(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा –“भ्रष्टाचार की सजा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆
☆ लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
अखबार हाथ में लेते ही उसे वह पल याद याद आ गया जब वह कलेक्टर साहब के पास गया था।
“क्यों भाई दो लाख रुपए की रिश्वत मांगी और मुझे पता भी नहीं चला!”
“सरजी! वह क्या है ना, आप का भी हिस्सा था उसमें।”
“मगर दो लाख रुपए क्यों मांगे? इसीलिए उसने शिकायत की और अखबार में भी दे दिया- ‘रजिस्ट्रार ने रजिस्ट्री पर रोक लगाई! भ्रष्टाचार में मांगे दो लाख’ “
“सरजी वह पाँच करोड रुपए लेकर सरकार रेट पर जमीन की पच्चीस लाख रुपए में रजिस्ट्री करवा रहा था। कम से कम इतना तो हमारा हक बनता है।”
“मगर शिकायत हुई तो तुम्हें सजा जरूर मिलेगी,” जैसे कलेक्टर साहब ने कहा तो उसका हाथ ब्रीफकेस पर मजबूती से कस गया। मगर दूसरे ही पल उसने ना जाने क्या सोचकर भी ब्रीफकेस पर पकड़ ढीली करके उसे साहब के घर पर ही छोड़ दिया।
यह स्मृति में आते ही उसने अखबार का पन्ना खोला। पहले पृष्ठ पर खबर छपी थी। ‘भ्रष्ट रजिस्टार का इंदौर स्थानांतरण”।
यह पढ़ते ही उसके चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान फैलती गई।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र
बारिश मूसलाधार है। ….हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। ….हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। ….हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।…आशंका और संभावना समानांतर चलती रहीं।
अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा ‘‘हताशा’’।)
☆ लघुकथा – हताशा☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल ☆
‘अरे देखो तो, यह आदमी क्या कर रहा है?’
‘अरे पगला गया है ससुरा, भला ऐसा आचरण कोई करता है, पेड़ों के फूल नोंच-नोंच कर सड़क पर फेंक रहा है, यह पागलपन नहीं है तो क्या है यार!’
लोग देख रहे थे. एक बौखलाया सा आदमी फूलों की डालियों से फूल नोंच-नोंचकर सड़क पर फेंक रहा है. साथ में अपने सिर के बाल भी नोंचता जा रहा है. लोगों ने फिर कानाफूसी की- यह पागलपन का दौर-दौरा है या कुछ और, कितनी मेहनत से इसने फूल उगाए थे और अब…’
अब वह आदमी अपनी बड़ी-बड़ी आंखें निकालकर चिल्लाने लगा- “आप लोग ही मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेवार हैं. आपलोग यदि रोज़-रोज़ इन फूलों को तोड़कर नहीं ले जाते तो मैं कदापि इस अंजाम तक नहीं पहुंचता, मेरी बगिया ही उजाड़ दी आप लोगों ने, अरे फूलों के हत्यारे हो तुम. फूल दरख्तों पर ही अच्छे लगते हैं. तुम्हारी जेबों में ठुसे हुए नहीं…समझे कुछ’
लोग उसकी इस दलील पर भौंचक्के थे.
अब मैं कुल्हाड़ी लेकर इसकी समूची डालियां भी काटूंगा. न रहे बांस न रहे बांसुरी’ आप लोग फूलों के दुश्मन हो तो मेरे भी दुश्मन हो. अरे दुश्मनों इन पेड़ों ने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा जो इनको पुष्पहीन करके हंस रहे हो. लोग उसकी हताशा को पहचान पाते, इसके पहले वह कुल्हाड़ी लेकर पेड़ों पर पिल पड़ा. ठक-ठक करती कुल्हाड़ी चल रही थी. उनकी जेबों में ठुंसे फूल कुम्हला रहे थे.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “🎈गुब्बारे की कीमत 🎈”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 143 ☆
लघु कथा 🎈गुब्बारे की कीमत 🎈
एक गुब्बारे वाला बरसों से बगीचे में गुब्बारे बेचकर अपनी जिंदगी की गाड़ी चला रहा था। एक साइकिल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाए वह बगीचे में इधर से उधर घूमता रहता था। सभी बच्चे उसका इंतजार करते थे। जिसके पास पैसे होते थे, वे गुब्बारा ले लेते।
अभी कुछ दिनों से एक मासूम सी पांच वर्ष की बच्ची वहां खेलने आया करती थी। अपने टूटे-फूटे खिलौने लिए एक जगह बैठकर खेलती रहती थी। गुब्बारे देख उसका भी मन होता था। बार-बार वहां आती और देख कर चली जाती थी।
