हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 175 ☆ समन्वय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 175 समन्वय ?

मेरुदण्ड या रीढ़ की हड्डी, शरीर का केंद्रीय स्तम्भ है। इस स्तम्भ का लचीलापन ही इसकी शक्ति है। शारीरिक  के साथ-साथ मानसिक लचीलापन, जीवन को स्वस्थ रखता है। समन्वय जीवन में अनिवार्य है। मानसिक लचीलापन समन्वय का आधार है।

परिजनों या परिचितों से थोड़ी-सी मतभिन्नता होने पर अधिकांश लोगों को लगता है कि वे विपरीत वृत्ति के हैं। उनसे समन्वय नहीं सध सकता। साधने के लिए चाहिए साधना। साधना के अभाव में समन्वय तो अस्तित्व ही नहीं पाता। हर साधना की तरह समन्वय भी समर्पण चाहता है, उदारता चाहता है, भिन्न-भिन्न स्वभाव को समान सम्मान देना चाहता है।

दृष्टि निरपेक्ष है तो सृष्टि में हर कहीं समन्वय है। दूर न जाते हुए स्वयं को देखो। शरीर नश्वर है, आत्मा ईश्वर है। एक हर क्षण मृत्यु की ओर बढ़ता है, दूसरा हर क्षण नये अनुभव से निखरता है। फिर आता है वह क्षण, जब शरीर और आत्मा पृथक हो जाते हैं लेकिन नयी काया में फिर साथ आते हैं।

देह व देहातीत के समन्वय पर पार्थ का मार्गदर्शन करते हुए पार्थसारथी ने कहा था,

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

सांख्ययोग की मीमांसा का यह योगेश्वर उवाच भी देखिए-

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।

युद्ध का एक अर्थ संघर्ष भी है। संघर्ष अपने आप से, संघर्ष अंतर्निहित समन्वय के दर्शन हेतु।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा द्वारा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को ग्रहण करने की प्रक्रिया होती है।

जैसा पहले उल्लेख किया गया है, देह का नाशवान होना, आत्मा का अजन्मा होना, फिर मर्त्यलोक में कुछ समय के लिए दोनों का साथ आना, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ना होना.., समन्वय का ऐसा अनुपम उदाहरण ब्रह्मांड में और कौनसा होगा?

सृष्टि समन्वय से जन्मी, समन्वय से चलती, समन्वय पर टिकी है। दृष्टिकोण समन्वित करो,  सार्वभौमिक, सार्वकालिक, सार्वजनीन समन्वय दृष्टिगोचर होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 5 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 5 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

विद्यावान गुनी अति चातुर।

राम काज करिबे को आतुर।।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

राम लखन सीता मन बसिया।।

अर्थ:-  

आप विद्यावान, गुणी, अत्यंत चतुर और प्रभु श्रीराम की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं। आप प्रभु श्रीराम की कार्यों के लिए सदा लालायित रहते हैं। राम लक्ष्मण और सीता सदा आपके ह्रदय में विराजते हैं।

भावार्थ:-

सकल गुण निधान हनुमान जी समस्त विद्याओं में पारंगत हैं। समस्त गुणों को धारण करने वाले और अत्यंत बुद्धिमान हैं। भगवान सूर्य से सभी ज्ञान प्राप्त करने के कारण उनको वेद पुराण आदि का समस्त ज्ञान प्राप्त है।

ब्रह्म की दो शक्तियां हैं पहले स्थिर और दूसरी गतिज। हनुमान जी दोनों शक्तियों के स्वामी हैं। भगवान सूर्य से पूरी शिक्षा इन्होंने सूर्य के साथ चलते हुए प्राप्त की है। इसी प्रकार से भगवान राम के हित कार्यों का संपादन वे सदैव आतुरता से करते  हैं।

संदेश:-

व्‍यक्ति अपने ज्ञान और गुणों के आधार पर किसी के भी मन में अपने लिए स्‍थान बना सकता है। जैसे श्री हनुमान जी ने अपने प्रभु श्री राम के मन में बनाया है।

चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

विद्यावान गुनी अति चातुर।

राम काज करिबे को आतुर।।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

राम लखन सीता मन बसिया।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने  से ज्ञान, बुद्धि, रामकृपा और यश प्राप्त होता है।

विवेचना:-

सनातन धर्म मानने वालों के हृदय में, उनके रक्त में, हनुमान चालीसा बसी हुई है। जहां तक मेरा ज्ञान है अगर कोई कविता सबसे ज्यादा बार बोली जाती है तो वह हनुमान चालीसा ही है। यह भी सत्य है कि हनुमान चालीसा को केवल कविता कहना एक अपराध है। अतः में हनुमान चालीसा को व्यक्ति के नस-नस में भगवान के प्रेम को भरने वाला मंत्र या स्त्रोत कहना पसंद करूंगा। हर चौपाई का अपने आप में एक रहस्यमयी अर्थ है। जो व्यक्ति इस रहस्यमय अर्थ को जान जाएगा उसे उस चौपाई से जुड़ी हुई समस्या भी हल हो जाएगी।

हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई अपने आप में एक सिद्ध मंत्र है। इसे हर कोई इस कलयुग में जाप कर अभीष्ट को पा सकता है। जैसे कि इस चौपाई का बार बार जाप करके आप बुद्धि और चतुराई  तथा अपने स्वामी के कार्य को करने की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं। अगर आप यह समझते हैं कि आपके अंदर बुद्धि या चतुराई की कमी है अथवा आपका मालिक, अधिकारी या बॉस हमेशा आपसे नाराज रहता है तो आपको इस चौपाई का  प्रतिदिन 108 बार जाप करना चाहिए।

इस चौपाई के प्रथम भाग में हनुमान जी के अंदर तीन विशेषताओं के बारे में बताया गया है। उनकी पहली विशेषता है कि वे विद्यावान हैं। दूसरी विशेषता है कि वे गुणवान है तथा तीसरा कि वे अत्यंत चतुर हैं। सुनने में यह तीनों चीजें एक दूसरे के पर्यायवाची समझ में आती है। परंतु ऐसा नहीं है।

विद्यावान का अर्थ होता है जिसके पास विद्या रूपी धन हो। कोई व्यक्ति रसायन शास्त्र में निपुण हो सकता है। किसी व्यक्ति के पास हिंदी का ज्ञान बहुत अच्छा हो सकता है। परंतु हनुमान जी तो सूर्य देव द्वारा दी गई शिक्षा के कारण, सभी तरह की विद्याओं से परिपूर्ण हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि विद्या का सामान्य अर्थ है – ज्ञान, शिक्षा और अवगम। महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार जिससे पदार्थो के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो उसे विद्या कहते हैं।

विद्यावान का अर्थ होता है व्यक्ति के पास सभी तरह के विद्याओं के यथार्थ स्वरूप के बारे में संपूर्ण ज्ञान। हनुमान जी के पास सभी तरह के विषयों का पूर्ण ज्ञान है अतः वे विद्यावान हुए।

तुलसीदास जी ने हनुमान जी को विद्यावान कहा है उसका संकेत यह है कि जो विचार आदमी को बड़ा बनाता है वह विद्या है। आज विद्या की तृष्णा बढ़ी नहीं है। आज लोग बुद्धिनिष्ठ नहीं है, बुद्धिजीवी है। बुद्धिनिष्ठ होना चाहिये।

हनुमान जी गुणी भी हैं। अर्थात सभी प्रकार के गुण उनके अंदर विद्यमान है। गुणी शब्द का अर्थ होता है जिसमें अनेक गुण हो अर्थात गुण संपन्न। कोई विशेष कला या विद्या जानने वाला योग्य व्यक्ति को भी गुणवान कहते हैं। हनुमान जी के अंदर सभी तरह के गुण जैसे उड़ने की कला, तैरने की कला, युद्ध कला, शास्त्रों का ज्ञान सभी तरह के गुण उनके पास थे।

वाल्मीकि रामायण में भगवान रामने हनुमानजी के गुणों के लिये कहा है –

तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामथ्‍र्यं विनयो नय:।

पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा।।

(तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये गुण हनुमान जी में नित्य स्थित हैं।)

धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता, निराभिमानिता आदि अनेक गुणों से संपन्न हनुमान जी को तुलसीदास जी ने महर्षि वाल्मीकि के समान सुन्दरकाण्ड मे इनकी ‘सकलगुणनिधानं’ के उद्घोष से सादर वंदना की है।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं,

रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातं नमामि।।

हनुमान जी चतुर भी हैं। चतुर शब्द का अर्थ है किसी भी व्यक्ति की वह विशेषता जिससे वह व्यक्ति अपनी बुद्धि का  प्रयोग करके अपने कार्यों को आसानी से कर सकें या विकट परिस्थितियों का सामना आराम से कर सकें।

पूरे रामायण में हनुमान जी की चतुराई के कई उदाहरण है। हनुमान जी जब रामचंद्र जी से सबसे पहले  ब्राह्मण वेश में मिलते हैं। वे पूरी बातें बहुत अच्छी संस्कृत में करते हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम जी ने जैसे ही महावीर हनुमान जी को पहली बार देखा तो वे जान गए थे कि वही उनके सारे कार्यों को करने में सक्षम हैं। श्री राम के पास जब पहली बार हनुमान जी सुग्रीव का संदेश लेकर जाते हैं तभी उनकी विद्वता और वाक चातुर्य से प्रसन्न होकर श्री राम उन्हें अपना लेते हैं। श्री राम महावीर हनुमान जी के ज्ञान और विनम्रता को देख कर लक्ष्मण जी से कहते हैं –

“लक्ष्मण तुम इन बटुक को देखो इसने शब्द शास्त्र (व्याकरण) कई बार पढ़ा है। इसने कई बातें कहीं पर उनके बोलने में कहीं अशुद्धि नहीं आई।

 श्री रामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैन वटुरूपिणम्।

 शब्दशास्त्रमशेषणं श्रुतं नूनमनेकधा।।

 (अ रा/किं का/1/17-18)

एवम् विधो यस्य दूतों न भवेत् पार्थिवस्य तु।

सिद्ध्यन्ति हि कथम तस्य कार्याणाम् गतयोSनघ।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात – हे लक्ष्मण अगर किसी राजा के पास हनुमान जैसा दूत न हो तो वो कैसे आपने कार्यों और साधनों को पूरा कर पाएगा?

एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः।

स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात – हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं।

हम सभी जानते हैं कि दूत का कार्य सबसे चतुराई भरा कार्य होता है।

दूसरी बार हनुमान जी की चतुराई का परिचय तब प्राप्त होता है जब सुग्रीव पंपापुर का राज सिंहासन पाने के उपरांत रामलीला में डूब गए थे। माता जानकी का पता लगाने का कोई प्रयास नहीं कर रहे थे। उस समय हनुमान जी ने बड़ी चतुराई के साथ सुग्रीव को समझाया।  जिसके उपरांत सुग्रीव ने वानर सेना भेज करके सीता जी को  पता करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया।

समुद्र के किनारे जब यह ज्ञात हुआ की रावण मां सीता को समुद्र पार लेकर गया है तब सबकी समझ में यह आया केवल हनुमान जी ही लंका जाकर सीता मां का पता लगाकर वापस आ सकते हैं। जामवंत के प्रस्ताव पर हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र को पार कर लंका के लिए चल दिए। रास्ते में नागों की माता सुरसा मिली और उन्होंने भगवान हनुमान को अपने मुंह में बंद करना चाहा। हनुमान जी पहले अपना आकार बढ़ाते रहे फिर एकाएक आकार कम करके सुरसा के मुंह से होकर बाहर निकल आए। सुरसा की प्रतिज्ञा भी पूरी हो गई और हनुमान जी को आगे जाने में आ रही बाधा भी समाप्त हो गई। राम चरित मानस में इसका गोस्वामी तुलसीदास द्वारा सुंदर वर्णन किया गया है।

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।

तासु दून कपि रूपदेखावा॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।

अतिलघुरूप पवनसुत लीन्हा॥

सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमान जी ने वैसे ही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया। जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमान जी ने तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर लिया।

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।

मागा बिदा ताहिसिरुनावा॥

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।

बुधिबलमरमु तोर मैं पावा॥

उसके मुंह में पैठ कर (घुसकर) झट बाहर चले आए। फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमान जी ने प्रणाम किया॥ उस वक़्त सुरसा ने हनुमान जी से कहा की हे हनुमान! देवताओं ने मुझको जिसके लिए भेजा था, वह तेरा बल और बुद्धि का भेद मैंने अच्छी तरह पा लिया है।

इसी तरह से वाल्मीकि रामायण में  हनुमान जी द्वारा सिंहिका के मुख में प्रवेश कर अपने-पैने नखों से उसके मर्म स्थल को चीर-फाड़कर मन के समान  वेग से से वहां से निकलकर फिर  ऊपर आकाश मार्ग में जाने के का वर्णन किया गया है।

ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।

उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।

( 5.1.194/सु का / वा रा)

हनुमान जी द्वारा लंका के अंदर किए गए चतुराई पूर्व कार्यों के कई उदाहरण हैं जैसे कि माता सीता से मिलने के पहले वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने पेड़ पर बैठे बैठे सोचा की पहले धीरे-धीरे रामचंद्र जी के संदेशों का वाचन किया जाए जिससे मां सीता को उन पर विश्वास हो सके और उसके उपरांत मां सीता से मिला जाए और उनको सब कुछ बताया जाए।

युक्तं तस्याप्रमेयस्य सर्वसत्त्वदयावतः।

समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनकाङ्क्षिणीम्।।

(वा रा / सु का /5.30.6)

मुझे इस समय अप्रमेय और सब प्राणियों पर दया करने वाले श्री रामचंद्र की पत्नी को जो पति के दर्शन की अभिलाषी हैं धीरज बंधाना उचित होगा। इस प्रकार सोचते विचारते बड़े बुद्धिमान हनुमान जी ने अपने मन में निश्चय किया कि अब मैं श्री रामचंद्र की कथा कहना प्रारंभ करूँ।

इति स बहुविधं महानुभावो

जगतिपतेः प्रमदामवेक्षमाणः।

मधुरमवितथं जगाद वाक्यं

द्रुमविटपान्तरमास्थितो हनूमान्।।

(वा रा / सु का /5.30.44)

इस प्रकार अनेक प्रकार से सोच विचार कर श्री रामचंद्र जी की भार्या जानकी जी को हनुमान जी ने डाली पर बैठे ही बैठे मधुर शब्दों में श्री राम जी का संदेश कहना प्रारंभ किया। इसके उपरांत बहुत सारी बातें कर उन्होंने सीता जी को संतुष्ट किया।

राम चरित मानस में इसी बात को थोड़ा दूसरे ढंग से कहा गया है। हनुमान जी अशोक वाटिका में पेड़ के ऊपर बैठे हैं। उसी पेड़ के नीचे मां जानकी सीता जी विलाप कर रही हैं। अशोक वृक्ष से आग की मांग की। हे अशोक वृक्ष तुम मुझे अग्नि प्रदान करो।

पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥

सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥

देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर।तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा) सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान जी को कल्प के समान बीता। 

इसी समय हनुमान जी रामचंद्र जी द्वारा दी गई मुद्रिका को जमीन पर डाला जो । ग जैसी चमक रही थी यह हनुमान जी की चतुराई थी और हनुमान जी के इस कार्य से सीता जी को विश्वास हो गया कि रामचंद जी के यहां से कोई आया है।

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।

जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

इसके उपरांत हनुमान जी अपना परिचय अत्यंत सुंदर ढंग से चतुराई पूर्वक  देकर  सीता जी के दुख को समाप्त किया। इसी प्रकार उन्होंने रावण के दरबार में चतुराई पूर्वक वार्तालाप किया और पूरी लंका को जला डाला।  चलते समय उन्होंने मां जानकी से कहा कि आप मुझे कुछ निशान दीजिये। उसे मैं श्री रघुनाथ जी को दिखा सकूं। यह उसी प्रकार होगा जिस प्रकार चलते समय श्रीरामचंद्र जी ने निशानी के रूप में अपनी अंगूठी दी थी।

 मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

(हनुमान जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। हनुमान जी की यह मांग रामचंद्र जी को विश्वास दिलाने के लिए अत्यंत उपयुक्त थी। तब सीता जी ने चूड़ा मणि उतारकर दी। हनुमान जी ने उसको हर्ष पूर्वक ले लिया। इसके उपरांत हनुमान जी ने सीता जी को समझा कर धीरज दिया और चल दिए।

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।

चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

हनुमान जी ने जानकी जी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री राम जी के पास पहुंचने के लिए चल दिए। ऐसे ही हनुमान जी की चतुराई के बहुत सारे उदाहरण हैं अगर हम सभी उदाहरण  बताने लगेंगे तो पूरी किताब सिर्फ इसी से भर जाएगी।

हनुमान जी राम जी के कार्यों को करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। “राम काज करबे को आतुर“।

इस प्रकार हनुमान जी में अनेक गुण है, इसलिए तुलसीदास जी ने उन्हे ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ कहा है, तथा आगे कहा है कि ‘राम काज करिबे को आतुर’। हनुमान जी का सम्पूर्ण जीवन भगवान राम के कार्य के लिये समर्पित था। उनका दास्य भाव भी उत्कृष्ट है।

तुलसीदास जी लिखते हैं कि हनुमान जी ज्ञानी थे तथा प्रभु कार्य के लिये हमेशा तत्पर रहते थे। हमको मानव जीवन मिला है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। भगवान ने हमें अनमोल  मनुष्य जन्म दिया है। सचमुच हम धन्य है, जो हमें मनुष्य जन्म मिला। मनुष्य जन्म मिलना यह तो बडे भाग्य की बात है ही लेकिन मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिये यह समझना बहुत ज्ञान की बात है।

यदि हमें कोई वस्तु प्राप्त हो जाए लेकिन जब तक उस वस्तु की उपयोगिता का हमें ज्ञान न होगा तब तक वह वस्तु हमारे लिए उपयोगी न होगी। हमें अनमोल ऐसा मानव जन्म मिला लेकिन उसकी कीमत हमने समझा क्या? उसका योग्य उपयोग हम कर रहे हैं क्या?

मानव जीवन ईश्वर की दी हुई अमूल्य भेंट है। मानव जीवन, प्रभु कृपा से और पूर्व जन्म के हमारे द्वारा किये हुए अनेक सत्कर्मों का परिणाम है। हमारे ऋषि मुनियों ने और साधु संतों  ने भी मानव जीवन को अमूल्य रत्न कहा है। ‘‘जन्तुना नर जन्म दुर्लभम्’’ इस श्लोक मे श्री आदि शंकराचार्य जी ने भी मानव जीवन का महत्व समझाया है।

मानवी जीवन व्यर्थ बिताने के लिये नहीं है। बुद्धि मिली है तो मै किसका हूँ? किसके लिये हुँ? मुझे कौन सा काम करना है ? इस संबंध में पूर्ण विचार करके मनुष्य को काम करना चाहिये। मनुष्य से इस प्रकार की अपेक्षा है।

हमको भगवान ने बुद्धि दी है, शास्त्र दिये है, वेद, उपनिषद, गीता तथा रामायण जैसे ग्रंथ दिये है। उससे हमें मार्गदर्शन होता है। मानव जीवन का पूर्ण सकारात्मक उपयोग करना चाहिये। मानव देह अत्यंत दुर्लभ है। यह मानव देह बार-बार नहीं मिलती। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में करूंगा ऐसा विचार बिल्कुल नहीं चलेगा। अगले जन्म में मनुष्य ही बनेंगे ऐसा कौन कह सकता है? मैंने जो विकास (Development) किया होगा,। मानसिक विकास साध्य किया होगा। उसके अनुसार मुझे अगला जन्म मिलता है। यदि विकास ही साध्य नहीं किया होगा तो मानव जीवन कहाँ से मिलेगा? हमारे ऋषियों ने, संतों ने जीवन जी कर दिखाया है।

हनुमान जी के चरित्र पर जब हम चिंतन करते हैं तो हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि हनुमान जी तो प्रभु कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उसी प्रकार यदि हम हनुमान जी के भक्त हैं तथा हनुमान जी की तरह प्रभु के लाड़ले भक्त बनना है तो उनकी तरह हमें भी हमेशा प्रभु कार्य के लिये तत्पर रहना चाहिये।

यहां पर आप आतुर शब्द पर विशेष ध्यान दें। आतुर का अर्थ होता है “व्यग्र “। जिसको बहुत जल्दी हो। जो दिनों का काम सेकंडों में करना चाहता हूं।

वास्तविकता यह है कि काम करने वाले 4 तरह के होते हैं। पहले वे होते हैं जिनको अगर काम दिया जाए तो वे कोई न कोई बहाना बनाकर काम को टाल देना चाहते हैं। मैं जब अपनी  नौकरी में था तो मेरे पास कुछ इस तरह के लोग थे। उनकी संख्या बहुत कम थी। इनको कोई काम बताने पर वे तत्काल कोई न कोई समस्या बता कर काम को टालने का प्रयास करते थे। ऐसे लोगों का मैं नाम बताना पसंद नहीं करूंगा।

दूसरे तरह के लोग वे होते हैं जिनको अगर काम दे दिया जाए तो वे काम को कर देंगे। परंतु अगर उनको काम बताया न जाए तो कार्य लंबित होने की जानकारी होते हुए भी वे काम को नहीं करते हैं। ऐसे लोग किसी भी संस्थान में करीब-करीब 80% होते हैं। प्रबंधक को अपना संस्थान को ठीक से चलाने के लिए ऐसे लोगों पर हमेशा निगाह रखनी पड़ती है। जिससे कि इस तरह के लोग  सदैव उपयोगी हो सकें। अगर प्रबंधक ऐसे लोगों पर अपना निरंतर ध्यान नहीं रखेगा तो संस्थान की 80% कार्य शक्ति से वह कार्य नहीं ले पाएगा।

तीसरे तरह के लोग ऐसे होते हैं जिनको अगर काम बता दिया जाए तो वह काम को तत्काल   प्रारंभ कर देते हैं। अगर उनको काम ना भी बताया जाए और उनको ज्ञात हो जाए कि उनके हिस्से का कार्य लंबित है तो मैं उसे तत्काल पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए उनको किसी आदेश की आवश्यकता नहीं होती है।

