हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ??

वह बहती रही, वह कहता रहा।

…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।

…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।

… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।

… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।

…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।

… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।

… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है। तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।

… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।

… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।

… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।

वह बहती रही।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 165 – सुलगती कहानी – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय  “सुलगती कहानी”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 165 ☆

☆ लघुकथा – 📒सुलगती कहानी 📒

दरवाजे की घंटी बजी। महिमा ने दरवाजा खोलो। देखा वयोवृद्ध लगभग अस्सी वर्ष के एक वरिष्ठ सज्जन सामने खड़े दिखाई दिए। उसने कहा… “आप कौन?” तत्काल कंपन लिए परंतु जोरदार आवाज में बोले “क्या कहा? … आने के लिए नहीं कहोगी।” महिमा ने दरवाजे से एक ओर हट कर कहा… “आइए बैठिए, मैंने आपको पहचाना नहीं।” “तुम पहचान भी नहीं सकती परंतु मैं तुम्हें पहचान रहा हूँ। अभी तुम्हारी कलम लिखाई कर रही है। यह देखो मेरे लिखे गीत, कहानियाँ।” करीब 10-12 किताबें उन्होंने टेबिल पर लगा दी। एक फटी पुरानी फाइल से निकालते उन्होंने ने  दिखाया -“मेरी कहानियां कभी बोलती थी। सभी जगह से मैं सम्मानित होता था। आज मौन हो एक बस्ते में पड़ी हैं। क्या करूं?? समय ने ऐसा दिन दिखाया कि मुझे अब कहानियों से लगाव तो है परंतु यह पेट नहीं भर पा रहा है। मेरे पाँच बेटे हैं परंतु किसी काम के नहीं।

आज सोशल मीडिया पर मेरे स्वयं के बच्चे दिन भर छोटी छोटी बातें कहानियां दूसरों की सीख देखते हैं और मेरी किताब को रद्दी के भाव में बेंच रहे।”

आँखों से टपकते आँसुओं ने उसकी कमीज की बाजू भिगो दिया। “क्या कहूं तुम्हें कुछ समझ नहीं आ रहा।” महिमा आवाक देखती रही।

टेबल पर एक कृति अचानक गिरी “सुलगती कहानी”। महिमा ने तत्काल उसे उठाया और उन वरिष्ठ का सम्मान अपने तरीके से कर हाथ जोड़ खड़ी रही।

उन्होंने झोला निकाला सभी किताबों को डाल दुआओं में बस इतने बोल कह गये…” कभी लिखना मेरी कहानियाँ… मेरे जीवन को अपनी कलम में स्थान देना। लिखना मेरी सुलगती कहानी।” महिमा उसकी किताब को लिए उसे दूर जाते देखती रही।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 198 ☆ “फैसला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फैसला)

☆ लघुकथा ☆ “फैसला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

नम आंखों से कामेश और शिखा ने अपने बेटे और बहू को जब एक साल पहले विदा किया था तो समर ने वायदा किया था कि हर दिन वह फोन पर बात करेगा। पर साल भर बाद पंखुड़ी ने बताया कि समर इतने अधिक बिजी हो गए हैं कि थोड़ी सी बात करने का भी उन्हें समय नहीं मिलता। हताश कामेश और शिखा हर दिन समर को याद करते रहते और उसके फोन का रास्ता देखते रहते। कामेश लगातार बीमारी से टूट से गए थे, ज्यादा गंभीर होने से एक दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। समर का फोन तो आया नहीं, हारकर शिखा ने समर को फोन लगाया।

– हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ? वे तुम्हें एक नजर देखना चाहते हैं। 

— मां बहुत बिजी हूं। वैसे भी इण्डिया में अभी बहुत गर्मी होगी, इण्डिया में अपने घर में एसी- वेसी भी नहीं है। समीरा से बात करता हूं कि अभी पापा को अटेंड कर ले  फिर माँ के समय मैं आ जाऊँगा। तुम तो समझती हो मां… मुझे तुम से ज्यादा प्यार है। 

— पर बेटा वे तो मरने के पहले सारी प्रापर्टी तुम्हारे नाम करना चाहते हैं।

— मम्मी, फिर मैं कोशिश करता हूं। 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-३ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-३ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(श्रमिकों की खस्ता हालत और श्रमिक नेताओं द्वारा किया जाने वाला उनका शोषण.. इसी विषय पर जयंत बाते करता था। सभा, संमेलन, चर्चाऍं, मोर्चा, इसमें वह रात -दिन की, गर्मी की, भूख- प्यास की परवाह न करते हुए जाता रहा )…. अब आगे

 एक दिन शाम के वक्त घर के सामने टॅक्सी रुकी। चार-पाच लोग जयंत को उठा के घर ले आए। उसका चेहरा सफेद, तेज विहीन दिख रहा था किसी ने बताया वह चक्कर खाके गिर गया था।

 फिर हॉस्पिटल… यूरिन, ब्लड, स्टूलटेस्ट, सलाइन, एक्सरे, कार्डियोग्राम सिलसिला शुरू हो गया।

 बेड रेस्ट लेने की डॉक्टर की सलाह के बावजूद उसको घर से निकलने से नहीं रोकना यह मेरा डॉक्टर के हिसाब से अपराध था। डॉक्टर ने सारा गुस्सा मुझ पर उतारा। जयंत डॉक्टर से बहसबाजी करता रहा। उसका आत्मविश्वास, जीने की इच्छा बहुत अपार थी। पर उसकी हेल्थ कंडीशन बद से बदतर होती जा रही थी। उसके हित चिंतक, मिलने आते थे। स्नेही-साथी रात दिन उसकी सेवा कर रहे थे। सांसद, विधायककों के संदेश आते थे। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? उसे हेपेटायटिस बी ने पकड़ लिया था, यह रिपोर्ट बता रहे थे। स्पेशलिस्ट का कहना यही था कि पहले बीमारी में उसको खून चढ़ाया गया था तब कुछ ॳॅफेक्टेड खून उसके शरीर में चला गया था। वह दिन प्रतिदिन ज्यादा ज्यादा कमजोर होने लगा। ज्यादा बोलने से भी वह थक जाता था। आखिर आखिर में वह मेरी तरफ सिर्फ देखता रहता था। हाथ हाथ में लेकर कहता, ” मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया है। .. मेरे जाने के बाद तुम फिर शादी कर लेना। मैं कहती, “ऐसी बातें मन में भी मत लाना, मैं तुमको दोष नहीं दे रही हूॅं। मेरा उसको प्यार से समझाना कि तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगे… यह तसल्ली झूठी है, यह बात मैं भी जानती थी.. और वह भी ! ‌बीमारी बढ़ गई और मेरा अभागन का साथ छोड़कर वह भगवान को प्यारा हो गया। आखिर सब खत्म हो गया उसका और मेरा रिश्ता, ऋणानुबंध …सब कुछ !