आज बड़ी हिम्मत करके आई और बोली… बाबा मुझे भी एक गुब्बारा दे दो पैसे मैं कल लाकर दूंगी। उसकी मासूमियत देखकर गुब्बारे वाले ने उसको एक गुब्बारा दे दिया और बड़े कड़े शब्दों में कहा… कल पैसे जरुर ले आना।
आज शाम को गुब्बारे वाला फिर बगीचे में आया। सभी बच्चों ने खेलकूद के बाद कुछ खाया। गुब्बारा खरीदा और अपने – अपने घर की ओर चले गए। पर वह बच्ची दिखाई नहीं दी।
गुब्बारे वाले ने एक बच्ची को धीरे से बुलाकर पूछा… तुम्हारे साथ जो कल एक बच्ची आई थी वह नहीं आई।
बच्ची ने कहा… अब कभी नहीं आएगी उसकी मां ने उसे गुब्बारा के लिए सजा दिया है।
सामने से देखा दोनों हाथ जले आंसुओं की धार, बाल बिखरे, वह एक महिला के साथ चली आ रही थी। आते ही वह महिला बोली… यह तुम्हारे पैसे अब कभी इसे गुब्बारा नहीं देना।
यह कह कर वह पीछे पलट कर चली गई।
बच्ची से पूछने पर पता चला उसकी अपनी मां मर गई है। यह सौतेली मां है। पिताजी तो हर समय बाहर रहते हैं और मां हमेशा कहती हैं इसकी मां तो मर गई, इसे छोड़ गई मेरे सिर पर, देखना किसी दिन नाक कटवायेगी।
थोड़ी देर बाद गुब्बारे वाला अपने सारे गुब्बारे स्वयं फोड़ चुका था और भारी मन से घर की ओर चल पड़ा।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘क्या था यह ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 106 ☆
☆ लघुकथा – क्या था यह ?— ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
अरे ! क्या हो गया है तुझे ? कितने दिनों से अनमयस्क – सा है ? चुप्पी क्यों साध ली है तूने। जग में एक तू ही तो है जो पराई पीर समझता है। जाने – अनजाने सबके दुख टटोलता रहता है। क्या मजाल की तेरी नजरों से कोई बच निकले। तू अक्सर बिन आवाज रो पड़ता है और दूसरों को भी रुला देता है। कभी दिल आए तो बच्चों सा खिलखिला भी उठता है। तू तो कितनों की प्रेरणा बना और ना जाने कितनों के हाथों की धधकती मशाल। अरे! चारण कवियों की आवाज बन तूने ही तो राजाओं को युद्ध में विजय दिलवाई। कभी मीरा के प्रेमी मन की मर्मस्पर्शी आवाज बना, तो कभी वीर सेनानियों के चरणों की धूल। तूने ही सूरदास के वात्सल्य को मनभावन पदों में पिरो दिया और विरहिणी नागमती की पीड़ा को कभी काग, तो कभी भौंरा बन हर स्त्री तक पहुँचाया। समाज में बड़े- बड़े बदलाव, क्रांति कौन कराता है? तू ही ना!
देख ना, आज भी कितना कुछ घट रहा है आसपास तेरे। ऐसे में सब अनदेखा कर मुँह सिल लिया है या गांधारी बन बैठा। मैं जानता हूँ तू ना निराश हो सकता है न संवेदनहीन। तूने ही कहा था ना – ‘नर हो ना निराश करो मन को’। तुझे चलना ही होगा, चल उठ, जल्दी कर। मानों किसी ने कस के झिझोंड़ दिया हो उसे। कवि मन हकबकाया – सा इधर – उधर देख रहा था। क्या था यह ? अंतर्मन की आवाज या सपना?
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा ‘‘तू किस मिट्टी की बनी है माँ?’’।)
☆ लघुकथा – “तू किस मिट्टी की बनी है माँ?” ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल ☆
“मेरी जुराबें कहां हैं माँ?”
“मेरी गणित की किताब नहीं मिल रही है माँ.”
“मेरा टिफिन लगा दिया न माँ!”
“दूध वाला गेट पर खड़ा है माँ?”
“पापा, कच्छा-बनियान ढूंढ़ रहे हैं माँ.”
“चाय-बिस्कुट कब दोगी माँ?”
“ऑटो आ गया है. हम स्कूल जा रहे हैं. गेट बंद कर देना माँ.”
“आज महरी नहीं आयेगी. इतने सारे बर्तन कैसे मांजोगी माँ?”
“गैस आयी, दरवाज़ा खोलिए न माँ.”
“शाम को मेरे दोस्त आयेंगे, कुछ अच्छा-सा बना दोगी न माँ.”
“दादा-दादी के लिए गरम-गरम चपातियां बना दो न माँ.”
“मां आज स्कूल की फीस चाहिए, फीस के अलावा कुछ अतिरिक्त पैसे भी दे दिया करो न माँ.”
“मां बनिया सामान नहीं देता, पिछली उधारी मांगता है माँ.”
“मां सबकी तीमारदारी करती हो, तुम कभी बीमार नहीं पड़ती क्या माँ?”
“पापा भी तुम्हें कभी-कभी डांटते हैं. फिर मुस्कुरा कैसे लेती हो माँ?”
