हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

1977 से 1980 और फिर 1989 से 2014 तक के वर्षों के बीच बनी केंद्र सरकारों का ध्यान, येन केन प्रकारेण विघटन से बचने के लिये समझौतों में ही निकल जाता रहा. भ्रष्टाचार और एक के बाद एक घोटाले, सरकारों की कमजोरी और नियत पर शक पैदा कर रहे थे. इस बीच ही आंतकवाद अपने चरम पर था और आतंकवादियों के होसले बुलंद. नागरिक भयभीत थे कि कब कोई घटना, उन पर संकट बन जाये. जनआकांक्षा स्थिर सरकार और मजबूत, निर्भीक और स्वतंत्र नेतृत्व चाहती थी. वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने जनआकांक्षा को पहचाना और नये चेहरे के साथ चुनावी समर में कदम रखा. ये भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व था, लोग जो चाहते थे और जिस बात की कमी महसूस कर रहे थे, वो विकल्प उनके सामने था. बाकी जो हुआ, वह कहने की ज़रूरत नहीं है. पर शायद हर शासक और नेतृत्व को ये समझने की जरूरत है कि वो अपने एजेंडे और कार्यप्रणाली से ऊपर वरीयता, इस बात पर दें कि लोग क्या चाहते हैं और क्या ये उनके लिये आवश्यक, न्यायोचित है. वरना हर वो नेतृत्व जो लोगों को भ्रमित करता है या फिर खुद भी भ्रम में रहता है, अक्सर अपना प्रतिनिधित्व का अधिकार खो बैठता है और निर्मम इतिहास उसे डस्टबिन के सुपुर्द ही करता है.

कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का रिप्रसेंटेशन, सामान्यतः निकटगामी मुद्दों के लिये ही होता है, शिक्षण संस्थान खुलने या नहीं खुलने का, एडमीशन में पक्षपात का, डोनेशन और फीस का, कॉलेजों, हॉस्टल की आंतरिक व्यवस्था का, परीक्षा होने या नहीं होने का, रिजल्ट में अनावश्यक देरी, शिक्षण संस्थानों के नियंत्रकों द्वारा छात्रों के लिये अहितकर निर्णयों के लिये. अगर छात्र संघ के चुने हुये (और सुलझे हुये भी), प्रतिनिधि हैं तो अक्सर मामले बातचीत से हल हो जाते हैं जब तक कोई राजनैतिक दखलंदाजी न हो तो, वरना महानगरीय शिक्षण संस्थानों में ये प्रतिष्ठा का सवाल भी बन जाता है. जब प्रतिनिधित्व तो हो पर आंदोलन का निर्णय कोई और ही, अपने फायदे के लिये ले रहा हो. फिर तो छात्रसंघ के ये पदाधिकारी, छात्रों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि किसी परिपक्व और शातिर राजनेता के मोहरे बन जाते हैं .शिक्षण संस्थानों में अगर चुने हुये प्रतिनिधि न हों तो कोई भी आंदोलन अपनी जायज़ मांगों से भटककर गलत दिशा पकड़ लेता है. मुझे सागर विश्वविद्यालय के शिक्षण सत्र 1972-73 का एक वाकया याद है जब चार हॉस्टल के छात्रों को निलंबित कर दिया गया था और निर्वाचित प्रतिनिधि न होने के कारण, प्रोटेस्ट को गलत दिशा देने वाला छात्र तो फरार हो गया पर भीड़ के रूप में फालोअर्स के लिए नुकसानदेह रहा.

कॉलेज और विश्वविद्यालयों से लेकर हर संस्थानों और राजनैतिक परिदृश्य में भी, जिम्मेदार, परिपक्व और समझदार नेतृत्व आवश्यक होता है वरना आंदोलन निष्कर्ष हीन और अहितकर ही होते हैं. आंदोलनों की सफलता यही है कि प्रतिनिधित्व और पदासीन एक टेबल पर आकर मामले को हल करने का प्रयास करें हमारे वेज़ सेटलमेंट, वार्तालाप से ही हल हुये हैं और जहाँ न्यायालय जाना पड़ा वहाँ बस तारीख पर तारीख और वकील की फीस दर फीस. ये स्थिति प्रबंधन के लिये सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि वो अगले दस बीस सालों के लिये चिंतामुक्त हो जाता है. हम पैंशनर्स इसे साक्षात अनुभव कर रहे हैं. नादान हैं वो लोग जो फैसले और राहत का इंतजार करते हैं.

Representing the people का अर्थ यही है कि उनकी न्यायोचित मांगों को आवाज और ताकत दी जाय, वो सुनी जायें और उनके समाधान मिलें. मुंबई में कपड़ा मिलों के बंद होने का कारणों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि एक कारण मार्केट परिदृश्यों को नजरअंदाज कर मज़दूर नेता दत्ता सामंत द्वारा अनाप शनाप मांगे रखना और नतीजा मिलों के बंद होने से मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ा. मांग और देने वाले के अस्तित्व के बीच का असंतुलन ही पब्लिक सेक्टर की असफलता का कारक बना और सरकारों को निजीकरण की तरफ बढ़ना पड़ा. निजीकरण, बेहतर सर्विस के पर्दे में छुपी अभिजात्य सोच को प्रोत्साहित करता है और श्रमजीवियों को टॉरगेट के नाम पर टाइमलेस और लिमिट लेस शोषण के रास्ते खोलता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण, होम डिलीवरी वाले कोरियर बॉय हैं जिन्हें फिक्स टाइम में आर्डर की डिलीवरी करनी पड़ती है वरना आर्थिक नुकसान और नौकरी से हाथ धोने की स्थिति का सामना करना पड़ता है. ये युवक बाकायदा डिग्री धारक होते हैं और बेरोजगारी के कारण, अपनी बाइक सहित इन समस्याओं के जाल में उलझे रहते हैं. कौन हैं जो इनको रिप्रसेंट करेंगे. ये वह लडाई है जो लग्जरी और मजबूरी के बीच लड़ी जा रही है and no body is representing these people.  

