हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 560 ⇒ कृष्ण-सुदामा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कृष्ण-सुदामा।)

?अभी अभी # 560 ⇒ कृष्ण-सुदामा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब भी आदर्श मित्रता की बात होगी, कृष्ण सुदामा का जिक्र अवश्य होगा।

कलयुग में आप इसे मित्रता की पराकाष्ठा कह सकते हैं। जिस तरह राधा कृष्ण का प्रेम अलौकिक था, उसी तरह यह मित्रता भी अलौकिक ही थी। जब राधा कृष्ण एक ही थे, तो कृष्ण सुदामा दो कैसे हो सकते हैं।

एक जिस्म दो जान एक कहावत बनकर रह गया है, और जिसे आजकल जुमले की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है। दोस्ती कितनी भी पक्की हो, नि:स्वार्थ हो, दोनों मित्र एक दूसरे पर जान छिड़कते हों, सुख दुख में काम आते हों, लेकिन उनकी तुलना कृष्ण सुदामा से नहीं की जा सकती।।

A friend in need

is a friend in deed.

कृष्ण सुदामा बचपन के मित्र थे, सादीपनी आश्रम में साथ साथ पढ़े थे। कुछ उनकी ऐसी घटनाएं भी थीं, जहां सुदामा ने कथित रूप से अपने बाल सखा के हिस्से का भाग चोरी से स्वयं खा लिया था, जिसके फलस्वरूप उसे घोर आर्थिक अभाव और कष्ट में पूरा जीवन गुजारना पड़ा और अंत में मित्र कन्हैया ने ही उनका बेड़ा पार लगाया, जब द्वारका नगरी में उनका पुनर्मिलन हुआ।

कृष्ण लीला और अन्य कथाओं में भी सुदामा को अत्यंत दीन हीन, फटे हाल और कृशकाय दर्शाया गया है। बी आर चोपड़ा की महाभारत में भी सुदामा को एक गरीब ब्राह्मण ही बताया गया है। पर प्रश्न उठता है कि सुदामा क्या सिर्फ अपने मित्र कृष्ण के सखा थे। क्या उनकी श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति और समर्पण मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम के भाई भरत से कम थी।।

जिन लोगों ने सुदामा चरित्र पढ़ा है, वे जानते हैं सुदामा का चरित्र चित्रण कथाओं में कभी श्रीकृष्ण के एक अनन्य भक्त के रूप में नहीं किया गया। कृष्ण सुदामा में सांसारिक मित्रता का आपस में कोई भाव नहीं था। सुदामा तो शबरी की भांति ही श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। कन्हैया कृष्ण अगर निष्ठुर थे, तो भक्त सुदामा भी कम नहीं थे। जो कृष्ण कभी वापस गोकुल और मथुरा नहीं लौटे, उनसे सुदामा ने कभी आशा ही नहीं की थी, कि वे कभी जीवन में अपने मित्र की सुध लेंगे।

लेकिन मित्र सुदामा को कहां अपनी सुध थी। भक्त विभक्त नहीं होता, अनासक्त होता है। यह भी श्रीकृष्ण की ही लीला थी कि उन्होंने अपने मित्र सुदामा की पत्नी को प्रेरणा दी और उन्हें द्वारका मुट्ठी भर चावल के साथ आने के लिए प्रेरित किया।

उसके आगे तो सब कृष्ण की ही लीला है जिसे हम गलती से मित्रता की पराकाष्ठा मान बैठे हैं।

कृष्ण सुदामा कभी दो थे ही नहीं, एक ही थे। भक्त कभी अपने भगवान से अलग हो ही नहीं सकता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक शोधपरक आलेख क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -”)

☆ आलेख ☆ “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

प्रेम – सौंदर्य और अद्भुत कल्पनाओं के सुख – सागर से दूर व्यंग्य में कड़वे सच के दर्शन होते हैं। सामान्य व्यक्ति सामाजिक विसंगतियों, पाखंड और भ्रष्टाचार आदि से पीड़ित है, किंतु कुछ कर नहीं पाता अतः जब कोई इन मुद्दों को विषय बनाकर निडरता पूर्वक अपनी लेखनी से उन पर प्रहार करता है तो लोगों को उसमें अपनी बात नजर आती है। लोग व्यंग्यकार और उसकी रचना से ठीक उसी तरह जुड़ जाते हैं जिस तरह अन्याय के विरुद्ध लड़ते किसी फिल्म के हीरो से। यही कारण है कि व्यंग्य लेखन अन्य विधाओं की तुलना में अधिक लोकप्रिय हो रहा है।

व्यंग्य – चिंतकों द्वारा आजकल व्यंग्य पर तरह – तरह के विमर्श किए जा रहे हैं। व्यंग्य के जन्म और विकास की लम्बी पड़ताल की जा रही है। व्यंग्य दुनिया में कैसे आया? व्यंग्य कहाँ से पैदा होता है ? व्यंग्य का मुख्य स्त्रोत क्या है ? व्यंग्य का वो कौन सा तत्व है जिसके बिना रचना सब कुछ हो सकती है लेकिन व्यंग्य रचना नहीं बन सकती। कथित विद्वानों द्वारा इन प्रश्नों के न मानने योग्य हास्यास्पद जवाब भी दिए जा रहे हैं।

