हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रीमहालक्ष्मी साधना 🌻

दीपावली निमित्त श्रीमहालक्ष्मी साधना, कल शनिवार 15 अक्टूबर को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी तदनुसार शनिवार 22 अक्टूबर तक चलेगी।इस साधना का मंत्र होगा-

ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस ??

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में इतनी भीड़ कि पैर रखने को भी जगह नहीं। अलबत्ता भारतीय समाज की विशेषता है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

🙏 शुभ धन त्रयोदशी। 🙏

प्रात: 4:56 बजे, 25.10.2019 (धनतेरस)

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 102 ☆ ठूंठ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘ठूंठ’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 102 ☆

☆ लघुकथा – ठूंठ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

वह घना छायादार वृक्ष था हरे -भरे पत्तों से भरा हुआ। न जाने कितने पक्षियों का बसेरा, कितनों का आसरा। आने जानेवालों को छाया देता,शीतलता बिखेरता। उसकी छांव में कुछ घड़ी विश्राम करके ही कोई आगे जाना चाहता,उसकी माया ही कुछ ऐसी थी। ऐसा लगता कि वह अपनी डालियों में सबको समा लेना चाहता  है निहायत प्यार और अपनेपन से।  धीरे-धीरे वह  सूखने   लगा? उसकी पत्तियां पीली  पड़ने लगी,बेजान सी। लंबी – लंबी बाँहों जैसी डालियाँ  सिकुड़ने लगीं। अपने आप में सिमटता जा रहा हो जैसे। क्या हो गया उसे? वह खुद ही नहीं समझ पा रहा था। रीता -रीता सा लगता, कहाँ चले गए सब? अब वह  अपनों की नेह भरी नमी और  अपनेपन की गरमाहट के लिए  तरसने लगा।  गाहे-बगाहे पशु – पक्षी आते। पशु उसकी सूखी खुरदरी छाल से पीठ रगड़ते और चले जाते। पक्षी सूखी डालों  पर थोड़ी देर बैठते और कुछ न मिलने पर फुर्र से उड़ जाते। वह मन ही मन कलपता कितना प्यार लुटाया  मैंने सब पर,  अपनी बांहों में समेटे रहा, दुलराता रहा पक्षियों को अपनी पत्तियों से। सूनी आँखों से देख रहा था वह दिनों का फेर। कोई आवाज नहीं थी, न पत्तियों की सरसराहट और न पक्षियों का कलरव। न छांव तले आराम करते पथिक  और न  इर्द गिर्द खेलते बच्चों की टोलियां, सिर्फ सन्नाटा, नीरवता पसरी है चारों ओर। काश!  कोई उसकी शून्य में निहारती  आँखों की भाषा पढ़ ले, आँसुओं का नमक चख ले। पर सब लग्गी से पानी पिला रहे थे। वह दिन पर दिन सूखता जा रहा था अपने भीतर और बाहर के सन्नाटे से।  आसपासवालों के लिए तो  शायद वह जिंदा था नहीं। सूखी लकड़ियों में जान  कब तक टिकती ?  हरा-भरा वृक्ष धीरे – धीरे ठूंठ  बन रह  गया |

एक अल्जाइमर पीड़ित माँ धीरे – धीरे मिट्टी में बदल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कथा कहानी – बड़ों की दुनिया में – भाग – २ ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

आप इस कथा का मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद निम्न लिंक्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 

मराठी भावानुवाद 👉 मला नाही मोठं व्हायचं… भाग २   – सौ. उज्ज्वला केळकर 

अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद 👉 In the world of Elders Part – 2 Translated by – Mrs. Rajni Mishra

☆ कथा कहानी – बड़ों की दुनिया में – भाग – २ ☆ डॉ. हंसा दीप 

इसी उहापोह में एक सप्ताह निकल गया, अभी तक कोई नया काम परी को सूझा नहीं है। आज शनिवार है। सब बाहर घूमने जा रहे हैं, रॉयल ओंटेरियो म्यूज़ियम देखने। जब वे लोग अंदर पहुँचे तो सब कुछ भव्य था। बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ, काँच के बॉक्स में बेहद नायाब तरीके से सजायी हुई थीं। लेकिन परी वहाँ के सुंदर, अनोखे संग्रहों को नहीं देख रही थी वह तो उस गाइड को देख रही थी जो मीठी आवाज़ में बहुत अच्छी तरह वहाँ का, उन चीज़ों का इतिहास बता रही थी और सभी बहुत ही शांति से उसे सुन रहे थे। कपड़े भी बहुत अच्छे पहने थे उस गाइड ने। काली स्कर्ट, काला ब्लैज़र और गले में लाल स्कार्फ। नैम टैग गले में टंगा था। नया आइडिया उसके दिमाग में कुलबुलाने लगा। ऐसे हील वाले जूते पहन कर वह भी गले में परी का नैम टैग डाल कर गाइड का काम कर सकती है।

वे वापस घर आए तो जो दिन भर किया था वह सब कुछ नानी को फोन पर बताना था। यह एक अच्छा मौका था उसके लिए। सामने टंगा मम्मी का ब्लैज़र पहन लिया, हाई हील के जूते भी पहने और ऊन की डोरी बना कर एक कागज उसमें पिरो लिया जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था “परी”। अपना नैम टैग गले में लटका कर सारी तैयारी पूरी करके नानी को फेस टाइम किया। हूबहू उस गाइड की तरह नानी को फोन पर बताने लगी जो-जो भी उसने वहाँ देखा था। यह भी बता दिया कि वह बड़ी होकर गाइड बनना चाहती है। नानी खूब हँसीं। कहने लगीं – “क्या बात है परी, बहुत बढ़िया। ओ हो मेरे बच्चे को यह काम करना है। गाइड क्यों बनोगे बच्चे आप, आपकी नानी प्रोफेसर है। बनना ही है तो प्रोफेसर बनो न। खूब पैसे मिलेंगे।”