“मां, तू सोती कब है, उठती कब है, तू किस मिट्टी की बनी है माँ?”
“सारी विपत्तियां झेलने के लिए एक अकेली ही क्यों जिंम्मेवारी निभाती हो मां… सिर्फ मेरी ही नहीं, कभी-कभी तो तुम पूरे परिवार की ही बन जाती हो माँ.”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ मार्गशीष साधना🌻
आज का साधना मंत्र – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – लम्बी कहानी
यह दुनिया की सबसे लम्बी कहानी है। इसे गिनीज बुक में दर्ज़ किया गया है,.’ जानकारी दी जा रही थी।
उसके मन में विचार उठा कि पहली श्वास से पूर्णविराम की श्वास तक हर मनुष्य का जीवन एक अखंड कहानी है। असंख्य जीव, अनंत कहानियाँ..। हर कहानी की लम्बाई इतनी अधिक कि नापने के लिए पैमाना ही छोटा पड़ जाए।…फिर भला कोई कहानी दुनिया की सबसे लम्बी कहानी कैसे हो सकती है..?
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “अदरक के पंजे”)
☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “अदरक के पंजे” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
सड़क के किनारे बनी उस छोटी -सी गन्ने के रस की दुकान पर मैं प्रायः चला जाता हूँ। परिचित दुकानदार होने के नाते कुछ देर रुकता हूँ। ग्राहकों की ओर देखता हूँ। ग्राहक रस पीने की एक पूरी प्रक्रिया से गुजरते हैं। रसवाला जब ताजा गन्ना मशीन में डालता है तो ग्राहक का ध्यान मशीन के पास लगा होता है। पहली बार में मशीन से रस का एक फव्वारा -सा फूटता है। ( कुदरत ने कहाँ-कहाँ मीठे झरने छुपा रखे हैं। ) ढेर सारा गाढ़ा रस जब मशीन से बर्तन में गिरता है तो बिना पीए ही एक मिठास -सी महसूस होती है। पर यह मिठास गन्ने को दुबारा मशीन में डालने तक ही रहती है। जब गन्ने को तिबारा मशीन में डाला जाता है, तो मशीन से निकलने वाले रस में हल्की -सी कड़वाहट लगती है। रस पीने का मूड कुछ कम हो जाता है। और जब उसी गन्ने को चौथी बार मरोड़ते हुए मशीन से निकाला जाता है, तो ग्राहक हल्का -सा अपमानित-सा महसूस करता है। जैसे बड़े बाबू को किसी ने चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी समझकर सलाम कर दिया हो। कुछ लोग तो चौथी बार देखने के बजाय इधर-उधर मुंँह फेर लेते हैं। गन्ने में अब क्या रस निकलेगा! हाँ, छिलके का रस जरुर निकलता है। पीने का रस विरस होने लगता है।
एक बार मैंने रसवाले को सारी प्रक्रिया बताते हुए कहा -” चौथी बार गन्ने को मशीन से मत निकाला करो। ग्राहक का ध्यान मशीन पर होता है, वह अपमानित -सा महसूस करता है। इससे उसे पुनः रस पीने की इच्छा नहीं होती। “
रसवाले ने कहा -” तुम ठीक कहते हो, पर चौथी बार से ही तो हमारा पेट भरता है। ” उसने समझाते हुए बताया -” पहली बार में तो गन्ने की लागत निकलती है, दूसरे में दुकान का मेण्टेनस, तीसरे में पावर, बर्फ, पुलिस, कमेटीवाले निपटते हैं। हमें जो कुछ बचता है, वह चौथी बार में ही बचता है।”
” मगर इससे ग्राहक संतुष्ट नहीं होता। ” मेरे इस कथन पर उसने मुझसे कहा -‘ शुरू में नहीं होता मगर बाद में होता है। तुमने चौथी प्रक्रिया ध्यान से नहीं देखी, चौथी बार गन्ने को मरोड़कर जब हम मशीन में से निकालते हैं, तब हम गन्ने के साथ एक अदरक का टुकड़ा भी डालते हैं। इससे ग्राहक के ईगो को एक संतुष्टि मिलती है। अदरक अपने चरपरे स्वाद से छिलके के रस को गन्ने के रस में इस तरह मिलाती है कि छिलके का रस गन्ने का रस बन जाता है और गन्ने का रस और जायकेदार बन जाता है। गन्ने का रस तो आप लोग पी लेते हो, हमें तो छिलकों पर ही गुजारा करना होता है। ” एक पल रुककर वह कुछ उदास स्वर में फिर बोला –
