(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कथा “खेल”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ – खेल – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
पिता को एक खेल सूझा। उसने अपने तीनों बेटों से कहा चलो देखते हैं कौन साँसें देर तक रोक सकता है।
पिता का कहना हुआ साँसे रोक कर जीवित रहना साधारण नहीं होता। पर जो ऐसा कर लेता है उसका नाम हो जाता है। पिता ने अब बात इस रूप में आगे बढ़ायी नाम रह जाने का वह स्वयं में एक प्रमाण है।
अब तो साल बीते। इस जमाने के लोग नहीं जानेंगे वह देर तक साँसें रोकने में कितना बड़ा खिलाड़ी था। उस समय के मित्र मिल जाते हैं तो उनके बीच यही बात सब के ओठों पर होती है। सारे मित्र तो हारने वाले थे। जीत के इस बंदे को आज भी वे सलाम करते हैं।
पिता ने इस खेल का जो खाका सामने रखा इसकी एक हल्की सी याद उसके मन में शेष थी। यही अपने बेटों को उकसाने का उसके लिए आधार हुआ। यह खेल अपने मित्रों के बीच एक बार हुआ था। जिस मरियल से लड़के ने अपने को जयी कहा था यह किसी ने माना नहीं था। हारे हुए सभी कहते रहे थे तुम बीच बीच में साँसें ले तो रहे थे। यह बहुत सूक्ष्म क्रिया होने से हमें दिखाई न दे पाता था। सच कहें तो तुम्हारे इस झूठ से हमारी आँखें खुल रही हैं। हम दस मिनट तक साँसें रोकने का कीर्तिमान स्थापित कर सकते थे।
पिता ने सदा अपनी जीत का जो बनावटी चिट्ठा बाँचा यह बेटों को रोमांचित कर रहा था। इस रोमांच का परिणाम कुछ देर में सामने आ जाता !
एक मित्र ने झूठ की आड़ से साँसें रोक कर बाकी को जिस तरह मूर्ख बनाया था पिता ने वही झूठ अपने बेटों के साथ किया। खेल तीनों बेटों के साथ शुरु हुआ तो पिता बेहद चुपके से साँसें ले कर सब को मात देता रहा। दो बेटों ने साँसों के इस खेल में पराजय मान कर पिता से कहा तुम जीते। पर एक बेटा हार न मान कर साँसें रोकने में तल्लीन बना रहा। पहले पिता को तो दुख हुआ वह अपने बेटे से हार गया। पर दूसरे क्षण जब उसमें बोध जागा कि इतनी देर तक कोई साँसें रोक नहीं सकता तो वह बेटे को झिकझोरने लगा। पर बेटा तो मर चुका था ! बेटा साँसें रोकने के इस खेल में सच्चा था। यही सच उसकी जान का दुश्मन हुआ।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “महबूबा“.)
☆ लघुकथा – महबूबा☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
एक वृद्ध महाशय अपनी छड़ी टेकते हुए पार्क में दाखिल हुए। उनके होंठ एक फिल्मी गीत गुनगुना रहे थे।
– आने से उसके आए बहार– बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा—महबूबा।
तभी एकाएक सामने आई युवती को देखकर वह सकपका गए।
कहीं यह युवती छेड़छाड़ का उलाहना देकर तिल का ताड़ ना बना दे। वृद्धों पर इस तरह के इल्जाम जब तब लगते रहे हैं।
वह रास्ता बदलकर पतली गली से निकलना ही चाहते थे कि तरुणी बोली – ‘दादा जी आप तो इस उम्र में भी इतना अच्छा गा लेते हैं। यह गाना वहां बेंच पर बैठकर सुनाइए न, मजा आ जाएगा।’
वृद्ध महाशय अपनी आंखें झपकाने लगे। यह अजूबा कैसे हुआ, उसे तो इस युवती की अभद्र भाषा से दो चार होना था।
भाव विभोर होकर बोले – अरे कुछ खास नहीं बेटी, मन बहलाने के लिए थोड़ा बहुत गा लेता हूं।
मेरी पत्नी को भी यह गाना पसंद है। छै महीने अस्पताल में रहकर वह आज ही घर लौटी है। मैं यह गाना उसे सुनाने के लिए रिहर्सल कर रहा हूं।
उधर युवती सोच रही थी – कौन कहता है कि सारे बुजुर्ग एक से होते हैं जो अपने चेहरे पर एक दूसरा चेहरा लगाकर घर से बाहर निकलते हैं। जिन पर महिलाओं को छेड़छाड़ का इल्जाम जब तब लगता रहता है।