अब इसका भवितव्य क्या? मेरे मायके वाले… ससुराल वाले …स्नेही संबंधी… सबके मन में एक ही सवाल था। जयंत के दफ्तर में ही मुझे नौकरी मिल गई। एक महत्वपूर्ण समस्या का अस्थाई रूप से हल निकला। जाने वाला तो चला गया, पीछे रह गये लोगों की जिंदगी थोड़े ही रुक जाती है। काल प्रवाह के साथ उनको आगे बढ़ना ही होता है, ….जैसा भी बन पड़ेगा…। मम्मी दुखी थी, परेशान थी। एक बात उसके दिमाग से उतर ही नहीं रही थी। कहती थी, “उसने हमें धोखा दिया, जरूर उसको कोई बड़ी बीमारी थी। तभी तो दहेज भी नहीं लिया उसने!….वही पुरानी टेप !लेकिन मुझे तभी भी वैसा नहीं लगा था और अभी भी नहीं लगता है। वह सीधे सरल मन का था। कोई दांवपेच, छक्के-

पंजे, छल कपट उसके पास थे ही नहीं। …..यह तो मेरी ही बदकिस्मती और क्या? इतना सुंदर, आकर्षक पति मिला, और पूरी पहचान होने से पहले ही वह दूर चला गया। फिर कभी वापस न लौटने के लिए। सह- जीवन के कितने सुंदर सपने मैंने देखे थे। जीवन भर के लिए नहीं कम से कम थोड़े पल के लिए ही सही… पर उतना भी उसका साथ नहीं मिला।

फिर तीन साल बाद मेरी प्रभाकर जी से शादी हुई। प्रभाकर बहुत नामांकित रिसर्च सेंटर में रिसर्च ऑफिसर थे। जयंत से भी सुंदर, अच्छी खासी तनख्वाह पाने वाले, खुद की बड़ी कोठी…. आगे पीछे बाग बगीचा ! मेरे भाई के दोस्त उनको जानते थे। उन्होंने ही पहल करके शादी की बात छेडी और मेरी शादी हो गई। मेरी यह दूसरी शादी, लेकिन उनकी पहली ही थी। आजकल के हिसाब से मेरेसे उनकी उम्र थोड़ी ज्यादा थी। उनके रुप में मुझे एक दोस्त नहीं एक धीर गंभीर प्रवृत्ति का पति मिला। शादी न करने का उनका इरादा था। लेकिन ऊपर वाले ने स्वर्ग में ही हमारा जोड़ा बनाया था ना तो वैसे ही हुआ। मेरे पहले ससुराल वालों ने भी समझदारी दिखाई, ” इसमें कुछ भी गलत नहीं है। बेचारी अकेली कब तक रहेगी? वैसे भी जयंत की आखिरी इच्छा यही थी। उसकी आत्मा को शांति मिलेगी!” उन्होंने कहा। आत्मा का शरीर में अस्तित्व होना… उसका शरीर से निकल जाना…. यह बातें सच्ची होती है क्या? अगर होती है, तो मुझे यकीन है कि मेरी आज की हालत देख कर उसकीआत्मा जरूर दुखी हुई होगी।

मेरी शादी के साथ ही मेरे ससुराल वाले, पीहर वाले, सब ने राहत महसूस की। मेरे मम्मी पापा, भाई-बहन सारे तो मेरे अपने, अंतरंग के लोग, लेकिन जिंदगी भर का साथ कौन किसको देता है? ससुराल में जेठ, जेठानी ननद इनसे मेरा ज्यादा परिचय भी नहीं हुआ था। बाकी बचे रिश्तेदारों ने शायद मेरे भाग्य पर अचरज किया होगा। किसी -किसी को जलन भी हुई होगी। ” देखो पहले से भी अच्छा घर बार, ज्यादा सुंदर दुल्हा, कहीं पर भी समझौता नहीं करना पड़ा। लोगों की नजर में तो सब कुछ बहुत ही सुंदर, मनलुभावन था।

प्रभाकर नाक की सीध में चलने वाले आदमी। आराम से जो मिल रहा है वह लेने वाले या कभी-कभी ना लेने वाले! मितभाषी, घून्ने, खुद में ही मस्त, थोड़े से रिजर्व नेचर के। बेशक ये सब मुझे शादी के बाद धीरे-धीरे ज्ञात हुआ। शुरू शुरू में यह सब अच्छा भी लगा।

मानो हम दोनों सागर में पास पास रहने वाले दो अलग-अलग द्वीपखंड है। एक द्विप के आसमान में पूरा वनस्पति शास्त्र भरा पड़ा हैं। दूसरे द्विप के आसमान में बस, जयंत की यादें ही यादें हैं। कभी कभार दो द्वीप- खंड अनजाने में ही, पानी के बहुत तेज प्रवाह से पास आते हैं। एक दूसरे को टकराते हैं। ओवरलैप भी करते हैं, फिर पानी का प्रवाह के संथ होते ही अपनी जगह पर स्थिर हो जाते हैं।

शुरू में सब बहुत ही अजीब लगा। …बाद में ठीक लगने लगा। क्योंकि जयंत की यादों में बने रहने की आजादी मुझे मिल रही थी। लगता था प्रभाकर के इस घर में भी जयंत ही मुझे साथ दे रहा है। कभी-कभी नहीं, बहुत बार मन दुखी भी हो जाता हैं। लगता हैं यह प्रभाकर को धोखा देने वाली बात है। शादी तो उनसे की, पर पूरे मन से मैं पत्नी धर्म का पालन नहीं कर रही हूॅं। यह बहुत बड़ी प्रतारणा है। पाप है। लेकिन मैं बेबस हूॅं। प्रभाकर अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे संशोधक जरूर है, पर अच्छे पति, अच्छे जीवन साथी बिल्कुल नहीं बन पाए।

फिर दो साल बाद गौरी का जन्म हुआ। यह भी लगता है शायद सागर में दो द्वीप आपस में टकराने से यह दुर्घटना घटी होगी। लेकिन बेटी को पाके इधर-उधर भटकने वाले मेरे मन को बहुत शांति मिली। मानो गौरी हमारे दोनों द्वीप को जोड़ने वाला पुल थी। गौरी की देखभाल, परवरिश करते हुए मैं उसमें इस कदर व्यस्त हो गई कि धीरे-धीरे मन में बसी जयंत की छवि भी धुंधली हो गयी।

तभी अचानक भैया जी और भाभी वापस आ गए। हमारे शादी के वक्त वे लोग कनाडा में अपने बेटे के पास गए थे। फिर लंदन वाली बेटी के घर। इधर-उधर करते करते अब तीन साल बाद फिर भारत वापस आए थे। मुझे मिलने के लिए वे मेरे दफ्तर आ पहुॅंचे। वैसे भैया जी के बेटे का एड्रेस मेरे पास था, लेकिन भैया जी को शादी की खबर देनी चाहिए यह बात मुझे उस वक्त सुझी ही नहीं… पता नहीं क्यों?

