(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डबल-बेड…“।)
अभी अभी # 482 ⇒ डबल-बेड… श्री प्रदीप शर्मा
आदमी शादीशुदा है या कुंवारा, यह उसके बेड से पता चल जाता है। अगर सिंगल है, तो सिंगल बेड, अगर डबल हो तो डबल- बेड ! क्या डबल से अधिक का भी कोई प्रावधान है हमारे यहाँ !
हमारे कमरे-नुमा घर में बेड की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। परिवार बड़ा था, घर छोटा ! लाइन से बिस्तर लगते थे। बड़ों-बुजुर्गों के लिए एक खाट की व्यवस्था होती थी, जो गर्मी और ठण्ड में घर से बाहर पड़ी रहती थी। घर में प्रवेश केवल निवार के पलंग का होता था। परिवार में पहला लकड़ी का पलंग बहन की शादी के वक्त बना था, जो बहन के ही साथ दहेज में ससुराल चला गया। ।
कक्षा पाँच तक हमारे स्कूल में अंग्रेज़ी ज्ञान निषिद्ध था ! Bad बेड और boy बॉय के अलावा अंग्रेज़ी के सब अक्षर काले ही नज़र आते थे। अक्षर ज्ञान में जब bed बेड पढ़ा तो उसका अर्थ भी बिस्तर ही बताया गया, पलंग नहीं।
घर में जब पहला जर्मन स्टील का बड़ा बेड आया, तब भी वह पलंग ही कहलाया, क्योंकि उस बेचारे के लिए कोई बेड-रूम उपलब्ध नहीं था। एक लकड़ी के फ्रेम-नुमा स्थान को टिन के पतरों से ढँककर बनाये स्थान में वह पलंग शोभायमान हुआ और वही हमारे परिवार का ड्राइंग रूम, लिविंग रूम और बेड-रूम कहलाया। पलंग पिताजी के लिए विशेष रूप से बड़े भाई साहब ने बनवाया था, जिस पर रात में मच्छरदानी तन जाती थी। एक पालतू बिल्ली के अलावा हमें भी बारी बारी से उस पलंग पर सोने का सुख प्राप्त होता था। दिन में वही पलंग बैठक का काम भी करता था। आज न वह पलंग है, और न ही पूज्य पिताजी ! लेकिन आज, 40 वर्ष बाद भी सपने में वही घर, वही पलंग, और पिताजी नज़र आ ही जाते हैं। ।
आज जिसे हम बेड-रूम कहते हैं, उसे पहले शयन-कक्ष की संज्ञा दी जाती थी। कितना सात्विक और शालीन शब्द है, शयन-कक्ष, मानो पूजा-घर हो ! और बेड-रूम ? नाम से ही खयालों में खलबली मच जाती है। आप किसी के घर में ताक-झाँक कर लें, चलेगा। लेकिन किसी के बेडरूम में अनधिकृत प्रवेश वर्जित है। बेड रूम वह स्थान है, जहाँ व्यक्ति जो काम आज़ादी से कर सकता है, वही काम अगर वह खुले में करे, तो अशोभनीय हो जाता है।
आदमी जब नया मकान बनाता है, तब सबको शान से किचन के साथ अपना बेडरूम और अटैच बाथ बताना भी नहीं भूलता। ज़मीन से फ़्लैट में पहुँचते इंसान को आजकल सिंगल और डबल BHK यानी बेड-हॉल-किचन से ही संतोष करना पड़ता है। ।
आजकल के संपन्न परिवारों में व्यक्तिगत बेडरूम के अलावा एक मास्टर बैडरूम भी होता है जिस पर परिवार के सभी सदस्य बेड-टी के साथ ब्रेकफास्ट टीवी का भी आनंद लेते है, महिलाएँ दोपहर में सास, बहू और साजिश में व्यस्त हो जाती हैं, और रात का डिनर भी सनसनी के साथ ही होता है। बाद में यह मास्टर बैडरूम बच्चों के हवाले कर दिया जाता है और लोग अपने अपने बेडरूम में गुड नाईट के साथ समा जाते हैं।
नींद किसी सिंगल अथवा डबल-बेड की मोहताज़ नहीं ! गद्दा कुर्ल-ऑन का हो, या स्लीप-वेल का, कमरे में भले ही ए सी लगा हो, लोग रात-भर करवटें बदलते रहते हैं, ढेरों स्लीपिंग पिल्स भी खा लेते हैं, लेकिन तनाव है कि रात को भी चैन की नींद सोने नहीं देता। वहीं कुछ लोग इतने निश्चिंत और बेफ़िक्र होते हैं कि जब गहरी नींद आती है तो उन्हें यह भी होश नहीं रहता, वे कुंआरे हैं या शादीशुदा। उनका बेड सिंगल है या डबल। ऐसे घोड़े बेचकर सोने वालों की धर्मपत्नियों को भी मज़बूरी में ही सही, धार्मिक होना ही पड़ता है।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 102 ☆ देश-परदेश – Working Breakfast ☆ श्री राकेश कुमार ☆
प्रातः काल के समय खाए जाने वाले कलेवा/नाश्ता आदि को ब्रेकफास्ट कहा जाता है। सही भी है, पूरी रात्रि बिना खाए पिए रहकर, सुबह कुछ ग्रहण करने से “उपवास को तोड़ना” ही कह सकते हैं।
दफ्तर या किसी कारण जल्दी या कम समय में कुछ ग्रहण करने को वर्किंग ब्रेकफास्ट कहते हैं। फास्ट फूड भी इसी श्रेणी का हिस्सा है।
पूर्व में बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, हॉस्पिटल आदि के आस पास नाश्ता करने वालों की दुकानें होती थी। अब तो गलियों में भी नाश्ते की दुकानें सजी रहती हैं। घर का स्वच्छ और पौष्टिक नाश्ता छोड़ दिन का आरंभ ही गंदे बाजारू नाश्ते से होने लगी है।