चौथे तरह के लोगों को किसी प्रकार की आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। वे सदैव इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके संगठन को किस कार्य से लाभ हो सकता है। अगर उनको किसी कार्य के बारे में पता चले जिससे संगठन को लाभ हो सकता है तो वह तुरंत उस कार्य को करने में जुट जाते हैं। वे चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी कार्य समाप्त हो जाए। इनको किसी प्रकार के आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे लोग किसी भी संगठन में एक या दो ही होते हैं। ऐसे लोग संगठन की जान होते हैं। इनके अंदर संगठन के कार्य को जल्दी से जल्दी समाप्त करने की जागरूकता होती है। यह 24 घंटे 365 दिन संगठन के कार्यों के लिए लगे रहते हैं। हनुमान जी इस चौथे तरह के व्यक्ति थे। इनको इस बात की आतुरता रहती थी श्री रामचंद्र जी का कार्य कितनी जल्दी  समाप्त हो जाए। इसका एक उदाहरण सुंदर कांड के प्रारंभ में ही मिलता है।  हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र के ऊपर जा रहे थे।  उस समय समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा की है मैंनाक तुम अपने ऊपर हनुमान जी को विश्राम दो। परंतु हनुमान जी ने रामचंद्र जी के कार्यों को जल्दी करने के लिए इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया। वे बोले कि रामचंद्र जी के काम किए बिना उन्हें विश्राम कैसे हो सकता है।

दोहा :

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

वाल्मीकि रामायण में भी यह घटना आई है सुंदर कांड के प्रथम सर्ग में  श्लोक क्रमांक 88 से 131 तक लगातार  पहले समुद्र द्वारा  मैनाक पर्वत से और फिर मैनाक पर्वत द्वारा हनुमान जी से रुक कर विश्राम करने हेतु प्रार्थना की गई। समुद्र और मैनाक पर्वत ने  उनके विश्राम करने के लिए बहुत सारे तर्क दिए।  हनुमान जी ने इन सभी तर्कों को  यह कह कर  समाप्त कर दिया कि जब तक रामचंद्र जी का काम नहीं होता है तब तक वह विश्राम नहीं कर सकते हैं।

त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते।

प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरे।।

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/5.1.132।।)

मुझे काम करने की अत्यंत जल्दी है और मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि इस कार्य को समाप्त किए बगैर मैं कहीं विश्राम नहीं करूंगा। इतना कह कर के मैनाक पर्वत को प्रणाम करके हनुमान जी आगे बढ़ते हैं।

इसी प्रकार जब हनुमान जी हिमालय पर्वत पर संजीवनी बूटी लाने के लिए पहुंचे तब वहां पर उन्हें ऐसा लगा की पूरा द्रोणांचल पर्वत  ही संजीवनी बूटी जैसा प्रकाशमान है। तब वे पूरे द्रोणांचल पर्वत को उठाकर तत्काल चल दिए। उन्होंने संजीवनी बूटी को खोजने के लिए वहां पर एक क्षण भी बर्बाद नहीं किया।

देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥

गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥

भावार्थ:- उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्‌जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान जी रात ही में आकाश मार्ग से उड़ चले और अयोध्या पुरी के ऊपर पहुँच गए। 

हनुमान जी ने संजीवनी बूटी को लाने में अपने बल और बुद्धि का पूर्ण परिचय दिया। उनके  मार्ग में कालनेमि का कपट, औषधि का पहचान ना होना, भरत जी द्वारा बाण लगने पर घायल होना आदि बहुत सारे परेशानियां आयी। परंतु इन सभी के बावजूद उन्होंने समय से संजीवनी बूटी को श्री रामचंद्र जी के सेना में सुषेण वैद्य के पास पहुंचाया।

बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो |

लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो ||

आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो | को० – 5 ||

अर्थ – जब मेघनाद ने लक्ष्मण पर शक्ति का प्रहार किया और लक्ष्मण मूर्छित हो गए तब हे हनुमान जी आप ही लंका से सुषेण वैद्य को घर सहित उठा लाए और उनके परामर्श पर द्रोण पर्वत उखाड़कर संजीवनी बूटी लाकर दी और लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा की। इस प्रकार हमेशा हनुमान जी ने रामचंद्र जी के ऊपर आए किसी भी कष्ट को अपने ऊपर माना है और उसे तत्काल दूर किया है।

भगवान राम संस्कृति रक्षण के लिये अवतरित हुए थे, और हनुमान जी उनके इस कार्य मे पूर्ण सहयोगी बने। हमें भी प्रभु कार्य करना है तो क्या करना है?  मनुष्य की एक विशिष्ट संस्कृति है। व्यक्तिगत विकास के लिए हमें प्रयत्न करने चाहिये। संस्कृति की रक्षा के लिये भी प्रयत्नशील रहना चाहिये। मनुष्य की विशिष्ट संस्कृति का शास्त्रकारों ने चित्रण किया है। वह संस्कृति फिर से खड़ी करने के लिए कर्म करना है।

प्रभु कार्य करने के बाद क्या होता है? मनुष्य की चित्त शुद्धि होती है। भगवान दर्ज कर रखेंगे, इस विश्वास से प्रभु कार्य करना है। प्रभु के पास ले जाने वाला प्रभु कार्य करो। मांगल्य एवं पवित्रता खड़ी करने के लिये कर्म करो। कर्म करना यह प्रथम बात है, उसका फल कितना मिलेगा यह गौण बात है। गीता कहती है:-

 ‘‘कर्मण्येवधिकारस्ते माफलेषुकदाचन्’’।

हमें प्रभु कार्य करना है तो कौन सा कर्म करना है? प्रभु के करोड़ों पुत्र अपने पिता से बिछुड़   गये हैं। उनके आचरण से ऐसा प्रतीत होता है मानो वे पिता को पहचानते ही नहीं हैं।  उनके अंदर भगवान श्री राम के प्रति श्रद्धा भाव जाग्रत करना ही भगवान का कार्य है।

भगवान के प्रति कृतज्ञता जाग्रत होने पर श्री आदि शंकराचार्य के देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र की यह पंक्ति याद आयेगी-

 ‘‘मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समान हि’’।

भगवान! इस जगत में मुझ जैसा पातकी कोई नहीं है। जो बैल है वह बैल जैसा आचरण करता है। परन्तु मैं बैल न होते हुए भी बैल जैसा आचरण करता हूँ। इसलिए मैं पातकी हूँ। हम गीता-रामायण का स्वाध्याय नहीं करते, गीता के प्राणवान, तेजस्वी विचारों का चिंतन, मनन नहीं करते है, यह पाप है। गधा, घोड़ा, कुत्ता, चिड़िया कौआ गीता-रामायण नहीं पढ़ते  और मैं भी नहीं पढ़ता हूँ। मनुष्य पशु-पक्षी नहीं है फिर भी वह पशु जैसा रहता है। मेरे पास शक्ति होते हुए भी मैंने कुछ नहीं किया। बैल के हाथ नहीं है, परन्तु मेरे हाथ है। मैंने हाथों का सदुपयोग नहीं किया। कौए के पास वाणी नही है मेरे पास है। परन्तु इस वाणी से न मालूम मैंने कितने घर जलाये है। गधे को बुद्धि नहीं है, मेरे पास बुद्धि है। परन्तु इस बुद्धि से मैंने दुनिया का सत्यानाश ही किया। मैं आपका काम करूँ इसलिये आपने ये शक्तियाँ मुझे दी परन्तु मैंने इन सब का गलत मार्ग में प्रयुक्त किया  है।

लोगों की अस्मिता (आत्मगौरव) को जाग्रत करना, उनको स्वच्छ बनाकर ईश्वराभिमुख   करना शनै: शनै: उनको उन्नति की ओर ले जाना यह सबसे महान भगवत कार्य है। इसे ही तप कहते है। वैदिक विचारधारा ही इतनी सुन्दर है कि उससे जीवन तेजस्वी, प्रेममय और उदार बनता है। कृष्ण और राम के विचारों को प्रत्येक झोपड़ी महल में ले जाने की प्रबल इच्छा हम में होनी चाहिये। जिस खोखे (शरीर) में साक्षात विश्वंभर आकर विराजमान हुए है, उस खोखे (शरीर) में निराशा, असहायता, दुर्बलता, निस्तेज, असन्तोष आदि आकर बैठे हैं। ऐसे जीवन का क्या अर्थ है?

भगवान को फूल चढ़ने में कुछ भी अनुचित नहीं है। भगवान को फूल तो चढ़ाने ही चाहिये। परन्तु केवल फूल चढ़ाने में ही भक्ति पूर्ण नहीं होती प्रभु से विमुख हुए लोगों का हाथ पकड़ कर उन्हें प्रभु के सम्मुख लाना और उनका जीवन पुष्प खिलाकर प्रभु चरणों मे रखना ही सच्ची सेवा है। समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचकर उसके जीवन में राम व कृष्ण को प्रतिष्ठित को प्रतिष्ठित करना ही प्रभु कार्य है।

जिस तरह हनुमान जी ने सुग्रीव, अंगद, तथा समस्त वानर सेना को प्रभु की ओर उन्मुख कर प्रभु कार्य करने की प्रेरणा दी। उसी प्रकार हमें भी भगवान के कार्य के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। तभी हम सच्चे अर्थ में हनुमान भक्त तथा प्रभु के प्रिय बन सकेंगे। जय हनुमान

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #169 ☆ संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

(कृपया आदरणीया डॉ मुक्ता जी की पुस्तक “चिंतन के शिलालेख” की समीक्षा के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 169 ☆

☆ संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा

‘संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। परंतु जब आप संवाद अर्थात् वार्तालाप करना बंद कर देते हैं, तो आप अपने अनमोल संबंध खो देते हैं।’ यह वाक्य गहन-गूढ़ अर्थ को परिलक्षित करता है। जैसे संवाद अथवा कथोपथन कहानी या नाटक को गति प्रदान करते हैं; वैसे ही संवाद हमारे जीवन को ऊर्जा व जीवंतता प्रदान करते हैं… हमारे अंतर्मन में जीने की उमंग जाग्रत करते हैं। जैसाकि सर्वविदित है– मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह अकेला रहने में स्वयं को असमर्थ पाता है। इसलिए ही वह जन्म- जात संबंधों के रहते भी अन्य संबंध स्थापित करता है, क्योंकि वह अपने सुख-दु:ख की अभिव्यक्ति किए बिना ज़िंदा नहीं रह सकता। वह अपने हृदय के भावों को अभिव्यक्ति प्रदान कर सुक़ून पाता है तथा स्वयं को अकेला, असहाय व विवश अनुभव नहीं करता।