वह तो इस आशा में थी कि नानी उसकी बात को समझेंगी, वे उससे बहुत प्यार करती हैं लेकिन नहीं, वह गलत सोचती थी। नानी को कैसे समझाए कि वह तो जानती तक नहीं कि प्रोफेसर कैसे पढ़ाता है, उसे बच्चे कितना पसंद करते हैं। जब कुछ मालूम ही नहीं तो वह उसके बारे में कैसे सोच सकती है। परी का काम करने का उत्साह उसके लिए एक पहेली बनता जा रहा था। कैसे सुलझाए इस पहेली को।

सामने मेज पर फैले उसके वाटर कलर और क्रेयान्स पर नज़र गई तो क्लिक हुआ कि उसे पेंटिंग का बहुत शौक है। उसका सबसे पसंदीदा काम तो पेंटिंग करना है। पूरी बुद्धू है वह। पहले क्यों नहीं सोचा इसके बारे में। चलो, अभी तो देर नहीं हुई है। अब उसके पास एक ऐसा काम है करने के लिए जो शायद सबको पसंद आए। उसके मम्मी-पापा उसे और छोटू को आर्ट गैलेरी ऑफ ओंटेरियो ले गए थे एक बार। वहाँ बड़े-बड़े चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी। ऐसे कई चित्र दिखाए गए थे उसे और कहा था – “देखो बेटा, रंगों का कमाल। कलाकार की मेहनत कैसे रंगों को खूबसूरती से सजाती है। चित्रकला कल्पनाओं और रंगों के बेहतरीन मिलाप से जन्म लेती है।”

आखिरकार, उसने एक अच्छा काम खोज ही लिया। इस काम से किसी को कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती।

उसने अपने खाली समय में एक के बाद एक कई चित्रों को बनाया और मम्मी-पापा से कह दिया – “यह मेरा आखिरी फैसला है। मैं कलाकार बनूँगी।”

मम्मी-पापा ने एक दूसरे को देखा और फिर परी को देखा। वह एकटक मम्मी-पापा दोनों को देख रही थी। दोनों एक साथ बोल रहे थे या कोई एक बोल रहा था उसे पता नहीं पर कानों में आवाज़ आ रही थी – “कलाकार तो आप हो ही बच्चे। बहुत अच्छे चित्र बनाए हैं आपने। हमें पसंद भी है आपका यह काम। पर आपका खास काम, फुल टाइम का काम कुछ और होना चाहिए, कलाकार को पार्ट टाइम रखो। यह एक शौक हो सकता है पर आपका मुख्य काम नहीं। जो फुल टाइम कलाकार होते हैं वे तो भूखों मरते हैं।”

फुल टाइम, पार्ट टाइम कुछ पल्ले नहीं पड़ा उसके। भूखे मरने की बात भी गले से नीचे नहीं उतरी। कल तक तो बहुत तारीफ करते थे उन विशालकाय चित्रों की, आज तो भाषा बदल गयी है।

परी बहुत उदास है। बहुत कोशिश कर ली उसने अपना काम चुनने की। इन सब बड़े लोगों की बातें बहुत बड़ी हैं। ये समझते ही नहीं कि जो उसने देखा है और जो पसंद आया है वही तो कर सकती है वह, उसी का ख़्वाब देख सकती है। जो उसने देखा ही नहीं है, और अगर देखा भी है और उसे पसंद नहीं है तो वह काम परी कैसे कर सकती है। उसके हर पसंदीदा काम को ये सब लोग रिजेक्ट कर देते हैं।

अब परी ने बड़े होने का ख़्याल दिमाग से निकाल दिया है वह छोटी ही ठीक है। अपने दूध के दाँत ढूँढ रही है वह ताकि उन्हें फिर से लगा सके।

  – समाप्त –

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कथा कहानी – बड़ों की दुनिया में – भाग – १ ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

आप इस कथा का मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद निम्न लिंक्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 

मराठी भावानुवाद 👉 मला नाही मोठं व्हायचं… भाग १  – सौ. उज्ज्वला केळकर 

अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद 👉 In the world of Elders Part – 1 Translated by – Mrs. Rajni Mishra

☆ कथा कहानी – बड़ों की दुनिया में – भाग – १ ☆ डॉ. हंसा दीप 

परी आठ साल की है। उसे बड़े होने का बहुत शौक है। वह जल्दी बड़ी होना चाहती है। अभी–अभी उसके दूध के दाँत टूटे हैं जिन्हें एक छोटी-सी डिब्बी में सम्हाल कर रखा है उसने। छोटे-छोटे उभरते वयस्क दाँतों को दिखाते हुए वह अपने आपको बड़े लोगों में शामिल करने लगी है। वह रोज़ स्कूल के बाद कई ऐसे काम करना चाहती है जो उसे बड़ा बना दें। वही करना चाहती है जो वह देखती है और जो काम करना उसे पसंद है।  

