बोलता बोलता 2024 सरल निरोप देतांना आपण या वर्षात काय मिळवलं, काय सोडलं, काय चुकलं आणि काय राहून गेलं हे मनातील विचार मंथन चालू झालं….
” माणुसकी हरवली का, ती जपली का?. हेच प्रश्न मनाला विचारले…
स्वतः साठी किती जगलो, समाजासाठी किती पळालो, दुसऱ्यांना किती उपयोगी आलो…
” मनातील वाईट विचार काढून चांगले विचार आत्मसात केले हे महत्वाचे…
” सकारात्मक विचाराने तर प्रगल्भ विचारांची देवाण घेवाण होते व समाज प्रबोधन होते एक सुंदर संदेश समाजास मिळतो…
” नकारात्मक विचार आनंद मिळू देत नाही, गैरसमज निर्माण करून नाती टिकू देत नाही हे लक्षात घ्यायला हवं…
आपण, समाजाचे काहीतरी देणं लागतो हे लक्षात ठेऊन कार्य केल तर निस्वार्थी समाज सेवा घडली जाते यात शंकाच नाही…
सात्विक विचार दुसऱ्याप्रति आपुलकीची भावना कळकळ हे आदर्श माणुसकीचा ठेवा आहे तो सर्वांना मिळावा थोडं तरी दुःख हलकं होईल…
” एक अशीच पोळीभाजीच कामं करणारी महिला होती, खूप गरीब आणि प्रामाणिक होती…
” बिचारीला पतीदेवांचे सुख अजिबात नव्हते सतत भांडणं तिला मारणे चालू होते…
एक दिवस तिला खूप मारलं रक्त आलं तोंडातून हिरवं निळं अंग झालं…
त्याही परिस्थितीमध्ये ती माझ्याकडे आली बॅग घेऊन म्हणाली “. मी आता इथे राहत नाही मी माहेरी जाते… मी तिला म्हणाले तू आज इथे रहा आपण उद्या बोलू.
” तिला चार दिवस ठेऊन घेतलं, समजून सांगितलं थोडा राग शांत झाला तब्बेत सुधारली… ” तिला म्हणाले तू वेगळी रहा, इथेच कामं करतेस ते कर.. जून वाढव … पण माहेरी जाऊ नको…
जो मान तुला इथे राहून मिळेल तो माहेरी काम करूनही मिळणार नाही ” तिला ते पटलं आणि ती रूम घेऊन राहायला लागली…
” बऱ्याच वर्षांनी मी तिच्याकडे गेले तर चाळीतील घर जाऊन दोन माजली माडी झाली होती. तो एक योग्य सल्ला योग्य निर्णय तिच्या आयुष्यातील टर्निंग पॉईंट ठरला आणि तीच आयुष्य सुधारलं….
, ” माणुसकी, सकारात्मक विचार योग्य दिशा दाखवतात…
” नवीन वर्ष सुरु झाल्यावर मनाशी संकल्प करावा आणि तो वर्षात पूर्ण करावा…
” मी, स्वतःसाठी जगेनच पण इतरांना वेळेनुसार मदत करेल…
गरिबांना मदत करेल परिस्थिती नुसार गरीब मुलांना शिक्षण देईल…
” निराधारांना आधार अनाथ मुलांना आश्रय देईल, माझ्या कुवतीनुसार मी नक्कीच प्रयत्न करेन….
” आज पैसा, यश, समृद्धी सगळीकडे आहे नाही फक्त ” वेळ “.. तो देता आला पाहिजे…
” आई वडील वयस्कर झाले मुलं परदेशीआहेत, त्यांना सांभाळायला 50 हजार पगार देऊन केअरटेकर ठेवले सर्व सुविधा दिल्या…. तरीही आई वडील नाराज राहू लागले त्यांचं मन उदास असल्याने तब्येत बिघडू लागली…
” त्यांना हे काही नको होत, फक्त मुलांचं प्रेम आणि नातवंडाचं सुख हवं होत…
“मुलांनी आई वडिलांच्या प्रेमाच्या मायेच्या बदल्यात काय दिल तर पैसे फेकून केअरटेकर… हे प्रेम आहे कि उपकाराची परतफेड… तसं असेलतर आई वडिलांचे उपकार कुणीच फेडू शकत नाही.
विचार आला मनात ” आपण माणुसकी जपली ना, काहीतरी कार्य केल ना… तेंव्हा मन म्हणतं हे वर्ष सुंदर गेलं, नवीन वर्षात अजून कामं करेन…
“खूप प्रश्न भेडसावत आहेत समाजात खूप प्रश्न सोडवायचे बाकी आहेत.