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 138 – तर्पण – … ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “तर्पण…”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 138 ☆

☆ लघुकथा  🌿 🤲तर्पण 🤲 

कमल शादी होकर आई। बहुत सुंदर सपने संजोए, अपना मन और घर को संभालने में लगी थी। फिल्मों की तरह उसके मन में भी अनेक विचार आते थे, कि पति का प्यार उसे सदैव अपना बनाकर सुखद अनुभूति कराएगा।

परंतु स्वराज को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था। वह शादी को एक समझौता और परिवार की पसंद या जरूरत समझता था। यही कारण था कि दो बच्चे होने के बाद भी कमल को पति या घर कभी अपना नहीं लगा।

लगता था कि किसी मजबूरी या माता-पिता के सम्मान को देखते हुए  सब करना पड़ रहा है। स्वराज घर को छोड़कर चारों तरफ भटकता फिरता।

नौकरी होते हुए भी वह पैसे-पैसे का मोहताज हो चुका था और शायद इसी गम से एक दिन दुनिया को छोड़ चला।

कमल कभी खुलकर हँस खिल भी न सकी।

आज गंगा जी में तर्पण कर तिलांजलि दे रही थी।

मन में एक नई सोच ले कर डुबकी लगाकर बाहर निकली। तट पर खड़े बच्चों को लिया और बाहर मुस्कराते हुए रिक्शा पर सवार होकर बच्चों से कहने लगी…. “बेटा कीचड़ में ही कमल खिलता है। देखो तट के किनारे कीचड़ में लगे कमल के पुष्पों को।”

दोनों बच्चे इस बात को समझ ना सके। परंतु, आज मम्मी का उत्साह से भरा उनका सुंदर दमकता हुआ चेहरा उनको बहुत अच्छा लगा।

दोनों बच्चों को बाहों में लिए कमल चली जा रही थी, एक नए विश्वास की डगर पर।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #159 ☆ कहानी – एटिकेट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय कहानी  ‘एटिकेट ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 159 ☆

☆ कहानी – एटिकेट

गौरी के सामने वाले मकान में नये किरायेदार आ गये हैं। युवा पति-पत्नी और बूढ़ी माँ। दो छोटे बच्चे हैं, दोनों बेटे। बड़ा चार पाँच साल का होगा और छोटा ढाई तीन का। गौरी का मन बार-बार उस घर में जाने के लिए उझकता है। संबंध बनाने और निभाने की उसे आदत है। नये लोगों के प्रति मन में उत्सुकता है। लेकिन उसकी आदत छिद्रान्वेषण या निन्दा-पुराण की नहीं है। अभी तक पड़ोसियों से उसके संबंध प्रेम और मैत्री के रहे हैं और शहर छोड़ देने के बाद भी गौरी से उनका प्रेम-सूत्र अक्षत रहता है।
जल्दी ही पता चल गया कि सामने वाले दंपति सक्सेना हैं। बड़े लड़के का घर का नाम पिंटू और छोटे का गोलू है। बच्चे सुन्दर और प्यारे हैं। गौरी का उस परिवार से खाने-पीने की चीज़ों के आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़ा है।

उनका छोटा बेटा गोलू खूब नटखट और चंचल है। माँ-बाप ने अभी से उसे किसी नर्सरी में डाल दिया है। सवेरे से स्कूल की ड्रेस में सज-धज कर नेकर की जेबों में हाथ डाले गेट के सामने घूमता है तो बहुत भला लगता है। स्कूल जाने के नाम पर रोता नहीं, खुश खुश चला जाता है।

गोलू खूब सवेरे उठकर बाहर आ जाता है। घर के गेट का ‘लैच’ ऊपर से बन्द रहता है, लेकिन उसे खोलने की तरकीब उसने ढूँढ़ ली है। बन्दर की तरह गेट पर चढ़कर वह ‘लैच’ को पलट देता है और फिर उतरकर धक्का मारकर गेट को खोल देता है। इसके बाद जिधर मुँह घूम जाए, चल देता है। माँ-बाप जब बाहर आकर देखते हैं तो या तो पास के किसी घर के सामने रेत के ढेर पर खेलता मिलता है या फिर किसी पिल्ले को चूमते-चाटते। मुहल्ले में लोग उसे जानने लगे हैं, इसलिए कभी लंबा निकल जाए तो कोई न कोई हाथ पकड़ कर घर तक छोड़ जाता है।

गौरी का बेटा टीनू पाँच साल का है।एक दिन गोलू टीनू के पीछे पीछे गौरी के घर में दाखिल हो गया। वैसे भी वह फक्कड़ और मनमौजी है। किसी भी घर में घुसकर वहाँ खेलकूद में मस्त हो जाने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती। जब भूख या नींद लगती है तभी उसे घर की याद आती है।

गौरी के घर में आकर भी वह टीनू के खिलौनों की छीन-झपट में लग गया। टीनू को अपने खिलौनों से मोह है, किसी को देने में तकलीफ होती है। इसलिए थोड़ी देर खूब हंगामा हुआ। टीनू खिलौनों को अपनी तरफ खींचता था तो गोलू अपनी तरफ। खिलौनों को हाथ आते न देख गोलू ने चिल्ला चिल्ला कर रोना शुरू कर दिया। गौरी ने आकर टीनू को समझाया और गोलू को खिलौने दिलवाये। गोलू खिलौने समेटकर एक कोने में जम गया और दीन-दुनिया को भूल कर खेलने में व्यस्त हो गया।

तब से गौरी के घर में गोलू के आने का सिलसिला शुरू हो गया। वह खिलौने लेकर एक तरफ जम जाता और फिर घर-द्वार भूल जाता। माँ आवाज़ देती तो कहता, ‘अबी नईं आयेंगे’ या ‘थोला लुको, आते हैं।’ माँ बुला बुला कर परेशान हो जाती, लेकिन उस पर कोई असर न होता। अन्ततः गौरी ही उसे समझा-बुझा कर घर भेजती।

