हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 49 ⇒ हंसते जख्म… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसते जख्म”।)  

? अभी अभी # 49 ⇒ हंसते जख्म? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बात कॉमेडी की चल रही थी, बीच में यह कोई सी फिल्म टांग दी, हंसते जख्म ! हंसते हंसते पेट में बल पड़ सकते हैं, हंसते हंसते आंखों में आंसू भी आ सकते हैं, लेकिन हंसते ही जख्म, कुछ हजम नहीं हुआ।

हंसना संजीवनी है, अगर हमारी जीवन संगिनी हंसती खेलती नसीब हो जाए तो क्या यह जीवन, कॉमेडी सर्कस नहीं हो जाए। आखर कौन दुखी, जख्मी, आहत, और नाशाद रहना चाहता है इस जिंदगी में। तुम आज मेरे संग हंस हो, तुम आज मेरे संग गा लो, और हंसते गाते, इस जीवन की उजली राह संवारो। ढिंग चिक चिक चिक ढिंग ..ढोलक मंजीरा। ।

लेकिन आज हंसने की स्थिति अत्यंत दयनीय और हास्यास्पद हो गई है। दुनिया हंस तो रही है, लेकिन इस हंसी में खुशी की आत्मा नहीं है, कहीं कोई खोखली हंसी हंस रहा है, तो कहीं कोई किसी और की गलती पर हंस रहा है। जो हास्य कभी सहज था, अब फूहड़ और अश्लील होता चला जा रहा है। जब हंसी के शब्दकोश में अपशब्द का समावेश हो जाता है तो वह हंसी भी अश्लील होती चली जाती है।

हंसी जो स्वास्थ्यवर्धक है, उसे हमने मनोरंजन का साधन बना लिया है। किसी मजबूर गरीब बुजुर्ग मुसीबत के मारे इंसान को अपने मनोरंजन के अड्डे पर पकड़ लाए। दादा पाय लागू ! दारू पीयोगे, मस्ती आ जाएगी। नहीं भैया, हम नहीं पीते, हमें जाने दो। नहीं दादा, ऐसा नहीं चलेगा, पहले दो घूंट चखना, फिर तो बस चखना, भूल गए आज होली है। बुजुर्ग छटपटा रहे हैं, इन्हें वीभत्स रस की प्राप्ति हो रही है, क्या यह हंसते जख्म नहीं है। ।

हमारे लिए मनोरंजन ही हंसी है, हंसी थट्टा है, जिसका किसी की संवेदना से कोई लेना देना नहीं। बस हमें खुश रहना है। यही हास्य का मकसद है, हास्य की परिभाषा है।

हास्य बेचारा वैसे ही दोहरी मार खा रहा है। व्यंग्य में उसकी एंट्री एक एक्स्ट्रा की तरह है, कभी बुलाया जाता है, कभी बाहर निकाल दिया जाता है। तुम तो हास्य कवि सम्मेलन के लिए ही बने हो। डा सरोजिनी प्रीतम और काका हाथरसी ही जानते हैं, हास्य रस की फुलझड़ी क्या होती है। मुंह फुलाकर अपनी पत्नी की हंसी उड़ाकर, आप भले ही सुरेंद्र शर्मा बन बैठें, अब तो आप भी हास्य के पात्र ही नजर आते हो। सोने की मुर्गी जो हाथ लग गई थी। ।

खुद पर हंसना ही वास्तविक हास्य है, दूसरों की हंसी उड़ाना, उन पर कीचड़ फेंकना, ना तो सहज हास्य है और ना ही स्वस्थ मनोरंजन। राजनीति ने भोले भाले सहज हास्य की हत्या की है, उसे बुरी तरह जख्मी किया है। जख्म लेकर फिर भी वह हंस रही है, और हमारी जनता उसके हंसते जख्म को अनदेखा कर तालियां बजा रही है, अपने नेताओं का गुणगान कर रही है।

खेल ताश का हो या सर्कस का, हम हमेशा जोकर को बीच में ले आते हैं। राजकपूर एक शो मैन थे, आम आदमी का दर्द समझते थे। जोकर भी क्या था, बच्चों के लिए मनोरंजन का किरदार।

सनातन, संपन्न नाट्य विधा में भी विदूषक तो होता ही था।।

समय ने हास्य को उठाया भी और गिराया भी। हास्य भी बुलंदियों की ऊंचाइयों तक पहुंचा भी और फिर गर्त में गिरा भी। उमा देवी जैसी गायिका को जब समय ने टुनटुन बना दिया, तो क्या कला ने आत्म हत्या कर ली। नहीं उमा देवी को ही अपनी आत्मा को मारना पड़ा।

जब फिल्मों पर हास्य के गिरते स्तर के युग में कुंदन शाह जाने भी दो यारों जैसी मनोरंजक फिल्म लेकर आए तो लगा अब हास्य जी उठेगा। नुक्कड़ और देख भाई देख, देखकर मन खुश हो गया था। लेकिन हास्य हमेशा अपनी मर्यादा भूल जाता है। उस पर जब एक पतिव्रता स्त्री की शर्तें थौंपी जाती है, तो वह बगावत कर बैठता है। जब art for arts’ sake हैं, व्यंग्य अपनी शालीन मर्यादा लांघ पोर्न होता चला जा रहा है, आधा गांव और काशी के अस्सी पर आपत्ति नहीं, लेकिन कपिल का कॉमेडी शो तो हम नहीं देखते, बड़ा फूहड़, दो दो अर्थी वाला है। ।