…जब भैया जी, भाभी जी हमारे घर पर आए, मन ही मन मैं बहुत सकुचाई थी। लेकिन दोनों ने बताया, पहले से हम तुम्हें बहू मानते आए हैं, और अब भी तुम हमारी बहू ही हो, और प्रभाकर हमारा बेटा है। हम लोगों का एक दूसरे के घर आना जाना पहले जैसा ही रहना चाहिए। “ऑफ कोर्स आप लोगों की इच्छा नहीं हो तो फिर”….भैया जी बहुत भावुक हो गए थे। उनकी ममता उनके स्वर में छलक रही थी।

वे दोनों, …कभी-कभी अकेले भैया जी…आते जाते रहे। बीच-बीच में कभी-कभार हम भी उनके घर जाते। भैया जी के लिए प्रभाकर सर, प्रभाकर जी, सिर्फ प्रभाकर कब बने पता ही नहीं चला। हमेशा से मितभाषी, आत्ममग्न रहने वाला यह इंसान उनके साथ खुलकर बातें कैसे करता है? …यह अद्भुत पहेली मेरे समझ से परे है। अब सब कुछ अच्छा ही चल रहा है। घर का बदला हुआ माहौल भी प्यारा है। फिर भी मैं बेचैन हो जाती हूॅं। भैया जी के आते ही जयंत बहुत याद आता है। मन के किसी सिकूडे कोने में दुबक कर यादों में पड़ा जयंत दुबारा से स्पष्ट हो जाता है। नायक की भूमिका में मेरे सामने खड़ा हो जाता है। धीरे-धीरे मेरे मन पर छा जाता है। मेरा मन अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। उसका घना साया मन को बेचैन करता रहता है। ….और यह बेचैनी मैं किसी के सामने व्यक्त भी नहीं कर सकती।

 – समाप्त – 

मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #202 ☆ कथा-कहानी – ‘दरवाज़ा’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा ‘दरवाज़ा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 202 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ ‘दरवाज़ा’

देवेन्द्र जी पत्नी के साथ ससुराल के गाँव के मोड़ पर बस से उतर गये। यात्रा से शरीर हिल गया था। सामने कच्ची सड़क पेड़ों और खेतों के बीच लहराती हुई दूर तक चली गई थी। अब सूटकेस उठाये एक किलोमीटर कौन जाए? पत्नी के लिए वैसे भी घुटनों के दर्द के कारण चलना मुहाल था।

सन्देश दो दिन पहले आया था। एक रिश्तेदार ने सूचना दी थी कि देवेन्द्र जी के एकमात्र साले और तीन बहनों के एकमात्र बड़े भाई सुखपाल दादा अचानक चल बसे थे। देवेन्द्र जी की पत्नी गीता को खासा आघात लगा क्योंकि बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण उसका मायके से लगाव ज़्यादा था और उसमें ज़िम्मेदारी-बोध भी कुछ ज़्यादा था।

दूसरी बात यह कि सुखपाल दादा को कोई तकलीफ नहीं थी। अभी डेढ़ माह पहले वे गीता के घर आये थे। तब उनके पैर में पट्टी ज़रूर बँधी थी। बताया कि घाव हो गया है जो दो-तीन महीने गुज़र जाने के बाद भी ठीक नहीं हो रहा है। देवेन्द्र जी ने सलाह दी थी कि मामले को गंभीरता से लिया जाए और ब्लड-शुगर की जाँच करा ली जाए, लेकिन आम देहातियों की तरह सुखपाल दादा ने बात को हँसी में उड़ा दिया था। देवेन्द्र जी ने भी फिर जाँच के लिए ज़ोर नहीं दिया। अब ज़रूर उन्हें थोड़ा अपराध-बोध हुआ कि जाँच करा देते तो शायद कुछ पता लग जाता, लेकिन इस विचार को उन्होंने ज़्यादा टिकने नहीं दिया।

मृत्यु का संदेश मिलने के बाद ससुराल पहुँचने में देवेन्द्र जी को दो दिन लग गये थे क्योंकि शहर में घर छोड़कर अचानक चल पड़ना नहीं हो सकता। घर की सुरक्षा का इंतज़ाम करना पड़ता है। एक बेटा बाहर है। दूसरा बेटा और बेटी कॉलेज में पढ़ते हैं। पड़ोसियों पर ज़्यादा निर्भर नहीं रहा जा सकता। अंततः सारी मुसीबत खुद ही झेलनी पड़ती है। देवेन्द्र जी को झुँझलाहट भी लगी कि अचानक यह झंझट कहाँ से आ गयी।

सुखपाल दादा की स्थिति कभी अच्छी हुआ करती थी। पिता की छोड़ी काफी ज़मीन थी और गाँव में खासा रौब और रसूख था। लेकिन आय का दूसरा साधन न होने के कारण बहनों की शादी में काफी ज़मीन निकल गयी और सुखपाल दादा के पास इतनी ही बची कि साल भर छाती मारने के बाद किसी तरह गुज़र-बसर हो सके। इकलौते पुत्र होने और शिक्षा की कमी के कारण वे कहीं बाहर भी नहीं निकल सके। कुछ दिन बाद वे समझ गये कि वे ऐसे दुष्चक्र में फँस गये हैं जिस से बाहर निकलना मुश्किल था। गाँव का वातावरण, अशिक्षा और फिर खेती में चौबीस घंटे की ड्यूटी— विपत्ति का सारा इंतज़ाम था। इतनी आमदनी नहीं थी कि बच्चों को बाहर भेजकर शहर वालों जैसा सक्षम बनाया जा सके।

सुखपाल दादा की चार संतानें थीं— दो बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे और बड़ी बेटी की शादी हो गयी थी। बड़ा बेटा खेती में ही रेत में से तेल निकालने में लगा था। छोटा किसी प्रकार परीक्षाओं में प्राइवेट बैठकर पढ़ाई की खानापूरी कर रहा था। उसे बार-बार पूरक परीक्षाओं में बैठना पड़ता था। छोटी बेटी बारहवीं तक पढ़ कर घर में बैठ गयी थी।

बड़ी बेटी की शादी सुखपाल दादा ने किसी प्रकार गिरते-मरते निपटायी। हालत यह हुई कि पलंग तो आया लेकिन गद्दा गायब। बैंड पास के गाँव का। बजाने वालों की ड्रेस और हाथ-पाँव गन्दे, केश और दाढ़ी बढ़ी। बाकी इंतज़ाम भी बेतरतीब। वर पक्ष के लोग भले थे, सो लड़की को लेकर बिना हल्ला-गुल्ला किये चले गये। लेकिन सुखपाल दादा के दोनों छोटे बहनोइयों का मुँह बहुत दिन तक फूला रहा। उन्हें लगा कि इस ‘लो स्टैंडर्ड’ शादी से उनकी शान में बट्टा लग गया। उनकी देखा-देखी उनकी पत्नियाँ भी बहुत दिन तक भाई से भकुरी रहीं।

ऐसा नहीं था कि सुखपाल दादा ने अपने दुष्चक्र से निकलने के लिए हाथ-पाँव न मारे हों। उन्होंने बहनों से अनुरोध किया था कि उनके बच्चों को अपने पास रख लें ताकि वे भी शहरी भाषा में ‘आदमी’ बन जाएँ। उन्होंने आश्वासन दिया था कि उन पर होने वाले खर्चे की भरपाई वे करेंगे, लेकिन तीनों बहनोइयों ने उनके अनुरोध को सिरे से खारिज कर दिया। बड़ी बहन गीता के मन में भाई के बच्चों के लिए करुणा थी, लेकिन देवेन्द्र जी ने घुटना अड़ा दिया। तर्जनी उठाकर कहा, ‘बिलकुल नहीं। दूसरे के बच्चों को रखने से अपने बच्चों पर होने वाले खर्चों में हमें क्या कटौती करनी पड़ेगी, यह हम अभी नहीं समझ पाएँगे। यह सेंटीमेंट की बात नहीं है। दूसरे बच्चे हमारे फैमिली सेट-अप पर क्या असर डालेंगे आपको अभी से क्या पता। बाद में आप दूसरे के बच्चे को भगा तो नहीं सकते।’