” आजकल धन्धे में काम्पिटेशन बहुत हो गई है। जिसे काम नहीं मिलता, वह रसवंती की दुकान खोल लेता है। सीजन में तो इतनी दुकानें लगती है कि देश में जितने गन्ने नहीं होते उससे ज्यादा दुकानें गन्ने के रस की होती है। ऐसे में इस भीड़ में, छिलकों के सहारे ही टिके होते हैं। हमें इसी अदरक का सहारा होता है। गमों को जिस प्रकार हलके-फुलके चरपरे लमहें कम कर देते हैं, ये चरपरी अदरक , जीने की हिम्मत देती है। हमारे लिए यही लक्ष्मी है, देवता है, जो इस बेकारी और महँगाई में भी पूरे परिवार को थामती है, सँभाले रखती है। “
” शायद इसीलिए कुदरत ने अदरक को पंजे दिए हैं……। “
और उसकी आँखों से खारा-सा, चरपरा-सा दो बूंद रस टपक पड़ा।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी ‘नये क्षितिज’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 169 ☆
☆ कथा कहानी ☆ नये क्षितिज☆
शुभा अपना हाथ ऊपर उठाकर देखती है। त्वचा सूखी और सख़्त हो गयी है। उम्र का असर साफ दिखता है। शीशा उठाकर देखती है तो बालों में कई अधूरी-पूरी रजत-रेखाएँ दिखायी पड़ती हैं। चेहरा भी सख़्त हो गया है, पहले जैसा चिकनापन और मृदुता नहीं रही। सड़क पर चलते अब लोगों की निगाहें उसके चेहरे पर टिकती नहीं। सरकती हुई दूसरी चीज़ों की तरफ चली जाती हैं, जैसे वह भी सड़क पर चलती हज़ार सामान्य चीज़ों में से एक हो।
घर के बाहर कोने में वह नीम का दरख्त अब भी है जहाँ वह रोज़ सवेरे पिता की कुर्सी के बगल में दरी बिछाकर पढने बैठ जाती थी। जब हवा चलती तो पत्तियों की सरसराहट से संगीत फूटता। पिता अपना काम-धाम निपटाते रहते और वह अपनी किताब, कॉपी, पेंसिल और स्केल से जूझती रहती। पढ़ने में वह तेज़ थी। कई बार पिता पूछते, ‘पढ़ लिख कर क्या बनेगी तू?’ शुभा का एक ही जवाब होता, ‘डॉक्टर बनूँगी, बाबा।’
पिता कहते, ‘अच्छी बात है। लेकिन पैसा-बटोरू डॉक्टर मत बनना। जिनके पास पैसा नहीं है उनके लिए भी कोई डॉक्टर चाहिए। एक बार मेरे सामने एक बूढ़े ने डॉक्टर से आँख की जाँच करायी। डॉक्टर जब फीस माँगने लगा तो बूढ़ा हक्का-बक्का हो गया। उसे पता ही नहीं था कि आँख की जाँच कराने की फीस लगती है। पैसा भी नहीं था उसके पास। डॉक्टर आगबबूला हो गया। जाँच का कार्ड छीन कर अपने पास रख लिया और बूढ़े को भगा दिया।’
अपनी कॉपी-किताब में उलझी शुभा को पिता की आधी बात समझ में आती है। कहती है, ‘तुम फिकर न करो बाबा। मैं सब का इलाज मुफ्त करूँगी।’
पिता हँसते, कहते, ‘देखूँगा। नहीं तो कान ऐंठने के लिए मैं तो हूँ ही।’
लेकिन पिता शुभा के कान ऐंठने के लिए रहे नहीं। एक दिन अपने भलेपन और भोलेपन की वजह से वे सड़क पर गुंडों से पिटते एक युवक को बचाने पहुँच गये। पचीसों लोग दर्शक बने यह तमाशा देख रहे थे। गुंडों के लिए यह इज़्ज़त का सवाल था। नतीजा यह कि पिता पेट में छुरे का वार झेल पर वहीं सड़क पर लंबे लेट गये और उन्हें वहाँ से तभी हटाया जा सका जब गुंडों ने अपना नाटक पूरा कर भद्र लोगों के लिए मंच खाली किया। सहायता उपलब्ध कराते तक बहुत देर हो चुकी थी।
शुभा को चौबीस घंटे नसीहत देने वाले पिता मौन हो गये और शुभा अचानक मजबूरन बड़ी हो गयी। चीनू और टीनू अभी नादान थे। वही कुछ करने लायक थी। माँ इस आघात से हतबुद्धि हो गयीं। उनका सारा आत्मविश्वास जाता रहा। अब दरवाज़े पर कोई भी आता तो ‘शुभी, शुभी’ चिल्लाकर पूरे घर को सिर पर उठा लेतीं। दुनिया और हालात का सामना करने का उनका सारा बल ख़त्म हो गया। ज़्यादातर वक्त वे अपने कमरे में कुहनी पर सिर रखे, आँखें बन्द किये लेटी रहतीं।