हमारे देश में भक्त भी हैं और आलोचक भी। बाबा रामदेव भी कपिल के शो पर आकर घटिया जॉक सुनाते हैं और इसी मंच पर सतीश कौशिक और अनुपम खेर अपनी यारी दोस्ती के कारनामे ठहाकों में सुनाते हैं। अभी अभी यहां सुधा मूर्ति जी ने भी कदम रखा। कला कला है, यहां कभी वाह उस्ताद जाकिर हुसैन तो कभी अल्ला रखा।

वाकई आज हास्य जख्मी है और उसका जख्म हमारी खुदगर्जी है, हमें उससे तो बहुत अपेक्षाएं हैं लेकिन उसे हमने आज भी अपने सहज जीवन से कोसों दूर रखा है। फूलों की हंसी, बच्चों की फुलवारी और पक्षियों के कलरव में आज भी दिव्य हास्य मौजूद है, कभी अपने पर हंस लें और कभी आज की राजनीति पर दो आंसू बहा लें, गंगा नहा आएंगे आप। हास्य गुदगुदी है, कोई जख्म नहीं, लाफ्टर कोई मेडिसिन नहीं, शरीर और आत्मा का कायाकल्प है। सुख सागर है, परमानंद सहोदर है। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 67 – किस्साये तालघाट… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 67 – किस्साये तालघाट – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा तालघाट के लेखापाल महोदय अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी थे. उनका परिवार जिला मुख्यालय जो उनका गृहनगर भी था, में निवास कर रहा था और ऐसा माना जाता था कि सप्ताहांत में वे भी पारिवारिक सुख का आनंद लेते थे. पर सोमवार से शनिवार तक उनका तालघाट में एफ. बी. (फेसबुक नहीं) याने फोर्स्ड बैचलर का रूप होता था. ऐसी स्थिति में कामचलाऊ पाककला उन्हें आती थी तो सोमवार के डिनर से लेकर शनिवार के लंच तक की व्यवस्था के मामले में वे आत्मनिर्भर थे. तालघाट शाखा के शाखाप्रबंधक की भार्या अन्नपूर्णा स्वरूपा थीं और उनके सुझाव और सहमति पर ही लेखापाल जी का हर सोमवार का लंच शाखाप्रबंधक निवास में हुआ करता था.

परदेश में जब भी परिवार के बिना रहने की नौबत आती है तो सभी घर का खाना मिस करते हैं. दाल चांवल सब्जी और तवा रोटी की महत्ता ऐसे समय ही महसूस होती है. ये कांबिनेशन सरल, सुपच और स्वादिष्ट होता है जो कभी बोर नहीं करता. यह सादगी पर अपनेपन से भरी डिश, सप्ताहांत के बाद अगले छै दिनों के लिए रिचार्ज कर देता है. तो इस सोमवारीय गर्मागर्म और सामान्य पर स्वादिष्ट लंच मिल जाने का श्रेय लेखापाल जी भगवती कृपा, स्वयं का भाग्यवान होना और शाखाप्रबंधक जी का उनके प्रति संवेदनशील होने को देते थे. इस कारण ही वे उनका सपत्नीक सम्मान भी किया करते थे पर इसका यह मतलब कतई नहीं था कि वे उन्हें कार्यभार और उत्तरदायित्व में अतिरिक्त सहयोग करें. कम ही बोलते थे, अपनी कलम का हमेशा कंजूसी से ही प्रयोग करते थे, शाखा की राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं होता था. चाय पीने की आदत नहीं थी पर कॉफी के पाऊच उनकी ड्रायर में पर्याप्त होते थे. शाखा परिसर में चायवाले से मीठा दूध दिन में दो बार बुलाकर  उससे स्वयं ही कॉफी बनाकर तरोताजा होने की सफल कोशिश वे नियमित रूप से किया करते थे. शाम को तालघाट के अपने अस्थायी आवास में पहूँच कर उनकी भोजन पकाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती थी और साथ ही ऑन हो जाता था उनका छोटा पर जबरदस्त पोर्टेबल टीवी जो केबल के दम पर मनोरंजन सेवा का सतत प्रसारण करता रहता था. रात्रिभोजन के समय भी और बाद में भी टीवी चलता रहता और उनके निद्रामग्न होने पर भी चलता रहता क्योंकि सोने के पहले टीवी या लाइट्स बंद करने की उनकी आदत नहीं थी. उनके सुबह नींद से उठने पर भी बेचारे टेलीविजन को आराम नहीं मिल पाता था और वो तब ही बंद होता जब ये घर में ताला लगाकर बैंक जाने के लिए निकलते. एक बार तो ऐसा भी हुआ कि शनिवार से चलता हुआ टीवी सोमवार रात को ही विश्राम पा सका. फिर भी उसने याने उनके टीवी ने शिकायत नहीं की, अपनी सेवा निर्बाध देता रहा. यह निश्चित करना मुश्किल था वो ज्यादा काम करते थे या उनका टीवी. पर यह पक्का था कि टीवी अपने मालिक की आदतों से वाकिफ था और बहुत मजबूती से उनके मनोरंजन का ख्याल रखता था.

