हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ शेर, बकरी और घास ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कथा  “शेर, बकरी और घास…“।)   

☆ कथा-कहानी ☆ शेर, बकरी और घास ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षकगण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टिप्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.

तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर  का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और  बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.

शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में

अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा. 

कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 155 – माता की चुनरी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “माता की चुनरी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 155 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 🚩 माता की चुनरी 🚩❤️

सुशील अपनी धर्मपत्नी सुरेखा के साथ बहुत ही सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था। सदा अच्छा बोलना सब के हित की बातें सोचना, उसके व्यक्तित्व की पहचान थी।

दोनों पति-पत्नी अपने घर परिवार की सारी जरूरतें भी पूरी करते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के साथ-साथ सहयोग की भावना से भरपूर जीवन बहुत ही आनंदित था। परंतु कहीं ना कहीं कहते हैं ईश्वर को कुछ और ही मंजूर होता है। विवाह के कई वर्षों के उपरांत भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हो सका था।. 

सुशील का प्रतिदिन का नियम था ऑफिस से छुट्टी होते ही गाड़ी पार्किंग के पास पहुंचने से पहले बैठी फल वाली एक सयानी बूढ़ी अम्मा से चाहे थोड़ा सा फल लेता, परंतु लेता जरूर था। बदले में उसे दुआएँ मिलती थी और वह उसे पैसे देकर चला जाता।

आज महागौरी का पूजन था। जल्दी-जल्दी घर पहुँचना चाह रहा था। अम्मा ने देखा कि आज वह बिना फल लिए जा रहा है उसने झट आवाज लगाई… “बेटा ओ बेटा आज बूढ़ी माँ से कुछ फल लिए बिना ही जा रहा है।” विचारों का ताना-बाना चल रहा था सुशील ने कहा…. “आज कन्या भोज है मुझे जल्दी जाना है कल ले लूंगा।”

अम्मा ने कहा… “फल तो लेता जा कन्या भोज में बांट देना।” पन्नी में दो तीन दर्जन केले वह देने लगी सुशील झुक कर लेने लगा और मजाक से बोला…. “इतने सालों से आप आशीर्वाद दे रही हो पर मुझे आज तक नहीं लगा।” कह कर वह हँसने लगा।

उसने देखा अम्मा की साड़ी का आँचल जगह-जगह से फटा हुआ है। और वह कह रही थी… “तेरी मनोकामना पूरी होते ही माता को चुनरी जरूर चढ़ा देना।”

जल्दी-जल्दी वह फल लेकर घर की ओर बढ़ चला। घर पहुँचने पर घर में कन्याएँ दिखाई दे रही थी और साथ में कुछ उनके रिश्तेदार भी दिखाई दे रहे थे।

माँ और पिताजी सामने बैठे बातें कर रहे थे और सभी को हँसते हुए मिठाई खिला रहे थे।” क्या बात है? आज इतनी खुशी हमेशा तो कन्या भोजन होता है परंतु आज इतनी सजावट और खुशहाली क्यों?” अंदर गया बधाइयों का तांता लग गया।

“बधाई हो तुम पापा बनने वाले हो!” सुशील के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा सुरेखा ने हाँ में सिर हिलाया। शाम ढलने वाली थी सुशील की भावना को समझ सुरेखा ने मन ही मन हाँ कह कर तैयारी में जुट गई।

 सुशील बाहर निकल कर गया। साड़ी की दुकान से साड़ी चुनरी और जरूरत का सामान ले वह फल वाली अम्मा के पास पहुँचा और कहा… “अभी घर पर आपको फलों की टोकरी सहित बुलाया है। चलो।” अम्मा ने कहा… “थोड़े से फल बच्चे हैं बेटा बेंच लूं।” सुशील ने कहा….. “नहीं इसी को टोकरी में डाल लो और अभी मेरे साथ गाड़ी में चलो।” उसने सोचा नेक दिल इंसान है और प्रतिदिन मेरे से सौदा लेता है। हमेशा आने को कहता है आज चली जाती हूं उनके घर।

दरवाजे पर पहुँचते ही उसकी टोकरी को रख सुशील उसे दरवाजे पर ले आया। सामने चौकी बिछी थी उसमें बिठाने लगा। वह आश्चर्यचकित थी परंतु हाथ पकड़कर उसने उसे बिठा दिया। फूलों का हार और सुंदर सी साड़ी चुनर लिए सुरेखा आई।