युवती के चेहरे पर एक गुनगुनी मुस्कान खेलने लगी। उसे लगा कि यह वृद्ध महाशय थोड़ी देर के लिए ही सही अपने जवान जिस्म में परिवर्तित हो गए हैं और वह उनकी महबूबा बन गई है।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘मुक्त कैद’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 133 ☆
☆ लघुकथा – मुक्त कैद☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मायके से विदाई के समय उसे समझाया गया था कि ‘पति परमेश्वर होता है। मायके की बातें ससुराल में नहीं कहना और ससुराल में तो जैसे रखा जाए, वैसे रहना। ‘ कैसे भूलती अपने पिता की वह बात– ‘डोली में जा रही हो, अर्थी ससुराल से ही उठनी चाहिए। ‘सुनने में ये किसी पुरानी फिल्म के संवाद लगते हैं, पर नहीं। भारतीय नारी को आदर्श नारी के फ्रेम में जड़कर घर की दीवार पर टाँग दिया जाता है। उसकी जिंदा मौत किसी को नजर नहीं आती, खुद उसे भी नहीं।
यह जीवन उसने इतनी गहराई से जिया कि अल्जाइमर रोग में वह सब भूल गई लेकिन यह ना भूली कि पति परमेश्वर होता है। उसे ना अपने खाने-पीने की सुध थी, ना अपनी। बौराई-सी इधर-उधर घूमती, बोलती रहती– ‘आपने खाना खाया कि नहीं? बताओ, किसी ने अभी तक इन्हें खाने के लिए नहीं पूछा। ‘ कभी वह सिर पीट रही होती– ‘हे भगवान! आज तो बहुत पाप लगेगा हमें, पति से पहले हमने खाना खा लिया। ‘ थोड़ी देर बाद वही बात दोहराती, फिर वही, वही —। सिलसिला थमता कैसे? ससुराल जाते समय दी गई सीख वह भूली नहीं थी। वह सीख नहीं, मंत्र होता था शायद, जिसे अनजाने ही स्त्रियां जीवन भर जपती रहतीं और धीरे-धीरे अपना खाना-पीना, सुख-दुख, अस्तित्व सब होम उसमें|
वह अब घर की चहारदीवारी में कैद है, कहने को मुक्त। पतिदेव छुटकारा पाने के लिए निकल लेते हैं दोस्तों– यारों से मिलने। उनके आने पर वह कोई शिकायत ना कर कभी उन्हें प्यार भरी नजरों से देखती है, कभी सिर पर हाथ फेरती है, कहती है- ‘बहुत थक गए होगे, आओ जरा पैर दबा दूँ , कुछ खाओगे?’ वे झिड़क देते हैं – ‘हटो, जाओ यहाँ से, हर समय पीछे पड़ी रहती हो। अपना काम करो’।
‘अपना काम ???’ वह दोहराती है। इधर- उधर जाकर फिर लौटती है। उसी प्यार और अपनेपन के साथ फिर पूछती है – ‘थक गए होगे, पैरों में तेल लगा दूँ? — फिर झिड़की।
‘लगता है नाराज हो गए हैं हमसे’ – वह दूर बैठकर अपनेआप से बोलती है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा – यात्रा और यात्रा
जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? लोग दोहरा जीवन क्यों जीते हैं? फिर इस तरह तो जीवन में कोई अपना होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?
बार-बार सोचता कि क्या साधन किया जाय जिससे लोगों का मन पढ़ा जा सके? उसकी सोच रंग लाई। अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन।
विधाता भी अजब संजोग रचता है। वह मशीन लेकर प्रसन्न मन से लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। कुछ हड़बड़ा-सा गया। पढ़ने चला था जीवन और पहला सामना मृत्यु से हो गया। हड़बड़ाहट में गलती से मशीन का बटन दब गया।
मशीन पर उभरने लगा शव के साथ चल रहे हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी का कोई प्रभाव नहीं था।
आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारी टीका, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच चल रही होती है अंतिमयात्रा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – उलझन।)
☆ लघुकथा – उलझन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
वर्षा ने अपनी मां से पूछा – मां क्या हो गया, किसका फोन था? कहीं आप की सखी का तो नहीं। हद हो गई अब तो?