आसक्तिहीनता लेखापाल जी की पहचान बन गई थी और निर्विकार होना उनका स्वभाव. उनके दुश्मन नहीं थे पर उनके दोस्त भी नहीं थे. दोस्ती हो या दुश्मनी, दोनों के लिये भावनाओं का ज्वार भाटा आवश्यक होता है. ये उनके पास नहीं था तो लोग भी तटस्थ ही रहते. ऐसे व्यक्तित्व के साथ आप कितना भी रहें पर ऐसे लोग न तो आपको याद करते हैं न ही खुद याद आते हैं. बैंक की वार्षिक लेखाबंदी हो या ऑडिट इंस्पेक्शन, इन सभी मौके पर भी वे उत्साहहीनता और निर्विकार होने का ही एहसास कराया करते. स्टाफ सोच में पड़ जाता पर वे इन सब मायावी चीजों से संत वैराग्य का भाव रखते थे.

बैंकिंग में डेबिट और क्रेडिट की एंट्रियों का समायोजित होना बैंकिंग प्रणाली है पर हम बैंकर्स सपाट सतह के नहीं होते, हम में इंसानियत के गुण और दोष दोनों पाये जाते हैं. हममें से अधिकतम में हमेशा कुछ डेबिट और कुछ क्रेडिट प्रविष्टियां आउटस्टैंडिंग रह ही जाती हैं. यही हमारी पहचान होती है. प्रायः कहीं हमारा या किसी और का नुकीलापन हमें चुभ जाता है तो कहीं दो क्रेडिट प्रविष्टियों वाले छोर मिल जाते हैं और दोस्ती की शुरुआत हो जाती है.  दिल से दिल का मिलना डेबिट प्रविष्टियों का भी होता है जिसे हमप्याला, हमकश और हमचौंसर कहा जाता है.

नोट :लेखापाल जी का इतना चरित्र चित्रण पर्याप्त है. हम सभी को पढ़ने पर लगता है कि ये कहानी तो हमने कहीं सुनी है और यही लेखन की सफलता है क्योंकि ये भी हमारी बैंकसेवा की यात्रा ही है जिसमें रास्ते और पड़ाव जाने पहचाने लगते हैं. कोशिश यही है कि ये किस्साये तालघाट जारी रहे पर इस कथानक का कोई क्लाइमेक्स संभव नहीं है. रिटायरमेंट के बाद भी तो ये वायरस पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाता. आज भी हमेशा की तरह “your account has been credited with Rs. so and so “हमारा सबसे प्यारा और दुलारा मैसेज है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 35 – देश-परदेश – शिकागो शहर (स्वामी विवेकानंद – राजा भास्कर सेतुपति, रामेश्वरम) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 35 ☆ देश-परदेश – शिकागो शहर (स्वामी विवेकानंद – राजा भास्कर सेतुपति, रामेश्वरम) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो की धर्म संसद में दिए गए भाषण की 11 सितंबर को 129वीं जयंती है।

आज जब पूरा देश स्वामी विवेकानंद को याद कर रहा है। इस अवसर पर  स्वामी विवेकानंद को शिकागो भेजने वाले और उनकी पूरी अमेरिका और यूरोप की ट्रिप स्पॉन्सर करने वाले भास्कर सेतुपति को याद करते हैं।

भास्कर सेतुपति रामेश्वरम के निकट रामानंद या रामेश्वरपुरम रियासत के राजा थे। सेतुपति पदवी उनके पूर्वजों से मिला था जो सेतु यानि पुल के रखवाले थे। राजा भास्कर सेतुपति के पूर्वजों ने राम सेतु की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले रखा था।

जब रामेश्वरम के राजा भास्कर सेतुपति को पता चला कि स्वामी विवेकानंद जी शिकागो की धर्म संसद में जाना चाहते हैं और उनके पास जाने की व्यवस्था नहीं है। तब राजा  भास्कर सेतु पति ने उनकी पूरी यात्रा के व्यय का वहन करने का बीड़ा उठाया।

स्वामी विवेकानंद अपनी 4 साल की यात्रा के बाद 1897 में लौटे तो उन्होंने सबसे पहला कदम राजा भास्कर सेतुपति के राज्य में ही रखा, जहां भास्कर सेतुपति ने स्वामी विवेकानंद की सफल यात्रा के उपलक्ष में एक 40 फ़िट ऊंचा कीर्ति स्तम्भ बना रखा था, जिसके नीचे उन्होंने लिखवाया था….”सत्यमेव जयते”, यही वाक्य बाद में भारत सरकार का अधिकारिक सूक्ति बना।

भास्कर सेतुपति स्वामी विवेकानंद के इतने अनन्य शिष्य थे कि 1902 में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के बाद उन्हें ऐसा सदमा लगा कि अगले ही वर्ष 1903 में महज़ 35 वर्ष की आयु में अपने प्राण त्याग दिए।

बंगाल में जन्मे स्वामी विवेकानंद के प्रति तमिलनाड के राजा की ये अनन्य भक्ति बताती है कि उस समय भी जब न इंटरनेट था, न टी वी, न रेडियो और अख़बार भी इतने सहज उपलब्ध न थे, तब भी भारतवासी एक दूसरे से जुड़े हुए थे, और आज इतना सब होने के बाद सिर्फ़ 75 सालों में हमने भाषा, संस्कृति, रीति रिवाजों के चक्कर में आपस में कितनी दूरियाँ बना ली हैं।

स्वामी विवेकानंद के साथ उनके ज्ञान और हमारी भारतीय संस्कृति को सवा सौ साल पहले पूरी दुनिया से अवगत कराने के माध्यम भास्कर सेतुपति को भी नमन…

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 191 ☆ अस्तित्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 191 अस्तित्व ?

