हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मन की गाँठ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मन की गाँठ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-बाबू! बुरा तो नहीं मानोगे?

-नहीं! कहो, क्या बात है?

-अब आपकी चप्पल की लाइफ पूरी हो चुकी ! इस बार तो गांठ देता हूँ। ‌आगे मुश्किल है ! फिर नयी ले लेना! मैं  गांठ नहीं पाऊंगा!

-अरे! चप्पल को क्या हुआ? थोड़ी सी तो ठीक करनी है!

-वही तो कहा, बाबू जी! थोड़ी थोड़ी करते भी टांके लगाऊं तो आंखें जैसे इसी में टंक जाती हैं। आपको क्या है, नयी ले लेना, बाबू जी! अब तो बहुत ऑपरेशन कर लिये इसके ! अब इसकी लाइफ नहीं बची!

-ठीक है, मैं तो तुम्हारे बारे में सोच रहा था! अब काम ही कितना बचा है तुम्हारे पास!

-हां बाबू जी! काम तो पहले रेडिमेड जूतों, चप्पलों ने ले लिया ! अब रिपेयर भी कम ही आती है! लोग बाग घर पर ही जूते पालिश कर लेते हैं, पर आता हूँ  तो बाज़ार में आप जैसे लोगों से दिल बहल जाता है! और तो क्या! काम ही कहां बचा है?

-फिर गुजारा कैसे?

-बेटा पढ़ लिख गया, नौकरी लग गयी! बस, उसका सहारा ! आप बाबू जी! कैसे दिन बिताते हैं?

-बस, तुम्हारी तरह ! कुछ इधर बैठ लिया, कुछ उधर! निकल जाता है, दिन!

-कैसे?

-दिनों की मरम्मत करके, गांठें लगाते, कभी दुख की, कभी सुख की !

-लो, बाबू, आपकी चप्पल तैयार!

-ठीक है। पैसे कितने?

-अंतिम संस्कार के कैसे पैसे?

बाबू की आंखें भीग गयीं अपनी चप्पल को आखिरी बार देखकर !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – राज – भोग – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  मारीशस में गरीब परिवार  में बेटी की शादी और सामजिक विडम्बनाओं पर आधारित लघुकथा राज – भोग।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — राज – भोग — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

कहा जाता है पुराने ज़माने में राज्य संचालन के नाम पर राजाओं के कानों में उल्टे – सीधे मंत्र फूँकने के लिए उनके नौ रत्न होते थे। यह सच हो तो इतनों के ही पेट भरने की खातिर राजाओं को न जाने कितने गरीबों के पेट में लात मारने के लिए सिपाहियों को दौड़ाना पड़ता होगा। गरीब रो – रो कर जब कहे मेरे पेट में लात न मारो तो उनसे कहा जाता होगा लात न मारें तो नौ रत्नों को क्या घास खिला कर चिकन – चाकन मुस्टंडा बनाएँगे। अत: हर हालत में तुम लोग लात खाओ और प्रार्थना में दिल खोल कर कहो उन मुस्टंडों का पेट इतना भर जाए कि भविष्य के लिए भी उन के काम आ सके। उनके लिए यहाँ जो प्रार्थना करो तुम्हारे मरने पर वह प्रार्थना तुम्हारे साथ जाए। भगवान से कहना एक विशेष कारण से प्रार्थना साथ ले कर आए हो। भगवन, अगला जन्म दो तो यह प्रार्थना हमारे साथ ही धरती पर जाए। इस प्रार्थना का मर्म यह है प्रभु, वे जो ‘नौ रत्न’ नाम से जाने जाते हैं उनका स्वास्थ्य इसी तरह अजर अमर हो तभी तो वे अपने सत्ता भोगी राजा के यहाँ नौ रत्न का सुख भोग कर सकेंगे।