मेरे अनुसार तो व्यंग्य भेदभाव, विसंगतियों, असफलता, अपमान, ईर्ष्या, निराशा आदि की पृष्ठभूमि में जन्मता और पनपता है। इसे तत्व के बजाय यौगिक अथवा मिश्रण कहना अधिक उचित जान पड़ता है। यहाँ यह भी बताना आवश्यक है कि सामान्य शब्द अथवा वाक्य जिसमें कहीं कोई व्यंग्य नहीं है केवल उच्चारण के प्रस्तुतीकरण से अलग-अलग अर्थ प्रकट करता है।

नारद मुनि मात्र ‘नारायण-नारायण’ भी भिन्न-भिन्न तरह से बोलते दिखाए जाते हैं। कभी उनके ‘नारायण-नारायण’ कहने में अपने इष्ट के प्रति भक्ति प्रकट होता है, कभी श्रद्धा, कभी प्रश्न, कभी शंका तो कभी व्यंग्य। अतः व्यंग्य लिखा जाता है, पढ़ा जाता है, किन्तु व्यंग्य केवल कागज पर सवार शब्दों की नाव नहीं है अपितु शब्दों के प्रकटीकरण का तरीका भी व्यंग्य को जन्म दे देता है। जिस तरह परिस्थितिवश मनुष्य में प्रेम, दया, करुणा, भय और क्रोध के भाव पैदा होते हैं, उसी तरह व्यंग्य भी जन्म लेता और प्रकट होता है अतः व्यंग्य को मनोभाव भी कहा जा सकता है। व्यंग्य शब्दों के साथ ही वाणी, हावभाव और सिर्फ नजरों से भी व्यक्त किया जा सकता है।

साहित्य में व्यंग्य का विकास हास्य से मानने वालों का कथन मानव विकास के “डार्विन सिद्धांत” जैसा ही अमान्य हो चुका हास्यास्पद सिद्धांत लगता है। हास्य को व्यंग्य का जन्मदाता कदापि नहीं कहा जा सकता। हास्य और व्यंग्य जुड़वा हो सकते हैं, किन्तु पृथक-पृथक हैं। इनके प्रभाव भी अलग-अलग हैं। हास्य सभी को आनंद की अनुभूति कराता है, प्रसन्नचित्त कर देता है जबकि व्यंग्य सबको आनंद की अनुभूति नहीं कराता। इससे यदि कुछ लोग प्रसन्न होते हैं तो अनेक लोग आहत, अपमानित, क्रोधित और दुखी भी होते हैं। कुछ कथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि हिन्दी साहित्य का विकास अभी भी बाकी है। व्यंग्य, साहित्य के मुकाबले अल्पायु वाला है। यहाँ यही कहा जा सकता है कि विकास एक निरंतर होने वाली प्रक्रिया है, इसे कभी भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक व्यंग्य की बात है तो वह सदा से है, यह बात अलग है कि पहले यह खरपतवार की भांति उपेक्षित रहा।

हरिशंकर परसाई जी ने लिखा है कि – ‘‘व्यंग्य जीवन की आलोचना है। वे व्यंग्य को विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंड का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। व्यंग्य एक गंभीर चीज है। हंसने-हंसाने की चीज नहीं। व्यंग्य निष्पक्ष ईमानदारी के बिना पैदा नहीं हो सकता और यह ईमानदारी अपने युग के प्रति, जीवन मूल्यों के प्रति होनी चाहिये।”

यदि व्यंग्य की इस “परसाई परिभाषा” को मान लिया जाए तो व्यंग्य मात्र निंदा बनकर रह जाएगा। समाचार लेखन में अथवा व्यंग्यकार के लेखन में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह जाएगा। निःसंदेह परसाई जी की ऊपर लिखी बातें मानी जा सकती हैं, किन्तु यह भी सच है कि व्यंग्यकार का नजरिया पत्रकार से अलग होता है। पत्रकार विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्ड का पूरी गंभीरता और ईमानदारी से सीधा-सीधा पर्दाफाश करता है, जबकि व्यंग्यकार उसकी निंदा करता है। तथ्यों पर ईमानदार रहते हुए उसकी खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकता।

समय, काल, समाज को बदलता है, समाज नजरिये को और नजरिया लेखन को। संभवतः हम दोहा, चौपाई की भांति व्यंग्य की घेराबंदी नहीं कर सकते। न ही उसे किसी सरगम में कसा जा सकता है। वह नजरिये को तीखी धार से प्रस्तुत करती स्वंतत्र अभिव्यक्ति है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 559 ⇒ चेतना के स्वर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चेतना के स्वर।)

?अभी अभी # 559 ⇒ चेतना के स्वर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीव जड़ नहीं चेतन है। चेतना तो पेड़ पौधों और वनस्पति में भी है, लेकिन उनका विकास जड़ से ही तो होता है। जीव की उत्पत्ति भी बीज से ही होती है। एक बीज से ही पूरा वृक्ष आकार लेता है, मानव हो अथवा महामानव, सभी माता के गर्भ से ही जन्म लेते हैं।