मँझली बहन कविता के साथ दूसरी समस्या थी। उसकी ससुराल वाले अपेक्षाकृत संपन्न थे, इसलिए वह सारे समय अपने मायके की दरिद्रता छिपाने और अपनी इज़्ज़त बचाने में लगी रहती थी। मायके से किसी के आने की खबर मिलते ही वह हिदायतों की फेहरिस्त भेज देती थी। उसके घर पहुँचने पर मायके के सदस्य और उसके सामान का बाकायदा मुआयना होता था और जो भी कोर-कसर हो उसे तत्काल दुरुस्त करने का निर्देश दिया जाता था। इसीलिए मायके के लोग उसके घर तभी जाते थे जब निकल भागने के सभी रास्ते बन्द हो जाएँ।

तीसरी बहन रेखा के साथ मनोवैज्ञानिक समस्या थी। सामान्य घर से शहर की चकाचौंध में आने के बाद उसे चीज़ों को इकट्ठा करने का ज़बरदस्त शौक लग गया था। उसके पतिदेव भी वैसी ही तबियत के थे। ग़ैरज़रूरी चीज़ें इकट्ठी करते-करते उनका घर कबाड़खाना बन गया था। वहाँ आदमी के अँटने की गुंजाइश कम रह गयी थी। किसी चीज़ के ज़रा भी इधर-उधर होने पर पति-पत्नी का पारा चढ़ जाता था। बच्चों को चीज़ें शत्रु लगने लगी थीं। ऐसे घर में और बच्चों के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।

बहनोइयों के इस रुख़ के कारण सुखपाल दादा के अपने बच्चों की तरक्की के मंसूबे भ्रूणावस्था में ही दम तोड़ गये और उनके बेटे धरतीपुत्र ही बने रह गये। एक बार अपनी मजबूरी उघाड़ने के बाद सुखपाल दादा ने स्थितियों से समझौता कर लिया और बहनों के सामने दुखड़ा रोना बन्द कर दिया।

अब गाँव की ओर बढ़ते हुए वे सब बातें  याद कर के गीता को दुख हो रहा था। शायद बच्चों के जीवन का संतोषप्रद न होना ही दादा की अचानक मृत्यु का कारण बना हो। गाँव की वही सड़क जो कभी उस के मन को हुलास से भर देती थी अब उसे व्यथित कर रही थी। सूटकेस उन्होंने मोड़ की चाय की दूकान में छोड़ दिया। बता दिया कि बड़ा भतीजा हरपाल या छोटा श्रीपाल आकर ले जाएगा।

धीरे धीरे चलते हुए वे आधे घंटे में सुखपाल दादा के घर पहुँच गये। खपरैल के छप्पर वाला लंबा सा घर था। सामने कच्चे चबूतरे के बीच में बड़ा सा नीम का पेड़। एक तरफ चरई पर पाँच छः मवेशी खड़े थे। हरपाल बाहर ही मिल गया। पच्चीस छब्बीस साल का होगा। लंबा और स्वस्थ। घुटा हुआ सिर और छोटी सी चोटी। गीता उससे लिपट कर रोने लगी। हरपाल आँखें पोंछता चुप खड़ा रहा।

भीतर घुसते ही भाभी, छोटे भतीजे और दोनों भतीजियों से भेंट हुई। थोड़ी देर को कोहराम मचा, फिर सब संयत हुए। पता चला सुखपाल दादा घर के बाहर काम करते अचानक ही मूर्छित हो गये थे। ट्रैक्टर पर दूसरे गाँव ले जाकर डॉक्टर को दिखाया तो मालूम हुआ कुछ शेष नहीं है। बीमारी का पता नहीं चला। जहाँ जाँच-पड़ताल और इलाज की सुविधाएँ न हों वहाँ बीमारी का कारण जानना संभव भी नहीं होता। ऐसी स्थिति में दुर्घटना को होनी मानकर स्वीकार कर लेने के अलावा कोई उपाय नहीं होता।

मृत्यु का आक्रमण घर पर असर डालता है। हँसी-खुशी से भरा घर कुछ वक्त के लिए मनहूस बन जाता है। शाम होने पर यह मनहूसियत और गाढ़ी हो गयी। घर में बिजली थी, लेकिन उसके आने जाने का कोई ठिकाना नहीं था। चौबीस घंटे में छः सात घंटे ही बिजली मेहरबान रहती।

दूसरे दिन दोनों शेष बहनें अपने पतियों के साथ आ गयीं तो देवेन्द्र जी को कुछ राहत मिली। सुखपाल दादा के जाने के बाद घर में कोई ऐसा बचा नहीं था जिससे इत्मीनान से कुछ बात की जा सके। साढ़ुओं के आने से बातचीत का ज़रिया बन गया और मनहूसी कुछ कम हुई।

घर में अतिथियों के सत्कार में कोई कसर नहीं थी। गरम पानी, दो तीन बार चाय और सुविधानुसार भोजन। भतीजे, भतीजियाँ सेवा में हाज़िर थे। देवेन्द्र जी ने सुखपाल दादा के पीछे पड़कर कुछ समय पहले एक फ्लश वाला टायलेट बनवा लिया था, लेकिन उसके ऊपर छप्पर इतना नीचा था कि खड़े होते वक्त सिर पर ठोका खाने की पूरी संभावना बनी रहती थी।

सारी सुविधाओं के बावजूद बिजली की अनुपस्थिति से खासी परेशानी थी। ए.सी. और कूलर के आदी शहरवासियों के लिए यह बड़ा संत्रास था। बहनोइयों का सारा वक्त करवटें बदलते और बाँस का पंखा झलते गुज़रता था। रात को ज़रूर बाहर चबूतरे पर नीम के नीचे सुकून मिलता था।

दोनों छोटी बहनों के पति एक दिन रुक कर उन्हें छोड़ कर चले गये थे। तेरहीं पर आकर ले जाएँगे। देवेन्द्र जी रुके रहे क्योंकि वे नौकरी से रिटायर हो चुके थे। दूसरे, पत्नी को ले जाने के लिए दुबारा कष्टप्रद यात्रा करने की ज़हमत वे उठाना नहीं चाहते थे।

दस ग्यारह दिन देवेन्द्र जी और तीनों बहनें वहाँ बनी रहीं। तीनों बहनें अपनी भाभी के पास बैठकर उनके मन को कुरेदने की कोशिश करतीं, उनकी परेशानियों, समस्याओं को जानने की कोशिश करतीं। खास तौर से गीता उनके मन तक पहुँचने की कोशिश करती। लेकिन घर के सदस्य उनके सामने कोई लाचारी प्रकट नहीं करना चाहते थे। बात चलते चलते जहाँ आर्थिक परेशानी पर पहुँचती, भाभी और उनके बच्चे बात को दूसरी तरफ मोड़ देते। लगता था जैसे कोई कपाट है जो तीनों बहनों के सामने आ जाता है। उसके पार उनका प्रवेश निषिध्द है। गीता दुखी हो जाती कि भाभी अपने दुख में उसे सहभागी नहीं बनाती। ज़्यादा दबाव पड़ने पर भाभी बात को ख़त्म करने के लिए कह देती, ‘हरपाल सयाने हो गये हैं। सब सँभाल लेंगे। चिन्ता करने से क्या होगा?’

