हैं। उम्र ज़्यादा नहीं है लेकिन शोहरत खूब है। कहते हैं कुछ लोगों के हाथ में ‘जस’ होता है। कुछ वजह उनके अच्छे स्वभाव की भी है। शायद माँ-बाप ने क्रूरता से पैसा खींचने की कला नहीं सिखायी। इंसान बने रहने की अहमियत सिखायी। इसीलिए उनके क्लिनिक में अमीर गरीब, बली और निर्बल सब बेझिझक चले आते हैं।

डा. प्रकाश ने अपने क्लिनिक में तीस मरीज़ों की सीमा रखी है। उससे ज़्यादा न देखने की कोशिश करते हैं। उनका सोच है कि मरीज़ों की भीड़ लगाने से उनके साथ न्याय नहीं हो पाता। लेकिन सीमा का निर्वाह हमेशा नहीं हो पाता। सीमा तोड़कर आने वाले बहुत होते हैं। पुराने परिचय की दुहाई देने वाले, शहर में अपने महत्त्व के बूते कहीं भी ठँस जाने वाले, और इन सब के ऊपर नेताओं के छुटभैये। घुटनों तक कुर्ता, कान पर चिपका मोबाइल, और साथ में दो चार खुशामदे। डा. प्रकाश ने व्यवस्था के लिए दरवाज़े पर एक सहायक ज़रूर बैठा रखा है लेकिन धमकाते और रोब झाड़ते चमकदार लोगों के सामने तीन हज़ार रुपल्ली पाने वाले सहायक की क्या औकात? वह धमकी सुनते ही घबराकर डाक्टर साहब की तरफ भागता है। डाक्टर साहब इन छोटी बातों को विवाद नहीं बनने देते। ऐसे लोगों को निपटा कर आगे बढ़ जाते हैं।
डाक्टरों का मरीज़ों के घर ‘विज़िट’ करने का रिवाज़ अब कम हो गया है। पहले दवाख़ाने जाने से पहले डाक्टर ज़रूरतमन्द मरीज़ों के घर का चक्कर लगा लेते थे। लेकिन पैसे वाले और सामर्थ्यवान लोग अब भी ज़रूरत पड़ने पर अच्छे डाक्टर को बुला ही लेते हैं। पैसा और सामर्थ्य हो तो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तुएँ आपको मुहैया हो जाएँगीं। अपने उसूलों के बावजूद डा. प्रकाश भी जब तब शहर के रसूखदार लोगों के द्वारा पकड़ लिये जाते हैं।

एक दिन एक नेतानुमा युवक डाक्टर साहब के क्लिनिक में आकर बैठ गया। हाथ में मोबाइल और मुँह में पान मसाला। नाटकीय विनम्रता से बोला, ‘डाक्टर साहब, आपको मेरे पिताजी को देखने चलना है। एक दिन थोड़ा समय निकालिए।’

डाक्टर साहब बोले, ‘कहाँ हैं पिताजी? उन्हें ले आइए।’

युवक दाँत निकालकर बोला, ‘यही तो समस्या है। वे डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गाँव में हैं। यहाँ नहीं आ सकते।’

डाक्टर साहब ने कहा, ‘कहीं जाने का सवाल ही नहीं है। यहाँ तो दम मारने की फुरसत नहीं है। आप व्यवस्था करके यहीं ले आओ। आजकल तो सब  इन्तज़ाम हो जाता है।’

युवक हाथ उठाकर बोला, ‘आप चलें तो हम बड़ी झंझट से बच जाएँगे। इतवार को वक्त निकाल लीजिए। मैं गाड़ी लेकर आ जाऊँगा। दस ग्यारह बजे निकलेंगे, शाम तक आराम से वापस आ जाएँगे। आप जो फीस कहेंगे हम नज़र करेंगे।’

फिर डाक्टर साहब के चेहरे की तरफ देख कर बोला, ‘कलेक्टर साहब कह रहे थे कि हम डाक्टर साहब को फोन कर देंगे, लेकिन मैंने सोचा इतने छोटे काम के लिए क्या कलेक्टर साहब से फोन कराएँ। इतनी तो हमारी ही सुन ली जाएगी।’

डाक्टर साहब थोड़ा रुखाई से बोले, ‘किसी और डाक्टर को देख लीजिए। मेरा जाना नहीं हो पाएगा।’

युवक खड़ा हो गया। ठंडी साँस लेकर बोला, ‘और डाक्टर और ही हैं। आपकी बात और है। खैर, आप सोचिएगा। मैं फिर संपर्क करूँगा।’

वह चला गया। पौन घंटे में क्षेत्र के टी.आई. साहब का फोन आ गया। सकुचते हुए बोले, ‘डाक्टर साहब, अनिल राय आपसे मिला होगा।’

डाक्टर साहब ने पूछा, ‘कौन अनिल राय?’