यह जिस राजा की कहानी लिखी जा रही है वह निराला राजा था। वह चाहे नौ रानियाँ नहीं रखता, लेकिन रखता तो अठारह रत्न अवश्य रखता। उसने जैसा सोचा वैसा किया। उसने अपने निरालेपन की जय के लिए अठारह रत्न रख कर गरीबों के पेट में दोहरी लात मरवायी। इन अठारह रत्नों के कारनामे तो और निराले हुए। सभी अपनी – अपनी परिभाषा की एक – एक कहानी थे। अठारह रत्नों में जो अंतिम था वह अंधा था। क्रम में जो पहला था वह बहरा था। बाकी जो सोलह रत्न थे वे जब असेंबली में प्रवेश करते थे तो उनका आतिथ्य बहरा करता था और निकलते वक्त अंधा उन्हें रास्ता दिखाता था। इन अठारह रत्नों की बदौलत राजा ने आजीवन राज किया। इस पर एक महाकाव्य लिखा गया है। पर उसका दाम लाखों रूपए है। हमारे वर्तमान में जो राजनेता इस तरह का राजा बनने का शौक रखता है अपने ज्ञान वर्द्धन के लिए जन – कोष से वह महाकाव्य ज़रूर खरीदता है।

© श्री रामदेव धुरंधर

04 / 08 / 2017

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #182 – बाल-कथा – “दौड़ता भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “दौड़ता भूत

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 183 ☆

☆ कहानी- दौड़ता भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

उनका गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.

पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत!  दौड़ता भूत.”

यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”

दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”

” मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”

तब दादी बोली, “डरती क्यों हो?  मैं पकड़ती हूं उसे, ”  कहते हुए दादी लपकी.

ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.

पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.

राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”

तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.

“अरे यह तो  खीसकता हुआ भूत है,”  कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.

अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.

सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.

“ओह ! यह भूत था,” सभी चहक उठे.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-04-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 34 – अनमोल यादें…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनमोल यादें ।)

☆ लघुकथा # 34 – अनमोल यादें श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जब तुम्हारे पास कुछ काम नहीं रहता तो अलमारी को खोल कर अपनी साड़ियों देखती हो और उन्हें पहनती भी हो बच्चों की तरह अपने पूरे गहने भी पहन कर देखती हो?

बाहर नहीं जाती लेकिन घर में तुम इतना तैयार होती हो ऐसा क्यों? बाहर भी पहन कर जाया करो?

ओ मेरे स्वामी! प्यारे पतिदेव रवि आप हम नारी के मन की वेदना को समझ नहीं पाओगे?

यह बातें मुझे भी अब इस बुढ़ापे की उम्र में समझ में आ रही है। बाहर सब लोग मुझे देखकर हसेंगे ।

 इस उम्र में भी देखो बुड्ढी को ! कितना श्रृंगार किया है?

 जेवर और साड़ी के साथ मायके की याद जुड़ी है।

 हमारे मां पिताजी हमारे साथ न रहकर भी साथ है। ये भले किसी काम के जेवर तुम्हें नहीं लगते हैं, पर यह सब मेरे लिए अनमोल यादें है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 113 – जीवन यात्रा : 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 113 –  जीवन यात्रा : 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शिशु वत्स का अगला पड़ाव होता है स्कूल, पर इसके पहले, जन्म के 4-5 या आज के हिसाब से 3-4 साल तक उसमें एक और भी नैसर्गिकता होती है “उत्सुकता ” हर नई वस्तु चाहे वो किसी भी प्रकार की हो, स्थिर हो या चलित, श्वेत हो या धूमल, चींटी से लेकर हाथी तक और साईकल से लेकर ✈ तक, जो भी दिखेगा वो जरूर उसके बारे में पूछता रहेगा, पूछता रहेगा जब तक कि आप उसे जवाब नहीं दे देते. “ये क्या है, ये क्यों है याने what is this and why is this. बच्चों की यह उत्सुकता उनके नैसर्गिक विकास का ही अंग होती है पर अभिभावक हर वक्त उसके क्या और क्यों का जवाब नहीं दे पाते, कभी कभी जवाब मालुम भी नहीं होते तो बच्चों को कुछ भी समझाकर या डांटकर चुप करा देते हैं. पर होता ये बहुत गलत है क्योंकि ये उसकी प्रश्न करने की नैसर्गिक क्षमता को कमजोर बनाता है. प्रश्न का गलत उत्तर, पेरेंट्स पर अविश्वास करना सिखाता है जब आगे चलकर उसे सही उत्तर पता चलते हैं. जन्म और पोषण बहुत धैर्य, समझ, और सहनशीलता मांगते हैं, जितनी कम होती है, परिणाम भी वैसे ही मिलते हैं. नैसर्गिक प्रतिभा को दबाना सबसे बड़ा अपराध है जो माता पिता अनजाने में कर देते हैं. स्कूलिंग प्रारंभ होने के पहले के ये दो तीन साल बहुत महत्वपूर्ण होते हैं जिसे कोई भी पैरेंट गंभीरता से नहीं लेते, बच्चे उनके लिये उपलब्धि और मनोरंजन का साधन बन जाते हैं हालांकि “बच्चे को क्या बनाना है वाली” दूसरी हानिकारक सोच अभी आई नहीं है पर आती जरूर है.

