हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ज़मीर ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – ज़मीर –)

☆ लघुकथा ☆ ज़मीर  ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

धर्मपाल चौधरी गाँव के बड़े किसान थे। वे हर साल अपना खेत चौथे या पाँचवें हिस्से पर जोतने के लिए देते थे। इस बार रबी की फ़सल आई ही थी कि घर के उस हिस्से में आग लग गई, जिसमें अनाज रखा हुआ था। सारा अनाज जल गया। ज़ाहिर है कि चौधरी धर्मपाल बहुत दुखी थे। पूरे गाँव के लोग उनके घर सहानुभूति में जमा हो गए थे। इन्हीं में सुरजा राम भी था, जिसने बारह साल तक चौधरी की ज़मीन जोती थी। यह हालत देखकर उसका मन रो रहा था। सारी गेहूँ जल गई, अब घर में रोटी कैसे बनेगी? सुरजा राम ने कुछ दिन पहले ही सुना था कि चौधरी के पल्ले पैसा नहीं है। एक मुक़द्दमे में वह न केवल सारी पूँजी खो चुका है, बल्कि उस पर लाखों रुपये का कर्ज़ चढ़ा हुआ है।

जब वहाँ आठ-दस लोग रह गए तो सुरजा राम ने चौधरी को थोड़ा अलग ले जाकर कहा,” चौधरी साहब, होनी के आगे किसका बस चलता है। हुई तो बहुत बुरी, पर आप घबराओ मत। मेरे पास साठ सत्तर हज़ार रुपये हैं। आप ले लो, अगली फ़सल पर या उससे अगली फ़सल पर दे देना।” इतना सुनते ही धर्मपाल चौधरी के भीतर का सामंत जाग गया। वे वहाँ मौजूद लोगों को सुनाते हुए बोले, “देखो रे, अब यह चौथिया जलायेगा हमारे घर का चूल्हा! बड़ा आया धन्ना सेठ। लड़के सड़कों पर मज़दूरी करते फिरते हैं और यह मेरी फ़िक्र कर रहा है। वाह, तू जा, अपना घर सम्भाल।” सुरजा राम के पाँव जैसे पत्थर हो गए थे। उसे वहीं खड़ा देख चौधरी गरजा, “अब तू जायेगा या पहले तेरे पैर पकड़ कर शुक्रिया अदा करूँ?” सुरजा राम धीरे-धीरे क़दम उठाता चौधरी के घर से बाहर निकल आया। उसका मन हुआ कि वह चौधरी को बद्दुआ दे कि ऐसी आग तेरे घर रोज़ लगती रहे, पर तुरंत उसे पश्चाताप होने लगा कि उसने यह सोच भी कैसे लिया। बेशक वह बेज़मीन है, बेज़मीर तो नहीं।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा चर्चा ☆ क्लासिक किरदार – “ओ हरामजादे” – लेखक – स्व. भीष्म साहनी  ☆ चर्चा – श्री कमलेश भारतीय☆

 

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है स्व भीष्म साहनी जी की एक कालजयी रचना “ओ हरमजादे” पर श्री कमलेश भारतीय जी की कथा चर्चा।

☆ कथा चर्चा ☆ क्लासिक किरदार – “ओ हरामजादे” – लेखक – स्व. भीष्म साहनी  ☆ चर्चा – श्री कमलेश भारतीय ☆

यह दैनिक ट्रिब्यून का एक रोचक रविवारीय स्तम्भ था – “क्लासिक किरदार“। यानी किसी कहानी का कोई किरदार आपको क्यों याद रहा ? क्यों आपका पीछा कर रहा है? – कमलेश भारतीय

प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी की कहानी ओ हरामजादे मुझे इसलिए बहुत पसंद है क्योंकि जब मैं अपने शहर से सिर्फ सौ किलोमीटर दूर चंडीगढ़ में नौकरी करने नया नया आया तब एक शाम मैं बस स्टैंड पर अपने शहर को जाने की टिकट लेने कतार में खड़ा था कि पीछे से आवाज आई – केशी, एक टिकट मेरी भी ले लेना। यह मेरे बचपन के दोस्त सतपाल की आवाज थी।

कितना रोमांचित हो गया था मैं कि चंडीगढ़ के भीड़ भाड़ भरे बस स्टैंड में किसी ने मेरे निकनेम से पुकारा। आप सोचिए कि हजारों मील दूर यूरोप के किसी दूर दराज के इलाके में बैठा कोई हिंदुस्तानी कितना रोमांचित हो जाएगा यदि उसे कोई दूसरा भारतीय मिल जाए ।

ओ हरामजादे कहानी यहीं से शुरू होती है जब मिस्टर लाल की पत्नी नैरेटर को इंडियन होने पर अपने घर चलने की मनुहार लगाती है और घर में अपने देश और शहर को नक्शों में ढूंढते रहने वाले पति से मिलाती है। लाल में कितनी गर्मजोशी आ जाती है और वह सेलिब्रेट करने के लिए कोन्याक लेकर आ जाता है। फिर धीरे-धीरे कैसे लाल रूमानी देशप्रेम से कहीं आगे निकल जालंधर की गलियों में माई हीरां गेट के पास अपने घर पहुंच जाता है। जहां से वह भाई की डांट न सह पाने के कारण भाग निकला था और विदेश पहुंच कर एक इंजीनियर बना और आसपास खूब भले आदमी की पहचान तो बनाई लेकिन कोई ओ हरामजादे की गाली देकर स्वागत् करने वाला बचपन का दोस्त तिलकराज न पाकर उदास हो जाता। इसलिए वह कभी कुर्ता पायजामा तो कभी जोधपुरी चप्पल पहन कर निकल जाता कि हिंदुस्तानी हूं, यह तो लोगों को पता चले ।

आखिर वह जालंधर जाता क्यों नहीं ? इसी का जवाब है : ओ हरामजादे । लाल एक बार अपनी विदेशी मेम हेलेन को जालंधर दिखाने गया था। तब बच्ची मात्र डेढ़ वर्ष की थी। दो तीन दिन लाल को किसी ने नहीं पहचाना तब उसे लगा कि वह बेकार ही आया लेकिन एक दिन वह सड़क पर जा रहा था कि आवाज आई : ओ हरामजादे, अपने बाप को नहीं पहचानता ? उसने देखा कि आवाज लगाने वाला उसके बचपन का दोस्त तिलकराज था । तब जाकर लाल को लगा कि वह जालंधर में है और जालंधर उसकी जागीर है । तिलकराज ने लाल को दूसरे दिन अपने घर भोजन का न्यौता दिया और वह इनकार न कर सका । पत्नी हेलेन को चाव से तैयार करवा कर पहुंच गया। तिलकराज ने खूब सारे सगे संबंधी और कुछ पुराने दोस्त बुला रखे थे। हेलेन बोर होती गयी। पर दोस्त की पत्नी यानी भाभी ने मक्की की रोटी और साग खिलाए बिना जाने न दिया। लाल ने भी कहा कि ठीक है फिर रसोई में ही खायेंगे। पंजाबी साग और मक्की की रोटी नहीं छोड़ सकता। वह भाभी को एकटक देखता रहा जिसमें उसे अपनी परंपरागत भाभी नजर आ रही थी पर घर लौटते ही पत्नी हेलेन ने जो बात कही उससे लाल ने गुस्से में पत्नी को थप्पड़ जड़ दिया क्योंकि हेलेन ने कहा कि तुम अपने दोस्त की पत्नी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे। उस घटना के तीसरे दिन वह लौट आया और फिर कभी भारत नहीं लौटा। फिर भी एक बात की चाह उसके मन में अभी तक मरी नहीं है।

