अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (16) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।16।।

 

मन प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म अवलंब

शुद्ध विचार, पवित्रता, मानस तप के अंग।।16।।

 

भावार्थ :   मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।।16।।

Serenity of mind, good-heartedness, purity of nature, self-control-this is called mental austerity.।।16।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (15) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ।।15।।

सरल सत्य प्रिय भाषण औ” दैनिक स्वाध्याय

जिस से न उद्वेग वह वाचिक तप कहलायॅ ।।15।।

भावार्थ :   जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम ‘यथार्थ भाषण’ है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है ।।15।।

 

Speech which causes no excitement and is truthful, pleasant and beneficial, the practice of the study of the Vedas, are called austerity of speech. ।।15।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (14) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।।14।।

 

द्विज, गुरू, ज्ञानी देव की पूरा सरल अहिंसा धार

की जाती वह तपस्या, कायिक विधि अनुसार ।।14।।

भावार्थ :   देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ।।14।।

Worship of   the   gods,   the   twice-born,   the   teachers   and   the   wise, purity, straightforwardness, celibacy and non-injury—these are called the austerities of the body. ।।14।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ वही की वही बात ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ वही की वही बात 

…सुनो, शहर में नई फिल्म लगी है। शनिवार की शाम को तैयार रहना।  ऑफिस से आते हुए मैं टिकट लेते आऊँगा…, जूते उतारते हुए उसने पत्नी से कहा।

…नहीं, शनिवार को नहीं चल सकती। इतवार को बबलू का जी.के. का टेस्ट है। मुझे उसकी तैयारी करानी है।

…कभी, कहीं भी जाने का मन हो, तुम्हारे बबलू का कोई न कोई अड़ंगा रहता ही है। ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!

बबलू, उन दोनों की एकमात्र संतान। लाड़ला, थोड़ा नकचढ़ा। दोनों बबलू की परवरिश पर बहुत ध्यान देते। माँ, बबलू को दुनिया में सबसे ऊँचा देखना चाहती थी तो बाप उस ऊँचाई पर जाने की सीढ़ी के लिए लगने वाला सामान जुटाता रहता।

अब ज़्यादातर ऐसा ही होने लगा था। दोनों में से किसी एक की या दोनों की जब कहीं जाने, घूमने-फिरने की इच्छा होती, बबलू बीच में आ ही जाता। वैसे दोनों को अपनी इच्छाएँ मारने का कोई रंज़ न होता। होता भी भला कैसे?

बबलू बड़ा होता गया और उनकी इच्छाओं का कद छोटा। कुछ इच्छाओं ने दम तोड़ दिया, कुछ ने रूप बदल लिया। अब मेले में झूले पर साथ बैठी पत्नी का डरकर सार्वजनिक रूप से उसके पहलू में समा जाना,बाहों में बाहें डालकर सिनेमा देखना, पकौड़ेे वाली तंग गली में एक-दूसरे से सटकर एक ही प्लेट में गोलगप्पे खाना, पति के साथ स्कूटर पर चिपक कर बैठना जैसी सारी इच्छाएँ कालातीत हो गईं। बबलू को ऊँचा बनाने की जद्‌दोज़हद के तरीके बतानेवाली किताब में उनकी अपनी इच्छाओं के लिए कोई पन्ना था ही नहीं।

एकाएक एक दिन पत्नी बोली-सुनोजी, चौदह-पंद्रह बरस हो गए शहर से निकले। अगले महीने से बबलू की बीस दिन की छुट्‌टी शुरू हो रही हैं। क्यों न हम वैष्णोदेवी हो आएँ?…..विचार तो तुम्हारा अच्छा है; पर बबलू की माँ, बबलू की इंजीनियरिंग की फीस बहुत ज्यादा है। बीस दिन बाद कॉलेज खुलेगा तो पूरा पैसा एक साथ भरना पड़ेगा। अभी वैष्णो देवी चले गए तो….!….अरे तो क्या हो गया? दिल छोटा क्यों करते हो? हम तो बस यूँ ही…और देवी माँ तो मन में बसती है…अपने पूजा घर में रोज दर्शन करते ही हैं न…!…वो तो ठीक है फिर भी बबलू की माँ मैं तुम्हारी इच्छा….!…क्या बात लेकर बैठ गए! हम माँ-बाप हैं बबलू के। बबलू पहले या हमारी इच्छा?…..सचमुच वे पति-पत्नी कहाँ रह गए थे, वह बाप था बबलू का, वह माँ थी बबलू की।