बिरले होते हैं जो मुँह में सोने का चम्मच लेकर पैदा हों। अधिकांश लोग अपने जीवन में संघर्ष करते हैं। समय साक्षी है कि संघर्षशील व्यक्ति कठोर परिश्रम करता है। शनै:-शनै: अपने जीवन के भौतिक स्तर को ऊँचा ले जाता है। किसी से भी बात कीजिए, हरेक के पास उसके संघर्ष की गाथा मिलेगी।

जीवन के इस संघर्ष को पर्वतारोहण से जोड़कर आसानी से समझा जा सकता है। पहाड़ चढ़ना अर्थात लगातार ऊँचाई की ओर बढ़ना, पैर लड़खड़ाना, पाँव सूजना, साँस फूलना, अंतत: शिखर पर पहुँचकर आनंद से उछलना।

यहाँ तक तो हर कहानी एक-सी है। असली परीक्षा शिखर पर पहुँचने के बाद आरम्भ होती है। शिखर संकरा होता है, नुकीला और पैना होता है। यहाँ पहुँचने की तुलना में यहाँ टिके रहना बड़ी बात है।

मनुष्य का इतिहास या वर्तमान ऐसे किस्सों से भरा पड़ा है जो बताते हैं कि जो जितनी गति से शिखर पर पहुँचे, उससे अनेक गुना अधिक वेग से लुढ़कते हुए रसातल में आ पहुँचे। मनुष्य जाति का अनुभव है कि धन, बल, कीर्ति के शिखर पर बैठा व्यक्ति जब फिसलना आरंभ करता है तो चढ़ने में जितना समय लगा था, उसका दो प्रतिशत समय भी उसे नीचे गिरने में नहीं लगता।

ऐसा क्यों होता है? यहीं दर्शन प्रवेश करता है, मनुष्य नाम के दोपाये को सजीव जगत में उच्च स्थान दिलानेवाली मनुष्यता प्रासंगिक हो उठती है। अधिकांश मामलों में अहंकार और मैं-मैं की रट से शिखर का ग्लेशियर पिघलने लगता है और बेतहाशा लुढ़कता मनुष्य सब कुछ खो देता है।

विचार करें तो पहाड़ की चोटी पर पहुँचना अर्थात प्रदूषण तजना, अपने फेफड़ों में शुद्ध प्राणवायु भरना। सामान्यत: अपने मानसिक प्रदूषण से व्यक्ति उबर नहीं पाता। अहंकार का मद, स्वयं को ऊँचा मानने का मिथ्याभिमान शिखर को स्वीकार्य नहीं। फलस्वरूप अपने ही कर्मों के बोझ से मनुष्य लुढ़कने लगता है।

प्रमाद का शिकार होकर शिखर खो देना मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। अपनी रचना ‘अस्तित्व’ का स्मरण हो आता है,

पहाड़ की ऊँची चोटियों के बीच

अपने कद को बेहद छोटा पाया,

पलट कर देखा,

काफी नीचे सड़क पर

कुछ बिंदुओं को हिलते डुलते पाया,

ये वही राहगीर थे,

जिन्हें मैं पीछे छोड़ आया था,

ऊँचाई पर हूँ, ऊँचा हूँ,

सोचकर मन भरमाया,

एकाएक चोटियों से साक्षात्कार हुआ,

भीतर और बाहर एकाकार हुआ,

ऊँचाई पर पहुँच कर भी,

छोटापन नहीं छूटा

तो फिर क्या छूटा?

शिखर पर आकर भी

खुद को नहीं जीता

तो फिर क्या जीता?

पर्वतों के साये में,

आसमान के नीचे,

मन बौनापन अनुभव कर रहा था,

पर अब मेरा कद

चोटियों को छू रहा था..!

अपने कद को चोटियों जैसा ऊँचा करने के लिए  छोटेपन से मुक्त होना ही होगा। अस्तित्व के उन्नयन के लिए बड़प्पन से युक्त होना ही होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 46 ⇒ नून बिन सब सून… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नून बिन सब सून।)  

? अभी अभी # 46 ⇒ नून बिन सब सून? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आज का कान्वेंटी ज्ञान,नून को गुड आफ्टरनून वाला नून और सून को कम सून वाला सून भले ही समझ ले, लेकिन जिन्होंने मुंशी प्रेमचंद का नमक का दारोगा पढ़ा है,और जिन्हें गांधीजी के नमक सत्याग्रह की जानकारी है,वे नून तेल का महत्व अच्छी तरह से जानते हैं । सून भी सूना का ही अपभ्रंश है, नमक बिना भी कहीं इंदौर का नमकीन बना है ।

कहने को हमारे शरीर में सभी आवश्यक तत्व मौजूद हैं,लेकिन ज़िंदा रहने और स्वस्थ रहने के लिए हमें नमक का सहारा लेना ही पड़ता है । अधिक नमक के हानिकारक परिणामों से पूरी तरह से परिचित होते हुए भी हमारे जीवन में नमक का एक अहम स्थान है ।।

कल मेरा गला खराब हो गया था,मुंह से बोल नहीं निकल रहे थे । थोड़ा हल्दी नमक से गरारा किया,तो गला खुला । भोजन में अगर चुटकी भर नमक न हो,तो भोजन स्वादिष्ट नहीं बनता । जो पहले किसी का नमक खा लेते थे,वे नमक का कर्ज अदा करते थे । आजकल सिर्फ नमक की कीमत अदा करते हैं । सलीम जावेद पहले संवाद लेखक हुए हैं, जिन्होंने फिल्म शोले में गब्बर सिंह के मुख से एक स्वास्थ्य संबंधी संदेश इस तरह प्रसारित किया ;

