हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – कल्पित सत्य – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– कल्पित सत्य–” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — कल्पित सत्य — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

कल्पना का एक गाँव हुआ। उस गाँव में एक ऋषि रहता था। वहाँ के लोगों को अपने गाँव के ऋषि से बहुत संबल मिलता था। एक बार दिनों वर्षा न होने की वजह से खेत सूखते चले जा रहे थे। ऋषि ने खेतों को हरा भरा कर दिया था। जब भी तूफान आया ऋषि ने उसे मानो संगीत की खनकती ध्वनि में बदल दिया। नदियों में बाढ़ आती नहीं थी क्योंकि उन्हें ऋषि का आदेश यही था। काँटे स्वयं न जानते थे चुभन उन के संस्कार में है। अंधेरा हो भी तो प्रकाश के लिए ताकि कोई राही रास्ते में भटक न जाए। शिक्षा का अभाव चल रहा था तो ऋषि ने हर घर को पाठशाला में परिवर्तित कर दिया था। पढ़ाने वाले घर के वे ही लोग हुए जो अनपढ़ हो कर भी ऋषि की कृपा से शिक्षा के शिखर हो गए थे। ऋषि से कहा जाता था हम आप के शरणागत हैं। ऋषि इस अलंकरण से अपने को बचाने का प्रयास करते हुए कण कण में बसे भगवान से कहता था इन्हें भक्ति की अपनी शरण में आने का आमंत्रण दो प्रभु। मेरी शरण इतनी छोटी है कि मैं स्वयं उस में ठीक से समा नहीं पाता हूँ। इतने लोग आएँ तो मैं इन्हें कहाँ बिठाऊँगा?

संसार के आज के हजारों आदमी कल्पना के उस गाँव के ऋषि को अपनी दूरबीन से देख लेते हैं। दूरबीन को उसी तरह थामे वे उस ऋषि के पास पहुँच जाते हैं। हरेक ऋषि से यही कहता है मैं आप को जादूगर मान कर आप के पास आया हूँ। मेरे साथ चलिए मैं आप को अपने युग के विशाल मठ में बिठाऊँगा। आप भगवान होंगे। विज्ञापन की जिम्मेदारी मेरी होगी। निवेदन बस इतना है आप पैसा उगाएँ।

ऋषि के ना करने पर वे क्रोधित हो कर अपनी दूरबीन से कहीं और देखने लगते हैं। अब इन सब की एक ही चाह होती है कल्पना का वह गाँव भूल से भी सत्य का आकार न ले। यही होने से उस ऋषि की छवि मिट सकती है।

***
© श्री रामदेव धुरंधर
28 — 10 — 2018 

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – सोने का पिंजरा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– सोने का पिंजरा–” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — सोने का पिंजरा — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

नामी धनवान के यहाँ बात पीछे ‘सोना’ रटने की जैसे एक परंपरा बन गई थी। कभी – कभी तो उनके यहाँ अपने घर – आंगन के कचरों के बारे में इस तरह से कहा जाता था मानो वह ‘सोना’ ही था, लेकिन पता नहीं किसकी नजर लग जाने से वह कचरा हो गया। लड़का उस घर में तो ‘सोना’ ही था। उनके यहाँ लड़की पैदा न हुई। लड़की के लिए कोई आकर्षण न होने पर भी सिर गर्व से तान कर कहा जाता था लड़की आती तो उसे ‘सोना’ मान कर सोने से निर्मित झूले में झुलाते। घर में चांदी, पीतल वगैरह तो पड़े ही रहते थे। पीतल की थाली हुई तो उसे महंगे सोने में परिवर्तित तो न कर पाते। पर नाम लिया तो सोने का ही। कहा जाता था सोने की थाली में खाने का मजा तो कुछ और ही होता है।