जड़ चेतन में हमें जो भेद दिखाई देता है, वह भी स्थूल ही है। परोक्ष रूप से देखा जाए तो पूरी सृष्टि में ही चेतन तत्व समाया हुआ है। अगर पंच महाभूत चेतन नहीं होते तो हमारे शरीर का भी निर्माण नहीं होता। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हमारा कारण शरीर बना है। प्राण तत्व तो इतना सूक्ष्म है, कब जीव में प्रवेश करता है और कब और कहां विलीन हो जाता है, कुछ पता ही नहीं चल पाता। ।

पदार्थ जिसे विज्ञान की भाषा में matter कहते हैं, उसके भी विशिष्ट गुण धर्म होते हैं। पदार्थ की तीन अवस्थाएं होती हैं, ठोस, द्रव और गैस। ठोस पदार्थों का आकार और आयतन निश्चित होता है। 

द्रवों का आयतन निश्चित होता है, लेकिन वे अपने कंटेनर के आकार के मुताबिक ढल जाते हैं. ऑक्सीजन और हीलियम गैसों के उदाहरण हैं.कहीं पहाड़ तो कहीं समंदर। जब कि गैसों का कोई निश्चित आकार या आयतन नहीं होता।

आप मरे और जग प्रलय। हम तो मरते ही चेतना शून्य हो जाते हैं, हमारा जीवन संगीत ठहर जाता है, चेतना के स्वर टूट, बिखर जाते हैं। जब कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं, एक नई शुरुआत है, फिर भोर है, प्रभात है, किसी घर में अहीर भैरव के स्वर गूंज रहे हैं, जागो मोहन प्यारे, लेकिन हम, इस सबसे अनजान हैं, क्योंकि मेरा जीवन सपना टूट गया। ।

यह जीवन और यह दुनिया ही हमारा संसार है, हमारा अस्तित्व है, क्योंकि इसके आगे हमारी चेतना का विकास ही नहीं हुआ है, कूप मंडूक होते हुए भी हमारी अस्मिता और अहंकार के कारण हम किसी सर्वज्ञ से कम नहीं। हमने पत्थर को भगवान मान तो लिया, लेकिन कभी जानने की कोशिश नहीं की।

हम मृत्यु और प्रलय में ही उलझे रहे, अमर होने की केवल कोशिशें करते रहे, कभी महामृत्यु और महाप्रलय की ओर हमारा ध्यान गया ही नहीं। जब तक हम अपने भय पर विजय प्राप्त नहीं करते, मृत्यु पर कैसे विजय प्राप्त कर पायेंगे। ।

जीवन कभी भी ठहरता नहीं, जल की कलकल ध्वनि ही जीवन संगीत है, पक्षियों का कलरव, बादलों का गरजना, बिजली का चमकना, सूर्य की सुनहरी धूप और चंद्रमा की कलाएं, चांदनी, ध्रुव नक्षत्र और तारागण ही केवल अखिल ब्रह्मांड का हिस्सा नहीं, स्वर्ग लोक, पाताल लोक और नर्क की धारणा, से भी परे सप्त लोक भी है। कौन ऋषि है और कौन तारा, सुन चंपा सुन तारा, यह इतना आसान नहीं।

इस चेतन तत्व में ही परा चेतना के स्वर हैं। अपना पराया भूलकर, चित्त शुद्धि के पश्चात् ही परा चेतना की यात्रा शुरू होती है। उस यात्रा का कोई पासपोर्ट नहीं कोई वीजा नहीं, कोई आधार, कोई पहचान पत्र नहीं। जो अपने आप को पूरी तरह भूलकर उस परमात्मा में समा गया, उसकी चेतना के सभी स्वर झंकृत हो गए। नूपुर सबद रसाल, बसो मोरे नैनन में नंदलाल। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 113 – देश-परदेश – न्यौता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 113 ☆ देश-परदेश – न्यौता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

न्यौता, आमंत्रण, बुलावा… 

इन्विटेशन ये एक ऐसी क्रिया है, जो किसी भी पारिवारिक, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, निज़ी आयोजनों का पहला कदम होता है।

बचपन में भी पिताजी को इस प्रकार के आमंत्रण आते थे। कभी वो कहते मैं अकेला ही जाऊंगा क्योंकि आमंत्रण सिर्फ मेरे नाम से है। परिवार सहित आमंत्रण आने पर हम सब भाई बहन भी कार्यक्रमों में भाग लेते थे।

शनै शनै न्यौता की परिभाषा समझ में आने लगी थी। जब कभी हमारे परिवार में कोई आयोजन होता तो भी “जैसे को तैसा” वाला फॉर्मूला लगा कर ही आमंत्रित किया जाता था। जिसने हमे परिवार सहित बुलाया उसको हम भी परिवार सहित बुलाते थे।