देखो ! अब हम लोग उनके बच्चों को बर्दाश्त नहीं करेंगे, गाली देकर बात करते हैं, और हमारे पूरे घर को अस्त-व्यस्त कर देते हैं । सारा दिन खाने की फरमाइश करते हैं कभी मैगी, तो कभी पास्ता और कोल्ड ड्रिंक और न जाने क्या-क्या? देखो मैं कुछ नहीं बनाऊंगी। मुझसे मदद की उम्मीद मत करना!
आंटी को तो मॉल घूमना फिरना और शॉपिंग करना रहता है और हमारे पास अपने बच्चों को छोड़कर चली जाती हैं।
डैडी देखो मां को…,
बात को काटते हुए रितेश ने कहा- क्या हो गया ? फिर से तो अपनी सहेली की नौकरानी बन रही है।
क्या करोगी बेटा तुम्हारी मां खुद बेवकूफ है, और हम सब को पूरे समाज में बेवकूफ साबित करती है, पता नहीं कब तुम्हारी मां को अक्ल आएगी, मैं जा रहा हूं ऑफिस।
सुरीली ने कहा रुको- “पराठा सब्जी बना है, तुम टिफिन लेकर जाओ।”
रितेश ने कहा रहने दो, तुम्हें तो घर फूंक कर तमाशा देखने में मजा आता है।
वर्षा ने अपनी मां को गुस्से में बोला देखो मां तुम्हारे कारण डैडी भी नाराज होकर बिना टिफिन लिए चले गए?
इस समस्या का मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं तुम कुछ मत करो बस बिस्तर पर चुपचाप लेट जाओ।
मैं तुम्हारे पैर में पट्टी बांध देती हूं, लेकिन तुम्हारी दोस्त जब आएगी तब तुम चुपचाप आंख बंद करके सोती रहना।
इतने में बाहर से रितु की चिल्लाने की आवाज आई, कहां हो नीचे मेरा ऑटो खड़ा …..?”
वर्षा बोली- “आंटी अंदर आइये, मुझे आपसे मदद चाहिए। आंटी देखिए न मम्मी को पता नहीं अचानक क्या हो गया है ? पैर में लग गई और अचानक बेहोश हो गई है। मुझे मम्मी को डॉक्टर के पास लेकर जाना है। क्या आप मम्मी को डॉक्टर के पास लेकर चलेंगी मेरे साथ, क्योंकि पापा न जाने कहां चले गए हैं, उनका फोन भी नहीं लग रहा है?
यह सब सुनकर रितु ने कहा- अरे! मैंने सुबह फोन किया था तो एकदम ठीक थी।
वर्षा ने कहा – हां आंटी लेकिन उसी के बाद जब काम करने मम्मी किचन में गई तो उनका पैर फिसल गया आंटी आप तो मम्मी की अच्छी दोस्त हैं आप प्लीज मदद करेंगी।
रितु ने कहा- मुझे एक बहुत जरूरी काम से जाना है। मैं जरूर उन्हें लेकर अस्पताल जाती। ऐसी हालत में छोड़ कर नहीं जाती। तुम ऐसा करो अपने पापा को फोन लगाने की कोशिश करते रहो? ठीक है अपना और मम्मी का ख्याल रखना, मैं चलती हूं। अपने बच्चों को लेकर रितु जल्दी से चली गई।
संध्या उठी वर्षा से बोली – हे प्रभु ! क्या अच्छे लोगों की दुनिया नहीं है?