यदि आप वार्तालाप/ संवाद करना बंद कर देते हैं, तो अनमोल संबंधों को खो देते हैं। संवादहीनता मान-दशा तक तो  वाज़िब है, परंतु उसके बाद यह सज़ा बनकर रह जाती है और एक अंतराल के पश्चात् मानव स्वयं को  नितांत अकेला अनुभव करता है। प्रश्न उठता है– क्या संबंध बनाए रखने के लिए मानव को दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए अपने आत्म-सम्मान को दाँव पर लगा देना चाहिए? नहीं…यह तो चाटुकारिता कहलायेगी। यदि लंबे समय तक यह स्थिति बनी रहती है, तो मानव तनाव, चिंता व अवसाद से घिर जाता है और अंततः उस व्यूह को भेदना मानव के वश से बाहर हो जाता है। तनाव संबंधों की ताज़गी व पारस्परिक स्नेह-सौहार्द को लील जाता है और ऐसे व्यक्ति के साथ रहने से दूसरे पक्ष के लोग भी गुरेज़ करना प्रारंभ कर देते हैं। सो! उसे जीवन में अकेले विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।

लंबे समय तक तनाव की यह स्थिति मानव को चिंता के अथाह सागर में धकेल देती है। चिंता चिता समान है, जो दीमक की भांति मानव के उत्साह, साहस, धैर्य आदि को लील कर, शरीर रूपी इमारत की चूलों को हिला कर खोखला कर देती है। चिंताग्रस्त मानव सदैव ख़ुद से बेखबर स्वनिर्मित लोक में विचरण करता रहता है। वह बेसिर-पैर की कल्पनाओं में खोया, अनगिनत शंकाओं में घिरा स्वयं को अपाहिज-सा अनुभव करता है। यदि ऐसा-वैसा हो गया, तो उसका क्या होगा? उसके परिवार की क्या दशा होगी? उन विषम परिस्थितियों से वे कैसे निज़ात पा सकेगे? चिंताग्रस्त मानव को चारों ओर अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। जीवन में उसे आशा की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ती और न ही कोई उम्मीद की झलक दिखाई पड़ती है…उसे जीवन मरु-सम भासता है। उसकी दशा रेगिस्तान के उस हिरण-सी हो जाती है, जो प्यास से आकुल-व्याकुल सूर्य की किरणों को जल समझ उनके पीछे दौड़ा चला जाता है और अंत में अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। यही होती है अवसाद-ग्रस्त मानव की मन:स्थिति… जिसके जीवन में न कोई उमंग रहती है; न ही कोई तरंग; न प्रसन्नता; न ही उल्लास…वह तो नितांत अकेला, तन्हा-सा अपना जीवन बसर करता है अर्थात् ढोता है।

संवादहीनता मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां वह हरदम तन्हाई के दंश झेलता है; जो नासूर बन उसे आजीवन सालते हैं। संवादहीनता आजकल सभी रिश्ते-नातों में सेंध लगाकर जीवन के सुक़ून व सुखों पर डाका डाल रही है। सुक़ून मन की वह निर्विकार अवस्था है, जहां मानव राग-द्वेष व स्व-पर की निकृष्टतम वृत्तियों से ऊपर उठ जाता है और अंतर्मन रूपी सागर के शांत जल में निरंतर अवगाहन करता रहता है और वहां पहुचने के पश्चात् सभी इच्छाओं का शमन हो जाता है। परंतु उस स्थिति तक पहुंचने में मानव को वर्षों तक साधना-तपस्या करनी पड़ती है।

आइए! हम संबंध-निर्वाह के विषय पर चर्चा कर लें। संबंध विश्वास के आधार पर स्थापित तो हो जाते हैं, परंतु उनका निबाह करने के लिए आवश्यकता होती है बर्दाश्त करने की…यदि हममें सहनशीलता का मादा है, तो संबंध स्थायी व स्थिर रह सकते हैं, अन्यथा वे पानी के बुलबुले की भांति पल-भर में विलीन हो जाते हैं। संबंध कभी भी दूसरों से जीतकर नहीं निभाए जा सकते; उन्हें बनाए रखने के लिए तो जीतकर भी हारना पड़ता है। उनकी भावनाओं को महत्व देते हुए, प्रियजनों की प्रसन्नता के लिए पराजय को स्वीकारना पड़ता है। इसके विपरीत यदि आप वार्तालाप बंद कर देते हैं, तो संबंध टूट जाते हैं;  समाप्त हो जाते हैं और उन विषम परिस्थितियों में आप अकेले रह जाते हैं और कोई पल-भर के लिए भी आपके साथ समय व्यतीत करना पसंद नहीं करता।

यदि हम संबंधों को चिरस्थाई व शाश्वत् रूप प्रदान करना चाहते हैं, तो हमारे लिए यथासमय झुकना व दूसरों को सहन करना कारग़र होगा। दूसरे शब्दों में हमें परिस्थितियों के अनुसार समझौता करना होगा। झुकना, सहना व समझौता करने की एक ही मांग होती है…अहं का विसर्जन। यह ही एक ऐसा उपादान है; जिसके द्वारा आप दूसरों का हृदय परिवर्तित कर सकते हैं…अपने प्रति दूसरों के मन में विश्वास जाग्रत कर सकते हैं। वैसे भी जीवन केवल संघर्ष ही नहीं; समझौता है। संघर्ष की स्थिति हमारे अंतर्मन की आंतरिक शक्तियों को जाग्रत करती है; प्रेरित करती है; हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचाती है। दूसरे शब्दों में समझौता हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन कर, संबंधों को शाश्वत रूप प्रदान कर हमें सुक़ून देता है; जीने की प्रेरणा देता है। सो! संबंधों को सार्थकता प्रदान करने हेतु जहां संवादों की दरक़ार है; वहीं समझौता भी वह संजीवनी है, जिसमें प्राणदायिनी शक्ति निहित है।

अंतत: हम कह सकते हैं कि जीवन में कभी संवादहीनता की स्थिति न पनपने दें, क्योंकि यह वह सुनामी है; जो संबंधों को लील जाता है और जीवन को शून्यता से भर देता है। यह स्थिति मानव के लिए अत्यंत घातक है, विस्फोटक है। सो! हम सबको अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और समाज में स्नेह, सौहार्द, समन्वय, सामंजस्यता व समरसता की स्थिति बनाए रखने के लिए अपने अहम् का विसर्जन कर, संबंधों को सार्थक बनाने का भरसक प्रयास करना चाहिए …यही समय की मांग है और मानव-मात्र से अपेक्षित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “बच्चों के नन्हे हाथों में मोबाइल न दो” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ “बच्चों के नन्हे हाथों में मोबाइल न दो” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

निदा फाजली ने बहुत शानदार शेर कहा –

बच्चों के नन्हे हाथों को चांद सितारे छू लेने दो

दो चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे !

सच ही तो कहा लेकिन अब बच्चों के हाथों को चांद सितारे छूने तो नहीं दिये जा रहे उसकी जगह मोबाइल ने ले ली है । छोटे से छोटा बच्चा भी मोबाइल से खेल रहा है और मां बाप बड़े गर्व से बताते हैं कि यह तो हमसे भी एक्सपर्ट है । जैसे कभी घर आने पर अतिथियों को बच्चे से अंग्रेजी कविता सुनाने को बड़े गर्व की बात माना जाता था, आज मोबाइल चलाने को वही मान सम्मान दिया जा रहा है ।

इसके बावजूद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी सेटर ऑफ डेवलपिंग चाइल्ड के एक सर्वेक्षण के अनुसार बच्चों को शांत करने के लिए उसके हाथ में मोबाइल थमाना गर्व का नहीं , चिंता का विषय है । बहुत नुकसानदेह है । इससे कम उम्र में बच्चे की एकाग्रता और क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो सकती है । ज्यादा समय मोबाइल की स्क्रीन पर बिताने वाले बच्चे दूसरे बच्चों से सही ढंग से घुल मिल भी नहीं पाते ! उनकी एकाग्रता घटती है और कार्य करने की क्षमता प्रभावित होती है । ये बातें शोध में सामने आई हैं । यह भी कि नौ साल से कम बच्चे के हाथ में मोबाइल से उसका अकादमिक प्रदर्शन प्रभावित होता है । मानसिक स्वास्थ्य भी बिगड़ता है । इसलिये बच्चों को मोबाइल थमाना उनका बचपन छीनने के बराबर है । बच्चों को ज्यादा बातचीत करने देनी चाहिए । उन्हें सोशल एक्टिविटीज यानी व्यायाम व योग आदि करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । मोबाइल थामने वाले बच्चे भावनात्मक रूप से भी कमजोर होते हैं । शोध के अनुसार स्क्रीन टाइम बढ़ने से बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है । ये आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं । इससे उलट बच्चों को अपने साथ छोटे छोटे कामों में लगाइये ! जैसे भी हो सके बच्चों को मोबाइल से दूर रखिये ।

एक वीडियो भी काफी देखने को मिलता है कि जब बच्चे के हाथ से मोबाइल ले लिया जाता है तब वह कैसे टांगें पटक पटक कर रोता है लेकिन जैसे ही मोबाइल हाथ में थमा दिया जाता है वैसे ही फिर हंसने लगता है । इस तरह मोबाइल ने बच्चों को बुरी तरह अपनी लपेट में ले लिया है । जैसे कोई नशा या लत लग गयी हो !

इसलिए –

बच्चों के नन्हे हाथों को मोबाइल न छूने दो !

बच्चों के नन्हे हाथों को चांद सितारे छूने दो !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 195 ☆ आलेख – हिंदी नाटकों का अभाव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – हिंदी नाटकों का अभाव।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 195 ☆  

? आलेख  – हिंदी नाटकों का अभाव?

आज नाटक अपेक्षकृत कम लिखे जा रहे हैं. लोगो की बदलती अभिरुचि के चलते जीवंत नाट्य प्रस्तुति की जगह कैमरे में कैद संपादित फिल्म या धारावाहिक ज्यादा लोकप्रिय हैं.

कथावस्तु, नाटक के पात्र, रस, तथा अभिनय नाटक के प्रमुख तत्व  होते हैं. पौराणिक, ऐतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक विषय  नाटक की कथावस्तु हो सकते हैं. कथा वस्तु को नाटक के माध्यम से दर्शको के सम्मुख प्रस्तुत करके नाटककार विषय को संप्रेषित करता है.ऐतिहासिक नाटको में कथावस्तु सामान्यतः ज्ञात होती है पर फिर भी दर्शक के लिये नाटक में जिज्ञासा बनी रहती है, और इसका कारण पात्रो का अभिनय तथा नाटक का निर्देशन होता है. नाटक की कथा वस्तु का दर्शको तक संप्रेषण तभी सजीव होता है जब नाटक के पात्रों व विशेष रूप से कथावस्तु के अनुरूप नायक व अन्य पात्रो का चयन किया जावे. यह दायित्व नाटक के निर्देशक का होता है. पात्रों की सजीव और प्रभावशाली प्रस्तुति ही नाटक की जान होती है. नाटक में नवरसों में से आठ का ही परिपोषण  होता है.  शांत रस नाटक के लिए निषिद्ध माना गया है,  वीर या श्रंगार में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है. अभिनय  नाटक का प्रमुख तत्व है. इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है.