शुभा के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। घर में दो नादान भाई थे जिन्हें पढ़ा-लिखा कर आदमी बनाना था। वर्तमान भले ही बिगड़ गया हो, भविष्य को सँवारना ज़रूरी था, अन्यथा अँधेरे की सुरंग कभी ख़त्म नहीं होगी। वह सवेरे दोनों भाइयों को डाँट-डपट कर उठा देती और उन्हें स्कूल के लिए तैयार होने को छोड़ उनके लिए टिफिन-बॉक्स तैयार करने में लग जाती। भाइयों के लिए वह बिलकुल पुलिस-इंस्पेक्टर बन गयी थी। स्कूल से सीधे घर आना ज़रूरी था, और पढ़ाई के घंटों में कोई दूसरा काम दीदी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता था। इस व्यवस्था में अगर माँ भी हस्तक्षेप करतीं तो उन्हें भी डाँट खानी पड़ती।
भाइयों की सब हरकतों पर शुभा की चौकस निगाह रहती थी। वे कहाँ खेलते हैं, किसके साथ उठते बैठते हैं, इसकी मिनट मिनट की खबर उसे रहती थी। जहाँ भी वे खेलते-कूदते वहाँ दीदी एकाध चक्कर ज़रूर लगाती।
एक बार मुसीबत हो गयी जब मुहल्ले के लड़के दोनों भाइयों को सिनेमा ले गये। तीन-चार दिन बाद एक भेदी ने भेद खोल दिया और बात दीदी तक पहुँच गयी। उसके बाद घर में जो लंकाकांड हुआ उसकी याद करके दोनों भाई आज भी सिहर कर माथे पर हाथ रख लेते हैं। शुभा रणचंडी बन गयी थी और माँ के लिए बेटों को उसकी मार से बचाना खासा मुश्किल काम हो गया था। माँ चिल्लातीं, ‘अरे निर्दयी, अब मार ही डालेगी क्या बच्चों को?’ और शुभा जवाब देती, ‘हाँ मार डालूँगी। कम से कम बाबा के जाने के बाद इन्हें आवारा बनाने का कलंक तो नहीं लगेगा।’
शुभा का क्रोध भाइयों तक ही सीमित नहीं रहा। उसके बाद वह मुहल्ले के दादा प्रेम प्रकाश पर भी टूटा जिनकी अगुवाई में यह टोली सिनेमा देखने गयी थी। शुभा छड़ी लेकर पागलों की तरह पिल पड़ी और प्रेम प्रकाश का सारा प्रकाश-पुंज उस दिन बुझ गया। शुभा के हाथों मार खाने के बाद उसका दादापन तो अस्त हुआ ही, शहर में उसका राजनीतिक कैरियर भी उठते उठते डूब गया।
लेकिन परिवार की देखरेख के चक्कर में शुभा की अपनी पढ़ाई मार खाने लगी। स्कूल तो उसने पास कर लिया, लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसके पास वक्त नहीं था। माँ की मानसिक स्थिति कुछ ऐसी थी कि घर में अकेली होते ही उन्हें अवसाद घेर लेता था। बच्चों के भविष्य के बारे में सारी दुश्चिंताएँ उन्हें जकड़ने लगतीं। बच्चों के घर लौटने तक वे उद्विग्न, घर में इधर-उधर घूमती रहतीं। इसलिए शुभा ने आगे की पढ़ाई घर में ही रहकर करने का निश्चय किया।
जैसा कि होता है, शुभा के रिश्तेदार, परिवार के मित्र और शुभचिन्तक अब माँ को शुभा की शादी की नसीहत देने लगे थे। माँ तत्काल उनसे सहमत होतीं और कहतीं कि कोई ठीक लड़का हो तो उन्हें बतायें। शुभा सुनती तो उसे हँसी और रुलाई दोनों ही आती। वह जानती थी कि अभी उसका विवाह संभव नहीं है। वह चली जाएगी तो माँ की पूरी गृहस्थी बैठ जाएगी। भाई अपने रास्ते से भटक जाएँगे और माँ के लिए उन्हें सँभालना मुश्किल हो जाएगा।
बी.ए. पास करने और माँ का मन कुछ स्थिर होने पर उसने एक चिकित्सा-उपकरण बनाने वाली कंपनी में नौकरी प्राप्त कर ली थी। अब दुनिया कुछ भिन्न और विस्तृत हो गयी। कुछ आत्मबल भी बढ़ा। नये वातावरण में घर के दबाव और चिन्ताओं से कुछ देर मुक्त रहने का अवसर मिला।
ऐसे ही वक्त गुज़रता गया। बड़ा चीनू बी.एससी. पास करके एक दवा कंपनी में नौकरी पा गया। जल्दी ही उसकी शादी की बातें होने लगीं। घर में बहू आ जाए तो माँ को सहारा देने के लिए कोई रहे। माँ दबी ज़ुबान में कहतीं, ‘शुभी की शादी से पहले चीनू की शादी कैसे कर दें?’ शुभा हँस कर कहती, ‘माताजी, फालतू की बकवास छोड़ो। बूढ़ों की शादी की चिन्ता मत करो। चीनू की शादी कर डालो।’
माँ दुखी हो जातीं। ‘कैसी जली-कटी बातें करती है यह लड़की! कैसी पत्थरदिल हो गयी है।’