समय पंख लगाकर उड़ता रहा। बाप रिटायर हो चुका। माँ भी घर का काम करते-करते थक चुकी। अलबत्ता बबलू अब इंजीनियर हो चुका। ये बात अलग है कि उसे इंजीनियर बनाने की जुगाड़ में माँ-बाप के पास बचत के नाम पर कुछ भी नहीं बचा। फिर भी दोनों खुश थे क्योंकि बबलू को इंजीनियर देखना, उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी। दो साल हुए, बबलू की शादी भी हो गई। बेटे का ध्यान रखनेवाली आ गई, सो माँ-बाप के पति-पत्नी होने की प्रक्रिया फिर शुरू हुई।

…सुनोजी, वैष्णोे माँ की दया से बबलू के लिए जो चाहा, सब हो गया। अब तो कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं रही, वैष्णोेदेवी के दर्शन करने चलें?…हाँ, हाँ, क्यों नहीं? मैं आज ही बबलू से बात कर लेता हूँ। थोड़ा पैसा तो उससे लेना पड़ेगा….अगर वो हाँ कहेगा तो….तो मेरा बबलू क्या माँ-बाप को तीरथ भी नहीं करायेगा?

…..बाऊजी! आपकी और अम्मा की ये उमर है क्या घूमने-जाने की? कल कोई चोट-वोट लग जाए तो?..पर बेटा हम तो तीरथयात्रा!…अम्मा क्या फ़र्क पड़ता है, और देवी माँ तो मन में बसती है। अपने पूजाघर में रोज दर्शन करती ही हैं न आप …., उत्तर बहू ने दिया था।

माँ-बाप खिसिया गए। पति-पत्नी होने की प्रक्रिया को झटका लगा।…..”मैं कहता था न बबलू की अम्मा! ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!”..ज़बर्दस्ती हँसने की कोशिश में माँ-बाप बने पति-पत्नी ने अपने चेहरे विरुद्ध दिशा में घुमा लिए ताकि दोनों एक-दूसरे की कोरों तक आ चुका खारा पानी ना देख सकें।

 

#आपका समय सार्थक हो। 

©  संजय भारद्वाज 

( लगभग 15 वर्ष पूर्व लिखी कहानी।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (13) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌।

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ।।13।।

 

मंत्रहीन, दक्षिणा रहित, श्रद्धा रहित जो यज्ञ

उसे तामसी मानते सभी विज्ञ, शास्त्रज्ञ ।।13।।

 

भावार्थ :   शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।।13।।

 

They declare that sacrifice to be Tamasic which is contrary to the ordinances of the scriptures, in which no food is distributed, which is devoid of Mantras and gifts, and which is devoid of faith. ।।13।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (12) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌।

इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌ ।।12।।

फल को लेकर कामना, दंभ हृदय में धार

जो तप हैं जाते किये ,राजस उन्हें पुकार ।।12।।

 

भावार्थ :   परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान ।।12।।

 

The sacrifice which is offered, O Arjuna, seeking a reward and for ostentation, know thou that to be a Rajasic Yajna!।।12।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पी-17 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पी-17

‘चुपचाप रहो’

दो शब्दों का मेल,

कहने वाले,

सुनने वाले के भीतर

मचा देता है

विचारों का

दोतरफा कोलाहल!

 

©  संजय भारद्वाज 

8:36 बजे, 2.9.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (11) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।

यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।11।।

सात्विक विधि का यज्ञ वह जो हो शास्त्र अनुसार

फलत्यागी, कर्तव्यरत, मन प्रसन्न हितकार ।।11।।

 

भावार्थ :  जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है॥11॥

That sacrifice which is offered by men without desire for reward as enjoined by the ordinance (scripture), with a firm faith that to do so is a duty, is Sattwic (or pure).

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (10) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌ ।।10।।

बासी, नीरस,गंधमय झूठा व अपवित्र

तामसियों को प्रिय सदा ऐसा भोजन मित्र ।।10।।

 

भावार्थ :  जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है।।10।।

 

That which is stale, tasteless, putrid, rotten and impure refuse, is the food liked by the Tamasic.।।10।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अंतर्मुखी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अंतर्मुखी 

 

बाहरी दुनिया

देखते-देखते

आदमी जब

थक जाता है,

उलट लेता है

अपनी आँखें

अंतर्मुखी

कहलाता है,

लम्बे समय तक

बाहरी दुनिया को

देखने, समझने की

दृष्टि देता है,

कुछ समय

अंतर्मुखी होना

अच्छा होता है..!

 

©  संजय भारद्वाज 

दोपहर 3:33 बजे, 25.8.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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