(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है दशम अध्याय।
स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का दशम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए
– डॉ राकेश चक्र
ऐश्वर्य – श्रीभगवान ने अपने ऐश्वर्य के बारे में अर्जुन को इस प्रकार ज्ञान देकर बताया
महाबाहु मेरी सुनो, तुम हो प्रियवर मित्र।
श्रेष्ठ ज्ञान मैं दे रहा, खिलें फूल से चित्र।। 1
यश वैभव उत्पत्ति को , नहीं जानते देव।
उद्गम सबका मैं सखे, करता प्रकट स्वमेव।। 2
मैं स्वामी हर लोक का, अजर अनादि अनंत।
जो जाने इस ज्ञान को, मुक्ति पंथ गह अंत।। 3
सत्य-ज्ञान, सद्बुद्धि सब, मैं ही देता प्राण।
मोह विसंशय,मुक्त कर, हर लेता सब त्राण।। 4
यश-अपयश-तप-दान भी, मैं ही करूँ प्रदत्त।
क्षमा भाव जीवन-मरण, सुख-दुख चक्रावर्त।। 4
विविध गुणों का स्वामि मैं, मन निग्रही अनादि।
इन्द्रिय-निग्रह मैं करूँ, हर लेता भय आदि।। 5
सप्तऋषी गण, मनु सभी, अन्य महर्षी चार।
उदगम मूलाधार मैं, फैले लोक अपार।। 6
जानें मम ऐश्वर्य को, जो योगी आश्वस्त।
करते भक्ति अनन्य जो,मैं उनका विश्वस्त।। 7
सकल-सृष्टि आध्यात्म का, सबका मैं हूँ सार।
सबका ही उद्भूत मैं, सबका पालन हार।। 8
शुद्ध भक्त जो भी करे, मन में शुद्ध विचार।
बाँटें मेरे ज्ञान को, अंतःगति उद्धार।। 9
मेरी सेवा भक्ति से,करते हैं जो प्रेम।
उनको देता ज्ञान मैं, सुभग योग अरु क्षेम।। 10
कृपा विशेषी मैं करूँ, करता उर में वास।
दीप जलाऊँ ज्ञान का, फैले दिव्य प्रकाश।। 11
अर्जुन ने श्रीभगवान के बारे में कुछ इस तरह कहा—
आप परम् भगवान हैं, परमा-सत्य पवित्र।
आप अजन्मा-दिव्य हैं, आदि पुरुष हैं पित्र।। 12
आप सर्वथा हैं महत, कहते नारद सत्य।
असित, व्यास, देवल कहें, यही सत्य का तथ्य।। 13
माधव तुमने जो कहा, वही पूर्ण है सत्य।
देव-असुर अनभिज्ञ सब, ना जानें यह सत्य।। 14
सबके उदगम आप हैं, सबके स्वामी आप।
सब देवों के देव हैं, ब्रह्माण्डों के बाप।।15
सदय कहें विस्तार से, यह निज दैविक मर्म।
सर्वलोक स्वामी तुम्हीं , सबके पालक धर्म।। 16
चिंतन कैसे मैं करूँ, मुझको प्रिय बतायं।
कैसे जानूँ आपको, कैसे ह्रदय बसायं। 17
योगशक्ति-ऐश्वर्य का, वर्णन करो दुबार।
तृप्त नहीं माधव हुआ, कहिए अमृत- विचार।। 18
श्रीभगवान ने अर्जुन को अपने सूक्ष्म ऐश्वर्य के बारे में इस प्रकार वर्णन किया—–
मुख्य-मुख्य वैभव कहूँ, तुमसे अर्जुन आज।
मेरा चिर-ऎश्वर्य है, चिर सर्वत्री राज।। 19
सब जीवों के ह्रदय में, मेरा रहता वास।
आदि-अंत औ’ मध्य मैं, मैं ही भरूँ प्रकाश।। 20
आदित्यों में विष्णु मैं, तेजों में रवि सन्द्र।
मरुतों मध्य मरीचि मैं,नक्षत्रों में चन्द्र।। 21
वेदों में मैं साम हूँ, देवों में हूँ इन्द्र।
इंद्रियों में मन रहूँ, जीवनशक्ति-मन्त्र।। 22
सब रुद्रों में शिव स्वयं, दानव-यक्ष कुबेर।
वसुओं में मैं अग्नि हूँ, सब पर्वत में मेरु।। 23
पुरोहितों में वृहस्पति, मैं ही कार्तिकेय।
जलाशयों में जलधि हूँ, जानो मेरा ध्येय।। 24
महर्षियों में भृगु हूँ, दिव्य-वाणि ओंकार।
यज्ञों में जप-कीर्तना, मैं हिमवान-प्रसार।। 25
वृक्षों में पीपल रहूँ , चित्ररथी -गंधर्व।
सिद्धों में मुनि कपिल हूँ, नारद- देव रिश्रर्व। 26
उच्चै:श्रवा अश्व मैं, प्रकटा सागर गर्भ।
ऐरावत गजराज मैं, राजा मानव धर्म।। 27
शस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गऊओं में सुरीभि।
कामदेव में प्रेम हूँ, सर्पों में वासूकि।। 28
फणधारि में अनन्त हूँ, जलचरा वरुणदेव।
पितरों में मैं अर्यमा, न्यायधीश यमदेव।। 29
दैत्यों में प्रहलाद हूँ, दमनों में महाकाल।
पशुओं में मैं सिंह हूँ, खग में गरुड़ विशाल।। 30
पवित्र-धारि में वायु हूँ, शस्त्रधारि में राम।
मीनों में मैं मगर हूँ, सरि में गंगा नाम।। 31
सकल सृष्टि में आदि मैं, मध्य और हूँ अंत।
विद्या में अध्यात्म हूँ, सत्य और बलवंत।। 32
अक्षर मध्य अकार हूँ, समासों में द्वंद्व ।
मैं ही शाश्वत काल हूँ, सृष्टा ब्रह्म निद्वन्द।। 33
मैं सबभक्षी मृत्यु हूँ, मैं ही भूत-भविष्य।
सात नारि में मैं रहूँ, कीर्ति-श्री -सी हस्य।। 34
मैं और मेधा-सुस्मृति , मैं ही धृति हूँ भव्य।
मैं ही क्षमा सुनारि हूँ, मैं ही वाक सुनव्य।। 34
सामवेद वृहत्साम हूँ, ऋतुओं में मधुमास।
छन्दों में मैं गायत्री, अगहन उत्तम मास।। 35
छलियों में मैं जुआ हूँ, तेजवान में तेज।
पराक्रमी की विजयी प्रिय, बलवानों की सेज।। 36
वृष्णिवंशी वसुदेव हूँ, पांडवों में अर्जुन।
मुनियों में मैं व्यास हूँ, महान उशना- जन।। 37
अपराधी का दण्ड मैं, और न्याय की नीति।
रहस्य का मैं मौन हूँ, ज्ञान-बुद्धि की रीति।। 38
जनक बीज मैं सृष्टि का, चर-अचरा सब कोय।
नहीं रह सके मुझ बिना, सब जग मुझ में होय।। 39
अंत न दैव- विभूति का, यह अनन्त आख्यान।
विशद विभूति हैं मेरी, सार प्रिये तू जान।। 40
जो सारा ऐश्वर्य है, या जो है सौंदर्य।
मेरी अनुपम सृष्टि है, सब कुछ मेरा कर्य।। 41
विशद ज्ञान ब्रह्मांड का, अंशमात्र यह दृश्य।
सब कुछ धारण मैं करूँ, चले जगत कर्तव्य।। 42
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” ऐश्वर्य वर्णन” दसवाँ अध्याय समाप्त।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 96 ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆
लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे यह भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच ज़मीन की फरोख्त करते हैं। खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ, धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले ही शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों, खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस के आयोजनों पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख “चेदि के नंदिकेश्वर”.)
☆ किसलय की कलम से # 45 ☆
☆ चेदि के नंदिकेश्वर ☆
देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की पूजा आराधना तो बहुत बाद की बात है, भोले शंकर के स्मरण मात्र से मानव अपने तन-मन में उनका अनुभव करने लगता है। पावन सलिला माँ नर्मदा की जन्मस्थली अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक 16 करोड़ शिवलिंग तथा दो करोड़ तीर्थ होने की मान्यता सुनकर आश्चर्य होता है। अतैव हम नर्मदातट को शिवमय क्षेत्र भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं माना जाएगा। नर्मदा तट के जनमानस में भगवान शिव के प्रति प्रारंभ से ही अगाध आस्था के प्रमाण उपलब्ध हैं। सोमेश्वर , मंगलेश्वर , तपेश्वर , कुंभेश्वर , शूलेश्वर , विमलेश्वर , मदनेश्वर , सुखेश्वर , ब्रम्हेश्वर , परमेश्वर , अवतारेश्वर एवं बरगी जबलपुर (मध्य प्रदेश) के नजदीक नंदिकेश्वर शिवलिंग आज भी विद्यमान हैं। नर्मदा में डुबकी लगाकर निकाले गए पाषाणों की शिवलिंग के रूप में स्थापना कर भक्तगण पूरी आस्था के साथ पूजा करते हैं। माँ नर्मदा की धारा में शिव रूपी पाषाण सहजता से देखे जा सकते हैं। ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ के परिवर्तन की स्थिति में नर्मदेश्वर की ही स्थापना की जाती है। नर्मदा एवं भगवान शिव की कृपा से नर्मदा के दोनों तटों के एक डेढ़ किलोमीटर क्षेत्र में कभी अकाल या दुर्भिक्ष नहीं पड़ता। इसीलिए यह क्षेत्र सुभिक्ष क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में यह भी देखा गया है कि हमारे अनेक ऋषियों ने नर्मदा के किनारे जिस स्थान को अपनी तपोस्थली बनाया अथवा जहाँ ठहरे वहाँ उन्हीं नाम से उस स्थान अथवा कुंड का नामकरण हो गया।
पौराणिक कथाओं, नर्मदा पुराण, धार्मिक ग्रंथों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर प्राचीन चेदि के अंतर्गत महिष्मती एवं त्रिपुरी आती थी। महिष्मती के महाबली सहस्रार्जुन, परशुराम के पिताश्री जमदग्नि एवं चेदि नरेश शिशुपाल को कौन नहीं जानता। नर्मदा तट भगवान दत्तात्रेय, शिवभक्त रावण की तपोभूमि एवम् भ्रमण स्थली रही है। चेदि की प्राचीनता का प्रमाण इसी से लगाया जा सकता है कि चेदि नरेश स्वयं सीता जी के स्वयंवर में गए थे। बाल रामायण के अनुसार:-
सीतास्वयंवर निदान धनुर्धरेण
दग्धात्पुर त्रितयतो बिभूना भवेन्।
खंड निपत्य भुवि या नगरी बभूव
तामेष चैद्य तिलकस्त्रिपुरीम् प्रशस्ति।।
इसी तरह स्वयं भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का पिंडदान भी नर्मदा तट पर ही किया था। परशुराम द्वारा सहस्रार्जुन के पुत्रों को मारने के उपरांत भयभीत हैहयवंशी राजा सुरक्षा की दृष्टि से त्रिपुरी (जो वर्तमान में जबलपुर, भेड़ाघाट मार्ग पर पश्चिम दिशा में 13 किलोमीटर दूर तेवर है) आ गए और त्रिपुरी को ही राजधानी के रूप में अपनाया । प्रमाणित है कि इसी त्रिपुरी में त्रिपुरासुर के अत्याचारों से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने त्रिपुर नामक राक्षस का वध किया था।
बलशाली त्रिपुरासुर ने भगवान शिव के विश्वकर्मा द्वारा निर्मित अद्भुत रथ को भी जब छतिग्रस्त कर दिया तब अपने आराध्य की सहायतार्थ भगवान विष्णु ने मायावी बैल नंदी का रूप धारण कर रथ को अपने सींगों से ऊपर उठा लिया था। उसी समय भगवान शिव त्रिपुर राक्षस का वध करके त्रिपुरारि अर्थात त्रिपुर के अरि (दुश्मन) नाम से विख्यात हुए। इसी तरह जैसा सभी जानते हैं कि विष्णु के आराध्य भगवान शिव ही हैं। अतः इस त्रिपुरासुर संग्राम स्थल पर विष्णु ने नंदी का रूप धारण किया था, जिस कारण नंदी के ईश्वर (आराध्य) अर्थात नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना की गई यहाँ से लगभग 7 किलोमीटर दूर जिस स्थान पर नंदी रूपी विष्णु भगवान ने विश्राम किया था वह स्थान नाँदिया घाट नाम से विख्यात है। नंदिकेश्वर के समीप ही भगवान परशुराम के पिता जमदग्नि की तपोभूमि के पास जमदग्नि कुंड एवम् ब्रह्महत्या के पाप से भी मुक्ति दिलाने वाले हत्याहरण कुंड का स्थित होना समसामयिक तत्त्वों की पुष्टि करता है। ज्ञातव्य है कि इनमें से अनेक स्थल नर्मदा नदी पर बरगी बाँध बनने के कारण जलमग्न हो चुके हैं। हम पाते हैं कि त्रिपुरासुर वध विषयक शिलालेख से प्रतीत होता है कि शिव द्वारा त्रिपुरासुर का वध देवासुर संग्राम की कथा नहीं वरन आर्य एवं अनार्य जातियों के संघर्ष का प्रतीक है। महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 5-4 छंद 8 में त्रिपुरी एवं चेदि का उल्लेख मिलता है। प्रामाणिक रूप से उपरोक्त तथ्यों की ओर ध्यानाकर्षण का मात्र उद्देश्य वर्तमान प्रामाणिक स्थल हमारे पुराने एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार कहे जा सकते हैं । जबलपुर जिले के बरगी नगर स्थित नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना परशुराम काल में ही की गई थी विद्वानों द्वारा की गई काल गणना के अनुसार राम जन्म के पूर्व परशुराम हुए थे। नंदिकेश्वर शिवलिंग का स्थापना काल लगभग 8 लाख वर्ष ही माना जाना चाहिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है नवम अध्याय।
स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का नवम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए
– डॉ राकेश चक्र
परम् गुह्य ज्ञान
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को परम गुह्य ज्ञान के बारे में इस प्रकार बताया
हे अर्जुन मेरी सुनो, तुम हो प्रिय निष्पाप।
गुह्यज्ञान-अनुभूति से, मिट जाते सब पाप।। 1
सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है, गोपनीय यह तथ्य।
करे शुद्ध मन-आत्मा, अविनाशी यह कथ्य।। 2
श्रद्धा-निष्ठा जो रखें, वे ही मुझको पायँ।
भक्ति भाव से रहित नर, जनम-मरण घिर जायँ।। 3
व्याप्त रूप अव्यक्त यह, माया का संसार।
रहें जीव मुझमें सभी, मैं ही सबका सार।। 4
जीवों का पालन करूँ, मेरी सृष्टि अपार।
मैं कण-कण में व्याप्त हूँ, यही योग का सार।। 5
प्रबल वायु रहती गगन, श्वांसों का है सार।
सब जीवों में मैं रहूँ, मेरी सृष्टि अपार।। 6
अंत समय कल्पांत में, प्राणी करें प्रवेश।
कल्प होय आरंभ जब, देता नया सुवेश।। 7
सकल जगत ये सृष्टि ही, मेरे सभी अधीन।
प्रलय-सृष्टि सब मैं करूँ,देता दृष्टि नवीन।। 8
कर्म मुझे बाँधें नहीं, कर्म स्वयं आधीन।
भौतिक कर्मों से विरत, मैं हूँ श्रेष्ठ प्रवीन।। 9
मैं सबका अध्यक्ष हूँ, सब ही रहें अधीन।
प्राणी सचराचर सभी, बनें-मिटें सब लीन।। 10
मनुज रूप प्रकटा कभी, मूर्ख करें उपहास।
दिव्य स्वभावी रूप का, अर्जुन कर तू भास।। 11
मोह ग्रस्त जो जन रहें, चित आसुरी प्रभाव।
जाल मोह-माया घिरे,रखें न श्रद्धा-भाव।। 12
मोह मुक्त जो भी रहें, उन पर देव प्रभाव।
मैं अविनाशी ईश हूँ, प्रेम रखूँ सद्भाव।। 13
भक्ति भाव अर्पित करें, और करें नित ध्यान।
मेरी महिमा जो भजें, कर देता कल्यान।। 14
ज्ञान, यज्ञ-शीलन करें, भजें सदा प्रभु नाम।
विविधा रूपों में भजें, करते मुझे प्रणाम।। 15
कर्मकांड हूँ यज्ञ का, तर्पण करते लोग।
मैं ही आहुति अग्नि-घृत, मैं पितरों का भोग।। 16
मात-पिता हूँ पितामह, चेतन हूँ ब्रह्मांड।
ज्ञेय-शुद्ध ओंकार हूँ, सब वेदों का प्राण।। 17
पालक-स्वामी-धाम हूँ, शरण लक्ष्य प्रिय मित्र।
मसृष्टि -प्रलय संहार हूँ, मैंअविनाशी पित्र।। 18
ताप-शीत में दे रहा, वर्षा करता मित्र।
मृत्यु और अमरत्व मैं, सत्य-असत का पित्र।। 19
मैं वेदों का सोमरस, करें अर्चना लोग।
मैं ही देता स्वर्ग हूँ, देवों-का-सा भोग।। 20
पुण्य कर्म जब क्षीण हों, हटे स्वर्ग का भोग।
इन्द्रिय सुख चाहे मनुज,जनम-मरण का योग।। 21
जो अनन्य भावी भजें, मेरा दिव्य स्वरूप।
इच्छा-रक्षा मैं करूँ, मैं ही सबका भूप।। 22
जो जन पूजें देव को, भक्ति पावनी छोड़।
ऐसा कर गलती करें, पर मैं लेता ओढ़।। 23
सब यज्ञों का भोक्ता, स्वामी-दिव्या भूप।
जो जन मुझे न जानते, गिर जाते वह कूप।। 24
जो जैसी पूजा करें, वैसा ही फल पायँ।
देव-भूत जो पूजते, शरण उन्हीं की जायँ।। 25
पितरों की पूजा करें, जाएँ पितरों पास।
जो मेरी पूजा करें, पाए मम उर वास।।
पत्र-पुष्प-फल प्रेम से, अर्चन करते लोग।
जल को भी स्वीकारता, प्रेमिल श्रद्धा-भोग।। 26
अर्जुन जो भी तुम करो, अर्पित करना मित्र।
दान-तपस्या जो करो, ये ही प्रीत पवित्र।। 27
जो अर्पित मुझको करें, सारे अपने कृत्य।
भव सागर से मुक्त हों, मोक्ष मिले ध्रुव सत्य ।। 28
पक्षपात या द्वेष की,करता कभी न बात।
मैं रहता समभाव हूँ, भक्ति करो दिन-रात।। 29
हो जघन्य यदि पाप भी, करें भक्ति औ’ योग।
तर जाते ऐसे मनुज, मिट जाते सब शोग।। 30
शक्ति मिले मम् भक्ति से, मिले शान्ति का योग।
भक्ति करे मेरी सदा, रहता सुखी निरोग।। 31
जो आते मेरी शरण, स्त्री-वैश्या-शूद्र।
परमधाम पाते वही, कभी न रहते छूद्र।। 32
भक्त हृदय धर्मात्मा, पाएँ मेरा लोक।
प्रेम-भक्ति मम् लीन जो, मिट जाते सब शोक।। 33
नित मम चिंतन तुम करो, करो भक्ति औ’ प्यार।
मुझको सब अर्पण करो, वंदन बारंबार।। 34
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” राजविद्याराजगुह्ययोग ” नामक नवाँ अध्याय समाप्त।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