आज हिंदी में नाटक लेखन अत्यंत सीमित है, पर इस क्षेत्र में व्यापक संभावना है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 20 – अंधविश्वास मान्यताएं☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 20 – अंधविश्वास मान्यताएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विदेशों में हमारे देश के बारे में अंधविश्वास/ मान्यताएं आदि से ही परिचय दिया जाता था। पश्चिम देश हमारे देश को अनपढ़ और पिछड़ा हुआ के परिचय से ही जानते थे। विगत कुछ सप्ताहों के प्रवास के समय हमें विदेशियों की भी ऐसी ही कुछ जानकारियां प्राप्त हुई, जैसे कि तेरह अंक को यहां अच्छा नहीं मानते हैं। इसलिए अनेक होटलों में तेरह नंबर का कमरा नहीं होता हैं। कुछ ऊंचे भवनों में भी बारह के बाद चौदहवीं मंजिल रहती हैं।

साथ का फोटो स्वर्गीय जॉन हारवर्ड का है। उनके द्वारा ही हारवर्ड विश्वविद्यालय की स्थापना अमेरिका स्थित बोस्टन शहर में की गई थी।

इनकी मूर्ति में बाएं पैर का जूता सोने जैसा चमक रहा हैं।

भ्रमण के समय गाइड ने जानकारी दी कि इस विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने हेतु अधिकतर विद्यार्थी उनके चमकने वाले जूते को अपने हाथ से साफ करने के पश्चात नम्रता पूर्वक प्रवेश के लिए प्रार्थना करते हैं।

इस विश्वविद्यालय में प्रवेश अत्यंत कठिन है, क्योंकि पूरी दुनिया में इसकी स्थिति हमेशा प्रथम तीन में ही रहती है। वैसे बोस्टन शहर में ही एक और भी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय MIT (मैसेच्यूट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) भी है। हमारे देश के श्री रतन टाटा और श्री आनंद महिंद्रा भी इसके सफल छात्र रहे हैं। जिन पर हमें नाज़ हैं।

वैसे बॉलीवुड महानायक के पुत्र और सुश्री श्रद्धा कपूर भी बोस्टन शहर के किसी अन्य महाविद्यालय में अध्ययन अधूरा छोड़ कर फिल्मी दुनिया में रोज़ी रोटी कमाने चले गए थे।                    

मान्यताएं हमेशा प्रेरणा और धनात्मक सोच की परिचायक रहती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 4 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 4 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।

कांधे मूंज जनेऊ साजै।

संकर सुवन केसरीनंदन।

तेज प्रताप महा जग बन्दन।।

अर्थ:-

आपके एक हाथ में बज्र है और दूसरे हाथ में ध्वजा है। आपके कंधे पर मूंज का यज्ञोपवीत शोभायमान हो रहा है। आप भगवान शंकर के अवतार हैं और और वानर राज केसरी के पुत्र हैं। पूरा विश्व आपके प्रताप के तेज की वंदना करता है।

भावार्थ:-

हमारे प्राचीन हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार हाथ में वज्र और ध्वजा का चिन्ह होना बहुत ही शुभ माना जाता है। इसी प्रकार से हनुमान जी के एक हाथ में वज्र समान कठोर गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म की ध्वजा है। परम वीर हनुमान जी इस प्रकार सनातन धर्म की ध्वजा फहराते हुए गदा से पापों का नाश करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं। वह इस जगत में सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि वे भगवान शंकर के ग्यारहवें रूद्र के अवतार हैं। जगत में वानर राज केसरी के पुत्र के नाम से विख्यात हैं। आपका प्रताप पूरे विश्व में अत्यंत तेज होकर फैल रहा है और पूरा विश्व आपकी वंदना करता है।

संदेश-

मनुष्य के अंदर जो बल और ज्ञान होता है, वही उसे तेज और प्रताप प्रदान करता है। ऐसे व्यक्ति की साधारण सी वेशभूषा भी उसे सुंदर दर्शाती है।

इन चौपाइयों को बार बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे काँधे मूँज जनेउ साजे।।

शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग बंदन॥

हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां विजय दिलाती है और इनकी बार बार पढ़ने से व्यक्ति के ओज और कांति में वृद्धि होती है।

विवेचना:-

इस चौपाई में हनुमान जी के हाथों में  वज्र  और ध्वजा बताई गई है। जबकि सामान्य तौर पर कहा गया है कि हनुमान जी के हाथों में गदा होती है। वज्र इंद्र देव का अस्त्र कहलाता है। और यह सबसे भयानक अस्त्र माना जाता है। वज्र का निर्माण मुनि दधीच की हड्डी से हुआ था।  इंद्रलोक पर एक बार वृत्रासुर राक्षस ने अधिकार कर लिया था। ब्रह्मा जी का उसके पास वरदान था कि वह किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। देवता गण अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा विष्णु और महेश के पास गए। ब्रह्मा जी ने बताया कि  पृथ्वी लोक में ऋषि दधीचि की हड्डी को दान में प्राप्त कर उन हड्डियों का उपयोग कर हथियार बनाएं तो वृत्रासुर की मृत्यु हो सकती है। इसके उपरांत  देवगण ऋषि दाधीच के पास गए और उनसे दान में उनकी हड्डियों को प्राप्त किया। इन हड्डियों से  भगवान इन्द्र के वज्र का निर्माण ‘त्वष्टा’ नामक देवता द्वारा किया गया।

इस चौपाई में वज्र शब्द का उपयोग संज्ञा की तरह से ना होकर विशेषण के रूप में किया गया है। हनुमान जी की गदा की ताकत वज्र के समान बताया गया है। गदा को ही वज्र कहा गया है। आज भी मजबूती बताने के लिए उसको वज्र के समान कहा जाता है जैसे कि सीमेंट,  पुलिस के अस्त्र, गाड़ियां आदि।

पौराणिक काल में और आज भी सेना  में ध्वज का बड़ा महत्व होता है। सेना की हर कंपनी का अपना एक अलग निशान या ध्वज होता है। हनुमान जी के पास किस तरह का ध्वज था इसका कहीं कोई विवरण नहीं मिलता है। हनुमान जी संभवत राम जी के निशान वाले ध्वज को  प्रयोग करते होंगे।

हनुमान जी के कंधे पर यज्ञोपवीत है। सनातन धर्म में यज्ञोपवीत का बड़ा महत्व है। यज्ञोपवीत शब्द  यज्ञ+उपवीत दो शब्दों से मिलकर बना है। यज्ञोपवीत को जनेऊ भी कहते हैं। इसे उपनयन संस्कार के उपरांत पहना जाता है। इसके उपरांत विद्यारंभ होती है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। इस पवित्र धागे को  यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनते हैं। हर शुभ एवं अशुभ कार्यों में कर्मकांड के दौरान  यज्ञोपवित को शव्य एवं अपशव्य किया जाता है। जनेऊ को धारण करना इस बात का प्रमाण है कि हनुमान जी मानव थे बंदर नहीं।

बहुत साफ है कि हनुमान जी शिव जी के अध्यात्मिक  पुत्र हैं, पवन देव के औरस पुत्र और वानर राज केसरी के सामाजिक पुत्र हैं। आम धारणा है कि हनुमान जी भगवान शिव के 11 में रुद्र के अवतार हैं। इसके अलावा पवन देव के औरस पुत्र थे तथा महाराज केसरी के जायज पुत्र हैं।

वेदों में शिव का नाम ‘रुद्र’ रूप में आया है। रुद्र का अर्थ होता है भयानक। रुद्र संहार के देवता और कल्याणकारी हैं। विद्वानों के मत से सभी रुद्र व्यक्ति को सुख, समृद्धि, भोग, मोक्ष प्रदान करने वाले एवं व्यक्ति की रक्षा करने वाले हैं।

शिवपुराण के शिव शतरूद्र संहिता के अध्याय 19 और 20 में शिव जी के दुर्वासा अवतार और हनुमत अवतार का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि कामदेव के वाण से जब भगवान शिव क्षुब्ध हो गए थे उस समय उनका वीर्यपात हो गया था। इस वीर्य को सप्तर्षियों द्वारा पुत्रपुटक में स्थापित कर लिया गया। सप्तर्षियों के मन में यह प्रेरणा भगवान शिव ने ही राम कार्य के लिए दी थी। इसके उपरांत महर्षि ने शंभू के इस वीर्य को राम कार्य की सिद्धि के लिए गौतम ऋषि की कन्या अंजनी के कान के रास्ते स्थापित कर दिया। वीर्य को स्थापित करने के लिए पवन देव को माध्यम बनाया गया था। समय आने पर उस गर्भ से महान बली पराक्रम संपन्न बालक उत्पन्न हुए जिनका नाम बजरंगी रखा गया। इस प्रकार हनुमान जी के जन्म में भगवान शिव के वीर्य को माता अंजनी के कान के रास्ते का उपयोग कर पवन देव के माध्यम से स्थापित किया गया था अतः भगवान हनुमान पवन देव के औरस पुत्र और भगवान शिव के 11वें रूद्र के अवतार हुए।

गौतम ऋषि अंजनी का विवाह वानर राज केसरी से हुआ था। अतः वानर राज केसरी, हनुमान जी के प्रत्यक्ष पिता हुए। जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है माता अंजनी के पिता के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं परंतु सभी कहानियों के अनुसार उनका विवाह वानर राज केसरी हुआ था।

अब यह स्पष्ट है हनुमान जी शंकर जी के वीर्य से उत्पन्न पवन देव के औरस पुत्र हैं। इसलिए उनके अंदर भगवान शिव और पवन देव दोनों का तेज आ गया था।

इनके तेज के संबंध में वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में कहा गया है :-

सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः। मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।

(वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९ )

हे वीरवर! तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो।

इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने हनुमान जी को पवन देव से नियोग द्वारा प्राप्त किया था।

हनुमत पुराण के खंड 4 में हनुमान जी के बाल काल के बारे में बताया गया है। हनुमान जी के बाल काल में ही एक बार कपिराज केशरी कहीं बाहर गए हुए थे। माता अंजना ने बालक को पालने में रख कर बाहर चली गई थी। बालक हनुमान जी को भूख लगी और वह रोने लगे। इसी समय उनकी दृष्टि पूरब दिशा की तरफ गई। जहां सुबह हो रही थी। उन्होंने सूर्य के लाल बिंब को लाल फल समझ लिया। भगवान शिव के अवतार और पवन के पुत्र होने के कारण हनुमान जी के पास जन्म से ही उड़ने की शक्ति थी। वे वायु मार्ग से सूर्य की तरफ जाने लगे। वायु देव को अपने पुत्र की चिंता हुई। वे शीतल वायु के साथ  बालक हनुमान के पीछे पीछे चल दिए।  इस समय सूर्य देव ने अपनी तेज को कम कर दिया। हनुमान जी ने  भूख के कारण सूर्य देव को निगल लिया। राहु उस समय  सूर्य देव को ग्रहण करने के लिए आ रहा था। राहु का और हनुमान जी का वहां पर युद्ध हो गया। राहु ने परास्त होकर इस बात की शिकायत इंद्रदेव से की। इंद्र देव ने बालक हनुमान पर वज्र से प्रहार किया। यह प्रहार  उनकी बाईं ढोड़ी में लगा। उनकी हनु टूट गई। वे पर्वत शिखर पर गिरकर मूर्छित हो गए। अपने पुत्र को मूर्छित देखकर वायुदेव अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने अपनी गति रोक  दी।