‘सोना सोना’ कहने वाले इस परिवार को पक्षी पालने का शौक हुआ। वे पालते तो तोता ही। तोता चाहे हरा होता है, लेकिन उन लोगों के लिए तोता सुन्दर होने से ‘सोना’ ही था। तोता खरीद लिया गया और अब उन्हें समझ आई पिंजरे के बारे में तो सोचा ही न गया। लोहे का पिंजरा खरीदा गया तो ‘सोना’ कह कर। तोता बहुत ध्यान से सुन रहा था। ‘सोना’ था तो उसने ले कर भागने का मनसूबा बना लिया। वह पक्षियों की जात में धनवान बन कर जीता। पहले से यह ज्ञान उसे न था तो इसी परिवार में उसे यह ज्ञान मिला। पास में ‘सोना’ है तो लोग सलाम करते हैं। तोता सोचता था आकाश में जब उड़े और अपनी जात के पक्षी उसे सलाम करें तो चुन चुन कर सलाम कबूल करेगा। ‘सोना’ से इतना गुमान तो आना ही चाहिए।

तोता अब तो अपनी समझ से सोना, लेकिन यथार्थ में लोहे का पिंजरा ले कर उड़ा। आकाश में उसे बोध हुआ वह तो महा कैद झेल रहा है। कहाँ वह चुन कर सलाम वरण करता, उलटे उसके सजातीय पक्षी तो उसे हँस हँस कर अपने पंखों से तालियाँ बजा रहे थे। तोते के दिमाग से अब यह भूत उतरा अपने पास ‘सोना’ होने से वह गुमान की जिन्दगी बसर कर सकता है। पर अपने पास ‘सोना’ था और इसका वह मोल जानता था तो इसे खेल — खेल में गँवाता नहीं। पक्षियों की अपनी दुनिया में लौट आने के लिए उसने विकल्प चुन लिया। वह ‘सोना’ किसी गरीब को दे देता। गरीब उसके ध्यान में था। एक दिन वह घायल होने पर डाली से गिर कर पेड़ के नीचे पड़े – पड़े कलप रहा था तो उस गरीब ने उसे पानी पिला कर नया जीवन दिया था।

तोता बल लगा कर उड़ा और उस गरीब के द्वार पर उतरा। गरीब ने उसे पहचान लिया। उस दिन तोता घाव से पीड़ित था और आज कैद से उसका दुख था। गरीब ने पिंजरा तोड़ कर उसे आजाद किया। पिंजरे में थका हारा हो जाने से तोता निष्प्राण सा हो गया था। गरीब ने उसे पीना पिला कर उसकी रुकती साँसों को गतिशील किया। तोता अब तो मग्न हो कर आकाश में उड़ चला। वह जब तक जीवित रहता उसे फक्र की अनुभूति होती रहती अपने जीवन दाता को ‘सोना’ दे कर अपना पक्षी जीवन कृतार्थ किया था।

***
© श्री रामदेव धुरंधर
05 — 11 — 2023

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आत्मकथा ? ?

?

-सुनो…

-हूँऽऽ…

-तुम आत्मकथा क्यों नहीं लिखते?

-क्यों लिखूँ? कोई नहीं पढ़ेगा मेरी आत्मकथा।

-बेवकूफ हो तुम। हॉट सेलर हैं आजकल आत्मकथाएँ। हाँ, कंटेंट थोड़ा कंट्रोवर्सी वाला होना चाहिए। जो लोग विवाद लिख रहे हैं, खूब बिक रहे हैं।

-लिखने दो उन्हें विवाद, मैं संवाद लिखता रहूँगा।

-सुनो…

-हूँऽऽ…

-तुम मत लिखना आत्मकथा।

-क्यों?

-कोई नहीं पढ़ेगा तुम्हारी आत्मकथा…!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  श्री लक्ष्मी-नारायण साधना सम्पन्न हुई । अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी💥 🕉️   

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 46 – वॉशरूम…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – वॉशरूम।)

☆ लघुकथा # 45 – वॉशरूम श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रूबी का ससुराल में पहला दिन था सभी लोग बहुत खुश लग रहे थे कहीं जाने की तैयारी चल रही थी।

रूबी को आकर उसकी सास ने कहा कि – “बहू जल्दी से तैयार हो जाओ। हमारे यहां का रिवाज है कि हमारे यहां बहू बेटों को शादी के बाद शीतला देवी मंदिर जाते  हैं, जो कि यहां से 40 किलोमीटर दूर है ।”

“वहां पर सत्यनारायण की कथा होगी।”

मेरी कुछ सहेलियां भी वहां पर पहुंचेंगे और तुम्हारी ननद अनु भी रहेगी ।

“यह जेवर और यह साड़ी पहन लेना।

मेरी नाक मत कटाना अच्छे से तैयार होना।”