जैसे कि उसे अपनी टीचर बहुत पसंद है। वे एक जापानी गुड़िया की तरह दिखती हैं। उसे बहुत अच्छी लगती हैं। वे सब बच्चों को अच्छी लगती हैं। उनका नाम है मिस वांग। तो उसकी पहली पसंद है मिस वांग बनना। वैसे ही पढ़ाना, वैसे ही कपड़े पहनना और वैसे ही मुस्कुराना। हाथ में स्केल लेकर बोर्ड पर लिखे गए शब्दों को समझाना। साइंस के बारे में बताना। उन्हें सब कुछ आता है। जब उन्होंने बताया था कि बादल कैसे पानी बरसाते हैं तो पूरी कक्षा दंग रह गयी थी।

वही बात वैसी की वैसी जब घर आकर उसने अपने भाई निक जिसे वह कभी-कभी छोटू भी कहती है, को समझाने की कोशिश की तो वह ध्यान ही नहीं दे रहा था। परी को समझ में नहीं आया कि यही सब जब मिस वांग ने कक्षा में कहा था तो पूरी कक्षा “ओ वाह” कर रही थी। मगर उसके छोटू ने तो इतनी अच्छी बात पर ध्यान भी नहीं दिया। सच तो यह है कि छोटू पूरा का पूरा बुद्धू है, खेलने में लगा रहता है बस। बड़े उत्साह से उसने मम्मी-पापा को बताया तो वे भी “हूँ हाँ” करते रहे। शायद इसीलिये परी को लगा कि उसे अभी मिस वांग की तरह समझाना नहीं आता है। वे बहुत अच्छी तरह समझाती हैं तो ही सब “ओ वाह” करते हैं।

अपनी मम्मी को बताया कि अब वह बहुत मेहनत करेगी, लिखने की, पढ़ने की और खास तौर से समझाने की प्रेक्टिस करनी पड़ेगी क्योंकि उसे मिस वांग की तरह कक्षा दो की  टीचर बनना है। पता नहीं क्यों मम्मी को यह अच्छा नहीं लगा, बोलीं – “तुम प्रायमरी स्कूल की टीचर कैसे बन सकती हो परी, तुम्हें तो डॉक्टर बनना है।”

“नहीं मम्मी, मुझे डॉक्टर नहीं बनना। मुझे किसी को सुई लगाना अच्छा नहीं लगेगा और कड़वी-कड़वी दवाई खिलाना तो बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा। डॉक्टर तो बहुत खराब होता है। सब बच्चे डॉक्टर को देखकर रोते हैं।”

पता था उसे जब-जब वे शॉट्स के लिए जाते थे डॉक्टर के पास तो बहुत देर बाहर बैठना पड़ता था। उसके बाद जब उनका नंबर आता तो डॉक्टर आकर घुप्प से सुई डाल देती थी उसकी बाँह में। उफ़ कितना दर्द होता था। ऐसे कोई कैसे बच्चे को सुई चुभा सकता है। ऐसा काम तो वह कभी नहीं करेगी।  

परी या छोटू दोनों में से किसी को भी कभी बुखार आता था तो वे डॉक्टर के क्लिनिक जाते थे। बेचारा छोटू तो उस कमरे में घुसते से ही रोने लग जाता और तब तक रोता रहता जब तक कि वे वापस बाहर नहीं आ जाते। जो बच्चों को रुलाए ऐसे लोग उसे बिल्कुल पसंद नहीं हैं इसीलिए उसे डॉक्टर नहीं बनना, कभी नहीं।  

डॉक्टर नहीं, टीचर नहीं तो क्यों न वह सैलून वाला काम करने के बारे में सोचे। सब लोग सैलून जाते हैं। उसे भी तो बाल कटवाने जाना पड़ता है। पापा तो हर सप्ताह जाते हैं। मम्मी भी आईब्रो बनवाने जाती हैं। तो आज उसने सैलून खोलकर दादी, मम्मी दोनों को अपने सैलून में बुलाया। दोनों मेम को चाय-कॉफी के लिए भी पूछा। दोनों के बाल बनाने की कोशिश की। झूठमूठ नेल पालिश लगायी। धागे से आईब्रो बनाने की कोशिश की। धागा छुआ और हटा लिया उतने में भी मम्मी “ऊं आं” करने लगी थीं। उनका असली क्रेडिट कार्ड लेकर नकली तरीके से स्वाइप किया। बहुत खुश थी वह।  

तभी पापा आ गए। उसने उन्हें भी बाल में जेल लगाकर ठीक करने को कहा। पापा ने मना कर दिया, कहने लगे – “क्या परी, तुम भी न! तुम ये काम नहीं कर सकतीं। मेरी राजकुमारी लोगों के बाल बनाएगी! आईब्रो बनाएगी! नहीं, कभी नहीं।”

उसने सोचा अब यह काम भी मेरी लिस्ट से कट गया है, तो फिर करे तो क्या करे। क्यों न कोई अच्छी-सी दुकान शुरू करे। घर में इतने बेकार खिलौने हैं जिन्हें कोई छूता भी नहीं है। वे दोनों अब उन पुराने खिलौनों से तो खेलते नहीं हैं। तो उसने अपने पुराने खिलौनों की दुकान लगा ली और बेचने लगी। उसका छोटा भाई भी इसमें मदद करने लगा। जिनके काम के हैं वे इनके पैसे दे दें और अपनी पसंद का खिलौना खरीद लें। हर खिलौना अगर डॉलर शॉप की तरह एक डॉलर में बेच देती है तो अच्छी कमाई हो जाएगी। बाज़ार में कभी, कहीं इतना सस्ता खिलौना नहीं मिलेगा।