प्रातः भ्रमण वाली टोलियां भी, प्रतिदिन चाय का स्वाद इन्हीं नाश्ता दुकानों से ग्रहण करते हैं। कुछ टोलियां प्रति रविवार या किसी साथी के जन्मदिन, विवाह वर्षगांठ के नाम से सुबह सुबह ही सड़क किनारे समोसे, पोहा आदि का स्वाद लेते हुए दृष्टिगोचर हो जाती हैं।
हमारे गुलाबी शहर में तो वर्षों पुराने शहर वाले प्रसिद्ध प्रतिष्ठानों ने अपने नाम को भुनाने के लिए शहर के सबर्ब क्षेत्रों में भी अपनी शाखाएं स्थापित कर ली हैं।
जन साधारण नाश्ता करते हुए अपने परिवार के साथ मिल जायेंगे, पूछे जाने पर कहते है, कभी कभी “चेंज” (स्वाद परिवर्तन) के लिए बाहर आ जाते हैं।
प्रातः काल मंदिर जाने वालों से बाहर जाकर नाश्ता करने वालों की संख्या अधिक हो गई है। केमिस्ट की दुकानें भी नौ बजे से पहले नहीं खुलती है, परंतु ये नाश्ता विक्रेता सात बजे से पूर्व आपके स्वागत के लिए आतुर रहते हैं। पैसा और समय व्यय कर जिम से निकल वापसी में “जलेबी और कचौरी” खाकर अपनी मेहनत पर पानी फेर देना आज की संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।
प्रातः भ्रमण टोलियों की देखा देखी, हमारे व्हाट्स ऐप समूह के एडमिन भी “नाश्ते पर मिलते है”, मुहिम चला रहें हैं। आज ही एक ऐसे कार्यक्रम में हमने भी शिरकत कर गंदे तेल में बने हुए गरमा गर्म नाश्ते का मुफ्त में लुत्फ उठाया है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छत्तीस का आंकड़ा…“।)
अभी अभी # 481 ⇒ छत्तीस का आंकड़ा… श्री प्रदीप शर्मा
शुभ अशुभ की दुनिया में हमने आंकड़ों को भी नहीं छोड़ा। शादी की पत्रिका में जब गुण मिलाए जाते हैं तो बत्तीस शुभ माने जाते हैं और अगर यही गुण 36 हो गए तो समझिए पति पत्नी के बीच छत्तीस का आंकड़ा। भारतीय दंड संहिता में धोखाधड़ी और और बेईमानी की एक धारा है, ४२०। इसी से शब्द बन गया है चार सौ बीसी। महान राजकपूर ने इसके आगे भी श्री लगाकर इन्हें श्री 420 बना दिया। नौ और दो ग्यारह होते हैं, लेकिन यहां तो हमने लोगों को भी, रायता फैलाने के बाद, नौ दो ग्यारह होते देखा है।
परीक्षा में कभी 33 % पर छात्र को उत्तीर्ण घोषित किया जाता था। अगर किसी को छत्तीस प्रतिशत अंक आ गए, तो समझो बेड़ा पार। शादी के लिफाफे में कभी ग्यारह और 101 रुपए का रिवाज था। सिद्ध महात्माओं और जगतगुरू के आगे केवल 108 लगाने से काम नहीं चलता, श्री श्री 1008 लगाना ही पड़ता है। ।
मालवा के बारे में एक कहावत है, “मालव धरती गहन गंभीर, पग पग रोटी, डग डग नीर “।
प्रदेश का प्रमुख शहर इंदौर कभी मुंबई का बच्चा कहलाता था। यहां एक नहीं, छः छः टेक्सटाइल मिल्स थी, जो मजदूरों की रोजी रोटी का प्रमुख साधन था। शहर में तब नर्मदा नहीं थी, लेकिन एक नहीं चार चार तालाब थे, यशवंत सागर, पिपल्या पाला, सिरपुर और बिलावली। लेकिन केवल यशवंत सागर ही इतना सक्षम था, कि पूरे नगर की प्यास बुझा दे। सब तरफ हरियाली थी और कभी यहां नौलखा यानी एक ही इलाके में नौ लाख पेड़ थे।
मानसून इस शहर पर हमेशा मेहरबान रहा है। कभी 36 तो कभी 56 बस, इसी के बीच, यहां का औसत बारिश का आंकड़ा रहा है। कालांतर में कपड़ा मिले बंद जरूर हुई लेकिन शहर का विकास नहीं रुका। तीन चरणों में नर्मदा मैया के चरण इस अहिल्या की नगरी पर पड़े और उसके बाद इस शहर का मानो कायाकल्प हो गया। ।
आज यह महानगर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा है। जिस शहर में कभी टेम्पो चला करते थे, अब वहां के लोग मेट्रो में सफर करेंगे। भाग तो सभी के जागे हैं लेकिन पानी की समस्या कम होने के बजाय बढ़ती ही चली जा रही है। अप्रैल माह से ही बस्तियों में और सुदूर बहुमंजिला आवासीय परिसरों में पानी के टैंकर दौड़ने लग जाते हैं।
कल जहां खेत और गांव थे आज वहां कॉलोनियां बस गई हैं। ना तू जमी के लिए है और ना आसमान के लिए तेरा वजूद है सिर्फ 2BHK और 3 BHK के लिए। इस बार बारिश का आंकड़ा 36 इंच भी पार नहीं कर पाया है। आसमान से बारिश होती है, पानी जमीन में नहीं जाता सड़कों पर ही जमा हो जाता है। हमारा काम भी अब 36 इंच बारिश से नहीं, 56 इंच से होने लगा है। नरेंद्र नहीं इंद्र सुनें और योग्य कार्यवाही करें। हम तो सिर्फ यह प्रार्थना ही कर सकते हैं ;
अल्लाह मेघ दे, पानी दे, छाया दे रे रामा मेघ दे श्यामा मेघ दे
बुद्ध ने अपने पुत्र राहुल को दीक्षित करने के उपरांत जो शब्द कहे वो वर्तमान परिदृश्य में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
एक दिन बुद्ध राहुल के पास पहुंचे और अपने कमंडल में शेष थोड़े से पानी की ओर इंगित करते हुए पूछा, “राहुल, क्या तुम इस कमंडल में पानी को देख रहे हो?”