इस बुढ़ापे में भी मरी नहीं कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आए – ओ हरामजादे । और मैं लपककर उस आदमी को छाती से लगा लूं यह कहते हुए  उसकी आवाज फिर से लड़खड़ा गयी। लाल आंखों से ओझल नहीं होता। पूरी तरह भारतीयता और पंजाबियत में रंगा हुआ जो अभी तक इस इंतजार में है कि कहीं से बचपन का दोस्त कोई तिलकराज उसे ओ हरामजादे कह कर सारा प्यार और बचपन लौटा दे। कैसे भीष्म साहनी के इस प्यारे चरित्र को भूल सकता है कोई ?  कम से कम वे तो नहीं जो अपने शहरों से दूर रहते हैं चाहे देश चाहे विदेश में। वे इस आवाज़ का इंतजार करते ही जीते हैं।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ अक्स ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ अक्स ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

अंसाक्का के घर में आज सुबह से धांधली चल रही थी। उसकी बहू सुमन… सुमा पेट से थी। आज सुबह से उस के पेट में दर्द हो रहा था। असह्य वेदनासे वह कराह रही थी। चिल्ला रही थी। अंसाक्का ने हडबडी से चूल्हा जलाया और उस पर पानी का हंडा रख दिया। फिर गरमागरम पानी से बहू को नहलाया। फिर सदाशिव अपनी बहू को ले कर अस्पताल गया। अंसाक्का आदतन रोज की तरह घर का काम तो कर रही थी, लेकिन उसका पूरा ध्यान अस्पताल से आनेवाले संदेश की ओर था। 

उसे यकीन था, बेटा हो गया, यही संदेश आनेवाला है। वैसे अपने खानदान की यही परंपरा है। अपनी सास को पहला बेटा हुआ, वही तो मेरा पति है, फिर मुझे सदाशिव हुआ। देवर का सोमू पहलाही बेटा और सोमू का समीर भी पहला। अपनी बेटी सुरेखा को भी पहला बेटा ही है। सदाशिव को भी पहला बेटा ही होगा। अंसाक्का काम करते-करते सोच में डूबी थी।

सुमा का पेट आगे से उभर आया था। बहुत तकलीफ झेल रही थी। बार-बार उल्टी होने के कारण बेजान-सी हो गई थी। मुरझाई हुई दिखती थी। ये सारे लक्षण तो बेटे के ही हैं न?

दोपहर को सदाशिव घर लौटा। कहने लगा, ‘माँ तुम दादी बन गई हो। तुम्हें पोती हुई है।‘

‘पोती? ये कैसे हो सकता है?

‘लेकिन हुआ तो ऐसा ही है।’

‘मुझे पोता चाहिये था।‘

‘तुम्हारी इच्छा से ईश्वर की इच्छा बलवती है न!

अंसाक्का पर जैसे निराशा का पहाड़ टूट पड़ा। वह गुस्से से मुँह फुला कर बैठ गई ।

जच्चा-बच्चा दोनों खुशहाल होने के कारण शाम को डॉक्टर साहब ने उन्हें घर जाने की इज़ाज़त दी।

जच्चा-बच्चा घर आए, लेकिन अंसाक्का ना तो उठी ना दोनों की अला-बला ली। वैसी ही रूठी-रूठी सी, एक कोने में दुबक कर बैठी रही। फिर पड़ोसन कुसुम ने बच्चे की अला-बला लेकर नज़र उतारी और जच्चा-बच्चा दोनों अंदर आए। 

शाम को अड़ोस-पड़ोस की औरतें बच्ची को देखने आईं।

कुसुम ने कहा, ‘मौसी, देख तो कितनी सुंदर बिटिया है!’

‘होगी! मुझे क्या मतलब? बेटा होना चाहिये था! हमारे खानदान की यही परंपरा है। यह अभागी बीच में कैसे टपकी?’

‘ऐसा क्यूँ कहती हो? पहली बेटी, धन का पिटारा’

‘हां, लक्ष्मी आई है पोती के रूप में।’

‘कितनी सुंदर है न बच्ची!

‘प्यारी… प्यारी…’

‘उजली… उजली….’

नाक-नक्शा अंसाक्का जैसा ही लग रहा है।’

‘हां री, बिल्कुल दादी पर गई है पोती।’

औरतें गपशप लड़ा रही थीं।

‘हां! दूसरी अंसाक्का’

अब अंसाक्का के मन में कौतूहल जाग उठा। वह बहू की ओर देखने लगी।

‘अरी इतनी दूर से क्यों देख रही हो? यहाँ नजदीक आओ। अनुसूया अंसाक्का की हम उम्र पड़ोसन। वह उसका हाथ पकड़ कर बच्ची के पास ले गई। नाक, नयन, फूले हुए गाल, सब कुछ अंसाक्का जैसा, मानो दूसरी अंसाक्का। अंसाक्का को लगा जब मैं पैदा हुई, तो ऐसी ही दिखती होऊँगी। उसने बच्ची को उठाकर गोद में लिया और उसे चूमती रही…चूमती रही… चूमती ही रही।

☆  ☆  ☆  ☆  ☆ 

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ईमेल@अनजान ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆ 

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ कथा – कहानी ☆ ईमेल@अनजान ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