लेकिन यह काम उसकी दादी को पसंद नहीं आया। दादी कहती हैं – “दुकान खोलना भी हो तो नैम ब्रांड की खोलो परी, सेकंड हैंड की नहीं, यूज़्ड चीज़ों की नहीं।”  

अब क्या करे वह। हाँ, आइडिया, दादी की पसंद का काम करने के बारे में सोचने लगी। सोचा गर्मी के दिन हैं बाहर टेबल लगा कर सही का लैमोनेड बना कर बेचेगी। एक डॉलर में एक गिलास बेचे तो गर्मी में इधर से निकलने वाले लोग खरीद ही लेंगे। नींबू निचोड़ लो, खूब सारा पानी डाल दो और शक्कर डाल दो। यह तो हमारी कक्षा ने स्कूल में भी किया था और सबसे ज़्यादा हमारी कक्षा के पैसे इकट्ठे हुए थे।

वह मेज, गिलास आदि सामान जुटा ही रही थी कि दादाजी ने टोका। शायद अब उनकी बारी थी ना कहने की, बोले – “तुम इतने छोटे काम के बारे में मत सोचो बेटा। अपना तो बड़ा फाइव स्टार रेस्टोरेंट है, पूरे शहर में नंबर वन। इसलिए बड़े काम के बारे में सोचो।”

परी जानती है दादाजी घर में सबसे बड़े हैं। वे सारे बड़े काम ही पसंद करते हैं। फिर भी वह समझने की चेष्टा कर रही थी कि ये काम रियल में कई लोग करते हैं उन लोगों के मम्मी-पापा या दादा-दादी उन्हें कभी मना नहीं करते। मैं कोई भी काम करना चाहती हूँ तो मेरा ऐसा काम किसी को पसंद ही नहीं आता। यह मेरे साथ अन्याय है, बहुत निराशाजनक है।

क्रमशः…

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 53 – कहानियां – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 53 – कहानियां – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मिलन बाबू जब धीरे धीरे वाट्सएप ग्रुप में रम गये तो उन्होंने पाया कि दोस्तों से बातचीत और हालचाल की जगह वाट्सएप ग्रुप में फारवर्डेड मैसेज पोस्ट करने का ही चलन बन गया है, त्यौहारों पर बधाई संदेशों के तूफानों से मिलन मोशाय परेशान हो गये, चार पढ़ते चालीस और आ जाते. फिर पढ़ना छोड़ा तो मैमोरी फुल, दोस्तों ने डिलीट फार ऑल का हुनर सिखाया तो फिर तो बिना पढ़े ही डिलीट फॉर ऑल का ऑप्शन बेधड़क आजमाने लगे. इस चक्कर में एक बार किसी का SOS message भी डिलीट हो गया तो भेजने वाला मिलन बाबू से नाराज़ हो गया, बोलचाल बंद हो गई. पहले जब वाट्सएप नहीं था तब मिलन बाबू अक्सर त्यौहारों पर, जन्मदिन पर ,एनिवर्सरी पर, अपने दिल के करीबियों और परिचितों से फोन पर बात कर लेते थे. किसी के निधन की सूचना पर संभव हुआ तो अंत्येष्टि में शामिल हो जाते थे या फिर बाद में मृतक के घर जाकर परिजनों से मिल आते थे पर अब तो सब कुछ वाट्सएप ग्रुप में ही होने लगा. मिलन बाबू सारी मिलनसारिता और दोस्तों को भूलकर दिनरात मोबाइल में मगन हो गये और ईस्ट बंगाल क्लब के फैन्स के अलावा उनके कुछ दुश्मन, उनके घर में भी बन गये जो खुद को नज़रअंदाज किये जाने से खफा थे और उनमें नंबर वन पर उनकी जीवनसंगिनी थीं. कई तात्रिकों की सलाह ली जा चुकी है और ली जा भी रही है जो इस बीमारी का निदान झाड़फूंक से कर सके.निदान उनके कोलकाता के दुश्मन याने ईस्ट बंगाल क्लब के फैन ने ही बताया कि दादा, फिर से मिलन मोशाय बनना है तो वाट्सएप को ही डिलीट कर डालो. आप भी खुश और घर वाले भी. 😊😊😊😊😊😊😊

कभी,आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था. “गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालुम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी.हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गल्ती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी. आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी. शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था. शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा ,बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करनेवाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना, स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं. हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी. ये “वह” रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक ” बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे. वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.

जारी रहेगा…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी – “एहसासों का दरिया”)  

☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

चा -पांच कमरे का सरकारी मकान है। सुबह 10बजे मम्मी को उनके विभाग की सरकारी गाड़ी ले गई, फिर कुछ देर बाद पापा को उनके विभाग की गाड़ी ले गई… मैं हाथ हिलाता रह गया, पीछे मुड़ा तो अचानक गलियारे में लगी बाबूजी की श्वेत श्याम मुस्कुराती हुई तस्वीर ने रोक लिया….। कैसे भूल सकता हूं बाबूजी को…, उनकी प्यारी  गोद जिसमें आराम था, सुकून था और थी प्यार की गर्मी। कैसे भूल सकता हूं बचपन के उन दिनों को जब बाबूजी मुझे गोद में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे…। जीवन में क्या क्या करना है और क्या नहीं, यह सब वे मुझे रास्ते भर बताते चलते थे। बाबूजी का प्यार मेरे लिए पूंजी बन गया। रामायण और महाभारत की प्रेरणादायक कहानियां… ज्ञान के खजाने की चाबी… शब्दकोश को समृद्ध बनाने की कलाबाजी, सभी कुछ मुझे बाबूजी से मिली। मेरे कदमों ने उन्हीं की उंगली पकड़कर चलना सीखा। जीवन जीने की कला का पाठ स्कूल में कम पर बाबूजी ने मुझे ज्यादा पढ़ाया। स्कूल आते जाते रास्ते में मेरी फरमाइश लालीपाप की रहती और बाबूजी को उतनी ही याद रहती।