घर जाते वक्त वह किसी खिलौने को कंधे से चिपका कर चल देता। फिर उसके और टीनू के बीच खींचतान और हंगामा होता। गौरी टीनू को समझा-बुझा कर खिलौना उसे दे देती, कहती, ‘सवेरे वापस आ जाएगा।’ सवेरे तक गोलू की माँ खिलौना लौटा जाती, तब टीनू को संतोष होता।

आज की संस्कृति के हिसाब से गोलू एकदम नासमझ था। टीनू कुछ खाने को मेज़ पर बैठता तो वह भी बगल की कुर्सी पर जम जाता, कहता, ‘हमें भी दो। हम भी खायेंगे।’ एक बार लेने पर मन न भरता तो कहता, ‘औल दो। खतम हो गया।’ टीनू हँसता। उसे गोलू की बातें अजीब लगती थीं। उसे स्कूल और घर में ‘एटीकेट’ की शिक्षा दी गयी थी। उसे सिखाया गया था कि चीज़ों की माँग सिर्फ अपने घर में करनी है। दूसरे घर में कोई दे तब भी ‘थैंक यू’ कह कर मना कर देना है। उस घर के लोग खाने पीने के लिए बैठने लगें तो धीरे से खिसक लेना है। लेकिन गोलू अभी शिक्षित नहीं है। नादान और भोला है। अभी उस पर नयी तालीम और तहज़ीब का असर नहीं है।

बाहर पॉपकॉर्न बेचने वाला आवाज़ लगाता है तो टीनू की फरमाइश पर गौरी खरीदने जाती है। तभी सामने से गोलू प्रकट हो जाते हैं। कहते हैं— ‘हमें भी।’ जब तक उनके माँ या बाप बाहर निकलते हैं तब तक वे पॉपकॉर्न का पैकेट लेकर चल देते हैं। यही हाल गुब्बारे वाले के आने पर होता है। टीनू को गुब्बारे अच्छे लगते हैं लेकिन खरीदते वक्त अपना हिस्सा लेने के लिए गोलू हाज़िर हो जाते हैं। गुब्बारा देने में थोड़ी भी टालमटोल हो तो वहीं हाहाकार शुरू हो जाता है। उसकी फरमाइशों पर गौरी को भी मज़ा आता है।

कई बार गोलू की माँ संकोच में पड़ जाती है लेकिन गौरी उन्हें समझा देती है। कहती है, ‘वह अपना अधिकार समझ कर माँगता है। उसके मन में भेद नहीं है, न वह तेरा-मेरा जानता है। आप खामखाँ परेशान होती हैं।’

कुछ दिनों से गोलू का आना कम हो गया है। शायद उसे कोई और अड्डा मिल गया है। वैसे बीच की सड़क पर अब भी वह खेलता या कहीं भी आराम से टाँगें पसारकर अपने में मशगूल दिख जाता है। उसका स्कूल जाना बदस्तूर ज़ारी है।

एक दिन गोलू की माँ गप-गोष्ठी के इरादे से गौरी के घर आ गयी। पीछे पीछे गोलू था। पहले से थोड़ा बड़ा और शान्त हो गया था। आने पर उसने पहले की तरह खिलौनों की तरफ ताक- झाँक नहीं की। अच्छे बच्चों की तरह शान्त कुर्सी पर बैठा रहा।

थोड़ी देर में गौरी फ्रिज खोल कर उसके लिए चॉकलेट ले आयी। उसकी तरफ बढ़ा कर बोली, ‘लो बेटे।’

गोलू ने अपने हाथ पीछे बाँध लिये, माँ की तरफ देख कर बोला, ‘नईं।’

गौरी को आश्चर्य हुआ, कहा, ‘क्या नखरा करता है! ले ले।’

गोलू ने चॉकलेट की तरफ और फिर माँ की तरफ देखा, फिर वैसे ही हाथ पीछे किये हुए बोला, ‘नईं, हम नईं लेंगे।’

उसकी माँ ने कहा, ‘ले ले बेटे, आंटी दे रही हैं।’

गोलू ने धीरे-धीरे हाथ बढ़ाकर चॉकलेट ले ली, फिर कहा, ‘थैंक यू, आंटी।’

उसकी माँ का चेहरा गर्व से दीप्त हो गया। बोलीं, ‘स्कूल में सिखाया है। अब पहले जैसे नहीं करता। कोई कुछ देता है तो मना कर देता है। ‘थैंक यू’ कहना भी सीख गया है।’
गौरी गोलू का मुँह देखती रह गयी। उसे लगा एक और बच्चा ईश्वर की दुनिया से निकल कर आदमी की दुनिया में दाखिल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 107 – ईमानदार राजा ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #107 🌻 ईमानदार राजा 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बड़ा सुन्दर शहर था, उसका राजा बड़ा उदार और धर्मात्मा था। प्रजा को प्राणों के समान प्यार करता और उनकी भलाई के लिए बड़ी-बड़ी और सुन्दर राज व्यवस्थाएं करता। उसने एक कानून प्रचलित किया कि अमुक अपराध करने पर देश निकाले की सजा मिलेगी। कानून तोड़ने वाले अनेक दुष्ट आदमी राज्य से निकाल बाहर किए गये, राज्य में सर्वत्र सुख शांति का साम्राज्य था।

एक बार किसी प्रकार वही जुर्म राजा से बन पड़ा। बुराई करते तो कर गया पर पीछे उसे बहुत दुःख हुआ। राजा था सच्चा, अपने पाप को वह छिपा भी सकता था पर उसने ऐसा किया नहीं।