वायु की गति के रुकने के कारण समस्त प्राणियों में स्वास्थ्य का संचार रुक गया। वे सभी मरणासन्न हालत में हो गए। सभी देवता गंधर्व किन्नर आदि भागते हुए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी उन सभी के साथ पवन देव के पास गये। सभी देवताओं ने देखा की पवन देव पुत्र को गोद में लिए हैं। ब्रह्मा जी को देखकर पवन देव खड़े हो गए। पवन देवता ब्रह्मा जी के चरणों पर गिर पड़े।  ब्रह्मा जी ने हनुमान जी को स्पर्श किया। हनुमान जी की मूर्छा दूर हो गई। वे उठ कर बैठ गये। अपने पुत्र को जीवित देखते ही जगत के प्राण पवन देव तत्काल बहने लगे। पूरे लोकों को जीवनदान मिला। ब्रह्मा जी ने संतुष्ट होकर हनुमान जी को वरदान दिया कि इस बालक को ब्रह्म शाप नहीं लगेगा और इसका कोई भी अंग कभी भी शास्त्रों से नहीं टूटेगा। ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से कहा कि वे इस बालक को वरदान दें। इंद्र देव ने कहा कि हनुमान जी का शरीर वज्र से भी कठोर हो जाएगा। वज्र का उन पर कोई असर नहीं होगा। सूर्यदेव ने अपने तेज का शतांश प्रदान किया और यह भी कहा कि मैं इस बालक को सभी शास्त्रों का ज्ञाता बनाऊंगा। वरुण देव ने कहा कि मेरे पाश से यह बालक सदा सुरक्षित रहेगा और इस बालक को जल से कोई भय नहीं होगा। यमदेव ने कहा की यह  मेरे दंड से सदा अवध्य रहेगा। देवताओं ने अपने-अपने अस्त्रों से हनुमान जी को सुरक्षित किया तथा अपने अपने गुण हनुमान जी को प्रदान किए।

संकट मोचन हनुमान अष्टम में लिखा है :-

बाल समय रवि भक्षी लियो, तब तीनहुं लोक भयो अंधियारों।

ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो।

देवन आनि करी बिनती तब, छाड़ी दियो रवि कष्ट निवारो।

को नहीं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो।।

इस प्रकार हनुमान जी सभी देवताओं से अधिक तेज युक्त हो गए और पूरे जग के वंदनीय कहलाये। उनके इसी तेज के कारण हनुमान जी को कलयुग का देवता भी कहा गया है। यह भी कहा गया है कि कलयुग में हनुमान जी का असर सभी देवताओं से ज्यादा पड़ता है।

लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम ने युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को उपहार देने के उपरांत हनुमान जी से पूछा कि उनको क्या चाहिए। इस पर हनुमान जी ने कहा :-

यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले।

तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।

अर्थात : ‘हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।’

रामचंद्र जी ने इस पर तथास्तु कहकर आशीर्वाद दिया :-

 ‘एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:।

 चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा।

 लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।।’

 अर्थात् : ‘हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।

 इसके अलावा लीला समाप्ति पर समाप्ति के बाद भगवान राम ने हनुमान जी से कहा यह हनुमान तुम चिरंजीवी रहो और मेरी पूर्व आज्ञा का मृषा न करो :-

 मारुते त्वं चिरंजीव ममाज्ञां मा मृषा कृथा।

यशो जयं च मे देहि शत्रून नाशय नाशय।

(अ रा/उ का/9/35)

इस प्रकार भगवान राम की आज्ञा से हनुमान जी आज भी इस लोक में वर्तमान हैं। इस प्रकार पूरा विश्व उनकी वंदना करता है।

जय हनुमान

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 174 ☆ अनुभव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 174 अनुभव ?

बैंक की स्थानीय शाखा में जाना है। शाखा, बिज़नेस कॉम्प्लेक्स की पहली मंज़िल पर है। लिफ्ट की सुविधा न होने से विशेषकर बुज़ुर्गों को कष्ट होता है। सीढ़ियाँ चढ़ना आरम्भ ही कर रहा था कि देखा एक वयोवृद्ध माताजी धीरे-धीरे नीचे उतर रही हैं। उनका लगभग पचास वर्षीय बेटा और पंद्रह वर्षीय पोती पहले उतर चुके हैं। बेटा फोन पर बात करते हुए अपनी बेटी को दादी का हाथ पकड़ कर नीचे उतारने का निर्देश दे रहा है। दादी-पोती की गति में समन्वय नहीं सध पा रहा। व्यक्ति एकाएक बेटी पर चिल्लाया, ‘धीरे-धीरे उतार, दादी के घुटनों में दर्द उठता है।’ मैंने कहा, ‘पंद्रह साल की उम्र में बिटिया को कैसे पता कि घुटनों में दर्द भी होता है!’ व्यक्ति को बोध हुआ। वह आकर अपनी माँ को सीढ़ी उतरवाने लगा।

कहा जाता है, ‘जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई?’ जीवन में अनुभव का अनन्य महत्व है। अनुभव व्यक्ति को आधार प्रदान करता है। अनुभव की ज़मीन पर खड़ा मनुष्य डगमगाता नहीं। इस परिप्रेक्ष्य में अपनी कविता ‘अनुभव’ का संदर्भ स्मरण आता है-

ज़मीन से कुछ ऊपर

कदम उठाए चला था,

आसमान को मुट्ठी में

कैद करने का इरादा था,

अचानक-

ज़मीन ही खिसक गई,

ऊँचाई भी फिसल गई,

आसमान व्यंग्य से

मुझ पर हँस रहा था,

अपनी जग-हँसाई

मैं भी अनुभव कर रहा था,

किंतु अब फिर से

प्रयासों में जुटा हूँ,

इतनी-सी मुट्ठी,

उतना बड़ा आसमान है,

पर इस बार आसमान

भयभीत नज़र आता है,

अनुभव जीवन को

नये मार्ग दिखाता है,

जानता हूँ, अब

विजय सुनिश्चित है

क्योंकि इस बार मेरे कदम

ज़मीन से ऊपर नहीं

बल्कि ज़मीन पर हैं..!

श्रीमद्भगवद्गीता में काया, मन और बुद्धि को जीवन में विभिन्न अनुभव प्राप्त करने का साधन कहा गया है। लोकोक्ति है कि अनुभव ऐसा शिक्षक है जो परीक्षा पहले लेता है और पाठ बाद में पढ़ाता है। यद्मपि अनुभव का कोई विकल्प नहीं होता तथापि जीवन हर व्यक्ति को हर अनुभव ग्रहण करने का अवसर दे, यह आवश्यक नहीं। संक्षिप्त जीवन में बिना भोगे अनुभव ग्रहण करना हो तो बुज़ुर्गों के सम्पर्क में रहिए, उनसे संवाद कीजिए। अनुभव प्राप्ति का एक और प्रभावी साधन पुस्तकें भी हैं। अत: पुस्तकें पढ़ने की आदत डालिए, स्वयं को पठन  संस्कृति में ढालिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 3 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 3 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

महाबीर बिक्रम बजरंगी।

कुमति निवार सुमति के संगी।।

कंचन बरन बिराज सुबेसा।

कानन कुंडल कुंचित केसा।।

अर्थ-

श्री हनुमान आप एक महान वीर और सबसे अधिक बलवान हैं, आपके अंग  वज्र के समान मजबूत हैं। आपकी आराधना करके नकारात्मक बुद्धि और सोच का नाश होता है।  सद्बुद्धि आती है। आपका रंग कंचन अर्थात सोने जैसा चमकदार है। आपके कानों में पड़े कुंडल और घुंघराले केश आपकी शोभा को बढ़ाते हैं।

भावार्थ:-

अगर आपको किसी को प्रसन्न करना है तो सबसे पहले उसके गुणों का वर्णन करना पड़ेगा। श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए तुलसीदास जी उनके गुणों का बखान कर रहे हैं। महावीर हनुमान जी दया त्याग विद्या की खान हैं। हनुमान जी का वीरता में कोई मुकाबला नहीं है इसीलिए उनको महावीर कहा जाता है। अत्यंत पराक्रमी और अजेय होने के कारण हनुमान जी विक्रम और बजरंगी भी हैं। प्राणी मात्र के परम हितेषी होने के कारण उन्हें बचाने के लिए प्राणियों के मस्तिष्क से खराब विचार हटाकर अच्छे विचारों को डालते हैं।

इस चौपाई में हनुमान जी के सुंदर स्वरूप का वर्णन हुआ है। उनके एक हाथ में वज्र के समान गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म का विजय ध्वज है। उनके कंधे पर मूंज का जनेऊ विराजमान है। यह उनके ब्रह्मचारी एवं ज्ञानी होने का प्रतीक है। सभी प्रकार के अच्छे गुणों से श्री हनुमान जी सुसज्जित हैं।

संदेश-

अगर आप श्री हनुमान जी के स्वरूप का स्मरण करते हैं तो आपकी बुद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह शुद्ध हो जाती है।

इस चौपाई के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:

1-महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से बुरी संगत से छुटकारा और अच्छे लोगो का साथ मिलता है।

2-कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से आर्थिक समृद्धि अच्छा खान-पान, संस्कार और पहनावा प्राप्त होता है

विवेचना:-

इस चौपाई में मुख्य रूप से हनुमान जी के भौतिक शरीर का वर्णन है। हनुमान जी को महावीर विक्रम बजरंगी, कंचन वर्ण वाले अच्छे कपड़े पहनने वाले कानों में कुंडल वाले और  घुंघराले केश वाले बताया गया है परंतु सबसे पहले उनको महावीर कहा गया है। सच्चे वीर पुरुष में धैर्य, गम्भीरता, स्वाभिमान, साहस आदि गुण होते हैं। उनमें उच्च मनोबल, पवित्रता और सबके प्रति प्रेम की भावना होती है। महावीर के अंदर इन गुणों की मात्रा अनंत होती है।  अनंत का अर्थ होता है जिसकी कोई सीमा न हो, जिसको नापा ना जा सके, जिसकी कोई तुलना ना हो सके आदि। हनुमान जी का एक नाम महावीर भी प्रचलित है। महावीर वह होता है जो सभी तरह से सभी दुखों और कष्टों से रक्षा कर सकें और रक्षा करता हो। क्योंकि हनुमान जी यह सब करने में सक्षम है तथा सब की रक्षा करते हैं अतः उनको महावीर कहा गया है। कवि उनके विक्रम बलशाली महावीर रूप की आराधना सबसे पहले करना चाहते है जिससे सभी की रक्षा हो सके।

हनुमान जी को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए और इस चौपाई में दिए गए वर्णन को सिद्ध करने के लिए रामचरितमानस के सुंदरकांड का तीसरा श्लोक पर्याप्त है :-

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं  दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।

श्री हनुमान जी अतुलित बल के स्वामी हैं। वे स्वर्ण पर्वत, सुमेरु के समान प्रकाशित हैं। श्री हनुमान दानवों के जंगल को समाप्त करने के लिए अग्नि रूप में हैं। वे ज्ञानियों में अग्रणी रहते हैं। श्री हनुमान समस्त गुणों के स्वामी हैं और वानरों के प्रमुख हैं। श्री हनुमान रघुपति श्री राम के प्रिय और वायु पुत्र हैं।