भाभी से अनुकूल उत्तर न मिलने पर गीता हरपाल से टोह लेने की कोशिश करती। कुछ पता चले कि पैसे-टके का क्या इंतज़ाम है। ज़्यादा परेशानी तो नहीं है। लेकिन वहाँ से भी वही उत्तर मिलता— ‘सब ठीक है बुआजी। कोई परेशानी नहीं है।’

रोज़ के खर्च की बात माँ-बेटे के बीच ही दबे स्वर में हो जाती। किसी दूसरे को भनक न लगती कि स्थिति क्या है।

लाचार गीता ने दस हज़ार रुपये ज़बरदस्ती भाभी के पास रख दिये। कहा, ‘रखे रहो। न लगे तो वापस कर देना। ज़रूरत पड़े तो खर्च कर लेना।’

तेरहीं ठीक-ठाक हो गयी। सब धार्मिक कृत्य ठीक से निपट गये। फिर भोज में सब रिश्तेदार-व्यवहारी जुट आये। दोनों बहनोई तेरहीं पर फिर हाज़िर हो गये थे। खूब चहल-पहल हो गयी। दोपहर से शुरू हुआ भोजन का सिलसिला रात तक चलता रहा।

अब रुकने का कोई काम नहीं था। दूसरे दिन बहनोइयों ने रवानगी की तैयारी की। एक बार फिर बहनें दिवंगत भाई को याद करके रोयीं। भाई के जाने से मायके की सूरत बदल गयी थी। अब मायके से संबंध क्षीण ही होने हैं।

दोनों भाई हरपाल और श्रीपाल उन्हें छोड़ने रोड तक आये। बस के इंतज़ार के बीच में हरपाल ने एक पैकेट बड़ी बुआ को पकड़ा दिया, कहा, ‘अम्माँ ने आपके पैसे भेजे हैं। कहा खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी।’

गीता को दुख हुआ, कहा, ‘इतना तो खर्च हुआ। रखे रहतीं तो क्या बिगड़ जाता? कहीं तो काम आते।’

हरपाल ने जवाब दिया, ‘बिना जरूरत रख कर क्या करते? इंतजाम हो गया था। आप लोग आ गये यही बहुत है।’

इतने में बस आ गयी और मेहमान उसमें सवार हो गये। बस के रवाना होते  ही मायके के दृश्य और भतीजों के चेहरे दूर होने लगे और कुछ क्षणों में सब धुँधला कर आँख से ओझल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-२ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-२ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

 (बारात घर जाने के बजाय मुंबई हॉस्पिटल में…. नई नवेली दुल्हन… मैं… इमरजेंसी वार्ड के बाहर… दवाइयॉं, खून, इंजेक्शन, एक्सरे, स्कैन, शब्द मैं सुन रही थी… सुन्न मन और दिमाग से। बीच में पता नहीं कब किसी के साथ जाकर कपड़े बदल आई थी। ) ….अब आगे

सुहागरात…कितने सुनहरे ख्वाब देखे थे मैंने! एक सह- जीवन की प्यार भरी शुरुआत! वैसे भी जयंत बहुत कोमल मन का… सुमधुर वाणी का धनी… प्यारी बातों से परायों को भी अपना करने वाला! मेरे मन पर तो उसके शब्द मोहिनी का जादू आरुढ था। पहले भी ‘हमारे’नए फ्लैट को घर बनाने के लिए, सजाने-धजाने के लिए वहाॅं मैं कई बार गई थी। वहॉं कभी मुझे अकेली को काम करती छोड़कर वह अपने काम पर चला जाता था। कभी-कभी वह वहाॅं मौजूद रहता था, मदद करने के बहाने। सच बताऊॅं तो उस वक्त थोड़ासा शक, थोड़ा सा डर मन में रहता ही था। अगर वह बहुत पास आ जाय तो? शादी को अभी महीना ही बचा है। उसके रॅशनल थिंकिंग, धार्मिक कर्मकांडों का विरोध वगैरह बातों की मैं आदी हो चुकी थी। पर मेरी मध्यमवर्गीय मानसिकता के संस्कार मुझे डराते रहते थे। अगर उसने शादी के पहले ही मुझसे फिजिकल कांटेक्ट की बात की तो? …. लेकिन वह डर बेकार था। वह बहुत ही सज्जन लड़का था। एक बार मजाक में उसने मुझे बांहों में लेकर इतना जरूर कहा था। “देखो यह बेड़ भी इंतजार कर रहा है, बिल्कुल मेरी तरह… सात जून का …अपनी सुहागरात का !

सात जून की रात को तो हमें एक दूसरे के बाहूपाश में होना चाहिए था। इतने सारे दिनों का इंतजार खत्म होने वाला था। पर दुर्भाग्य से आज सात जून को जयंत आईसीयू में, और मैं अभागन हॉस्पिटल के किसी कोने में एक कुर्सी पर बेबस!

वह बेचारा अंदर तड़प रहा होगा, बर्दाश्त कर रहा होगा। मैं भगवान को हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही थी। उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर रही थी।

आठ दस दिन ऐसे ही निकल गए। सिर्फ एक अच्छी बात यह हो गई, उसको आईसीयू से स्पेशल रूम में लाया गया। वह खतरे से बाहर निकला था। लेकिन हम सब डरे हुए ही थे। ऐसे में ही एक दिन मम्मी हॉस्पिटल में ही फटाक से बोल पड़ीं “शुरू से ही इसमें कोई खोट होगी, जभी तो दहेज नहीं लिया। “

जयंत ने यह सुना तो नहीं? मैं बहुत टेंशन में थी।

पर लोगों के मन में इस तरह का ख्याल भी आ सकता है, यह बात उसके मन में भी आई होगी।

एक दिन पापा से बोला, “आप विश्वास रखिए…. सच में मुझे कोई भी बीमारी नहीं थी। शायद आप लोगों को लग सकता है कि मैंने आपको धोखा दिया। ” “जयंत जी, कृपया इस तरह सोच कर दुखी मत होइए। आपके बारे में हम ऐसा सोच भी नहीं सकते। मन शांत रखिए। डॉक्टर इतनी कोशिश कर रहे हैं। आप जल्दी स्वस्थ, निरोगी हो जाओगे। “पापा ने उसे समझाया।

जयंत की जिद की वजह से शादी के पहले हमारी जन्मकुंडली भी नहीं मिलाई थी। दस लोग, दस बातें ! शायद लड़की मांगलिक होगी उसकी भाभी उनके किसी परिचित को कह रही थी। मंगल के प्रभाव से यह हो रहा होगा। मुझे लग रहा था कि मैं चिल्ला चिल्ला के सबको बता दूं कि मैं मांगलिक नहीं हूॅं।