टी.आई. बोले, ‘वही जिसने थोड़ी देर पहले अपने पिताजी को दिखाने के लिए आपको गाँव ले जाने की बात की थी।’

डाक्टर साहब बोले, ‘हाँ, याद आया। कहिए।’

टी.आई. बोले, ‘अगर हो सके तो हो आइए, डाक्टर साहब। संडे को टाइम निकाल लीजिए। आपका भी मन बहल जाएगा। यहाँ तो कहीं न कहीं फँसे ही रहेंगे। जब तक आप नहीं जाएँगे, न आप को चैन लेने देगा न मुझे। बड़ा बवाली आदमी है।’

डाक्टर साहब ने ‘ठीक है, देखते हैं’ कहकर फोन रख दिया।

अगले इतवार को अनिल एक सफारी गाड़ी लेकर एक और युवक के साथ आ गया। हाथ जोड़कर बोला, ‘मेरी प्रार्थना स्वीकार करके आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, डाक्टर साहब। आपका उपकार जिन्दगी भर याद रखूँगा।’

गाड़ी में वे दोनों ड्राइवर के बगल में बैठे और डाक्टर साहब पीछे। पूरे वक्त अनिल राय के कान से मोबाइल चिपका रहा। वह खासा बातूनी था।डाक्टर साहब ने सुना वह किसी से कह रहा था, ‘बड़ी मुश्किल से राजी हुए। पहुँचेंगे तो चार लोगों को समझ में आएगा कि हम बाबूजी का कितना खयाल रखते हैं। इत्ते बड़े डाक्टर का आना मामूली बात थोड़इ है। हमें पता है कि बाबूजी का आखिरी टैम है, कुछ होना नहीं है। लेकिन चार लोग देख तो लें कि हम क्या कर सकते हैं। सब जगह खबर कर देना। हमने भी फोन कर दिया। आकर सब लोग देखें। सब लोग इकट्ठे होंगे तो डाक्टर साहब को भी अच्छा लगेगा।’

शहर से बाहर निकले तो आसपास विशाल वृक्ष और हरयाली देखकर डाक्टर साहब को अच्छा लगा। सोचा, अच्छा हुआ कि कुछ देर को निकल आये। आँखों और मन को थोड़ा आराम मिलेगा। शहर में तो चकरघिन्नी बने रहना है।

लेकिन गाड़ी शहर से बाहर निकलकर हिचकोले खा रही थी। सड़क की हालत खस्ता थी। शहर से बाहर निकलते ही बहु- प्रचारित विकास की कलई खुल गयी थी।
अनिल ने रास्ते में दो-तीन जगह गाड़ी रोककर भक्तिभाव से डाक्टर साहब को चाय-पान पेश किया। रास्ते में जहाँ भी रुका वहाँ उपस्थित लोगों को बताना नहीं भूला कि शहर से बहुत बड़े डाक्टर साहब को ले जा रहा है, पिताजी को दिखाने। ‘अपना करतब्ब करना चाहिए, बाकी भगवान के हाथ में है। अपने करतब्ब में कसर नहीं छोड़ना चाहिए।’

डाक्टर साहब का मोबाइल बराबर बज रहा था। जिस अस्पताल में वे बैठते थे वहाँ से बार-बार मरीज़ों को लेकर उनसे निर्देश लिये जा रहे थे। अच्छा डाक्टर कहीं भी जाए, दुखी और पीड़ित संसार उसका पीछा करता रहता है।

जैसे तैसे अनिल राय के गाँव पहुँचे। अनिल की इच्छा के अनुरूप घर के सामने अच्छी खासी भीड़ थी। सब डाक्टर साहब के दर्शनार्थी। कच्चा पक्का मिलाकर घर काफी लंबा चौड़ा था।