सरदार ! मैंने आपका नमक खाया है ।
तो ले,अब, बीपी की, गोली खा ।।

इस धरती पर केवल इंसान ही ऐसा प्राणी है जो कपड़े पहनता है,और भोजन पकाकर खाता है । शेर जंगल का राजा है,फिर भी नंगा रहता है, और अपने हाथ से शिकार करता है,और बिना पकाए,नून तेल ,पुष्प ब्रांड मसाले बिना ही खा लेता है । कैसी डायनिंग टेबल और शाही थाली । जब कि एक आम आदमी सूट बूट पहनकर जेब में एक 500 का नोट रख बढ़िया सी होटल में शाही पनीर और बिरयानी खाकर मूंछ और पेट पर हाथ फेर लेता है । शेर फिर भी शेर है, और आदमी,बेचारा आदमी ।

आप चाहे किसी भी चीज का अचार डालो, अथवा ज़िन्दगी भर पापड़ बेलो, नून बिन सब सून । बिना तेल का, बिना मिर्ची का,अचार तो बन सकता है,लेकिन बिना नमक के नहीं । जिस तरह आज मुलायमसिंह की कहीं दाल नहीं गल रही, बिना नमक के कभी अचार भी नहीं गलता ।।

नमक तो नमक होता है,नमक से हड्डियां गलती भी हैं, और मजबूत भी होती है । आप किसी का भी नमक खाएं, कम ही खाएं । क्योंकि नमक का कर्ज भी अदा करना पड़ता है । आप मिर्ची तो खा भी सकते हो,और किसी को लगा भी सकते हो,लेकिन नमक किसी को नहीं लगाया जाता । जले पर नमक छिड़क ना हमें पसंद नहीं । हल्दी की रस्म तो सुनी है,कभी नमक की रस्म नहीं सुनी ।

वैसे खाने में नमक मिर्ची की जोड़ी भाई बहन की जोड़ी लगती है । सिका हुआ भुट्टा हो तो नमक, नींबू से काम चल जाता है । जाम और जामुन पर अगर नमक मिर्ची नहीं बुरकी हो,तो मज़ा नहीं आता । दही बड़ा तो गार्निश ही नमक मिर्ची और भुने हुए जीरे के साथ होता है ।।

नमक की महिमा जितनी मुंह में पानी लाती है, मात्रा बढ़ जाने पर आजकल बी पी भी उतना ही बढ़ाती है । स्वास्थ्य के रखवाले,नमक के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं । आयोडीन गया भाड़ में,अगर स्वस्थ रहना हो,तो सेंधा नमक का ही सेवन करें ।

मुझे याद है,खड़े नमक और खड़ी मिर्ची से मां मेरी नज़र उतारा करती थी । तब घरों में सिगड़ी हुआ करती थी । अंगारों पर जब नमक मिर्ची डाली जाती थी,तब अगर मिर्ची की धांस नहीं आई,मतलब नज़र लगी है,और अगर मिर्ची की धांस है,तो नज़र नहीं । जब से मां गई है,मुझे किसी की नजर ही नहीं लगी । मॉम बिन सब सून ।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 45 ⇒ नारियल पानी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नारियल पानी “।)  

? अभी अभी # 45 ⇒ नारियल पानी ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक कहावत आम है, आम के आम, गुठलियों के दाम ! हमने तो अक्सर आम खाया और गुठली फेंक दी। हमने आम के भी दाम दिए और गुठलियों के भी। आम से हमको मतलब, गुठली से क्या लेना।

लेकिन प्रकृति हमें आम भी देती है और एक गुठली फिर से उगकर आम का पेड़ बन जाती है। आम की सिर्फ  गुठली ही नहीं, पूरा पेड़ उपयोगी है, पत्ती से लेकर तने तक। ठीक इसी प्रकार आम की तरह नारियल का भी मामला है। एक नारियल अगर   हमें गुणकारी पानी देता है तो वही नारियल हमें खोपरे का तेल भी देता है। यानी एक ही नारियल में पानी का कुआं भी है और तेल का भी। नारियल, एक कितनी छोटी गागर, लेकिन इसमें समाए हुए सभी सागर। ।

पूरी सृष्टि हो या हमारा शरीर, पांच तत्व, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्व ही इसका आधार है। कहा जाता है इस पृथ्वी पर तीन चौथाई समुद्र है। हमारे शरीर में अगर जल तत्व की मात्रा कम हो, तो हमारा जीवन खतरे में पड़ सकता है। सभी तरह की शारीरिक व्याधियों में नारियल पानी एक रामबाण औषधि है, संजीवनी है। जो काम अस्पताल में सलाइन करती है, वही काम नारियल पानी भी करता है। इसमें अगर  क्षार है तो मिठास भी। An apple a day की कहावत तो सबने सुनी है लेकिन अगर रोज नारियल पानी का नियम से सेवन किया जाए तो यह भी किसी डॉक्टर से कम नहीं।

इसी नारियल को श्रीफल भी कहते हैं जो पूजा में भी काम आता है और सारस्वत सम्मान में शॉल श्रीफल बन किसी की साहित्य साधना का फल बन जाता है। साधक शॉल ओढ़े और खोपरा खाए। सुना है, इसी खोपरे से खोपड़ी में सरस्वती यानी ज्ञान की देवी प्रवेश करती है। ।