“रूबी मां यह बहुत भारी जेवर और साड़ी है इतने भारी जेवर आज के जमाने में कौन पहनता है।”

“बकवास मत करो जैसा  कह रही हूं वैसा ही करो।”

“वह चुपचाप तैयार हुई और उसने अपने पति रोहित से कहा -“कि क्या इसी दिन के लिए मैंने डॉक्टरी की पढ़ाई की थी।”

“अब तुम्हारे साथ शादी करके क्या मुझे यह सब नौटंकी भी झेलनी पड़ेगी।”

रोहित – “बस आज की बात है माता के मंदिर जाना है और हमारे सारे रिश्तेदार बुआ और बहन लोग आ रही हैं” इसलिए मैंने तुमसे ऐसा कहा है।

वे सब लोग मंदिर में पहुंचे पंडित जी भी पहुंचे और पूजा शुरू हो गई पूजा 3 घंटे तक चली।

रूबी – ‘रोहित मुझे वॉशरूम जाना है।” 

कमला जी रूबी की जो सास है, उन्होंने कहा –

“यह सब नौटंकी या यहां नहीं चलेगी चुपचाप थोड़ी देर बिना बात किए बैठ नहीं सकते हो तुम दोनों।”

रूबी से बैठा नहीं जा रहा था और उसकी तकलीफ कोई नहीं समझ पा रहा था ।

” मेरी मति मारी गई और मैंने यह शादी की।”

तभी उसकी   (ननद) जो अनु दूर खड़े हो कर देख रही थी, उसको यह बात समझ में आ गई । और अपनी भाभी से कहा कि चलो।

अनु उसे मंदिर के वॉशरूम के सामने ले जाकर छोड़ दी ,वह  वॉशरूम से बाहर आते ही अपनी अनु के गले लग गई ।

अनु ने कहा कि भाभी कोई बात नहीं अब… “चलो जल्दी से हम लोग मंदिर चलते हैं ।”

मां कुछ नहीं बोलेगी?

वह बार-बार अनु को देख रही थी और उसकी आंखों ने सब कुछ बोल दिया।

रूबी की सास ने बोला कहां ले गई “अपनी भाभी को अनु”।

अनु बोली -“मां मैं भाभी को मंदिर का सिंदूर दिलाने के लिए लेकर गई थी “

“तुम्हारी बहू डॉक्टर है, इसे यह सब बातें तो नहीं पता होगी”

आप मां पूजा में व्यस्त थी ,इसीलिए मैं भाभी को लेकर चली गई…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – आकांक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘ऐसे पुरुष महान बनो…‘।)

☆ लघुकथा – आकांक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆ 

(देश की रक्षा कर रहे, बेटे ने सीमा से, अपनी बूढ़ी मां को खत लिखा,  जो दिवाली के दिन उन्हें मिला…)

मां,

     चरण स्पर्श,

मैं ठीक हूं, आप कैसी हैं, इस बार दिवाली पर घर आने को लिखा था,  पर छुट्टियां रद्द हो गईं, इसलिए नहीं आ पाया, आप ने फसल का बताया था, आदमी न मिलने के कारण नहीं कट पाई है, आप दौड़ धूप नहीं कर पा रही हैं, इसलिए मजदूर नहीं मिल पाए, कोई बात नहीं मां, परेशान मत होना, अपनी सेहत का ख्याल रखना, अभी मेरी ड्यूटी बॉर्डर पर बनी चौकी में है, आप सब देश के दिवाली मना रहे हो,  मां,  हम तो,  दिया भी नहीं जला सकते, यहां, , क्योंकि रोशनी में दुश्मन हमारी लोकेशन का पता लगा लेगा, इसलिए हम अंधेरे में रहकर ही प्रकाश पर्व की कल्पना कर रहे हैं, मां, पता नहीं ये क्यों लड़ते हैं, सब इंसान ही तो हैं, पर एक दूसरे के लहू के प्यासे, बिना किसी दुश्मनी के कारण भी दुश्मन हैं, यहां की तो हवाओं में भी बारूद की गंध आती है, और गोला बारूद के धमाकों की आवाज दिवाली के पटाखों का भ्रम पैदा करते हैं,  

मां, दुश्मन की भी तो मां होगी न, वो भी तेरे जैसा ही सोचती होगी न, अपने बेटे की लंबी उम्र की कामना करती होगी, पर पता नहीं किसकी कामना ईश्वर मंजूर करें, तुम्हारी या दुश्मन के मां की,

अच्छा मां, गोलियां चल सकती हैं,  रखता हूं,

अगर तुम्हारी कामना मंजूर हुई तो जल्दी ही आऊंगा..