अनिल भीड़ को देखकर प्रमुदित था। तत्परता से भीड़ के बीच रास्ता बनाता, वह डाक्टर साहब को मरीज़ के पास ले गया। वहाँ डाक्टर साहब के पास ज़्यादा कुछ करने को नहीं था। छः सात माह पहले गिर जाने के कारण वृद्ध की कमर की हड्डी टूट गयी थी। तब से लेटे ही थे। हड्डी तो जुड़ गयी थी,लेकिन अब वे उठने के लिए तैयार नहीं थे। जीवन-शक्ति शेष हो गयी थी। वे अर्ध-चेतना की अवस्था में थे।

डाक्टर साहब ने उन्हें देखा परखा, कहा, ‘हालत ठीक नहीं है। अब इन्हें सेवा की ही ज़रूरत है। कुछ दवाएँ लिख देता हूँ। इन्हें रोज़ देते रहिए।’

सुनकर अनिल के चेहरे पर कोई विषाद उत्पन्न नहीं हुआ। वह डाक्टर की बातों पर सिर हिलाता, उनके निर्देश लेता रहा। फिर हाथ जोड़कर उन्हें बाहर बैठक में ले आया। वहाँ काफी लोग डाक्टर साहब के दर्शन के लिए जमे थे। इतने बड़े डाक्टर को अपने बीच पा वे खासे रोब में थे। गाँव में रोगों का डेरा था। छोटे-छोटे रोग भी मुसीबत बन जाते थे। लेकिन इतने बड़े डाक्टर के सामने अपने छोटे रोगों की बात करना उन्हें कमअक्ली  की बात लग रही थी।

उन्हीं के बीच बातचीत करते  डाक्टर साहब का चाय-नाश्ता हुआ। वहीं सबके सामने अनिल ने डाक्टर साहब को लिफाफा पकड़ाया, कहा, ‘डाक्टर साहब, आपकी फीस। वैसे हम आपको कुछ देने लायक नहीं हैं।’ वह इसी बात में मगन था कि वह इतने बड़े डाक्टर को अपने घर तक लाने में सफल हुआ था। पिताजी की तबियत फिलहाल उसके लिए ज़्यादा अहमियत नहीं रखती थी।

चाय-नाश्ते के बाद अनिल बोला,’एकाध घंटे आराम कर लीजिए। थक गये होंगे।’

डाक्टर साहब ने कहा, ‘नहीं, वहाँ मरीज़ों को देखना है। कई फोन आ गये। अभी निकलना पड़ेगा।’

चलते वक्त अनिल डाक्टर साहब से हाथ जोड़कर बोला, ‘डाक्टर साहब, माफ करें, मैं तो आपके साथ नहीं जा पाऊँगा, लेकिन दो आदमी आपके साथ भेज रहा हूँ।’

डाक्टर साहब ने तत्काल जवाब दिया, ‘किसी की ज़रूरत नहीं है। मैं ड्राइवर के साथ आराम से चला जाऊँगा। आप अपना काम देखिए।’

भीड़ ने डाक्टर साहब को विदा किया। अनिल पुलकित था। उसकी खुशी और गर्व देखते ही बनता था।

डाक्टर साहब ने गाड़ी में बैठ कर आँखें मूँद लीं। ऐसे ही ज़्यादातर रास्ता कट गया। दूर तक सन्नाटे में गाड़ी चलती रही, फिर शहर की रोशनियाँ जुगजुगाने लगीं। डाक्टर साहब के ज़ेहन पर फिर उनकी ज़िम्मेदारियाँ हावी हो गयीं।

घर पहुँचे तो पता चला दो तीन सीरियस मरीज़ों के रिश्तेदार कई बार उन्हें ढूँढ़ते हुए भटके, कि वे आयें तो उन्हें ले जाकर कुछ ढाढ़स प्राप्त करें। अभी शायद फिर आएँगे।

सुनकर डाक्टर साहब ‘ठीक है’ कह कर हाथ-मुँह धोने चल दिए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम ? ?