पांचवीं की परीक्षा के रिजल्ट ने पापा -मम्मी की महात्वाकांक्षा बढ़ा दी थी। पापा -मम्मी ने मुझे बड़े शहर के प्रतिष्ठित स्कूल के हॉस्टल में पहुंचा दिया था। मुझे याद है बड़े शहर भेजते हुए बाबूजी तुम मुस्कराने का नाटक बखूबी निभा रहे थे। बाबूजी, न तुम मुझसे जुदा होना चाहते थे और न ही मैं तुमसे अलग होना चाहता था….

फिर हॉस्टल में ऊब और अकेलापन, मेरे अंदर अवसाद ले आया। कभी कभी पापा -मम्मी मिलने आते तो खीज सी उठती,तब बाबूजी तुम मुझे फोन पर समझाते और उन परिंदों की कहानी सुनाते जिसमें परिंदे जब अपने बच्चों को उड़ना सिखाते तो धक्का दे देते और पेड़ पर बैठे देखते कि उनके बच्चे कैसे उड़ना सीखते हैं,तब बाबूजी तुम कहते कि विपरीत परिस्थिति हो, परेशानी हो या कितना भी अकेलापन हो, ये सब एक नई उड़ान का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे समय समय के साथ नई उड़ानों में बाबूजी तुम मेरे साथ होते थे।समय पंख लगाकर उड़ता रहा और मैंने कालेज में दाखिला ले लिया…तब खबरें आतीं…

बाबूजी चिड़चिड़े हो गये हैं, बात बात में पापा -मम्मी से झगड़ते रहते हैं और पापा -मम्मी ने बाबूजी को वृद्धाश्रम भेज दिया है। घर की आया ने फोन पर बताया कि बाबूजी वृद्धाश्रम नहीं जाना चाहते थे पर मम्मी ने जबरदस्ती लड़ झगड़ कर उन्हें वहां भेज दिया और उनकी श्वेत श्याम तस्वीर घर के पीछे बाथरूम की तरफ जाने वाले गलियारे में लगा दी गई है।

आजीविका के चक्कर और बड़ा आदमी बनने की मृगतृष्णा में हम परिवार से दूर बड़े शहरों में अकेलेपन की पीड़ा झेलते हुए टूटते परिवार की तस्वीरों को देखते हुए खामोश जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं, तभी तो बाबूजी के बारे में मैंने पापा -मम्मी से कभी भी चर्चा नहीं की। उनके वृद्धाश्रम भेजे जाने पर मैं हमेशा चुप रहता आया।

जिंदगी सिर्फ मौज मस्ती और खुशी नहीं है इसमें दुःख और मायूसी भी है। इसमें ऐसी घटनाएं भी हो जातीं हैं जो कभी सोची न गई हों, की बार सब कुछ उलट -पलट हो जाता है और ऐसा ही कुछ घर की आया के फोन से मालुम हुआ कि पापा आजकल देर रात से घर पहुंचते हैं, मम्मी और पापा की अक्सर झड़पें होती रहती हैं, कभी कभी शराब के नशे में घर लौटते हैं, कुछ अनमने से रहते हैं। दौरे का बहाना बनाकर किसी महिला मित्र के साथ बाहर चले जाते हैं, मम्मी का ब्लड प्रेशर आजकल बढ़ता ही रहता है और वे भी डाक्टर के चक्कर लगातीं रहतीं हैं। पापा और मम्मी में बहुत कम बात होती है।अब घर में मेलजोल का वैसा माहौल नहीं है जैसा बाबूजी के घर में रहने से बना रहता था। मम्मी बाबूजी से मिलने वृद्धाश्रम कभी नहीं जातीं। पापा महीने में एक बार बाबूजी से मिलने जाते हैं पर दुखी मन से गेट से तुरंत लौट आते हैं। फोन पर आया की बातों को सुनकर मैं परेशान हो जाता… बाबूजी क्यों घर छोड़कर चले गए? जीवन भर तो उन्होंने सबका भला किया। पापा को सभी सुविधाओं देकर पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाया, खुद भूखे रहकर पापा को भरपूर सुख सुविधाएं दीं।

जिंदगी के बारे में तो ऐसा सुना है कि जिंदगी में हमें वही वापस मिलता है जो हम दूसरों को देते हैं, तो फिर बाबूजी को वह सब क्यों वापस नहीं मिला। मुझे लगता है जीवन में खुशी एक तितली की तरह होती है जिसके पीछे आप जितना दौड़ते हैं वह आगे उड़ती ही जाती है और हाथ नहीं आती है। मैं अपने आप को समझाता हूं… बड़ी नौकरी मिलने पर बाबूजी को अपने पास इस बड़े शहर में ले आऊंगा, फिर उन्हें इतनी खुशी और सुख दूंगा कि उनका बुढ़ापा हरदम हंसी खुशी और आराम से कट जाएगा।इस संसार में अच्छे से जीने के लिए विश्वास, प्यार और मेलजोल की जरूरत होती है।घर से मेरे आने के बाद पापा -मम्मी और बाबूजी के बीच ऐसा क्या घटित हो गया कि विश्वास, प्यार मेलजोल सब कुछ टूटकर बिखर गया।

