हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 122 ☆ लघुकथा – सिहरन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सिहरन’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 122 ☆

☆ लघुकथा – सिहरन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘आशा! तेरा कस्टमर आया है।‘

‘बिटिया ! तू यहीं बैठ, मैं अभी आई काम करके।‘

‘जल्दी आना। ‘

थोड़ी देर बाद फिर आवाज –‘आशा! नीचे आ जल्दी।‘

‘बिटिया! तू थोड़ी देर खेल ले, मैं बस अभी आई।‘

‘हूँ —।‘

‘बिटिया! तू खाना खा ले, तब तक मैं नीचे जाकर आती हूँ।‘

‘अच्छा ‘– उसने सिर हिला दिया।

दिन भर में आशा को संबोधित करती ऐसी ही आवाज ना जाने कितनी बार आती और आशा सात – आठ साल की बिटिया को बहलाकर नीचे चली जाती।

ऐसा ही एक पल –‘बिटिया! ध्यान से पढ़ाई करती रहना, मैं बस अभी आई काम करके।‘

 “अम्माँ ! अकेले कितना काम करोगी? थक जाओगी तुम, रुको ना, मैं भी चलती हूँ तेरे साथ। तुम कहती हो ना, कि मैं बड़ी हो गई हूँ? “

आशा लड़खड़ाकर सीढ़ी पर बैठ गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – बेटा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – बेटा  ??

(वर्षों पूर्व लिखी एक लघुकथा)

“…डाकबाबू कोई पाती आई के?’

दूर शहर बसे बेटे को अपनी बीमारी के अनेक संदेश भेज चुका कल्याण आशंकित संभावना से पूछता। डाकबाबू पुराने परिचित थे। कल्याण के दुख को समझते थे। चिट्ठियों पर ठप्पा मारते-मारते सिर उठाकर कहते-

“काकाजी बोळी चिंता करो…शहर खूब दूर है, सो उत्तर आबा मे भी टेम लागसि..।’

फिर दोनो फीकी हँसी हँस देते।

ये सिलसिला पिछले तीन-चार साल से चल रहा था। डाकबाबू जानते थे कि चिट्ठी शायद ही आए। बरसों से डाक महकमे की नौकरी में थे, अच्छी तरह से मालूम था कि हर गाँव, ढाणी में एकाध कल्याण तो रहता ही है। वैसे जानता तो कल्याण भी था कि उसकी भेजी चिट्ठियों ने पदयात्रा भी की होगी तो भी अब तक सब की सब पहुँच चुकी होंगी, पर मन था कि मानता ही नहीं था।

बेटे को देखने की चाह कल्याण के भीतर हर दिन प्रबल होती जा रही थी,

“आँख मूँदबा से पेलि एक बार ओमी ने देख लेतो तो..’..”ठाकुरजी, एक बार तो भेज द्‌यो ओमी ने’, ..रात सोने से पहले वह रोज ठाकुरजी से प्रार्थना करता।

संतान से मिलने की इच्छा में बिना नींद के कई रातें निकालने के बाद एक रोज सुबह-सुबह कल्याण डाकबाबू के पास पहुँच गया।

“काकाजी चिट्ठी आसि तो म्है खुद ही…”,

“ना-ना वा बात कोनी।”

“फेर?”

“एक बिनती है।”

“बिनती नहीं, थे तो हुकम करो काकाजी।”

“ओमी ने एक तार भेजणूँ है।”

“तार? के बात है, सब-कुशल मंगल है न?”

आशंका के भाव से पूछते-पूछते डाकबाबू यह भी सोच रहे थे कि कल्याण अकेला रहता था। परिवार में दूर बसे बेटे के अलावा कोई नहीं, फिर अमंगल समाचार होगा भी तो किसका?

तार का कागज़ हाथ में लेकर कल्याण ने कातर भाव से डाकबाबू से कहा,

“बाबूजी लिख द्‌यो ना!”

“काकाजी थे तो..?”

