हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ संयोग ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ संयोग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जो पूर्व निर्धारित नहीं होता, ऐसे अचानक संपन्न हुये कार्य को संयोग से हुआ कार्य कहा जाता है। संयोग का इस संसार में बहुत बड़ा महत्व है। हर एक के जीवन का बारीक विवेचन यदि किया जाये तो साफ समझ में आयेगा कि जीवन में संयोगवश घटनेवाली घटनाओं का पूर्व निर्धारित करके संपन्न की जाने वाली घटनाओं की अपेक्षा प्रतिशत अधिक है। विद्यार्थी जीवन में शिक्षा समाप्त कर भावी जीवन यात्रा का निर्धारण अधिकांश लोगों के संयोग से ही होता है। पहले मन में यद्यपि शिक्षा का क्षेत्र तय करके भी अध्ययन पूर्ण कोई कर ले परन्तु फिर भी उस निर्धारित क्षेत्र में कौन सी सेवा, पद तथा स्थान प्राप्त होगा यह अनिश्चित होता है। सेवा में प्रवेश या खुद के व्यवसाय अथवा व्यापार का निर्धारण प्राय: संयोग से ही हो पाता है।

जीवन की बड़ी विचित्रता यह है कि व्यक्ति अपने जीवन के भविष्य का निर्धारण खुद स्पष्टत: नहीं कर पाता। परिस्थितियां उससे कभी उसकी इच्छा के विपरीत भी कार्य संपन्न करा लेती हैं। जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति आकस्मिक संयोगों के अधीन ही जीता है। इसका प्रमाण तो हर व्यक्ति अपने बचपन से आगे बढ़ते जीवन को भी स्वत: देख सकता है। आकस्मिक घटनायें, परिवर्तन, मौसम के प्रकोप और बदलाव, भूकम्प, सुनामी, तूफान सभी कभी भी व्यक्ति के जीवन में बड़े परिवर्तन कर जाते हैं। जीवन की दिशा ही बदल जाते हैं। असंभव व अनजानी परिस्थितियां पैदा कर जाते हैं। यह सब संयोग से होता है। भारत का विभाजन और नये देश पाकिस्तान का निर्माण इसका एक ऐसा बड़ा उदाहरण है जिसने करोड़ों जिंदगियों को नष्ट कर नयी दिशा दी। घर बदल गये, देश बदल गया, रोजगार बदल गया और इतना ही क्यों कई के जीवन में उनका धर्म और परिवार बदल गया। कौन जानता था कि देश का ऐसा विभाजन होगा आने वाली पीढिय़ों का पूरा भविष्य ही बदल जायेगा। लाखों जिंदगियां सामान की तरह एक स्थान से दूसरे सवर्था नये भूभाग में पार्सल की भांति स्थानांतरित हो जायेंगी और सर्वथा नये पौधों की तरह दूसरे खेतों में रोप दी जायेंगी।

इसी प्रकार के बड़े उदाहरण पिछले वर्षों आये हुये सुनामी संकट हैं, जिनने दक्षिण पूर्व एशिया, भारत और पास के द्वीपों- अंदमान इत्यादि में हजारों प्राणियों को एक क्षण में मृत्यु के मुख में भर दिया। जापान में अभी कुछ ही वर्षों पूर्व फूकूसीमा में भूकम्प और सुनामी हमलों में सबकुछ नष्ट कर जीवन को प्रभावित किया।

पुराने युग को याद करें तो दशरथ पुत्र राम या राज्याभिषेक होना निर्धारित किया गया था। सारी साज-सज्जा हो चुकी थी पर प्रात: सहसा आये पारिवारिक भूचाल ने उन्हें राजतिलक के बदले 14 वर्ष के लिये वनवास को जाना पड़ा। भारत के इतिहास के अनेकों प्रसंग हैं जो अजब संयोग घटित कर गये और सारा मानव जीवन ही तहस-नहस हो गया। इनमें महावीर के जीवन में विराग की उत्पत्ति सिद्धार्थ का राजसुख से दूर जीवन में दुखों के कारण के खोज की बलवती इच्छा, सम्राट अशोक की उत्कल पर भीषण मारकाट के बाद जीत और फिर हृदय परिवर्तन से करुणा के भाव का जागरण। युद्ध से विरक्ति और बौद्ध धर्म की अहिंसा तथा करुणा के प्रभाव से बौद्ध धर्म के प्रचार में रत हो जाना। ऐसे अनेकों प्रसंग हैं सारे विश्व इतिहास में जिनसे इतिहास का रुख ही बदल गया। इस प्रकार यह स्पष्ट देखा जाता है कि व्यक्ति का सोचा-विचारा निर्णय या कार्य संयोगवश पूरा नहीं हो पाता है। इसीलिये कहा जाता है कि सोच-विचार करने वाला तो मनुष्य होता है कार्य संपन्न किसी अज्ञात महाशक्ति के द्वारा होते हैं जिसे हम ईश्वर कहते हैं। वही संसार की घटनाओं का संचालक है और वही ऐसे संयोग तैयार करता है जो कभी-कभी अत्यन्त चमत्कारी होते हैं। इसीलिये कहा है-