इधर कुछ दिनों से मेरे अकेलेपन के बीच नेहा की दस्तक बढ़ गई है, उससे दिनोदिन लगाव बढ़ता जा रहा है। अक्सर हम लोग मौज-मस्ती करने कभी गार्डन, कभी सिनेमा हॉल जाने लगे हैं। कभी पार्टियों में नाच गाना चलता है तो कभी पूर्ण समर्पण के साथ नेहा मुझ पर न्यौछावर हो जाती है…. नयी बात अभी ये हुई है कि मुझे एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा पद मिल गया है, खुशी और उत्साह से नेहा मेरा हाथ थामे एक बार बाबूजी से मिलने आतुर है…

मैंने तय किया कि नेहा को लेकर बाबूजी के चरणों में अपना सर रख दूंगा और फिर कहूंगा… बाबूजी तुम जीत गए।

मैं एक बड़ा आदमी बन गया हूं। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जनरल मैनेजर का पद संभाल लिया है… और आज हम ट्रेन से अपने घर जाने के लिए रवाना हो गए हैं। स्टेशन से उतरकर घर जाने के लिए टैक्सी से चल पड़े हैं, अचानक बाबूजी तुम याद आ गये, मैंने टैक्सी ड्राइवर को पहले वृद्धाश्रम चलने को कहा, टैक्सी वृद्धाश्रम की तरफ दौड़ने लगी है, वृद्धाश्रम के गेट पर रुककर मैंने नेहा का हाथ पकड़कर टैक्सी से उतारा और पूछताछ काउंटर पर बाबूजी के बारे में पूछताछ की। केयरटेकर हमें बाबूजी की खोली की तरफ लेकर चला। एक टूटी सी खटिया में भिनभिनाती मक्खियों के बीच बाबूजी लेटे हुए थे, शरीर टूट सा गया था, दाढ़ी बहुत बढ़ चुकी थी,गाल पिचके, आंखें घुसी हुई हड्डियों के कंकाल में तब्दील बाबूजी पहचान में नहीं आ रहे हैं। बाबूजी ने आंखें खोली। मेरी उपलब्धियों को सुनकर उनके बेजान चेहरे पर हल्की सी मुस्कान झिलमिलाई और अचानक हताशा में बदल गई..

बाबूजी ने हाथ उठाकर नेहा और मुझे आशीर्वाद दिया और तकिए के नीचे से कुछ पैसे निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए बेजान आवाज में बोले – ‘बेटा मेरा एक छोटा सा काम कर देना, कफन के लिए सस्ता सा कपड़ा ख़रीद कर ले आना ‘

वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था और बाबूजी ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद ली थीं….

मैं अपने मोबाइल से पापा -मम्मी को फोन लगा रहा था,उधर से लगातार आवाजें आ रहीं थीं “आऊट ऑफ कवरेज एरिया”….. आउट ऑफ कवरेज एरिया…..।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 111 – पाप का भागी कौन—पाप किसने किया? ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #111 🌻 पाप का भागी कौन—पाप किसने किया? 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। उसे बड़े मनोयोग पूर्वक संभालता, पेड़ लगाता, पानी देता। एक दिन गाय चरती हुई बाग में आ गई और लगाये हुए कुछ पेड़ चरने लगी। ब्राह्मण का ध्यान उस ओर गया तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने एक लट्ठ लेकर उसे जोर से मारा। कोई चोट उस गाय पर इतने जोर से पड़ी कि वह वहीं मर गई। गाय को मरा जानकर ब्राह्मण बड़ा पछताया। कोई देख न ले इससे गाय को घसीट के पास ही बाग के बाहर डाल दिया। किन्तु पाप तो मनुष्य की आत्मा को कोंचता रहता है न। उसे संतोष नहीं हुआ और गोहत्या के पाप की चिन्ता ब्राह्मण पर सवार हो गई।

बचपन में कुछ संस्कृत ब्राह्मण ने पढ़ी थी। उसी समय एक श्लोक उसमें पढ़ा जिसका आशय था कि हाथ इन्द्र की शक्ति प्रेरणा से काम करते हैं, अमुक अंग अमुक देवता से। अब तो उसने सोचा कि हाथ सारे काम इन्द्र शक्ति से करता है तो इन हाथों ने गाय को मारा है इसलिए इन्द्र ही गोहत्या का पापी है मैं नहीं?