                                             तुम्हारा बेटा..

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 263 ☆ कथा-कहानी – संकट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोवैज्ञानिक कथा  – ‘संकट । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 263 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ संकट

वह पचास का नोट चंपालाल की जेब में किसी गोजर जैसा सरसराता था। किसी भी वक्त वह उसकी उपस्थिति को भूल नहीं पाता था। उसे अपने बचपन की एक घटना याद आती थी। उसके गांव के ज़मीदार साहब गांव के किसी भी व्यक्ति की जेब में बिच्छू छुड़वा दिया करते थे और फिर उसकी बदहवासी देखकर हंसते-हंसते बेहाल हो जाते थे। उनके मज़ाक का शिकार न हंस सकता था, न रो सकता था। वह पचास का नोट भी चंपालाल की जेब में बिच्छू जैसा रेंगता था।

वह नोट उसे पिछले दिन एक शराबी ने पकड़ा दिया था। जब वह सवारी के इंतज़ार में मालवीय चौक पर अपने रिक्शे की सीट पर बैठा था, तभी वह शराबी जाने कहां से आकर धप से रिक्शे पर बैठ गया था। बैठते ही वह सीट पर फैल गया था। उसके बैठने का ढंग उसकी हालत को ज़ाहिर करता था। बैठकर अधखुली आंखों से शून्य  में ताकते हुए वह अस्फुट स्वर में बोला, ‘चल’।

चंपालाल ने पूछा, ‘कहां?’

लेकिन शराबी को उसकी बात से कोई गरज़ नहीं थी। वह आंखें बन्द किये थोड़ी देर चुप बैठा रहा, फिर आधी आंखें खोलकर दुबारा कुछ गुस्से से बोला ‘चल’।

परेशानी में चंपालाल ने सामने की तरफ रिक्शा बढ़ा दिया। वह धीरे-धीरे रिक्शा चलाता रहा। थोड़ी दूर चलकर वह रुकता और पूछता, ‘अब किधर चलूं ?’ और शराबी थोड़ी आंखें खोलकर जवाब देता, ‘आगे चल’।

इसी तरह वह करीब आधे घंटे तक सड़कों पर भटकता रहा। एक जगह रिक्शा रोकने पर शराबी ने आंखें खोलकर आसपास गौर से देखा और बोला, ‘यह कहां ले आया? मिलौनीगंज चल।’

संकेत पाकर चंपालाल ने रिक्शा मिलौनीगंज की तरफ बढ़ा दिया। एक जगह शराबी बोला, ‘रोक!’ और वह लड़खड़ाता हुआ उतर गया। उतरकर वह दो मिनट तक अपनी जेबों में हाथ ठूंसता रहा, इसके बाद उसने वह पचास रुपये का मुड़ा-तुड़ा नोट उसके हाथ में पकड़ा दिया।

बिजली के खंभे की रोशनी में चंपालाल ने वह नोट खोलकर देखा। देखकर उसका खून सूख गया। नोट गन्दा तो था ही, बीच में आधी दूर तक फटा था ।साक्षात मुसीबत। उसने शराबी की तरफ देखा। वह आंखें बन्द किये, टांगें पसारे, सामने वाले खंभे के नीचे बैठा था। वह उसके पास तक गया, उसे कंधे से हिलाया। शराबी ने आधी आंखें खोलीं। चंपालाल बोला, ‘यह नोट फटा है।’ शराबी ने ‘हूं’ कह कर फिर आंखें बन्द कर लीं।

तभी एक घर का दरवाज़ा खोलकर एक नौजवान निकला। चंपालाल ने उसे नोट दिखाया, कहा, ‘देखो, इन्होंने यह फटा नोट दिया है। अब कुछ बोल नहीं रहे हैं।’

नौजवान हंसा, बोला, ‘जो मिल गया उसे गनीमत समझो। भीतर गली में इनका घर है। वहां शिकायत करने जाओगे तो यह नोट भी छिन जाएगा। भला चाहते हो तो फौरन बढ़ जाओ।’