दुनिया में नेकी का फायदा सभी लोग उठाते हैं वर्षा तुमने सारी उलझन दूर कर दी इसी खुशी में शाम को पार्टी करेंगे।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘जी साहब अब ठीक है…’।)
☆ लघुकथा – जी साहब अब ठीक है… ☆
मैं उस समय सागर जिले में, थाना खिमलासा में, थाना प्रभारी के पद पर पदस्थ था।
खिमलासा, सागर जिले में अपनी एक विशिष्ट प्रसिद्ध रखता है, यहां राज कपूर की फिल्म, तीसरी कसम, की शूटिंग हुई थी, जहां पर, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई, गाने की शूटिंग हुई थी, मैं शासकीय कार्य से बीना गया था, बीना से लौट रहा था, तभी देखा कि सामने जीप में अंदर सवारियां भरी हुई थीं, और एक लड़का पायदान पर पैर रखकर जीप के बाहर लटका हुआ था, कभी भी कोई दुर्घटना हो सकती है, यह सोचकर जीप को रूकवाया, और जीप पर लटके लड़के को उतार कर उसको थप्पड़ मारा, और कहा कि अगर तुम्हारा हाथ छूट जाए तो तुम गिर जाओगे, मर भी सकते हो, क्यों लटकते हो, जीप ड्राइवर को भी डांटा, इतना कहकर मैं वापस अपनी जीप में बैठने लगा।
वह लड़का जो लटका हुआ था, दौड़ के मेरे पास आया, उसने कहा कि साहब एक विनती है आपसे, मैंने कहा बस लटकन मत, तो उसने कहा, अब मैं कभी नहीं लटकूंगा, मगर जीप के अंदर मेरा साला बैठा हुआ है, आप उसे भी एक थप्पड़ मार दो, नहीं तो वह घर जाकर मेरी पत्नी से, जो उसकी बहन है, से कहेगा, कि आज जीजा पिट गए, मेरी बेइज्जती हो जाएगी, मैं मुस्कुराया और जीप के पास आकर उसके साले को बाहर निकाला और उसको एक थप्पड़ मारा, कि तेरा जीजा बाहर लटका हुआ है, और तू आराम से अंदर बैठा है, और उसे डांट कर, फिर मैंने उसके जीजा से कहा, अब ठीक है ना, वह बहुत खुश हुआ, जी साहब अब ठीक है…
आज तक इस वाक्य को याद करके मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है…
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कथा – ‘सबक’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 221 ☆
☆ कहानी – सबक ☆
चमनलाल को इस शहर में रहते बारह साल हो गये। बारह साल पहले इस शहर में ट्रांसफर पर आये थे। दो साल किराये के मकान में रहने के बाद इस कॉलोनी में फ्लैट खरीद लिया। देर करने पर मुश्किल हो सकती थी। दस साल यहाँ रहते रहते कॉलोनी में रस-बस गये थे। कॉलोनी के लोगों से परिचय हो गया था और आते-जाते नमस्कार होने लगा था। अवसर-काज पर वह आमंत्रित भी होने लगे थे। उनकी पत्नी कॉलोनी की महिलाओं की गोष्ठियों में शामिल होने लगीं थीं।
फिर भी इन संबंधों की एक सीमा हमेशा महसूस होती थी। लगता था कोई कच्ची दीवार है जो ज़्यादा दबाव पड़ते ही दरक जाएगी या भरभरा जाएगी। आधी रात को कोई मुसीबत खड़ी हो जाए तो पड़ोसी को आवाज़ देने में संकोच लगता था। सौभाग्य से बेटी शहर में ही थी, इसलिए जी अकुलाने पर चमनलाल उसे बुला लेते थे।
चमनलाल को बार-बार याद आता है कि बचपन में उनके गाँव में ऐसी स्थिति नहीं थी। मुसीबत पड़ने पर अजनबी को भी पुकारा जा सकता था। ज़्यादा मेहमान घर में आ जाएँ तो अड़ोस पड़ोस से खटिया मँगायी जा सकती थी और रोटी ठोकने के लिए दूसरे घरों से बहुएँ- बेटियाँ भी आ जाती थीं। अब गाँव में भी टेंट हाउस खुल गये हैं और समाज से संबंध बनाये रखने की ज़रूरत ख़त्म हो गयी है।
तब गाँव में मट्ठा बेचा नहीं जाता था। घर में दही बिलोने की आवाज़ गूँजते ही हाथों में चपियाँ लिए लड़के लड़कियों की कतार दरवाजे़ के सामने लग जाती थी। उन्हें लौटाने की बात कोई सोचता भी नहीं था।
शहरों में टेलीफोन के बढ़ते चलन ने मिलने-जुलने की ज़रूरत को कम कर दिया है। पड़ोसी से भी टेलीफोन पर ही बात होती है। जिन लोगों की सूरत अच्छी न लगती हो उनसे टेलीफोन की मदद से बचा जा सकता है। अब अगली गली में रहने वालों से सालों मुलाकात नहीं होती। बिना काम के कोई किसी से क्यों मिले और किसलिए मिले?