दूर दराज के शहर में रहने वाले रिश्तेदारों को पोस्ट कार्ड द्वारा अग्रिम सूचना प्रेषित की जाती थी। आयोजन से कुछ दिन पूर्व आमंत्रण पत्र भी भेजा जाता था। राजा महाराजा अपने दूत और कभी कभी तो कबूतर पक्षी से भी आमंत्रण भिजवाते थे। बहन और बेटी को तो निजी रूप में उसके शहर में जाकर पूरी इज्जत और आदर से आग्रह किया जाता था। लेकिन फिर भी फूफा कई बार नाराज़ हो जाते थे।

सदी के महानायक बिग बी ने जब अपने पुत्र के विवाह में कुछ मित्रों को आमंत्रित नहीं किया था, तो फिल्म उद्योग के नामी नाम दिलीप साहब, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोगों ने विवाह की मिठाई भी लेने से सार्वजनिक रूप से इन्कार कर दिया था।

“न्यौता में घोचा” ये किसी भी आयोजन में होना स्वाभाविक है। आज कल तो फोन, व्हाट्स ऐप, कार्ड आदि का प्रयोग होता हैं। आयोजन कर्ता के लिए ये सब से कठिन कार्य होता है।

नाराज़ तो लोग इस बात से भी हो जाते है, की फलां ने व्हाट्स ऐप का नया ग्रुप बनाया है, लेकिन हमें उसमें नहीं जोड़ा। हमने तो उसे अपने ग्रुप में सबसे पहले सदस्य बनाया था।

सेवानिवृत साथी भी कार्यरत साथियों के न्योते की बाट जोहते रहते हैं। फिर जब निमंत्रण नहीं आता तो कहते है, हमने तो उनको परिवार सहित बुलाया था, लेकिन वो अब भूल गए। सेवानिवृत साथी ये भूल जाते है, कि जब उन्होंने बुलाया था, तो दोनों सहकर्मी थे। अब दोनों की परिस्थितियां भिन्न हैं।

बिन बुलाए मेहमान बनने भी कोई बुराई नहीं हैं। समाज में ऐसे लोगों को ठसयीएल की संज्ञा दी गई हैं। सभ्य लोग तो इसको “मान ना मान मैं तेरा मेहमान” कह देते हैं। बचपन में कुछ मित्रों के साथ हमने भी बिना बुलाए बहुत सारे कार्यक्रमों में खूब मॉल उड़ाया था। अब आने वाले नए वर्ष की दावतों में ऐसे प्रयास करने पड़ेंगे। क्योंकि उम्र दराज लोगों को कम ही इस प्रकार के न्योते मिलते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 558 ⇒ इतिहास गवाह है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “इतिहास गवाह है।)

?अभी अभी # 558 ⇒ इतिहास गवाह है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

काल का पहिया हमेशा घूमता ही रहता है, सुबह, दोपहर, शाम, अतीत, वर्तमान, और भविष्य काल। आपने पुराना रोड रोलर देखा होगा, सड़क बनाने वाला, जिसके लोहे के तीन पहिये होते थे। हम शिव की तरह त्रिकालदर्शी तो नहीं, शायद इसीलिए अज्ञेय को यह कठोर सच स्वीकारना पड़ा ;

हम सब

काल के दांतों तले

चबते चले जाते हैं,

च्यूइंग गम की तरह

कच, कच, कच,

बड़ा कठोर सच।।

अतीत में क्या हुआ, इतिहास गवाह है, वर्तमान हमारी आज की दुनिया है और हम ही इसके गवाह हैं और कल क्या होगा, यह केवल ईश्वर ही जानता है। अतीत के लिए हम भले ही इतिहास को कटघरे में नहीं बुला सकते, लेकिन इतिहास के पन्ने तो माय लॉर्ड, हकीकत बयां कर ही सकते हैं, इसीलिए हम कहते हैं, इतिहास गवाह है।।

अगर इतिहास केवल किसी किताब के कुछ पन्ने हैं, तो किताब के पन्ने फाड़े भी जा सकते हैं, संविधान की तरह उसमें संशोधन भी किया जा सकता है। और अगर गवाह होस्टाइल हो जाए, तो इतिहास गवाह की तरह बदला भी जा सकता है।

बी.आर. चोपड़ा एक क्रांतिकारी फिल्म लेकर आए थे, समाज को बदल डालो, कल आदित्य अथवा उदय चोपड़ा इतिहास को बदल डालो और संविधान को बदल डालो, जैसी फिल्में भी बना सकते है। इतिहास गवाह है, हमें कितना गलत इतिहास पढ़ाया गया है।।

जिस तरह दर्पण झूठ नहीं बोलता, इतिहास भी झूठ नहीं बोलता। लेकिन हमें इतिहास पर तो भरोसा है, गवाह पर नहीं। हम तो आईने से भी हमारी पहली सी सूरत मांगते हैं। कम से कम हमारा इतिहास तो खूबसूरत हो, जिस पर हम नाज़ कर सकें, इतरा सकें।