दूसरे दिन बहुत दुखी होता हुआ वह राज दरबार में उपस्थित हुआ और सब के सामने अपना अपराध कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा मैं अपराधी हूँ इसलिए मुझे दण्ड मिलना चाहिए। दरबार के सभासद ऐसे धर्मात्मा राजा को अलग होने देना नहीं चाहते थे फिर भी राजा अपनी बात पर दृढ़ रहा उसने कड़े शब्दों में कहा राज्य के कानून को मैं ही नहीं मानूँगा तो प्रजा उसे किस प्रकार पालन करेगी? मुझे देश निकाला होना ही चाहिये।

निदान यह तय करना पड़ा कि राजा को निर्वासित किया जाए। अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि नया राजा कौन हो? उस देश में प्रजा में से ही किसी व्यक्ति को राजा बनाने की प्रथा थी। जब तक नया राजा न चुन लिया जाए तब तक उसी पुराने राजा को कार्य भार सँभाले रहने के लिए विवश किया गया। उसे यह बात माननी पड़ी।

उस जमाने में आज की तरह वोट पड़कर चुनाव नहीं होते थे। तब वे लोग इस बात को जानते ही न हों सो बात न थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि यह प्रथा उपहास्पद है। लालच, धौंस, और झूठे प्रचार के बल पर कोई नालायक भी चुना जा सकता है। इसलिए उपयुक्त व्यक्ति की कसौटी उनके सद्गुण थे। जो अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता था वही अधिकारी समझा जाता था।

उस देश का राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही प्रधान मंत्री बुद्धिमान था। उसने नया राजा चुनने की तिथि नियुक्त की। और घोषणा की कि अमुक तिथि को दिन के दस बजे जो सबसे पहले राजमहल में जाकर महाराज से भेंट करेगा वही राजा बना दिया जायेगा। राजमहल एक पथरीली पहाड़ी पर शहर से जरा एकाध मील हट कर जरूर था पर उसके सब दरवाजे खोल दिये गये थे, भीतर जाने की कोई रोक टोक न थी। राजा के बैठने की जगह भी खुले आम थी और वह मुनादी करके सब को बता दी गई थी।

राजा के चुनाव से एक दो दिन पहले प्रधान मंत्री ने शहर खाली करवाया और उसे बड़ी अच्छी तरह सजाया। सभी सुख उपभोग की सामग्री जगह-जगह उपस्थित कर दी। उन्हें लेने की सब को छुट्टी थी किसी से कोई कीमत नहीं ली जाती। कहीं मेवे मिठाइयों के भण्डार खुले हुए थे तो कहीं खेल, तमाशे हो रहे थे कहीं आराम के लिए मुलायम पलंग बिछे हुए थे तो कहीं सुन्दर वस्त्र, आभूषण मुफ्त मिल रहे थे। कोमलांगी युवतियां सेवा सुश्रुषा के लिए मौजूद थीं जगह-जगह नौकर दूध और शर्बत के गिलास लिये हुए खड़े थे। इत्र के छिड़काव और चन्दन के पंखे बहार दे रहे थे। शहर का हर एक गली कूचा ऐसा सज रहा था मानो कोई राजमहल हो।

चुनाव के दिन सबेरे से ही राजमहल खोल दिया गया और उस सजे हुए शहर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी गई। नगर से बाहर खड़े हुए प्रजा भीतर घुसे तो वे हक्के-बक्के रह गये। मुफ्त का चन्दन सब कोई घिसने लगा। किसी ने मिठाई के भण्डार पर आसन बिछाया तो कोई सिनेमा की कुर्सियों पर जम बैठा, कोई बढ़िया-बढ़िया कपड़े पहनने लगा तो किसी ने गहने पसंद करने शुरू किए। कई तो सुन्दरियों के गले में हाथ डालकर नाचने लगे सब लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सुख सामग्री का उपयोग करने लगे।

एक दिन पहले ही सब प्रजा को बता दिया गया था कि राजा से मिलने का ठीक समय 10 बजे है। इसके बाद पहुँचने वाला राज का अधिकारी न हो सकेगा। शहर सजावट चन्द रोज है, वह कल समय बाद हटा दी जायेगी, एक भी आदमी ऐसा नहीं बचा था जिसे यह बातें दुहरा-दुहरा कर सुना न दी गई हों, सभी ने कान खोलकर सुन लिया था।

शहर की सस्ती सुख सामग्री ने सब का मन ललचा लिया उसे छोड़ने को किसी का जी नहीं चाहता था। राज मिलने की बात को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। कोई सोचता था दूसरों को चलने दो मैं उनसे आगे दौड़ जाऊँगा, कोई ऊंघ रहे थे अभी तो काफी वक्त पड़ा है, किसी का ख्याल था सामने की चीजों को ले लो, राज न मिला तो यह भी हाथ से जाएगी, कोई तो राज मिलने की बात का मजाक उड़ाने लगे कि यह गप्प तो इसलिये उड़ाई गई है कि हम लोग सामने वाले सुखों को न भोग सकें। एक दो ने हिम्मत बाँधी और राजमहल की ओर चले भी पर थोड़ा ही आगे बढ़ने पर महल का पथरीला रास्ता और शहर के मनोहर दृश्य उनके स्वयं बाधक बन गये बेचारे उलटे पाँव जहाँ के तहाँ लौट आये। सारा नगर उस मौज बहार में व्यस्त हो रहा था।

दस बज गये पर हजारों लाखों प्रजा में से कोई वहाँ न पहुँचा। बेचारा राजा दरबार लगाये एक अकेला बैठा हुआ था। प्रधान मंत्री मन ही मन खुश हो रहा था कि उसकी चाल कैसे सफल हुई। जब कोई न आया तो लाचार उसी राजा को पुनः राज भार सँभालना पड़ा

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – हिंदी का लेखक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा। 

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – पुनर्पाठ- हिंदी का लेखक  ??