साड़ी भेंट कर वह हार पहना चुनर ओढा रही थी। अब तो अम्मा को सब समझ में आ गया। खुशी से वह नाचने लगी। सभी की आँखें खुशी से नम थी। सुशील की आँखों से बहते आँसू देख, अपने हथेलियों पर वह रखते हुए बोली… “मोती है इसे बचा कर रखना बिदाई पर देने पड़ेंगे।” आशय समझकर सुशील हंसने लगा। माता रानी के जयकारे लगने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #185 ☆ कथा कहानी – धंधा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कहानी ‘धंधा ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 185 ☆

☆ कहानी ☆ धंधा

(लेखक के कथा-संग्रह ‘जादू-टोना’ से) 

पम्मी की व्यस्तता का अंत नहीं है। पंद्रह बीस दिन दूकान का फर्नीचर और काउंटर बनने में लगे, अब वस्त्रों को ढंग से सजाना है ताकि वे दूर से ही लोगों का ध्यान खींचें। एक सीधा-सादा दर्जी मिल गया है जो दिन भर बुटीक में बैठेगा। अच्छे ‘प्रॉफिट’ के लिए कर्मचारी का सीधा-सादा और निष्ठावान होना ज़रूरी है। कर्मचारी रोज़ कोई न कोई फरमाइश लेकर खड़े रहें तो फिर मालिक को मुनाफा कहाँ से होगा?

बुटीक के दरवाज़े के ऊपर एक शानदार बोर्ड लग गया है जिसे देखकर हर बार पम्मी मगन हो जाती है। उसे पक्का भरोसा है कि साल दो साल में बुटीक बढ़िया आमदनी देने लगेगा। जो भी परिचित महिला मिलती है उससे पूछती है— ‘जब हम मेनत करेंगे तो मुनाफा क्यूँ नईं होगा?’ और हर बार जवाब मिलता है, ‘क्यूँ नईं होगा? जरूर होगा।’ लेकिन पूछते पूछते मम्मी का मन नहीं भरता।

पाँच दिन बाद बुटीक का उद्घाटन है। एक स्थानीय मंत्री से फीता काटने के लिए स्वीकृति मिल गयी है। पहले राज़ी नहीं हो रहे थे, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं से दबाव डलवाया तो मान गये। अब पम्मी फूली नहीं समा रही है कि उसके बुटीक का उद्घाटन मंत्री जी के कर-कमलों से होगा।
पम्मी की सास सवेरे से कपड़ों में कीमत का ‘टैग’ लगाने में लगी थीं और पम्मी सामने लिस्ट रखकर कार्डों पर आमंत्रितों के नाम लिखने की माथापच्ची कर रही थी। निमंत्रण-पत्रों में उन घरों को तवज्जो दी जा रही थी जिनमें फ़ेमिली थोड़ा फैशनेबल थी और युवतियों की संख्या ज़्यादा थी। जेब में पैसा होना चाहिए और सर पर फैशन का भूत सवार होना चाहिए। ‘ओल्ड-फैशंड’ को बुलाने से क्या फायदा? बिना कुछ खरीदे घंटों बिटर-बिटर ताकेंगीं और फिर वापस लौट कर मीन-मेख निकालेंगीं।

नाम लिखते लिखते पम्मी ने अचानक माथे पर हाथ मारा और ‘हाय रब्बा, मेरे से बड़ी गलती हो गयी’  कह कर लंबी साँस छोड़ी। सास ने परेशान होकर उसकी तरफ देखा,पूछा, ‘क्या हुआ,पुत्तर? कौन सी गलती हो गयी?’

पम्मी हाथ का काम रोक कर बोली, ‘गलती ये हो गयी, माँजी, कि मैंने मिसेज़ सिंह से झगड़ा कर लिया।’

माँजी ने पूछा, ‘कब कर लिया?’

पम्मी बोली, ‘अभी पिछले महीने।’

माँजी ने पूछा, ‘क्यूँ कर लिया झगड़ा?’