डाकबाबू जानते थे कि कल्याण पुराने समय के तीसरे दरजे की पढाई किए हुए है, टूटी-फूटी भाषा में ओमी को चिट्ठी भी खुद ही लिखता था। हाँ अंग्रेजी में केवल पता डाकबाबू से लिखवाता था। कारण जानना चाहते थे पर कल्याण की आँखों के भाव देखकर पूछने की हिम्मत नहीं कर सके।

..”बोलो के लिखूँ?”

“लिखजो कि ओमी, थारो बाप मरिग्यो है, फूँकबा ने जल्दी आ…बरफ पे लिटा रख्यो है।”

“काकाजी..?”

“भेज द्‌यो बाबूजी, मेरी मोत पे तो ओमी शरतिया आ ही लेगो।”

डाकबाबू को समझ नहीं आया कि तार किसके नाम से भेजें। कुछ विचार कर आखिर उन्होंने अपने ही नाम से तार भेज दिया।

तार का असर हुआ। अगले ही दिन गाँव के डाकघर में शहर से चार सौ रुपए का तार-मनीऑर्डर आया। ओमी ने लिखा था,

..”बाप तो मर ही गया है, तो अब मैं भी आकर क्या कर लूँगा,… गाँवराम ही उसे फूँक दें। कुल मिलाकर दो-ढाई सौ का खर्च आएगा, चार सौ रुपए भेज रहा हूँ ..।’

तार पढ़कर कल्याण देर तक शून्य में घूरता रहा। वह डाकबाबू से एम.ओ. लिए बिना ही लौट गया।

जल्दी सुबह उठनेवाले कल्याण का दरवाज़ा अगले दिन सूरज चढ़ने तक खुला नहीं था। पड़ोसियों ने ठेला तो दरवाज़ा भड़ाम से खुल गया। अंदर झाँका, देह की सिटकनी खोलकर आत्मा परलोक सिधार चुकी थी। निश्चेष्ट देह के पास दो लिफाफे रखे थे। एक में ढाई सौ रुपए रखे थे, लिफाफे पर लिखा था-“मुझे फूँकने का खर्च’….दूसरे में डाकबाबू के नाम एक पत्र था, लिखा था-

“बाबूजी ओमी को तार मत करना…!’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 162 – गुरुपूर्णिमा विशेष – औलौकिक गुरु पूजा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा औलौकिक गुरु पूजा ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 162 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 गुरुपूर्णिमा विशेष 🪔औलौकिक गुरु पूजा🪔

शौर्य आज के युवा पीढ़ी का नौजवान  कार्य कुशलता में निपुण, संस्कारों का धनी, धार्मिक और सभी से मित्रता करना, उसका अपना व्यक्तित्व था।

एक बड़ी सी प्राइवेट कंपनी में अच्छे बड़े पद पर कार्यरत। उसके व्यक्तित्व की चर्चा ऑफिस तो क्या आसपास के लोग भी किया करते थे। सदा खुश रहने वाला शौर्य बहुत ही दयालु था।

किसी की मदद करना, किसी को जरूरत का सामान दे देना और जरूरत पड़ने पर उसके घर जाकर सहायता करके आ जाना। घर में पापा मम्मी भी कहते ” बहुत ही होनहार है हमारा बेटा।” पापा कहते “दादाजी पर जो गया है।”

शौर्य साधु संतों की सेवा सत्संग भी किया करता था। उसकी शादी की बात चलने लगी। घर में सभी उत्साहित थे। परंतु शौर्य चाहता था कि जब तक दादाजी की ओर से सभी परिवार एक नहीं हो जाते, वह शादी नहीं करेगा।

हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर वह अपने ऑफिस में एक शानदार कार्यक्रम रखता। सभी की भोजन व्यवस्था और पूजा में सिर्फ खाली टेबल पर कुछ फूल मालाओं से औलौकिक पूजा करता था।

ऑफिस के कर्मचारी कहते हैं “साहब आप इतने अच्छे से गुरु पूर्णिमा का पर्व प्रतिवर्ष मनाते हैं परंतु गुरु की फोटो या मूर्ति नहीं रखते या कोई आपके गुरु जी कभी नहीं आते।”

शौर्य मुस्करा कर कहता.. “जिस दिन मेरे गुरु जी आएंगे उसी दिन दीपावली की तरह रौशन होगा और आप सभी को पता चल जाएगा।”