ऊपर से कड़क और अंदर से पानी पानी, नारियल पानी की यही कहानी ! अक्सर समुद्री तटों के आसपास ही नारियल के पेड़ होते हैं। एक और फल कदली अर्थात् केले के वृक्ष  का तो एक पत्ता ही डायनिंग टेबल का काम कर जाता है। नारियल का ही पानी, नारियल की ही चटनी और नारियल का तेल। अद्भुत है नारियल का खेल।

समुद्र का पानी खारा होता है, उसे आप पी नहीं सकते। एक नारियल समुद्र से सिर्फ नमक ही नहीं लेता, उसे साफ कर, उसमें मिश्री भी घोल देता है। उसे एक सुरक्षित पात्र में एकत्रित कर देता है और आप जब चाहें तब, प्यास लगने पर कुआं खोदने की जगह, नारियल छीलकर पानी पी सकते हैं। पेट की सभी बीमारियों और कमजोरियों में स्वादिष्ट पेय, नारियल पानी। ।

किसी भी पूजा का फल श्रीफल के बिना निष्फल है। पूजा के नारियल में गीरी होती है, जो खोपरा कहलाता है और प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। सूखने पर इसी खोपरे के कई व्यंजन बनते हैं। इस खोपरे की गिनती सूखे मेवे के रूप में होती है जिसका तेल हम सर में लगाते भी हैं और खाते भी हैं।

सर्दी में रोज सवेरे सर से पांव  तक, पूरे बदन में, खोपरे का तेल लगाएं, खुश्की से बचें ! ठंड में खोपरा खाएं, सेहत बनाएं, पेट की गर्मी, डिहायड्रेशन सहित पेट की सभी बीमारियों के लिए नियमित नारियल पानी का सेवन करें। सभी मिनरल कंटेंट युक्त, १०० प्रतिशत शुद्ध प्राकृतिक पेय, और ज़रा इसका सुरक्षित पैकिंग तो देखिए, कच्चा नारियल हो, या पूजा का नारियल, और दांतों तले उंगलियां दबाइए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #183 ☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 183 ☆

☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण 

ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।

वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।

ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ऐसे लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी; वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। उस स्थिति में हम हैरान-परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है। यदि छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं, तो उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है; पर्वतों से नहीं।

‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर  होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और भुने हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील जाती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि हम किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यह सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।

संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को उचित व ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। इसलिए हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है, सर्वोत्तम है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 44 ⇒ खुलना और खिलना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुलना और खिलना”।)  

? अभी अभी # 44 ⇒ खुलना और खिलना? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

खुलना और बंद होना, दिन और रात की तरह होना है। उजाला खुलना है, अंधेरा बंद होना है। हमारी पलकें देखिए, इन्हें चैन ही नहीं, कभी खुलती हैं, कभी बंद होती हैं, खुलना बंद होना ही इनका जागना है। जब ये सोती हैं तो फिर खुलना भूल जाती हैं।

एक हमारी सांस है, वह खुलती बंद नहीं होती, बस चलती ही रहती है, बिलकुल सीने की धड़कन की तरह, उसे तो माधुरी दीक्षित की तरह २४x७ बस धक धक ही करना है। नो कमर्शियल ब्रेक, नो कैजुअल लीव, नो प्रिविलेज लीव। सिक लीव की बात अलग है। ।

गर्मी के दिनों में, रात को हम पंखे, कूलर और ए सी ऑन करके सोते हैं, लेकिन खिड़की दरवाजे, टीवी, मोबाइल, लाइट, सब बंद करके सोते हैं।

हमारी आंखें जब तक बंद नहीं हो जाती, हम जागते रहते हैं। एक बार हमारी आंखें बंद हुई, सारा जगत सो जाता है। जीवन विराम ले रहा है।

सुबह जब आंख खुलती है, तो एक नया दिन नजर आता है, सब कुछ खुला खुला। सबसे पहले उबासी आई, मुंह खुला, तबीयत से खुला, मानो नया दिन अंदर प्रवेश कर गया। खिड़की खोली, आसमान भी खुला नजर आया। क्या रात को किसी ने ढंक दिया था। शायद अंधेरे ने ढंक दिया हो, चलो अच्छा हुआ, आसमान ने भी चैन की नींद ले ली। हमेशा उल्टा लटका पड़ा रहता है, एक उल्लू की तरह। ।

अरे यह क्या, अब तो सब कुछ खुलता ही नजर आ रहा है। चौकीदार दरवाजा खोल रहा है, पत्नी सुबह सुबह दूध की थैली खोल रही है। फ्रिज खोलकर ठंडा पानी निकाल रही है। बॉटल का ढक्कन खोल ठंडा पानी लाकर पेश कर रही है, सुबह प्यास जो लगती है, मुंह सूखने लगता है। जब गला गर्म गर्म चाय से तर होगा तब ढंग से आंखें खुलेंगी, अलसाया हुआ शरीर खुलेगा।

खुलेगा, अभी तो बहुत कुछ खुलेगा। बच्चों का स्कूल खुलेगा, हमारा दफ्तर भी खुलेगा, सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए कॉलोनी का बगीचा भी खुलेगा। कितनी जल्दी होती है सुबह सबको खुलने की, सुबह काम पर लगने की।

लो, सर्विस रोड पर ठेले वाले की पोहे की दुकान भी खुल गई, चाय, जलेबी और पोहा, तैयार हो रहा है। घूमने के भी पैसे वसूल।

पापा घूमने जाएंगे, तो जलेबी पोहे बंधवा भी लाएंगे। एक पंथ दो काज। ।

उधर विविध भारती पर गीत चल रहा है, महक रही फुलवारी ! अचानक बगीचे का ख्याल आया, गमलों में कितने फूल खिल गए हैं।

हमारी छोटी सी बगिया के भाग खुल गए हैं। यह हरियाली और खिले फूल बस यही तो हमारी फुलवारी है। फूल समान ही तो हैं हमारे बच्चे, खिलते खिलखिलाते, मन को लुभाते।

उधर सूर्य नारायण भी खुलकर मैदान में डटे हैं, सुबह तो अंधेरा हटाया, आसमान साफ किया, अपनी अमृत किरणों से धरा को तृप्त किया, भक्तों का अर्घ्य भी ग्रहण किया, लेकिन बस, अब तमतमाना शुरू!