राहुल ने कहा, “जी, हां!”
“जो जानबूझकर झूठ बोलता है, उसकी आध्यात्मिक उपलब्धि इतनी सी होती है।”
तत्पश्चात, बुद्ध ने पानी को फैंक दिया और कहा, “देख रहे हो, राहुल, पानी को कैसे त्याग दिया गया है? इसी तरह, जानबूझकर झूठ बोलने वाला आध्यात्मिक उपलब्धि, जो भी उसने अर्जित की हो, का परित्याग कर देता है।”
उन्होंने फिर पूछा, “क्या तुम देख रहे हो कि किस तरह यह कमंडल अब खाली हो गया? इसी तरह, जिसे झूठ बोलने में लज्जा नहीं आती, वह आध्यात्मिक उपलब्धि से रिक्त हो जाता है।”
इसके बाद, बुद्ध ने कमंडल को उल्टा कर दिया और कहा, “क्या तुम देख रहे हो, राहुल, कि कैसे कमंडल उल्टा हो गया? इसी तरह, जो जानबूझकर झूठ बोलता है, अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि को उल्टा कर देता है और विकास के लिए अक्षम हो जाता है और अपनी उन्नति के सारे द्वार स्वयं बंद कर लेता है।”
निष्कर्ष में बुद्ध ने कहा, इसलिए जानबूझकर झूठ, मज़ाक में भी, नहीं बोलना चाहिए।
बुद्ध झूठ बोलने से बचने के लिए इसलिए कहते थे क्योंकि वो जानते थे कि झूठ फैलाकर सामाजिक सामंजस्य को भंग किया जा सकता है। समाज में सौहाद्र और सामंजस्य तभी होता है जब लोग एक दूसरे की बातों पर विश्वास करें।
झूठ बोलने वाला, झूठ बोलते बोलते अपने ही भ्रमजाल में फंसता जाता है। वह वास्तविकता से दूर होता जाता है और षड्यंत्रकारी चक्रव्यूह बुनने लगता है।
आज आध्यात्मिक उपलब्धियों की किसे फ़िक्र है, लोग अपनी झूठी प्रतिष्ठा बनाने के लिए मानसिक दिवालियेपन के द्वार पर खड़े हैं। आज प्रतिस्पर्धा है कि कौन कितना झूठ बोले और समाज के तानेबाने को तहस नहस कर दे।
प्रजातंत्र में आपको चुनने का अधिकार है। आप सामाजिक सौहाद्र और सद्भाव चुन सकते हैं। आप ही सामाजिक वैमनस्य और विभाजन का समर्थन भी कर सकते हैं। समाज में समरसता या अराजकता? निर्णय आपका है।
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 258 ☆ मेरी भाषा…
सितम्बर माह है। विभिन्न सरकारी कार्यालयों में हिन्दी पखवाड़ा मनाया जा रहा है।
वस्तुत: भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। कूटनीति का एक सूत्र कहता है कि किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा और संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की।
असली मुद्दा स्वाधीनता के बाद का है। राष्ट्रभाषा को स्थान दिए बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं।
यूरोपीय भाषा समूह के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’, ‘ण’ अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो गया है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय, अर्थ का अनर्थ कर रहा है। ‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।
लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट खास तौर पर फेसबुक, एक्स, वॉट्सएप, इंस्टाग्राम पर अनेक लोग देवनागरी के बजाय रोमन में हिन्दी लिखते हैं। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।
संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिन्दी न बोल पाने पर व्यक्ति संकोच अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके वैचारिक वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।
हिन्दी पखवाड़ा, सप्ताह या दिवस मना लेने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। समय की मांग है कि हिन्दी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ।
बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। नयी शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं का प्रवेश हो चुका है, यह सराहनीय है।
केदारनाथ सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे कहते हैं,
जैसे चींटियाँ लौटती हैं/ बिलों में,
कठफोड़वा लौटता है/ काठ के पास,
वायुयान लौटते हैं/ एक के बाद एक,
लाल आसमान में डैने पसारे हुए/
हवाई-अड्डे की ओर/
ओ मेरी भाषा/ मैं लौटता हूँ तुम में,
जब चुप रहते-रहते/
अकड़ जाती है मेरी जीभ/
दुखने लगती है/ मेरी आत्मा..!