“वाढते वृद्धाश्रम, बेकारी, मुलांचे लग्न हा तर फार मोठा प्रश्न निर्माण झाला आहे…
“समाजात परिवर्तन घडवणं आपलं काम आहे, अपेक्षा करण्यापेक्षा आव्हानाला सामोरं जाऊन स्व कष्टाने मिळवलेलं कधीही चांगलं…
“ज्या आईवडिलांनी घडवलं पायावर उभं केलं याची जाणीव ठेवून दोन शब्द प्रेमाने बोलून त्यांना सांभाळणं हे लक्षात ठेवले तर वृद्धाश्रमाची गरज कशाला लागेल.
“सरते शेवटी काय झालं, काय केलं, हा आनंद मनात ठेवून काय राहिलं, याचा संकल्प करून 2024 ला निरोप देऊन 2025 च स्वागत करूया…
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है अष्टादशोऽध्यायः।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए अठारहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र
☆ अठारहवाँ अध्याय – उपसंहार ☆
?मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए अठारहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। डॉ राकेश चक्र???
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त अर्जुन को अंतिम अध्याय में सन्यास सिद्धि के बारे में ज्ञान दिया
अर्जुन ने भगवान से पूछा–
हे माधव! बतलाइए, क्या है त्याग उद्देश्य।
क्या है जीवन त्यागमय, कह दें आप विशेष्य।। 1
श्रीकृष्ण भगवान ने विस्तार से इसका वर्णन कर कहा—-
सन्यास क्या है
भौतिक इच्छा से परे, कर कर्मों परित्याग।
फल कर्मों का त्याग दे, यही योग सन्यास।। 2
कर्म श्रेष्ठ क्या हैं
विद्व सकामी कर्म को, कहें दोष से पूर्ण।
यज्ञ, दान, तप नित करें, यही सत्य सम्पूर्ण।। 3
भरतश्रेष्ठ! निर्णय सुनो, क्या है विषय त्याग।
शास्त्र कहें इस तथ्य को, तीन तरह परित्याग।। 4
आवश्यक कर्म क्या हैं
यज्ञ, दान, तप नित करें, नहीं करें परित्याग।
सबको करते शुद्ध ये, तन-मन मिटती आग।। 5
अंतिम मत मेरा यही, करो यज्ञ, तप, दान।
अनासक्ति फल बिन करो, हैं कर्तव्य महान।। 6
नियत जरूरी कर्म को, कभी न त्यागें मित्र।
त्याग करें जो मोहवश, वही तामसी चित्र।। 7
नियत कर्म जो त्यागता, मन में भय, तन क्लेश।
रजोगुणी यह त्याग है, मिले न सुफल सुवेश।। 8
नियत कर्म क्या हैं
नियत कर्म कर्तव्य हैं, त्याग सात्विक जान।
त्याग सुफल आसक्ति दे, कर मेरा गुणगान।। 9
सतोगुणी है बुद्धिमय, लिप्त न शुभ गुण होय।
नहीं अशुभ से भी घृणा, करें न संशय कोय।। 10
करें त्याग जो कर्मफल,वही त्याग की मूर्ति।
कर्मों का कब त्याग हो,चले युगों से रीति।। 11
त्याग का न करने के दुष्परिणाम
मृत्यु बाद फल भोगते,नहीं करें जो त्याग।
इच्छ-अनिच्छित कर्मफल,या मिश्रित अनुभाग।।12
सन्यासी हैं जो मनुज,नहीं कर्मफल ढोंय।
सुख-दुख भी कब भोगते,नहीं दुखों से रोंय।।12
सब कार्यों की पूर्ति के लिए पाँच कारण हैं
सकल कर्म की पूर्ति हो,सुनो वेद अनुसार।
कारण प्रियवर पाँच हैं,सुनो कर्म का सार।।13
कर्म क्षेत्र यह देह है,कर्ता यही शरीर।
इन्द्रिय,चेष्टाएँ अनत,प्रभू पंच हैं मीर।।14
मन,वाणी या देह से,करते जैसा कर्म।
पाँच यही कारण रहे,सकल कर्म-दुष्कर्म।।15
कारण पाँच न मानते,माने कर्ता स्वयं।
बुद्धिमान वे जन नहीं,परख न पाएँ अहम।।16
अहंकार करता नहीं,खोल बुद्धि के द्वार।
उससे यदि कोई मरे,बँधे न पापा भार।।17
ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता सभी,कर्म प्रेरणा होंय।
इन्द्रिय,कर्ता कर्म सब,कर्म संघटक होंय।18