“सुबह का धुँधलका, गुलाबी ठंड, मंद बयार, उसकी दूधिया अंगुलियों की कंपकंपाहट, उमनगोट-सा पारदर्शी उसका मन, उसकी आँखों में दिखती अपनेपन की झील, उसके शब्दों से झंकृत होते बाँसुरी के सुर, उसके मौन में बसते अतल सागर, उसके चेहरे पर उजलती भोर की लाली, उसके स्मित में अबूझ-सा आकर्षण, उसकी…”

“.. पहला प्रेम याद हो आया क्या?” किसीने पूछा।

“…दूसरा, तीसरा, चौथा प्रेम भी होता है क्या?” उत्तर मिला।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 4 – खूब तरक्की ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – खूब तरक्की ।) 

☆ लघुकथा – खूब तरक्कीश्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अमित शारदा को ऐसी नजरों से देखा रहा था जाने वह क्या करेगा?

परंतु शारदा इग्नोर करती हुई, अपने किचन के कामों में भोजन बनाने के लिए जुट जाती है। अमित को बर्दाश्त नहीं होता और वह जोर जोर से गाली देने लगता है, बेटे आकाश को अपशब्द बोलने लगता है।

शारदा ने गंभीर स्वर में कहा-

“आप स्वयं जिम्मेदार पद पर हो और जब बेटा ड्यूटी ज्वाइन करने जा रहा है तो उसे अपशब्द बोल रहे हो।”

” असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी।”

तभी आकाश अपने कमरे से बाहर आता है।

माँ कहाँ हो?

जल्दी करो मुझे एयरपोर्ट जाना है, फ्लाइट पकड़नी है।

अपने आंसू को जल्दी से पल्लू से छुपाती हूई मुस्कुराते हुए कहती है,हां मुझे पता है इसीलिए तुम्हारा नाम मैंने आकाश रखा है, तुम गगन में उड़ो।

मैं चाहती थी कि तुम एयर फोर्स में जाओ । तुम्हारे पिताजी, दादाजी और नाना जी बरसों से देश की सेवा करते रहे है। बस तुम्हारे पिताजी को ही सरकारी नौकरी करनी थी।

तुम इतना सब कुछ जानने के बाद भी क्यों रोती रहती हो? सुबह से मेरे लिए इतना नाश्ता खाना क्यों बना रही हो?

बेटा तू एक मां के दिल को नहीं समझेगा कि उसके दिल पर क्या बीतती है, तू चला जाएगा तो यह सब मैं कहां बनाती हूं, तेरे बहाने मैं भी खा लेती हूँ।

रोते हुए नम आंखों से उसका सामान पैक करती है और कहती है कि बेटा क्या करूं?

मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो तुम मुझे भगा दोगी, अब जा रहा हूं तो उदास हो।

क्या करूं बेटा? तुम्हारे भविष्य के लिए मुझे अपने दिल पर पत्थर रखना पड़ेगा । बेटा तुम बारिश की एक बूंद की तरह रहना जो हर जगह गिरकर सबको तृप्ति करती है। आकाश चरण स्पर्श करते हुए बोलता है – मां मुस्कुराते हुए विदा करो, अपना सामान उठाकर टैक्सी की ओर जाता है।

शारदा उसे मन ही मन ढेर सारा आशीर्वाद देती है और कहती है बेटा जीवन में हमेशा आगे बढ़ो कभी अपने कदम पीछे की ओर मत रखना खूब तरक्की करो।

उमा मिश्रा© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 176 – तपिश – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा तपिश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 176 ☆

☆ लघुकथा – 🎪 तपिश 🎪 

घर की छत पर हमेशा की तरह माही– आज भी बैठी अपनी माँ के साथ पढ़ाई कर रही थी, परंतु आज पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। जो बात उसके दिलों दिमाग पर बढ़ते जा रही थी। वह अपनी माँ का अकेलापन, हमेशा देखती और उन्हें कामों में लगी देख माही आज पूछ बैठी – – “माँ मुझे आपसे एक बात पूछनी थी?” माँ ने कहा– “पूछो।” माही ने माँ की आंखों को झांकते हुए कही– “मेरे स्कूल के कार्यकाल में या कोई और भी मौके पर कभी भी मैंने पिताजी को हस्ताक्षर करते नहीं देखा। हमेशा आप ही मुझे प्रोत्साहन देकर  पढ़ाती रही और आगे बढ़ने के नियम सिखाती रही।