अपनी भाषाओं के अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। नागरिकों से अपेक्षित है कि वे इस अरुण की रश्मियाँ बनें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रीगणेश साधना सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “क्षमा वाणी…“।)
अभी अभी # 480 ⇒ क्षमा वाणी… श्री प्रदीप शर्मा
ऐसी वाणी बोलिए
मन का आपा खोए,
औरन को शीतल करे,
आपहुं शीतल होए …
कबीर वाणी
एक कहावत है जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन।
अक्सर लोगों की दो ही पसंद होती है मीठा अथवा तीखा। खुशी के मौके पर और वार त्योहार पर मीठा बनाना और मीठा खिलाना यह हमारी परंपरा रही है।
हां स्वादिष्ट भोजन में अचार पापड़ और चटनी का भी महत्व होता है। मीठा खाकर और खिलाकर अक्सर मीठा ही बोला जाता है।
क्या भोजन की तरह ही जबान भी मीठी और तीखी होती है। जो मीठा होता है वह मधुर होता है। मिर्ची खाने में तीखी होती है, क्या किसी को बोलने से भी मिर्ची लग सकती है। जो मुंह से आग उगलते हैं वे क्या खाते होंगे।।
यह इंसान केवल अपने से बड़े और शक्तिशाली व्यक्ति के सामने ही झुकना पसंद करता है ईश्वर सर्वशक्तिमान है इसलिए उसके सामने झुकना गिड़गिड़ाने और नाक रगड़ने में उसे कोई परेशानी नहीं होती लेकिन अपने से छोटे अथवा बड़ा बराबरी के लोगों के सामने भी वह झुकना पसंद नहीं करता। जब उसका अहंकार सातवें आसमान पर पहुंच जाता है तब तो वह अपने से बड़ा और किसी को मानता ही नहीं।बस यही तो आसुरी वृत्ति है।
माफ़ करना, और माफ़ी मांगने में जमीन आसमान का अंतर है। जो लोग माफ करना ही नहीं जानते,
वे क्या किसी से माफ़ी मांगेंगे ;
To err is human, to forgive divine”
Alexander Pope
“गलती करना मानवीय है और क्षमा करना ईश्वरीय है”। इस उद्धरण का मतलब है कि कोई भी इंसान परिपूर्ण नहीं है और हम सभी गलतियां करते हैं. इसलिए, हमें दूसरों को क्षमा करना चाहिए और खुद को भी माफ़ करना चाहिए।।
उत्तम क्षमा वही है जिसमें मन वचन और कर्म , तीनों तरह के अपराधों के लिए क्षमा मांगी जाए। हमारी संस्कृति और संस्कार हमें ना केवल जीवित आत्मीय जनों के प्रति प्रेम और क्षमा का अवसर प्रदान करते हैं, अपितु जो हमारे आत्मीय दिवंगत हो गए हैं, उनके प्रति भी श्रद्धा और तर्पण का आदर्श प्रस्तुत करतें हैं। जरा क्षमा पर्व और पितृ पक्ष में समानता तो देखिए ;
क्षमा याचना, श्राद्ध पक्ष के दौरान की जाने वाली एक प्रार्थना है. श्राद्ध पक्ष में, पूर्वजों की आत्माओं को प्रसन्न करने के लिए क्षमा मांगी जाती है और पितृ दोष से मुक्ति के लिए प्रयास किए जाते हैं. श्राद्ध पक्ष के दौरान, पितरों को प्रसन्न करने के लिए तर्पण और पिंडदान जैसे अनुष्ठान किए जाते हैं।
श्रद्धा और क्षमा जैसे सात्विक भाव किसी भी प्रकार के जप, तप से कम नहीं। हमने क्षमा का स्थायी भाव अपने जीवन में कितनी खूबसूरती से उतार लिया है, सिर्फ एक अंग्रेजी शब्द सॉरी बोलकर। माफ कीजिए और क्षमा कीजिए तो हमारे तकिया कलाम बन चुके हैं।।
लोक व्यवहार में हमने मध्यम क्षमा और तीव्र क्षमा का मार्ग अपना रखा है। मध्यम क्षमा, हम जब भी किसी बात से असहमत होते हैं, तो कह उठते हैं, क्षमा कीजिए, मैं आपसे सहमत नहीं हूं और उठकर बाहर चले जाते हैं। तीव्र क्षमा में पढ़े लिखे, सुसंस्कृत लोग जब छींकते अथवा खांसते हैं, तो साथ में एक्सक्यूज मी कहना नहीं भूलते। स्टार प्लस की हमारी मां अनुपमा का तो तकिया कलाम ही सूरी, सूरी, सूरी यानी सॉरी, सॉरी, सॉरी है।
क्षमा को वीरों का आभूषण कहा गया है। लेकिन युद्ध में जहां जीत हार और मरने मारने का समय आता है, तब ना तो किसी को माफ किया जाता है और ना ही शत्रु से माफी मांगी जाती है। होते हैं कुछ मथुराधीश जैसे लीलाधारी रणछोड़ भी, जो मथुरा छोड़ द्वारकाधीश बनकर सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हाथ में हाथ…“।)
अभी अभी # 479 ⇒ हाथ में हाथ… श्री प्रदीप शर्मा
Hand in hand
ईश्वर ने हमें दो हाथ शायद इसीलिए प्रदान किए हैं कि देवताओं को भी दुर्लभ यह मानव देह, इस तुच्छ जीव को अहैतुकी कृपा स्वरूप प्राप्त होने पर, वह दोनों हाथ जोड़कर उस सर्वशक्तिमान की वंदना कर आभार व्यक्त कर सके। कर की महिमा कौन नहीं जानता ;
कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्द,
प्रभाते करदर्शनम्।
फिल्म मासूम (१९६०) में साहिर कह गए हैं ;
ये हाथ ही अपनी दौलत है,
ये हाथ ही अपनी ताकत है
कुछ और तो पूंजी पास नहीं,
ये हाथ ही अपनी किस्मत है।।
इससे पहले फिल्म नया दौर (१९५७) में वे हमें हाथ बढ़ाने का आव्हान भी इस अंदाज में कर गए हैं ;
साथी हाथ बढ़ाना,
एक अकेला थक जाएगा।
मिल कर बोझ उठाना
साथी हाथ बढ़ाना साथी रे….