बँधी प्रकृति त्रय गुणों में,त्रय-त्रय भेदा होय।
ज्ञान,कर्म कर्ता सभी,वर्णन करता तोय।।19
सात्विक प्रकृति क्या है
वही प्रकृति है सात्विक,ज्ञान वही है श्रेष्ठ।
जो देखे सबमें प्रभू,वही भक्तजन ज्येष्ठ।।20
राजसी प्रकृति क्या है
प्रकृति राजसी है वही, देखे भिन्न प्रकार।
सबमें करे विभेद वह,निराधार निस्सार।। 21
तामसी प्रकृति क्या है
वही तामसी प्रकृति है, करे कार्य जो भ्रष्ट।
सत को माने जो असत, होता ज्ञान निकृष्ट।। 22
सात्विक कर्म क्या हैं
कर्म सात्विक है वही, जिसमें द्वेष न होय।
कर्मफला आसक्ति से, रहे दूर नर जोय।। 23
रजोगुणी कर्म क्या हैं
रजोगुणी वह कार्य है, इच्छा पूरी होय।
अहंकार मिथ्या पले,भोग फलों को रोय।। 24
तामसी कर्म क्या हैं
कर्म वही जो तामसी, करते शास्त्र विरुद्ध।
दुख पहुँचा , हिंसा करें, तन-मन करें अशुद्ध।। 25
सात्विक कर्ता कौन है–
सात्विक कर्ता है वही, करे नीति के कर्म।
उत्साहित संकल्प मन, नहीं डिगे सत् धर्म।। 26
राजसी कर्ता कौन है
वह कर्ता है राजसी, जिसके ईर्ष्या, लोभ।
मोह, भोग आसक्ति से,मिला अंततः क्षोभ।। 27
तामसी कर्ता कौन है
चलता राहें तामसी, कर्ता शास्त्र विरुद्ध।
पटु कपटी, भोगी , हठी, आलस- मोहाबद्ध।। 28
भगवान ने प्रकृति के गुणों के बारे में वर्णन किया
तीन गुणों से युक्त है,त्रयी प्रकृति का रूप।
सुनो बुद्धि, धृति,दृष्टि से, देखो चित्र अनूप।। 29
सतोगुणी बुद्धि क्या है
सतोगुणी है बुद्धि वह, जो मन रखे विवेक।
क्या अच्छा है, क्या बुरा, कार्य कराए नेक।। 30
राजसी बुद्धि क्या है
बुद्धि राजसी सर्वथा, क्या जाने शुभ कर्म।
संशय में है डोलती, भेद न धर्म-अधर्म।। 31
तामसिक बुद्धि क्या है
बुद्धि तामसिक कर सके, भेद न धर्म-अधर्म।
वशीभूत तम,मोह के, करती सदा अकर्म।। 32
सात्विक धृति क्या है
धृति सात्विकी बस वही, करें योग अभ्यास।
इन्द्रिय,मन वश प्राण कर, करें बुद्धि के पास।। 33
राजसिक धृति क्या है
सत्य राजसिक धृति वही, रहे कर्मफल लिप्त।
काम, धर्म, धन बीच में, रहे सदा संलिप्त।। 34
तामसिक धृति क्या है
तमोगुणी है धृति वही , जो लिपटी भय, शोक।
परे नहीं दुख, मोह से, करे न मन पर रोक।। 35
तीन प्रकार के सुख (धृति) क्या हैं
भरतश्रेष्ठ !मुझसे सुनो, त्रय सुख का गुणगान।
योग-भोग कर जीव सब, करें स्वयं कल्यान।। 36
सात्विक सुख क्या है
सुख भी सात्विकी है वही , पूर्व लगे विष बेल।
करे आत्म साक्षात जो, यह अमृत सम खेल।। 37
रजोगुणी सुख क्या है
रजोगुणी धृति है वही, पूर्व अमृत की बेल।
इन्द्रिय विषय मिलाप से, अंत लगे विष खेल।। 38
तामसिक सुख क्या है
तमोगुणी धृति है वही, रहे आत्म विपरीत।
सुप्त मोह आलस्य में, सुप्त हो, पूर्व,अंत अति तीत।। 39
मनुष्य प्रकृति के तीन गुणों अर्थात सत, रज,तम में बद्ध है
बद्ध जीव सब प्रकृति के, मनुज, देव सँग स्वर्ग।
तीन गुणों में लिप्त हैं, फल भोगे सब कर्म।। 40
ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य सब, या हों कर्मा शूद्र।
बँन्धे प्रकृति के गुणों में, भाव कर्म के सूत्र।। 41
ब्राह्मण कर्म क्या हैं
आत्मसंयमी, शांति प्रिय, तप, सत रहे पवित्र।
ज्ञान, धर्म, विज्ञानमय, कर्म ब्राह्मण मित्र।। 42
क्षत्रिय कर्म क्या हैं
शक्ति, वीरता, दक्षता, युद्ध में रखें धैर्य।
हो उदार नेतृत्वमय, हो क्षत्री बल-धैर्य।।43
वैश्य का कर्म क्या है
