अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (1) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन)

 

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌।।1।।

 

श्री भगवान ने कहा-

अभय,दान,दम,यज्ञ,तप तथा हृदय की शुद्धि

स्वाध्याय औ” सरलता, ज्ञान योग की स्थिति।।1।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति (परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम ‘ज्ञानयोगव्यवस्थिति’ समझना चाहिए) और सात्त्विक दान (गीता अध्याय 17 श्लोक 20 में जिसका विस्तार किया है), इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान्‌ के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता।।1।।

 

Fearlessness, purity of heart, steadfastness in Yoga and knowledge, alms-giving, control of the senses, sacrifice, study of scriptures, austerity and straightforwardness।।1।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ब्लैक होल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ब्लैक होल ☆

कैसे जब्त कर लेते हो

इतने दुख, इतने विषाद

अपने भीतर..?

विज्ञान कहता है

पदार्थ का विस्थापन

अधिक से कम

सघन से विरल

की ओर होता है,

जमाने का दुख

आता है, समा जाता है,

मेरा भीतर इसका

अभ्यस्त हो चला है

सारा रिक्त शनैः-शनैः

ब्लैक होल हो चला है!

 

©  संजय भारद्वाज

आपका दिन सार्थक हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – पंचदश अध्याय (20) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पुरूषोत्तम योग

(संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय)

(क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय)

 

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।

एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।।20।।

 

इस प्रकार यह शास्त्र गुण मुझे बताया पार्थ

जिसे जान सब विज्ञजन लेते अमित कृतार्थ।।20।।

 

भावार्थ :  हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।।20।।

 

Thus, this most secret science has been taught by Me, O sinless one! On knowing this, a man becomes wise, and all his duties are accomplished, O Arjuna!।।20।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥15॥

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शैवाली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ में आज-

☆ संजय दृष्टि  ☆ शैवाली ☆

जैसे शैवाली लकड़ी,

ऊपर से एकदम हरी

कुरेदते जाओ तो

भीतर निविड़ सूखापन,

कुरेदना औरत का मन कभी,

औरत और शैवाली लकड़ी

एक ही प्रजाति की होती हैं..!

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 8:37, 15.7.19

आपका दिन सार्थक हो।☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – पंचदश अध्याय (19) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पुरूषोत्तम योग

(संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय)

(क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय)

 

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌ ।

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।।19।।

 

जो ज्ञानि करते मुझे प्रेमभाव से याद

पूजा करते है मेरी, पाते विमल प्रसाद।।19।।

 

भावार्थ :  भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।।19।।

 

He who, undeluded, knows Me thus as the highest Purusha, he, knowing all, worships me with his whole being (heart), O Arjuna!।।19।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सम्पन्नता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ सम्पन्नता ☆

बूढ़े जीवन ने

यकायक पूछा,

कभी सोचा

अब तक

क्या खोया

क्या पाया,

अपनी संपन्नता पर

मैं इतराया,

मर्त्यलोक में

क्षरण के मूल्य पर

अक्षय पाता रहा,

साँसे खोता रहा

अनुभवी होता रहा,

रीता आया था

सृष्टि सम्पन्न लौट रहा हूँ,

सो खोया कुछ नहीं

बस, पाया ही पाया!

©  संजय भारद्वाज

30.7.2017, रात्रि 8.18 बजे

# आपका दिन सृजनशील हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – पंचदश अध्याय (18) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पुरूषोत्तम योग

(संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय)

(क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय)

 

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।18।।

क्षर-अक्षर से अलग मै हूं सबसे उत्तम

इसीलिये जग, वेद में ज्ञात मै पुरूषोत्तम ।।18।।

भावार्थ :  क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग- क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।।18।।

 

As I transcend the perishable and am even higher than the imperishable, I am declared as the highest Purusha in the world and in the Vedas।।18।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हँसी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ हँसी ☆