शादी के बाद हमारा दस दिन के लिए ऊटी जाने का प्रोग्राम था। खूबसूरत ऊटी में घूमना फिरना, एक दूजे के लिए जीना, एक दूसरे के अधिक समीप आना यह तो हमारा सपना था। जिंदगी की शुरुआत हम एक अलग ही खुशी और आनंद से करने वाले थे। पर वे दस दिन तोअस्पताल में डॉक्टरों के गंभीर चेहरे… दवाइयों की बदबू… जिंदगी को मौत की छांव में देखकर आये हुए मानसिक तनाव… इसीमें बिताने पड़े। लग रहा था एक बार हॉस्पिटल से छुट्टी हो जाए तो फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैं जयंत को संभालूॅंगी, उसके हेज-परहेज का ख्याल रखूंगी। सेवा करूंगी। जिंदगी इतनी बड़ी होती है। अभी तो शुरुआत है, आगे जाकर इन दस दिनों की याद भी नहीं आएगी। पर तब यह कहाॅं मालूम था कि यह यादों की छाॅंव मेरा पूरा जीवन व्याप्त करेगी।

जयंत एक निडर पत्रकार था। एक प्रसिद्ध अखबार का अब सहायक संपादक बन गया था। लेकिन दफ्तर में बैठकर काम करना उसको मंजूर नहीं था। किसी भी महत्वपूर्ण घटना को वह वहाॅं जाकर ही कवर करता था। राजनीतिक उठापटक, सामाजिक आंदोलन, शिक्षा, अर्थकारण ऐसे विषयों पर उसकी अभी व्यंगात्मक शैली में लिखी गई ‘प्रकाश किरण’ इस शीर्षक के तहत प्रकाशित होने वाली लेखमाला बहुत ही लोकप्रिय हो गई थी। शादी के पहले मैं भी उसकी पाठक थी। मुझे वह लेखमाला बहुत पसंद थी। बल्कि मुझे उससे प्यार हो गया था। उसका प्रसिद्ध लेखक मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर रहा है, यह मुझे एक सपने के समान लगता था।

जयंत की बीमारी के चलते वह लेखमाला बंद हो गई क्योंकि उसको बेडरेस्ट की बहुत जरूरत थी। लेकिन जैसे ही वह घर आया, धीरे-धीरे उसके फ्रेंड सर्कल का घर आना… उनकी गपशप… चर्चायें…बहस बाजी….और चाय नाश्ता खाना-पीना फिर से शुरू हो गया। वह खुश रहने लगा। उसके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था। लेकिन डॉक्टर ने दी हुई बेड- रेस्ट की हिदायत को वह अनसुना करने लगा। मेरा कर्तव्य मैं अच्छी तरह से निभा रही थी। इसलिए मैं चिंतित हो गई, डर गयी। मैं उसे बाहर जाने से, ऑफिस के चक्कर लगाने से, रोकने का प्रयास करती थी। पर प्यार से “बेबी, सोना, गुड्डोरानी कहकर अपनी मीठी मीठी बातों में वह मुझे इस तरह उलझाता कि उसके लिए चिंता जताना मेरी कितनी बेवकूफी है यह बात वह हंसते-हंसते सिद्ध कर देता। इसी दौरान संघटित मजदूर संघ के नेताओं ने राष्ट्रीय हड़ताल घोषित कर दी। जगह-जगह पर सभा, रैलियां, धरना प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। उल्टी-सीधी बयानबाजी शुरू हो गई। मालिक, मजदूर नेतागण, विरोधी पक्ष नेता, मजदूर- सब की आपबीती, राज्य सरकार का बीच-बचाव, इतना सब घटित होता देख आराम करते रहना या सिर्फ ऑफिस में बैठे रहना जयंत के लिए असंभव था। उसके अखबार के संपादक जी ने भी उसको सिर्फ थोड़ा बहुत ऑफिस वर्क करने की सलाह दी थी। उन्होंने बताया था फिल्ड वर्क करने के लिए जर्नलिज्म किए हुए नवोदित संवाददाताओं की भर्ती की हुई है। वे लोग ही सभा, सम्मेलन, रैलियां कवर करेंगे, और जयंत का काम रिपोर्ट, महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साक्षात्कार को अच्छी तरह से संपादित करना, यही रहेगा। लेकिन जयंतनेअपनी बीमारी को बहुत हल्के में लिया। बेड रेस्ट तो वह करना ही नहीं चाहता था। संपादक जी का कहना भी उसने नहीं माना, भैयाजी जी की बातों को सुना अनसुना कर दिया। और बेवजह अपने शरीर पर अत्याचार करता रहा। हड़तालऔर प्रदर्शन हिंसक हो रहा था। जिससे मेरी चिंता, फिकर बढ़ती जा रही थी। “तुम इतना परिश्रम मत करो” मैं रोते-रोते उससे विनती करने लगी थी। लेकिन उसने मेरी एक न मानी। उसके अंदर के पत्रकारिता का जुनून उसे आराम करने नहीं दे रहा था। उसका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता जा रहा था ‘ मेरे काम में तुम टांग मत अड़ाओ’ मुझे वह गुस्से से कहने लगा था। मैं अच्छा खासा हूॅं, कुछ नहीं होगा मुझे। ‘ यह उसका जवाब होता था। जब भी देखो श्रमिकों की खस्ता हालत और श्रमिक नेताओं द्वारा किया जाने वाला उनका शोषण… इस तरह के विषय पर उसकी बातें होती रहती थीं। सभा सम्मेलन, चर्चाएं , मोर्चा, इसमें वह रात- दिन की, गर्मी की, भूख- प्यास की परवाह न करते हुए जाता रहा।

 क्रमशः… 

मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-१ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-१ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

ड्राइंग हॉल से भैया जी के बोलने की आवाज आयी… परसों दशहरा….!जरूर भोजन का न्योता देने आए होंगे। भैया जीऔर प्रभाकर की अच्छी खासी दोस्ती हो गई है। प्रभाकर है मितभाषी, बहुत जरूरत पड़ने पर भी औरों से बात की तो की, नहीं तो नहीं! यह उनका अपना अंदाज है। …और एक ये भैया जी, जिनका कौशल है कि वे किसी भी विषय पर किसी के भी साथ बातचीत कर सकते हैं। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। बहुत अलग-अलग विषयों पर उनकी अच्छी खासी पकड़ भी है। इस वजह से छोटे बच्चों से लेकर बडों तक सबको इस पचहत्तर साल के बुढे के साथ बातचीत करना अच्छा लगता है। …..सिर्फ उनकी वजह से और सिर्फ उनके साथ ही…. प्रभाकर बोलते हैं। वरना यह इन्सान पेड़ – पौधों उनकी कोशिकाओं, जीन्स और क्रोमोजोम में ही ज्यादा रमता है। उनके सगे -संबंधी, परिचित, रिश्तेदार सब के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना यह मेरी जिम्मेवारी है।