प्रिय,

कल एक फिल्म देखने गयी थी। मराठी फिल्म। वॉक्स ऑफिस पर हिट, इस फिल्म को देखने के लिए हमारे घर का सारा महिला मंडल मुझे भी साथ ले गया। थियेटर महिलाओं की भीड से खचाखच भरा था। फिल्म महिलाओं पर आधारित है। अच्छी लगी। नहीं नहीं, चिंता न करो मैं तुम्हें कोई फिल्म की कहानी बतानेवाली नहीं हूँ। बस कुछ एक प्रसंगों और संवादो ने मेरा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट किया था। क्योंकि पहले ही मैं रिलेशनशिप को लेकर बात करती आयी हूँ तो उसी को थोडा आगे लेकर अपनी बात रखना चाहती हूँ। उस फिल्म में प्रसंग ऐसा है कि एक बहन दूसरी बहन का हाथ पकडे चल रही है, पहलेवाली बाथरूम जाने के लिए आगे बढ़ती है और पीछेवाली उसका हाथ छोडती नहीं बल्कि और अधिक ज़ोर से पकडती है, पहलेवाली बार बार उसे हाथ छोडने के लिए कहती है पीछेवाली हर बार उसका हाथ और अधिक मज़बूती से पकडकर अपनी ओर खींचती है और कहती है हाँ हाँ जाओ। तब पहलेवाली रोष में आकर इरिटेड होकर कहती है, ‘ छोडोगी तो मैं जाऊंगी न’ तब पहली वाली बहन उसे कहती है कि, ‘ तुमने ही तो पकड के रखा है। उसे छोड दो… जीने दो उसे… और खुद जीओ… तुम्हारे भीतर की स्वतंत्र स्त्री को बाहर आने दो…. ।’ फिल्म की थीम के अनुसार और भी कुछ था। पर यह प्रसंग बार बार मेरे मन में कौंध रहा था… मैं बहुत कुछ सोचे जा रही थी,  लोग मुव ऑन कर जाते हैं… और पीछे वाला ख्वामखाह वहीं खड़ा रहता है… किस इंतजार में…।

सच कहूँ मेरे दिमाग में बहुत कुछ ज्वार भाटे की तरह उमड घुमड रहा है, मेरी स्मृति पटल पर कुछ तस्वीरें जींवत हो रही है, और मैं  चुप नहीं बैठ पा रही हूँ, जो कुछ जैसा कुछ मेरे मन में उठ रहा है, लिख रही हूँ, जानती हूँ तुम मुझे कभी जज नहीं करते, हमारी शर्त याद है न… जंजमेंटल नहीं होना है…।

सोच रही हूँ, एक लंबा समय एक साथ बिताने के बाद माना कि एक दूसरे को एक दूसरे की आदत हो जाती है। उनके प्लस माइनस पॉइंट्स के अब कोई  मायने नहीं होते हैं, उनकी भी तो आदत हो ही जाती होगी। एक दूसरे की आदत हो जाना अर्थात और दूसरे विकल्प का न होना ही है। मतलब उस रिश्ते को ढोने के लिये मजबूर होना या लब्बोलुआब ये कि अब इसी रिश्ते में जीवन भर बंधे रहना । ये आदत ही तो नहीं होना ही उसका गुलाम हो जाना है और जिस वक्त गुलामी हो गई तो रिश्ता कहाँ बचता है?  रिश्ता तो हवा में फैली खुशबू है जितनी अपनी साँस में भर सको भर लो। उस खूशबू को रोकने की कोशिश करने का क्या मतलब… और खशबू भला कभी रोकी जा सकती है? आदत लग जाने से दूसरे पर निर्भरता बढ़ जाती है और यहीं निर्भरता दूसरे का बंधन बन जाती है। जहाँ बंधन बढ़ता है वहीं दरारें पड़नी शुरू होती है और रिश्ता ढहने लगता है। रिश्ता ऐसा हो जो स्वतंत्र तो हो ही साथ ही उसमें केयर भी होनी चाहिए । सम्मान हर रिश्ते की रीढ होती है। जो रिश्ता हमें सम्मान का अनुभव कराता हैं वह हमें आत्मिक संतुष्टि और खुशी प्रदान करता है।

प्यार एक सुंदर अनुभूति है, एक बेहद खूबसूरत रिश्ता है किंतु ये भी सम्मान के बिना मर जाता है। प्रेम शब्द हमारे जीवन का अहम हिस्सा है, पल पल को जीने के लिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हम हर पल प्रेम की भूमिका को सही पहचान ले, क्योंकि हर रिश्ते में प्रेम का अवदान जरूरी है और बिना रिश्तों के जीवन भी अधूरा होता है। रिश्ते हमारे जीवन की धूरी है, इनका महत्व भी कम नहीं आंका जाना चाहिए। हालांकि आज के हालात, रिश्तों की अनचाही कहानियाँ बयान करते नजर आ रहे हैं। फिर भी, इस दुनिया के सारे कार्य-कलाप प्रेम और रिश्तों की आपसी समझ से ज्यादातर सम्पन्न किये जाते है।

रिश्ता उस नदी की धारा सा होता है जो प्यास बुझाने के साथ साथ अपने कल कल संगीत से हमें  तरोताजा करता है, सक्रिय बनाये रखता है। यह रिश्ता विश्वास, समझदारी, सहयोग, और सम्मान के मूल्यों पर आधारित होता है। जब हम इन मूल्यों के साथ रिश्ते बनाते हैं, तो हम आपस में गहराई और प्रेम का अनुभव करते हैं। कहते हैं सच्चा प्रेम कभी बढ़ता भी नहीं और घटता भी नहीं और ना ही सच्चे प्रेम में कोई शर्त या उम्मीद होती है।

लेकिन जिन के बीच दरारें आ गयी हों, एक दूसरे प्रति कोई सम्मान ही नही रहा हो तो उस रिलेशनशिप का क्या? क्या उस रिश्ते को ढोना आवश्यक है? अगर पहले का समय होता तो शायद यही कहा गया होता कि नहीं नहीं इतने साल बीता दिए, अब और कितना समय रहा है, चलो एडजस्ट करके जीवन जी ही लेते हैं। आखिर परिवार की, व्यक्ति की मान मर्याद और प्रतिष्ठा का सवाल है! संबंधों में आयीं दरारों से पीडित व्यक्ति अपना मन मारकर चेहरे पर उधार की मुस्कुराहट सहेजकर जीवन को जीने बाध्य होता है.. किंतु वह अंदर खुश नहीं रह सकता, रिश्ते का बोझ कहीं न कहीं वह ढोता रहता है जिसकी प्रतिक्रिया कई रूपों में होती है, कभी तो  वह हद से ज्यादा हँसता है, लाउड बोलता है, अधिक एकस्प्रेसिव होने की कोशिश करता है या फिर निरंतर शॉपिंग, आउटिंग, फैशन आदि में खुद को उलझाकर जीने का एक नया तरीका अपनाता है, शायद यह दिखाने के लिए  कि मैं खुश हूँ.. एक बोझ लिए भी खुश हूँ। मनुष्य तो जीने को बाध्य है,  और एक  सच्चाई है कि आज के समय में ऐसे कितने ही लोग हैं जो ओढी हुई जिंदगी जी रहे हैं। यह दिखावा आज मनुष्य की फितरत में यह सब शामिल हो गया है। एक दुहरी जिन्दगी जीना उसकी किस्मत बन गयी है। कितनी जिंदगियाँ दोहरी जिदंगी जीते हुये तबाह हो गई और कितनी रोज रोज तबाह हो रही हैं.. इस सच से तो सारी दुनिया वाबस्ता है। हमारा सामाजिक ताना बाना ऐसा रहा है कि उसी में सब सिसक रहे हैं। जीवन में प्रेम विवश हो, तब रिश्तों को लोक लिहाज के लिए निभाने की कोशिश करता है, तो विश्वास कीजिये, वो आत्मग्लानि के अलावा कुछ भी नहीं झेल पाता। और हम यही सोचने लगते हैं कि, शहरयार के शब्दों में कहे तो,

सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है

इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है।

यह बहुत ही सामान्य बात  है कि हम जो नहीं है वह दिखाने की कोशिश निरंतर करते रहते हैं। इसका एक कारण है कि हम अक्सर लोगों द्वारा जज किए जाने का डर पालते रहते हैं। शायद यही वजह भी  है कि हम अक्सर लोगों की आँखों में जो जच जाता है उसे ही करते हैं। इन दिनों यह प्रवृत्ति तो कुछ अधिक ही बढ़ रही है।

हम भले ही किसी रिलेशनशिप से बाहर क्यों न आ गए हो पर यह ज़रूर चाहते हैं कि उस व्यक्ति तक मेरे खुश होने की खबर अवश्य पहूँचनी चाहिए, ताकि उसे यह लगे कि उसके बिना मैं बुहुत खुश हूँ… अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है मुझे… जी लेता/लेती हूँ मैं तुम्हारे बिना। और खुश भी रहता/ रहती हूँ। पर क्या वाकई यह ऐसा है?… हम ऐसा क्यों चाहते हैं? …. न जाने कैसा असुरी  आनंद है इसमें! क्यों हम उसे भी अपने अहसासों से दूर नहीं रखते.. क्यों आज़ाद नहीं हो पाते या आजाद नहीं करते? रिश्ते में बंधन रिश्तों को सड़ा देते हैं…रिश्तें के दम पर अगर कोई बंधन डाल रहा है तो मान लिजिए कि व्यक्ति की आज़ादी खतम होती जा रही है। पहले पहले ये बंधन अलंकार लगते हैं.. पर एक समय बाद जंजीर…।

मेरे सामने फिर एक शब्द वह सवाल बनकर खड़ा हो गया है.. मोहब्बत! और इस शब्द के साथ मुझे अहमद फराज की दो पंक्तियाँ याद आयीं,

नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है

रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है।

सभी जानते हैं यह एक अहसास जिसमें मात्र समर्पण है, एक ऐसी अनुभूति जो शब्दों से परे होती है.. उम्मीद कुछ भी नहीं..बस चाहत है… कोई प्रतिबद्धता नहीं। इसमें एक दूसरे को स्पेस है… और स्पेस हमारे जीवन में बहुत महत्व रखता है… और हम वही नहीं देते…. और वहीं से शुरु होता है एक दबा दबा सा युद्ध अंदर… फिर कभी वह कई रूपों में आकार लेता है…। पर सच ये भी है कि किसी के न होने का अहसास सबको है पर मौजुदगी की कदर किसी को नहीं।

बोझ बने रिश्तों में जकड़ना वाकई स्वास्थकारक नहीं… छोडना भी ज़रुरी है…. कभी कभी जरूरी है हम अपनी कस्तुरी ढूँढ ले… वह कहीं और है भी नहीं….अपने ही भीतर है….और हम मारे मारे उसे बाहर ढूँढ रहे है… और वही सुगंध ही हमें वाकई में शांति देगी… कारण वही हमारी सही पहचान की चाबी है।

हम आज के जीवन पर गौर करे तो लगता है, सब कुछ होते हुए भी मौजूदा हालात हमें तन्हा कर रहे हैं। हम तन्हाई पसन्द हो रहे हैं। एक जगह पर दुष्यंत कुमार ने कहा है,

जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

चिंतन की बात यही है कि प्रेम एक सच्चाई है, जो रिश्तों को अपने आयाम तलाशने में मदद करती है। वरन् Joseph F Newton Men के विचार सही ही लगने लगते हैं कि  “People are lonely because they build walls instead of bridges।

आज इतना ही…

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©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

201, अदित अपार्टमें, एस जे सी ई रोड, वाग्देवि नगर, मैसूरु

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #144 – बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 144 ☆

 ☆  बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

एक बार की बात है, लिली नाम की एक छोटी लड़की थी जिसे साफ-सुथरा रहना पसंद नहीं था। वह अक्सर नहाना छोड़ देती थी और दिन में केवल एक बार अपने दाँत ब्रश करती थी। उसकी माँ उसे हमेशा बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथ धोने के लिए याद दिलाती थी, लेकिन लिली आमतौर पर भूल जाती थी।

एक दिन, लिली पार्क में खेल रही थी जब वह गिर गई और उसके घुटने में खरोंच आ गई। वह बैंडेड लेने के लिए घर गई, लेकिन उसकी माँ ने देखा कि उसके हाथ गंदे थे।

“लिली,” उसकी माँ ने कहा, “तुम्हें अपने घुटने पर बैंडेड लगाने से पहले अपने हाथ धोने होंगे। रोगाणु कट में प्रवेश कर सकते हैं और इसे बदतर बना सकते हैं।”

“लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती,” लिली ने रोते हुए कहा। “मेरे हाथ साफ़ हैं।”

“नहीं, वे नहीं हैं,” उसकी माँ ने कहा। “आप अपने नाखूनों के नीचे सारी गंदगी देख सकते हैं।”

लिली अनिच्छा से बाथरूम में गई और अपने हाथ धोए। जब वह वापस आई तो उसकी मां ने उसके घुटने पर पट्टी बांध दी।

“देखो,” उसकी माँ ने कहा। “वह इतना बुरा नहीं था, है ना?”

“नहीं,” लिली ने स्वीकार किया। “लेकिन मुझे अभी भी हाथ धोना पसंद नहीं है।”

“मुझे पता है,” उसकी माँ ने कहा। “लेकिन साफ़ रहना ज़रूरी है। रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं, और आप बीमार नहीं होना चाहते हैं, है ना?”

लिली ने सिर हिलाया. “नहीं,” उसने कहा। “मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता।”

“तो फिर तुम्हें अपने हाथ धोने होंगे,” उसकी माँ ने कहा। “हर बार जब आप बाथरूम का उपयोग करते हैं, खाने से पहले और बाहर खेलने के बाद।”

लिली ने आह भरी। “ठीक है,” उसने कहा. “मेँ कोशिश करुंगा।”

और उसने किया. उस दिन से, लिली ने अपने हाथ अधिक बार धोने का प्रयास किया। यहां तक ​​कि वह दिन में दो बार अपने दांतों को ब्रश करना भी शुरू कर दिया। और क्या? वह बार-बार बीमार नहीं पड़ती थी।

एक दिन लिली अपनी सहेली के घर पर खेल रही थी तभी उसने अपनी सहेली के छोटे भाई को गंदे हाथों से कुकी खाते हुए देखा। लिली को याद आया कि कैसे उसकी माँ ने उससे कहा था कि रोगाणु तुम्हें बीमार कर सकते हैं, और वह जानती थी कि उसे कुछ करना होगा।