पम्मी बोली, ‘उसके कुत्ते की वजह से हुआ। वो सवेरे कुत्ते को घुमाने ले जाती है। मैं उस दिन सैर को निकली थी। उसके बगल से गुज़री तो कुत्ता एकदम मेरे ऊपर भूँक पड़ा। मैं घबरा गयी। मैंने गुस्से में कह दिया कि कुत्ता रखने का शौक है तो उस को कंट्रोल करना सीखो। वो कहने लगी कि मैं फालतू गुस्सा दिखा रही हूँ, कुत्ते ने काटा तो नहीं है। मैंने कहा तुझे मैनर्स नहीं हैं, उसने भी कहा मुझे मैनर्स नहीं हैं। फिर शटप शटप कर हम लोग अपने अपने घर आ गये।’

सास जी बोलीं, ‘तो इसमें क्या गलत हो गया? ठीक ही तो कहा तूने। आगे कुत्ते को कंट्रोल में रखेगी।’

पम्मी फिर माथा ठोक कर बोली, ‘अरे माँजी, सिंह लोगों के तीन रिश्तेदार तो इसी कॉलोनी में हैं। दो घर बगल में विजय नगर में हैं। एक रिश्तेदार स्नेह नगर में है। वो नाराज़ रही तो उसका कोई रिश्तेदार मेरे बुटीक में नहीं आएगा। कॉलोनी के दूसरे लोगों को भड़काएगी वो अलग।’

माँजी पैर फैला कर बोलीं, ‘मरने दे। नहीं आते हैं तो न आयें। तू क्यों दुबली होती है?’

पम्मी गाल पर हाथ रख कर बोली, ‘आप तो कुछ समझतीं नहीं, माँजी। उनके छः घरों में कम से कम बीस पचीस लेडीज़ होंगीं। अगर सब मुझसे रूठ कर बैठ गयीं तो मेरा तो कितना नुकसान हो जाएगा। सब आ जाएँ तो मेरे तो सॉलिड कस्टमर हो जाएँगे।’

माँजी ने सहमति में सिर हिलाया, कहा, ‘बात तो ठीक है, पुत्तर। तूने गलती कर दी। कुत्ते के पीछे क्या लड़ना!’

पम्मी थोड़ी देर चिबुक पर हथेली रखकर चिंतामग्न रही, फिर बोली, ‘अब इस मामले को आप ही ठीक कर सकती हैं, माँजी।’

माँजी ने पूछा, ‘मैं क्या कर सकती हूँ भला?’

पम्मी बोली, ‘आप कल सवेरे कार्ड लेकर उनके घर चली जाओ। आप स्यानी हो, आपके जाने का असर पड़ेगा। आप बोलना कि जरूर आएँ। कोई गलती हो गयी हो तो मन में न रखें।’

माँजी बोलीं, ‘तू कहती है तो चली जाऊँगी।’

पम्मी बोली, ‘आप उनको कार्ड दे आओ। उनके रिश्तेदारों को मैं दे आऊँगी।’

दूसरे दिन माँजी मिसेज़ सिंह का कार्ड लेकर गयीं। उनके घुटनों में दर्द होता था, इसलिए दोनों तरफ झूलती हुई, धीरे-धीरे चलती हुई गयीं।

मिसेज़ सिंह ने उन्हें बैठाया, हाल-चाल पूछे। माँजी कार्ड देकर बोलीं, ‘पम्मी के बुटीक का पंद्रह को उद्घाटन है पुत्तर। जरूर आना।’

मिसेज़ सिंह ने कहा, ‘ज़रूर आऊँगी, माँजी।’

माँजी बोलीं, ‘नईं पुत्तर! पम्मी बता रही थी कि उसने आपसे कुछ बातचीत कर ली थी। नादान है। बहुत पछता रही थी। कहने लगी मैं क्या मुँह लेकर जाऊँ, माँजी। आप चली जाओ, कहना मेरी बात को दिल से निकाल दें और उद्घाटन में जरूर आएँ। वैसे आपकी बहुत तारीफ करती है। कहती है मिसेज़ सिंह बहुत नेकदिल हैं।’

मिसेज़ सिंह ने आश्वस्त किया, ‘कोई झगड़ा नहीं है, माँजी। मैं ज़रूर आऊँगी।’

माँजी चलने के लिए उठीं, दरवाजे़ पर पलट कर बोलीं, ‘पुत्तर, मेरे से वादा किया है तो तोड़ना मत, नईं तो मुझे बहुत दुख होगा।’

मिसेज़ सिंह हँस कर बोलीं, ‘आप भरोसा रखिए माँजी। मैं पक्का आऊँगी।’