गौ रक्षा, व्यापार कर, करता कृषि के कार्य।
मूल कर्म यह वैश्य का, करे न आलस आर्य।। 44
शूद्र कर्म क्या है
जो सबकी सेवा करे, यही शूद्र का कर्म।
श्रम करता जो लगन से, यही मानवी धर्म।। 44
कर्म करना ही सबसे श्रेष्ठ है
अपने कर्म स्वभाव का,करते पालन लोग।
कर्म न छोटा या बड़ा, सिद्धि कर्म का योग।। 45
कर्म-भक्ति नियमित करें, उदगम सबका एक।
सबका ईश्वर एक है, करें कर्म सब नेक।। 46
नियत कर्म सब ही करें, जो हो वृत्ति स्वभाव।
करें लगन संकल्प से, यही श्रेष्ठतम भाव।। 47
जो जिसका कर्तव्य है, करें सभी वह काम।
धैर्य रखें उद्योग से, मिलें सुखद परिणाम।। 48
अनासक्त मन,संयमी, करे न भौतिक भोग।
कर्मफलों से मुक्त हो, यही सिद्धि फल-योग।। 49
परम् सिद्ध जो ब्रह्म है, सर्वोत्तम वह ज्ञान।
कहता हूँ संक्षेप से, कुंतीपुत्र महान।। 50
संसार में अध्यात्म सर्वोच्च गुह्य ज्ञान क्या है और मनुष्य का कर्तव्य क्या है ? भगवान ने अर्जुन को निम्नलिखित बीस दोहों में बताया है। साथ ही बताया कि भक्त का कैसे कल्याण होता है। गीता का स्वाध्याय और प्रचार करने क्या लाभ हैं
विषयेन्द्रिय को त्यागकर, करें बुद्धि जो शुद्ध।
मन वश करते धैर्य से, हो जाते वे बुद्ध।। 51
राग-द्वेष से मुक्त हों, करें वास एकांत।
मन-वाणी संयम करें, योगी जन हो शांत।।51
अल्पाहारी, पूर्णतः,विरत, करें न मिथ अहंकार।
काम, क्रोधि, लोभी न हों, रहें सदा निर्विकार।। 52
करें आत्म दर्शन नहीं,पालें स्वामी भाव।
मिथ्या शक्ति,प्रमाद से, भक्ति-सत्य बिखराव। 53
दिव्य भक्ति में जो मनुज, हो जाता है लीन।
परब्रह्म को प्राप्त कर,पाता दृष्टि नवीन।। 54
श्रेष्ठ भक्ति के मार्ग से, मिल जाते भगवान।
पाता नर बैकुंठ गति,और परम कल्यान।। 55
शुद्ध भक्ति जो भी करें, संग करें सब कार्य।
पाएँ वे मेरी कृपा, विमल आचरण धार्य।।56
सकल कार्य अर्पण करो,रखो सदा हित प्यार।
शरणागत का मैं सदा, करता हूँ उद्धार।। 57
श्रद्धा भावी भक्ति से, होता बेड़ा पार।
मिथ्यावादी जो अहम्,पाले मिलती हार।। 58
युद्ध करो अर्जुन सखा, करो स्वभावी कर्म।
भाव अवज्ञा का सदा,नष्ट करे सब धर्म।। 59
मोह जाल प्रिय छोड़कर, करो धर्म का युद्ध।
पहचानो निज कर्म को, कहते शास्त्र, प्रबुद्ध।। 60
जीव-जीव में ईश है,कण-कण अंशाधार।
माया में संलिप्त है, यह पूरा संसार।। 61
भारत!गह मेरी शरण, मिले शांति का धाम।
परमधाम पाओ प्रिये, तुम मेरा अभिराम।। 62
गुह्य ज्ञान मैंने कहा, मनन करो कुलश्रेष्ठ।
जो भी इच्छा फिर करो, जीवन होगा श्रेष्ठ।। 63
सुनो मित्र भारत महत, गूढ़ मर्म का ज्ञान।
यही परम् आदेश है,यही परम कल्यान।। 64
मम चिंतन, पूजन करो,वंदन बारंबार।
पाओगे मुझको अटल, मेरा कथन विचार।। 65
सकल धर्म परित्याग कर,करो!शरण स्वीकार।
सब पापों से मुक्त कर,करता मैं उद्धार।।-66
गुह्य ज्ञान वे कब सुनें,कब संयम अपनायँ।
एकनिष्ठ बिन भक्ति के,द्वेष करें मर जायँ।।-67
इस रहस्य को भक्ति के,जो सबको बतलाय।
शुद्ध भक्ति को प्राप्त हो,लौट शरण मम आय।।-68
वही भक्त अति प्रिय मुझे,मम करता गुणगान।
जो प्रचार मेरा करे,मुझको देव समान।।-69
मैं प्रियवर घोषित करूँ,सुन लें मम संवाद।
करें भक्ति वे बुद्धि से,जीवन बने प्रसाद।।-70
श्रद्धा से गीता सुने,होता वह निष्पाप।
पा जाता शुभ लोक को,पाए पुण्य प्रताप।।-71
प्रथा पुत्र मेरी सुनो,जो पढ़ता यह शास्त्र।