“अरे,” उसने अपनी सहेली के भाई से कहा। “आपको उस कुकी को खाने से पहले अपने हाथ धोने चाहिए।”

छोटे लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। “क्यों?” उसने पूछा।

“क्योंकि तुम्हारे हाथों पर कीटाणु हैं,” लिली ने कहा। “और रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं।”

छोटे लड़के की आँखें चौड़ी हो गईं। “वास्तव में?” उसने पूछा।

“हाँ,” लिली ने कहा। “तो जाओ अपने हाथ धो लो।”

छोटा लड़का बाथरूम में भाग गया और अपने हाथ धोये। जब वह वापस आया, तो उसने बिना किसी समस्या के अपनी कुकी खा ली।

लिली को ख़ुशी थी कि वह अपने दोस्त के भाई की मदद करने में सक्षम थी। वह जानती थी कि स्वच्छ रहना महत्वपूर्ण है, और वह खुश थी कि वह दूसरों को भी स्वच्छता के महत्व के बारे में सिखा सकती है।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ककनूस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – ककनूस ??

‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।

फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।

मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।

अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।

लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।

फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।

ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’

अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 163 – श्रावण पर्व विशेष – परिक्रमा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा परिक्रमा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 163 ☆

☆ श्रावण पर्व विशेष ☆ लघुकथा – 🌀🥛 परिक्रमा 🥛🌀

विमल चंद यथा नाम तथा गुण शांत सहज और सभी से मेलजोल बढ़ा कर रहने वाले। उनकी धर्मपत्नी सरिता भी बिल्कुल उनकी तरह ही उन्हें मिली थी। इसे संयोग कहें या ईश्वर की कृपा धन-धान्य से परिपूर्ण और गाँव के एक सरकारी विभाग में बाबू का काम।

दफ्तर का सरकारी काम भी वह बड़े प्रेम और विश्वास तथा निष्ठा के साथ करते थे। समय निकलते देर नहीं लगा। कब क्या हो जाता है पता नहीं चलता। पत्नी सरिता को एक जानलेवा बीमारी ने घेर लिया और सेवानिवृत्ति के पहले ही देहांत हो गया।

दुर्भाग्य से उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने पूरे जीवन में उनका एक नियम बना हुआ था।

तालाब के पास शिव जी के मंदिर में जाते थे दूध से भरा लोटा परिक्रमा करते और जो परिक्रमा के बाद दूध बचता उसे वहाँ जो गरीब अनाथ बालक  बैठा रहता उसके गिलास में डाल देते थे।

उसके लिये अक्सर खाने का सामान भी लाकर दिया करते थे। वह मंदिर की साफ सफाई करता और जो कुछ मिल जाता था। खा पीकर मंदिर में ही सो जाता था।

कई वर्षों से विमल चंद जी आते लोटा भर दूध लेकर परिक्रमा के बाद बचे हुए दूध को बच्चे की गिलास पर डाल देते थे। बच्चे की आँखों में अजीब सी खुशी और चमक दिखाई देती थी। धीरे-धीरे वह कम दिखने लगा और मंदिर में कभी-कभी ही दिखता। परन्तु गिलास लेकर दूध ले लेता था।

कुछ दिनों बाद दिखाई देना बिल्कुल बंद हो गया। पूछने पर पता चला अनाथालय वालों ने उसे पढ़ने लिखने के लिए अपने यहाँ भर्ती कर लिए।

बड़ी शांति हुई विमल चंद जी को। उनका अपना भाई का बेटा याने कि भतीजा था। जो बड़ा ही कठोर था।

संपत्ति के मिलते तक वह चाचा विमल चंद की सेवा करता रहा। शादी के बाद उन्हें वृध्दाआश्रम भेज दिया था। बैठे बैठे विमल चंद सोच रहे थे। 

तभी किसी ने आवाज लगाई… “विमल दादा अंदर आ जाईये बारिश होने वाली है।” विमल चंद जी को अचानक जैसे होश आ गया अरे मैं अपने घर में नहीं वृद्धा आश्रम में हूँ । जहाँ मेरा कोई भी नहीं है मुझे तो भतीजे ने घर से निकाल दिया था। 

सारी घटना को याद करके उनकी नींद लग गई। पलंग पर एक दूध का पैकेट रख फिर आज कोई चला गया।

बाकी किसी के पास दूध का पैकेट ना देख विमल चंद सोचते मुझे ही क्यों दिया जाता है। एक दिन हिम्मत कर सुपरवाइजर सर के पास पहुंचकर बोले… “जब तक आप मुझे नाम और उनसे नहीं  मिलवाएँगे  मैं दूध का पैकेट नहीं लूंगा और ना ही पीऊँगा”।    

सुपरवाइजर ने कहा… “ठीक है मैं उन्हें कल मिलवाने की कोशिश करता हूँ।” सोते जागते रात कटी और सुबह होते ही फिर पहुँच गए आफिस।

पास बैठे देख लड़के को आश्चर्य से देखने लगे। कुछ याद हो चला अरे यह तो वही लड़का हैं जिसे मैं शंकर जी परिक्रमा के बाद बचे हुए दूध को गिलास में देता था।

वह लड़का पैरों पर गिर पड़ा। उसने बताया… “आपके भतीजे के सख्त निर्देश की वजह से मुझे कोई कुछ नहीं बता रहा था बहुत पता लगाने पर आज मुझे यहाँ मिले, अब सारी कार्यवाही पूरी हो चुकी है। आप मेरे साथ मेरे घर चलिए।”

वृद्ध आश्रम से निकलकर बड़ी सी गाड़ी में बैठते ही मन में सोचने लगे विमल चंद जी… भोले भंडारी के मंदिर में दूध की परिक्रमा भगवान शिव शंभू ने आज बेटे सहित वापस कर दिये। आँखों से आंसू बहने लगे। कभी अपने बेटे और कभी बड़ी सी गाड़ी की खिड़की से बाहर  चलते सभी को हाथ हिला हिला कर देख रहे थे।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “ओले”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “ओले” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

गेहूं की जो सोने रंगी बालियां महिंद्र की आंखों में खुशी छलका देती थीं , वही ओलों की मार से उसकी आंखों में आंसुओं की धार बन कर फूट पड़ीं । और जो बचीं वे काली पड गयीं जैसे उसकी मेहनत राख में बदल गयी हो । जैसे महिंद्र की मेहनत को मुंह चिढा रही हों ।

आकाश से गिरे ओलों पर महिंद्र का क्या बस चलता ? नहीं चला कोई बस । तम्बू थोडे ही तान सकता था खेतों पर ? अनाज मंडी में कुदरती विपत्त जैसे इंसानी विपत्त में बदल गयी । गेहूं की ढेरी से ज्यादा उसके सपनों की ढेरी अधिक थी , जिसमें कच्चे कोठे की मरम्मत से लेकर गुड्डी की शादी तक का सपना समाया हुआ था । सरकार के दलाल मुंह फेर कर चलने लगे जैसे महिंद्र के सपनों को लात मार कर चले गये हों और महिंद्र किसी बच्चे की तरह बालू के घरौंदे से ढह गये सपनों के कारण बिलखता रह गया हो ,,,,