“और बताओ भाई, क्या हाल-चाल? सब कुशल मंगल? … इतनी सी बात करके वे अपने बाग में…. मतलब उनकी प्रयोगशाला में गायब हो जाते हैं। बोटैनिकल रिसर्च सेंटर में वे चीफ साइंटिस्ट के ओहदे पर काम करते हैं। पेड़, पौधों पर घास- फूस पर प्रयोग, व संशोधन करना और खाली वक्त अपने विषय की किताबें पढ़ना, लिखना, सेमिनार-कॉन्फ्रेंस के लिए नोट्स, लेख, प्रेजेंटेशन तैयार करना यही उनका छंद है। ….एक तो उन जैसे, अपने में ही खोए हुए शख्स को शादी ही नहीं करनी चाहिए थी। हो सकता है उनके विचार भी वैसे ही रहे होंगे। पर अनजाने में ही कभी किसी ने उनको शादी के लिए राजी करवाया होगा। पर ऐसा अपने कोश में बंद रहने वाला इंसान, भैया जी के सामने थोड़ी देर के लिए अपने आवरण से बाहर आता है। बाकी दुनिया से उनका कुछ भी लेना देना नहीं। ….लेकिन आजकल हमारी साडेतीन साल की बेटी गौरी उन्हें उस आवरण से बाहर खींच लाती है। “पापा चिदीया का गाना सुनाऊं? उसका घोंसला कहां है? पापा, अच्चू को लुपया मिला, बच्चू को लुपया मिला… इसके आगे क्या? … चलो हम अक्कद बक्कद खेलते हैं। “.. कभी यह कभी वह …कहानियाॅं, गाने… उसकी तोतली बोली में की हुई बातें खत्म ही नहीं होती हैं। उसके साथ बोलते, बतियाते समय संशोधक महाशय के गंभीर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दिखाई देती है। दिन-ब-दिन ऐसे स्वर्णिम पल ज्यादा… अधिक ज्यादा… मिलेंगे यह पगली आस मुझे खुश कर देती है। लगता है तितली की तरह अपना आवरण भेद के ये इंसान भी हमेशा के लिए बाहर आएगा… और यह काम सिर्फ और सिर्फ गौरी ही कर सकती है।

“मम्मी, भैया जी आ गये, भैया जी आ गये “तालियाॅं बजाती हुई गौरी मुझे सूचना देने रसोई में आयी और उसके पीछे भैया जी भी! एक चॉकलेट का बड़ा सा पैक खोलकर उन्होंने एक चॉकलेट गौरी के मुंह में ठूंस दी और पैक उसके हाथ में दे दिया। भैया जी हर बार कुछ ना कुछ लाना जरूरी है क्या? आप के लाड प्यार से यह लड़की एक दिन आपके सिर पर बैठ जाएगी। “…”बैठने दो, मैं वहां से उसको गिरने नहीं दूंगा। अभी भी इतनी ताकत है इन बूढ़ी हड्डियों में!”… और एक दिलखुलास हंसी!

मैं उनके विदेश में रहने वाले बेटा – बेटी व उनके परिवार, सब की खुशहाली पूछने लगी। वे भी बड़े खुशी से अपने पोते, पोतियों से वीडियो कॉल पर की हुई बातों के बारे में, फिर वहां की सामाजिक स्थिति के बारे में, अभी – अभी पढ़ी हुई किताबों के बारे में दिल खोल कर बातें करने लगे। गौरी को छोटी सी दो-चार कहानियाॅं भी उन्होंने सुनाई। उसके किचन में‌‌ बनी… छोटे से कप में सर्व की हुई…. झूटीमूटी की चाय पी ली, उसके गुड़िया की टूटी हुई माला भी पिरो दी। सच पूछो तो भैया जी के आने से घर में बड़ी रौनक आती है। सारा घर खुशी से झूम उठता है। यह बात मुझे अच्छी लगनी चाहिए…. और लगती भी है। लेकिन अंदर से मेरा मन बेचैन हो उठता है। यह बेचैनी मैं किसी से साझा नहीं कर सकती। किसीको बता नहीं सकती। सब कुछ अकेले ही बर्दाश्त करती रहती हूॅं।

भैया जी के आते ही मेरे मन में ‘वह’बहुत ही स्पष्ट रूप से रेखांकित होता है। इन तीन-चार सालों में उसकी छवि धुंधली सी जरूर हुई है। …. समय के साथ मेरे मन पटल से वह गायब भी हो जाएगी। लेकिन भैया जी के आते ही सब कुछ गड़बड़ा जाता है। जैसे कागज से कार्बन पेपर हटाते ही नीचे कागज पर बनी हुई आकृति ज्यादा साफ, गाढ़े रंग में चमकती है ना, वैसे ही वह मेरे मन पर समूर्त, साकार हो जाता है।

मेरे मन में रचा बसा ‘वह’… जयंत…! प्रभाकरजी से शादी करके मैं उनके घर पहुॅंची तो ‘वह’ भी मेरे साथ वहाॅं पहुंच गया। प्रभाकर जी के साथ शुरू की हुई शांत, नीरस गृहस्थी में वह एक साए की तरह मेरा साथ देता रहा। मेरे साथ हॅंसता-बोलता रहा। आजकल जब भी भैया जी आते हैं लगता है कि उसके घने साये ने रंग रूप धारण कर लिया है और मानो वह मूर्तिमान साया मालिक बनकर मुझ पर अधिकार जमा रहा है, इसलिए कभी-कभी लगता है अगर भैया जी से रिश्ता ही टूट जाए तो क्या मेरे मन में बसा हुआ वह घना साया धीरे-धीरे फीका पड़ जाएगा? उसकी उंगली पकड़कर भैया जी मेरी जिंदगी में आए थे। उसकी उंगली तो छूट गई। ….. लेकिन भैया जी आते ही रहे।

अब इस रिश्ते को खत्म करना मेरे हाथ में रहा भी नहीं है।

भैया जी- ‘उसके’- जयंत के पिता जी के दोस्त!जयंत कॉलेज में पढ़ रहा था। माॅं पहले ही गुजर गई थी। उसका बड़ा भाईऔर बहन दूसरे शहर में रहते थे। अचानक उसके पिता की हार्ट फेल होने से मौत हो गई। पिता के निधन से उत्पन्न हुए शून्य को भैया जी के प्यार ने भर दिया था। मुझे शादी के लिए ‘हॉं’ करने से पहले जयंत मुझे भैया जी के पास ले गया था। उन्होंने पुष्टि की, कि उसका चुनाव बहुत अच्छा है…आगे बढ़ो..।

तभी से मुझे भैया जी के मधुर अच्छे स्वभाव का परिचय हुआ। हमारी अरेंज्ड शादी तुरंत नहीं हो पायी। जयंत के पत्रकार नगर वाले फ्लैट का कब्जा मिलने तक छह महीने इंतजार करना तय हुआ। फिर तब तक.. हम लोगों का घूमना- फिरना, फोन पर घंटों बातें करना, नाटक मूवीज देखने जाना सब शुरू हो गया। हर पल खुशी व आनंद देने वाला था। जिंदगी इतनी सुंदर, सुखमय, आनंददाई होती है? मुझे यकीन हो गया था कि इसीको ही स्वर्गसुख कहते हैं।

 फ्लैट हाथ में आ गया। फिर दोनों ने मिलकर शॉपिंग की। अपने घर को बहुत अच्छी तरह से मैंने सजाया। किसी चीज की भी कमी रहने नहीं दी थी मैंने। …. पर दहलीज पार करके गृह प्रवेश करना मेरे नसीब में ही नहीं था……

 . हम विवाह बंधन में बंध गए। मेरे मम्मी पापा, भाई-बहन सारे पिहर वाले बहुत खुश थे। जयंत एक प्रख्यात पत्रकार था। उसका जोड़ा हुआ लोक संग्रह बहुत बड़ा था। उसमें स्नेही-सोबती, यार -दोस्त, सहकारी, व्यवसायिक साथी, मंत्रालय से संबंधित लोग सारे ही शादी में उपस्थित थे। ….और तो और… मुख्यमंत्री जी का भी मैसेज आया था। यह सब कुछ मेरे लिए तो बहुत अचंभित करनेवाला था। मेरे मम्मी, पापा को तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि दहेज न लेने वाला, रिसेप्शन का खर्चा खुद उठाने वाला, किसी के भी द्वारा दिया हुआ उपहार प्यार से बोल कर अस्वीकार करने वाला यह युवक अपना दामाद है।

 ” जयंत यार! तुरंत हनीमून पर? कहाॅं? दोस्त मजाक में पूछ रहे थे। “नहीं भाई, अभी तो 176 बटे 20′ स्नेह शील’ अपार्टमेंट ही। ” बाद का सोचा नहीं है “वह मुस्कुराते हुए जवाब दे रहा था। जेठानी जी और ननंद जी घर में लक्ष्मी पूजा की तैयारी करने के लिए हाॅल से पहले ही निकल चुकी थीं। एक सजायी हुई कार हमारा इंतजार कर रही थी। हम कार तक पहुंच ही थे। ….अचानक जयंत नीचे बैठ गया, उसके चेहरे का नूर ही बदल गया। और उसने खून की उल्टी की‌। …..