माँजी खुश खुश घर लौट गयीं। पम्मी को बताया तो उसने राहत की साँस ली।

उद्घाटन वाले दिन बुटीक के सामने शामियाना लगाकर सौ कुर्सियाँ लगा दी गयीं। मंत्री जी ने फीता काटकर पम्मी जी को ढेर सारी बधाइयाँ दीं और अपने भाषण में कहा कि शहर की सब स्त्रियाँ पम्मी जी की तरह आगे आने लगें तो शहर की तरक्की में देर नहीं लगेगी। फिर सब की फरमाइश पर खूब सारे फोटो खिंचवा कर वे दूसरे कार्यक्रमों में हिस्सा लेने चले गये।

फिर अतिथियों ने बुटीक को देखना और औपचारिक खरीदारी करना शुरू किया। पम्मी को सबसे बधाइयाँ मिल रही थीं। लेकिन पम्मी की नज़र बार-बार मिसेज़ सिंह को ढूँढ़ती थी जो अभी तक दिखायी नहीं पड़ी थीं। अचानक उसे मिसेज़ सिंह महिलाओं के जत्थे के साथ आती दिखायी पड़ीं और उसकी बाँछें खिल गयीं। आगे बढ़कर उसने उन्हें गले से लगा लिया, बोली, ‘आप आयीं तो कित्ती खुशी हुई। मुझे तो डर लग रहा था कि शायद आप नहीं आएंँगीं।’

मिसेज़ सिंह बोली, ‘क्यों नहीं आती? मैंने माँजी से कहा था कि ज़रूर आऊँगी।’

पम्मी बोली, ‘वो उस दिन मैं आपको उल्टा-सीधा बोल गयी थी, इसलिए मुझे डर लग रहा था। मैंने छोटी सी बात को इतना बड़ा बना दिया। आपका कुत्ता तो बहुत प्यारा है। दरअसल मैं बहुत शॉर्ट टेंपर्ड हो गयी हूँ। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा हो जाती हूँ, फिर बाद में पछताती हूँँ कि कैसी बेवकूफी कर दी। आपने उस दिन की बात को भुला दिया न ?’

मिसेज़ सिंह उसकी बाँह पकड़ कर हँस कर बोलीं, ‘ओहो! मैंने तो उस बात को कब का भुला दिया। आप खामखाँ परेशान हो रही हैं। चलिये, आपका बुटीक देखते हैं।। बड़ा शानदार बनाया है। मुझे बेटी के लिए दो-तीन सूट खरीदना है।’

पम्मी उनकी बाँह थामकर उन्हें अन्दर ले गयी। बाकी मेहमान मिसेज़ सिंह को मिल रहे इस ‘वीआईपी ट्रीटमेंट’ को देखकर हैरान थे, लेकिन पम्मी यह सोच सोच कर खुश थी कि उसने धंधे के कुछ जरूरी गुर सीख लिये हैं।

 © डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 113 ☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा बदलेगा बहुत कुछ। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 113 ☆

☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा में आज अनामिका की कविता ‘बेजगह‘ पढानी शुरू की –

अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते, 

केश, औरतें और नाखून,

पहली कुछ पंक्तियों को पढ़ते ही लड़कियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लड़कों पर कोई असर नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ शिक्षिका पढ़ती है –

लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं, 

उनका कोई घर नहीं होता।

शिक्षिका कवयित्री के विचार समझा रही थी और क्लास में बैठी लड़कियां बेचैनी से एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लड़के मुस्करा रहे थे। कविता आगे बढ़ी –

कौन सी जगह होती है ऐसी

जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों, 

कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी

एकदम बुहार दी जाने वाली।

एक लड़की ने प्रश्न पूछने के लिए हाथ ऊपर उठाया- मैडम! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?

हाँ – शिक्षिका ने शांत भाव से उत्तर दिया।

एकदम से कई लड़कियों के हाथ ऊपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा– कचरा थोड़े ही है?

शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर, बुहारकर घर से बाहर कर दिया गया था। किसी के मन – मस्तिष्क को बड़े योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खड़ी थी। उसे एक दिन पति ने बड़ी  सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ —–

 मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।

हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे ? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं, इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करें, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ – शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ

प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं, 

मानसिकता का है।

बात किसी की मानसिकता की हो, 

जरूरी है कि स्त्री

अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले

बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ।

घंटी बज गई थी।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 154 – आशा की किरण ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “आशा की किरण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 154 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 आशा की किरण ❤️

बड़े बड़े अक्षरों पर लिख था – – – ” भ्रूण का पता लगाना कानूनी अपराध है।”

मेडिकल साइंस की देन गर्भ में भ्रूण का पता लगा लेना।

आशा भी इस बीमारी का शिकार बनी। उसे लगा कि भ्रूण पता करके यदि शिशु बालक है तो गर्भ में रखेगी अन्यथा वह गर्भ गिरा झंझट से मुक्त हो जाएगी।

क्योंकि गरीबी परिस्थिति के चलते अपने घर में बहनों के साथ होते अन्याय को वह बचपन से देखते आ रही थी।

सुंदर सुशील पढ़ी-लिखी होने के कारण उसका विवाह बिना दहेज के एक सुंदर नौजवान पवन के साथ तय हुआ। विवाह के बाद पता चला कि वह माँ बनने वाली है।

किसी प्रकार पैसों का इंतजाम कर अपने पति पवन को मना वह भ्रूण जांच कराने चली गई। रिपोर्ट आई कि होने वाली संतान बालक है खुशी का ठिकाना ना रहा। दुर्गा माता की नवरात्र का समय था। वह अपनी प्रसन्नता जल्दी से जल्दी बताना चाहती थी परंतु यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे समय आने पर पता चलेगा।

आज प्रातः स्नान कर वह खुशी-खुशी अस्पताल पहुंच गई। मन में संतुष्टि थी कि होने वाला बच्चा बेटा ही होगा। वह भी नवरात्र के पहला दिन। निश्चित समय पर ऑपरेशन से  बच्चा बाहर आया। आशा को  होश नहीं था। होश आने पर उसने देखा… उसका पति एक हाथ में शिशु और दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा ले, सभी को मिठाइयाँ बाँट रहा है वह प्रसन्नता से भर उठी। उसकी आशा जो पूरी हो गई।

पास आकर पवन ने कहा… “बधाई हो मेरी ग्रहलक्ष्मी हमारे घर आशा की किरण आ गई। अब हमारे दिन सुधर जाएंगे।”

“साधु संतो के मुख से सुना है कि अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी आदमी को संतान की प्राप्ति नहीं होती, परंतु जिसके घर स्वयं भगवान चाहते हैं वहाँ बिटिया का जन्म होता है। स्वयं माँ भगवती पधारती है।”

आशा अपने पति को इतना खुश देख कर थोड़ी हतप्रभ थी क्योंकि, इतनी बड़ी बात उन्होंने छुपा कर रखा था और उसे एक महापाप से बचा लिया।

 आँखों से बहते आंसुओं की धार से बेटे और बेटी का फर्क मिट चुका था। आशा अपने किरण को पाकर बहुत खुश हो गई और पति देव का बार-बार धन्यवाद करने लगी।

शुभ नव वर्ष और नवरात्र की कामना करते वह भाव विभोर होने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 179 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक  विचारणीय लघुकथा – ऐसा भी होता है...”।)

☆ लघुकथा # 180 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

नर्मदा जी के किनारे एक श्मशान में जल रहीं हैं कुछ चिताएं। राजू ने बताया कि उनमें से बीच वाली चिता में कपाल क्रिया जो सज्जन कर रहे हैं वे फारेस्ट डिपार्टमेंट के बड़े अधिकारी हैं, इसीलिए चिता चंदन की लकड़ियों से सजाई गयी है,और उसके बाजू में जो चिता सजाई जा रही है, वह गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले अति गरीब की है।

उनके लोगों का कहना है कि जितनी लकड़ियां तौलकर आटो से आनीं थीं, उसमें से बहुत सी लकड़ियां आटो वाला चुरा ले गया। किन्तु, ऐसे समय कुछ कहा नहीं जा सकता, न शिकायत की जा सकती है,  क्योंकि, आजकल लोग बात बात में दम दे देते हैं, अलसेट दे देते हैं और काम नहीं होने देते।