चंपालाल रिक्शा लेकर बढ़ गया, लेकिन वह नोट उसकी जेब में कांटे जैसा चुभने लगा। दिन भर में तीन चार सौ रुपये की आमदनी होती थी। उसमें से अगर पचास का नोट बट्टे-खाते में चला जाए तो कमाई का बड़ा हिस्सा बराबर हो गया। वह नोट उसके दिमाग पर बैठ गया। उसका सारा चैन खत्म हो गया।

उसे रास्ता चलना दूभर हो गया। पहले तो उसने कोशिश की कि नोट को किसी सवारी पर ही थोप दे। वह इसी चक्कर में था कि कोई सवारी उसे सौ या दो सौ का नोट दे और वह उसे बाकी के रूप में वह  पचास का नोट थमा दे। लेकिन उसकी मंशा पूरी नहीं हुई। दो सवारियां मिलीं, लेकिन दोनों ने उसे फुटकर रुपये ही थमाये। वह नोट जैसे उसके पास रहने की कसम खाये था।

एक जगह उसने बीड़ी का बंडल खरीदा और उस नोट को मोड़कर दुकानदार की तरफ बढ़ा दिया। वह ऊपर से लापरवाही का भाव दिखा रहा था, लेकिन उसका दिल धड़क रहा था। दुकानदार ने नोट को गुल्लक में फेंकने के बजाय उसे खोलकर गौर से देखा, फिर उसे चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। बोला, ‘इसेअपने पास रखो।’ चंपालाल ने थोड़ा आश्चर्यचकित होने का अभिनय किया, फिर उसे झख मार कर दूसरा नोट देना पड़ा। मन-ही-मन उसने दुकानदार को एक अंतरंग गाली दी।

वह घर की तरफ चल दिया, लेकिन उस नोट ने उसके सोच को एक ही दिशा में ला पटका था। वह सारे वक्त इसी उधेड़बुन में लगा था कि कैसे उससे छुटकारा पाये। आसपास की चीज़ें  और दृश्य उसके मन पर कोई छाप नहीं छोड़ रहे थे।

घर पहुंच कर वह रिक्शा खड़ा करके अनमने भाव से खटिया पर बैठ गया। उसके पहुंचने पर घर में उल्लास का वातावरण छा जाता था क्योंकि उसकी रोज़ की कमाई पर ही गृहस्थी की गाड़ी लुढ़कती थी। पांच साल की उसकी बच्ची उसकी गोद में चढ़ गयी और कुछ पाने की आशा में उसकी जेबें टटोलने लगी। लेकिन चंपालाल को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने खीझकर बच्ची को गोद से उतार दिया और बच्ची उसकी मन:स्थिति को समझ कर उदास होकर मां की गोद में मुंह छिपाकर लेट गयी।

घर पहुंच कर चंपालाल ने सबसे पहले पत्नी से दूसरे दिन के लिए खरीदी जाने वाली चीज़ों के बारे में पूछा। कारण वही था— उस नोट से पिंड छुड़ाना।

वह नुक्कड़ वाले सिंधी की दुकान पर पहुंचा। वहां तीन ग्राहक उपस्थित थे। चंपालाल चुपचाप उनके पीछे खड़ा हो गया। ग्राहक  सौदा लेते रहे। सभी उसी मोहल्ले के थे। उसने देखा कि शर्मा जी ने कुछ सामान लेकर सिंधी को सौ का नोट दिया। नोट एकदम खस्ताहाल था। सिंधी ने उसे बल्ब की रोशनी में देखा, फिर हंस कर बोला, ‘इसकी हालत तो खराब है, साहब।’

शर्मा चतुराई से हंसा, बोला, ‘रखो,रखो। निकल जाएगा। न चले तो कल हमको देना।’

सिंधी ने एक क्षण सोचकर नोट गुल्लक में फेंक दिया और बाकी पैसे निकाल कर शर्मा को दे दिये। इस दृश्य से चंपालाल को कुछ ढाढ़स हुआ।

 

 