अब ये गिरगिटी तेवर इनके दिन भर ऐसे ही रहेंगे। खुद भी तपते रहेंगे और हमें भी तपाते रहेंगे। नवतपा तक। ।

सभी तो खुला है आज। बैंकें भी खुली, दफ्तर भी खुले, स्कूल कॉलेज भी खुले, शेयर मार्केट और वायदा बाजार। सब्जी मंडी, फल फ्रूट मंडी, होटल, मॉल और जिम और मैरिज रिजॉर्ट।

कितना अच्छा लगता है सब कुछ खुला खुला, सबके चेहरे खिले खिले, बस यही हमारे आज की कमाई हो, उपलब्धि हो, जब शाम ढले, तो मन में एक शांति हो, तसल्ली हो, संतोष हो। ।

दिन भर की आपाधापी के बाद शाम के फुर्सत के क्षणों में जब आंखें बंद करके सोचते हैं, आज का दिन अपना कितना अच्छा गुजरा। बस इतना सा सुख ही काफी है, मन को सदा के लिए खिला खिला रखने के लिए। अब जब आज रात आंख बंद होंगी तो कल एक नई तकदीर खुलेगी। फिर एक नई सुबह होगी, और अच्छी, और बेहतर। एक और अच्छा दिन। आमीन !!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 149 ☆ खाली झोली भरते देर नहीं लगती… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खाली झोली भरते देर नहीं लगती…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 149 ☆

☆  खाली झोली भरते देर नहीं लगती… ☆

भागादौड़ी के चलते हर कार्य अधूरे रह जाना, सबको खुश रखने के चक्कर में सबको दुःखी कर देना, हर कार्य में मुखिया की तरह स्वयं को प्रस्तुत करना, ये सब जो भी करता है वो विलेन के रूप में अनजाने ही कार्यों को बिगाड़ने लगता है ।

अक्सर आपने देखा होगा कि जो व्यक्ति सबके दुःख सुख में शामिल होता है उसकी जरूरत के समय लोग उससे पल्ला झाड़ लेते हैं, क्योंकि कोई मानता ही नहीं कि उसने कभी कुछ अच्छा किया है। उसकी नकारात्मक छवि लोगों के हृदय में बन जाती है ।

कहते हैं जीत और हार एक सिक्के के दो पहलू  होते हैं। माना कि जीतना एक कला है किंतु इसे सम्हाल कर पाना एक कुशलता है। अयोग्य व्यक्ति को जब भी छप्पर फाड़ कर सफलता मिलती है तो थोड़े समय में ही थोथा चना बजे घना जैसी स्थितियाँ पैदा करते हुए वह उत्साह में खूब हो हल्ला करता है। पर जल्दी ही पता नहीं किसकी नज़र लग जाती है और सब कुछ एक झटके में बिखर जाता है ।

इधर जोड़- तोड़ के खिलाड़ी हारी बाजी को अपने तरफ करते हुए मुखिया के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जो लोग पूर्वाग्रह को छोड़कर  चरैवेति- चरैवेति  के सिद्धांत को अपनाते हैं, उनकी मदद ईश्वर स्वयं करते हैं। किसी ने सही कहा है- हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं।

मदारी की तरह भले ही डुगडुगी बजानी पड़े किन्तु लक्ष्य को सदैव सामने रखना चाहिए। खाली झोली भरते, चमत्कार होते देर नहीं लगती। बहुमत का क्या वो तो समय के अनुसार बदलता रहता है। वैसे भी कुरुक्षेत्र में एक नारायण के आगे पूरी नारायणी सेना को हारते देर नहीं लगती। सब कुछ छोड़कर बस ईमानदारी से चलते रहिए मंजिलें स्वयं आपकी झोली भरती रहेंगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 43 ⇒ कुछ मीठा हो जाए… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कुछ मीठा हो जाए”।)  

? अभी अभी # 43 ⇒ कुछ मीठा हो जाए? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमारे भारतीयों के जीवन में मिठास का कारण हमारा मीठा स्वभाव, मीठे बोल, मीठे मीठे रस्म रिवाज हैं। गरीब से गरीब के घर में प्याज रोटी के साथ, एक गुड़ की डली तो आपको नसीब होगी ही। कलेक्टर के आवास में चपरासी रोज प्रवेश करता है, लेकिन कलेक्टर महोदय तो चपरासी के घर यदा कदा ही रुख करते होंगे और वह भी किसी विशेष प्रयोजन के अवसर पर। कितना खुश होता होगा, उनकी आवभगत करके, उनके साथ तस्वीर खिंचा के। उसे लगता है उसका जीवन धन्य हो गया।