हम जानते हैं एक गवाह की तरह हमारे इतिहास को भी तोड़ मरोड़कर, विकृत तरीके से पेश किया गया है। हमने बी.आर.चोपड़ा की महाभारत भी देखी है, जिसमें हरीश भिमानी कहते हैं, मैं समय हूं। हम समय के साथ खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकते। आज समय हमारी मुट्ठी में है। हम अगर समय को बदल सकते हैं तो इतिहास को भी बदल सकते हैं।।

नया इतिहास लिखने के दिन आ गए। एक नया स्वर्णिम इतिहास, जिसमें हमारा अतीत भी सुंदर था, वर्तमान भी श्रेष्ठ ही है और भविष्य तो सर्वश्रेष्ठ होगा ही। हिम्मते केवल मर्द ही नहीं, हर महिला और बच्चा बच्चा भी।

क्या आपको पूत के पांव पालने में नजर नहीं आ रहे। अच्छे दिन ही तो वह सिल्वर स्पून है, जो आज की पीढ़ी अपने मुंह में लेकर पैदा हुई है। हमारा देश सोने की चिड़िया था, सोने की चिड़िया है, और सोने की चिड़िया ही बना रहेगा, ईश्वर गवाह है। कोई शक ? जय हिन्द ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 270 – गुरुत्वाकर्षण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 270 ☆ गुरुत्वाकर्षण… ?

आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।

आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।

उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।

आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।

अब आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।

अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ  बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।

श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।

आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।

लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 557 ⇒ बादाम के दाम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बादाम के दाम।)

?अभी अभी # 557 ⇒ बादाम के दाम ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, यह आम का नहीं, बादाम का मौसम है, और बादाम का जन्म आम आदमी के लिए नहीं हुआ है। जब से यह आम भी कुछ खास हुआ है, बादाम भी थोड़ा थोड़ा आम हुआ है। आम आदमी भी आजकल, कम से कम, मैंगो शेक और बादाम शेक तो पीने लायक हो ही गया है।

आम अगर फलों का राजा है, तो बादाम सिर्फ़ एक ड्राई फ्रूट यानी सूखा मेवा! ड्राई फ्रूट मतलब रस हीन फल! जिनका जीवन वैसे ही नीरस है, उनका काम ड्राई फ्रूट अथवा सूखे मेवे से नहीं चलता, और जिन्हें अपना गला तर करना होता है, वहाँ देश, काल और परिस्थिति नहीं देखी जाती और अंगूर की बेटी का हाथ थाम लिया जाता है। एक बार जब गला तर होता है, तो कुछ चखना भी पड़ता है। जिन्होंने कभी चखी ही नहीं, वे क्या जानें चखना का स्वाद! हां, जहां माले मुफ़्त बेरहम होता है वहां भुने हुए काजू बादाम भी चखना का ही काम करते हैं।।

लेकिन जो रसिक और शौकीन चखने में विश्वास नहीं रखते, उनके लिए अगर ठंड में बादाम के जलवे हैं, तो गर्मी में हमारे आम के भी ठाठ निराले हैं। गर्मी में अगर आमरस पूड़ी, तो ठंड में बादाम का हलवा। लेकिन बस आम आदमी बादाम के दाम सुनकर ही बिदक जाता है।

आम के आम और गुठलियों के दाम! लेकिन आम आदमी गुठलियों के दाम की चिंता नहीं करता, आम चूसता है और छिलका और गुठली फेंक देता है। बेचारी बादाम, क्या नहाए और क्या निचोड़े! उसका तो छिलका क्या निकला, वह सिर्फ बादाम की गिरी बनकर रह गई। लेकिन उसके दाम के कारण ही उसे समाज में वह इज्जत और सम्मान प्राप्त है जो फलों के राजा को भी नहीं।।

बादाम के दाम चुकाने के बाद भी अगर हम बादाम के गुणों की तारीफ नहीं करें, तो हम उसके साथ न्याय नहीं कर रहे। पांच वर्ष की उम्र से हम सुनते आ रहे हैं कि रोज सुबह पांच भीगी हुई बादाम खाना चाहिए उससे सेहत और मस्तिष्क दोनों स्वस्थ रहते हैं। आम आपको एक आम इंसान ही बनाए रखता है जब कि बादाम आपको बुद्धिमान भी बनाती है।।

जब हमारे बादाम खाने के दिन थे, तब हम भुने हुए चने और मूंगफली खाकर ही अपनी सेहत बनाते थे। जब सर पर बाल ना हों, और मुंह में दांत, और याददाश्त भी जवाब दे गई हो, तब बादाम की याद आ ही जाती है। देर आयद दुरुस्त आयद।

क्या आप जानते हैं, बादाम का भी तेल निकलता है। कैसा लगता होगा इतनी महंगी बादाम को, जब उसका भी तेल निकलता होगा। हम तो यह सोचकर ही हैरान हैं कि जो बादाम ही इतनी महंगी है, उसका तेल कितना महंगा होगा।