शाम के झुटपुटे में वही सरकारी दलाल ठेके के आसपास दिखाई दिए , महाभोज में शामिल होने जैसा उत्साह लिए । और महिंद्र समझ गया कि वे उसके शव के टुकड़े टुकड़े नोचने आए हैं । जब तक उन्हें भेंट नहीं चढाएगा तब तक उसका गेहूं नहीं बिकेगा । उसके सपने नहीं जगमाएंगे । अंधेरी रात में ही जुगनू से टिमटिमाते, ,,,सूरज की रोशनी में बुझ जाएंगे ।

बोतलों के खुलते हुए डाट देखकर उसके मुंह से गालियों की बौछार निकल पड़ी – हरामजादो, ओलों की मार से तुम सरकारी दलालों की मार हम किसानों के लिए ज्यादा नुकसानदेह है । और दलाल बेशर्मी से हंस दिए -स्साला शराबी कहीं का ,,,,,

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ नींद ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – नींद-)

☆ लघुकथा ☆ नींद ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

सुमित अपनी पत्नी नीतिका और ढाई साल के बेटे राहुल के साथ महीने भर के लिए घूमने विदेश आया था। अभी पाँचवाँ दिन था। नीतिका की इस बीच व्हाट्स एप पर अपनी सास से बात होती रही थी। आज उसके फोन पर सास का मैसेज आया। पूछा था – राहुल को ठीक से नींद आ जाती है न? नीतिका से कोई उत्तर देते नहीं बना, बरबस उसकी आँखें भीग गयीं। दो मिनट बाद फिर मैसेज आया – मैं समझ गई बेटा, देखो, उसको सुलाने का एक तरीक़ा है, उसे अपनी बाईं बाजू पर लिटा कर दाएँ हाथ से उसकी पीठ के ठीक बीच रीढ़ की हड्डी को गुदगुदाया करो। वह तुरन्त सो जायेगा।

नीतिका ने जवाब में लिखा – जी माँ जी। अब वह फिर रो रही थी। वह कैसे लिखती कि उसे सुलाने के लिए मैं ठीक ऐसे ही करती हूँ, पर रीढ़ पर गुदगुदाते ही वह इधर-उधर दादी को देखता है और सुबकने लगता है।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ सोविनियर ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ कथा कहानी ☆ सोविनियर ☆ डॉ. हंसा दीप 

एना गिलबर्ट फ्रेंच पढ़ाती है।

सख्त और अनुशासित। उसके छात्र उसकी आँखों से डरते हैं। उन आँखों की ताकत किसी तीर जैसी तीखी और नुकीली है। एक नजर से ही घायल कर दे। यूँ तो वह कम बोलती है मगर अपनी आँखों से बहुत कुछ कह जाती है। जब आँखों की भाषा काम नहीं करती, तब उसकी जबान बोलती है। कड़कते तेल में तली हरी तीखी मिर्ची की तरह।

कल ही की बात है। उसका लेक्चर जारी था। एक छात्र अपने साथी से कुछ खुसुर-पुसुर करने लगा। एना ने उसे चुप रहने के लिए नहीं कहा, तुरंत उसका नाम बोर्ड पर लिख दिया। यह कहते हुए कि इस छात्र की अगले एक सप्ताह तक अनुपस्थिति दर्ज की जाएगी।

“मुझे माफ कर दीजिए मिस एना।”

“नहीं, बिल्कुल नहीं। गलती की सजा तो मिलनी ही चाहिए।”

और उसकी माफी पर ध्यान दिए बगैर एना ने पढ़ाना शुरू कर दिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। छात्र कक्षा में जरा-सी देर से आए या फिर गृह-कार्य समय पर न दे पाए तो वह बहुत ज़्यादा गुस्सा हो जाती। छात्रों के चेहरों से लगता कि वे आहत हुए हैं। उनकी आक्रोश भरी चुप्पी चिंगारी की तरह सुलगते हुए भी जैसे राख में कहीं दब जाती थी। कभी आग न पकड़ पाती। छात्र खौफ में जीने के बावजूद आवाज न उठाते। इसकी ठोस वजह थी उनकी परीक्षाएँ। अंकों का पिटारा तो मिस एना के पास था। किसी भी खिलाफत का अंजाम खराब रिज़ल्ट हो सकता था। इसलिए सब चुप रहते थे।

आज भी ऐसा ही हुआ कि उस छात्र के माफी माँगने के बावजूद एना के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। पूरी कक्षा हैरान थी। कई छात्रों ने सिर झुका लिए थे ताकि उनके मन के भावों को मिस एना पढ़ न सके। कक्षा में ऐसा सन्नाटा था कि सुई भी गिरती तो आवाज आती। वैसे भी अपनी पढ़ाई और आगे के भविष्य पर केन्द्रित छात्रों के पास ऐसी बातों के लिए समय नहीं था। बाहर निकलकर थोड़ी सुगबुगाहट होती पर जल्द ही माहौल सामान्य होने लग जाता।

आज भी वही हुआ। कक्षा खत्म होने बाद बाहर निकलते ही आवाजें तेज हो गयीं।

“ये अजीब नहीं है!”

“हाँ, ये भी एक नमूना ही है।”

“इतने गुस्से में क्यों रहती है हमेशा?”

“शायद अपने घर में परेशान होगी।”

“अरे तो क्या घर की परेशानियों का बदला हमसे लेगी?”

“बहुत अच्छी तरह पढ़ाती है। यही खास बात है। बहुत जल्दी समझ में आता है।”

“सचमुच, अगर व्यवहार ठीक हो जाए तो हमारी यूनिवर्सिटी की बेस्ट टीचर है।”

छात्रों का यह मूल्यांकन एना के लिए सकारात्मक साबित होता। अंत भला तो सब भला। मिस एना की पढ़ाने की शैली नयी भाषा को अच्छे से समझाती। कक्षा में फ्रेंच के अलावा कोई भाषा स्वीकार्य नहीं थी। मिस एना के कड़े अनुशासन में भाषा की जटिलताओं को ग्रहण करते छात्र, गलत-सही की परवाह किए बगैर कक्षा में फ्रेंच ही बोलते। इस वजह से उनके सीखने की प्रक्रिया तेज हो जाती और इसका परिणाम उनके अच्छे रिजल्ट के रूप में साफ दिखाई देता। तब वे कक्षा की इन छोटी-मोटी बातों को भूल जाते और एना को एक अच्छी मगर सख्त शिक्षक के रूप में ही देखते।