ये दोनों हाथ कभी मिलते हैं, तो कभी जुड़ते हैं। हाथ से हाथ मिलने पर अगर हस्त मिलाप, यानी शेक हैंड होता है तो दोनों हाथ मिलाकर नमस्कार अर्थात् नमस्ते किया जाता है।
इसी हाथ में उंगली होती है, होगा डूबते को तिनके का सहारा, एक नन्हे बच्चे को तो अपनी मां अथवा पिताजी की उंगली का ही सहारा होता है। उसी उंगली के सहारे वह अपने पांव पर खड़े होकर चलना सीखता है। पांच उंगलियों को मिलाकर मुट्ठी बंधती है। नन्हे मुन्ने मुहे बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी। सभी जानते हैं बंधी मुखी लाख की होती है और खुलने के बाद वह खाक की हो जाती है।।
हाथ साथ का प्रतीक है। जब दो दोस्त साथ-साथ चलते हैं तो उनके हाथों में एक दूसरे का हाथ होता है। किसी का हाथ पकड़ना उसका साथ देना भी है और उसका साथ पाना भी है। केवल हाथ के स्पर्श में प्रेम झलकता है ममता नजर आती है बड़ों का सिर पर हाथ आशीर्वाद ही तो होता है।
कहीं कलाई पर बहन द्वारा भाई को राखी बांधी जाती है, तो कहीं विवाह के गठबंधन में वर वधू का हाथ थामता है, अपने हाथों से उसकी मांग भरता है, तभी तो यह पाणिग्रहण संस्कार कहलाता है।।
अगर आप मुसीबत में किसी का हाथ थामते हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि आप उसे सहारा देते हैं उसकी मदद करते हैं। सहज रूप से भी किसी का हाथ थामा जा सकता है। केवल किसी के हाथ पर हाथ रखकर भी उसे भरोसा दिया जा सकता है, सांत्वना दी जा सकती है, दिलासा दिया जा सकता है।
परेशानी अथवा उलझन की स्थिति में जब किसी आत्मीय अथवा शुभचिंतक का हाथ पर हल्का सा स्पर्श भी संजीवनी का काम करता है। सिर पर प्यार भरा, दुलार भरा हाथ तो केवल बच्चों को ही नसीब होता है, काश कोई हमारे सर पर भी स्नेह और आशीर्वाद का हाथ रख दे, बस वह ईश्वरीय अनुभूति से रत्ती भर भी कम नहीं।
आइए अंत में कुछ काम अपनी बांहों से भी ले लिया जाए ;
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख न्याय की तलाश में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 250 ☆
☆ न्याय की तलाश में ☆
‘औरत ग़ुलाम थी, ग़ुलाम है और सदैव ग़ुलाम ही रहेगी। न पहले उसका कोई वजूद था, न ही आज है।’ औरत पहले भी बेज़ुबान थी, आज भी है। कब मिला है..उसे अपने मन की बात कहने का अधिकार …अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता…और किसने उसे आज तक इंसान समझा है।
वह तो सदैव स्वीकारी गई है–मूढ़, अज्ञानी, मंदबुद्धि, विवेकहीन व अस्तित्वहीन …तभी तो उसे ढोल, गंवार समझ पशुवत् व्यवहार किया जाता है। अक्सर बांध दी जाती है वह… किसी के खूंटे से; जहां से उसे एक कदम भी बाहर निकालने की इजाज़त नहीं होती, क्योंकि विदाई के अवसर पर उसे इस तथ्य से अवगत करा दिया जाता है कि इस घर में उसे कभी भी अकेले लौट कर आने की अनुमति नहीं है। उसे वहां रहकर पति और उसके परिवारजनों के अनचाहे व मनचाहे व्यवहार को सहर्ष सहन करना है। वे उस पर कितने भी सितम करने व ज़ुल्म ढाने को स्वतंत्र हैं और उसकी अपील किसी भी अदालत में नहीं की जा सकती।
पति नामक जीव तो सदैव श्रेष्ठ होता है, भले ही वह मंदबुद्धि, अनपढ़ या गंवार ही क्यों न हो। वह पत्नी से सदैव यह अपेक्षा करता रहा है कि वह उसे देवता समझ उसकी पूजा-उपासना करे; उसका मान-सम्मान करे; उसे आप कहकर पुकारे; कभी भी गलत को गलत कहने की जुर्रत न करे और मुंह बंद कर सब की जी-हज़ूरी करती रहे…तभी वह उस चारदीवारी में रह सकती है, अन्यथा उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में पल भर की देरी भी नहीं की जाती। वह बेचारी तो पति की दया पर आश्रित होती है। उसकी ज़िन्दगी तो उस शख्स की धरोहर होती है, क्योंकि वह उसका जीवन-मांझी है, जो उसकी नौका को बीच मंझधार छोड़, नयी स्त्री का जीवन-संगिनी के रूप में किसी भी पल वरण करने को स्वतंत्र है।
समाज ने पुरुष को सिर्फ़ अधिकार प्रदान किए हैं और नारी को मात्र कर्त्तव्य। उसे सहना है; कहना नहीं…यह हमारी संस्कृति है, परंपरा है। यदि वह कभी अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है, तो उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं होता। उसे चुप रहने का फरमॉन सुनाया दिया जाता है। परन्तु यदि वह पुन: जिरह करने का प्रयास करती है, तो उसे मौत की नींद सुला दिया जाता है और साक्ष्य के अभाव में प्रतिपक्षी पर कोई आंच नहीं आती। गुनाह करने के पश्चात् भी वह दूध का धुला, सफ़ेदपोश, सम्मानित, कुलीन, सभ्य, सुसंस्कृत व श्रेष्ठ कहलाता है।