अन्ततः चीनू की शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। जल्दी ही टीनू कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नौकरी करने नागपुर चला गया।
चीनू की पत्नी को यह घर भाता नहीं था। छोटा सा, पुराना घर था। उसमें बहू की कोई स्मृतियाँ नहीं थीं। फिर उसे लगता था कि इस घर में दीदी की कुछ ज़्यादा ही चलती है। जब मन होता तब वह मायके जा बैठती। चीनू परेशान होने लगा। एक दिन शुभा ने खुद ही कह दिया, ‘भाई, तू अपनी बीवी के लिए कोई अच्छा सा घर ढूँढ़ ले और चैन से रह। हम माँ-बेटी यहाँ रह लेंगे।’ कुछ समय पाखंड करने के बाद चीनू ने घर ढूँढ़ लिया और अपनी गृहस्थी लेकर उसमें चला गया।
अब शुभा शीशे में अपनी बढ़ती उम्र के प्रमाणों को देखती रहती है। माँ उम्र बढ़ने के साथ-साथ निर्बल हो रही है। कभी हो सकता है कि वह घर में अकेली रह जाए और उसका मददगार कोई न हो। माँ ने अभी भी उसकी शादी की रट छोड़ी नहीं है। उनका विचार है अभी भी कोई नया नहीं तो दुहेजू वर तो मिल ही सकता है। कोई एकाध बच्चे वाला भी हुआ तो क्या हर्ज है? ऐसे एक दो प्रस्ताव आये भी हैं। लेकिन अब शुभा की विवाह में रुचि नहीं है। विवाह के नाम से स्फुरण होने वाली उम्र गुज़र चुकी है। अब शादी का नाम उठते ही अनेक आशंकाएँ मन को घेरने लगती हैं। ज़िन्दगी का जो ढर्रा बन गया है उसमें कोई बड़ा मोड़ पैदा करना संभव नहीं है।
घर के पास ही एक तालाब है। पक्की सीढ़ियों और छायादार वृक्षों के कारण वहाँ का दृश्य मनोरम हो गया है। शाम को अक्सर शुभा एक-दो घंटे वहीं गुज़ारती है।नहाने धोने वालों की वजह से वहाँ का वातावरण गुलज़ार बना रहता है। शुभा को देख कर कुछ पाने की लालच में एक दो बच्चे उसके पास आ बैठते हैं। शंकर से शुभा की पटती है। बातूनी और प्यारा लड़का है, लेकिन वक्त की मार झेलता, निरुद्देश्य भटकता रहता है।
एक दिन शुभा ने उससे पूछा, ‘स्कूल नहीं जाता तू?’
‘न! बापू नहीं भेजता। कहता है फीस और किताबों के लिए पैसे नहीं हैं।’
शुभा ने पूछा, ‘मैं फीस और किताबों के पैसे दूँ तो पढ़ेगा?’
शंकर खुश होकर बोला, ‘पढ़ूँगा, लेकिन बापू से बात करनी पड़ेगी।’
शुभा ने उसका हाथ पकड़ा, कहा, ‘आ चल। तेरे बापू से बात करती हूँ।’
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
आप इस कथा का मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद निम्न लिंक्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद 👉 Broken HeartTranslated by – Mrs. Rajni Mishra
☆ कथा कहानी – टूक-टूक कलेजा ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
सामान का आखिरी कनस्तर ट्रक में जा चुका था। बच्चों को अपने सामान से भरे ट्रक के साथ निकलने की जल्दी थी। वे अपनी गाड़ी में बैठकर, बगैर हाथ हिलाए चले गए थे और मैं वहीं कुछ पलों तक खाली सड़क को ताकती, हाथ हिलाती खड़ी रह गयी थी। जब इस बात का अहसास हुआ तो झेंपकर इधर-उधर देखने लगी कि मेरी इस हरकत को कहीं कोई पड़ोसी देख तो नहीं रहा!
खिसियाते हुए घर में कदम रखा तो उसी खामोशी ने मुझे झिंझोड़ दिया जिसे अपने पुराने वाले घर को छोड़ते हुए मैंने अपने भीतर कैद की थी। उन पलों को महसूस करने लगी जब अपने उस लाड़ले घर को छोड़कर मैं इस नए घर में आयी थी। उसी घर को, जिसमें मैंने अपने जीवन के सबसे अच्छे बारह साल व्यतीत किए थे। माँ कहा करती थीं- “बारह साल बाद तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं।” न जाने किसके दिन फिरे थे, मेरे या घर के! मेरे दिन तो उस घर में बहुत अच्छे थे। शायद इसीलिए मैं नयी जगह आ गयी थी ताकि उस घर के दिन फिर जाएँ! जो भी नया परिवार उसमें रहने के लिए आए वह उसे मुझसे अधिक समझे!