यहां तो सरसों, मूंगफली और सोयाबीन के तेल के भाव ही आसमान छू रहे हैं। लेकिन अगर कॉस्मेटिक्स के विज्ञापन देखें तो वहां ककड़ी, आंवला, मेंहदी, क्रीम और बादाम साथ साथ नजर आयेंगे। कहीं फेसवॉश तो कहीं मॉइश्चराइजर। पूरा समाजवाद है सौंदर्य जगत के उत्पादों में।।

भले ही इंसान का तेल निकल जाए फिर भी कुछ लोग नियमित रूप से बादाम का तेल सर में लगाते हैं और उसी तेल से बदन की मालिश भी करते हैं। जान है तो जहान है। यह जनम ना मिलेगा दोबारा। पैसे को हाथ का मैल यूं ही नहीं कहा गया है। अगर आप अफोर्ड कर सकते हैं तो हम कोई आपको फोर्ड खरीदने का नहीं कह रहे, सिर्फ एक चम्मच बादाम का तेल गर्मागर्म दूध में लेकर देखें। बादाम में दम है ..! !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 556 ⇒ समय सीमा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय सीमा।)

?अभी अभी # 556 ⇒ समय सीमा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

समय को भी क्या कोई, कभी बांध पाया है। समय अपने आप में सीमातीत भी है और समयातीत भी। हमें समय थोक में नसीब नहीं होता, टुकड़ों टुकड़ों में परोसा जाता है समय हमें। समय अपनी गति से चलता रहता है, हम समय देखते ही रह जाते हैं, और समय हमसे आगे निकल जाता है। समय की गति तो इतनी तेज है कि वह पलक झपकते ही गुजर जाता है। बहता पानी है समय।

हमें अक्सर लगता है, कि हमारे पास बहुत समय है, लेकिन हम समय को न तो ताले में ही बंद कर सकते हैं, और न ही उसे किसी बैंक में फिक्स्ड डिपॉज़िट करवा सकते हैं। समय वह जमा राशि है, जिसे जमा करो तो ब्याज पर ब्याज लगने लगता है, और जो मूल है, वह भी खतरे में पड़ जाता है।।

समय को न तो हम बचा सकते और न ही खर्च कर सकते, बस केवल इन्वेस्ट कर सकते हैं। पैसे की ही तरह, अगर समय को भी अच्छे काम में लगाया जाए, तो समय अच्छा चलता है। लोग अक्सर हमसे थोड़ा समय मांगा करते हैं। क्या उनके पास अपना समय नहीं है। क्या करेंगे, वे हमारा समय लेकर। हम भी उदार हृदय से अपना थोड़ा समय उन्हें दे भी देते हैं और फिर शिकायत करते हैं, फालतू में हमारा समय खराब कर दिया। मानो, समय नहीं, शादी का सूट हो। जिसे आप कम से कम ड्राइक्लीन तो करवा सकते हैं। खराब समय का आप क्या कर सकते हैं।

क्या हुआ, अगर उसने आपका थोड़ा सा समय खराब कर दिया। आपने जिंदगी में कौन सा समय का अचार डाल लिया। समय को तो खर्च होना ही है। आदमी पहले समय खर्च करके पैसे कमाता है और फिर खराब समय के लिए पैसे बचाकर रखता है। क्या पैसे बचाने से अच्छा समय आता है। कुछ भी कहो, खराब समय में पैसा ही काम आता है।।

पैसा बचाया जाए कि समय बचाया जाए ! समय तो निकलता ही चला जा रहा है। अच्छे समय में समझदारी इसी में है, पैसा कमाया जाए और बचाया जाए। समय तो पंछी है, समय का पंछी उड़ता जाए ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #260 ☆ शब्दों की सार्थकता… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शब्दों की सार्थकता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 260 ☆

☆ शब्दों की सार्थकता… ☆

‘सोच कर बोलना व बोलकर सोचना/ मात्र दो शब्दों के आगे-पीछे इस्तेमाल से ही उसके अर्थ व परिणाम बदल जाते हैं’ बहुत सार्थक है। मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ अर्थात् बोलने से पूर्व सोचने-विचारने व चिंतन-मनन करने का संदेश प्रेषित किया गया है। जो लोग आवेश में आकर बिना सोचे-समझे बोलते हैं तथा तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं; वे अपने लिए मुसीबतों का आह्वान करते हैं। मानव को सदैव मधुर वचन बोलने चाहिए जो दूसरों के मन को अच्छे लगें, प्रफुल्लित करें तथा उनका प्रभाव दीर्घकालिक हो। कटु वचन बोलने वाले से कोई भी बात करना पसंद नहीं करता। रहीम के शब्दों में ‘वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरों को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय’ सबको अपनी ओर आकर्षित करता है तथा हृदय को शीतलता प्रदान करता है। कटु वचन बोलने वाला दूसरे को कम तथा स्वयं को अधिक हानि पहुंचाता है–जिसका उदाहरण आप सबके समक्ष है। द्रौपदी के एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ से महाभारत का भीषण युद्ध हुआ जो अठारह दिन तक चला और उसके भयंकर परिणाम हम सबके समक्ष हैं। इन विषम परिस्थितियों में भगवान कृष्ण ने युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र से गीता का संदेश दिया जो अनुकरणीय है। इतना ही नहीं, विदेशों में गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में पढ़ाया जाता है। निष्काम कर्म के संदेश को अपनाने मात्र से जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है, क्योंकि यह मानव को अपेक्षा-उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकाल देता है। वास्तव में यह दोनों स्थितियाँ ही घातक हैं। इनसे हृदय को आघात पहुंचता है और मानव इनके व्यूह से आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं तो उसके पूरा न होने पर आपको दु:ख होता है और दूसरों द्वारा उपेक्षा के दंश के व्यूह से भी आप आजीवन मुक्त नहीं हो सकते।

