(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – ककनूस
‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’
उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।
फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।
मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।
अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।
लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।
फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।
ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’
अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “परिक्रमा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 163 ☆
☆ श्रावण पर्व विशेष ☆ लघुकथा – 🌀🥛 परिक्रमा🥛🌀 ☆
विमल चंद यथा नाम तथा गुण शांत सहज और सभी से मेलजोल बढ़ा कर रहने वाले। उनकी धर्मपत्नी सरिता भी बिल्कुल उनकी तरह ही उन्हें मिली थी। इसे संयोग कहें या ईश्वर की कृपा धन-धान्य से परिपूर्ण और गाँव के एक सरकारी विभाग में बाबू का काम।
दफ्तर का सरकारी काम भी वह बड़े प्रेम और विश्वास तथा निष्ठा के साथ करते थे। समय निकलते देर नहीं लगा। कब क्या हो जाता है पता नहीं चलता। पत्नी सरिता को एक जानलेवा बीमारी ने घेर लिया और सेवानिवृत्ति के पहले ही देहांत हो गया।
दुर्भाग्य से उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने पूरे जीवन में उनका एक नियम बना हुआ था।
तालाब के पास शिव जी के मंदिर में जाते थे दूध से भरा लोटा परिक्रमा करते और जो परिक्रमा के बाद दूध बचता उसे वहाँ जो गरीब अनाथ बालक बैठा रहता उसके गिलास में डाल देते थे।
उसके लिये अक्सर खाने का सामान भी लाकर दिया करते थे। वह मंदिर की साफ सफाई करता और जो कुछ मिल जाता था। खा पीकर मंदिर में ही सो जाता था।
कई वर्षों से विमल चंद जी आते लोटा भर दूध लेकर परिक्रमा के बाद बचे हुए दूध को बच्चे की गिलास पर डाल देते थे। बच्चे की आँखों में अजीब सी खुशी और चमक दिखाई देती थी। धीरे-धीरे वह कम दिखने लगा और मंदिर में कभी-कभी ही दिखता। परन्तु गिलास लेकर दूध ले लेता था।
कुछ दिनों बाद दिखाई देना बिल्कुल बंद हो गया। पूछने पर पता चला अनाथालय वालों ने उसे पढ़ने लिखने के लिए अपने यहाँ भर्ती कर लिए।
बड़ी शांति हुई विमल चंद जी को। उनका अपना भाई का बेटा याने कि भतीजा था। जो बड़ा ही कठोर था।
संपत्ति के मिलते तक वह चाचा विमल चंद की सेवा करता रहा। शादी के बाद उन्हें वृध्दाआश्रम भेज दिया था। बैठे बैठे विमल चंद सोच रहे थे।
तभी किसी ने आवाज लगाई… “विमल दादा अंदर आ जाईये बारिश होने वाली है।” विमल चंद जी को अचानक जैसे होश आ गया अरे मैं अपने घर में नहीं वृद्धा आश्रम में हूँ । जहाँ मेरा कोई भी नहीं है मुझे तो भतीजे ने घर से निकाल दिया था।
सारी घटना को याद करके उनकी नींद लग गई। पलंग पर एक दूध का पैकेट रख फिर आज कोई चला गया।
बाकी किसी के पास दूध का पैकेट ना देख विमल चंद सोचते मुझे ही क्यों दिया जाता है। एक दिन हिम्मत कर सुपरवाइजर सर के पास पहुंचकर बोले… “जब तक आप मुझे नाम और उनसे नहीं मिलवाएँगे मैं दूध का पैकेट नहीं लूंगा और ना ही पीऊँगा”।
सुपरवाइजर ने कहा… “ठीक है मैं उन्हें कल मिलवाने की कोशिश करता हूँ।” सोते जागते रात कटी और सुबह होते ही फिर पहुँच गए आफिस।
पास बैठे देख लड़के को आश्चर्य से देखने लगे। कुछ याद हो चला अरे यह तो वही लड़का हैं जिसे मैं शंकर जी परिक्रमा के बाद बचे हुए दूध को गिलास में देता था।
वह लड़का पैरों पर गिर पड़ा। उसने बताया… “आपके भतीजे के सख्त निर्देश की वजह से मुझे कोई कुछ नहीं बता रहा था बहुत पता लगाने पर आज मुझे यहाँ मिले, अब सारी कार्यवाही पूरी हो चुकी है। आप मेरे साथ मेरे घर चलिए।”
वृद्ध आश्रम से निकलकर बड़ी सी गाड़ी में बैठते ही मन में सोचने लगे विमल चंद जी… भोले भंडारी के मंदिर में दूध की परिक्रमा भगवान शिव शंभू ने आज बेटे सहित वापस कर दिये। आँखों से आंसू बहने लगे। कभी अपने बेटे और कभी बड़ी सी गाड़ी की खिड़की से बाहर चलते सभी को हाथ हिला हिला कर देख रहे थे।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “ओले” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
गेहूं की जो सोने रंगी बालियां महिंद्र की आंखों में खुशी छलका देती थीं , वही ओलों की मार से उसकी आंखों में आंसुओं की धार बन कर फूट पड़ीं । और जो बचीं वे काली पड गयीं जैसे उसकी मेहनत राख में बदल गयी हो । जैसे महिंद्र की मेहनत को मुंह चिढा रही हों ।