इसीलिए चमनलाल का भी कहीं आना-जाना कम ही होता है। शाम को कॉलोनी के आसपास की सड़कों पर टहल लेते हैं। लेकिन उस दिन उन्हें एक कार्यक्रम के लिए तैयार होना पड़ा। उनके दफ्तर का साथी दिवाकर पीछे पड़ गया था। मानस भवन में राजस्थान के कलाकारों का संगीत कार्यक्रम था। उसी के लिए खींच रहा था। बोला, ‘तुम बिलकुल घरघुस्सू हो गये हो। राजस्थानी कलाकारों का कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है। मज़ा आ जाएगा। साढ़े छः बजे तक मेरे घर आ जाओ। पौने सात तक हॉल में पहुँच जाएँगे।’ चमनलाल भी राजस्थानी संगीत के कायल थे, इसलिए राज़ी हो गए।
करीब सवा छः बजे चमनलाल तैयार हो गये। बाहर निकलने को ही थे कि दरवाजे़ की घंटी बजी। देखा तो सामने कॉलोनी के वर्मा जी थे। उनके साथ कोई अपरिचित सज्जन। वर्मा जी से आते जाते नमस्कार होती थी, लेकिन घर आना जाना कम ही होता था। चमनलाल उनके इस वक्त आने से असमंजस में पड़े। झूठा उत्साह दिखा कर बोले, ‘आइए, आइए।’
दोनों लोग ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ गये। चमनलाल वर्मा जी के चेहरे को पढ़कर समझने की कोशिश कर रहे थे कि यह भेंट किस लिए और कितनी देर की है।
वर्मा जी जल्दी में नहीं दिखते थे। उन्होंने कॉलोनी में से बेलगाम दौड़ते वाहनों का किस्सा छेड़ दिया। फिर वे कॉलोनी में दिन दहाड़े होती चोरियों पर आ गये। इस बीच चमनलाल उनके आने के उद्देश्य को पकड़ने की कोशिश में लगे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः के करीब पहुंच गयी।
बात करते-करते वर्मा जी ने सोफे पर आगे की तरफ फैल कर टाँग पर टाँग रख ली और सिर पीछे टिका लिया। इससे ज़ाहिर हुआ कि वे कतई जल्दी में नहीं थे। उनका साथी उँगलियाँ मरोड़ता चुप बैठा था।
चमनलाल का धैर्य चुकने लगा। वर्मा जी मतलब की बात पर नहीं आ रहे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः से आगे खिसक गयी थी। वे अचानक खड़े होकर वर्मा जी से बोले, ‘माफ कीजिए, मैं एक फोन करके आता हूँ। दरअसल मेरे एक साथी इन्तज़ार कर रहे हैं। उनके साथ कहीं जाना था। बता दूँ कि थोड़ी देर में पहुँच जाऊँगा।’
वर्मा जी का चेहरा कुछ बिगड़ गया। खड़े होकर बोले, ‘नहीं, नहीं, आप जाइए। कोई खास काम नहीं है। दरअसल ये मेरे दोस्त हैं। इन्होंने चौराहे पर दवा की दूकान खोली है। चाहते हैं कि कॉलोनी के लोग इन्हें सेवा का मौका दें। जिन लोगों को रेगुलरली दवाएँ लगती हैं उन्हें लिस्ट देने पर घर पर दवाएँ पहुँचा सकते हैं। दस परसेंट की छूट देंगे।’
उनके दोस्त ने दाँत दिखा कर हाथ जोड़े। ज़ाहिर था कि वे कंपीटीशन के मारे हुए थे। चमनलाल बोले, ‘बड़ी अच्छी बात है। मैं दूकान पर आकर आपसे मिलूँगा।’
वर्मा जी दोस्त के साथ चले गये, लेकिन उनके माथे पर आये बल से साफ लग रहा था कि चमनलाल का इस तरह उन्हें विदा कर देना उन्हें अच्छा नहीं लगा था, खासकर उनके दोस्त की उपस्थिति में।
दूसरे दिन चमनलाल को भी महसूस हुआ कि वर्मा जी को अचानक विदा कर देना ठीक नहीं हुआ। शहर के रिश्ते बड़े नाज़ुक होते हैं, ज़रा सी चूक होते ही मुरझा जाते हैं। चमनलाल की शंका को बल भी मिला। दो एक बार वर्मा जी के मकान के सामने से गुज़रते उन्हें लगा कि वे उन्हें देखकर पीठ दे जाते हैं, या अन्दर चले जाते हैं। उन्होंने समझ लिया कि इस दरार को भरना ज़रूरी है, अन्यथा यह और भी चौड़ी हो जाएगी।