हिंदी का लेखक संकट में है। मेज़ पर सरकारी विभाग का एक पत्र रखा है। हिंदी दिवस पर प्रकाशित की जानेवाली स्मारिका के लिए उसका लेख मांगा है। पत्र में यह भी लिखा है कि आपको यह बताते हुए हर्ष होता है कि इसके लिए आपको रु. पाँच सौ मानदेय दिया जायेगा..। इसी पत्र के बगल में बिजली का बिल भी रखा है। छह सौ सत्तर रुपये की रकम का भुगतान अभी बाकी है।

हिंदी का लेखक गहरे संकट में है। उसके घर आनेवाली पानी की पाइपलाइन चोक हो गई है। प्लम्बर ने पंद्रह सौ रुपये मांगे हैं।…यह तो बहुत ज़्यादा है भैया..।…ज़्यादा कैसे.., नौ सौ मेरे और छह सौ मेरे दिहाड़ी मज़दूर के।….इसमें दिहाड़ी मज़दूर क्या करेगा भला..?….सीढ़ी पकड़कर खड़ा रहेगा। सामान पकड़ायेगा। पाइप काटने के बाद दोबारा जब जोड़ूँगा तो कनेक्टर के अंदर सोलुशन भी लगायेगा। बहुत काम होते हैं बाऊजी। दो-तीन घंटा मेहनत करेगा, तब कहीं छह सौ बना पायेगा बेचारा।…आप सोचकर बता दीजियेगा। अभी हाथ में दूसरा काम है..।

हिंदी के लेखक का संकट और गहरा गया है। दो-तीन घंटा काम करने के लिए मिलेगा छह सौ रुपया।… दो-तीन दिन लगेंगे उसे लेख तैयार करने में.., मिलेगा पाँच सौ रुपया।…सरकारी मुहर लगा पत्र उसका मुँह चिढ़ा रहा है। अंततः हिम्मत जुटाकर उसने प्लम्बर को फोन कर ही दिया।…काम तो करवाना है। ..ऐसा करना तुम अकेले ही आ जाना।..नहीं, नहीं फिकर मत करो। दिहाड़ी मज़दूर है हमारे पास। छह सौ कमा लेगा तो उस गरीब का भी घर चल जायेगा।…तुम टाइम पर आ जाना भैया..।

फोन रखते समय हिंदी के लेखक ने जाने क्यों एक गहरी साँस भरी!

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1.11 बजे, 27.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 48 – Representing People – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की प्रथम कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 48  – Representing People – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

मेरे स्कूल युग से लेकर आज़तक के मिश्रित अनुभवों और धारणाओं के आधार पर लिखने का प्रयास रहेगा.रिकार्डेड कुछ भी नहीं, सब इंस्टेंट ही रहेगा.स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूं कि ये श्रंखला विवादों को जन्म देने या फिर किसी शख्सियत को टॉरगेट करने के लिये नहीं लिखी जायेगी. अगर आप लोग भी अपने अनुभव और विचार रखेंगे तो काफी कुछ रोचकता बनी रहेगी. विचारों में तथ्यों और सद्भाव, सहभागिता को रोचक बना सकते हैं पर अगर विवादित बनने की दिशा में बढी तो स्थगित करना विवशता होगी पर इस कारण हम सभी एक स्वस्थ्य और गंभीर विचार विमर्श से वंचित हो सकते हैं. जो अपने अतीत की भडा़स निकालने की मंशा से इस विचार श्रंखला का दुरुपयोग करना चाहेंगे, उनसे क्षमा चाहता हूँ.ये ग्रुप को घिसे पिटे रास्ते की जगह अनुभवों की सहभागिता का प्रयास है. कितना सफल होगा, याद किया जायेगा यह भविष्य ही बतलायेगा. यह चुनौतीपूर्ण तो है पर अपना पक्ष या विचार रखने का अवसर भी है. कभी कभी भीड़ के आगे चलने वालों को गलत भी समझ लिया जाता है और संवादहीनता की स्थिति, धुंध को हटा नहीं पाती.इससे पहले कि पूर्वाग्रह, भ्रमित करें, पहला भाग प्रस्तुत है.

जब मासूम बचपन घर और परिवार से बाहर निकलकर स्कूल की कक्षाओं की सीढ़ियां चढ़ता है तो उसका सामना एक अलग तरह के छात्र से होता है जिसे मॉनीटर (पहले की शब्दावली) कहते हैं. ये टीचर और छात्रों के बीच की कड़ी होता है पर टीचर की अनुपस्थिति में क्लास का अनुशासन बनाए रखने की अपेक्षा, इनसे ही की जाती है. प्रारंभिक शिक्षणकाल में ये चुने नहीं जाते बल्कि टीचर द्वारा ही नामांकित किये जाते हैं जिसका आधार टीचर की दृष्टि में होशियार होना ही होता है. इसी तरह विद्यालय की विभिन्न टीम के भी कैप्टन होते हैं जो उस खेल में प्रवीणता, प्रभावशाली छवि और टीम प्लेयर्स को टीम स्प्रिट से ऊर्जावान बनाते हुये विजय के लक्ष्य को प्राप्त करने की जीतोड़ कोशिश करते हैं. स्कूल से लेकर राष्ट्र को रिप्रेजेंट करने वाली हर टीम में एक उप कप्तान या वाईस़ कैप्टन भी होता है. उप कप्तान न केवल कप्तान को फैसलों में मदद करता है बल्कि वह टीम का भावी कप्तान भी हो सकता है. क्लास मॉनीटर से अपेक्षा तो हो सकती हैं पर इनका कोई लक्ष्य नहीं होता. स्कूलों से निकलकर जब ये पीढ़ी कॉलेज केम्पस और विश्वविद्यालय पहुंती है तो छात्र संघ नामक संस्था से संपर्क होता है. “ये वो जगह है दोस्तो” जो भविष्य की वो शख्सियत का पोषण करता है जो आगे चलकर नगर, प्रदेश और देश तथा विभिन्न सामाजिक और औद्योगिक संस्थाओं के लिये वास्तविक अर्थों में “Representing the People” का रोल निभाते हैं. जबलपुर के शरद यादव और सागर विश्वविद्यालय के रघु ठाकुर के सफर से हममें से अधिकांश परिचित होंगे.