जब उसका नंबर आया तो उसने रोज़ की अपनी मांग बता दी। सिंधी तटस्थ भाव से सामान तौलने लगा और चंपालाल का दिल धड़कने  लगा। सिंधी ने सामान काउंटर पर रख दिया। चंपालाल  ने वह नोट दूसरे नोटों से अलग  करके पहले से ही हाथ में ले रखा था ताकि सिंधी को दूसरे नोट न दिखें। उसने लापरवाही से नोट सिंधी की तरफ बढ़ाया। सिंधी ने नोट का कोना पड़कर उसे मरे चूहे की तरह ऊपर उठाया और उसी तरह उसे चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। व्यंग्य से बोला, ‘इतना बढ़िया नोट कहां से ढूंढ़ कर लाये? इसे संभाल कर रखो।’

चंपालाल को शर्मा का वाक्य याद था। बोला, ‘रख लो साईं, न चले तो हमको दे देना।’

सिंधी ने हाथ को और लंबा करके नोट  बिलकुल उसकी छाती तक पहुंचा दिया। बोला, ‘हां हां,जानता हूं, तू बड़ा धन्नासेठ है। तेरे पास तो नोटों का ढेर लगा है। दूसरा नोट दे, नहीं तो अपना रास्ता पकड़।’

चंपालाल ने मरे मन से दूसरा नोट निकाला और सामान उठाकर घर लौट आया। उस रात उसे रोटी  बेस्वाद लगी। वह नोट उसके हर क्षण को कुतर रहा था।

बिस्तर पर बड़ी देर तक वह इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि उस नोट से कैसे मुक्ति पायी जाए। फिर उसे नींद लग गयी। नींद में उसने देखा कि सिंधी ने उसका नोट बड़ी खुशी से ले लिया है और वह सामान लेकर खुश-खुश घर लौट रहा है। उसका मन प्रसन्न हो गया। जब उसकी नींद खुली तो थोड़ी देर तक वही भ्रम बना रहा। लेकिन बहुत जल्दी वह समझ गया कि वह केवल सपना था, और हकीकत अपनी जगह कायम  थी।

सवेरे उसकी चिंता कुछ कम हो गयी। उसने स्थिति से समझौता कर लिया और सोच लिया कि परेशान होने से कोई लाभ नहीं है, नोट देर-सवेर निकल ही जाएगा। लेकिन वह उस तरफ से निश्चिंत नहीं हुआ था। वह अब भी नोट से मुक्त होने के लिए सजग था।

दूसरे दिन उसने दो बार उस नोट से मुक्ति पाने की कोशिश की, लेकिन दोनों बार असफल रहा। वह समझ गया कि नोट के साथ-साथ कुछ दोष उसकी स्थिति का भी था। उसने कई सफेदपोशों को उसी तरह के नोटों का आराम से विनिमय करते देखा था। उसे दिक्कत इसलिए हो रही थी कि उसकी कोई साख नहीं थी, न ही वह किसी दुकान का बड़ा और बंधा ग्राहक था।

वह नोट उसी तरह उसके पुराने पर्स में बैठा रहा। चंपालाल जब पैसे रखने या निकालने के लिए पर्स खोलता तो उसे देखकर बुदबुदाता, ‘बैठे रहो बेटा। मेरा पीछा मत छोड़ना। हओ?’

 

 

शाम को जब वह अपने मोहल्ले के चौराहे पर सवारी के इंतज़ार में खड़ा था तभी उसे दूर से दीपक आता दिखा। सफेद  झक कुर्ता और अलीगढ़ी पायजामा। दीपक मोहल्ले के ठेकेदार प्रीतम सिंह का इकलौता बेटा था। वह ऊंचा पूरा,गौरवर्ण, सुन्दर युवक था। कामकाज के प्रति उसकी अरुचि थी और इसलिए बाप कुछ परेशान रहता था। लेकिन दीपक निश्चिंत था। उसके  हाथ में हमेशा सिगरेट होती थी और ओठों के कोनों में पान की लाली। उसका ज़्यादातर वक्त कॉफी हाउस, होटलों और पान की दुकानों में गुज़रता था।

शाम को मोहल्ले के किसी परिचित रिक्शे पर बैठकर किसी तरफ निकल पड़ना दीपक के शौकों में से एक था। रिक्शे पर बैठकर वह अपनी प्रिय दुकानों का चक्कर लगा आता था। बीच में दोस्तों-परिचितों के मिलने पर रिक्शा  रुकवा लेता और आराम से बातें करता रहता। रिक्शेवाले को शिकायत नहीं होती थी क्योंकि वह मज़दूरी आशा से ज़्यादा देता था। इसके अलावा वह रिक्शेवाले को चाय, पान और सिगरेट में अपना साथी बना लेता। इसलिए मोहल्ले के रिक्शेवाले उससे खुश रहते थे।