मोह मिटे अज्ञान भी,बनता मम प्रिय पात्र।।-72
भगवान श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण ज्ञान पाकर अर्जुन का माया-मोह का आवरण उसके मन-मस्तिष्क से पूरी तरह हट गया था, तब वह युद्ध करने के लिए तैयार हुआ और भगवान से कहा——
अर्जुन कहता कृष्ण से,दूर हुआ मम मोह।
ज्ञानार्जन से बुद्धि पा,मिटा विभ्रम-अवरोह।।-73
संजय हस्तनापुर के सम्राट धृतराष्ट्र के सारथी थे, अर्थात रथ चालक थे,साथ ही भगवान के भक्त भी थे। कुरुक्षेत्र का युद्ध होने से पूर्व महर्षि व्यास जी की कृपा से उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई थी, अर्थात वे एक स्थान पर बैठे ही सब कुछ देख व सुन सकते थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का पूरा संवाद सुना था, जिसका आँखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुनाते जा रहे थे। जब दोनों के मध्य संवाद समाप्त हुआ, तब अंत में उन्होंने धृतराष्ट्र से संवाद का रोमांचकारी अनुभव व्यक्त किया। जो गीता जी अंत के पाँच दोहों में इस प्रकार है——-
कृष्णार्जुन संवाद से,हुआ हृदय-रोमांच।
सच में अद्भुत वार्ता,मन हो गया शुभांत।।-74
व्यास कृपा मुझ पर हुई,सुना परम गुह ज्ञान।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने,जीवन किया महान।।-75
हे राजन!संवाद सुन,मन आह्लादित होय।
अति पावन यह वार्ता,दूर करे सब कोय।।-76
श्रीकृष्ण भगवान के,अद्भुत देखे रूप।
हर्ष भरे आश्चर्य से,जीवन हुआ अनूप।।-77
योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं,जहाँ पार्थ से वीर।
वहीं विजय ऐश्वर्य है,शक्ति,नीति सँग धीर।।-78
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” संन्यास सिद्धि योग ” अठारहवाँ अध्यायसमाप्त।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है षोडशोऽध्यायः।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए सोलहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र।।
☆ सोलहवाँ अध्याय – दैवीय और आसुरी स्वभाव ☆
श्रीकृष्ण भगवान ने इस अध्याय में अर्जुन को दैवीय व आसुरी स्वभाव के बारे में ज्ञान दिया। दो प्रकार के मनुष्य भगवान ने वर्णित किए हैं, एक दैव प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रवत्ति के। उनके गुण व अवगुण भगवान ने बताए हैं –
दैवीय मनुष्यों के गुण इस प्रकार हैं
दैव तुल्य हैं जो मनुज,दैव प्रकृति सम्पन्न।
भरतपुत्र! होते नहीं, वे ईश्वर से भिन्न ।। 1
आत्म-शुद्ध आध्यात्म से,हो परिपूरित ज्ञान।
संयम अनुशीलन करे,सदा सुपावन दान।। 2
यज्ञ, तपस्या भी करें, पढें शास्त्र व वेद।
सत्य, अहिंसा भाव से, करें क्रोध पर खेद।। 2
शान्ति, क्षमा,करुणा,रखें,हो न हृदय में भेद।
लोभ विहीना ही रहें, करें दया, रख तेज।। 3
लज्जा हो , संकल्प हो, मन से रहे पवित्र।
यश की करे न कामना, धैर्य , प्रेम हो मित्र।।3
दम्भ, दर्प, अभिमान सब,हैं आसुरी स्वभाव।
क्रोधाज्ञान, कठोरता, देते सबको घाव।। 4
दिव्य गुणी देते रहे, मानव तन को मोक्ष।
वृत्ति आसुरी दानवी, माया करे अबोध।। 5
दो प्रकार के हैं मनुज, असुर,दूसरे देव।
दैवीय गुण बतला चुका, सुनलो असुर कुटेव।। 6
भगवान ने असुर स्वभाव के मनुजों के बारे में बताया है—
वृत्ति आसुरी मूढ़ नर, रखते नहीं विवेक।
हो असत्य,अपवित्रता, नहीं आचरण नेक।। 7