‘एक चुप, सौ सुख’ मुहावरे से तो आप सब परिचित होंगे। बुद्धिमानों की सभा में यदि कोई मूर्ख व्यक्ति मौन रहता है तो उसकी गणना बुद्धिमानों में की जाती है। इतना ही नहीं, मौन वह संजीवनी है, जिससे बड़ी-बड़ी समस्याओं का अंत सहज रूप में हो जाता है। प्रत्युत्तर अथवा तुरंत प्रतिक्रिया न देना भी उस स्थिति से निज़ात पाने का अत्यंत कारग़र उपाय है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि ‘बुरी संगति से अकेला भला’ अर्थात् मौन अथवा एकांत मानव की भीतरी दिव्य शक्तियों को जागृत करता है तथा समाधिवस्था में पहुंचा देता है। वहाँ हमें अलौकिक शक्तियों के दर्शन होते हैं तथा बहुत से प्रक्षिप्त रहस्य उजागर होने लगते हैं। यह मन:स्थिति मानव की इहलोक से परलोक की यात्रा कहलाती है।

सोचकर व सार्थक बोलना मानव के लिए अत्यंत उपयोगी है और वह मात्र पद-प्रतिष्ठा प्रदाता ही नहीं, उसे सिंहासन पर भी बैठा सकता है। विश्व के सभी प्रबुद्ध व्यक्ति चिंतन-मनन करने के पश्चात् ही मुख खोलते हैं। सो! उनके मुख से नि:सृत वाणी प्रभावमयी होती है और लोग उसे वेद वाक्य समझ हृदय में धारण कर लेते हैं। यह उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देता है। बड़े- बड़े ऋषि मुनि व संतजन इसका प्रमाण हैं और उनकी सीख अनुकरणीय है–’यह जीवन बड़ा अनमोल बंदे/ राम-राम तू बोल’ लख चौरासी से मुक्ति की राह दर्शाता है।

इसके विपरीत बोलकर सोचने के उपरांत मानव  किंकर्तव्यविमूढ़ की भयावह स्थिति में पहुंच जाता है, जिसके  प्रत्याशित परिणाम मानव को चक्रव्यूह में धकेल देते हैं और वहाँ से लौटना असंभव हो जाता है। हमारी स्थिति रहट से बंधे उस बैल की भांति हो जाती है जो दिनरात चारों ओर चक्कर लगाने के पश्चात् लौटकर वहीं आ जाता है। उसी प्रकार हम लाख चाहने पर भी हम अतीत की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाते और हमारा भविष्य अंधकारमय हो जाता है। हम सिवाय आँसू बहाने के कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि गुज़रा समय कभी लौटकर नहीं आता। उसे भुला देना ही उपयोगी है, लाभकारी है, श्रेयस्कर है। यदि हमारा वर्तमान सुखद होगा तो भविष्य अवश्य स्वर्णिम होगा। हमें जीवन में पद-प्रतिष्ठा, मान- सम्मान आदि की प्राप्ति होगी। हम मनचाहा मुक़ाम प्राप्त कर सकेंगे और लोग हमारी सराहना करेंगे।

समय निरंतर चलता रहता है और वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। इसलिए मानव को सदा सोच-समझ कर बोलना चाहिए ताकि वह निंदा व प्रशंसा के दायरे से मुक्त रह सके। अकारण प्रशंसा उसे पथ-विचलित करती है और निंदा हमारे मानसिक संतुलन में व्यवधान डालती है। प्रशंसा में हमें फिसलना नहीं चाहिए और निंदा से पथ-विचलित नहीं होना चाहिए। जीवन में सामंजस्य बनाए रखना अत्यंत आवश्यक व कारग़र है। समन्वय जीवन में सामंजस्यता की राह दर्शाता है। इसलिए हर विषम परिस्थिति में सम रहने की सीख दी गई है कि वे सदैव सम रहने वाली नहीं हैं, क्योंकि वे तो समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के सा-साथ/ फूल और पात बदलते हैं’ उक्त भाव को पोषित करते हैं।

इसलिए मानव को सुख-दु:ख, हानि-लाभ, प्रशंसा-निंदा अपेक्षा-उपेक्षा को तज कर सम रहना चाहिए। अंत में ‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक-दूसरे से मिल न सके/ यह विडंबना है जीवन की।’ सो! मानव को ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही किसी कार्य को प्रारंभ करना चाहिए। तभी वह अपने मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और सपनों को साकार कर सकता है। इसलिए मानव को बीच राह आने वाली बाधाओं-आपदाओं व उस के अंजाम के बारे में सोचकर ही उस कार्य को करना चाहिए। सोच-समझ कर यथासमय कम बोलना चाहिए, क्योंकि निर्रथक व अवसरानुकूल न बोलना प्रलाप कहलाता है जो मानव को पलभर में अर्श से फर्श पर लाने का सामर्थ्य रखता है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 555 ⇒ कुंटे साहब ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कुंटे साहब ।)