कर्ता के मन और कुछ, सृष्टा के कुछ और।

दृष्टि है जिसकी हर समय इस जग में हर ठौर॥

इस प्रकार संसार में संयोग का बड़ा महत्व है। संयोगों ने ही इतिहास रचा है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ उत्साह ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ उत्साह ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

किसी भी कार्य को बिना आलस्य के संपादित कर डालने की तत्परता को उत्साह कहा जाता है। बहुत से लोगों में कार्य करने का बड़ा उत्साह होता है। काम चाहे जो और जैसा भी हो उसे सही ढंग से पूरा कर लेने की भावना कुछ लोगों में होती है। वे किसी काम के करने में न तो पीछे हटते हैं न आलस्य करते हैं। ऐसे लोगों को उत्साही कहा जाता है। मन का सदा उत्साह से कार्य करने की उत्सुकता एक बड़ा अच्छा गुण है। इसके विपरीत कुछ लोग स्वभाव से ढीले होते हैं। उनमें उत्साह की कमी होती है। काम को तुरंत न कर धीमी गति से या मन मौजी ढंग से करना उनका स्वभाव हो जाता है। यह उस व्यक्ति के लिये तथा समाज के लिये भी अहितकर है। उत्साही व्यक्ति के मन में कार्य को यथाशीघ्र सम्पन्न करने की आतुरता होती है जो व्यक्ति के लिये भी अच्छी बात है और जो उसके संपर्क में होते हैं उनके लिये भी। समय का सदा सदुपयोग करना अच्छा है क्योंकि समय बीत जाने पर फिर वह वापस मिलता नहीं और आगे अन्य कार्यों की व्यस्तता होने या परिस्थितियों में बदल होने से फिर कार्य को सही विधि से करने का अवसर नहीं मिल पाता है। इसीलिये नीतिकारों ने कहा है-

काल करन्ते आज कर, आज करन्ते अब।

पल में परलय होत है, बहुरि करोगे कब?