आकाश से गिरे ओलों पर महिंद्र का क्या बस चलता ? नहीं चला कोई बस । तम्बू थोडे ही तान सकता था खेतों पर ? अनाज मंडी में कुदरती विपत्त जैसे इंसानी विपत्त में बदल गयी । गेहूं की ढेरी से ज्यादा उसके सपनों की ढेरी अधिक थी , जिसमें कच्चे कोठे की मरम्मत से लेकर गुड्डी की शादी तक का सपना समाया हुआ था । सरकार के दलाल मुंह फेर कर चलने लगे जैसे महिंद्र के सपनों को लात मार कर चले गये हों और महिंद्र किसी बच्चे की तरह बालू के घरौंदे से ढह गये सपनों के कारण बिलखता रह गया हो ,,,,
शाम के झुटपुटे में वही सरकारी दलाल ठेके के आसपास दिखाई दिए , महाभोज में शामिल होने जैसा उत्साह लिए । और महिंद्र समझ गया कि वे उसके शव के टुकड़े टुकड़े नोचने आए हैं । जब तक उन्हें भेंट नहीं चढाएगा तब तक उसका गेहूं नहीं बिकेगा । उसके सपने नहीं जगमाएंगे । अंधेरी रात में ही जुगनू से टिमटिमाते, ,,,सूरज की रोशनी में बुझ जाएंगे ।
बोतलों के खुलते हुए डाट देखकर उसके मुंह से गालियों की बौछार निकल पड़ी – हरामजादो, ओलों की मार से तुम सरकारी दलालों की मार हम किसानों के लिए ज्यादा नुकसानदेह है । और दलाल बेशर्मी से हंस दिए -स्साला शराबी कहीं का ,,,,,
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – नींद-।)
☆ लघुकथा ☆ नींद ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
सुमित अपनी पत्नी नीतिका और ढाई साल के बेटे राहुल के साथ महीने भर के लिए घूमने विदेश आया था। अभी पाँचवाँ दिन था। नीतिका की इस बीच व्हाट्स एप पर अपनी सास से बात होती रही थी। आज उसके फोन पर सास का मैसेज आया। पूछा था – राहुल को ठीक से नींद आ जाती है न? नीतिका से कोई उत्तर देते नहीं बना, बरबस उसकी आँखें भीग गयीं। दो मिनट बाद फिर मैसेज आया – मैं समझ गई बेटा, देखो, उसको सुलाने का एक तरीक़ा है, उसे अपनी बाईं बाजू पर लिटा कर दाएँ हाथ से उसकी पीठ के ठीक बीच रीढ़ की हड्डी को गुदगुदाया करो। वह तुरन्त सो जायेगा।
नीतिका ने जवाब में लिखा – जी माँ जी। अब वह फिर रो रही थी। वह कैसे लिखती कि उसे सुलाने के लिए मैं ठीक ऐसे ही करती हूँ, पर रीढ़ पर गुदगुदाते ही वह इधर-उधर दादी को देखता है और सुबकने लगता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ कथा कहानी ☆ सोविनियर☆ डॉ. हंसा दीप ☆
एना गिलबर्ट फ्रेंच पढ़ाती है।
सख्त और अनुशासित। उसके छात्र उसकी आँखों से डरते हैं। उन आँखों की ताकत किसी तीर जैसी तीखी और नुकीली है। एक नजर से ही घायल कर दे। यूँ तो वह कम बोलती है मगर अपनी आँखों से बहुत कुछ कह जाती है। जब आँखों की भाषा काम नहीं करती, तब उसकी जबान बोलती है। कड़कते तेल में तली हरी तीखी मिर्ची की तरह।
कल ही की बात है। उसका लेक्चर जारी था। एक छात्र अपने साथी से कुछ खुसुर-पुसुर करने लगा। एना ने उसे चुप रहने के लिए नहीं कहा, तुरंत उसका नाम बोर्ड पर लिख दिया। यह कहते हुए कि इस छात्र की अगले एक सप्ताह तक अनुपस्थिति दर्ज की जाएगी।
“मुझे माफ कर दीजिए मिस एना।”
“नहीं, बिल्कुल नहीं। गलती की सजा तो मिलनी ही चाहिए।”
और उसकी माफी पर ध्यान दिए बगैर एना ने पढ़ाना शुरू कर दिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। छात्र कक्षा में जरा-सी देर से आए या फिर गृह-कार्य समय पर न दे पाए तो वह बहुत ज़्यादा गुस्सा हो जाती। छात्रों के चेहरों से लगता कि वे आहत हुए हैं। उनकी आक्रोश भरी चुप्पी चिंगारी की तरह सुलगते हुए भी जैसे राख में कहीं दब जाती थी। कभी आग न पकड़ पाती। छात्र खौफ में जीने के बावजूद आवाज न उठाते। इसकी ठोस वजह थी उनकी परीक्षाएँ। अंकों का पिटारा तो मिस एना के पास था। किसी भी खिलाफत का अंजाम खराब रिज़ल्ट हो सकता था। इसलिए सब चुप रहते थे।
आज भी ऐसा ही हुआ कि उस छात्र के माफी माँगने के बावजूद एना के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। पूरी कक्षा हैरान थी। कई छात्रों ने सिर झुका लिए थे ताकि उनके मन के भावों को मिस एना पढ़ न सके। कक्षा में ऐसा सन्नाटा था कि सुई भी गिरती तो आवाज आती। वैसे भी अपनी पढ़ाई और आगे के भविष्य पर केन्द्रित छात्रों के पास ऐसी बातों के लिए समय नहीं था। बाहर निकलकर थोड़ी सुगबुगाहट होती पर जल्द ही माहौल सामान्य होने लग जाता।
आज भी वही हुआ। कक्षा खत्म होने बाद बाहर निकलते ही आवाजें तेज हो गयीं।
“ये अजीब नहीं है!”