31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद की जयंती थी।  उन्हें नमन। बचपन में उनकी कहानी ‘घासवाली’ पढ़ी थी।  उसकी नायिका के धुँधले-से अक्स  और कहानी की पृष्ठभूमि ने लगभग बीस वर्ष बाद लिखी कविता को भी प्रभावित किया था।  इस रचना की मंच पर नृत्य नाटिका के रूप में अनेक प्रस्तुतियाँ हो चुकीं। मुंशी जी को समर्पित यह कविता रक्षाबंधन पर भी सामयिक है। अत: साझा कर रहा हूँ।

 

भीड़ को चीरती एक हँसी

मेरे कानों पर आकर ठहर गई थी,

कैसी विद्रूप, कैसी व्यावसायिक

कैसी जानी-बूझी लंपट-सी हँसी थी,

मैं टूटा था, दरक-सा गया था

क्या यह वही थी, क्या वह उसकी हँसी थी…..?

 

पुष्पा गाँव की एक घसियारिन थी,

सलीके से उसके  हाथ

आधा माथा ढके जब घास काटते थे

उसके रूप की कल्पनामात्र से

कई कलेजे कट जाते थे..,

 

थी फूल अनछुई-सी

जंगली घास में जूही-सी,

काली भरी-भरी सी देह

बोलती बड़ी-बड़ी-सी सलोनी आँखें,

मुझे शायद आँखों से सुंदर

उसमें तैरते उसके भाव लगते थे,

भाव जिनकी मल्लिका को

शब्दों की जरूरत ही नहीं

यों ही नि:शब्द रचना रच जाती थी ..,

 

पुष्पा थी तो मधवा की घरवाली

पर कुँआरी लड़कियाँ भी

उसके रूप से जल जाती थीं,

गाँव के मरदों के भीतर के

जानवर को, कल्पनाओं में भी

उसका ब्याहता रूप नहीं भाता था,

लोक-लाज-रिवाजों के कपड़ों के भीतर भी

उनका प्राकृत रूप नजर आ ही जाता था..,

 

पुष्पा न केवल एक घसियारिन थी

पुष्पा न केवल एक ब्याहता थी

पुष्पा एक चर्चा थी, पुष्पा एक  अपेक्षा थी…..

 

गॉंव के छोटे ठाकुर …… बस ठाकुर थे,

नतीजतन रसिया तो होने ही थे,

जिस किसी पर उनकी नज़र पड़ जाती

वो चुपचाप उनके हुक्म के आगे झुक जाती,

मुझे लगता था गाँव की औरतों में भी

कोई अपेक्षा पुरुष बसा है,

अपनी तंग-फटेहाल ज़िन्दगी में

कुछ क्षण ठाकुर के,

उन्हें किसी रुमानी कल्पना से कम नहीं लगते थे

काँटों की शैया को सोने के पलंग

सपने सलोने से कम नहीं लगते थे..,

 

खेतों के बीच की पतली-सी पगडंडी,

डूबते क्षितिज को चूमता सूरज,

पक्षियों का कलरव,

घर लौटते चौपायों का समूह,

दूर जंगल में शेर की गर्जना,

अपने डग घर की ओर बढ़ाती

आतांकित बकरियों की छलांग,

इन सब के बीच-

सारी चहचहाट को चीरते

गूँज रही थी पुष्पा की हँसी..,

 

सर पर घास का बोझ, हाथ में हँसिया

घर लौटकर, पसीना सुखाकर

कुएँ का एक गिलास पानी पीने की तमन्ना

मधवा से होने वाली जोरा-जोरी की कल्पना..,

 

स्वप्नों में खोई परीकुमारी-सी

ढलती शाम को चढ़ते यौवन-सा

प्रदीप्त करती अक्षत कुमारी-सी

चली जा रही थी पुष्पा ..,

 

एकाएक,

शेर की गर्जना ऊँची हुई,

मेमनों में हलचल मची,

एक विद्रूप चौपाया

मासूम बकरी को घेरे खड़ा था,

ठाकुर का एक हाथ मूँछो पर था

दूसरा पुष्पा की कलाई पकड़े खड़ा था..,

हँसी यकायक चुप हो गई

झटके से पल्लूू वक्ष पर आ गया,

सर पर रखा घास का झौआ

बगैर सहारे के तन गया था,

हाथ की हँसुली

अब हथियार बन गया था..,

 

रणचंडी का वह रूप

ठाकुर देखता ही रह गया,

शर्म से आँखें झुक गईं

आत्मग्लानि ने खींचकर थप्पड़ मारा,

निःशब्द शब्दों की जननी

सारे भाव ताड़ गई,

ठाकुर, पुष्पा को क्या ऐसी-वैसी समझा है!

तू तो गाँव का मुखिया है,

हर बहू-बेटी को होना तुझे रक्षक है,

फिर क्यों तू ऐसा है,

क्यों तेरी प्रवृत्ति ऐसी भक्षक है..?

 

ए भाई!

आज जो तूने मेरा हाथ थामा,

तो ये हाथ रक्षा के लिये थामा

ये मैंनेे माना है,

एक दूब से पुष्पा ने रक्षाबंधन कर डाला था,

ठाकुर के पाप की गठरी को

उसके नैनों से बही गंगा ने धो डाला था,

ठाकुर का जीवन बदल चुका था

छोटे ठाकुर, अब सचमुच ठाकुर थे..,

 

पुष्पा की हँसी का मैं कायल हो गया था

निष्पाप, निर्दोष छवि का मैं भक्त हो चला था,

फिर शहर में घास बेचती

ग्राहकों को लुभाकर बातें करती,

ये विद्रूप हँसी, ये लंपट स्वरूप,

पुष्पा तेरा कौन-सा है सही रूप ?

 

उसे मुझे देख लिया था

पर उसकी तल्लीनता में

कोई अंतर नहीं आया था,

उलटे कनखियों से

उसे देखने की फिराक में

मैं ही उसकी आँखों से जा टकराया था,

वह फिर भी हँसती रही..,

 

गाँव के खेतों के बीच से जाती

उस संकरी पगडंडी पर

उस शाम पुष्पा फिर मिली थी,

वह फिर हँसी थी..,

 

बोली-

बाबूजी! जानती हूँ,

शहर की मेरी हँसी

तुमने गलत नहीं मानी है,

पुष्पा वैसी ही है

जैसी तुमने शुरू से जानी है,

हँसती चली गई, हँसती चली गई

हँसती-हँसती चली गई दूर तक..,

 

अपने चिथड़ा-चिथड़ा हुए

अस्तित्व को लिए

निस्तब्ध, लज्जित-सा मैं

क्षितिज को देखता रहा,

जाती पुष्पा के पदचिह्नों को घूरता रहा,

खुद ने खुद से प्रश्न किया,

ठाकुर और तेरे जैसों की

सफेदपोशी क्या सही थी,

उत्तर में गूँजी फिर वही हँसी थी !

 

©  संजय भारद्वाज

कविता संग्रह- चेहरे

प्रकाशन वर्ष- 2014

# आपका दिन सृजनशील हो।

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – पंचदश अध्याय (17) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पुरूषोत्तम योग

(संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय)

(क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय)

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।17।।

उत्तम पुरूष तो एक है इन दोनो से भिन्न

वह पालक परमात्मा, सदा प्रसन्न अखिन्न ।।17।।

 

भावार्थ :  इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है।।17।।

 

But distinct is the Supreme Purusha called the highest Self, the indestructible Lord who, pervading the three worlds, sustains them.।।17।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – पंचदश अध्याय (16) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पुरूषोत्तम योग

(संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय)

(क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय)

 

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।16।।

 

पुरूष दो है इस लोक में क्षर-अक्षर है भेद

क्षर कहती सब भूल को अक्षर जीव अनेक ।।16।।

 

भावार्थ :  इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये दो प्रकार (गीता अध्याय 7 श्लोक 4-5 में जो अपरा और परा प्रकृति के नाम से कहे गए हैं तथा अध्याय 13 श्लोक 1 में जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के नाम से कहे गए हैं, उन्हीं दोनों का यहाँ क्षर और अक्षर के नाम से वर्णन किया है) के पुरुष हैं। इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है॥16॥

 

Two Purushas there are in this world, the perishable and the imperishable. All beings are the perishable, and the Kutastha is called the imperishable.।।16।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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