स्कूल का आगमन भी बच्चों की नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया में अवरोध का काम ही करते हैं. आपको ये कथन आश्चर्यजनक लगेगा और इससे सहमत होने का तो सवाल ही नहीं होगा पर सच यही है. स्कूल नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया के अंग नहीं होते. पहली बात तो ये होती है कि बच्चे कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकल कर अनजान परिसर, अनजान वयस्कों याने शिक्षकगण और अनजान सहपाठियों के बीच में असुरक्षित महसूस करता है और यहीं से उसके बाल्य जीवन में प्रवेश करते हैं अनुशासन के साथ साथ डर और असुरक्षा. स्कूल समय की जरूरत हैं ये तो सब वयस्क जानते हैं पर जो नहीं जानता वो है वही बालक जिसे स्कूल जाना पड़ता है. शिक्षण में अतिक्रमित करती व्यवसायिकता ने स्कूल जाने की उम्र विभिन्न विद्यालयीन शब्दावली जैसे किंडर गार्डन, प्रि-स्कूल, नर्सरी के नाम पर घटा दी है जो बच्चों के नैसर्गिक विकास से प्रायोजित और योजनाबद्ध विकास की यात्रा कही जा सकती है. परंपरागत व्यवहारिकता और जमाने के हिसाब से ही आधुनिकता में लिपटी कैरियर प्रोग्रेसन की लालसा गलत है, ये सही नहीं है. पर ये निश्चित है स्कूल बच्चों से उत्सुकता और प्रश्न करने की आदत छीन लेते हैं क्योंकि यहां प्रश्न टीचर करते हैं जिनका उत्तर उसे समझना या फिर रटना पड़ता है. प्रश्न पूछने की ये झिझक और डर ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती और इस कारण ही लोग फ्रंट बैंचर बनने से बचने लगते हैं. दूसरा “रटना” याने समझ नहीं आये तो रट लो या फिर जैसा पहले वाले ने किया है उसी का अनुसरण करते रहो. समाज में इसीलिये भाई, भैया, बड़े भाई और ऑफिस में सीनियर्स का आँखबंद कर अनुसरण करना, स्कूल के जमाने से रोपित इस असुरक्षा से राहत महसूस कराने लगता है. ये जो दुनियां के बड़े बड़े वैज्ञानिक, खिलाड़ी, नेता, बने हैं वो सिर्फ इसलिए बन पाये कि स्कूल के अनुशासित और योजनाबद्ध कार्यक्रम को कभी भी अपने व्यक्तित्व ऊपर हावी नहीं होने दिया. जो सही लगा वही करने के लिये जोखिम की परवाह नहीं की और दुनियां से लड़ गये और वो किया जो वो चाहते थे. जिनको बाद में उसी दुनियां के उन्हीं लोगों ने सर पर बिठाया, पूजा की हद तक उनकी प्रशंसा की. वो इसलिए संभव हुआ कि उनमें असुरक्षा, भय की भावना नहीं संक्रमित हो पाई तब ही तो ज़िद और ज़ुनून उनकी शख्सियत का हिस्सा बने. वो रटना नहीं चाहते थे बल्कि वो समझ गये थे कि रटना, आंख बंद कर किसी का अनुसरण करना ये शब्द उनके लिये नहीं बने हैं. जि़द और ज़ुनून ही उनकी खासियत बनी और ये जुनून ही तेंदुलकर को कॉलेज की जगह क्रिकेट के मैदान की ओर और माही याने धोनी को रेल्वे की सुरक्षित नौकरी छोड़ने के निर्णय की ओर ले जा सका. इसके होने का प्रतिशत बहुत कम होता तो है पर यही वो लोग होते हैं जो लीक से हटकर चलने के उनके नैसर्गिक गुण से संपन्न होते हैं.