कुछ लोग जन्मजात ही लीड करते हैं, कुछ को कुर्सियाँ लीड करने का मौका देती हैं तो कुछ पर ये लीडरशिप थोप दी जाती है. हमारे माननीय मनमोहन सिंह जी इस तीसरी श्रेणी के ज्वलंत उदाहरण हैं. भगवान कृष्ण बजपन से ही गोप गोपियों के नेता थे और महाभारत युद्ध के भी असली नायक तो वही थे. याने representing the people since childhood.अब जो कुर्सियों के कारण लोगों को रिप्रसेंट करते हैं, उनमें बहुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे और इन लोगों को कुर्सी से हटने के बाद ही पता चलता है कि जनभावनाओं को, जन जन की शक्ति से वे आवाज़ दे नहीं पाये क्योंकि आवाज़ में समूह की शक्ति का प्रभाव नज़र ही नहीं आया. जब एक प्रभावशाली नक्षत्र स्थान से हटकर शून्य या अंधेरा उत्पन्न कर दे तो, जरूरत रिप्रसेंट करने के लिये उस शख्स की होती है जो उस खाली जगह को निर्विवादित रूप से भर दे. स्वतंत्रता संग्राम किसी एक व्यक्ति या एक विचारधारा का युद्ध नहीं था पर गांधी उस जनभावना को रिप्रसेंट कर रहे थे जो भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखना चाहती थी. उस लक्ष्य की प्राप्ति में अनेकानेक जीवन आहूतियां दी गई और उन सब की आकांक्षा भी, आने वाली पीढ़ियों को आज़ाद हिंदुस्तान की हवा में सांस लेने का मौका देना ही था.

Representing the people का अर्थ ही जन असंतोष और जन समस्याओं की नब्ज़ पहचानना, और उन्हें न्यायिक और तर्कसंगत बनाकर वहां तक ले जाना होता है जहां से इनका निदान संभव है, यही लक्ष्य है और इसे पाने के लिये बेझिझक, बिना अपने हित की चिंता किये पहला कदम बढ़ाना ही रिप्रेसेन्टिंग द पीपल की परिभाषा है. सफलता या असफलता नेतृत्व की चुनौतियां हो सकते हैं, मापदंड नहीं।अन्ना हजारे पागल नहीं थे, असफल हो गये पर भ्रष्टाचार से उपजे जनअसंतोष को उन्होंने आंदोलन की दिशा दी. जयप्रकाश नारायण ने निरंकुशता को चुनौती दी और जन असंतोष और प्रबल जन भावना के तूफानी वेग से सरकार पलट दी. “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” ये जेपी की क्षीणकाय काया की अपने युग की सबसे बुलंद आवाज़ बनी.

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – देवी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा – देवी।)

☆ लघुकथा – देवी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

अभी सूरज निकला नहीं था कि किसी ने दुर्गा के दरवाज़े को कई बार ज़ोर-ज़ोर से खटखटाया। उस खटखटाहट में ऐसी बेसब्री थी कि दुर्गा को किसी अनहोनी की आहट सुनाई दी। उसने दौड़कर दरवाज़ा खोला। सामने पड़ोस की कुछ औरतें खड़ी थीं। उसके मुख पर अभी कुछ पूछने की मुद्रा उभरी ही थी कि एक औरत ने अधीर स्वर में कहा,”तू अभी घर में ही खड़ी है, सारा गाँव तेरे खेत की तरफ़ दौड़ा जा रहा है। तूने पिछले जन्म में कोई बड़ा पुन्न का काम किया होगा जो तेरे खेत में देवी परकट हुई है।”

“मेरे खेत में देवी…”

“हाँ तेरे खेत में। चल अब देर न कर।”

देर अब वह कर भी कैसे सकती थी? उसके पास कुल एक एकड़ ज़मीन है। वह इस ज़मीन को अपने खेत के पड़ोसी सोहन को- जो ख़ुद दो एकड़ का किसान है- बँटाई पर देती है। जैसे-तैसे उसका गुज़ारा चल रहा है। उनकी ज़मीन के तीन तरफ़ सौ एकड़ ज़मीन शमशेर सिंह की है। पिछले कुछ समय से शमशेर सिंह की नज़र उन दोनों की ज़मीन पर है और वह उन पर ज़मीन उसे बेच देने के लिए दबाव बना रहा है। वे दोनों मान नहीं रहे हैं। ओह! तो… वह सब समझ गई। उसने लाठी उठाई और उन औरतों के साथ खेत की तरफ़ चल पड़ी।

खेत का नज़ारा अद्भुत था। खेत के बीचों-बीच एक छोटी सी मूर्ति थी, जैसे अभी-अभी ज़मीन को फाड़कर निकली हो। मूर्ति के आसपास की फ़सल उखाड़ दी गई थी। मिट्टी का एक चबूतरा बना था। चबूतरे पर आग जलाकर हवन किया जा रहा था। उसने ग़ौर किया, हवन करने वाले चारों लोग उसके गाँव के नहीं थे। उनके पीछे शमशेर सिंह हाथ जोड़े बैठा था। सैंकड़ों लोग देवी के दर्शन के लिए जुटे थे। उनके पैरों तले कपास की फ़सल रौंद डाली गई थी। सोहन ठुड्डी पर हाथ रखे हताश खड़ा रौंद दी गई फ़सल को देख रहा था। दुर्गा के वहाँ पहुँचते ही उसकी जय-जयकार शुरू हो गई। हवन करने वालों में से एक उसके पैरों में गिर कर कह रहा था,”धन्य हैं आप दुर्गा देवी जी, आपके खेत में देवी ने साक्षात् दर्शन दिए हैं…।