शौर्य के साथ काम करने वाली उसकी एक महिला मित्र सीमा अक्सर देखा करती अपने पॉकेट पर्स से किसी वरिष्ठ सर्जन की फोटो को रोज देख कर प्रणाम करते है और अपने दिन की शुरुआत करते हैं। एक दिन किसी काम से शौर्य अपना पर्स भूल गए और ऑफिस के काम से दूसरे चेम्बर में चले गए।

बस फिर क्या था सीमा ने जो उसे मन ही मन पसंद करती थी उस फोटो को कॉपी करके, पता लगाना शुरू कर दिया। पता चला यह तो शौर्य के दादाजी है जो उसके पापा को किसी कारण आपसी बहस से उन्हें घर से निकाल दिए हैं।

अब पापा और दादाजी एक दूसरे का मुँह देखना पसंद नहीं करते। उसने अपना प्रयास जारी रखी। दादा जी के पास पहुंचकर शौर्य के सारे किस्से कहानी बता दी और यह भी बता चुकी आपको गुरु के रूप में मानता है।

“कल गुरु पूर्णिमा है आप दादा जी नहीं आप गुरु के रूप में एक बार शौर्य के ऑफिस पहुंचे।”

दादाजी का मन द्रवित हो उठा आज गुरु पूर्णिमा के दिन मन ही मन गर्व से भर उठे और ठीक समय पर ऑफिस पहुँचे। दीपावली की तरह सजा था आफिस। “इतनी शानदार सजावट मैने तो नहीं कहा था” गंभीर हो गया शौर्य । दादा जी आए सीमा ने दौड़कर स्वागत किया।

कुर्सी पर बिठा दिया और और शौर्य को बुलाने पहुंच गई। आपको पूजा के लिए बुलाया जा रहा है। शौर्य जल्दी-जल्दी जाने लगा, दूर से देखा पाँव तले जमीन खिसक गई और खुशी आश्चर्य से दोनों आँखों से अश्रुं की धारा बहने लगी। साष्टांग गुरु के चरणों में गिर चुका था शौर्य।

आफिस वाले इस मनोरम दृश्य को मोबाइल पर कैद कर रहे थे। पीछे से मम्मी पापा पुष्पों का हार लिए दादाजी के गले में पहनाने के लिए आगे बढ़ चुके थे। आज गुरु पूर्णिमा पर शौर्य को इससे बड़ा तोहफा शायद और कभी नहीं मिल सकता था। उठ कर शौर्य ने सीमा का हाथ थामा और दादा जी के सामने खड़ा था। दोनों हाथों से आशीर्वाद की छड़ी लग चुकी थी। शौर्य की औलौकिक पूजा साकार हो चली।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – लघुकथा ☆ “सेलीब्रेशन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा ☆ “सेलीब्रेशन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

प्रीतेश ,साढ़े तीन सौ का फेंग शुई वाला “लकी बाम्बू” लेकर आया। वह पक्का वामपंथी है पर —- मानव मन की थाह पाना इतना आसान भी नहीं।

घर आते ही उसने ज़िन्दगी का फलसफा समझाने वाला वीडिओ देखा। उसे देख सुनकर उसकी आँखें भर आईं। जिसमें एक हताश व्यक्ति को उसका मेन्टोर बाम्बू के प्रतीक से समझा रहा था। बांबू को पाँच वर्ष तक लगातार खाद पानी देना होता है। उम्मीद का कोई चेहरा नज़र नहीं आता फिर देखते ही देखते वह छः सप्ताह में नब्बे फीट बढ़ जाता है।

कामयाबी बड़ा ही करिश्माई जुमला है। लोग सतह के नीचे की कारीगरी याद नहीं रखते। सिर्फ छः सप्ताह याद रखते हैं। हमें पूरी ईमानदारी से काम करते रहना चाहिए।

प्रीतेश को सहसा ओशो कम्यून याद आ गया। उसने पत्नी मीता से कहा- पता है तुम्हें बांबू की जिन्दगी में सिर्फ एक बार फूल आते है, फूल आते ही वह मर जाता है ।