यात्रा जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “बेटी” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 500 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा – “बेटी“.)

☆ लघुकथा – बेटी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल 

‘तू मेरी पालिता बेटी है पुत्तर’। मां ने कहा तो बेटी अंदर तक सिहर गई।

‘क्या कह रही हो माँ, कहीं तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है’।

‘ना बेटी ना, अब समय आ गया है तुझे सच्चाई बताने का, फिर कहीं मौका मिला नहीं मिला तो’।

शालिनी को बहू बेटे ने घर से निकाल दिया था। जिंदगी के अंतिम समय में वह बेटी के घर निर्वासित जिंदगी जी रही थी।

बहू अपने पति से एक की दो लगाती। दिन भर उसे भूखा रखती, तिल तिल जलाती। एक-एक दिन उसे एक वर्ष जैसा बीत रहा था। माँ की यह हालत देखकर बेटी उसे अपने घर ले आई। बेटी ने माँ को हाथों हाथ रखा। अपने हाथों से नहलाती धुलाती। समय से भोजन कराती। उसके अपरस हुए हाथों की गदेलियों में अपने हाथ से दवा लगाती।

एक दिन मां बोली – ‘तूने मेरी नरक होती जिंदगी को संभाल दिया है बेटी। अपने बेटे के घर होती तो अब तक मेरे चित्र पर माला टांग दी गई होती’।

बेटी ने माँ के बहते हुए आंसुओं को पोंछ डाला। बेटी के गले लग कर रोती हुई माँ आंसुओं के सैलाब में डूब गई। रोते-रोते मां के अस्फुट स्वरों में अनजाने ही निकल गया – ‘तू तो मेरी पालिता बेटी है – – इतनी सेवा तो मेरी सगी बेटी भी नहीं करती। तेरी असली माँ तो तुझे अंधेरे में मेरे दरवाजे पर छोड़कर चली गई थी’।

बेटी अवाक थी। एकदम हतप्रभ हो गई थी। जिंदगी का सच माँ से ज्यादा कौन जान सकता था भला। पर माँ ने इस सच को अब तक क्यों छुपाए रखा था। एकदम सगी बेटी का प्यार दिया था। वह रोने लगी थी। रोते-रोते माँ के पैर पकड़ कर बोली – ‘इस सत्य को झुठलादे माँ। अब तू ही मेरी माँ है। मैंने तुझमें माँ के दिव्य स्वरूप के दर्शन किए हैं। मैं तेरी पालिता बेटी बनकर नहीं रह सकूंगी’।

अब माँ बेटी दोनों रो रही थी। लगातार हिचकियों पर हिचकियां ले रही थी। माँ को अंतिम हिचकी आई और उसका निर्जीव शरीर बेटी के हाथों में झूल गया।

आज बेटी माँ की भी माँ बन गई थी।

* * * *

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 143 ☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मम्माँज़ स्पेशल। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 143 ☆

☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मम्माँ! आपने हमारे लिए सत्तू क्यों भेज दिया ?

गाँव से लाए थे, थोड़ा तेरे लिए भी भेज दिया ऋतु, अच्छा होता है, गर्मी में पेट में ठंडक देता है। क्यों, क्या हुआ ?