जीवन की अवधि भी छोटी है। समय पर व्यक्ति का अधिकार नहीं है इससे जो काम आ पड़ा उसे उत्साह से पूरा कर लेना अच्छी आदत है। जो शीघ्र कार्य संपन्न करने की आदत डाल लेते हैं उन्हें कोई काम कठिन नहीं लगता और हर काम को निपटा लेने का स्वभाव बन जाता है। उत्साह एक अच्छा गुण है इसका विकास बचपन से ही किया जाना चाहिये। छोटी-बड़ी उम्र, जानकारी या उसकी कमी और स्थान तथा समय, कार्यसंपादन के लिये उत्साही व्यक्ति की राह में कोई रोड़ा नहीं अटकाते। हम सब जानते हैं कि हनुमान जी में कार्य संपादन का कितना उत्साह था। हर छोटे-बड़े काम को शीघ्र उत्साह से पूर्ण कर डालने में उनकी बड़ी रुचि थी। पराक्रम, उत्साह से वे हर काम न करते होते तो एक रात्रि में ही लंका से हिमालय पर्वत तक जाकर संजीवनी बूटी जिससे लक्ष्मण जी की वैद्य की सलाह के अनुसार प्राण रक्षा हो सकी, नहीं लाई जा सकती थी। उत्साही व्यक्ति को कार्य करते देख दूसरों को भी कार्य शीघ्र संपन्न करने की प्रेरणा मिलती है। कठिनाइयों का हल पाने में सहायता होती है। जीवन के हर क्षेत्र में उत्साह की आवश्यकता है। छात्र जीवन में पुस्तकों को पढक़र आत्मसात करने, गृहकार्य पूर्ण करने, परीक्षा देने, क्रीड़ागन में खेल खेलने कोई नया गुण सीखने में उत्साह होना चाहिये। फैक्टरी में उत्पादन में लगे कार्यकर्ता को उत्साह हो तो उत्पादन की गुणवत्ता और उत्पादन के परिमाण में बढ़त होती है। इसी प्रकार क्षेत्र कोई भी हो उत्साह कार्य को सरल बना देता है और शीघ्र संपन्न करने की क्षमता बढ़ा देता है। जिसमें उत्साह नहीं वह आलसी होता है। आलसी व्यक्ति को स्वत: दुख होता है और सभी को कार्य में विलम्ब सहना पड़ता है। उत्साह में भरा हुआ व्यक्ति प्रसन्न हंसमुख और सुखी होता है। सभी लोग उत्साही व्यक्ति को पसंद करते हैं। उसकी प्रशंसा भी होती है और वह व्यक्ति अपने साथ काम करने वालों को प्रेरणा भी देता है व प्रसन्न करता है। उत्साह जीवन में आनन्द प्रदान करने वाला बड़ा आवश्यक गुण है। मन में जब उत्साह होता है तो समय और स्थान की दूरी भी व्यक्ति के लिये शायद छोटी हो जाती है और हर कार्य में सफलता आसान हो जाती है। उत्साह के विपरीत अवसाद का जन्म होता है जो प्रगति के पथ पर रुकावट होती है। 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सदाचार की महिमा ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सदाचार की महिमा ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

व्यक्ति समाज की एक इकाई है। व्यक्ति के विचार और कार्य उसके खुद के विकास के लिये तो महत्वपूर्ण होते ही हैं परन्तु उनका प्रभाव उस समाज पर भी पड़ता है, जिसकी वह इकाई होता है। व्यक्ति के सोच विचार और कार्य से ही नये वातावरण का निर्माण होता है। सात्विक विचार और व्यवहार तथा जनहितकारी कार्यों से ही समाज का उत्थान होता है। यदि विचार और कार्य अपावन होते हैं तो व्यक्ति और समाज का क्रमश: पतन होता है। इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां किसी एक व्यक्ति के विचारों की पावनता और महानता ने समाज में भारी परिवर्तन लाकर नया जीवनदान दिया है।

पुरातनकाल में सम्राट अशोक और अर्वाचीनकाल में भारत में महात्मा गांधी ऐसे महापुरुष हुये जिनने समाज में भारी परिवर्तन कर नई चेतना प्रदान की। सत्यवादिता, अहिंसा, दयालुता, सहयोग, करुणा व कर्तव्यनिष्ठा ऐसे गुण हैं, जिन्हें समाज सदा आदर देता आया है। इनके अपनाये जाने से समाज ने सदा लाभ पाया है। इन्हें केवल शालेय पाठ्य पुस्तकों से पढक़र नहीं सीखा जा सकता। इन्हें घर-परिवार के स्नेहिल पवित्र वातावरण में बचपन से रहकर और अनुकरण से अनुभव प्राप्त कर ही आत्मसात किया जा सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हमारे देश की पारिवारिक और सामाजिक संरचना में आपसी स्नेह व आदरपूर्ण संबंधों को विकसित करने प्रेम तथा त्यागपूर्ण जीवन जीने की व्यवस्था है। धर्म भी ऐसे मधुर संबंधों का उपदेश देते हैं। आज के आपाधापी के युग में पारिवारिक स्नेह बंधन टूटते जाते हैं। स्वार्थ और आत्म-सुख की प्राप्ति की हवा बह रही है। लोग सहयोग और संवेदनशीलता को भुला चले हैं। आज सामान्य जन पढऩे की जगह देखने, सुनने की जगह सुनाने और कुछ नया गुण सीखने की जगह हलके मनोरंजन में अधिक रुचि लेने लगे हैं। इसी से हमारी संस्कृति के मान्य मूल्यों का अवमूल्यन हो चला है। तनाव बढ़ रहा है। चारित्रिक पतन हो रहा है। सादगी और सरल जीवन की जगह दिखावों और आडम्बरों का चलन बढ़ गया है। मनुष्य जीवन में शांति का अभाव हो चला है। उलझाव बढ़ रहे हैं। ऐसे वातावरण में सुधार के लिये सही सोच-विचार और कार्य व्यवहार की आवश्यकता है। पारस्परिक सहयोग और चारित्रिक दृढ़ता तथा धर्म कर्मनिष्ठा द्वारा बुराइयों को त्याग कर नई अच्छी आदतें निर्माण करने का कार्य किया जाना चाहिये। यह सद्बुद्धि और सद्शिक्षा से ही संभव है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समय बदलता है, नवीनता लाता है, उसे रोका नहीं जा सकता। परन्तु हमें क्या करना, क्या नहीं करना? अच्छा क्या है? क्या बुरा है? इसका विवेक से निर्णय कर सही कार्य करना चाहिये। जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन रखकर ही नवीनता को स्वीकारना चाहिये। नवीनता के प्रवाह में बिना विचार के बह नहीं जाना चाहिये। कोई भी अनुचित एकांगी व्यवहार, समाज को स्वीकार्य नहीं होता और बिना विचारे किये कार्य भविष्य में दुख के कारण बनते हैं। कहा है-

 ‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

काम बिगारै आपुनो जग में होत हंसाय॥’

सदाचारी बनकर हम अपना और अपने समाज का हित कर सकते हैं। सदाचारी को लालची और आलसी नहीं होना चाहिये। सदाचार का आशय है ऐसा अच्छा व्यवहार जो सबको पसंद हो और हितकर हो। सरल परख यह है कि हमारा कार्य, किसी के लिये दुख देने वाला और अरुचिकर न हो। आज सदाचार के स्थान पर भ्रष्टाचार बढ़ रहा है जिससे दोनों पक्षों और समाज को कष्ट हो रहा है। सदाचार से न केवल सबका कल्याण होता है वरन सबको सुख और प्रसन्नता होती है। वातावरण पवित्र होता है अत: शांति भी सहजता से मिलती है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -7 (अंतिम भाग)☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 7 (अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यात्रा के दूसरे और अंतिम चरण में दुबई से विमान ने पंख फैलाए और यूरोप के ऊपर से शिकागो (अमेरिका) के लिए रास्ते में पड़ने वाला समुद्र फांदने लग गया। विमान में सभी की सीट के सामने स्क्रीन की सुविधा उपलब्ध रहती है। आप चाहें तो फिल्म इत्यादि देख कर मनोरंजन कर सकते हैं। विमान के बाहर लगे कैमरे से खुले आकाश के दृश्य का भी आनंद लिया जा सकता हैं। एक अन्य स्क्रीन पर आपके विमान की स्थिति, गति,  गंतव्य स्थान से दूरी इत्यादि की जानकारी पल पल में संशोधित होती रहती हैं।

विमान में नब्बे प्रतिशत से अधिक हमारे देश के लोग ही थे। नाश्ते में दक्षिण भारत के व्यंजन परोसे गए थे, पास में बैठे उत्तर भारत के एक सज्जन कहने लगे इससे अच्छा तो आलू पूरी या पराठा देना चाहिए था।हम लोग खाने पीने के बारे में कितने नखरे करते हैं।आने वाले समय में हो सकता है,आपके मन पसंद भोजन की मांग की पूर्ति के लिए स्विगी इत्यादि कंपनियां ड्रोन द्वारा खाद्य प्रदार्थ विमान की खिड़की से उपलब्ध करवा सकती हैं। रेल यात्रा में तो कई भोजनालय चुनिंदा स्टेशन पर खाद्य सामग्री आपकी सीट पर  पहुंचा देते हैं।                              

पंद्रह घंटे की यात्रा में तीन बार  खान पान की सेवा का आनंद लेते हुए विमान शिकागो की धरती पर कब पहुंच गया पता ही नहीं चला।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ जियो और जीने दो ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ जियो और जीने दो ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