मिथ्या जग को मानते, ना इसका आधार।
सृष्टा से होकर विमुख,करते भोगाचार।। 8
आत्म-ज्ञान खोएँ असुर, चाहें दुर्मद राज।
बुद्धिहीन बनकर सदा, करें न उत्तम काज।। 9
मद में डूबें गर्व से , झूठ प्रतिष्ठा चाह।
मोह-ग्रस्त संतोष बिन, सबको करें तबाह।। 10
इन्द्रिय के आश्रित रहें,जानें केवल भोग।
चिन्ता करते मरण तक, रहते नहीं निरोग।। 11
इच्छाओं की चाह में, करें पाप के काम।
मुफ्त माल चाहें सदा, क्रोध करें अतिकाम।। 12
असुरों के स्वभाव के बारे में भगवान ने बताया——–
व्यक्ति आसुरी सोचता, धन भी रहे अथाह।
वृद्धि उत्तरोत्तर करूँ, बस दौलत की चाह।। 13
मन में रखते शत्रुता, करें शत्रु पर वार।
सुख सुविधा चाहें सभी, सोचें मैं संसार।। 14
करें कल्पना मैं सुखी, मैं ही सशक्तिमान।
मुझसे बड़ा न कोय है, करें सभी सम्मान।। 15
चिन्ता कर, उद्विग्न रह, बँधे मोह के जाल।
चाहें इन्द्रिय भोग सब, बढ़ें नरक के काल।। 16
श्रेष्ठ मानते स्वयं को, करते सदा घमण्ड।
विधि-विधान माने नहीं, जकड़े मोह प्रचंड।। 17
अहंकार, बल, दर्प से, करते काम या क्रोध।।
प्रभु ईर्ष्या कर रहे , सत से रहें अबोध।।18
क्रूर , नराधम जो मनुज, और बड़े ईर्ष्यालु।
प्राप्त अधोगति को हुए , ईश न होयँ कृपालु।। 19
प्राप्त अधोगति को हुए, असुर प्रवृत्ति के लोग।
बार-बार वे जन्म लें, भोगें फल का भोग।। 20
तीन नरक के द्वार, काम, क्रोध सँग लोभ।
बुद्धिमान को चाहिए, कर लें इनसे क्षोभ।। 21
नरक द्वार से जो बचें, उनका हो कल्यान।
प्राप्त परमगति को करें, बढ़े सदा सम्मान।।22
जो जन शास्त्रादेश की,नहीं मानते बात।
उन्हें मिली सुख-सिद्धि कब, मिलती तम की रात।। 23
शास्त्र पढ़ें, उनको गुनें, जानें सुविधि- विधान।
उच्च शिखर पर पहुँचते, होता है कल्यान।। 24
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” दैवीय और आसुरी स्वभाव ब्रह्मयोग ” सोलहवाँ अध्याय समाप्त।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है चतुर्दश अध्याय।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए चौदहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। ??
– डॉ राकेश चक्र
प्रकृति के तीन गुण
श्रीभगवान ने इस अध्याय में मानव जीवन के लिए सर्वश्रेष्ठ ज्ञान एवं प्रकृति तीन गुणों के बारे में समझाया है—
सर्वश्रेष्ठ सब ज्ञान में , कहूँ प्रिय यह ज्ञान।
सिद्धि प्राप्त कर मुनीगण, पाए मोक्ष महान।। 1
दिव्य प्रकृति पाएँ मनुज, सुस्थिर होकर ज्ञान।
सृष्टि-प्रलय से छूटता, हो शाश्वत कल्यान।। 2
सकल भौतिकी वस्तुएँ, मूल ब्रह्म का स्रोत।
ब्रह्म करूँ गर्भस्थ में, व्यत्पत्ति का पोत।। 3
बीज प्रदाता पिता हूँ, जीव योनियाँ सार।
सम्भव भौतिक प्रकृति से, नवजीवन उपहार।। 4
तीन गुणों की प्रकृति है,सतो-रजो-तम सार।
जीव बँधा माया तले, ढोता जीवन भार।। 5
सतगुण दिव्य प्रकाश है, करे पाप से मुक्त।
ज्ञान, सुखों से बद्ध हो, रहे शांत संतृप्त।। 6
आकांक्षा, तृष्णा भरें, रजोगुणी उत्पत्ति।
बँधता माया मोह से, मन करता आसक्ति।। 7
तमोगुणी अज्ञान में, करता आलस मोह।
रहे प्रमादी नींद में, कर जीवन से द्रोह।। 8
सतोगुणी सुख से बँधें, रजगुण कर्म सकाम।
तमगुण ढकता ज्ञान को, करें विवादी काम।। 9
कभी सतोगुण जीतता, रज-तम हुआ परास्त।
विजित रजोगुण हो कभी, सत-तम होत परास्त।। 10
कभी तमोगुण जीतता, सत-रज हो परास्त।