यही स्थिति एना के विभाग में भी थी। उसका व्यक्तित्व उसे औरों से अलग कर देता। हालाँकि अपने सहकर्मियों से न उसकी मित्रता थी, न शत्रुता। वह किसी से ज्यादा बात न करती बल्कि उसका पूरा ध्यान सिर्फ अपने काम पर ही रहता। काम पूरा कर वह समय से घर निकल जाती। मीटिंग में कई बार ऐसा होता कि उसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति को नजर अंदाज न किया जाता। उसके व्यक्तित्व पर कनखियों से बातें की जातीं। ऐसा भी नहीं था कि इन निगाहों से एना अनभिज्ञ थी लेकिन उसे अपने इसी रवैये से तुष्टि मिलती। अपने सम्पर्क में आए हर व्यक्ति को वह कई कोणों से देखती फिर चाहे उसके छात्र हों, उसके सहकर्मी या कोई और।

विश्व के अनेक देशों के छात्र उसकी कक्षा में हैं। कई रंग, कई भाषाएँ और कई चेहरे। एशियन और साउथ एशियन छात्रों की भरमार है। उसकी कक्षा में चीन, जापान, इंडोनेशिया, कोरिया, मलेशिया, थाईलैंड, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और भारत जैसे विभिन्न देशों से आए छात्र हैं। शायद इसीलिए उसकी परेशानियाँ भी वैश्विक पटल की तरह व्यापक हैं। कई बार ऐसा लगता है कि अपने-अपने देशों का प्रतिनिधित्त्व करते ये सारे छात्र सोविनियर हैं। जब वह किसी छात्र से बातचीत करती है तो दरअसल वह उस छात्र से ही नहीं बल्कि उसके मुल्क से भी बात कर रही होती है। यही वजह है कि हर देश की समस्याएँ एक साथ मिलकर उस पर हमला करती हैं। उसके कंधे हमेशा यूँ झुके रहते हैं जैसे दुनिया के हर देश के बोझ से लदे हुए हों। वह आज तक टोरंटो के बाहर नहीं गयी। टोरंटो के बाहर की पूरी दुनिया स्वयं उसकी कक्षा में आती रही है। 

इन छात्रों के निबंधों में, गृह-कार्य में, इनके देशों और घरों की ऐसी जानकारियाँ मिलती रही हैं, जो शायद किसी किताब में नहीं मिल सकतीं। इसीलिए बड़े-बड़े देशों की बारीक से बारीक नस को एना पहचान लेती है। कलेजे को ठंडक मिलती कि वह अकेली नहीं है जिसका बचपन कटुता में बीता है। छात्रों के लिखे गए वाक्यों में उनकी अपनी पीड़ा व्यक्त होती और वही एना के लिए राहत का सबब हो जाता।

उसके बचपन का भी एक शापित इतिहास है। वह एक ऐसे घर में पली-बढ़ी थी जो घर नहीं, यातना घर था। आम तौर पर माँ के नाम से लोगों के चेहरों पर मुस्कान चली आती है पर उसके चेहरे पर आती थी घृणा और नफरत। पिता के बारे में कभी तय नहीं कर पायी कि वे अच्छे थे या खराब। बहुत पहले घर छोड़ कर चले गए थे वे। समाजसेवी संस्थाओं ने नशे में डूबी माँ से बच्ची को लेकर उसे अनाथालय भेज दिया था। उसने जैसे तैसे हाई स्कूल पास करके काम करना शुरू कर दिया था। काम करते हुए ही फ्रेंच में ग्रेजुएट हुई। दिन में काम और शाम को पढ़ाई। सुना था कष्टों से आदमी निखरता है, उसने भी अपना भविष्य निखारा। बस अपने व्यक्तित्व को नहीं निखार पायी। जीवन की कटुताओं को झेलते-झेलते वह क्रूर होती चली गयी।

अब फ्रेंच भाषा है और वह है। वही उसकी जिंदगी है। वह अपनी मेहनत से जिंदगी के अभावों को दूर करती और संकीर्णताओं में बँधती चली गयी। काम बहुत अच्छे से करती लेकिन उसकी जबान कड़वी हो चली थी। वह कड़वाहट उसकी मेहनत पर पानी फेर देती। एक बगावत बस गयी थी उसके मन में। वह कभी यह न समझ पाई कि डाँट डपट का उसका यह तरीका गलत है। भीतर की नफरत का बीज उम्र के साथ बढ़ते हुए अब पेड़ बन चुका था। हर व्यक्ति उसे एक साजिश लगता। अपने चेहरे को जितना बिगाड़ कर रख सकती, रखती। एक कान में बड़ा इअरिंग तो दूसरे में कुछ नहीं। गले में अलग-अलग आकार-प्रकार की आठ-दस मालाएँ लंबी लटकती रहतीं। बाल ऐसे बनाती कि पढ़ाते समय छात्र उसके बालों पर अधिक ध्यान दें। कई बार उसकी आँखें उसके बालों में छुपी रह जातीं। आँखों की वह बरसती आग तब अंदर ही रह जाती, कहीं निकल न पाती। खुद उसी आग में झुलसती रहती।

ऐसे रंग-बिरंगे कपड़े पहनती जैसे किसी पोशाक में हर रंग का होना जरूरी हो। उससे दूर रह गया जीवन का हर रंग उसके परिधान में शामिल होता गया। पर रंगों की यह बहार बाहर तक ही रहती, अंदर न घुस पाती। वहाँ तो ऐसी कालिमा थी, जो हर रंग को अपने में सोख लेती। शायद वह यही चाहती भी थी कि उसकी बेतरतीबी को लोग उसकी खासियत समझें।

वह अपने मन की मर्जी से चलती। बोलती तो एक-एक शब्द चबाकर। ऐसा लगता कि सुनने वाले ने उसकी बात न समझी तो वह इसी तरह उसे चबा जाएगी। उसका मानना था कि सामने वाले की दो नहीं, हजारों आँखें हैं। हर एक आँख उसे अलग आँख से देख रही है। वह इन आँखों को पढ़ने के बजाय कुचल देना चाहती। पल-पल में उसकी नजर बदल जाती।

उसका यह भी मानना था कि लोग नकली होते हैं। जैसे हैं, वैसे दिखते नहीं। वह भी वैसी नहीं है, जैसी दिखती है। हर किसी को चीख-चीख कर कहना चाहती- “देखो मैं एक अजूबा हूँ।”

जब वह बहुत छोटी थी तो नशे में इधर-उधर लुढ़कती रहती माँ। भूखी बच्ची को खाना न मिल पाता। भूख से रोती तो थप्पड़ों से उसके गाल लाल कर दिए जाते। कई बार माँ उसे छोड़कर कहीं चली जाया करती थी। उन पलों का वह सारा डर अब उसके गुस्से में उतर आया था। उसके समूचे व्यक्तित्व को अतीत की काली छाया ने डँस लिया था। कक्षा में आक्रोशित होती तो उसे ये ध्यान न रहता कि वह क्या कह रही है। लेकिन एक बात का ध्यान उसे अवश्य रहता कि वह स्वयं को कोई दु:ख नहीं देना चाहती। मनमानी करके उसे एक अजीब-सी राहत मिलती। लगता कि दुनिया उसके कदमों में है और वह हर किसी पर राज कर रही है।