परमात्मा ने प्रकृति को सतत विकास और समृद्धि का वरदान दिया है। संसार में सबके लिये रहने, भोजन करने और विकसित होने की पूरी व्यवस्था की है। जल, भोजन, वायु, उष्णता और आकाश प्रदान कर सबको पनपने और निर्बाध बढऩे रहने का उपक्रम किया है। वनस्पति और प्राणि संवर्ग एक-दूसरे के पूरक तथा सहयोगी बनाये गये हैं। परन्तु स्वार्थी मनुष्य ने अन्य प्राणियों, वनस्पतियों, भूमि, जल, वायु और आकाश का अपनी इच्छानुसार स्वार्थपूर्ति हेतु उपयोग कर अनावश्यक दोहन कर सबको प्रदूषित कर डाला है। यह प्रदूषण स्वत: उसके विनाश का कारण हो चला है। स्वार्थ में मस्त होकर धनार्जन के लोभ में वह भूला हुआ है।

प्रकृतिदत्त जीवन दायिनी वायु धुयें से प्रदूषित है। जल अर्थात् नदियां और जलाशय मलिन प्रवाहों से भर गये हैं। जल प्रदूषित हो गया। बीमारियां फैला रहा है। भूमि पर्याप्त उत्पन्न करने की क्षमता खोती जा रही है क्योंकि रासायनिक खादों से उर्वरा शक्ति खो रही है। कृषि भूमि पर भवन और कारखाने लगा दिये गये हैं। खदानों से जरूरत से अधिक खुदाई कर कोयला लोह अयस्क तथा अन्य मूल्यवान धातुयें और उत्पाद निकाले जा रहे हैं। शुद्ध भोज्य पदार्थ दुर्लभ हो रहे हैं। आकाश में ओजोन परत जो जीवन रक्षक कवच का काम करती है फट गई है। वायुमण्डल का तापमान असंतुलित हो गया है। प्राकृतिक बर्फ की चादर पिघल कर फट रही है। अत: उष्णता बढ़ रही है। मौसमों में असंतुलन आ गया है। वनस्पति-वृक्षों को काटा जा रहा है, अत: वनों का क्षेत्रफल कम हो रहा है। जिससे असंतुलन बढ़ रहा है। वन्य प्राणियों के आवास नष्ट हो रहे हैं जिससे उनकी प्रजातियां ही नष्ट हो रही हैं। वन्य पशुओं का मांस और धन के लिये शिकार किया जा रहा है। मनुष्य ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये नदी, पहाड़, खेत, वन, वन्य प्राणियों किसी को नहीं छोड़ा है और उनसे निर्दयता पूर्वक बर्ताव कर रहा है। यही तो पाप है जो आज मनुष्य निर्भय होकर कर रहा है।

सभी धर्मों ने मनुष्य को उपदेश दिया है कि संसार में जितने भी जीव जन्तु प्राणी हैं सभी मानव जीवन में सहायक हैं। उनकी तथा प्राकृतिक सर्जना की रक्षा भर ही नहीं उनकी संवृद्धि में सहयोग करके पुण्य लाभ प्राप्त करना चाहिये। किसी का विनाश न किया जाय, इसी सिद्धांत को सामने रख भगवान महावीर ने कहा था- ‘अहिंसा परमो धर्म:’। अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है। जो धर्म का पालन करते हैं उन्हें पुण्य लाभ होता है और उन्हें सद्गति प्राप्त होती है। यदि मनुष्य दया भाव रखकर सबके साथ बर्ताव करे तो वह स्वत: भी सुखी हो। उसे जीवन के लिये प्रकृति सबकुछ प्रदान करे और वनस्पति तथा सभी प्राणियों को सुखी रख सके। इसी जनकल्याणकारी सिद्धांत को प्रतिपादित कर महावीर जी ने कहा था- ‘जियो और जीने दो’ अर्थात् खुद भी जियो और सुखी रहो तथा अन्य सभी को भी जीने और सुखी रहने दो। सूत्र रूप में सुख प्राप्ति के लिये अहिंसा के इस सिद्धांत से बड़ा मार्गदर्शक सिद्धांत क्या हो सकता है। मनुष्य को इसका मनन चिंतन और अपने जीवन में परिपालन करना आवश्यक है।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ अहंकार का त्याग करें ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अहंकार का त्याग करें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