चले निरन्तर स्पर्धा, श्रेष्ठ होयँ अपदास्थ।। 10
सतगुण की अभिव्यक्ति का, तब ही अनुभव होय।
तन के द्वारों में सभी, जले प्रकाशी लोय।। 11
रजगुण की जब वृद्धि हो, अति की हो आसक्ति।
बढ़ें अपेक्षा , लालसा, सकाम कर्म अनुरक्ति।। 12
तमगुण में जब वृद्धि हो, बढ़ जाए तम- मोह।
जड़ता, प्रमता घेरती, विरथा जीवन खोह।। 13
सतोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।
चले लोक सर्वोच्च में, हों महर्षि भी पास।। 14
रजोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।
गृहस्थ घरों में जन्म लें, जाते परिजन पास।। 15
तमोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।
पशुयोनी में जन्म लें, सहे आयु भर त्रास।। 15
पुण्य कर्म का फल सदा, होता सात्विक मित्र।
रजोगुणी के कर्म तो, देते दुख के चित्र।। 16
तमोगुणी के कर्म तो, हों मूर्खतापूर्ण।
प्रतिफल मिलता शीघ्र ही, गर्व होयँ सब चूर्ण।। 16
असल ज्ञान उत्पन्न हो, सतोगुणों से मित्र।
देय रजोगुण लोभ को, तामस गुणी चरित्र।। 17
सतोगुणी हर दशा में, जाते उच्चों लोक।
रजोगुणी भूलोक में, तमोगुणी यमलोक।। 18
हैं प्रकृति के तीन गुण, जानें जगे विवेक।
कर्ता कोई है नहीं, ईश दिव्य आलोक।। 19
तीन गुणों को लाँघता, वही बने नर श्रेष्ठ।
जन्म, मृत्यु छूटे जरा, जीवन बनता श्रेष्ठ।। 20
अर्जुन ने कहा——
तीन गुणों से जो परे, क्या वह लक्षण होय।
सुह्रद शील-व्यवहार हो, लाँघे तीनों जोय।। 21
श्रीभगवान ने कहा—–
तीन गुणों से जो परे, करता सबसे प्यार।
मोह और आसक्ति का, नहीं हो सके वार।। 22
सुख-दुख में वह सम रहे, करे न इच्छा कोय।
निश्चल, अविचल भाव रख, कभी न रोना रोय।। 23
भेदभाव रखता नहीं, रहता दिव्य विरक्त।
स्थित रहता स्वयं मैं, सदा रहे वह तृप्त।। 24
मान और अपमान में, रहे सदा वह एक।
सदा रहे प्रभु भक्ति में, करे कार्य सब नेक।। 25
सकल हाल में धैर्य रख, करता पूरी भक्ति।
तीनों गुण वह लाँघता, बने ब्रह्म अनुरक्त।। 26
आश्रय कर लो ब्रह्म पर, निराकार जग सार।
अविनाशी सच्चा प्रभो, देता चिर सुख- प्यार।। 27
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” प्रकृति के तीन गुण ब्रह्मयोग ” चौदहवाँ अध्याय समाप्त।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है त्रयोदश अध्याय।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। श्रीमद्भागवत गीता जी का अध्याय तेहरवां पढ़िए। अपने आज और कल को उज्ज्वल करिएआज आप पढ़िए।आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र
प्रकृति, पुरुष और चेतना
इस अध्याय में श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष और चेतना के बारे में ज्ञान दिया।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा–
क्या है प्रकृति मनुष्य प्रभु,ज्ञेय और क्या ज्ञान?
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या,बोलो कृपानिधान।। 1
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष, चेतना के बारे में इस तरह ज्ञान दिया—–
हे अर्जुन मेरी सुनो,कर्मक्षेत्र यह देह।
यह जानेगा जो मनुज, करे न इससे नेह।।2
ज्ञाता हूँ सबका सखे,मेरे सभी शरीर।
ज्ञाता को जो जान ले, वही भक्त मतिधीर।। 3
कर्मक्षेत्र का सार सुन,प्रियवर जगत हिताय।
परिवर्तन-उत्पत्ति का, कारण सहित उपाय।। 4
वेद ग्रंथ ऋषि-मुनि कहें, क्या हैं कार्यकलाप?