“हाँ, ये भी एक नमूना ही है।”
“इतने गुस्से में क्यों रहती है हमेशा?”
“शायद अपने घर में परेशान होगी।”
“अरे तो क्या घर की परेशानियों का बदला हमसे लेगी?”
“बहुत अच्छी तरह पढ़ाती है। यही खास बात है। बहुत जल्दी समझ में आता है।”
“सचमुच, अगर व्यवहार ठीक हो जाए तो हमारी यूनिवर्सिटी की बेस्ट टीचर है।”
छात्रों का यह मूल्यांकन एना के लिए सकारात्मक साबित होता। अंत भला तो सब भला। मिस एना की पढ़ाने की शैली नयी भाषा को अच्छे से समझाती। कक्षा में फ्रेंच के अलावा कोई भाषा स्वीकार्य नहीं थी। मिस एना के कड़े अनुशासन में भाषा की जटिलताओं को ग्रहण करते छात्र, गलत-सही की परवाह किए बगैर कक्षा में फ्रेंच ही बोलते। इस वजह से उनके सीखने की प्रक्रिया तेज हो जाती और इसका परिणाम उनके अच्छे रिजल्ट के रूप में साफ दिखाई देता। तब वे कक्षा की इन छोटी-मोटी बातों को भूल जाते और एना को एक अच्छी मगर सख्त शिक्षक के रूप में ही देखते।
यही स्थिति एना के विभाग में भी थी। उसका व्यक्तित्व उसे औरों से अलग कर देता। हालाँकि अपने सहकर्मियों से न उसकी मित्रता थी, न शत्रुता। वह किसी से ज्यादा बात न करती बल्कि उसका पूरा ध्यान सिर्फ अपने काम पर ही रहता। काम पूरा कर वह समय से घर निकल जाती। मीटिंग में कई बार ऐसा होता कि उसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति को नजर अंदाज न किया जाता। उसके व्यक्तित्व पर कनखियों से बातें की जातीं। ऐसा भी नहीं था कि इन निगाहों से एना अनभिज्ञ थी लेकिन उसे अपने इसी रवैये से तुष्टि मिलती। अपने सम्पर्क में आए हर व्यक्ति को वह कई कोणों से देखती फिर चाहे उसके छात्र हों, उसके सहकर्मी या कोई और।
विश्व के अनेक देशों के छात्र उसकी कक्षा में हैं। कई रंग, कई भाषाएँ और कई चेहरे। एशियन और साउथ एशियन छात्रों की भरमार है। उसकी कक्षा में चीन, जापान, इंडोनेशिया, कोरिया, मलेशिया, थाईलैंड, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और भारत जैसे विभिन्न देशों से आए छात्र हैं। शायद इसीलिए उसकी परेशानियाँ भी वैश्विक पटल की तरह व्यापक हैं। कई बार ऐसा लगता है कि अपने-अपने देशों का प्रतिनिधित्त्व करते ये सारे छात्र सोविनियर हैं। जब वह किसी छात्र से बातचीत करती है तो दरअसल वह उस छात्र से ही नहीं बल्कि उसके मुल्क से भी बात कर रही होती है। यही वजह है कि हर देश की समस्याएँ एक साथ मिलकर उस पर हमला करती हैं। उसके कंधे हमेशा यूँ झुके रहते हैं जैसे दुनिया के हर देश के बोझ से लदे हुए हों। वह आज तक टोरंटो के बाहर नहीं गयी। टोरंटो के बाहर की पूरी दुनिया स्वयं उसकी कक्षा में आती रही है।
इन छात्रों के निबंधों में, गृह-कार्य में, इनके देशों और घरों की ऐसी जानकारियाँ मिलती रही हैं, जो शायद किसी किताब में नहीं मिल सकतीं। इसीलिए बड़े-बड़े देशों की बारीक से बारीक नस को एना पहचान लेती है। कलेजे को ठंडक मिलती कि वह अकेली नहीं है जिसका बचपन कटुता में बीता है। छात्रों के लिखे गए वाक्यों में उनकी अपनी पीड़ा व्यक्त होती और वही एना के लिए राहत का सबब हो जाता।
उसके बचपन का भी एक शापित इतिहास है। वह एक ऐसे घर में पली-बढ़ी थी जो घर नहीं, यातना घर था। आम तौर पर माँ के नाम से लोगों के चेहरों पर मुस्कान चली आती है पर उसके चेहरे पर आती थी घृणा और नफरत। पिता के बारे में कभी तय नहीं कर पायी कि वे अच्छे थे या खराब। बहुत पहले घर छोड़ कर चले गए थे वे। समाजसेवी संस्थाओं ने नशे में डूबी माँ से बच्ची को लेकर उसे अनाथालय भेज दिया था। उसने जैसे तैसे हाई स्कूल पास करके काम करना शुरू कर दिया था। काम करते हुए ही फ्रेंच में ग्रेजुएट हुई। दिन में काम और शाम को पढ़ाई। सुना था कष्टों से आदमी निखरता है, उसने भी अपना भविष्य निखारा। बस अपने व्यक्तित्व को नहीं निखार पायी। जीवन की कटुताओं को झेलते-झेलते वह क्रूर होती चली गयी।