हनुमान जी महावीर है इस बात को श्री रामचंद्र जी, अगस्त मुनि, सीता जी ने और अंत में रावण ने भी कहा है। हनुमान जी के ताकत का अनुमान देवताओं के राजा इंद्र और सूर्य देव को भी है, जिन्होंने हनुमान जी के ताकत का स्वाद चखा था। हनुमान जी के बल का अनुमान भगवान कृष्ण को भी है जिन्होंने भीम के घमंड को तोड़ने के लिए हनुमान जी को चुना था।

अब चौपाई के अगले चरण पर आते हैं जिसमें कहा गया है “कुमति निवार सुमति के संगी”

हमको यह समझना पड़ेगा सुमति और कुमति  में क्या अंतर है। अगर हम साधारण अर्थ में समझना चाहें तो कुमति  का अर्थ है नकारात्मक विचार और सुमति का अर्थ है सकारात्मक विचार। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है लिखा है:-

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥

हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥

व्यक्ति को सुख-समृद्धि पाने के लिए, प्रगति एवं विकास के लिए हमेशा सुबुद्धि से काम लेकर सुविचारित ढंग से अपना प्रत्येक कार्य निष्पादित करना चाहिए। सुमति का मार्ग ही मानव के कल्याण का मार्ग है। हनुमान जी आपके बुद्धि से कुमति को हटा करके सुमति को लाते हैं। इसके कारण आप  कल्याण के मार्ग पर चलने लगते हैं और बुद्धि  अच्छे कार्य करने के योग्य बन जाती है।

कुमति के मार्ग से हटाकर सुमति के मार्ग पर लाने का सबसे अच्छा उदाहरण सुग्रीव के मानसिक स्थिति के परिवर्तन का है। सुग्रीम जी जब बाली के वध के बाद किष्किंधा के राजा हो गए थे। इसके उपरांत वे अपनी पत्नी रमा और बाली की पत्नी तारा के साथ मिलकर  आमोद प्रमोद में मग्न हो गये थे। कुमति  पूरी तरह से उनके दिमाग पर छा गई थी। अपने मित्र श्री रामचंद्र जी के कार्य को पूरी तरह से भूल गए थे।  हनुमान जी ने सुग्रीव की स्थिति को समझा तथा संभाषण के उपरोक्त गुणों से संपन्न हनुमान जी ने उचित अवसर जानकर  उपयुक्त परामर्श देते हुए वानर राज सुग्रीव से कहा हे राजा यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के बाद उन्हें मित्र (अर्थात श्री रामचंद्र जी) का बाकी कार्य पूर्ण करना चाहिए।

इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥

निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥

 सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥

अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥

यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया।

हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवन सुत! जहाँ-तहाँ वानरों के समूह रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो।

इस प्रकार हनुमान जी सुग्रीव को कुमति से सुमति के रास्ते पर लाए और रामचंद्र जी के कोप से उनको बचाया।

कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥

इस लाइन में तुलसीदास जी ने हनुमान जी के काया का शरीर का वर्णन किया है।  तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के शरीर का रंग कंचन वरन अर्थात सोने के समान है या सोने के रंग जैसा हनुमान जी का रंग है। इन दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है। सोने के समान रंग होना या सोने के रंग जैसा होना दोनों बातें बिल्कुल अलग है। हमारे समाज में हम हर अच्छी चीज को सोने जैसा बोल देते हैं। जैसे कि आपकी लेखनी सोने जैसी सुंदर है। यहां पर आपकी लेखनी सोने की नहीं है वरन जिस प्रकार सोना महत्वपूर्ण है उसी प्रकार आपकी लेखनी भी महत्वपूर्ण है। सोना चमकता और एक बलशाली पुरुष का शरीर भी  चमकता है। शरीर की मांसपेशियां उसकी ताकत को बताती है। सोने का रंग पीला होता है और भारतवर्ष में गोरे लोग दो तरह के होते हैं। कुछ गोरे लोगों में लाल रंग की छाया होती है। और कुछ गोरे लोगों में पीले रंग की। अगर हम सोने के शाब्दिक अर्थ को लें तो हनुमान जी का रंग गोरा कहा जाएगा जिस पर पीले रंग की छाया होनी चाहिए। यह संभव भी है क्योंकि हनुमान जी पवन देव के पुत्र थे और देवताओं का रंग गोरा माना जाता है। यह गोरा रंग तो और ज्यादा दिखाई देता है जब आदमी व्यायाम करके उठा हो या उत्तेजित अवस्था में हो।

श्री देवदत्त पटनायक जी ने अपनी किताब “मेरी हनुमान चालीसा” जिसका अनुवाद श्री भरत तिवारी जी ने किया है उसके पृष्ठ क्रमांक 35 पर बताते हैं कि “सुनहरे रंग का होना हमें याद दिलाता है कि हनुमान सुनहरे बालों वाले वानर हैं। लेकिन कान का बुंदा और घुंघराले बाल उनकी मानव जाति को दर्शाते हैं। क्योंकि गहना मानव ही पहनता है और मानव के सर पर बाल होते हैं।” हनुमान जी के वानर या मानव होने के विवाद में पटनायक जी नहीं उलझे हैं। उन्होंने शायद इसको विचार योग्य विषय नहीं पाया है। महाकाव्य रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में दिखाया जाता है। उनके कंधे पर जनेऊ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभूषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पूँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।

 परंतु आइए हम इस पर विचार करते हैं। सामान्य जन मानते हैं कि हनुमान जी बंदर समूह के थे। परंतु कोई भी बंदर स्वर्ण के रंग का नहीं हो सकता है। कानों में कुंडल, सज-धज के बैठना घुंघराले बाल और कानों में बुंदा किसी भी बंदर के लक्षण नहीं हो सकते हैं। हनुमान चालीसा की  यह चौपाई बता रही है कि हनुमान जी बंदर नहीं बल्कि  मानव थे। फिर यह वानर किस प्रकार का है जिसके पूछ भी थी और क्या अब तक की मान्यता गलत थी। आइए इस पर विचार करते हैं।

 अगर हम हनुमान जी को बंदर नहीं बल्कि वानर कुल  का मानते हैं तो इसका प्रमाण क्या है?

बहुत प्राचीनकाल में आर्य लोग हिमालय के आसपास ही रहते थे। वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, मानव, दानव, राक्षस, वानर, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्‍याधर,,  आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था।

देवता गण  कश्यप ऋषि और अदिति की संतान हैं और ये सभी हिमालय के नंदन कानन वन में रहते थे।  गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां देवताओं के साथ ही हिमालय के भूभाग पर रहा करती थी।

असुरों को दैत्य कहा जाता है। दैत्यों की कश्‍यप और इनकी दूसरी  पत्नी दिति से उत्पत्ति हुई थी। इसी प्रकार  ऋषि कश्यप के अन्य पत्नियों से दानव एवं राक्षस तथा अन्य जातियों की उत्पत्ति हुई।

इसी प्रकार वानरों की कई प्रजातियां प्राचीनकाल में भारत में रहती थी। हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम ‘कपि’ था। भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में वानरों और असुरों का राज था। हालांकि दक्षिण में मलय पर्वत और ऋष्यमूक पर्वत के आसपास भी वानरों का राज था। इसके अलावा जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, मलेशिया, माली, थाईलैंड जैसे द्वीपों के कुछ हिस्सों पर भी वानर जाति का राज था।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। उल्लेखनीय है कि उरांव आदिवासी से संबद्ध लोगों द्वारा बोली जाने वाली कुरुख भाषा में ‘टिग्गा’ एक गोत्र है जिसका अर्थ वानर होता है। कंवार आदिवासियों में एक गोत्र है जिसे हनुमान कहा जाता है। इसी प्रकार, गिद्ध कई अनुसूचित जनजातियों में एक गोत्र है। ओराँव या उराँव वर्तमान में  छोटा नागपुर क्षेत्र का एक आदिवासी समूह है। ओराँव अथवा उराँव नाम इस समूह को दूसरे लोगों ने दिया है। अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको ‘कुरुख’ नाम से वर्णित करता है।

उराँव भाषा द्रविड़ परिवार की है जो समीपवर्ती आदिवासी समूहों की मुंडा भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। उराँव भाषा और कन्नड में अनेक समताएँ हैं। संभवत: इन्हें ही ध्यान में रखते हुए, श्री गेट ने १९०१ की अपनी जनगणना की रिपोर्ट में यह संभावना व्यक्त की थी कि उराँव मूलत: कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। शरतचंद्र राय जी ने अपनी पुस्तक ‘दि ओराँव’  और धीरेंद्रनाथ मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘रेसेज़ ऐंड कल्चर्स ऑव इडिया’ में इसका विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।

अगर हम ध्यान दें तो कपि कुल के पुरुषों के पास लांगूलम् (पूंछ) होता था परंतु स्त्रियों के पास नहीं। 

वर्तमान बंदरों में पूछ नर और मादा दोनों प्रकार के बंदरों में होती है। अतः  यह कहना क्योंकि हनुमान जी के पास  पूछं थी अतः वे बंदर थे सही प्रतीत नहीं होता है।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी समस्त  उपनिषदों और व्याकरण इत्यादि के ज्ञाता थे। अलौकिक ब्रह्मचारी महावीर चतुर और बुद्धिमान रामचंद्र जी के परम सेवक हनुमान जी बंदर नहीं हो सकते हैं। हमारे कई विद्वानों ने हनुमान जी को बंदर मानकर उनके साथ एक बहुत बड़ा अन्याय किया है हम नादान स्वयं ही अपनी छवि खराब करते हैं।

जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। सुग्रीव के डर को देखकर हनुमान जी तत्काल श्री राम और लक्ष्मण जी से मिलने के लिए चल पड़े। उन्होंने अपना  रूप बदलकर ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया। श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया। तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।

 (वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८ ) 

 जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अनुश्रवण नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।

 नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

 बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।। 

 (-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९ )

 अर्थः- निश्चय ही इन्होंने  व्याकरण  का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।

न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।

 (वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०) 

अर्थ:-  बोलने के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।

इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे । उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।        

क्या किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे? रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद, व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब  जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-

सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।

मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।

(वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९)

अर्थ- हे वीरवर! तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो।

इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था।

हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।

रामायण में ही तीसरा प्रमाण भी है। जब हनुमान जी  लंका के अंदर प्रवेश करने के उपरांत सीता माता का पता नहीं लगा पाए,तब वह सोचने लगे :-

सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।

वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।

(वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग )

मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा।

वानप्रस्थ जाने के बारे में कोई मनुष्य की सोच सकता है बंदर नहीं। मेरा अपने पौराणिक भाई बहनों से निवेदन है कि वह अपना हक त्याग कर हनुमान जी को भगवान शिव के अवतार के रूप में मानव शरीर धारण किए हुए देवता माने।