“नियति” —- मीता ने उदास होकर कहा।

—- “मुझे लगता है फूल यानी रंग, सौंदर्य और सार्थकता–“! उन लोगों की तरह जिन्हें मृत्यु के निकट पहुंचने पर सफलता मिलती है———–

यह प्रीतेश का स्वर था।

—– “हां इसे दूसरी तरह से कहना हो तो ये भी कह सकते हैं —– बहुत संभव है बाँस अपनी मौत को सेलीब्रेट करना चाहता हो।”

प्रीतेश मीता को एकटक देखता ही रह गया।।

****

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ बोझ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – बोझ-)

☆ लघुकथा ☆ बोझ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

चेरी ब्लॉसम स्कूल में कार्यरत हरदीप और उसकी पत्नी नवदीप अपनी सहकर्मी शिक्षक अनामिका की छः साल की बेटी को आज अपने साथ अपने खेत में लेकर आए थे। अनामिका दो साल से इस स्कूल में काम कर रही थी। उसकी बच्ची भी उसके साथ ही स्कूल में आती थी। अनामिका के पति चार साल से ऑस्ट्रेलिया में थे। बहुत ख़ूबसूरत और प्यारी सी वह बच्ची खूब मस्ती में ट्यूबवेल की धार के नीचे नहाते हुए उनके बच्चों के साथ अठखेलियाँ कर रही थी। वह कभी खेत की ओर दौड़ जाती, कभी नाचने लगती। नवदीप ने पति से कहा, “देख रहे हो, यह वही बच्ची है जो स्कूल में किसी से नहीं बोलती। कितनी मस्ती कर रही है।”

“पता नहीं आज ये हमारे साथ आने के लिए तैयार कैसे हो गई? ये तो आधी छुट्टी में भी बच्चों के साथ खेलने की बजाय या तो अपनी माँ के पास चली जाती है या किसी कोने में बैठ कर पेंटिंग करने लगती है।”

“अनामिका बता रही थी कि सोती भी उससे चिपक कर है। इसका हाथ सोते हुए भी उसकी देह के किसी हिस्से पर रहता है।”

“इस उम्र में इतनी संजीदगी अच्छी नहीं।” हरजीत ने एक लम्बी साँस ली।

बच्चे जी भर कर नहा चुके थे और अब आम खा रहे थे। नवदीप ने पूछा, “सौम्या तुम स्कूल में किसी से बोलती क्यों नहीं?” सौम्या गंभीर हो गई, बिलकुल वैसे ही जैसे स्कूल में होती थी।

“बताओ न बेटा।” नवदीप ने प्यार से उसकी गाल थपथपा दी।

“मम्मा पास जाना है।”

“हाँ बस अभी चल रहे हैं मम्मा पास, बता दो प्लीज़, तुम स्कूल में किसी से बोलती क्यों नहीं?”

“मुझे मम्मा के पास ही रहना है आंटी।”

“मम्मा के पास ही तो रह रही हो बेटा।”

“मम्मा जब गु़स्सा करती है तो कहती है तुझे ऑस्ट्रेलिया भेज दूँगी।” सौम्या जैसे दहशत से पीली पड़ गई थी।

“ओ माई गॉड! तो यह है कारण। नन्हीं सी जान और इतना बड़ा बोझ…” बरबस नवदीप की सिसकी निकल गई। उसने सौम्या को कसकर सीने से चिपका लिया। सौम्या की देह काँप रही थी और नवदीप की आवाज़। सिसकती नवदीप सौम्या की पीठ पर हाथ फेरते हुए लगातार कहे जा रही थी, “तू हमेशा मम्मा के पास रहेगी… तुझे कोई ऑस्ट्रेलिया नहीं भेजेगा… कभी नहीं…”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – स्वच्छता अभियान… ☆ श्री सदानंद कवीश्वर ☆