अधिकतर कलेक्टर तो यह जिम्मेदारी भी अपने मातहत पर डाल देते हैं। इन छोटे लोगों को इतना मुंह लगाना ठीक नहीं। कल से ही मुंह लगने लगेगा।।

मीठे पर तो एक चींटी का भी अधिकार है। हमारे जीवन के सुख दुख मीठे नमकीन में ही गुजर जाते हैं। इस स्वाभाविक मिठास को भी बड़े अभियात्य तरीके से हमसे दूर किया जा रहा है। छोरा गंगा किनारे वाला, अपनी संस्कृति भूल भारतीय सांस्कृतिक उत्सवों पर कैडबरी चॉकलेट का विज्ञापन सालों से करते आ रहे हैं, कुछ मीठा हो जाए। थोड़े अपने दांत खराब कर लिए जाएं, बड़े बूढ़ों को लालच दिलाकर उन्हें शुगर का पेशेंट बनाया जाए।

परीक्षा का पर्चा देते वक्त, घर से निकलने के पहले मां के हाथ से एक चम्मच मीठा दही, कितना बड़ा शगुन था। मन में लड्डू फूट रहे हैं, शादी तय हो गई है, किससे कहें, किससे छुपाएं, चाची सब समझ जाती, कहती, लल्ला, आपके मुंह में घी शक्कर, ये बात कोई छुपने वाली है, रिश्ता तो हमने ही कराया है, घोड़ी भी हमीं चढ़ाएंगे।।

तब हमने कहां कॉफी, आइस्क्रीम और केक, पेस्ट्री का नाम सुना था। बस संतरे के शेप वाली गोली, जे. बी.मंघाराम के गोली बिस्किट और एकमात्र रावलगांव। आजकल तो बिस्किट को भी कुकीज कहने का फैशन है। हम दही छाछ पीने वाले क्या जाने कोक, पेप्सी और हेल्थ ड्रिंक का स्वाद।।

हमने कभी मीठे को स्वीट्स माना ही नहीं। हमारे लिए वह हमेशा लड्डू, पेड़ा, जलेबी, इमरती और रबड़ी ही रही। तब किसने सुन रखी थी, शुगर की बीमारी, ब्लड प्रेशर और कोलोस्ट्रोल का नाम। इधर खाया, उधर पचाया।।

हमने अंग्रेजों के दिन नहीं देखे, लेकिन इनके तौर तरीके सब सीख रखे हैं।हम उनकी तरह सुबह कलेवे की जगह ब्रेकफास्ट करने लग गए, लेकिन पोहे जलेबी और आलू बड़े का, और वह भी कड़क मीठी चाय के साथ। जमीन पर बैठकर खाना और पाखाना

दोनों हम भूल चले। 2BHK का फायदा। इस कुर्सी से उठकर बस उस कमोड कर ही तो बैठना है। इसे लैट्रिन, बाथ, किचन कहते हैं। कोई मेहमान आए हॉल में आकर हालचाल पूछने लगे। कुछ मीठा तो लेना ही पड़ेगा।।

बच्चे को कैडबरी पकड़ाई, खुश हो गया।

एक कैडबरी आपको कितनी परेशानियों से बरी करती है। कौन रवे, आटे, गाजर और बादाम का हलवा बनाए, लोग देखते ही मुंह सिकोड़ लेते हैं, एक चम्मच खाकर, मुंह बनाकर रख देते हैं, अच्छा है, क्या करू परहेज है।।

जो बिग बी से प्यार करे, वह कैडबरी से कैसे करे इंकार। बहन की राखी पर भी कैडबरी और कन्या की शादी की विदाई पर भी कैडबरी। लडकियां पन्नी से चॉकलेट निकाल चाटती जा रही है अपने लिपस्टिकी अधरों के बीच, और एक ऐसे वीभत्स रस का प्रदर्शन कर रही है, जो किसी अश्लील प्रदर्शन से कम नहीं।।

रात्रि का भोजन भी तब तक पूरा नहीं हो जाता, जब तक कोई मीठी डिश ना परोसी जाए। बड़ी बड़ी होटलों में तो स्टार्टर, तीन चार तरह के सूप और एक दर्जन सलाद और पापड़ तो अपीटाइजर में लग जाते हैं। पता नहीं, इन्हें भूख कब लगती है।पास्ता, मंचूरियन, मोमोजऔर पिज्जा की तो यहां भी खैर नहीं। बेचारे दाल चावल भी निराश हो जाते हैं, मेरा नंबर कब आएगा।

लेकिन जबान का पक्का आता है, एक चम्मच चावल और दाल ग्रहण कर उन्हें धन्य कर देता है।

जब आप जन गण मन की अवस्था में होते हैं, तो मैन शैफ आपसे अदब से पूछता है, सर कुछ डेजर्ट में लाऊं ? और आप बगले झांकने लगते हैं। सभी आइसक्रीम की वैरायटी, फ्रूट कस्टर्ड, खस शरबत, चीकू शेक और बनाना शेक। बहुमत जानता है, डेजर्ट क्या होता है, और आज का मुर्गा कौन है। बड़ी मुश्किल से आज पकड़ में आया है और फिर आइसक्रीम और चॉकलेट की ऐसी जुगलबंदी चलती है कि ठंड में नौबत तो हॉट आइसक्रीम तक आ जाती है। लगता है कोई आइसक्रीम में कार का जला हुआ ऑयल डाल रहा है। बंदर क्या जाने हॉट आइसक्रीम का स्वाद, जानकार लोग हमें क्षमा करें। फिर कभी मत कहना, कुछ मीठा हो जाए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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