रिक्शे पर चलते हुए दीपक रिक्शेवाले से बेतकल्लुफी से बातें करता रहता। अक्सर उसकी बात स्वगत भाषण जैसी होती। एक बात वह अक्सर कहता, ‘बाप को बड़ी शिकायत है कि मैं कुछ करता धरता नहीं। लेकिन मैं क्यों करूं, भई? बाप ने इतना कमा लिया है कि दो-तीन पीढ़ियों का काम बिना कमाये चल सकता है। घर में कोई खर्च करने वाला भी तो चाहिए। बोलो भई, ठीक कहा न?’

रिक्शेवाला उसकी मज़ेदार बातें सुनकर प्रसन्न होकर सहमति में सिर हिलाता।

उस शाम सौभाग्य से दीपक चंपालाल के रिक्शे पर आकर जम गया। चंपालाल खुश हो गया। दीपक के अड्डे सब रिक्शेवालों को मालूम थे। चंपालाल उसे लेकर करीब डेढ़ घंटे तक घूमता रहा और उसकी बातों और व्यवहार का मज़ा लेता रहा।

लौटने पर उतरते वक्त दीपक ने चंपालाल को दो सौ का नोट देकर दाहिना हाथ उठा दिया। मतलब— सारा रख लो, कुछ लौटाने की ज़रूरत नहीं है। चंपालाल के ओठों पर हल्की मुस्कान आ गयी।

दीपक रिक्शे से उतर कर चला और चंपालाल ने दो सौ का नोट रखने के लिए जेब से निकाल कर पर्स खोला। पर्स खोलते ही उसे उस संकटकारक पचास के नोट का कोना दिखा। उसके दिमाग़ में एक विचार आया।

दीपक को आवाज़ देकर वह बोला, ‘भैया, थोड़ा काम था।’

दीपक घूम कर खड़ा हो गया। इत्मीनान से बोला, ‘बोलो यार।’

चंपालाल ने वह नोट उसे दिखाया, फिर बोला, ‘यह नोट एक दारूखोर ने दे दिया। अब इसे कोई लेता नहीं। यह  आफत गले पड़ गयी है। आप तो बैंक वैंक जाते रहते हो। इसे बदलवा दो।’

दीपक ने नोट की तरफ देख कर बिना कुछ बोले अपनी जेब से पर्स निकाल कर एक पचास का नोट चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। इसके बाद उसने वह फटा नोट अपने हाथ में लेकर उसे उलटा पलटा। दूसरे क्षण उसने उस नोट के चार टुकड़े किये और उन्हें ज़मीन पर फेंक दिया। इसके बाद वह मुड़कर आराम से चल दिया।

चंपालाल सकते की हालत में खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – उसके रहने से – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– उसके रहने से –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — उसके रहने से — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मैं एक दिन विश्व व्यापी शब्द स्रष्टा की कल्पना कर रहा था। बड़ा मन भावन लग रहा था। शब्द स्रष्टा ने अपनी एक निराशा के कारण भगवान से कहा, “मुझे ले चल भगवन।” भगवान ने कहा, “शब्द स्रष्टा के चले जाने से सृष्टि उदास हो जायेगी।” शब्द स्रष्टा यह सुनने पर संभल गया। वह गया नहीं। सचमुच उसके रहने से आज भी धरती और आकाश के आंगन हरे भरे हैं।
***
© श्री रामदेव धुरंधर
30 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 210 ☆ लघुकथा – धनतेरस ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय लघु कथा धनतेरस…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 210 ☆

☆ लघुकथा – धनतेरस ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते?त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।

‘क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।’ उसने कहा।

‘मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?’ कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।

ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: ‘ये मेरे लिए?’ मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। ‘मैं जाऊँ?’ शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। ‘जाकर अपनी झोपड़ी, कपड़े और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।

‘क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो’ पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।

‘हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस’ कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१.१०.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 45 – खोकर पाया…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खोकर पाया।)