यह बात और थी कि मैंने उस घर की सार-सँभाल में अपनी जान फूँक दी थी। मन से सजाया-सँवारा था। कमरों की हर दीवार पर मेरे हाथों की चित्रकारी थी। हर बल्ब और फानूस की रौशनी मेरी आँखों ने पसंद की थी। मेरी कुर्सी, मेरी मेज और मेरा पलंग, ये सब मिलकर किसी पाँच सितारा होटल का अहसास देते थे। मैंने उस आशियाने पर बहुत प्यार लुटाया था और बदले में उसने भी मुझे बहुत कुछ दिया था। वहाँ रहते हुए मैंने नाम, पैसा और शोहरत सब कुछ कमाया। इतना सब कुछ पाने के बावजूद अचानक ऐसा क्या हुआ कि मैंने उसे छोड़ने का फैसला कर लिया! शायद मेरे परिवार के खयालों की दौड़ उसे पिछड़ा मानने लगी थी। हालाँकि उसका दिल बहुत बड़ा था, इतना बड़ा कि हम सब उसमें समा जाते थे। एक-एक करके जरूरतों की सूची बड़ी होती गयी और घर की दीवारें छोटी होती गयीं। सब कुछ बहुत ‘छोटा’ लगने लगा। इतना छोटा कि उस घर के लिए मेरी असीम चाहत, मेरे अपने दिलो-दिमाग से रेत की तरह फिसलती चली गयी।
याद है मुझे, जब हम उस घर में आए थे तो मैं चहक-चहककर घर आए मेहमानों को उसकी खास बातें बताती थी- “देखो, यहाँ से सीएन टावर दिखाई देता है; और पतझड़ के मौसम की अनोखी छटा का तो कहना ही क्या! रंग-बिरंगे पत्तों से लदे, पेड़ों के झुरमुट, यहाँ से सुंदरतम दिखाई देते हैं। यहाँ का सूर्योदय किसी भी हिल स्टेशन को मात देने में सक्षम है। सिंदूरी बादलों से निकलता सूरज जब सामने, काँच की अट्टालिकाओं पर पड़कर परावर्तित होता है तो ये सारी इमारतें सोनेरी हो जाती हैं, सोने-सी जगमगातीं।”
बेचारे मेहमान! उन्हें जरूर लगता रहा होगा कि मैं किसी गाइड की तरह उन्हें अपना म्यूजियम दिखा रही हूँ। सच कहूँ तो वह छोटा-सा घर मेरे जीवन की यादों का संग्रहालय ही बन गया था। सबसे प्यारा और सबसे आरामदायक घर जिसने मेरी तमाम ऊर्जा को मेरे लेखन में जगह देने में कोताही नहीं बरती। सामने दिखाई देती झिलमिल रौशनियों के सैलाब में खोकर मैंने कई कहानियाँ लिखीं, उपन्यास लिखे। कई कक्षाएँ पढ़ायीं। कोविड में भी मुझे यहाँ से दिखाई देता, रौशनी से नहाता यह शहर कभी उदास नहीं लगा।
देखते ही देखते मैं उस घर की हर ईंट, हर तकलीफ से वाकिफ हो चुकी थी। कभी कोई चीज़ टूटकर नीचे बिखरे उसके पहले ही उस पर मेरी तेज़ नजर पड़ जाती और मैं उसकी मरम्मत करवा देती। वह भी शायद मेरी थकान समझ लेता था। उस समय कहीं से गंदा नजर न आता और मैं संतोष की साँस लेकर अच्छे से आराम कर लेती। हम एक दूसरे से इस कदर परिचित थे! फिर भी, मैं उसे छोड़कर यहाँ नए, बड़े घर में आ गयी थी। सवेरे उठकर दुनिया देखने का मेरा वह जज़्बा इस नए मकान में कहीं दबकर रह गया था। यह है बहुत बड़ा, लेकिन जमीन पर, उस छोटे मकान की तरह सीना ताने ऊँचाई पर नहीं खड़ा है। छोटे लेकिन बड़े दिल वाले लोग मुझे हमेशा अच्छे लगे हैं। यही तो उस घर की खास बात थी, उसका दिल।
हर सुबह उस उगते सूरज की लालिमा को निहारते हुए, मुट्ठी में जकड़कर अपने भीतर तक कैद किया है मैंने। उसकी नस-नस को जब मैं शब्दों में चित्रित करती तो घर वाले कहते- “तुम ईंटों से प्यार करती हो जो बेजान हैं। फर्श से बात करती हो जो खामोश है।” लेकिन सच कहूँ तो मैंने उन सबको सुना है। घर का ज़र्रा-ज़र्रा मेरे हाथों का स्पर्श पहचानता था। जब-जब झाड़-पोंछकर साफ करती, तब-तब ऐसा लगता था जैसे वह घर हँसकर, बोलने लगा है।