आइए! देखें, कैसी विडंबना है यह… पत्नी की चिता ठंडी होने से पहले ही, विधुर के लिए रिश्ते आने प्रारम्भ हो जाते हैं। वह उस नई नवेली दुल्हन के साथ रंगरेलियां मनाने के रंगीन स्वप्न संजोने लगता है और परिणय-सूत्र में बंधने में तनिक भी देरी नहीं लगाता। इस परिस्थिति में विधुर के परिवार वाले भूल जाते हैं कि यदि वह सब उनकी बेटी के साथ भी घटित हुआ होता…तो उनके दिल पर क्या गुज़रती। आश्चर्य होता है यह सब देखकर…कैसे स्वार्थी लोग बिना सोच-विचार के, अपनी बेटियों को उस दुहाजू के साथ ब्याह देते हैं।
असंख्य प्रश्न मन में कुनमुनाते हैं, मस्तिष्क को झिंझोड़ते हैं…क्या समाज में नारी कभी सशक्त हो पाएगी? क्या उसे समानता का अधिकार प्राप्त हो पाएगा? क्या उस बेज़ुबान को कभी अपना पक्ष रखने का शुभ अवसर प्राप्त हो सकेगा और उसे सदैव दोयम दर्जे का नहीं स्वीकारा जाएगा? क्या कभी ऐसा दौर आएगा… जब औरत, बहन, पत्नी, मां, बेटी को अपनों के दंश नहीं झेलने पड़ेंगे? यह बताते हुए कलेजा मुंह को आता है कि वे अपराधी पीड़िता के सबसे अधिक क़रीबी संबंधी होते हैं। वैसे भी समान रूप से बंधा हुआ ‘संबंधी’ कहलाता है। परन्तु परमात्मा ने सबको एक-दूसरे से भिन्न बनाया है, फिर सोच व व्यवहार में समानता की अपेक्षा करना व्यर्थ है, निष्फल है। आधुनिक युग यांत्रिक युग है, जहां का हर बाशिंदा भाग रहा है…मशीन की भांति, अधिकाधिक धन कमाने की दौड़ में शामिल है ताकि वह असंख्य सुख-सुविधाएं जुटा सके। इन असामान्य परिस्थितियों में वह अच्छे- बुरे में भेद कहां कर पाता है?
यह कहावत तो आप सबने सुनी होगी, कि ‘युद्ध व प्रेम में सब कुछ उचित होता है।’ परन्तु आजकल तो सब चलता है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं। हर संबंध व्यक्तिगत स्वार्थ से बंधा है। हम वही सोचते हैं, वही करते हैं, जिससे हमें लाभ हो। यही भाव हमें आत्मकेंद्रितता के दायरे में क़ैद कर लेता है और हम अपनी सोच के व्यूह से कहां मुक्ति पा सकते हैं? आदतें व सोच इंसान की जन्म-जात संगिनी होती हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी इंसान की आदतें बदल नहीं पातीं और लाख चाहने पर भी वह इनके शिकंजे से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कार जीवन-भर उसका पीछा नहीं छोड़ते। सो! वे एक स्वस्थ परिवार के प्रणेता नहीं हो सकते। वह अक्सर अपनी कुंठा के कारण परिवार को प्रसन्नता से महरूम रखता है तथा अपनी पत्नी पर भी सदैव हावी रहता है, क्योंकि उसने अपने परिवार में वही सब देखा होता है। वह अपनी पत्नी तथा बच्चों से भी वही अपेक्षा रखता है, जो उसके परिवारजन उससे रखते थे।
इन परिस्थितियों में हम भूल जाते हैं कि आजकल हर पांच वर्ष में जैनेरेशन-गैप हो रहा है। पहले परिवार में शिक्षा का अभाव था। इसलिए उनका दृष्टिकोण संकीर्ण व संकुचित था.. परन्तु आजकल सब शिक्षित हैं; परंपराएं बदल चुकी हैं; मान्यताएं बदल चुकी हैं; सोचने का नज़रिया भी बदल चुका है… इसलिए वह सब कहां संभव है, जिसकी उन्हें अपेक्षा है। सो! हमें परंपराओं व अंधविश्वासों-रूपी केंचुली को उतार फेंकना होगा; तभी हम आधुनिक युग में बदलते ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे।
एक छोटी सी बात ध्यातव्य है कि पति स्वयं को सदैव परमेश्वर समझता रहा है। परन्तु समय के साथ यह धारणा परिवर्तित हो गयी है, दूसरे शब्दों में वह बेमानी है, क्योंकि सबको समानाधिकार की दरक़ार है, ज़रूरत है। आजकल पति-पत्नी दोनों बराबर काम करते हैं…फिर पत्नी, पति की दकियानूसी अपेक्षाओं पर खरी कैसे उतर सकती है? एक बेटी या बहन पूर्ववत् पर्दे में कैसे रह सकती है? आज बहन या बेटी गांव की बेटी नहीं है; इज़्ज़त नहीं मानी जाती है। वह तो मात्र एक वस्तु है, औरत है, जिसे पुरुष अपनी वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारता है। आयु का बंधन उसके लिए तनिक भी मायने नहीं रखता … इसीलिए ही तो दूध-पीती बच्चियां भी, आज मां के आंचल के साये व पिता के सुरक्षा-दायरे में सुरक्षित व महफ़ूज़ नहीं हैं। आज पिता, भाई व अन्य सभी संबंध सारहीन हैं और निरर्थक हो गए हैं। सो! औरत को हर परिस्थिति में नील-कंठ की मानिंद विष का आचमन करना होगा…यही उसकी नियति है।
विवाह के पश्चात् जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर भी, वह अभागिन अपने पति पर विश्वास कहां कर पाती है? वह तो उसे ज़लील करने में एक-पल भी नहीं लगाता, क्योंकि वह उसे अपनी धरोहर समझ दुर्व्यवहार करता है; जिसका उपयोग वह किसी रूप में, किसी समय अपनी इच्छानुसार कर सकता है। उम्र-भर साथ रहने के पश्चात् भी वह उसकी इज़्ज़त को दांव पर लगाने में ज़रा भी संकोच नहीं करता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व ख़ुदा समझता है। अपने अहं-पोषण के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकता है। काश! वह समझ पाता कि ‘औरत भी एक इंसान है…एक सजीव, सचेतन व शालीन प्राणी; जिसे सृष्टि-नियंता ने बहुत सुंदर, सुशील व मनोहरी रूप प्रदान किया है… जो दैवीय गुणों से संपन्न है और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है।’ यदि वह अपनी जीवनसंगिनी के साथ न्याय कर पाता, तो औरत को किसी से व कभी भी न्याय की अपेक्षा नहीं रहती।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गंध, इत्र और परफ्यूम…“।)