अब फ्रेंच भाषा है और वह है। वही उसकी जिंदगी है। वह अपनी मेहनत से जिंदगी के अभावों को दूर करती और संकीर्णताओं में बँधती चली गयी। काम बहुत अच्छे से करती लेकिन उसकी जबान कड़वी हो चली थी। वह कड़वाहट उसकी मेहनत पर पानी फेर देती। एक बगावत बस गयी थी उसके मन में। वह कभी यह न समझ पाई कि डाँट डपट का उसका यह तरीका गलत है। भीतर की नफरत का बीज उम्र के साथ बढ़ते हुए अब पेड़ बन चुका था। हर व्यक्ति उसे एक साजिश लगता। अपने चेहरे को जितना बिगाड़ कर रख सकती, रखती। एक कान में बड़ा इअरिंग तो दूसरे में कुछ नहीं। गले में अलग-अलग आकार-प्रकार की आठ-दस मालाएँ लंबी लटकती रहतीं। बाल ऐसे बनाती कि पढ़ाते समय छात्र उसके बालों पर अधिक ध्यान दें। कई बार उसकी आँखें उसके बालों में छुपी रह जातीं। आँखों की वह बरसती आग तब अंदर ही रह जाती, कहीं निकल न पाती। खुद उसी आग में झुलसती रहती।
ऐसे रंग-बिरंगे कपड़े पहनती जैसे किसी पोशाक में हर रंग का होना जरूरी हो। उससे दूर रह गया जीवन का हर रंग उसके परिधान में शामिल होता गया। पर रंगों की यह बहार बाहर तक ही रहती, अंदर न घुस पाती। वहाँ तो ऐसी कालिमा थी, जो हर रंग को अपने में सोख लेती। शायद वह यही चाहती भी थी कि उसकी बेतरतीबी को लोग उसकी खासियत समझें।
वह अपने मन की मर्जी से चलती। बोलती तो एक-एक शब्द चबाकर। ऐसा लगता कि सुनने वाले ने उसकी बात न समझी तो वह इसी तरह उसे चबा जाएगी। उसका मानना था कि सामने वाले की दो नहीं, हजारों आँखें हैं। हर एक आँख उसे अलग आँख से देख रही है। वह इन आँखों को पढ़ने के बजाय कुचल देना चाहती। पल-पल में उसकी नजर बदल जाती।
उसका यह भी मानना था कि लोग नकली होते हैं। जैसे हैं, वैसे दिखते नहीं। वह भी वैसी नहीं है, जैसी दिखती है। हर किसी को चीख-चीख कर कहना चाहती- “देखो मैं एक अजूबा हूँ।”
जब वह बहुत छोटी थी तो नशे में इधर-उधर लुढ़कती रहती माँ। भूखी बच्ची को खाना न मिल पाता। भूख से रोती तो थप्पड़ों से उसके गाल लाल कर दिए जाते। कई बार माँ उसे छोड़कर कहीं चली जाया करती थी। उन पलों का वह सारा डर अब उसके गुस्से में उतर आया था। उसके समूचे व्यक्तित्व को अतीत की काली छाया ने डँस लिया था। कक्षा में आक्रोशित होती तो उसे ये ध्यान न रहता कि वह क्या कह रही है। लेकिन एक बात का ध्यान उसे अवश्य रहता कि वह स्वयं को कोई दु:ख नहीं देना चाहती। मनमानी करके उसे एक अजीब-सी राहत मिलती। लगता कि दुनिया उसके कदमों में है और वह हर किसी पर राज कर रही है।
अनाथालय को घर तो मान लिया था पर उसे घर की तरह अनुभव करना कहाँ सम्भव था। किसी आदमी को देखते ही उसके अंदर की असलियत पहचानने की उसकी सनक तभी से है। वह पूरी तरह पारदर्शी है, अपनी जिंदगी से नाटक नहीं करती।
वे सारे दु:ख जो उसे अब तक कचोटते रहे, वह उन्हें खुशियों में बदल देना चाहती है। सच का सामना तब भी किया था, अब भी करती है। बस उसका नजरिया अब बदल गया है। शिक्षक बहुत अच्छी है पर उतनी अच्छी इंसान नहीं। कक्षा दर कक्षा उसकी शुरुआत अच्छी होती; अंत तक सारे छात्र उसकी कटुता को पीने की आदत डाल लेते।
एक दिन कुछ ऐसी घटना घटी जब एना, एना न रही। अभी कक्षा शुरू भी नहीं हुई थी कि सामने से आते एक छात्र डेविस के मस्ती भरे ‘हलो’ ने उसे नाराज कर दिया- “मैं आपकी दोस्त नहीं हूँ। ठीक से हलो कहा कीजिए।”
“जी?”