बन्द करो यह नाटक। मैं जानती हूँ देवी मेरे ही खेत में क्यों प्रकट हुई हैं। मैं तो किसी देवी देवता का कभी भूले से भी नाम नहीं लेती। देवी तुम भक्तों में से किसी के घर क्यों नहीं प्रकट हुई, उसे प्रकट होने के लिए मेरा ही खेत मिला था? चलो समेटो अपना तामझाम, नहीं तो…।” दुर्गा गरज रही थी।

“देखो भक्तो, देवी माँ का अपमान कर रही है ये औरत! हम ये अपमान नहीं सहेंगे।” हवन करने वाला दूसरा आदमी चिल्लाया।

“ऐसी तैसी अपमान की, नौटंकी कुत्ते।” यह कहते ही उसने लाठी उसकी पीठ पर दे मारी। दर्द के मारे वह बिलबिला गया। फिर तो उसकी लाठी जो घूमी- किस को कहाँ लगी- उसे कुछ पता नहीं। ग़रीब की लाठी के सामने अमीर का पाखण्ड टिक नहीं पाया। थोड़ी देर बाद खेत में सिर्फ़ दो लोग बचे थे- एक वह स्वयं और दूसरा सोहन। अब उसका हाथ ठुड्डी पर नहीं, कमर पर था और वह मुस्कुरा रहा था। खेत में हवन सामग्री बिखरी पड़ी थी। दुर्गा ने प्रकट हुई मूर्ति को गोद में उठाया और पास बह रही नहर में प्रवाहित करते हुए बोली,”मेरे पास तो कभी-कभी रूखी-सूखी रोटी भी  नहीं होती। अब कृपा करके वहीं प्रकट होना, जहाँ भोग के लिए छप्पन तरह के व्यंजन उपलब्ध हों।” हाथ झाड़ते हुए दुर्गा सोहन से मुख़ातिब हुई, “आए थे देवी को प्रकट करने, हुँह…”

सोहन  प्रशंसा भरी मुग्ध दृष्टि से कुछ देर तक दुर्गा को देखता रहा, फिर नहर में बहती दूर जा रही मूर्ति को देखा और ज़ोर से हँसते हुए बड़बड़ाया,”देवी तो प्रकट हुई ही है, रणचण्डी के रूप में।”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 137 – लघुकथा ☆ घड़ी भर की जिंदगी… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “घड़ी भर की जिंदगी …”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 137 ☆

☆ लघुकथा  🌿 🕛घड़ी भर की जिंदगी 🕛 

यूं तो मुहावरे बनते और बोले जाते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशेष भाषा शैली होती है और वक्त के अनुसार अलग-अलग अर्थ भी होते हैं।

किन्तु, यदि किसी की जिंदगी ही घड़ी बनकर रह जाए और अंत समय में कहा जाए… ‘घड़ी भर की जिंदगी’ तो अनायास ही आँखें भर उठती है।

अशोक बाबू का जीवन भी बिल्कुल घड़ी की तरह ही बीता। बचपन से भागते-चलते अभाव और तनाव भरी जिंदगी में एक-एक पल घड़ी के सेकंड के कांटे की तरह बीता।

सदैव चलते जाना उनके जीवन का अंग बन चुका था। अध्यापक की नौकरी मिली, गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर उन्हें जरा सा सुकून मिला। घर में किलकारियाँ गूंजी, फिर जरूरतों का सिलसिला बढ़ चला। सब की जरूरतें पूरी करते-करते आगे बढ़ते गए।

बेटा बड़ा हुआ, विदेश पढ़ाई के लिए जाना पड़ा और उसकी जरूरतों को पूरा करते गये। वह विदेश गया तो फिर लौट कर नहीं आया।

बस फिर क्या था, वही दीवाल में लगी घड़ी की टिक-टिक की आवाज उनकी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। धर्मपत्नी ने भी असमय साथ छोड़ दिया।

स्कूल में भी घड़ी देख-देख कर काम करने की आदत हो चुकी थी। पास पड़ोसी आकर बैठते पर अशोक बाबू की आंखें दिन-रात घड़ी, समय पर आती जाती रहती, शायद वह वक्त बता दे कि बेटा वापस घर आ रहा हैं।

रिटायरमेंट के बाद घर में अकेलापन और घड़ी की टिक-टिक। एक नौकर जो सेवा करता रहता था, वह भी अपने काम से काम रखता था।

आज पलंग पर लेटे-लेटे घड़ी देख रहे थे। नौकर ने कहा… बाबूजी खाना लगा दिया हूँ। कोई जवाब नहीं आया। पड़ोसियों को बुलाया गया। आंखें घड़ी पर टिकी हुई थी और घड़ी की कांच दो टुकड़ों में चटक कर गिर चुकी थी। प्राण पखेरू उड़ चले थे। आए हुए बुजुर्गों में से किसी ने कहा…. “घड़ी भर की जिंदगी, घड़ी में समाप्त हो गई”। घड़ी भी अशोक बाबू के साँसों सी  चलने लगी थीं, घड़ी चल रही थी, साँसें रुक गई थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 154 ☆ लघुकथा – “एकलव्य और अंगूठा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “एकलव्य और अंगूठा”)  

☆ लघुकथा # 154 ☆ “एकलव्य और अंगूठा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

घर के आंगन में लगे अमरूद के पेड़ के नीचे बैठे बड़े पंडित जी चाय पी रहे हैं ,ऊपर कोयल बोल रही है , शिक्षक दिवस के कारण शिष्यों का आना जाना सुबह से लगा है। गुरु जी आज स्कूल नहीं गये, सुबह से शिष्य गुरु वंदना करने आते हैं और कुछ कुछ गुरु जी को चढ़ा जाते हैं, कुछ ने मोबाइल दिया, कुछ ने लिफाफा। एक जमींदार शिष्य खाली हाथ आया था तो गुरु जी उसका अंगूठा देखने लगे, शिष्य ने मजाक में कहा कि जल्दबाजी में गुरु जी कुछ ला नहीं पाया, एक काम कीजिए ज्यादा है तो ये मेरा अंगूठा ले लीजिए। शिष्य जमींदार की बात सुनकर गुरु जी अपने पीए से बोले कि इनका अंगूठा स्टांपित दानपत्र पर लगवा लीजिए, पांच एकड़ जमीन बहुत है। शिष्य ने लघुशंका का बहाना बनाकर दौड़ लगा दी और एकलव्य बनने से बच गया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – विवशता ☆ डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’☆

डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – विवशता ☆ डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

हरिद्वार से आ रहा था। लक्सर से ज्यूं ही गाड़ी आगे बढ़ी चार या पांच की संख्या में कुछ लोग तालियां पीटते कंपार्टमेंट में घुसे नए-नए उम्र के लड़कों के साथ हंसी मजाक करते हुए ,शउनसे पैसे मांगने लगे। कुछ नहीं ₹10 ₹20 दिए कुछ भद्दा मजाक करने लगे। यह वही लोग हैं, जिन्हें प्रकृति ने हंसी का पात्र बना दिया। उनके जननांग गायब कर दिए।  इसी के कारण समाज उन्हें जनखा, हिजड़ा, उभय लिंगी यहां और जो भी नाम से संबोधित करता है, जगह जगह अब गाड़ियों में घूम घूम कर स्टेशन पर बैठे हुए यात्रियों से,या राह चलते हुए लोगों से या मेले में आए हुए संभ्रांत लोगों से पैसे मांगते हैं। देर तक मैं बच्चों, मनचले युवकों और उनके बीच का उल्टा-सीधा हास्य व्यंग सुनता रहा।

कुछ मनचले उन्हें हाथ पकड़ कर अपने बगल  बैठने का आग्रह कर रहे थे, तो कुछ उन्हें 10या ₹5 देकर चले जाने के लिए अवसर दे रहे थे।

अच्छा नहीं लगा मैंने एक से कहा- मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।एक साथी और आ गया साथ में, उम्र अट्ठारह उन्नीस की रही होगी और दूसरे की उम्र 24- 25 वर्ष । थोड़ी देर बाद वे संपूर्ण डिब्बे का भ्रमण कर जो कुछ भी मांग सके थे ,लेकर आए और मेरे सामने वाली सीट पर जो खाली थी बैठ गए।

मैंने कहा – आप लोग तो कलाकार हैं, आपके पास नृत्य और गायन है, उससे आप लोग क्यों नहीं पैसा प्राप्त कर लेते हैं ।एक का नाम विद्या था।उसने उत्तर दिया -“बाबूजी दुनिया बदल गई है। पहले लोग प्रेम से बच्चे-बच्चियों के जन्म पर हम को बुलाते थे। हम नाचने -गाने के साथ ही बच्चों को गोद में लेकर खिलाते थे ।बहुत-बहुत उनके सुखी जीवन का आशीर्वाद देते थे ।आज कोई हमें नहीं बुलाता है। लोग अब पैसे को अधिक महत्व देते हैं ।सामाजिक मान्यताओं को कम। हम लाचार हैं, कभी गाड़ी पर एक एक यात्री से उनके व्यंग बाण सहते हुए भी भिक्षा मांगने के लिए। क्योंकि पेट तो सभी के साथ है न। हमें ना खाली अपना पेट भरना होता है, बल्कि हमारी ही बिरादरी में कई एक अशक्त, बूढ़े, रोगी और असमर्थ लोग रहते हैं। हम केवल अपना पेट नहीं भरते, हम सभी का ध्यान रखते हैं। बगल में एक आदमी भूखा तड़प रहा हो ,तो दूसरे कैसे चैन की नींद सो सकता है, ऐसा नहीं कहती मानवता।

अब तो जो हमारे साथ हैं, वही हमारे साथी  हैं। मां-बाप हैं, गुरु हैं ,सहायक हैं, मित्र हैं, उनका ध्यान हमें रखना पड़ता है। आज के बच्चे भले ही अपने मां-बाप को छोड़ दें ।जाकर कहीं दूर ऊंची कमाई करते हो। लेकिन हम अपने उन लोगों को कष्ट में नहीं देख सकते जिन्होंने हमें आश्रय देकर शिक्षा के माध्यम से ऐसा बनाया है कि हम कुछ अपनी कला का प्रदर्शन करके कुछ प्राप्त कर लें। पेट प्रत्येक जीव के साथ होता है, हम भी उसी से विवश हैं, अन्यथा एक गाड़ी से दूसरी गाड़ी एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे ताली बजाते ही वे लोगों के आगे हाथ फैलाते हुए क्यों घूमते। आप समझते हैं, पढ़े लिखे हैं, हमने भी कहीं कहीं जा करके थोड़ा बहुत पढ़ने का प्रयास किया है इसी कारण मानवीय संबंध का क्या महत्व है। हमारी समझ में आता है । किंतु, हमें कोई काम नहीं देता। यदि अवसर मिले तो हम भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन करें। पढ़ लिख कर के अच्छे पदों पर जाएं । देश की सेवा करें किंतु हमें तो उपेक्षित दृष्टि से देखा जाता है। नपुंसक माना जाता है। सत्य है हम प्रकृति की भूल के शिकार हो गए किंतु अन्य किसी क्षमता में हम किसी से कम नहीं है।”मैंने ₹50 उन्हें देकर विदा किया। आशीर्वाद देते हुए दोनों चले गए। सचमुच किसी को भिक्षा मांगना अच्छा नहीं लगता। किंतु, समाज इन प्रकृति के कोप के मारे हुए लोगों को उपेक्षा के भाव से देखता है। यह भी अच्छा नहीं लगता, वास्तव में वे भी समाज के प्राणी है। उनका भी सम्मान है उनका भी जीवन है। उनकी भी आवश्यकताएं हैं। उनकी भी अपनी मानसिक पीड़ा- शारीरिक पीड़ा होती है।

आज समाज को उनकी क्षमता का प्रयोग करके अपने विकास में उन्हें सहभागी बनाना चाहिए।

© डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

भगवानपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) 

मो 9450186712

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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