☆ लघुकथा # 45 – खोकर पाया श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

 मां तुम कैसी हो कन्या खिलाना हो गया क्या-क्या बनाया तुम्हारे हाथ की खीर पुरी और सब्जी तो लाजवाब रहती है आज भी स्वाद मुझे याद आ रहा है। भाई भाभी यदि गुस्सा ना हो तो मैं आ जाऊं क्या है तुम कुछ बोल नहीं रही हो?  कमल जी से सकते लग गई और उनकी आंखों से आंसू गिर रहा था बेटी ने सिसकी की आवाज सुनकर कहां मां क्या बात है तुम रो क्यों रही हो?  क्या भैया ने कन्या खिलाने के लिए पैसे नहीं दिए या मन कर दिया कोई दिक्कत है तो बताओ मैं आता हूं हम मंदिर चलेंगे?  बेटा मुझे सुबह 5:00 से अरुण मंदिर में छोड़कर चला गया और बोला मैं आऊंगा और पैसे दूंगा और यही तुम कन्या भोजन करना पंडित जी को तो हर नवरात्रि में हर साल बुलाती थी अब इस साल वही कन्या भोजन कारण और ऐसा कहकर वह चला गया गुस्से से और मेरा सारा सा मेरी दो अटैची भर के कपड़े भी यही रखकर चला गया बेटा।  मैं पंडित जी के पास गई पर पंडित जी ने भी मना कर दिया यहां रहने से और बोला कि मेरी बहन बहुत व्यस्त आए हैं आप अपने रहने की व्यवस्था कहीं और कर ले मुसीबत में किसी ने मेरा साथ नहीं दिया मैं जीवन से हार कर रोती हुई मंदिर की सीढ़िया में बैठी हूं। आज बेटा अपने पास बैठे भिखारी भी मुझे अमीर दिख रहे हैं सब अपने बच्चे और परिवार के साथ खुश है।  माता रानी की इतनी सालों की सेवा का मुझे यह पुण्य मिला है।  मां तुम चिंता मत करो तुम क्या उसी पुराने वाले अंबे मंदिर में हो मैं अभी आता हूं। कमल जी की बेटी माधुरी 1 घंटे बाद अपनी मां के पास पहुंचती है।  उनकी रो-रोकर सूजी आंखें देखकर वह मां को ऑटो रिक्शा में बैठने को बोलती। अचानक बा रोते हुए बोलती है बेटी रहने दो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो हर किसी को अपने कर्म का दंड भोगना पड़ता है मैं भी अपने कर्म का दंड भोगूंगी । जब पिताजी घर और दुकान तुम्हारे भाई को दे रहे थे तब मुझे भी तुम्हें आधा हिस्सा देना चाहिए सब उसके हाथ पर सौंप दिया पिताजी के जाने के बाद तो उसके रंग-ढंग बदल गए घर कि मुझे नौकरानी बना के रखा कभी किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन अब तो बेटा हद हो गई है अब अपने ही घर से मैं निकाल दी गई एक नौकर की तरह है आप किस मुंह से तुम्हारे और दामाद जी के पास जाऊं आज मुझे जीवन का असली जीवन का ज्ञान सब कुछ खोकर ही पाया …. और उनकी आंखों से आंसू बहने लगता है।

तब बेटी ने कहा मां कोई बात नहीं तुमने मुझे यह जाट में हिस्सा नहीं दिया तो क्या हुआ परवरिश तो तुमने ध्यान से की अब तुम सामाजिक सोच के कारण मजबूर रहोगे लेकिन मां बाप को पालने की जिम्मेदारी तो हम दोनों की है यदि भाई नहीं बोल देख रहा है तो क्या मैं भी उसकी तरह हो जाऊं और तुम्हारा आशीर्वाद से भगवान ने मुझे सब कुछ दिया है तुमने मुझे शिक्षा तो दी है ना मेरे लिए वही बहुत है अब तुम किसी बात की चिंता मत करो और मां का सामान अपने ऑटो रिक्शा में रखती है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धनतेरस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस ??

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में इतनी भीड़ कि पैर रखने को भी जगह नहीं। अलबत्ता भारतीय समाज की विशेषता है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

🙏 शुभ धन त्रयोदशी। 🙏

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 4:56 बजे, 25.10.2019 (धनतेरस)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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