“क्या आपको याद दिलाना होगा कि यह अंग्रेजी नहीं फ्रेंच की कक्षा है! बोनशूर कहिए।”
डेविस को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने प्रश्नवाचक निगाह से उसे देखा। यह कोई इतनी बड़ी गलती तो नहीं थी कि गुस्से की वजह बन जाए। उस सवालिया नज़र को सहन करना एना के स्वभाव के खिलाफ था। वह डाँटने लगी- “फ्रेंच की कक्षा में हलो भी अंग्रेजी में कहा जाए तो भाषा सीखने का मतलब ही क्या रहा।”
“लेकिन…”
“तुम्हें इतना शऊर नहीं कि टीचर से बोनशूर कैसे कहा जाए।”
“मैंने सॉरी कहा मिस…!”
“बाहर जाओ अभी इसी वक्त।”
डेविस ने सकपकाते हुए एक भरपूर नजर से देखा और कहा- “इतना गुस्सा करने की कोई जरूरत नहीं मिस एना।”
“आउट”
“जी, जा रहा हूँ। ऐसे डर के साए में मैं भी भाषा नहीं सीख पाऊँगा।”
एना उसके तेवर देखकर स्तब्ध थी। डेविस शायद जान गया था कि इसका परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। जाते हुए एक बार पलट कर उसने देखा और कहा- “आप चाहें तो अपनी कक्षा सूची से मेरा नाम काट दें।”
और वह चला गया। पूरी कक्षा यूँ सन्न थी, जैसे साँप सूँघ गया हो। एना आपा खो बैठी- “आप सभी बाहर जाइए। आज कोई कक्षा नहीं होगी।”
सारे छात्र जितनी तेजी से निकल सकते थे, निकल गए। बाहर से लगातार एक आवाज आ रही थी- “यह टीचर हमारी यूनिवर्सिटी का सोविनियर है।”
एना थर-थर काँप रही थी। गुस्से का आवेग ऐसा था कि खाली कक्षा में अपना सिर बोर्ड से टकराने का मन कर रहा था। सोविनियर शब्द कक्षा की हर चीज से टकराता हुआ उस पर हमला कर रहा था। उसी की लाठी से, उसी पर वार किया गया था और हैरानी इस बात की थी कि वार सही जगह लगा था। कक्षा का पूरा समय उसने वहीं चक्कर लगा-लगा कर काटा। छात्र डेविस का साहसी चेहरा सामने से हट नहीं रहा था। खाली क्लास जैसे चीख रही थी। हर तरफ़ से छात्रों की अलग-अलग आवाजें मुँह चिढ़ा रही थीं। कक्षा से सीधे घर के लिए निकल गयी वह। न भूख का एहसास रहा, न प्यास का। उस रात वह सो नहीं पायी। उस असामान्य घटना ने जैसे झिंझोड़ कर रख दिया था उसे। कक्षा के सारे छात्र मानो अलग-अलग देशों के लहराते झंडों के साथ बारी-बारी से उसकी आँखों के सामने आ-आकर चिल्ला रहे थे- सोविनियर! सोविनियर! एना के हाथ में भी कैनेडा का झंडा था। सब मार्च-पास्ट करते हुए उसकी कक्षा की तरफ़ बढ़े चले आ रहे थे। इन झंडों पर उन सबके चेहरे थे। मेपल लीफ के ऊपर एना का बड़ा-सा चेहरा था।
आखिरकार उस लंबी रात की सुबह हुई।
आज उसने अपने बाल तरतीब से कंघी किए। काला ब्लैज़र डाला। जूते भी रोज की अपेक्षा अच्छे पहने। अपना रोज वाला थैला नहीं, एक अच्छा सा बैग लिया और कक्षा की तरफ चल दी। कक्षा में प्रवेश किया तो देखा कि सारे छात्र आश्चर्य से उसे ही देख रहे थे। उसकी आँखों की भाषा कोमल और मीठी थी। वह मुस्कुरायी। ऐसी मुस्कान जो सबके लिए नयी थी। सामने वह छात्र डेविस था जो आज अपनी सजा की प्रतीक्षा कर रहा था। एना की नज़रें उससे ऐसे मिलीं जैसे धन्यवाद कह रही हों। आज एना को कक्षा के सारे चेहरे और सारे देश अच्छे लग रहे थे। पढ़ाते हुए वह खुलकर हँस रही थी। अब पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं थी। आज की कक्षा में पढ़ाने का जो सुकून उसे मिला था उसे उसने हर छात्र की आँखों में महसूस किया था।
कक्षा खत्म करके जाते-जाते एक पल के लिए वह रुकी और कहा- “डेविस, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।” उसके हाथों ने जैसे ही ताली बजायी, पूरी कक्षा ताली की गड़गड़ाहट से गूँज उठी।
डेविस नाम के उस छात्र ने एना के जीवन में एक खुशनुमा इतिहास रच दिया था, जिसमें सिर्फ आज था।
कक्षा के बाद अपने ऑफिस में घुसते ही उसने देखा, मेज पर रखा उसका बनाया हुआ कैनेडा का सोविनियर मुस्कुरा रहा था। न जाने वह मुस्कान एना के चेहरे से होते हुए उसके भीतर जाकर समा उठी थी। एना ने प्यार से उसे उठा लिया और देखती रही एकटक! मानो एक बुत शिल्पकार में जीवंतता भरने की सफल कोशिश कर रहा हो।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सिहरन’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 122 ☆
☆ लघुकथा – सिहरन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘आशा! तेरा कस्टमर आया है।‘
‘बिटिया ! तू यहीं बैठ, मैं अभी आई काम करके।‘
‘जल्दी आना। ‘
थोड़ी देर बाद फिर आवाज –‘आशा! नीचे आ जल्दी।‘
‘बिटिया! तू थोड़ी देर खेल ले, मैं बस अभी आई।‘
‘हूँ —।‘
‘बिटिया! तू खाना खा ले, तब तक मैं नीचे जाकर आती हूँ।‘
‘अच्छा ‘– उसने सिर हिला दिया।
दिन भर में आशा को संबोधित करती ऐसी ही आवाज ना जाने कितनी बार आती और आशा सात – आठ साल की बिटिया को बहलाकर नीचे चली जाती।
ऐसा ही एक पल –‘बिटिया! ध्यान से पढ़ाई करती रहना, मैं बस अभी आई काम करके।‘
“अम्माँ ! अकेले कितना काम करोगी? थक जाओगी तुम, रुको ना, मैं भी चलती हूँ तेरे साथ। तुम कहती हो ना, कि मैं बड़ी हो गई हूँ? “
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – बेटा
(वर्षों पूर्व लिखी एक लघुकथा)
“…डाकबाबू कोई पाती आई के?’