श्री सदानंद कवीश्वर 

संक्षिप्त परिचय

भारत में जन्म, वाणिज्य स्नातक, नई दिल्ली में स्थाई निवास। विश्व-प्रसिद्ध कंपनी ‘डाबर’ से सेवानिवृत्त, लेखन, पठन तथा संगीत में रुचि। एक एकल लघुकथा संग्रह- ‘फिर मिलेंगे’ तथा छह साझा संग्रह प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में दोहे, कुण्डलियाँ, हाइकू, लेख, निबंध तथा लघुकथाएँ नियमित रूप से प्रकाशित। लघुकथाओं का पंजाबी, मराठी, भोजपुरी, मैथिलि व बांग्ला आदि भाषाओं में अनुवाद तथा सम्बद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन।

✍ लघुकथा – स्वच्छता अभियान… ☆ श्री सदानंद कवीश्वर

झुग्गियों में रहने वाला केशव अपनी दोनों जेबों में मोतीचूर के लड्डू ठूँसते हुए तेज़ी से पार्क में पडी थर्मोकोल की प्लेट्स, दोने, पानी के डिस्पोज़ेबल गिलास और मुसे हुए टिश्यू पेपर उठा रहा था। उसने सब कुछ उठा कर कूड़ेदान में डाला और गेट के पास खड़े अपने दोस्त के पास जाकर उसे भी एक लड्डू दिया।

“अरे, यह लड्डू किसने दिया और तू यह कचरा क्यों बीन रहा था ?”

“तुझे तो कुछ पता ही नहीं होता”, केशव बोला, “आज विधायक जी आए थे यहाँ, ‘स्वच्छता अभियान’ का उद्घाटन करने। सबसे पहले विधायक जी का भाषण हुआ। उन्होंने अपने आसपास की जगह को साफ़ रखने तथा कूड़ेदान के प्रयोग का महत्व बताया। फिर जितने लोग आए थे, सबने अपने घर के साथ-साथ पार्क और सड़क को साफ़ रखने की कसम खाई। चार बड़े कूड़ेदान पार्क में लगवाए गए। उसके बाद नाश्ता हुआ और तब मुझे पार्क में चारों ओर पड़े दोने, प्लेट आदि उठा कर इस जगह को साफ़ करने के बदले 4 मोतीचूर के लड्डू दे के, अभी तो गए हैं सब लोग यहाँ से।

© श्री सदानंद कवीश्वर

संपर्क – 9810420825

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 161 – विनम्रता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय  एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “विनम्रता”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 161 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 विनम्रता 🙏

सरला के जीवन भर की कमाई उसकी अपनी विनम्रता है। इसी कारण कभी-कभी वह  परेशानी में पड़ जाती थी। आज मानव सेवा आश्रम में पेड़ के नीचे लगी बेंच पर वह कुछ धार्मिक ग्रंथ पढ़ रही थी। रिमझिम बारिश की फुहार में अचानक उस घटना ने उसे सोचने को मजबूर कर दिया। जिसमें बिना कारण के वह अपने पति के गुस्से का शिकार हो गयी।

मामला यहां तक बढ़ा के पतिदेव कुणाल ने उसे घर से सदा सदा के लिए निकाल दिया। पांच वर्ष का बेटा रोता रहा परंतु पतिदेव की आत्मा न पिघली और न ही उसने माफ किया।

चलते चलते अचानक सरला गिर पड़ी। उसे कुछ याद न रहा। होश आने पर पता चला वह सुरक्षित किसी भली महिला के पास पहुंच चुकी है। जो असहाय और निराश्रित मानव की सेवा करती थी। अपने को संभालते सारा जीवन उसने मानव सेवा संस्थान में सेवा देने का मन बना लिया।

दुनिया की तरह तरह की बातों से दूर अब वह वहां आराम से रहने लगी।

सभी की सेवा करना सब का ध्यान रखना अपने हिस्से का सारा काम करके वह दूसरे का भी हाथ बटाती थी। सरला का नामों निशान मिट चुका था, अब वह विनम्रता के कारण विनू दीदी के नाम से जानी जाने लगी थी।

रिमझिम बारिश और मिट्टी की सोंधी महक तथा गरम गरम भजिए की खुशबू से वह बौखला गई।

जब भी ऐसा मौसम बनता विनू दीदी अपने आप को संभाल नहीं पाती थी। उसे देखकर लगता था कि असहनीय पीड़ा हो रही है।