गरीब मर गया तो आखिरी समय भी उसके साथ गेम हो गया। गरीब के रिश्तेदारों ने बताया कि जलाने के लिए ये जो लकड़ियां ख़रीदीं गईं थीं, उसके लिए पैसे उधार लिए गए थे। इसके बाद भी गरीब का दाहसंस्कार करने के लिए तत्पर बेटे को इस बात से खुशी है कि पिताजी ने जरूर कोई पुण्य कार्य किए होंगे, तभी इतने अमीर की चिता के बाजू में स्थान मिला, और बाजू की चिता से जलती हुई चंदन की लकड़ी का धुंआ उनकी चिता को पवित्र करेगा और वैसा ही हुआ। चिता को अग्नि दी गई और हवा की दिशा बदल गई। चंदन की लकड़ी से उठता हुआ धुआं गरीब की चिता में समा गया। श्रद्धांजलि सभा में कहा गया उसने जीवन भर गरीबी से संघर्ष किया पर वो पुण्यात्मा था, तभी तो ऐसा चमत्कार हुआ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – थानेदार सूरज सिंह ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘‘थानेदार सूरज सिंह)

☆ लघुकथा – थानेदार सूरज सिंह ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक लड़का टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से निकलकर दौड़ता हांफता शहर के चौराहे के मध्य में आकर रुक गया। थोड़ी देर सुस्ता कर उसने बड़ी श्रद्धा से उगते सूरज को नमस्कार करने की मुद्रा में हाथ जोड़े ही थे कि जालिम थानेदार सूरज सिंह परिहार ठीक उसके सामने आ खड़ा हुआ।

‘क्यों बे, सूरज सिंह परिहार के रहते हुए इस बीते भर के सूरज की क्या विसात है जो उसे सिर नवाता है-ऐं।’

दैत्याकार सूरज सिंह को देखकर लड़का सकपका गया। उसकी बोलती बंद हो गई। जालिम सूरज सिंह की क्रूरता के कई किस्से कई कई बार सुने थे उसने।

लड़का घबराकर बोला-‘सूरज तो आपके पीछे है सर, आपके रहते मुझे उस सूरज से क्या डर, हाथ तो मैंने आपके ही जोड़े थे श्रीमान, भला आपके सामने उस सूरज की क्या विसात है जो—‘

ह: ह:ह: थानेदार सूरज सिंह हंसा – ‘हाथ जोड़ने से पहले अपने आसपास इस सूरज सिंह को जरूर देख लिया कर, समझा—अब फूट यहां से—नेताजी की सवारी निकलने वाली है यहां से—‘

लड़का फिर उसी तरह दौड़ता हांफता शहर की उन टेढ़ी मेढी गलियों में गुम हो गया। थानेदार की हंसी बहुत देर तक उसका पीछा करती रही।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 153 – रंगों की कशमकश ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय,स्त्री विमर्श  एवं रंगपंचमी पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा रंगों की कशमकश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 152 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 रंगों की कशमकश ❤️

 मिनी का घर – भरा पूरा परिवार चाचा – चाची, बुआ – फूफा, दादा-दादी और ढेर सारे बच्चे। आज मिनी फिर होली –  रंग पंचमी पर मिले-जुले सभी रंगों से मैच करते परिवार के साथ होली का टाईटिल बना रही थी।

होली खेलने के बाद पूरा परिवार मिनी के यहाँ एकत्रित होता और सभी को उनके स्वभाव और व्यवहार को देखते हुए उन्हीं के अनुसार रंगो का टाईटिल दिया जाता था।

मिनी को याद है उनकी एक बड़ी मम्मी जो बरसों पहले शायद मिनी पैदा भी नहीं हुई थी, अचानक बड़े पापा के देहांत के बाद, घर वाले सभी उसे मनहूस कहकर आश्रम में छोड़ आए थे। यदा-कदा उसे जरूरत का सामान दे देते। दादा – दादी भी लगभग भूलते जा रहे थे।

मिनी यह बातें अक्सर घर में सुना करती थी। उसके मन में अनेकों विचार आते, परंतु वह कुछ कर नहीं पाती थी। थोड़ी बड़ी होने लगी और अक्सर अपने स्कूल कॉलेज से समय निकाल कर आश्रम जाने लगी। कभी-कभी वह अपनी बड़ी मम्मी की आँखों में बेबसी और निरपराध भाव को पढ व्याकुल हो जाती।