माँ क्या सच में पिताजी मुझे अपनी बेटी नहीं मानते?” सीने में दबाये सामने अपने मासुम सवाल आज पूछ कर  माही ने माँ  को सोचने पर मजबूर कर दिया।

तार पर कपड़ा सुखाते अचानक माँ ने माही बिटिया की ओर देखकर बोली – – -” बेटा आज अचानक यह सवाल क्यों पूछ रही हो???”  माही ने बड़े ही धीर गंभीर से अपनी माँ का आँचल हाथों से लेकर अपने सिर पर ढाँकती हुई बोली— “मैं जानती हूँ मेरे इस सवाल का जवाब आप नहीं दे सकेंगी।

अक्सर इस सवाल को लेकर मेरे स्कूल में अध्यापिका और प्रिंसिपल को बातें करते मैंने सुना है।”

आज माँ ने देखा माही बहुत समझदार और उस मानसिक वेदना से झुलस रही है जिसे वह बरसों से अपने सीने में दबाये हुए है।

समय आ गया है उसे सच बता दिया जाए। बड़े हिम्मत से उसने कहा — ” माही तुम मेरे प्यार की वह अमिट निशानी हो। जो देश सेवा के लिए अपनी जान निछावर कर सदा – सदा के लिए हमें छोड़कर चले गए।

समाज और परिवार की तानों को सुनते- सुनते तुम्हारी माँ एक जिंदा लाश बन चुकी थी।

परंतु उस समय तुम्हारे पिताजी जो अभी है, उन्होंने हाथ थामा। रिश्ते में तुम्हारे बड़े पिताजी लगते हैं। जिन्होंने अपनी शादी कभी नहीं की।

उन्होंने अपने भाई की अमानत को दुनिया की नजरों से बचा कर रखा है।”

दरवाजे के कोने में खड़े पिताजी सब सुन रहे थे। माही के सवाल ने आज उन्हें अंदर तक हिला दिया।

स्कूल में नए साल का आयोजन था। सभी अभिभावक खड़े थे। अपने-अपने बच्चों के साथ जाने के लिए। माही का नाम जैसे ही पुकारा गया। माँ उठती इसके पहले ही पिताजी ने इशारे से जो भी कहा, आज माँ बहुत प्रसन्नता से भर उठी। और पिताजी- माँ का हाथ थामे बीच में किसी मजबूत बंधन के साथ अपने परिवार के साथ जाते दिखे।

बरसों की तपिश आज भरी ठंडक में सुखद एहसास दे रही थी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “बोलता आईना” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा – “बोलता आईना” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

राजा तक खबर पहुँची कि नगर में एक गरीब  आदमी के पास आईना है, जो बोलता है।सवालों के जवाब भी देता है।

राजा ने आनन फानन में सिपाहियों को बुलाकर कहा –तुम गरीब से वो आईना लेकर आओ।वह जितनी भी मोहरें माँगे उसे दे देना पर आईना जरूर ले आना।

–गरीब ने धन लेने से इंकार कर दिया ये कहकर कि — ले जाओ पर इतना याद रखना , ये केवल सच बोलता है।ऐसा सच जो बर्दाश्त की हद से बाहर होता है ।नग्न सत्य।वो तो हम गरीबों के बस की बात है।

–सिपाही आईना ले आये। राजा परम प्रसन्न। उसने तोते से पूछकर बातचीत का मुहूर्त निकलवाया और बन ठन कर आईने के सामने बैठ गया।

—बोल आईने ! लोग मुझे कामदेव कहते हैं। महिलाएं  आहें भरती हैं। मुझे सपनों का राजकुमार समझती हैं जो सफेद घोड़े पर बैठकर आयेगा और उन्हें ले जायेगा।

—यह सच नहीं है।तुम्हारे मयूरासन का प्रताप है।

—मैं जहां भी जाता हूं लोग फूलों की पाँखुरियां बिछा देते हैं। जमीन पर चलने ही नहीं देते।

—झूठ। तुम्हें जमीन की एलर्जी है।

—मेरी तस्वीर की घर घर में पूजा की जाती है। मेरे लिये स्वतंत्र देवालय बनवा रखे हैं लोगों ने।