दूर शहर बसे बेटे को अपनी बीमारी के अनेक संदेश भेज चुका कल्याण आशंकित संभावना से पूछता। डाकबाबू पुराने परिचित थे। कल्याण के दुख को समझते थे। चिट्ठियों पर ठप्पा मारते-मारते सिर उठाकर कहते-
“काकाजी बोळी चिंता करो…शहर खूब दूर है, सो उत्तर आबा मे भी टेम लागसि..।’
फिर दोनो फीकी हँसी हँस देते।
ये सिलसिला पिछले तीन-चार साल से चल रहा था। डाकबाबू जानते थे कि चिट्ठी शायद ही आए। बरसों से डाक महकमे की नौकरी में थे, अच्छी तरह से मालूम था कि हर गाँव, ढाणी में एकाध कल्याण तो रहता ही है। वैसे जानता तो कल्याण भी था कि उसकी भेजी चिट्ठियों ने पदयात्रा भी की होगी तो भी अब तक सब की सब पहुँच चुकी होंगी, पर मन था कि मानता ही नहीं था।
बेटे को देखने की चाह कल्याण के भीतर हर दिन प्रबल होती जा रही थी,
“आँख मूँदबा से पेलि एक बार ओमी ने देख लेतो तो..’..”ठाकुरजी, एक बार तो भेज द्यो ओमी ने’, ..रात सोने से पहले वह रोज ठाकुरजी से प्रार्थना करता।
संतान से मिलने की इच्छा में बिना नींद के कई रातें निकालने के बाद एक रोज सुबह-सुबह कल्याण डाकबाबू के पास पहुँच गया।
“काकाजी चिट्ठी आसि तो म्है खुद ही…”,
“ना-ना वा बात कोनी।”
“फेर?”
“एक बिनती है।”
“बिनती नहीं, थे तो हुकम करो काकाजी।”
“ओमी ने एक तार भेजणूँ है।”
“तार? के बात है, सब-कुशल मंगल है न?”
आशंका के भाव से पूछते-पूछते डाकबाबू यह भी सोच रहे थे कि कल्याण अकेला रहता था। परिवार में दूर बसे बेटे के अलावा कोई नहीं, फिर अमंगल समाचार होगा भी तो किसका?
तार का कागज़ हाथ में लेकर कल्याण ने कातर भाव से डाकबाबू से कहा,
“बाबूजी लिख द्यो ना!”
“काकाजी थे तो..?”
डाकबाबू जानते थे कि कल्याण पुराने समय के तीसरे दरजे की पढाई किए हुए है, टूटी-फूटी भाषा में ओमी को चिट्ठी भी खुद ही लिखता था। हाँ अंग्रेजी में केवल पता डाकबाबू से लिखवाता था। कारण जानना चाहते थे पर कल्याण की आँखों के भाव देखकर पूछने की हिम्मत नहीं कर सके।
..”बोलो के लिखूँ?”
“लिखजो कि ओमी, थारो बाप मरिग्यो है, फूँकबा ने जल्दी आ…बरफ पे लिटा रख्यो है।”
“काकाजी..?”