भूतल पर हमें अनुपम प्राकृतिक संरचना दिखाई देती है। इसमें तरह-तरह की वनस्पतियां और आश्चर्य में डाल देने वाला प्राणि जगत है। प्राणियों में जलचर, नभचर, थलचर सभी हैं। छोटे-छोटे कीट पतंगों से लेकर हाथी तक विशालकाय भयानक प्राणी हैं। बिना पैर के जीव जन्तुओं से लेकर बहुपद वाले थलचर और छोटी पंखियों से लेकर विशाल पंखधारी नभचर भी हैं। प्रकृति की यह अद्भुत व्यवस्था है। सब अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहकर व्यवहार करते हैं। सबमें एक समन्वय है। अनेकताओं के बीच में एक रूपता है। समस्त सृष्टि हर घटक का उद्भव, विकास और अवसान निरन्तर अबाध गति से चलता रहता है। सबके जीवन क्रम में पारस्परिक सहयोग और समन्वय के आयाम भी दिखाई देते हैं। यदि ऐसा न होता तो जीवन दूभर हो जाता। सब अपने में अकेले होते हुये भी एक परिवार के सदस्य हैं और प्रत्येक के कुछ निर्धारित कार्य हैं, जो दूसरों को किसी न किसी प्रकार हितकारी हैं। इसी सृष्टि का बारीक अध्ययन कर भारतीय मनीषियों ने कहा- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’।

परन्तु  बुद्धिवादी मनुष्य ने अपने विकास क्रम में नई-नई खोजें करके प्राकृतिक संतुलन को बदल दिया है। मेरे-तेरे की विभाजन रेखायें खींचकर संपूर्ण प्राकृतिक संपदाओं को टुकड़ों में बांट डाला है और उनपर अपना स्वत्व जमा रखा है। भूमि, नदी, पहाड़ ही नहीं अविभाज्य सागरों और आकाश पर भी अपना अधिकार दिखाता है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि एक परिवार की सम्मिलित भूमि और संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार व बंटवारे के लिये झगड़े हो रहे हैं। विश्व को विखंडित कर नई-नई सीमायें बनाई जा रही हैं और इसी के लिये स्वार्थवश बड़ी-बड़ी लड़ाईयां हो चुकी हैं। समस्त विश्व में अधिकार और धन संपत्ति के विभाजन से वैरभाव व मनोमालिन्य बढ़ रहे हैं। सब जानते हैं कि एकदिन यह सब यहीं छोडक़र मृत्यु की गोद में सोना होगा परन्तु मोह माया और अहंकार के भाव के कारण मन की चाह बढ़ती जाती है। आध्यात्मिक चिंतक इसीलिये कहते हैं कि यही मेरी-तेरी की भावना माया है, जो मनुष्य को सच्चिदानंद की प्राप्ति में बाधक है। पढ़लिखकर समझदार होने के बाद भी हमारे व्यवहार अज्ञानों या अनपढ़ मूर्खों सरीखे होते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से सारा संसार एक परिवार है पर फिर भी वैसा व्यवहार लोग नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि मनुष्य निरंतर किसी न किसी वस्तु के अभाव में दुखी होता रहता है। हमारे अहंकार ने ही सारे भूमंडल को राजनैतिक खण्डों में बांटकर नये-नये राज्य व देश  बना लिये हैं और पारस्परिक स्वार्थ में फंसकर अप्राकृतिक सीमाओं में कटीले तारों के घेरे लगा लिये हैं। थोड़े से स्वार्थ के लिये क्रोध कर लड़ते हैं और एक दूसरे को मार डालने में भी पीछे नहीं रहते। हमने अपने खुद को खुश करने के लिये कटीली बाड़ों में अपने को कैद कर रखा है। अपने को कैदकर खुद को अहंकार में रख दूसरे से लड़ते और दोनों पक्षों को दुखी करते हैं। यदि हमें सच्चे सुख की वास्तविक अभिलाषा है तो हमें सबसे मिलकर रहना होगा। अपने लगाये कटीले घेरों को तोडऩा होगा। वास्तविक सुख आपस में, प्रेम में, सहयोग में व समरसता में है। एकीकरण में है विभाजन में नहीं। ईश्वर ने सृष्टि को समग्रता में रचा है। हमें उसकी रचना के रहस्य और उद्देश्य को समझकर संवेदनशील बनना होगा और सबके साथ भावनात्मक एकता से रहना होगा। अहंकार को छोडऩा होगा और वसुधैव कुटुम्बकम के भाव को विकसित कर रहना होगा तभी सुखी हो सकेंगे।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ?