?अभी अभी # 555 ⇒ कुंटे साहब ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यूं तो वे हमारे फैमिली डॉक्टर थे, फिर भी हम सभी उन्हें कुंटे साहब ही कहते थे। मोहल्ला क्लीनिक की धारणा हमारे यहां बहुत पुरानी है। हर मोहल्ले में आपको एक दो किराने की दुकानें, दूध की दुकान, और साइकिल की दुकान के साथ एक छोटा मोटा डॉक्टर का दवाखाना भी नजर आ ही जाता था।

आज भले ही इलाज बहुत महंगा हो गया हो, इस शहर में डॉ अकबर अली जैसे चिकित्सक केवल दो रुपए में मरीजों को देखते थे।

डॉ मुखर्जी की ख्याति तो पूरे प्रदेश में थी। पांच और दस रुपए वाले डॉक्टर बहुत महंगे डॉक्टर माने जाते थे।।  

कुंटे साहब का दवाखाना हमारे घर से एक डेढ़ किलोमीटर दूर, सुतार गली में था, लेकिन गली मोहल्लों की घनी बस्ती के बीच इतना दूरी आम तौर पर पैदल ही तय की जाती थी। पहले मेरी मां मुझे उंगली पकड़कर डॉ कुंटे के पास लाती थी, और बाद में मैं मां को उंगली पकड़कर दवाखाने लाता था।

तब हम डॉक्टरों को डिग्री से नहीं आंकते थे, उनके इलाज और स्वभाव पर ही हमारा ध्यान केंद्रित होता था। डॉक्टर कुंटे के सर पर मैने कभी बाल नहीं देखे, लेकिन उनके शांत और गंभीर चेहरे पर मूंछ जरूर थी। वे बहुत कम बोलते थे।।  

उनका एक कंपाउंडर भी था, जो लकड़ी के काउंटर के पीछे से पर्ची के अनुसार दवाइयां दिया करता था। दुबले पतले, चिड़चिड़े, स्वभाव के चश्माधारी इन सज्जन का नाम जोशी जी था। दुबले पतले लोग चिड़चिड़े और मोटे लोग हंसमुख क्यों होते हैं, यह पहेली मैं आज तक सुलझा नहीं पाया।

हर डॉक्टर गोलियों के साथ पीने की दवा भी देता था, इसलिए खाली शीशी साथ में लानी पड़ती थी। आजकल तो पीने की दवा भी बाजार से लेनी पड़ती है। गोलियों की भी पुड़िया बनाई जाती थी, आज भी कई चिकित्सक पॉलीथिन का प्रयोग कम ही करते हैं।।  

पैसे अक्सर मां ही दिया करती थी, फिर भी कुंटे साहब का इलाज इतना महंगा नहीं था। समय के साथ हम बड़े होते चले गए, और कुंटे साहब बूढ़े।

क्लीनिक के ऊपर ही उनका निवास था। उनका एक पुत्र मेरा कॉलेज का सहपाठी था। उनसे कुंटे साहब के हालचाल मिलते रहते थे।।  

एक बार मेरे मित्र के आग्रह पर उनसे मिलने उनके घर गया था। उनके घुटने जवाब दे चुके थे। सीढियां चढ़ना उतरना उनके लिए संभव नहीं था। तब तक घुटने का प्रत्यारोपण इतना आम नहीं हुआ था, केवल मालिश और व्यायाम से ही काम चल रहा था।

उनका शरीर कसरती था।

जब तक आप कसरत करते रहते हैं, शरीर काम करता रहता है। तब देसी व्यायाम ही कसरत कहलाता था। दंड बैठक लगा ली, और शरीर की मालिश कर ली। योगासन में स्ट्रेचिंग एक्सरसाइजे़स होती हैं, जिससे शरीर लचीला बना रहता है। इस उम्र में कुंटे साहब को सलाह देना मुझे उचित नहीं लगा।।  

घर जाकर मां को भी कुंटे साहब का हाल बताया। मां को भी अफसोस हुआ। मां ने बताया कुंटे साहब हमारे परिवार के लिए डॉक्टर नहीं भगवान थे। एक दर्द का रिश्ता ही तो मरीज और डॉक्टर को करीब लाता है। तब इस पेशे में पैसा और लालच प्रवेश नहीं कर पाया था।

कुंटे साहब को मेरी मां की तरह कितने मरीजों की दुआ लगी होगी। आज अनायास ही मां की स्मृति के साथ कुंटे साहब का भी स्मरण हो आया। उनकी तस्वीर आज सिर्फ मेरी यादों में है, केवल शब्द चित्र ही पर्याप्त है उनके लिए तो।।  

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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