यही वो समय था कुणाल के आने का इंतजार कर रही थी। हेमू बाहर खेल रहा था। सोचीं  गरम-गरम भजिए तलकर कुणाल का इंतजार करती हूं। परंतु खेलते खेलते हेमू किचन में आ गया।

मम्मी की साड़ी पकड़ कर वह झूल गया। अचानक आने से सरला के हाथ से झरिया छूट गया और हेमू के गाल पर लगा। ठीक उसी समय पर कुणाल अंदर आया और अपने बच्चे को रोता देख इससे पहले  सरला कुछ कहती। उसने तेल की गरम भरी कढ़ाई उठा सरला के सिर से पांव तक फेंक दिया।

चीख उठी सरला। देखा आसपास सभी खड़े थे क्या हुआ विनू दीदी फिर वही घटना याद आ गई। सफेद साड़ी के पल्ले से पोछते हुए सरला रोते रोते बोल पड़ी… मैंने कोई लापरवाही से चोट नहीं पहुंचाया था बस बता ना सकी। अपनी विनम्रता के कारण सब सहती रही।

तभी दौड़ते सभी कर्मचारी बाहर भागने लगे। पता चला किसी बुढ़े पिताजी को बेटे ने घर से निकाला है। और उसके शरीर पर जलने के निशान है।

पास आते ही सरला ने देखा वो और कोई नहीं कुणाल ही था।

सदा विनम्र रहने वाली सरला आज कठोर बन चुकी थी बोली.. इन्हें ले जाकर इलाज शुरू करवा दो। मुझे और भी काम निपटाना है।

कर्मचारियों ने देखा आंखों में आंसू चेहरे पर मुस्कान शायद वह वह आज भी विनम्र थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – लघुकथा ☆ “चीनी और मैंगो मैन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा ☆ चीनी और मैंगो मैन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

— ‘सुनिए!बाजार जा रहे हैं। जरा 5 किलो चीनी लेते आना !’ — महिमा ने निशान्त से कहा।

— ‘क्या चीनी चीनी लगा रखा है। गुड़ खाओ गुड़।’

— ‘देखिए ये दिखने दिखाने का जमाना है। गुड़, गंवई है। भौंडा है। चीनी कैसी सुदर्शना, गोरी गोरी, चिकनी, चमकीली और दानेदार होती है।’

— ‘फिर चीनी। अरे बाबा शक्कर नहीं तो शर्करा कहो न।’

— ‘चीनी क्या कह गई आप तो लाल बंबोड़े जैसे काट खाने को दौड़ पड़े। शब्दों का काला जादू तुम भी सीख गये। जिसने ” चीनी कम” फिल्म बनाई उसे भी कुछ कहो। अब बढ़िया केले को “चीनीचंपा”और मूँगफली को “चीनीबादाम” न कहो तो मानूं। वैसे भी “शकर” फारसी शब्द है।’

— ‘अब तुम मुझे शब्दों का जुगराफिया समझाओगी ?’

— ‘तुम तो भनक गये। मैं तो बस इतना कह रही थी कि शब्दों में क्या रखा है ?’

— ‘क्या रखा है ! चतुष्पदी कुर्सियां और चतुर्मुखी मीडिया इसी की ताकत से लोकतंत्र के जनाजे को कंधा देने की तैयारी कर रहा है।’

— ‘निशांत तुम मेरे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हो। दिन में सौ बार हाथ धोकर भी तुम्हारा जी नहीं भरा। मैं तो एक “आम इन्सान” (मैंगो मैन) हूं।’

— ‘आम आदमी ! सियासत ने उसे चूस चूसकर गुठली कूड़ेदान में फेंक दी है। हमें आम रहने देना भी उसे मंजूर नहीं।’

— ‘सच कहूं चीनी शब्द सुनते ही कलेजे में बहुत दर्द होता है महिमा ! मेरे 20फौजी जवानों के ताबूत आँखों के सामने आ जाते हैं।’ —-

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 120 ☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘क्लीअरेंस’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 120 ☆

☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘सर! इस फॉर्म पर आपके साईन चाहिए। परीक्षा है, क्लीअरेंस करवाना है‘ – विभाग प्रमुख से एक छात्रा ने कहा।

‘ठीक है। आपने विभागीय ग्रंथालय की सब पुस्तकें वापस कर दीं?’