हनुमान चालीसा में भी कहा गया है :-

हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे

कांधे मूंज जनेऊ साजे

किंचित हम चौपाई से यह अर्थ से निकाल लेते कि जनेऊ धारण करने वाला बंदर नहीं हो सकता मनुष्य ही होगा।

वाल्मीकि जी ने बाली की पत्नी तारा को आर्य पुत्री कहा है।  इससे यह स्पष्ट है की बाली और बाकी वानर भी आर्य पुत्र ही थे अर्थात मनुष्य थे। तारा को आर्य पुत्री घोषित करते हुए बाल्मीकि रामायण का यह श्लोक दृष्टव्य है।

तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।

 आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।

 वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९ )

– ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर श्री राम के पास गई।

आज भी हमारे भारतवर्ष में नाग, सिंह, गिरी, हाथी, मोर उपनाम के लोग मिलते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं उस समय हनुमान जी और उनके कुल के लोगों का उपनाम वानर रहा होगा।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं “विराज सुवेशा।” इसका अर्थ है कि हनुमानजी सज धज कर बैठे हुए हैं। हनुमान जी के सर पर मुकुट है कंधे पर जनेऊ है और गदा है। लंगोट बांधे हुए हैं। एक वीर और बहुत ही ताकतवर पुरुष की आकृति दिखाई देती है। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है उनके कानों में कुंडल है और उनके जो बाल हैं वे घुंघराले हैं। किसी भी वानर का बाल घुंघराले नहीं होता है। यह भी इस बात को सिद्ध करता है कि हनुमान जी एक मानव थे।

वर्तमान में जितने भी प्रमाण उपलब्ध हैं उन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि हनुमानजी बंदर नहीं थे। वे मानव थे और उनका कुल वानर था। पूंछ संभवतः अलग से जुड़ा जाने वाला कोई कोड़े टाइप का अस्त्र था जिससे वानर कुल के लोग अपने पास रखते थे और वह उनके कुल का परिचायक था।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #168 ☆ हॉउ से हू तक ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख हॉउ से हू तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 168 ☆

☆ हॉउ से हू तक

‘दौलत भी क्या चीज़ है, जब आती है तो इंसान खुद को भूल जाता है, जब जाती है तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-दौलत, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का नशा अक्सर सिर चढ़कर बोलता है, क्योंकि इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् इंसान अपनी सुधबुध खो बैठता है … स्वयं को भूल जाता है। तात्पर्य यह है कि धन-सम्पदा पाने के पश्चात् इंसान अहं के नशे में चूर रहता है और उसे अपने अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उस स्थिति में उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता…सब पराए अथवा दुश्मन नज़र आते हैं। वह दौलत के नशे के साथ-साथ शराब व ड्रग्स का आदी हो जाता है। सो! उसे समय, स्थान व परिस्थिति का लेशमात्र भी ध्यान तक नहीं रहता और संबंध व सरोकारों का उसके जीवन में अस्तित्व अथवा महत्व नहीं रहता। इस स्थिति में वह अहंनिष्ठ मानव अपनों अर्थात् परिवार व बच्चों से दूर…बहुत…दूर चला जाता है और वह अपने सम्मुख  किसी के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। वह मर्यादा की सभी सीमाओं को लाँघ जाता है और रास्ते में आने वाली बाधाओं के सिर पर पाँव रख कर आगे बढ़ता चला जाता है और उसकी यह दौड़ उसे कहीं भी रुकने नहीं देती।

धन-दौलत का आकर्षण न तो कभी धूमिल पड़ता है; न ही कभी समाप्त होता है। वह तो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ता चला जाता है। यह प्रसिद्ध कहावत है…’पैसा ही पैसे को खींचता है।’ दूसरे शब्दों में इंसान की पैसे  की हवस कभी समाप्त नहीं होती…सो! उसे उचित-अनुचित में भेद नज़र आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। धन कमाने का नशा उस पर इस क़दर हावी होता है कि वह राह में आने वाले  आगंतुकों-विरोधियों को कीड़े-मकोड़ों की भांति रौंदता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। इस मन:स्थिति में वह पाप-पुण्य के भेद को नकार; अपनी सोच व निर्णय को सदैव उचित ठहराता है।

इस दुनिया के लोग भी धनवान अथवा दौलतमंद  इंसान को सलाम करते हैं अर्थात् करने को बाध्य होते हैं…  और यह उनकी नियति होती है। परंतु दौलत के खो जाने के पश्चात् ज़माना उसे भूल जाता है, क्योंकि  यह तो ज़माने का चलन है। परंतु इंसान माया के भ्रम में सांसारिक आकर्षणों व दुनिया-वी चकाचौंध में इस क़दर खो जाता है कि उसे अपने आत्मज भी अपने नज़र नहीं आते; दुश्मन प्रतीत होते हैं। एक लंबे अंतराल के पश्चात् जब वह उन अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, तो वे भी उसे नकार देते हैं। अब उनके पास उस अहंनिष्ठ इंसान के लिए समय का अभाव होता है। यह सृष्टि का नियम है कि जैसा आप इस संसार में करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। यह तो हुई आत्मजों अर्थात् अपने बच्चों की बात, जिन्हें अच्छी परवरिश व सुख- सुविधाएं प्रदान करने के लिए वह दिन-रात परिश्रम करता रहा; ठीक-ग़लत काम करता रहा…परंतु उन्हें समय व स्नेह नहीं दे पाया, जिसकी उन्हें दरक़ार थी; जो उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

‘फिर ग़ैरों से क्या शिक़वा कीजिए… दौलत के समाप्त होते ही अपने ही नहीं, ज़माने अर्थात् दुनिया भर के लोग भी उसे भुला देते हैं, क्योंकि वे संबंध स्वार्थ के थे;  स्नेह सौहार्द के नहीं।’ मैं तो संबंधों को रिवाल्विंग चेयर की भांति मानती हूं। आपने मुंह दूसरी ओर घुमाया; अवसरवादी बाशिंदों के तेवर भी बदल गए, क्योंकि आजकल संबंध सत्ता व धन-संपदा से जुड़े होते हैं… सब कुर्सी को सलाम करते हैं। जब तक आप उस पर आसीन हैं, सब ठीक चलता है; आपको झूठा मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि लोग आपसे हर उचित-अनुचित कार्य की अपेक्षा रखते हैं। वैसे भी समय पर तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है… सो! इंसान की तो बात ही अलग है।

लक्ष्मी का तो स्वभाव ही चंचल है, वह एक स्थान पर ठहरती ही कहाँ है। जब तक वह मानव के पास रहती है, सब उससे पूछते हैं ‘हॉउ आर यू’ और लक्ष्मी के स्थान परिवर्तन करने के पश्चात् लोग कहते हैं ‘हू आर यू।’ इस प्रकार लोगों के तेवर पल-भर में बदल जाते हैं। ‘हॉउ’ में स्वीकार्यता है—अस्तित्व-बोध की और आपकी सलामती का भाव है, जो यह दर्शाता है कि वे लोग आपकी चिंता करते हैं…विवशता-पूर्वक या मन की गहराइयों से… यह और बात है। परंतु ‘हॉउ’ को ‘हू’ में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता। ‘हू’ अस्वीकार्यता बोध…आपके अस्तित्व से बे-खबर अर्थात् ‘कौन हैं आप?’ ‘कैसे से कौन’ प्रतीक है स्वार्थपरता का; आपके प्रति निरपेक्षता के भाव का; अस्तित्वहीनता का तथा यह प्रतीक है मानव के संकीर्ण भाव का, क्योंकि उगते सूर्य को सब सलाम करते हैं और डूबते सूर्य को निहारना भी लोग अपशकुन मानते हैं। आजकल तो वे बिना काम अर्थात् स्वार्थ के ‘नमस्ते’अथवा ‘दुआ सलाम’ भी नहीं करते।

इस स्थिति में चिन्ता तथा तनाव का होना अवश्यंभावी है। वह मानव को अवसाद की स्थिति में धकेल देता है; जिससे मानव लाख चाहने पर भी उबर नहीं पाता। वह अतीत की स्मृतियों में अवगाहन कर संतोष का अनुभव करता है। उसके सम्मुख प्रायश्चित करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प होता ही नहीं। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है, तो दु:ख उसके धैर्य की…दोनों स्थितियों अथवा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले व्यक्ति का जीवन सफल कहलाता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि सुख में व्यक्ति फूला नहीं समाता; उस के कदम धरा पर नहीं पड़ते…वह अहंवादी हो जाता है और दु:ख के समय वह हैरान-परेशान होकर अपना धैर्य खो बैठता है। वह अपनी नाकामी अथवा असफलता का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ता है। इस उधेड़बुन में वह सोच नहीं पाता कि यह संसार दु:खालय है और सुख बिजली की कौंध की मानिंद जीवन में दस्तक देता है…परंतु बावरा मन उसे स्थायी समझ कर अपनी बपौती स्वीकार बैठता है और उसके जाने के पश्चात् वह शोकाकुल हो जाता है।

सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा आता है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारों का रहना असंभव है; उसी प्रकार दोनों का एक छत्र-छाया में रहना भी असंभव है। परंतु सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखना अथवा सम रहना आवश्यक है। दोनों अतिथि हैं–जो आया है, उसका लौटना भी निश्चित है। इसलिए न किसी के आने की खुशी, न किसी के जाने का ग़म-शोक मनाना चाहिए। हर स्थिति में सम रहने का भाव सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए सुख में अहं को शत्रु समझना आवश्यक है और दु:ख में अथवा दूसरे कार्य में धैर्य का दामन छोड़ना स्वयं को मुसीबत में डालने के समान है। जीवन में कभी भी किसी को छोटा समझ कर किसी की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि आवश्यकता के समय पर हर व्यक्ति व वस्तु का अपना महत्व होता है। सूई का काम तलवार नहीं कर सकती। मिट्टी, जिसे आप पाँव तले रौंदते हैं; उसका एक कण भी आँख में पड़ने पर इंसान की जान पर बन आती है। सो! जीवन में किसी तुच्छ वस्तु व व्यक्ति की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए… उसे स्वयं से अर्थात् उसकी प्रतिभा को ग़लती से भी कम नहीं आँकना चाहिए।

पैसे से सुख-सुविधाएं तो खरीदी जा सकती हैं, परंतु मानसिक शांति नहीं। इसलिए दौलत का अभिमान कभी मत कीजिए। पैसा तो हाथ का मैल है; एक स्थान पर कभी नहीं ठहरता। परमात्मा की कृपा से पलक-झपकते ही रंक राजा बन सकता है; पंगु पर्वत लाँघ सकता है और अंधा देखने लग जाता है। इस जन्म में इंसान को जो कुछ भी मिलता है; उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है…फिर अहं कैसा? गरीब व्यक्ति अपने कृतकर्मों का फल भोगता है…फिर उसकी उपेक्षा व अपमान क्यों? इसलिए मानव को हर स्थिति में सामंजस्य बनाए रखना चाहिए…यही सफलता का मूल है। समन्वय, सामंजस्यता का जनक है, उपादान है; जो जीवन में समरसता लाता है। यह कैवल्य अर्थात् अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें ‘हॉउ आर यू’ और ‘हू आर यू’ का वैषम्य भाव समाप्त हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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