मनुष्य की बुद्धि की कैसी विचित्रता है, जब मन जैसा चाहता है वैसे ही हाँककर बुद्धि से अपने अनुकूल विचार का निर्णय करा लेता है। अपने पाप कर्मों पर भी मिथ्या विचार करके अनुकूल निर्णय की चासनी चढ़ाकर कुछ समय के लिए कुनैन जैसे कडुए पाप से सन्तोष पा लेता है।

कुछ दिनों बाद गौहत्या का पाप आकर ब्राह्मण से बोला— मैं गौहत्या का पाप हूँ तुम्हारा विनाश करने आया हूँ।

ब्राह्मण ने कहा—गौहत्या मैंने नहीं की, इन्द्र ने की है। पाप बेचारा इन्द्र के पास गया और वैसा ही कहा। इन्द्र अचम्भे में पड़ गये। सोच विचारकर कहा— ‛अभी मैं आता हूँ।’ और वे उस ब्राह्मण के बाग के पास में बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर गये और तरह−तरह की बातें कहते करते हुए जोर−जोर से बाग और उसके लगाने वाले की प्रशंसा करने लगा। प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण भी वहाँ आ गया और अपने बाग लगाने के काम और गुणों का बखान करने लगा। “देखो मैंने ही यह बाग लगाया है। अपने हाथों पेड़ लगाये हैं, अपने हाथों से सींचता हूँ। सब काम बाग का अपने हाथों से करता हूँ। इस प्रकार बातें करते−करते इन्द्र ब्राह्मण को उस तरफ ले गये जहाँ गाय मरी पड़ी थी। अचानक उसे देखते इन्द्र ने कहा। यह गाय कैसे मर गई। “ब्राह्मण बोला—इन्द्र ने इसे मारा है।”

इन्द्र अपने निज स्वरूप में प्रकट हुआ और बोला—‟जिसके हाथों ने यह बाग लगाया है, ये पेड़ लगाये हैं, जो अपने हाथों से इसे सींचता है उसके हाथों ने यह गाय मारी है इन्द्र ने नहीं। यह तुम्हारा पाप लो।” यह कहकर इन्द्र चले गये। गौ हत्या का पाप विकराल रूप में ब्राह्मण के सामने आ खड़ा हुआ।

भले ही मनुष्य अपने पापों को किसी भी तरह अनेक तर्क, युक्तियाँ लगाकर टालता रहे किन्तु अन्त में समय आने पर उसे ही पाप का फल भोगना पड़ता है। पाप जिसने किया है उसी को भोगना पड़ता, दूसरे को नहीं। यह मनुष्य की भूल है कि वह तरह−तरह की युक्तियों से, पाप से बचना चाहता है। अतः जो किया उसका आरोप दूसरे पर न करते हुए स्वयं को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा – नदी।)

☆ लघुकथा – नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

नदी थी। नदी के इस तरफ़ एक बस्ती थी, दूसरी तरफ़ भी एक बस्ती थी। नदी पर पुल था। दोनों बस्तियों के लोग इस पुल पर से होकर दूसरी बस्ती में आया-जाया करते। इन आने-जाने वालों में इस बस्ती की एक लड़की और उस बस्ती का एक लड़का भी था। कभी-कभी वे दूर से दौड़ते हुए आते और पुल के ठीक बीचोंबीच ऐसे लिपट जाते जैसे दोनों एक ही हों। इस बस्ती के कुछ लोग उस बस्ती के लोगों को असभ्य तथा जंगली कहते। उस बस्ती के कुछ लोग इस बस्ती के लोगों को पाखंडी कहते। ये लोग प्यार के दुश्मन थे तथा हमेशा दूसरी बस्ती को नष्ट करने की योजनाएंँ बनाते रहते। पुल के पास कभी-कभी इन लोगों के हुजूम देखे जाते, ये लोग ध्वजाएँ लहराते, साज़िशी ठहाके लगाते, आग उगलते भाषण देते। आख़िर एक दिन पुल पर कोहराम हुआ। पुल लाशों से भर गया। लाशें हटीं तो पुल तोड़ दिया गया।

अब नदी थी, पुल नहीं था। नदी के दोनों ओर पुलिस तैनात रहती। सुबह होते ही लड़की नदी के इस पार आ खड़ी होती, लड़का उस पार आ खड़ा होता। दोनों एक दूसरे को देखते रहते और चिल्लाते रहते। सूरज डूब जाता तो लौट जाते। पुलिस उनके इस तरह चिल्लाने से तंग आ गई, प्यार के दुश्मन तो उनके दुश्मन थे ही। फिर एक दिन दोनों अपनी जगहों पर दिखाई नहीं दिए। किसी को हैरानी नहीं हुई। सब जानते थे कि वे किसी दिन दिखाई देना बंद हो जायेंगे। उस दिन के बाद नदी का पानी मटमैला हो गया। हमेशा से शांत बहती नदी हर समय फुफकारती रहती। नदी में बड़े-बड़े पत्थर लुढ़कते नज़र आते। अब नदी, नदी जैसी नहीं, सर्वग्रासी दीर्घकाय पिशाचिनी जैसी दिखती थी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #122 – बाल कथा – “घमंडी के दांत घिस गए” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा – “घमंडी के दांत घिस गए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 122 ☆

☆ बाल कथा – घमंडी के दांत घिस गए ☆ 

(चंपक मार्च (प्रथम) 2009)

रस्सी पत्थर पर आहिस्ता आहिस्ता स्पर्श करते हुए जा रही थी. मगर घमंडी पत्थर को उस का मुलायम स्पर्श अच्छा नहीं लगा. वह तुनक कर बोला, “ओ सुतली, अपनी औकात में रह.”

रस्सी को पत्थर के बोलने का ढंग अच्छा न लगा. मगर फिर भी वह बड़े प्यार से बोली, “क्या हुआ भैया ?”

“क्या भैयावैया लगा रखी है. तुझे मालूम नहीं कि यह मेरे सोने का समय है और तू है कि मेरी नींद खराब कर रही है?” पत्थर ने अकड़ कर कहा, “चुपचाप यहां से चली जा. नहीं तो मैं तुझे काट कर कुएं में फेंक दूंगा.”