—‘झूठ। पता है पूजा उसी की करते हैं लोग जिससे खौफ़ खाते हैं।

—देख आईने। मुझे लगा था तू केवल सच बोलेगा पर तू तो मक्कार निकला।

—मैं मक्कार नहीं हूं। जब सारी दुनिया झूठ को सच और सच को झूठ समझ रही हो, तब अकेले तुम अपवाद कैसे हो सकते हो।

–राजा ने क्रोध में फुफकारते हुये आईना जमीन पर पटक दिया।

उसने देखा कि आईने के हजार हजार टुकड़े उसे देखकर ठठाकर हँस  रहे हैं।

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – ईश्वर का शृंगार… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ईश्वर का शृंगार…’।)

☆ लघुकथा – ईश्वर का शृंगार… ☆

आज ईश्वर बहुत उदास थे, चुपचाप मौन, किसी से कुछ बात ही नहीं कर रहे थे, किसी की हिम्मत भी नहीं थी, उनसे पूछने की, उनसे उदासी का कारण जानने की, कुछ देर बाद पवन ने उनसे पूछा, आज आप उदास क्यों हैं, वह थोड़ी देर शून्य में देखते रहे, और थोड़ी देर बाद बोले, बहुत दिनों से पृथ्वी पर, भारतवर्ष में, वहां के लोगों के कार्य कलाप और हरकतें देख रहा हूं, जिससे मन उदास हो गया।

लोग पार्क में जाते हैं, वहां पौधों पर खिले हुए फूल तोड़ते हैं, बड़ी-बड़ी प्लास्टिक की थैलियों में भरते हैं, कुछ लोग छड़ी या डंडे लेकर जाते हैं उसमें तार का हुक फसा लेते हैं उससे डाली को खींचते हुए डाली को झुकाकर, पुष्प तोड़ लेते हैं, पौधे की तकलीफ नहीं देखते हैं।  प्रकृति ने मुझे प्रार्थना की थी कि मैं उनका शृंगार करूं, मैंने प्रकृति को विभिन्न प्रकार के फूलों से भर दिया ,जो अपनी सुगंध, फिजाओं में बिखेरते थे,सभी लोग उन्हें देखकर प्रफुल्लित होते थे, परंतु लोग स्वार्थवश फूल तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, सोचते हैं इन सार्वजनिक स्थानों से की गई चोरी के फूलों से मुझे रिझाने का उनका प्रयास सफल हो जाएगा, पर मुझे दुख होता है कि मेरी ही प्रकृति को दी हुई भेंट वह निर्ममता से तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, जबकि मैं चाहता हूं कि वह अपना अहंकार,अपना क्रोध, अपनी वैमनष्यता, अपना लोभ, लालच, मुझको अर्पित करें और अच्छे इंसान बने जो एक दूसरे की मदद करें, अपने कर्मों की सुगंध से, वह संसार में अपनी सुगंध फैलाएं, सार्वजनिक उद्यानों में लगे पौधों के फूलों से मेरा श्रृंगार ना करें, पर्यावरण को बचाने के लिए पौधे लगाऐं और प्रकृति को संवारने में अपना योगदान दें।

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ हास्य रचना ☆ अटैची की सैर ☆ प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ हास्य रचना ☆ अटैची की सैर प्रो. नव संगीत सिंह

आप सोच रहे होंगे कि ‘अटैची’ किसी देश या शहर का नाम है। अरे नहीं, यह वही ब्रीफकेस है, जिसमें कपड़े आदि रखे रहते हैं। तो जनाब, यह ढाई दशक पहले की बात है, मेरी शादी को एक हफ्ता ही हुआ था कि छुट्टियाँ खत्म हो गईं और मैं कॉलेज-टीचर की ड्यूटी के लिए पटियाला से तलवंडी साबो कॉलेज पहुँच गया। कुछ दिनों तक मैं अपनी पत्नी के साथ अपने माता-पिता के पास पटियाला में रहा।