अभी अभी # 478 ⇒ गंध, इत्र और परफ्यूम… श्री प्रदीप शर्मा
हमारी पांच ज्ञानेंद्रियों में से एक प्रमुख इन्द्री घ्राणेन्द्रिय भी है, जिसे हम आम भाषा में सूंघने की शक्ति अर्थात् sense of smell भी कहते हैं। गंध प्रमुख रूप से दो ही होती है, सुगंध और दुर्गन्ध ! फूलों में प्राकृतिक सुगंध होती है।
वसंत ऋतु में, पंडित भीमसेन जोशी के शब्दों में अगर कहें तो – केतकी गुलाब, जूही, चंपक बन फूले।
हम किसी भी खाद्य पदार्थ को पहले देखते हैं, फिर सूंघते हैं और उसके बाद ही चखते हैं। खुशबू दिखाई नहीं देती, सुनाई नहीं देती, लेकिन जब हवा में फैलती है तो मस्त कर देती है, मदमस्त कर देती है। एक फूल की गंध ही तो भंवरे को बाध्य करती है कि वह उसके आसपास मंडराया करे, उसका रसपान किया करे।।
गंधमादन अथवा सुमेरु पर्वत कैसा होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते लेकिन जिन लोगों ने फूलों की घाटी देखी है, उन्हें उसका कुछ कुछ अंदाज हो सकता है। गंध जो आपको पागल कर दे, सुगंधित वायु युक्त मेरु ही तो शायद सुमेरु पर्वत होगा। कोई आश्चर्य नहीं, संजीवनी वटी की जगह पूरा पर्वत ही उठा लेने वाले पवनपुत्र हनुमान का ही वहां वास हो। हम तो हवाखोरी के लिए अल्मोड़ा नैनीताल, शिमला मसूरी, ऊटी मनाली और कोड़ई कनाल ही चले जाएं तो बहुत है।
वन, पर्वत और पहाड़ जहां मनुष्य का आना जाना नहीं के बराबर है, समझ में नहीं आता, वहां की गंदगी और दुर्गंध कौन साफ करता है। सभी हिंसक जीव वहां रहते हैं, जो आजादी से खुले में शौच करते हैं। वहां कोई स्वच्छता अभियान नहीं चलता, फिर भी वहां का पर्यावरण शुद्ध रहता है, हर तरफ हवा में स्वास्थ्यवर्धक ताजगी रहती है, इकोलॉजिकल बैलेंस रहता है और ओजोन की परत भी मजबूत रहती है। और जहां एक बार इस पढ़े लिखे इंसान के पांव वहां पड़े, जंगल में मंगल हो जाता है। मनुष्य अपने साथ धूल, धुआं और प्रदूषण वहां ले जाता है।
जो कभी प्राकृतिक जंगल था, धीरे धीरे कांक्रीट जंगल में परिवर्तित हो जाता है, जहां के आलीशान सभागारों और वातानुकूलित ऑडिटोरियम में पर्यावरण की सुरक्षा पर चिंता व्यक्त की जाती है, सेमिनार आयोजित किए जाते हैं।।
हमारी नाक हमेशा अपने चेहरे पर एक जगह ही होती है, फिर भी ऊंची नीची हुआ करती है। वह खुशबू और बदबू में अंतर पहचानती है। जब कोई शायर, किसी सुंदर युवती के बारे में, यह कहता नजर आता है, खुशबू तेरे बदन सी, किसी में नहीं नहीं, तो हम एकाएक यह समझ नहीं पाते कि उस भागवान ने कौन सी इंपोर्टेड परफ्यूम लगाई है।
पसीने की बदबू के अलावा हमारा लहसुन प्याज वाला तामसी भोजन, और ऊपर से मादक पदार्थों का सेवन करने के बाद, बस एक ऐसे पावरफुल परफ्यूम ही का तो सहारा होता है, जिसके कारण पार्टियों में खुशबू और रौनक फैलाई जाती है। किसी भी आयोजन के लिए पहले ब्यूटी पार्लर का श्रृंगार और बाद में परिधान पर देहाती भाषा में फुसफुस वाला परफ्यूम छिड़कने के बाद जो समा बंधता है, वह देखने लायक होता है।।
एक समय था जब हमारे सभी मागलिक कार्यों में जलपान के साथ इत्रपान की भी व्यवस्था होती थी। इत्र की शीशी से इत्र निकालकर आगंतुक मेहमानों के शरीर पर लगाया जाता था और गुलाब जल छिड़का जाता था। जीवन में अगर खुशबू नहीं तो खुशी नहीं।
मधुवन खुशबू देता है। हमारी पूजा, आराधना में भी धूप अगरबत्ती और सुगंधित पुष्पों का समावेश है। जीत हो तो पुष्पहार, जन्मदिन हो तो गुलदस्ता और मुखशुद्धि हो तो पान में केसर, इलायची, गुलकंद। खुशबू, खुशी का पर्याय है। कितना अच्छा हो, हमारी खुशी वास्तविक खुशी हो, कृत्रिम नहीं, और खुशबू भी प्राकृतिक ही हो, एक ऐसी तेज और ओजयुक्त जिंदगी, जिसमें बच्चों सी चहक और महक हो ;
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “नागार्जुन” की रचनाओं का उद्देश्य कब होगा पूरा ?
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 303 ☆
“नागार्जुन” की रचनाओं का उद्देश्य कब होगा पूरा ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