‘सर! मैंने ग्रंथालय से एक भी पुस्तक नहीं ली थी। जरूरत ही नहीं पड़ी।‘

‘अच्छा, पिछले वर्ष पुस्तकें ली थीं आपने?‘

‘नहीं सर, कोविड था ना! ऑनलाईन परीक्षा हुई थी, तो गूगल से ही काम चल गया। सर! पाठ्यपुस्तकें भी नहीं खरीदनी पड़ीं। बी.ए. के तीन साल ऐसे ही निकल गए’ – छात्रा बड़े उत्साह से बोल रही थी।

‘सर! जल्दी साईन कर दीजिए प्लीज, ऑफिस बंद हो जाएगा।‘

हूँ —–

पास बैठे एक शिक्षक महोदय बोले – ‘सर! मैं तो कब से कह रहा हूँ, किताबें कॉलेज के ग्रंथालय को वापस कर देते हैं। विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकें तो पढ़ते नहीं हैं, ग्रंथालय से पुस्तकें लेकर क्या पढ़ेंगे?‘

‘ठीक कह रहे हैं सर आप, गूगल से ही पढ़ाई हो जाती है अब तो ‘– छात्रा यह कहती हुई क्लीअरेंस फॉर्म पर साईन लेकर तेजी से बाहर निकल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #142 – “बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 142 ☆

 ☆ “बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

पुराने समय की बात है। एक ही कोठरी में एक जूता और एक चप्पल रहती थी। जूता चमड़े का बना था और उसकी एड़ी ऊँची थी, जबकि चप्पल कपड़े की बनी थी और उसका तलवा चपटा था।

जूता को अपने आप पर बहुत गर्व था। उसने सोचा कि इस चप्पल से कहीं अधिक उपयोगी है।

“मैं चमड़े से बना हूँ,” जूता ने कहा।

“मैं मजबूत और टिकाऊ हूं। मुझे किसी भी मौसम में पहना जा सकता है। मैं औपचारिक अवसरों के लिए बिल्कुल सही हूं।”

चप्पल प्रभावित नहीं हुई।

“आप मजबूत और टिकाऊ हो सकते हैं,” चप्पल ने कहा। “लेकिन मैं अधिक सहज हूं। मैं अधिक व्यावहारिक भी हूं। मुझे समुद्र तट से लेकर किराने की दुकान तक कहीं भी पहना जा सकता है। मैं हर रोज पहनने के लिए एकदम सही हूं।”

दोनों में कई दिनों तक इस पर बहस होती रही। अंत में, उन्होंने यह देखने के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित करने का निर्णय लिया कि कौन अधिक उपयोगी है।

अगले दिन जूता-चप्पल खरीददारी के लिए निकले। जूता एक रेस्तरां में गया था, जहां हर किसी ने उसकी प्रशंसा की। वाह बहुत खूबसूरत है। चप्पल समुद्र तट पर गई। वह आरामदायक और सुंदर थी। सभी ने कहा कि चप्पल अच्छी व आरामदायक है।

घूमते-घमते जूता और चप्पल दोनों थक गए। वे एक बेंच पर बैठ गए और एक दूसरे को देखने लगे।

“तुम्हें पता है,” जूता ने कहा, “आप सही कह रही थी कि आप अधिक आरामदायक और सुंदर हो। मुझे यकीन है कि मैं समुद्र तट पर पहन कर नहीं जा सकता हूं। लेकिन मैं देख सकता हूं कि आप बहुत खूबसूरत हो।”

“धन्यवाद,” चप्पल ने कहा, “लेकिन आप इतने बुरे नहीं हो। आप निश्चित रूप से मुझसे ज्यादा स्टाइलिश हो। मुझे लगता है कि हम दोनों की अपनीअपनी क्षमता और ताकत है।”

जूता और चप्पल एक दूसरे को देखकर मुस्कराए। वे दोनों अपने-अपने तरीके से उपयोगी थे, और दोनों को उनके व्यक्तिगत गुणों के लिए सराहा जा सकता हैँ।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03-02-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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