एक दिन मेरे माता जी, जिन्हें मैं बी-जी कहता था, मेरी पत्नी के साथ तलवंडी साबो आये। मैं बस उन्हें स्टैंड पर लेने गया था। उनके पास मौजूद सामान में एक ब्रीफकेस था, जिसे कभी खोला नहीं गया था। दो-एक दिनों के बाद मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि ब्रीफकेस में क्या है? पत्नी ने कहा, “मुझे नहीं पता, यह बी-जी का होगा।” मैंने बी-जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि मैंने सोचा कि यह तुम्हारी पत्नी का होगा, इसलिए हम इसे ले आए। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि उन दोनों ने चार घंटे तक बस में एक साथ यात्रा की और एक बार भी एक-दूसरे से नहीं पूछा कि अटैची किसका है! दरअसल अटैची (ब्रीफकेस) मेरा ही था, जिसमें मैंने एक्स्ट्रा कपड़े डाल कर पटियाला रखा हुआ था। खैर… इस तरह अटैची पहले तलवंडी साबो आया फिर बस का सैर-सफ़र करके वापस पटियाला चला गया।

अब हम जब भी कहीं कुछ समान वगैरह लेकर जाते हैं तो एक-दूसरे से पूछते हैं, “यह किसका है भई?… कहीं अटैची जैसी बात न बन जाए…।”

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “दरियादिली” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “महबूबा“.)

☆ लघुकथा – दरियादिली  ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक महिला प्रतिदिन बिना नागा पार्क में प्रवेश करती। वहां मुंदी- अध मुंदी आंखों से लेटे हुए कुत्तों में जाग पड़ जाती।

उस महिला के पीछे -पीछे कम से कम दर्जन भर कुत्तों की फौज पीछे लग जाती। महिला रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े फेकती जाती और कुत्ता समूह रोटी चट करता जाता।
एक छोटा पिल्ला तो महिला की टांगों के बीच फंसा फंसा चलता। बड़े कुत्तों के कारण उसे रोटी कहां मिल पाती?

जब कभी महिला का ध्यान उस ओर जाता तो वह रोटी के एक दो टुकड़े उसके मुंह में डाल देती।

कुत्ता समूह खुश था। बैठे ठाले रोज उनकी दीवाली थी। दर्शक उस महिला की डटकर प्रशंसा किया करते।

एक दिन उस महिला की पड़ोसन यह दृश्य देखकर बोली-‘बड़ी आई धन्ना सेठी, खुद के सास ससुर को वृद्ध आश्रम में छोड़ आई और यह इधर कुत्तों को रोटियां खिलाकर पुण्य लूट रही है।’

महिला इन सब बातों से बेपरवाह थी। उल्टे उसने कुत्तों की रोटी की व्यवस्था के लिए एक महरी रख ली थी।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – पहरा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – पहरा )

☆ लघुकथा – पहरा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। मेरे शिक्षक ने कहा – सोच पर पहरा नहीं होता। जो जी में आए, लिखो। मैंने डायरी लिखना शुरू किया।

मेरी शादी तय हो गई। माँ ने कहा – औरतों को सोच पर पहरा लगाना आना चाहिए। मेरी सारी डायरियाँ जला दी गईं।

अब मेरी बेटी दसवीं में पढ़ती है और डायरी लिखती है…!

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दुनिया ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – दुनिया ? ?

समारोह के आमंत्रितों की सूची बनकर तैयार थी। जुगाड़ लगाकर प्रदेश के एक राज्यमंत्री को बुला लिया था। शहर के प्रमुख अख़बार के संपादक और एक चैनल के एक्जिक्यूटिव एडिटर थे। सूची में कलेक्टर थे, डीएसपी थे। कई बड़े उद्योगपति, जाने-माने वकील थे। अभिनेत्री को तो बाकायदा पेमेंट देकर ‘सेलिब्रिटी इनवाइटी’ बनाया था।

‘वे सब लोग आ रहे हैं जिनके दम पर दुनिया चलती है..’ लोअर डिवीजन की क्लर्की से रिटायर हुए अपने वयोवृद्ध पिता को लिस्ट दिखाते हुए इतरा कर साहब ने कहा।

‘ देखूँ ज़रा.., पर इसमें ईश्वर का नाम तो दिखता ही नहीं कहीं जिसके दम पर..,’ पिता ने चश्मे की गहरी नजर से एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ते हुए अधूरा वाक्य कहकर अपनी बात पूरी की थी।

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 5.08 बजे, 21.12.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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