उसी घर को छोड़ते हुए, अपने सामान को ठीक से ट्रक पर चढ़ाने की चिंता में मैं इतनी व्यस्त थी कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाई थी। अपने उसी घर की चाबी किसी और को पकड़ाते हुए मेरा मन जरा भी नहीं पसीजा था बल्कि स्वयं को बहुत हल्का महसूस किया था मैंने, मानो किसी कैद से मुक्ति मिल गयी हो। उस घर से चुप्पी साधे निकल गयी थी मैं। घर उदास था, मुझे जाते हुए देख रहा था। इस उम्मीद में कि मैं उसे छोड़ते हुए आँखों को गीला होने से रोक नहीं पाऊँगी, पर उस समय मुझे ताला बंद करने, पेपर वर्क करने और ऐसी ही कई सारी चिंताओं ने घेर रखा था। मैं अपनी नयी मंजिल की ओर बढ़ते हुए, उस आपाधापी में सब कुछ भूल गयी थी। मेरी सारी भावनाएँ इन दीवारों में समा गयी थीं। मुझे इस तरह जाता देख उन पर उदासी छा गयी थी। घर का हर कोना मेरा ध्यान खींचने की पुरजोर कोशिश कर रहा था जिसे मैंने कभी फूलों से, कभी फॉल के रंग-बिरंगे शो पीस से सजाया था। बाहर कदम रखते ही मेरे हाथ में सीमेंट की एक परत गिरकर आ गयी थी। मैं उस आलिंगन को समझ नहीं पाई थी और यह सोचा कि “अच्छा ही हुआ यहाँ से निकल लिए, इस घर के अस्थिपंजर ढीले हो रहे हैं। पुरानी तकनीक, आउट डेटेड।” मैंने उस परत को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया और तेजी से ट्रक के साथ निकल गयी थी।
आज जब बच्चों की तटस्थ आँखें, मेरी आँखों की गीली तहों से कुछ कहे बगैर ओझल हो गयीं तो मुझे लग रहा है कि मेरा अपना शरीर सीमेंट जैसा मजबूत और ईंटों जैसा पक्का हो गया है। भट्टी की आँच में पकी वे ईंटें जो सारा बोझ अपने कंधों पर लेकर भी ताउम्र खामोश रहती हैं। मेरा हर अंग उस खामोशी में जकड़-सा गया है। दिनभर चहकते, मेरे अगल-बगल मंडराते बच्चे, जरूरत पड़ने पर मुझमें पिता को पा लेते और माँ तो हर साँस के स्पंदन में उनके साथ ही होती। आज बच्चों का यह रूप अपने उन नन्हे बच्चों से अलग था जब वे स्कूल जाते हुए ममा को छोड़ने की तकलीफ अपनी आँखों से जता देते थे। बार-बार मुड़कर हाथ हिलाते रहते थे। मेरी हर मनोदशा को मुझसे पहले पहचान लेते थे। कुछ पढ़ने बैठती और चश्मा न मिलता तो तुरंत मेरे हाथ में लाकर थमा देते। आज उन्हीं दोनों बच्चों ने अपने अलग घरों में जाते हुए ममा को पलट कर देखा तक नहीं था।
मैंने बच्चों की सुविधा के लिए उस घर को छोड़ा था। अब बच्चों ने अपनी सुविधा के लिए मुझे छोड़ दिया। अचानक इतना ‘बड़ा’ घर भी ‘छोटा’ पड़ने लगा या फिर शायद मैं ही छोटी हो गयी थी और बच्चों का कद बड़ा हो चला था। घर की अतिरिक्त चाबियाँ मुझे थमाकर बच्चों ने जैसे मुक्ति पा ली थी। पुरानेपन और छोटेपन से मुक्ति का अहसास! शायद मुझे छोड़ते हुए उन्हें भी उतनी ही जल्दी रही होगी। मेरा अस्तित्व उनके लिए उस मकान की तरह ही फौलादी था, भाव प्रूफ। उन्हें मेरे अस्थिपंजर ढीले होते दिख गए होंगे।
सूखे आँसुओं की चुभन से परे मेरा शरीर मुझे पहले से कहीं अधिक मजबूत लगा। पक्की दीवारों से बना हुआ, मुझे किसी भी भावुकता के मौसम से मुक्त रखता हुआ। सीमेंट और कंक्रीट इस या उस मकान में नहीं, मेरे हाड़-माँस के भीतर कहीं गहरे तक समा गये हैं। अपने बच्चों के लिए मैं भी एक मकान से ज्यादा कुछ नहीं हूँ। ये खामोश दीवारें चीख-चीखकर मेरे अपने ही शब्द दोहरा रही हैं, “पुरानी तकनीक, आउट डेटेड।” मैंने भी इस सच को स्वीकार कर लिया है कि नयी तकनीक में घर बोलते हैं, इंसान नहीं।
कान जरूर कुछ सुन रहे हैं, शायद नया घर ठहाके लगा रहा है या फिर इसमें पुराने घर की आवाज का अट्टहास शामिल है। बरस-दर-बरस, ममतामयी पलस्तर की परतों से ढँका मेरा कलेजा टूक-टूक हो गया था, जड़वत।