अनाथालय को घर तो मान लिया था पर उसे घर की तरह अनुभव करना कहाँ सम्भव था। किसी आदमी को देखते ही उसके अंदर की असलियत पहचानने की उसकी सनक तभी से है। वह पूरी तरह पारदर्शी है, अपनी जिंदगी से नाटक नहीं करती।

वे सारे दु:ख जो उसे अब तक कचोटते रहे, वह उन्हें खुशियों में बदल देना चाहती है। सच का सामना तब भी किया था, अब भी करती है। बस उसका नजरिया अब बदल गया है। शिक्षक बहुत अच्छी है पर उतनी अच्छी इंसान नहीं। कक्षा दर कक्षा उसकी शुरुआत अच्छी होती; अंत तक सारे छात्र उसकी कटुता को पीने की आदत डाल लेते।

एक दिन कुछ ऐसी घटना घटी जब एना, एना न रही। अभी कक्षा शुरू भी नहीं हुई थी कि सामने से आते एक छात्र डेविस के मस्ती भरे ‘हलो’ ने उसे नाराज कर दिया- “मैं आपकी दोस्त नहीं हूँ। ठीक से हलो कहा कीजिए।”

“जी?”

“क्या आपको याद दिलाना होगा कि यह अंग्रेजी नहीं फ्रेंच की कक्षा है! बोनशूर कहिए।”

डेविस को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने प्रश्नवाचक निगाह से उसे देखा। यह कोई इतनी बड़ी गलती तो नहीं थी कि गुस्से की वजह बन जाए। उस सवालिया नज़र को सहन करना एना के स्वभाव के खिलाफ था। वह डाँटने लगी- “फ्रेंच की कक्षा में हलो भी अंग्रेजी में कहा जाए तो भाषा सीखने का मतलब ही क्या रहा।”

“लेकिन…”

“तुम्हें इतना शऊर नहीं कि टीचर से बोनशूर कैसे कहा जाए।”

“मैंने सॉरी कहा मिस…!”

“बाहर जाओ अभी इसी वक्त।”

डेविस ने सकपकाते हुए एक भरपूर नजर से देखा और कहा- “इतना गुस्सा करने की कोई जरूरत नहीं मिस एना।”

“आउट”

“जी, जा रहा हूँ। ऐसे डर के साए में मैं भी भाषा नहीं सीख पाऊँगा।”

एना उसके तेवर देखकर स्तब्ध थी। डेविस शायद जान गया था कि इसका परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। जाते हुए एक बार पलट कर उसने देखा और कहा- “आप चाहें तो अपनी कक्षा सूची से मेरा नाम काट दें।”

और वह चला गया। पूरी कक्षा यूँ सन्न थी, जैसे साँप सूँघ गया हो। एना आपा खो बैठी- “आप सभी बाहर जाइए। आज कोई कक्षा नहीं होगी।”

सारे छात्र जितनी तेजी से निकल सकते थे, निकल गए। बाहर से लगातार एक आवाज आ रही थी- “यह टीचर हमारी यूनिवर्सिटी का सोविनियर है।”

एना थर-थर काँप रही थी। गुस्से का आवेग ऐसा था कि खाली कक्षा में अपना सिर बोर्ड से टकराने का मन कर रहा था। सोविनियर शब्द कक्षा की हर चीज से टकराता हुआ उस पर हमला कर रहा था। उसी की लाठी से, उसी पर वार किया गया था और हैरानी इस बात की थी कि वार सही जगह लगा था। कक्षा का पूरा समय उसने वहीं चक्कर लगा-लगा कर काटा। छात्र डेविस का साहसी चेहरा सामने से हट नहीं रहा था। खाली क्लास जैसे चीख रही थी। हर तरफ़ से छात्रों की अलग-अलग आवाजें मुँह चिढ़ा रही थीं। कक्षा से सीधे घर के लिए निकल गयी वह। न भूख का एहसास रहा, न प्यास का। उस रात वह सो नहीं पायी। उस असामान्य घटना ने जैसे झिंझोड़ कर रख दिया था उसे। कक्षा के सारे छात्र मानो अलग-अलग देशों के लहराते झंडों के साथ बारी-बारी से उसकी आँखों के सामने आ-आकर चिल्ला रहे थे- सोविनियर! सोविनियर! एना के हाथ में भी कैनेडा का झंडा था। सब मार्च-पास्ट करते हुए उसकी कक्षा की तरफ़ बढ़े चले आ रहे थे। इन झंडों पर उन सबके चेहरे थे। मेपल लीफ के ऊपर एना का बड़ा-सा चेहरा था।

आखिरकार उस लंबी रात की सुबह हुई। 

आज उसने अपने बाल तरतीब से कंघी किए। काला ब्लैज़र डाला। जूते भी रोज की अपेक्षा अच्छे पहने। अपना रोज वाला थैला नहीं, एक अच्छा सा बैग लिया और कक्षा की तरफ चल दी। कक्षा में प्रवेश किया तो देखा कि सारे छात्र आश्चर्य से उसे ही देख रहे थे। उसकी आँखों की भाषा कोमल और मीठी थी। वह मुस्कुरायी। ऐसी मुस्कान जो सबके लिए नयी थी। सामने वह छात्र डेविस था जो आज अपनी सजा की प्रतीक्षा कर रहा था। एना की नज़रें उससे ऐसे मिलीं जैसे धन्यवाद कह रही हों। आज एना को कक्षा के सारे चेहरे और सारे देश अच्छे लग रहे थे। पढ़ाते हुए वह खुलकर हँस रही थी। अब पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं थी। आज की कक्षा में पढ़ाने का जो सुकून उसे मिला था उसे उसने हर छात्र की आँखों में महसूस किया था।

कक्षा खत्म करके जाते-जाते एक पल के लिए वह रुकी और कहा- “डेविस, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।” उसके हाथों ने जैसे ही ताली बजायी, पूरी कक्षा ताली की गड़गड़ाहट से गूँज उठी।

डेविस नाम के उस छात्र ने एना के जीवन में एक खुशनुमा इतिहास रच दिया था, जिसमें सिर्फ आज था। 

कक्षा के बाद अपने ऑफिस में घुसते ही उसने देखा, मेज पर रखा उसका बनाया हुआ कैनेडा का सोविनियर मुस्कुरा रहा था। न जाने वह मुस्कान एना के चेहरे से होते हुए उसके भीतर जाकर समा उठी थी। एना ने प्यार से उसे उठा लिया और देखती रही एकटक! मानो एक बुत शिल्पकार में जीवंतता भरने की सफल कोशिश कर रहा हो।

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© डॉ. हंसा दीप

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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