 बारात घर जाने के बजाय मुंबई हॉस्पिटल में! शादी का जोड़ा पहनी हुई जेवर से सजी हुई नयी नवेली दुल्हन….मैं….हॉस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड के बाहर… बहुत सारे दोस्त, साथी, रिश्तेदार मदद करने पहुंचे थे। दवाइयाॅं, खून, इंजेक्शन्स, एक्स-रे, स्कैन, शब्द मैं सुन रही थी सुन्न मनऔर दिमाग से। ….बीच में पता नहीं कब किसी के साथ जाकर कपड़े बदल आयी थी।

 क्रमशः… 

मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #145 – लघुकथा – “कलम के सिपाही” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – कलम के सिपाही)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 145 ☆

 ☆ लघुकथा – “कलम के सिपाही” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

“यह पुरस्कार जाता है देश की बॉर्डर पर देश के दुश्मन आतंकवादियों से लड़ कर अपने साथियों की जान बचाने वाले देश के बहादुर सिपाही महेंद्र सिंह को.”

“इसी के साथ यह दूसरा पुरस्कार दिया जाता है देश के अन्दर दबे-छुपे भ्रष्टाचार, बुराई और काले कारनामों को उजगार कर देश की रक्षा करने वाले कर्मवीर पत्रकार अरुण सिंह को.”

यह सुनते ही अपना पुरस्कार लेने आए देश के सिपाही महेंद्र सिंह ने एक जोरदार सेल्यूट जड़ दिया. मानो कह रहा हो कि जंग कहीं भो हो लड़ते तो सिपाही ही है.

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०८/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – एकाकार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – एकाकार ??

‘मैं मृत्यु हूँ। तुम मेरी प्रतीक्षा का विराम हो। मैं तुम्हारी होना चाहती हूँ पर तुम्हें मरता नहीं देख सकती..,’ जीवन के प्रति मोहित मृत्यु ने कहा।

‘मैं जीवन हूँ। तुम ही मेरा अंतिम विश्राम हो। तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा क्योंकि मैं तुम्हें हारा हुआ नहीं देख सकता..’, मृत्यु के प्रति आकर्षित जीवन ने उत्तर दिया।

समय ने देखा जीवन का मृत होना, समय ने देखा मृत्यु का जी उठना, समय ने देखा एकाकार का साकार होना।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 164 – श्रावण पर्व विशेष – कांवड़ यात्रा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा कांवड़ यात्रा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 164 ☆

☆ श्रावण पर्व विशेष ☆ लघुकथा – 🚩 कांवड़ यात्रा 🚩 

एक छोटा सा गाँव। बड़ी श्रद्धा  से कांवड़ यात्रा निकली थी। सावन सोमवार का दिन हजारों की संख्या में लोग महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। रिमझिम बारिश की फुहार, भीड़ अपार, ऊपर से कांवड़ यात्रा।

अपने में मस्त भगवान भोलेनाथ की जय कार लगाते लोग बढ़ते चले जा रहे थे। गाँव में आने-जाने के परिवहन के साधन की कमी रहती है, और इस माहौल पर रिक्शा चालक तो पहले से ही कांवड़ यात्रा में शामिल हो चुके होते हैं।

गाँव में अचानक एक गरीब परिवार दीपा और सोहन लाल की  एक वर्ष की बच्ची की तबीयत खराब हो गई। देखते देखते वह गंभीर अवस्था में पहुँच गई । उसके पास साइकिल था। साइकिल पर बच्चे को ले दीपा बैठ गई, और जाने लगे ।

कांवड़ यात्रा के बीच में पुलिस वालों का सख्त आदेश था… ‘बीच में अन्य कोई भी ना आए।’ अब सोहन और दीपा के लिए बहुत मुश्किल मार्ग हो गया, क्योंकि अस्पताल और मंदिर दोनों गाँव से बाहर ही बने  थे और दूर भी बहुत थे। 

किनारे-किनारे साइकिल पर चलते जा रहा था। बारिश का मौसम फिर कोई उसे रोक देता, गरीब कुछ कह नहीं पाता। उसकी अपनी मजबूरी बताते हुए किसी तरह आगे बढ़ रहा था। थोड़ी दूर पर स्वागत के लिए टेबल लगाया गया था। जहाँ पर फूल माला और फल, शरबत, ठंडा पानी का इंतजाम था। दीपा सोची हम यहां से जल्दी निकल जाए।

परंतु धक्का-मुक्की में सोहन की  साइकिल दस कदम दूर पीछे चली गई। अचानक शरबत बाँटते संतोष की नजर उस पर पड़ी। वह भी कांवड़ लिए चल रहे थे।

वे कई वर्षों से लगातार कावड़ यात्रा में शामिल होते थे, गाँव के एक अच्छे इंसान थे। एक गगरी में जल और दूसरी गगरी में दूध भरा रहता था। सोहन और उसकी पत्नी साथ में बच्चे को देख कर समझ गए कि मामला कुछ ठीक नहीं है, मुसीबत में फंसा है।

उसने आगे बढ़ कर एक दुकानदार से उसकी दो पहिया गाड़ी को मांग लिया। पहचान होने के कारण उसे दे दिया। सोहन की साइकिल वहाँ लगा। सोहन और उसकी पत्नी को पीछे बिठा अस्पताल की ओर चल पड़ा।

अस्पताल पहुँचकर संतोष ने सबसे पहले बच्ची का इलाज शुरू करवा दिया। कांवड़ एक किनारे रखा हुआ था। वहाँ सभी एक दूसरे को देख रहे थे। आज अस्पताल में कांवर कैसे आ गया है। संतोष थोड़ी देर बाद निकल कर एकदम शांत दिखाई दे रहे थे और जितने बाहर बैठे थे उनसे कहा.. “जिसको दूध लेना है और जल लेना है अपना गिलास ले आए।”

देखते-देखते अस्पताल परिसर में भीड़ लग गई। आज संतोष  ने गगरी का दूध और जल सभी जरूरतमंद को बांट दिए।

मन में धैर्य और श्रद्धा से भरे हुए कांवड़ को लेकर गाड़ी में बैठ अपने घर की ओर बढ़ चले। आज की कांवड़ यात्रा अब तक की कांवड़ यात्रा से बहुत अद्भुत थी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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