दो दिन बाद वे शाम करीब छः बजे वर्मा जी के दरवाजे़ पहुँच गये। घंटी बजायी तो वर्मा जी ने ही दरवाज़ा खोला। उस वक्त वे घर की पोशाक यानी कुर्ते पायजामे में थे। चमनलाल को देखकर पहले उनके माथे पर बल पड़े, फिर झूठी मुस्कान ओढ़ कर बोले, ‘आइए, आइए।’
चमनलाल सोफे पर बैठ गये, बोले, ‘उस दिन आप आये लेकिन ठीक से बात नहीं हो सकी। मुझे सात बजे से पहले एक कार्यक्रम में पहुँचना था। मैंने सोचा अब आपसे बैठकर बात कर ली जाए।’
वर्मा जी कुछ उखड़े उखड़े थे। उनकी बात का जवाब देने के बजाय वे इधर-उधर देखकर ‘हूँ’, ‘हाँ’ कर रहे थे। दो मिनट बाद वे उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘एक मिनट में आया।’
चमनलाल उनका इन्तज़ार करते बैठे रहे। पाँच मिनट बाद वे शर्ट पैंट पहन कर और बाल सँवार कर आ गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘अभी मुझे थोड़ा एक जगह पहुँचना है। माफ करेंगे। बाद में कभी आयें तो बात हो जाएगी।’
चमनलाल के सामने उठने के सिवा कोई चारा नहीं था। घर लौटने के बाद थोड़ी देर में वे टहलने के लिए निकले। टहलते हुए वर्मा जी के घर के सामने से निकले तो देखा वे कुर्ते पायजामे में अपने कुत्ते को सड़क पर टहला रहे थे। चमनलाल को देखकर उन्होंने मुँह फेर लिया।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “बंदरबांट“.)
☆ लघुकथा – बंदरबांट☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
एक ग्रहणी ने रोटी पकाकर अपने पति से कहा-रोटी गाय को दे आइए जी।
पति रोटी लेकर दरवाजे पर पहुंचा तो धर्म संकट खड़ा हो गया। गाय के साथ ही कुत्ता और एक बिल्ली भी आ खड़े हुए।
आदमी सोच विचार में पड़ गया।
तभी गाय बोली मैं तुम्हारी संतानों को दूध पिलाती हूं इसलिए रोटी पर मेरा अधिकार है। रोटी मुझे दीजिए।
कुत्ता बोला ना ना, रोटी मुझे दीजिए। मैं रात भर जाग जागकर तुम्हारे घर की रखवाली करता हूं। चोर डाकुओं से तुम्हें बचाता हूं। रोटी का हकदार मैं हूं जी।
बिल्ली बोली – तुम्हारे अनाज के भंडार को चूहों से मैं बचाती हूं।
अनाज ही नहीं रहेगा तो रोटी कहां से बनेगी। रोटी की सच्ची हकदार मैं हूं। रोटी मुझे दीजिए।
आदमी का धर्म संकट बढ़ता ही गया। रोटी किसे दे, भ्रमित हो गया।
तब उस रोटी को वह स्वयं ही खा गया।
गाय और कुत्ता नाराज होकर वहां से चले गये परंतु उसी दिन से बिल्ली के हाथों अनायास ही बंदरबांट का अनोखा सूत्र हाथ लग गया।
हरे भरे खेत से कुछ दूर, चिड़िया, कौए, तोते, मुनिया, मैना और दूसरे पक्षी चिन्तामग्न दिखाई दिए। एक बुद्धिजीवी जो पक्षियों की भाषा जानता था,वहां से गुजर रहा था।
उसने उनसे कहा—कितने डरे हुए और चिन्तित हो तुम ? बात क्या है ?
अरे! खेत में खड़ा है वो “बिजूका” है।
उसके भेजे में भूसा है।
कपड़े भी दूसरे के हैं।
हाथ पाँव, आँखें – सब कुछ नकली है !
उसकी मूंछें भी !
एक कौआ जो बड़ी देर से सुन रहा था, बोला–‘—-”’–“और तुम”—–?