माँ! क्या जरूरत है गाँव से चीजें ढ़ोकर लाने की? ऑनलाईन ऑर्डर करो घर बैठे सब मिल जाता है आजकल। बिना मतलब गाँव से इतना बोझा उठाकर लाओ।

अरे, अपने गाँव की पड़ोस की काकी ने बड़े प्यार से खुद बनाकर दिया है तेरे लिए। घर के बने सत्तू की बात ही कुछ और है। ये कंपनी वाले पता नहीं क्या मिलावट करते होंगे उसमें।

 सारी दुनिया ऑनलाईन शॉपिंग कर रही है। कंपनी वाले आपको ही खराब चीजें भेजेंगे? और अच्छा नहीं हुआ तो वापस कर दो, पैसे वापस आ जाते हैं।

‘अच्छा, ऐसा भी होता है क्या? हमें नहीं पता था। हमने तो अपनी माँ को ऐसे ही करते देखा था बेटा!। जब साल – दो साल में मायके जाना होता था, माँ वापसी के समय न जाने कितनी चीजें साथ में बाँध देती थी। लड्डू, मठरी, बेसन के सेव, गुड़, सत्तू और भी बहुत कुछ। आजकल तुम लोग हर चीज के लिए यही कहते रहते हो कि सब ऑनलाईन मिल जाता है, ऑर्डर कर लेते हैं। खरीद लो भाई सब ऑनलाईन, अब नहीं भेजेंगे कुछ। क्या करें माँ का दिल है ना!’ – सरोज ने झुंझलाते हुए कहा।

‘अरे! गुस्सा मत होईए, हम तो इसलिए कह रहे थे कि ट्रेन से सामान लाने में आपको परेशानी होती होगी, सामान बढ़ जाता है, सँभालना मुश्किल होता है और कोई बात नहीं है। ‘

‘हम पुरानी पीढ़ी के हैं बेटा। अब तुम लोग ऑनलाईन और गूगल युग के हो। जो चाहिए घर बैठे मँगा लो और जो कुछ पूछना हो तो गूगल गुरु हैं तुम्हारे पास, हमारे जैसों की क्या जरूरत?’ – सरोज के स्वर में थोड़ी मायूसी थी।

‘अच्छा छोड़ि‌ए यह सब, यह बताइए आपने हमें अपने हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू क्यों नहीं भेजे’ – ऋतु ने माँ को मनाते हुए कहा।

‘क्यों बेसन के लड्डू ऑनलाईन नहीं मिलते क्या, वह भी ऑर्डर कर लो, हम क्यों मेहनत करें’ — सरोज थोड़ी नाराजगी जताते हुए बोली।

‘हमें पता था गुस्से में आप यही बोलेंगी’ – ऋतु ने हँसते हुए कहा। ‘हमें कुछ नहीं पता माँ, आपके बनाए लड्डू खाने का बहुत मन हो रहा है। आपके हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू इतने स्वादिष्ट होते हैं कि नाम लेते ही मुँह में पानी आ जाता है। हॉस्टल में लड़कियों से छुपाकर रखना पड़ता था, नहीं तो एक दिन में ही सब खत्म। ‘मम्माँज़ स्पेशल लड्डू’ आपके सिवाय दुनिया में कोई भी नहीं बना सकता मम्माँ ! ’

‘अच्छा – अच्छा, अब माँ को मक्खन लगाना बंद कर, भेज दूँगी बेसन के लड्डू’ और दोनों फोन पर जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #181 – हाइबन – “कोबरा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक हाइबन – “कोबरा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 181 ☆

☆ हाइबन- कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था।  वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”

सावित्री डरी। पलटी । तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा ।उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।

रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।

” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।

सांप ने कंबल पर फन मारा था।

पैर में सांप~

बंद आंखें के खड़ा

नवयुवक।

~~~~~~~

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-08-2020 

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 33 – ताक झांक…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ताक झांक।)

☆ लघुकथा – ताक झांक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

माँ अच्छा हुआ जो मैं आपके साथ तीर्थ में जगन्नाथ पुरी आई।

बहुत कुछ देखने और सीखने को मिल रहा है। देखो माँ जो हमारे साथ ट्रेन में महिला थी उसे सब लोग सहयात्री कैसे बुरा भला बोल रहे हैं। देखो जरा इसे, अपने अंधे पति को लेकर आई है क्या जरूरत है इसको…।

माँ ये लोग मंदिर की लाइन में दर्शन के लिए खड़े हैं लेकिन बुराई कर रहे हैं।

माँ ! उस महिला के पास चलते हैं।

उसे देखकर बहुत हिम्मत मिलती है ।

आप यहां खड़े रहो मैं उसे अपने साथ यहां पर बुला लेती हूँ।

नमस्कार पहचाना हम आपके सामने वाली सीट पर बैठे ट्रेन में बैठे थे।

हां पहचाना।

देखो न लोग कैसे कह रहे हैं?

मेरे पति की पहले आंखें थी धीरे-धीरे आंखों में कुछ रोग हो गया और उनकी दृष्टि चली गई मेरी नजर से वह दुनिया देखते हैं। वे देख नहीं सकते पर महसूस तो सब कुछ करते हैं।

बच्चे तो सब बाहर चले गए हैं लेकिन नौकरी कर रही थी। दोनों बच्चे खुश हैं। नाम के लिए दो बेटे हैं।

हम उनके लिए भर हैं। हम उनके लिए बोझ हैं ।

मैं गवर्नमेंट स्कूल में  टीचर थी। अब रिटायर हो गई हूं घर में बैठकर अकेले क्या करूंगी?

हम दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले है। क्या मुझे जीने का हक नहीं ?

रीमा ने धीरे से कहा-

बिल्कुल है आंटी।

चलिये आंटी आप मां के और मेरे साथ वहां पर खड़े हो जाइए तो हम चारों एक साथ रहेंगे।

काश! एक बिटिया होती दो बेटे नहीं..,

और वह रोने लगते हैं।

आंटी मेरे भी पिताजी नहीं है।

मां ने मुझे मुश्किल से पाला है मैं उनके साथ रहती हूं।

अब मैं छुट्टी में उनके साथ घूमती फिरती रहती हूं।

जीवन है तो क्यों ना हम हॅंस कर जिये।

बेटा तुमने बहुत अच्छी बात कही चलो अब हमारी यात्रा और अच्छी हो जाएगी हम लोग भगवान के दर्शन करते।

बहन जी आपकी बेटी बहुत प्यारी है।

लेकिन लगता है आजकल की दुनिया में लोगों के पास बहुत समय है, दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक करने का…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 112 – जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 112 –  जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मां और पिता के 100% सुरक्षाकवर शिशु वत्स की यात्रा को आगे बढ़ने से नहीं थाम सकते क्योंकि जीवन सिर्फ संरक्षित होकर आगे बढ़ते जाने का नाम नहीं है,ये तो विधाता की योजनाबद्ध प्रक्रिया है जिसमें उसका अगला पड़ाव होता है भिन्नता,सामंजस्य, उत्सुकता,अपने जैसा कोई और भी होने का अहसास.शिशु के व्यक्तित्व के अंकुरित होने की अवस्था. और ये इसलिये आ पाती है कि अब प्रविष्ट होते हैं भाई और बहन, बहुत थोड़े से आयु में बड़े और साथ ही पेट्स भी. ये कहलाते हैं हमजोली जो अपने साथ लाते हैं खिलंदड़पन. अब सिर्फ खिलौने से काम नहीं चलने वाला बल्कि साथ खेलने वाला भी अपनी ओर खींचता है और ये काम तीनों ही बहुत सहजता और सरलता से करते हैं. पेट्स भी समझ जाते हैं कि ये हमारे जैसा ही है, हमारा मालिक नहीं बल्कि हमजोली है जिसका रोल न तो सिखाने का है न ही अनुशासित करने का बल्कि ये तो खेल खेल में अनजाने में वह सिखा जाने वाला है जो प्रतिस्पर्धा के साथ जीतने का गर्व या हारने पर फिर जीतने की कोशिश करना सिखाता है और खास बात भी यही है कि यहां जीत घमंडमुक्त और हार निराशा मुक्त होती है. हर खेल का प्रारंभ हंसने से और अंत भी हंसने से ही होता है. पेट्स भी खेल के आनंदरस में बाल खींचने या कान उमेठने की पीड़ा उसी तरह भूल जाते हैं जैसे जन्म देने की खुशी में प्रसवपीड़ा.

यही बचपन है, यही बालपन है और यही संपूर्ण रामायण का बालकांड भी.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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