“भेज द्यो बाबूजी, मेरी मोत पे तो ओमी शरतिया आ ही लेगो।”
डाकबाबू को समझ नहीं आया कि तार किसके नाम से भेजें। कुछ विचार कर आखिर उन्होंने अपने ही नाम से तार भेज दिया।
तार का असर हुआ। अगले ही दिन गाँव के डाकघर में शहर से चार सौ रुपए का तार-मनीऑर्डर आया। ओमी ने लिखा था,
..”बाप तो मर ही गया है, तो अब मैं भी आकर क्या कर लूँगा,… गाँवराम ही उसे फूँक दें। कुल मिलाकर दो-ढाई सौ का खर्च आएगा, चार सौ रुपए भेज रहा हूँ ..।’
तार पढ़कर कल्याण देर तक शून्य में घूरता रहा। वह डाकबाबू से एम.ओ. लिए बिना ही लौट गया।
जल्दी सुबह उठनेवाले कल्याण का दरवाज़ा अगले दिन सूरज चढ़ने तक खुला नहीं था। पड़ोसियों ने ठेला तो दरवाज़ा भड़ाम से खुल गया। अंदर झाँका, देह की सिटकनी खोलकर आत्मा परलोक सिधार चुकी थी। निश्चेष्ट देह के पास दो लिफाफे रखे थे। एक में ढाई सौ रुपए रखे थे, लिफाफे पर लिखा था-“मुझे फूँकने का खर्च’….दूसरे में डाकबाबू के नाम एक पत्र था, लिखा था-
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “औलौकिक गुरु पूजा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 162 ☆
☆ लघुकथा – 🙏 गुरुपूर्णिमा विशेष 🪔औलौकिक गुरु पूजा🪔 ☆
शौर्य आज के युवा पीढ़ी का नौजवान कार्य कुशलता में निपुण, संस्कारों का धनी, धार्मिक और सभी से मित्रता करना, उसका अपना व्यक्तित्व था।
एक बड़ी सी प्राइवेट कंपनी में अच्छे बड़े पद पर कार्यरत। उसके व्यक्तित्व की चर्चा ऑफिस तो क्या आसपास के लोग भी किया करते थे। सदा खुश रहने वाला शौर्य बहुत ही दयालु था।
किसी की मदद करना, किसी को जरूरत का सामान दे देना और जरूरत पड़ने पर उसके घर जाकर सहायता करके आ जाना। घर में पापा मम्मी भी कहते ” बहुत ही होनहार है हमारा बेटा।” पापा कहते “दादाजी पर जो गया है।”
शौर्य साधु संतों की सेवा सत्संग भी किया करता था। उसकी शादी की बात चलने लगी। घर में सभी उत्साहित थे। परंतु शौर्य चाहता था कि जब तक दादाजी की ओर से सभी परिवार एक नहीं हो जाते, वह शादी नहीं करेगा।
हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर वह अपने ऑफिस में एक शानदार कार्यक्रम रखता। सभी की भोजन व्यवस्था और पूजा में सिर्फ खाली टेबल पर कुछ फूल मालाओं से औलौकिक पूजा करता था।
ऑफिस के कर्मचारी कहते हैं “साहब आप इतने अच्छे से गुरु पूर्णिमा का पर्व प्रतिवर्ष मनाते हैं परंतु गुरु की फोटो या मूर्ति नहीं रखते या कोई आपके गुरु जी कभी नहीं आते।”
शौर्य मुस्करा कर कहता.. “जिस दिन मेरे गुरु जी आएंगे उसी दिन दीपावली की तरह रौशन होगा और आप सभी को पता चल जाएगा।”
शौर्य के साथ काम करने वाली उसकी एक महिला मित्र सीमा अक्सर देखा करती अपने पॉकेट पर्स से किसी वरिष्ठ सर्जन की फोटो को रोज देख कर प्रणाम करते है और अपने दिन की शुरुआत करते हैं। एक दिन किसी काम से शौर्य अपना पर्स भूल गए और ऑफिस के काम से दूसरे चेम्बर में चले गए।
बस फिर क्या था सीमा ने जो उसे मन ही मन पसंद करती थी उस फोटो को कॉपी करके, पता लगाना शुरू कर दिया। पता चला यह तो शौर्य के दादाजी है जो उसके पापा को किसी कारण आपसी बहस से उन्हें घर से निकाल दिए हैं।
अब पापा और दादाजी एक दूसरे का मुँह देखना पसंद नहीं करते। उसने अपना प्रयास जारी रखी। दादा जी के पास पहुंचकर शौर्य के सारे किस्से कहानी बता दी और यह भी बता चुकी आपको गुरु के रूप में मानता है।
“कल गुरु पूर्णिमा है आप दादा जी नहीं आप गुरु के रूप में एक बार शौर्य के ऑफिस पहुंचे।”
दादाजी का मन द्रवित हो उठा आज गुरु पूर्णिमा के दिन मन ही मन गर्व से भर उठे और ठीक समय पर ऑफिस पहुँचे। दीपावली की तरह सजा था आफिस। “इतनी शानदार सजावट मैने तो नहीं कहा था” गंभीर हो गया शौर्य । दादा जी आए सीमा ने दौड़कर स्वागत किया।
कुर्सी पर बिठा दिया और और शौर्य को बुलाने पहुंच गई। आपको पूजा के लिए बुलाया जा रहा है। शौर्य जल्दी-जल्दी जाने लगा, दूर से देखा पाँव तले जमीन खिसक गई और खुशी आश्चर्य से दोनों आँखों से अश्रुं की धारा बहने लगी। साष्टांग गुरु के चरणों में गिर चुका था शौर्य।