क्षेत्र ज्ञान ज्ञाता सभी, कहते वेद प्रताप।। 5
मर्म समझ अन्तः क्रिया, यही कर्म का क्षेत्र।
मनोबुद्धि, इंद्रिय सभी, लख अव्यक्ता नेत्र।। 6
पंचमहाभूतादि सुख, दुख इच्छा विद्वेष।
अहंकार या धीरता, यही कर्म परिवेश।। 7
दम्भहीनता,नम्रता,दया अहिंसा मान।
प्रामाणिक गुरु पास जा, और सरलता जान।। 8
स्थिरता और पवित्रता, आत्मसंयमी ज्ञान।
विषयादिक परित्याग से, हो स्वधर्म- पहचान।। 9
अहंकार से रिक्त मन, जन्म-मरण सब जान।
रोग दोष अनुभूतियाँ,वृद्धावस्था भान।। 10
स्त्री, संतति, संपदा, घर, ममता परित्यक्त।
सुख-दुख में जो सम रहे, वह मेरा प्रिय भक्त।। 11
वास ठाँव एकांत में, करते इच्छा ध्यान।
जो अनन्य उर भक्ति से,उनको ज्ञानी मान।। 12
जनसमूह से दूर रह, करे आत्म का ज्ञान।
श्रेष्ठ ज्ञान वह सत्य है, बाकी धूलि समान।। 12
अर्जुन समझो ज्ञेय को, तत्व यही है ब्रह्म।
ब्रह्मा , आत्म, अनादि हैं, वही सनातन धर्म।। 13
परमात्मा सर्वज्ञ है, उसके सिर, मुख, आँख।
कण-कण में परिव्याप्त हैं, हाथ, कान औ’ नाक।। 14
मूल स्रोत इन्द्रियों का, फिर भी वह है दूर।
लिप्त नहीं ,पालन करे, सबका स्वामी शूर।। 15
जड़-जंगम हर जीव से, निकट कभी है दूर।।
ईश्वर तो सर्वत्र है, दे ऊर्जा भरपूर।। 16
अविभाजित परमात्मा, सबका पालनहार।
सबको देता जन्म है, सबका मारनहार।। 17
सबका वही प्रकाश है, ज्ञेय, अगोचर ज्ञान।
भौतिक तम से है परे, सबके उर में जान।। 18
कर्म, ज्ञान औ’ ज्ञेय मैं, सार और संक्षेप।
भक्त सभी समझें मुझे, नहीं करें विक्षेप।। 19
गुणातीत है यह प्रकृति ,जीव अनादि अजेय।
प्रकृति जन्य होते सभी, समझो प्रिय कौन्तेय।। 20
प्रकृति सकारण भौतिकी, कार्यों का परिणाम।
सुख-दुख का कारण जगत,वही जीव-आयाम।। 21
तीन रूप गुण-प्रकृति के,करें भोग- उपयोग।
जो जैसी करनी करें, मिलें जन्म औ’ रोग।। 22
दिव्य भोक्ता आत्मा, ईश्वर परमाधीश।
साक्षी, अनुमति दे सदा, सबका न्यायाधीश।। 23
प्रकृति-गुणों को जान ले, प्रकृति और क्या जीव?
मुक्ति-मार्ग निश्चित मिले, ना हो जन्म अतीव।। 24
कोई जाने ज्ञान से, कोई करता ध्यान।
कर्म करें निष्काम कुछ, कोई भक्ति विधान।। 25
श्रवण करें मुझको भजें, संतो से कुछ सीख।
जनम-मरण से छूटते, जीवन बनता नीक।। 26
भरत वंशी श्रेष्ठ जो, चर-अचरा अस्तित्व।
ईश्वर का संयोग बस, कर्मक्षेत्र सब तत्व।। 27
आत्म तत्व जो देखता, नश्वर मध्य शरीर।
ईश अमर और आत्मा,वे ही संत कबीर।। 28
ईश्वर तो सर्वत्र है, जो भी समझें लोग।
दिव्यधाम पाएँ सदा, ये ही सच्चा योग।। 29
कर्म करें जो हम यहाँ, सब हैं प्रकृति जन्य।
सदा विलग है आत्मा, सन्त करें अनुमन्य।। 30
दृष्टा है यह आत्मा, बसती सभी शरीर।
जो सबमें प्रभु देखता, वही दिव्य सुधीर।। 31
अविनाशी यह आत्मा, है यह शाश्वत दिव्य।
दृष्टा बनकर देखती, मानव के कर्तव्य।। 32
सर्वव्याप आकाश है, नहीं किसी में लिप्त।
तन में जैसे आत्मा, रहती है निर्लिप्त।। 33
सूर्य प्रकाशित कर रहा, पूरा ही ब्रह्मांड।
उसी तरह यह आत्मा, चेतन और प्रकांड।। 34
ज्ञान चक्षु से जान लें, तन, ईश्वर का भेद।
विधि जानें वे मुक्ति की, जीवन बने सुवेद।। 35
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” प्रकृति, पुरुष तथा चेतना ” तेहरवां अध्याय समाप्त।