उसके मन में विचार आने लगे कि क्यों न… बड़ी मम्मी को घर लाया जाए।

आज रंग पंचमी थी। घर के सभी बच्चे टाईटिल बना रहे थे। मिनी की बातों से सभी सहमत थे। निश्चित समय पर रंगों का खेल शुरू हुआ सभी रंगों की प्रशंसा होती रही और टाईटिल मिलते गए। सभी खुश थे अचानक मिनी ने कहा… “सारे रंग तो बहुत अच्छे लग रहे हैं, पर फीके से लग रहे। चमक तो हैं पर  सफेद रंग के बिना सब कुछ अधूरा सा लग रहा है और समझ नहीं आ रहा है, यह सफेद रंग का टाईटिल  किसे दिया जाए।”

सभी एक-दूसरे का मुँह ताँकने लगे तभी दादी बोल उठी… “यह सफेद रंग तो हमारी बड़ी बहू बरसों से निभा रही है। इसकी हकदार तो वही है।” यही तो सब सुनना चाह रहे थे।

दरवाजे पर अचानक ढोल बजने लगा। बच्चों के बीच खड़ी सफेद साड़ी में बड़ी बहू आज रंग बिरंगे रंगों से सरोबार होती हुई घर में प्रवेश कर रही थी।

यही तो सब चाहते थे । खुशी से सभी की आँखें नम हो चली। रंगों की इस कशमकश से सारी दूरियाँ मिट चुकी थी। सभी रंग बिरंगी गुलाल उड़ाते नजर आ रहे थे। मिनी अपनी बड़ी मम्मी की बाहों में लिपटी दोनों हाथों से रंग उछाल रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी – लघुकथा – पगडंडी)

☆ कथा कहानी ☆  लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

शहर के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में बतौर अंग्रेज़ी प्राध्यापिका श्रीमती साक्षी ने जैसे ही कार्यभार ग्रहण किया, स्टाफ़ सदस्यों के बीच रहस्यमय खुसर-पुसर शुरू हो गई। साक्षी ने कार्यभार संभालते ही विभाग के मुखिया से अपना टाइम टेबल मांँगा और घण्टे भर बाद वह कक्षा में थी।

“कमाल है, यह तो क्लास में गई!” एक प्राध्यापक ने कहा।

“आज ही आई है न, इंप्रेस करना चाहती है। दो-चार दिन में दिखाएगी अपना रंग। वो क्या कहते हैं, रंग लाती है हिना…” स्टाफ़ रूम में एक सामूहिक अट्टहास गूंँजा।

समय बीतता गया, साक्षी ने वैसा कोई रंग नहीं दिखाया, जैसी अपेक्षा की गई थी। उसके चेहरे पर उपायुक्त (कलेक्टर) की पत्नी होने का कोई दर्प नहीं दिखा, न व्यवहार में कोई ठसक। वह अपनी स्कूटी पर आती, नियमित रूप से कक्षाएंँ लेती, स्टाफ़ के सभी सदस्यों से सहज ढंग से बात करती और खूब खुलकर हंँसती। महीने भर में ही वह स्टाफ़ और विद्यार्थियों की सबसे आत्मीय पारिवारिक सदस्य हो गई। लगता था, जैसे बरसों से यहीं हो।

एक दिन वह छुट्टी के आवेदन के साथ प्राचार्य के सामने मौजूद थी। वहीं तीन-चार स्टाफ़ सदस्य भी बैठे हुए थे। प्राचार्य ने आवेदन पढ़कर कहा, “आपके मामा की बेटी की शादी है, उन्हें हम सब की ओर से शुभकामनाएंँ दीजिएगा।”

“जी ज़रूर, शुक्रिया।”

“मुझे एक बात समझ में नहीं आई मैम, सिर्फ़ आधे दिन की छुट्टी ले रही हैं आप? बहन की शादी है, खूब एन्जॉय कीजिए। कितने भी दिन लगें, छुट्टी के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं मैम!”

“वो कैसे सर?”

“आप मालिक हैं, जब जी चाहे आएंँ, जी न चाहे तो न आएंँ।”

“मालिक न मैं हूंँ, न आप सर। स्कूल के मालिक तो बच्चे हैं। हम सब उनके नौकर हैं, बेहद प्रतिष्ठित नौकर। और आधे दिन की छुट्टी इसलिए एप्लाई की है कि बच्चों की परीक्षा सिर पर है। उन्हें मेरी ज़रूरत है सर!”