रस्सी क्या बोलती, वह चुप रही. पत्थर ने समझा कि रस्सी डर गई. इसलिए वह ज्यादा अकड़ कर बोला, “क्यों री, बहरी हो गई है क्या ?”

“नहीं भैया, मैं तो आप को सहलासहला कर मालिश कर रही थी. आप ने मेरे स्पर्श को मेरी छेड़खानी समझ लिया. 

आप समझ रहे हैं कि मैं आप को जगा कर आप की नींद खराब कर रही हूं. यह गलत है.” 

“अच्छा. तू मुझे सिखाएगी कि गलत क्या है और सही क्या है ?” पत्थर अपने तीखे दांत दिखा कर बोला, “तुझे मजा चखाना पड़ेगा,” कहते हुए पत्थर ने अपने दांत से रस्सी को काट लिया.

पत्थर ने जहां दांत लगाए थे वहां से रस्सी कमजोर हो गई. उस पर गांठ लगा दी गई.

यह देख कर रस्सी को अच्छा नहीं लगा. उस ने अन्य रस्सियों से शिकायत की. अन्य रस्सियां भी कुएं के पत्थर से परेशान थीं. उन्होंने तय किया कि वे पत्थर को सबक सिखाएंगी, ज्यादा घमंड अच्छा नहीं होता है.

यह तय कर रस्सियों की बैठक खत्म हुई, “आज के बाद सभी रस्सियां पत्थर की बीच वाले दांत पर से ऊपरनीचे आएंगीजाएंगी.”

“ठीक है,” सभी रस्सियों ने समर्थन किया.

इस घटना के बाद से सभी रस्सियां बारीबारी से पत्थर के तीखे दांत से ऊपरनीचे आनेजाने लगीं.

इधर पत्थर भी कम नहीं था. वह तीखेतीखे दांत लगालगा कर रस्सियां काटने लगा. मगर रस्सियों के आनेजाने से उस के दांत घिसने लगे थे.

एक दिन ऐसा आया कि पत्थर के दांत में रस्सियों के बड़ेबड़े निशान पड़ गए. अब उस में इतनी ताकत नहीं थी कि वह रस्सियों को काट सके.

पत्थर अपना घमंड भूल गया था. वह समझ गया था कि अब वह पहले की तरह ताकतवर नहीं रहा. इसलिए वह बातबात पर अकड़ता नहीं था.

“क्यों भाई, क्या हाल है?” एक दिन रस्सी ने पत्थर से पूछ लिया.

पत्थर क्या बोलता, उस के सभी दांत खराब हो चुके थे. रस्सी ने दोबारा उस से पूछा, “अरे भैया, क्या दांत के साथसाथ जवान भी घिस गई है, जो आप बोलते नहीं हो ?” 

“क्या करूं, बहन, ” पत्थर नम्रता से बोला, “मुझे उस वक्त पता नहीं था कि नम्रता भी एक गुण है. मैं तो समझता था कि कठोरता में ही ताकत है. इसी से सब काम होते हैं.”

रस्सी को पत्थर का स्वभाव बिलकुल बदलाबदला लगा था. वह कुछ मायूस भी था. इसलिए रस्सी ने पूछा,” मैं आप की बात समझी नहीं. आप क्या कहना चाहते हैं ?”

“यही कि तुम कितनी कोमल हो. मुझ से नम्रता से बात कर रही थी. मैं ने तुम्हें कठोर वचन कहे, तुम ने बुरा नहीं माना. अपना काम करती रही. मैं घमंड में था.” 

पत्थर अपनी रौ में कहे जा रहा था, “मगर तुम ने अपना काम जारी रखा. अब यह देखो, मेरे दांत, यह भी तुम्हारा मुलायममुलायम स्पर्श पा कर घिस गए हैं.”

वह बड़ी मुश्किल से बोल पा रहा था, “इसलिए मेरी कठोरता कहां काम आई. मेरे दांत बेकार होने से मुझे बोलने में परेशानी हो रही है, “कहते हुए वह चुप हो गया. 

पत्थर की आंखों में आंसू आ गए थे. इधर रस्सी उस के पश्चात्ताप पर दुखी थी. मगर अब क्या हो सकता था. पत्थर के दांत पर पड़े रगड़ के निशान मिट नहीं सकते थे.

इसलिए रस्सी को कहना पड़ा, “भाई, जो पैदा हुआ है, वह एक दिन तो नष्ट होगा ही. यह प्रकृति का नियम है, इसे हमें स्वीकार करना पड़ेगा.” 

“ठीक कहती हो, बहन, “पत्थर ने कहा तो रस्सी भी चुप हो गई. उसे मालूम हो गया था कि घमंडी का सिर कभी न कभी नीचा होता है.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उजास ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – उजास ??

अमावस की गहन रात में चार पथिक मिले। जिज्ञासा ने चारों से एक ही प्रश्न पूछा, ‘क्या दिख रहा है?’ ….’घुप्प अंधेरा है’, पहले ने उत्तर दिया। दूसरे ने कहा, ‘सवाल ही ग़लत है। अंधेरे में कभी कुछ दिखता है क्या?’ तीसरे ने कहा, ‘बेहद लम्बी काली रात है।’ चौथे ने कहा, ‘रात है, सो सुबह की आस है।’… समय साक्षी है कि केवल चौथा पथिक ही उजास तक पहुँचा।

© संजय भारद्वाज

संध्या 4:58 बजे, 13 सितम्बर 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print