“जब भी बीमार पड़ूं, तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊंगा। “… अपने बेटे शोभा कांत से हँसते हुये ऐसा कहने वाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंगकार, बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, “यात्री ” नाम से लिखे तो स्वाभाविक ही है. हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उसमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन… मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते रिश्तेदारो के यहां जगह जगह जाता आता था, यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया, जो जीवन पर्यंत जारी रहा. राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड… अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था, जो न केवल जो कुछ आंखो से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट, अप्रत्यक्ष होता, उसे भी भांपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता… उनके ये ही सारे अनुभव समय समय पर उनकी रचनाओ में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे. जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं. “हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए!”उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये. पर “नागार्जुन” की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे, और जनभावो को ही अपनी रचनाओ में व्यक्त करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की नई लीक का निर्माण किया. तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली -पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-जयपुर-विदिशा-दिल्ली-जहरीखाल, दक्षिण भारत और श्रीलंका न जाने कहां-कहां की यात्राएं करते रहे, जनांदोलनों में भाग लेते रहे और जेल भी गए. सच्चे अर्थो में उन्होने घाट घाट का पानी पिया था. आर्य समाज, बौद्ध दर्शन, मार्क्सवाद से वे प्रभावित थे. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उनके अध्ययन, व अभिव्यक्ति को इंद्रधनुषी रंग देता है. किंतु उनकी रचना धर्मिता का मूल भाव सदैव स्थिर रहा, वे जन आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे. उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है।
उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998 में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही। आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं
1939 में प्रकाशित ‘उनको प्रणाम’…
… जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर,
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर! – उनको प्रणाम…
1998 में ‘अपने खेत में’…
….. अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट कर देगी!
जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
उनकी विख्यात कविता “प्रतिबद्ध” कि पंक्तियां…….
प्रतिबद्ध हूं/
संबद्ध हूं/
आबद्ध हूं… जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं
तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी, उनको भी!
उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है.
उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओ पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है.
‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘ की ये पंक्तियाँ देखिए………….
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,
व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं… कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है
कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, “फटी भीत है छत चूती है…” उनका यह व्यंग क्या आज भी देश भर के ढ़ेरों गांवो का सच नहीं है ?
अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है…..
पारो से…
“क्यों अपने देश की क्वाँरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढ़ियों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वारियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई।……
दुख मोचन से…
पंचायत गांव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी, अब तक. चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोड़ने को तैयार नही थे. जात पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार, लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढ़ि परंपरा, का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नही अनेक रुकावटें थीं…..
आज भी कमोबेश हमारे गांवो की यही स्थिति नही है क्या ?
समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर… वैद्यनाथ मिश्र… “नागार्जुन” उर्फ “यात्री”… विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता के धनी… पर जनभाव के सरल रचनाकार थे. उनकी जन्म शती पर उन्हें शतशः प्रणाम, श्रद्धांजली, और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओ के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छबि धारण करे, जिससे भले ही आने वाले समय में नागार्जुन की रचनायें अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके.