हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सहोदर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सहोदर ?

अमृत से हलाहल तक

कंठ में लिए बहती धारा,

भीतर थपेड़े मारती लहरें

बाहर सहज शांत किनारा,

उसकी-मेरी वेदना में

सहोदर अपनापा निकला,

मेरा और समुद्र का दुख

एकदम एक-सा निकला..!

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज

सुबह 10.25 बजे, 17.6.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 95 ☆ सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 95 ☆ सोंध ☆

असमय बरसात हुई है। कुछ बच्चे घर से मनाही के बाद भी भीगने के आनंद से स्वयं को वंचित होने से रोक नहीं पा रहे हैं। महामारी  के समय में परिजनों की अपनी चिंताएँ हैं। अलग-अलग घर से अपने-अपने बच्चे का नाम लेकर पुकार लग रही है। ऐसे में अपना आनंद अधूरा छोड़कर घर लौटे लड़के को डाँटती उसकी माँ का स्वर कानों में पड़ा, “आई टोल्ड यू मैनी टाइम्स बट यू डोंट लिसन। मिट्टी इज़ डर्टी थिंग.., मिट्टी को हाथ भी नहीं लगाना। यू अंडरस्टैंड?”…इस आभिजात्य(!)  माँ की चिंता कानों में पिघले सीसे की तरह उतरी।

मिट्ट इज़ डर्टी थिंग..!!  सृष्टि के 84 लाख जीवों में से एक मनुष्य को छोड़कर शेष सबका प्रकृति के साथ तादात्म्य है। बुद्धि का वरदान प्राप्त विकास की राह पर चलते मनुष्य से यह तादात्म्य अधिक अपेक्षित है। तथापि अनेक प्राकृतिक आपदाएँ झेलते मनुष्य की भस्मासुरी प्रवृत्ति आश्चर्यचकित करती है। अपनी लघुकथा ‘सोंध’ स्मरण हो आई। कथा कुछ इस प्रकार है-…..

‘इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें।

हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं।  माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।…..

इस लघुकथा का संदर्भ इसलिए कि अपनी क्षणभंगुर कृत्रिमता को अविनाशी प्रकृति के सामने खड़ा करता मनुष्य दयनीय लगने लगा है। मिट्टी से बना आदमी अपनी मिट्टी खुद पलीद कर रहा है।

मिट्टी में मिलने के सत्य को जानते हुए भी मिट्टी से एलर्जी रखने वाली मनुष्य की यह मानसिकता सचमुच भय उत्पन्न करती है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मुखौटा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मुखौटा ?

बित्ता भर करता हूँ

गज भर बताता हूँ,

नगण्य का अनगिन करता हूँ

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

 

सूत्र उलट देता हूँ

बेशुमार हथियाता हूँ,

कमी का रोना रोता हूँ

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

 

धर्म, नैतिकता, सदाचार

सारा कुछ दुय्यम बना रहा,

आदमी का मुखौटा जड़े पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

 

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज0

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पशोपेश ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – पशोपेश ?

बहुत बोलते हो तुम..

उस रोज़ ज़िंदगी ने कहा था,

मैंने खामोशी ओढ़ ली

और चुप हो गया…,

 

अर्से बाद फिर

किसी मोड़ पर मिली ज़िंदगी,

कहने लगी-

तुम्हारी खामोशी

बतियाती बहुत है…,

 

पशोपेश में हूँ

कुछ कहूँ या चुप रहूँ…!

 

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज0

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 69 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है अष्टम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 69 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का अष्टम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

भगवत्प्राप्ति क्या है?

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से ब्रह्म और आत्मा आदि के बारे में कुछ प्रश्न किए, जो इस प्रकार हैं—–

 

हे माधव क्या आत्मा, ब्रह्म-तत्व- संज्ञान।

कौन देवता, जगत क्या, कर्मयोग- पहचान।। 1

 

कौन अधीश्वर यज्ञ का,कैसा धरे शरीर।

कैसे जानें अंत में, माधव तुम्हें कबीर।। 2

 

श्रीकृष्ण भगवान ने भगवत्प्राप्ति के सरल साधन अर्जुन को इस प्रकार बताए——-

 

दिव्य जीव ही ब्रह्म है, मैं हूँ परमा ब्रह्म।

नित्य स्वभावी आत्मा, तन से होयँ सुकर्म।। 3

 

प्रकृति-देह अधिभूत हैं, मैं हूँ रूप विराट।

सूर्य-चंद्र अधिदेव गण,मैं सबका सम्राट।। 4

 

जो मेरा सुमिरण करे, अंत समय भज नाम।

ऐसा सज्जन पुरुष ही,पाता मेरा धाम।। 5

 

अंत समय जो नाम ले, त्यागे मनुज शरीर।

करे स्मरण भाव से, पाए वही शरीर।। 6

 

चिंतन कर मम पार्थ तू, कर धर्मोचित युद्ध।

मनोबुद्धि मुझमें करो, बने आत्मा शुद्ध।। 7

 

मेरा सुमिरन जो करें, और करें नित ध्यान।

ऐसे परमा भक्त का, हो जाता कल्यान।। 8

 

परमेश्वर सर्वज्ञ है, लघुतम और महान।

परे भौतिकी बुद्धि से, सूर्य सरिस गतिमान।। 9

 

निकट मृत्यु के पहुँचकर, करता प्रभु का ध्यान।

योग शक्ति अरु भक्ति से, हो जाता कल्यान।। 10

 

वेदों के मर्मज्ञ जो, करें ओम का जाप।

ब्रह्मज्ञान पाएँ वही, मिट जाते सब पाप।। 11

 

योगावस्थिति प्रज्ञ हों, इन्द्रिय वश में होंय।

मन हिरदय में जा बसे, प्राण वायु सिर होयँ।। 12

 

अक्षर शुभ संयोग है, ओमकार का नाम।

चिंतन योगी जो करें, पहुँचें मेरे धाम।। 13

 

सदा सुलभ उनके लिए, रखें प्रेम सद्भाव।

करें भक्ति मेरी सदा,सुखमय बने स्वभाव।। 14

 

भक्ति योग में जो रमें, ऐसे मनुज महान।

परम् सिद्धि पाएँ सदा, छूटे दुःख- जहान।। 15

 

सभी लोक हैं दुख भरे, जनम-मरण का जाल।

पाते मेरा धाम जो, कट जाते जंजाल।। 16

 

ब्रह्मा का दिन एक है, युग का एक हजार।

इसी तरह होती निशा, अद्भुत सृष्टि अपार।। 17

 

दिन होता आरंभ जब , रहता जीवा व्यक्त।

आती है जब रात भी ,हुआ विलय अव्यक्त।।18

 

ब्रह्मा का दिन पूर्ण है, जीवन का प्राकट्य।

ब्रह्मा की जब रात हो, होयँ सभी अव्यक्त।। 19

 

परे व्यक्त-अव्यक्त से,परा प्रकृति का सार।

प्रलय होय संसार का,रचना अपरम्पार।। 20

 

अविनाशी इस प्रकृति का, कभी न होता नाश।

वेद कहें इस बात को, मेरा धाम प्रकाश।। 21

 

परम् भक्ति से प्राप्त हों, ईश्वर श्रेष्ठ महान।

सर्वव्याप अविनाश प्रभु, करें भक्त कल्यान।। 22

 

भरतश्रेष्ठ मेरी सुनो, वर्णन अनगिन काल।

योगी पाते मोक्ष गति, परम् सत्य यह हाल।। 23

 

शुक्लपक्ष दिन सूर्य गति, उत्तरायणी होय।

तन त्यागे इस अवधि में, मुक्ति सुनिश्चित होय।। 24

 

सूर्य दक्षिणायन समय, कृष्णपक्ष हो काल।

चन्द्रलोक उनको मिले, तन त्यागें तत्काल।। 25

 

वेद कहें इस बात को, जाने के दो मार्ग।

पथ है एक प्रकाश का, दूजा पथ अँधियार।। 26

 

जो जाता दिनमान में,मुक्ति सुनिश्चित होय।

अंधकार परित्याग तन, पुनः आगमन होय।। 26

 

भक्तगणों को हैं पता, जाने के दो मार्ग।

सदा भक्ति करते रहो, होता बेड़ा पार।। 27

 

भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, शुभ-शुभ सब ही होय।

नित्यधाम पाएँ मेरा, जनम सार्थक होय।। 28

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” अक्षर ब्रह्मयोग ” आठवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सूत्र  ?

उदासीन हो

उदासीनता बयान करो,

इस विषय पर

एक रचना हो सकती है,

कुछ नहीं लिखता

यह सोच कर, जो

सूत्र, सूक्ति ना दे पाठक को

भला कविता कैसे हो सकती है?

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। शुभ प्रभात #

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 10:19 बजे, 19 अप्रैल 2020)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चित्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चित्र ?

वर्णित शब्दों के आधार पर

चित्रकार उकेर देते हैं

अनदेखे चेहरों के चित्र..,

पढ़ता हूँ कविताएँ,

पढ़ता हूँ कहानियाँ,

अनगिनत रचनाकारों के

मूल चित्र संग्रहित हैं

मेरे मन के संग्रहालय में..!

# घर में रहें। स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें। आपका दिन मंगलमय हो #

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 5:57 बजे, 13.5.21)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 94 ☆ गिद्ध उड़ाने की कोशिश में ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 94 ☆ गिद्ध उड़ाने की कोशिश में ☆

‘आपदा में अवसर’ अर्थात देखने को दृष्टि में बदलना, आशंका में संभावना ढूँढ़ना। इसके लिए प्रखर सकारात्मकता एवं अचल जिजीविषा की आवश्यकता होती है। यह सकारात्मकता  सामूहिक हित का विचार करती है।

सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि आपदा में निजी लाभ और स्वार्थ की संकुचित वृत्ति मनुष्य को गिद्ध कर देती है।  मृतक प्राणी  को नोंच-नोंच कर अपना पेट भरना गिद्ध की प्राकृतिक आवश्यकता है पर भरे पेट मनुष्य का असहाय, मरणासन्न अथवा  मृतक से लाभ उठाने के लिए गिद्ध होना समूची मानवता का सिर शर्म से झुका देता है।

इस संदर्भ में प्रतिभाशाली पर दुर्भाग्यवान फोटोग्राफर केविन कार्टर का याद आना स्वाभाविक है। केविन 1993 में सूडान में भुखमरी की ‘स्टोरी'(!) कवर करने गए थे। भुखमरी से मरणासन्न एक बच्ची के पीछे बैठकर उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे गिद्ध की फोटो उन्होंने खींची थी। इस तस्वीर ने दुनिया का ध्यान सूडान की ओर खींचा। केविन को इस फोटो के लिए पुलित्जर सम्मान भी मिला। बाद में टीवी के एक शो के दौरान जब केविन इस गिद्ध के बारे में बता रहे थे तो एक दर्शक की टिप्पणी ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया। उस दर्शक ने कहा था, ‘उस दिन वहाँ दो गिद्ध थे। दूसरे के हाथ में कैमरा था।’

 माना जाता है कि बाद में ग्लानिवश केविन अवसाद में चले गए। एक वर्ष बाद उन्होंने उन्होंने आत्महत्या कर ली। यद्यपि अपने आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र में केविन ने इस बात का उल्लेख किया था कि इस फोटो के कारण ही सूडान को संयुक्त राष्ट्रसंघ से बड़े स्तर पर सहायता मिली।

इस सत्यकथा का संदर्भ यहाँ इसलिए दिया गया है क्यों कि कोविड महामारी की दूसरी लहर में कुछ लोग निरंतर गिद्ध हो रहे हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर की कालाबाज़ारी हो, रेमडेसिविर की मुँहमाँगी रकम लेना हो या प्लाज़्मा का व्यापार, गिद्ध हर स्थान पर मौज़ूद हैं। यद्यपि अब प्लाज़्मा और रेमडेसिविर को कोविड के इलाज के प्रोटोकॉल से बाहर कर दिया गया है पर इससे पिछले तीन-चार सप्ताह में मनुष्यता को नोंचने वाले गिद्धों का अपराध कम नहीं हो जाता। कुछ किलोमीटर की एंबुलेंस या शव-वाहिनी सेवा (!)  के लिए हज़ारों रुपयों की उगाही और नकली इंजेक्शन की फैक्ट्रियाँ  लगाकर दुर्लभ होते असली गिद्धों की कमी नरगिद्ध पूरी करते रहे। कुछ स्थानों से महिला रुग्ण के शीलभंग के समाचार भी आए। इन समाचारों से तो असली गिद्ध भी लज्जित हो गए। 

कोविड के साथ-साथ इन गिद्धों का इलाज भी आवश्यक है। पुलिस और न्यायव्यवस्था अपना काम करेंगी। समाज का दायित्व है कि उस वृत्ति का समूल नाश करे जो संकट में स्वार्थ तलाश कर मनुष्य होने को कलंकित करती है। मनुष्य को परिभाषित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है,

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

सीधी, सरल बात यह है कि और कुछ भी होने से पहले हम मनुष्य हैं। मनुष्यता बची रहेगी तभी मनुष्य से जुड़े सरोकार भी बचे रहेंगे। साथ ही कालातीत सत्य का एक पहलू यह भी है कि हम सबके भीतर एक गिद्ध है। हो सकता है कि हरेक उस गिद्ध को समाप्त न कर सके पर दूर भगाने या उड़ाने की कोशिश तो कर ही सकता है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – प्रवाह ?

वह बहती रही, मैं कहता रहा।

…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।

…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।

… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।

… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।

…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।

… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।

… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है। तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।

… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।

… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।

… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।

वह बहती रही।

# घर में रहें। सुरक्षित रहें। स्वस्थ रहें#  

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 8:35, 21 मई 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पहेली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – पहेली ?

वह कहती है ‘रचो’,

दृश्य से दृष्टि उभरती ह़ै,

अक्षरा झरने लगती है..,

तुम बिखेरते हो रंग,

छटाएँ घटती-बढ़ती हैं,

सृष्टि सिरजने लगती है..,

हम तो लेखनी के वश में हैं,

उसकी कही लिखते हैं हर बार,

पर एक बात बताओ,

यह पहेली बुझाओ,

तुम किसके वश में हो

…..सिरजनहार ?

# विश्वास रखें, कोविड हारेगा, मनुष्य जीतेगा #

©  संजय भारद्वाज

( रात्रि 3:12 बजे, 13.5.21)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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