आफिस वाले इस मनोरम दृश्य को मोबाइल पर कैद कर रहे थे। पीछे से मम्मी पापा पुष्पों का हार लिए दादाजी के गले में पहनाने के लिए आगे बढ़ चुके थे। आज गुरु पूर्णिमा पर शौर्य को इससे बड़ा तोहफा शायद और कभी नहीं मिल सकता था। उठ कर शौर्य ने सीमा का हाथ थामा और दादा जी के सामने खड़ा था। दोनों हाथों से आशीर्वाद की छड़ी लग चुकी थी। शौर्य की औलौकिक पूजा साकार हो चली।
प्रीतेश ,साढ़े तीन सौ का फेंग शुई वाला “लकी बाम्बू” लेकर आया। वह पक्का वामपंथी है पर —- मानव मन की थाह पाना इतना आसान भी नहीं।
घर आते ही उसने ज़िन्दगी का फलसफा समझाने वाला वीडिओ देखा। उसे देख सुनकर उसकी आँखें भर आईं। जिसमें एक हताश व्यक्ति को उसका मेन्टोर बाम्बू के प्रतीक से समझा रहा था। बांबू को पाँच वर्ष तक लगातार खाद पानी देना होता है। उम्मीद का कोई चेहरा नज़र नहीं आता फिर देखते ही देखते वह छः सप्ताह में नब्बे फीट बढ़ जाता है।
कामयाबी बड़ा ही करिश्माई जुमला है। लोग सतह के नीचे की कारीगरी याद नहीं रखते। सिर्फ छः सप्ताह याद रखते हैं। हमें पूरी ईमानदारी से काम करते रहना चाहिए।
प्रीतेश को सहसा ओशो कम्यून याद आ गया। उसने पत्नी मीता से कहा- पता है तुम्हें बांबू की जिन्दगी में सिर्फ एक बार फूल आते है, फूल आते ही वह मर जाता है ।
“नियति” —- मीता ने उदास होकर कहा।
—- “मुझे लगता है फूल यानी रंग, सौंदर्य और सार्थकता–“! उन लोगों की तरह जिन्हें मृत्यु के निकट पहुंचने पर सफलता मिलती है———–
यह प्रीतेश का स्वर था।
—– “हां इसे दूसरी तरह से कहना हो तो ये भी कह सकते हैं —– बहुत संभव है बाँस अपनी मौत को सेलीब्रेट करना चाहता हो।”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – बोझ-।)
☆ लघुकथा ☆ बोझ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
चेरी ब्लॉसम स्कूल में कार्यरत हरदीप और उसकी पत्नी नवदीप अपनी सहकर्मी शिक्षक अनामिका की छः साल की बेटी को आज अपने साथ अपने खेत में लेकर आए थे। अनामिका दो साल से इस स्कूल में काम कर रही थी। उसकी बच्ची भी उसके साथ ही स्कूल में आती थी। अनामिका के पति चार साल से ऑस्ट्रेलिया में थे। बहुत ख़ूबसूरत और प्यारी सी वह बच्ची खूब मस्ती में ट्यूबवेल की धार के नीचे नहाते हुए उनके बच्चों के साथ अठखेलियाँ कर रही थी। वह कभी खेत की ओर दौड़ जाती, कभी नाचने लगती। नवदीप ने पति से कहा, “देख रहे हो, यह वही बच्ची है जो स्कूल में किसी से नहीं बोलती। कितनी मस्ती कर रही है।”
“पता नहीं आज ये हमारे साथ आने के लिए तैयार कैसे हो गई? ये तो आधी छुट्टी में भी बच्चों के साथ खेलने की बजाय या तो अपनी माँ के पास चली जाती है या किसी कोने में बैठ कर पेंटिंग करने लगती है।”
“अनामिका बता रही थी कि सोती भी उससे चिपक कर है। इसका हाथ सोते हुए भी उसकी देह के किसी हिस्से पर रहता है।”
“इस उम्र में इतनी संजीदगी अच्छी नहीं।” हरजीत ने एक लम्बी साँस ली।
बच्चे जी भर कर नहा चुके थे और अब आम खा रहे थे। नवदीप ने पूछा, “सौम्या तुम स्कूल में किसी से बोलती क्यों नहीं?” सौम्या गंभीर हो गई, बिलकुल वैसे ही जैसे स्कूल में होती थी।
“बताओ न बेटा।” नवदीप ने प्यार से उसकी गाल थपथपा दी।
“मम्मा पास जाना है।”
“हाँ बस अभी चल रहे हैं मम्मा पास, बता दो प्लीज़, तुम स्कूल में किसी से बोलती क्यों नहीं?”
“मुझे मम्मा के पास ही रहना है आंटी।”
“मम्मा के पास ही तो रह रही हो बेटा।”
“मम्मा जब गु़स्सा करती है तो कहती है तुझे ऑस्ट्रेलिया भेज दूँगी।” सौम्या जैसे दहशत से पीली पड़ गई थी।
“ओ माई गॉड! तो यह है कारण। नन्हीं सी जान और इतना बड़ा बोझ…” बरबस नवदीप की सिसकी निकल गई। उसने सौम्या को कसकर सीने से चिपका लिया। सौम्या की देह काँप रही थी और नवदीप की आवाज़। सिसकती नवदीप सौम्या की पीठ पर हाथ फेरते हुए लगातार कहे जा रही थी, “तू हमेशा मम्मा के पास रहेगी… तुझे कोई ऑस्ट्रेलिया नहीं भेजेगा… कभी नहीं…”