प्राचार्य सकपका गए तो पास बैठे एक शिक्षक ने जैसे सफ़ाई सी देते हुए कहा, “सर का मतलब यह था मैम कि उपायुक्त तो ज़िले के मालिक ही होते हैं।”

“उपायुक्त भी नौकर ही होता है सर, मालिक तो जनता होती है।”

“आपके विचार बहुत अलग हैं मैम, पर पिछले उपायुक्त की पत्नी भी क़रीब साल भर तक इसी स्कूल में टीचर थीं। वे एक दिन भी स्कूल में नहीं आईं। स्कूल का क्लर्क दस-पन्द्रह दिन में एक बार उनकी कोठी में जाकर हाज़िरी लगवा आता था। इसीलिए सर कह रहे थे…”

“यह तो बहुत ग़लत है सर! हमें वेतन टीचर होने के नाते मिलता है या उपायुक्त की बीवी की हैसियत से? आपने उन्हें कभी सख़्ती से टोका क्यों नहीं सर?

“मैं क्या टोकता मैम। हैड ऑफिस से आने वाली टीम भी इग्नोर करती थी। दोएक बार मैंने उनसे कहा भी, पर उल्टे उन्होंने मुझे ही चुप रहने की हिदायत दे दी। ऐसे में…”

साक्षी कुछ समय तक चुप बनी रही, फिर कहा, “टीचर को समदर्शी और निष्पक्ष होना ही चाहिए सर। समाज में हमारी प्रतिष्ठा इन्हीं कारणों से होती है। किसी एक व्यक्ति को विशेषाधिकार देने के बाद किसी को कुछ कह पाने का नैतिक आधार हम खो देते हैं। ऐसे में बच्चों को ईमानदारी का पाठ हम कैसे पढ़ा सकते हैं? माफ़ कीजियेगा सर, मैं अगर आप की जगह होती तो उसे स्कूल आने के लिए बाध्य करती, फिर नतीजा चाहे जो होता।”

साक्षी चली गई थी। कई लोगों की मौजूदगी के बावजूद प्राचार्य कक्ष में सन्नाटा था। एक ख़ामोश अनुगूंँज कक्ष में लगातार बनी हुई थी- ‘फिर नतीजा चाहे जो होता…’

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ होली एवं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – लघुकथा – बहू उवाच ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है होली पर्व पर आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा ‘‘बहू उवाच’’)

☆ होली एवं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष ? लघुकथा – बहू उवाच ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

मोहल्ले मोहल्ले होलिका दहन की तैयारियां जोर शोर से चल रही थी। स्पीकर पर होली के गीत प्रसारित हो रहे थे। चारों तरफ होलीमय वातावरण फैला पड़ा था।

एक घर की नववधू अपनी सास से बोली-आज इस मोहल्ले में एक साथ दो होली जलेंगी सासू मां, आप कौन सी होली पसंद करेंगी, घरवाली या बाहर वाली।

‘घरवाली होली भी होती है क्या? मैंने आज तक कहीं सुनी भी नहीं है बहू’। सास आश्चर्यचकित होकर गोली।

‘आज उसे भी देख लेना सासूजी, बड़ी लोमहर्षक होली होती है यह।’

‘इसी जलाता कौन है? और यह जलती कहां है बहू।’

‘ऐसी होली घर के किचन या बाथरूम के अंदर संपन्न होती है मां जी, इसे स्वयं बहू यह उसके सास ससुर, जेठ जेठानी, देवर देवरानी और नंनदें आदि जलाती है।’

‘तो क्या ऐसी होली हमारे घर में जलने वाली है’-सास ने बहू से पूछा।

‘हां माताजी यह होली हमारे घर में जलने वाली है इसके लिए मैंने सारा सामान जुटा लिया है। बस मैं थोड़ा सा श्रृंगार कर अभी हाजिर होती हूं, अपने हाथ से यह कार्यक्रम संपन्न कर लीजिए, मुझे बड़ी खुशी होगी।’

सास बुरी तरह चौकी फिर अपनी बहू के सिर पर हाथ फेर कर बोली – मुझे नहीं चाहिए तेरे पिता से ₹300000 तू मेरे घर की लक्ष्मी है, यह पाप मैं नहीं होने दूंगी, आज तूने मेरी आंखें खोल दी है। आज से तू मेरी बहू ही नहीं, मेरी बेटी भी है, ऐसी मनहूस बातें आज के बाद अपने मुंह से फिर कभी मत निकालना।

सास ने अपनी बहू को अपनी छाती से लगा लिया फिर सास बहू एक दूसरे से लिपट कर सिसक सिसक कर देर तक रोती रहीं।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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