स्मरण हो आता है वह समय जब रेल का आरक्षण लेना लगभग आधे दिन की प्रक्रिया थी। कामकाजी समय से आधा दिन निकालना संभव न होता। इसके चलते 250-300 किलोमीटर की यात्रा प्राय: अनारक्षित डिब्बे में होती। रेल हो या बस, सीट पाया व्यक्ति अपने स्थान से टस से मस नहीं होना चाहता था। नये यात्री है को स्थान देने के बजाय अपने लिए आवश्यकता से अधिक स्थान सुरक्षित कर लेने की वृत्ति प्रायः देखने को मिलती थी। न्यूनाधिक यही स्थिति अब भी होगी। इस वृत्ति पर मनुष्य के क्रमिक विकास का सिद्धांत लागू नहीं हुआ। केवल प्रदर्शन का क्रमिक विकास हुआ।

आँखो दिखता सच यह है कि स्थूल रूप से मनुष्य दूसरे को स्थान नहीं देना चाहता। अंतश्चेतना के स्तर पर देखें तो अनेक बार मनुष्य न केवल भौतिक रूप से किसी के लिए स्पेस देने को इंकार करता है बल्कि मानसिक रूप से भी दूसरों के विचार के लिए कोई जगह छोड़ना नहीं चाहता।

स्मरण आती है, विद्यालय के दिनों की एक घटना। साथ ही स्मरण आते हैं हमारे प्रधानाध्यापक श्रद्धेय सत्यप्रकाश जी गुप्ता सर। मैं जब नौवीं में पढ़ा करता था, सर प्रधानाध्यापक बनकर पाठशाला में आए थे। मैं जो निबंध लिखता या ललित रूप से जो कुछ भी लिखता, उसे वे बेहद पसंद करते। विशेषकर राजनीतिक-सामाजिक  विषयों पर मेरा लेखन उन्हें बहुत भाता। उदाहरण के लिए ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ जैसे विषयों पर अपनी आयु के अनुरूप अपने विचारों को मैं प्रखरता से प्रकट करता। आज लगता है कि संभवत: यह विचार एकांगी अथवा एकतरफा होते होंगे। सर इन विचारों को पढ़-सुनकर प्रसन्न होते, पीठ थपथपाया करते।

मैं दसवीं में पहुँचा। बोर्ड की परीक्षा थी। दसवीं के बच्चों का विदाई समारोह होता था। विदाई समारोह के दो-चार दिन पहले सर ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया। वे बालक कहकर संबोधित किया करते थे। अत्यंत स्नेह से बोले, “बालक बोर्ड की परीक्षा में किसी राजनीतिक विषय  जैसे ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ पर निबंध मत लिखना। सामाजिक विषय पर लिखना।” पंद्रह वर्ष की अवस्था, जोश अधिक और होश कम। मैंने कहा, “मैं इसी पर लिखूँगा। यह मेरी पसंद का विषय है।”…” तुम्हारे अंक कम हो सकते हैं बालक, क्योंकि आवश्यक नहीं कि परीक्षक तुम्हारे विचारों से सहमत हो। मैं तुम्हें मेरिट लिस्ट में देखना चाहता हूँ, इसलिए प्रयास करना कि राजनीतिक विषय से बच सको।” उन्हें जीवन का विशद अनुभव था। मेरी आँखों में मेरी प्रतिक्रिया को उन्होंने पढ़ लिया। कुछ देर पहले प्रत्यक्ष सुन भी चुके थे। क्षण भर चुप रहकर बोले, “ठीक है, यदि ऐसे किसी विषय पर लिखो भी तो दूसरे के विचारों के लिए जगह छोड़ देना।”

घटना 42 वर्ष पूर्व की है। सर स्वर्गवासी हो चुके पर उनका अ-क्षर वाक्य चिरंजीव होकर आज भी मेरा मार्गदर्शन कर रहा है।

कालांतर में अनुभव ने सिखाया कि दूसरे के विचार के लिए विचार करना कितना आवश्यक है। संतान, जीवनसाथी, मित्र, परिवार, परिचित सब पर लागू होती है यह आवश्यकता।  कार्यालय, व्यापार, सामाजिक जीवन में यदि  आप नेतृत्व कर रहे हैं तो अनेक बार दो-टूक निर्णय लेने की स्थिति बनती है। ऐसे में प्रशंसा-आलोचना से परे निर्णय लेकर उसे समयबद्ध क्रियान्वयन तक भी ले जाना होता है। तथापि इस प्रक्रिया में भी जो लोग असहमत हैं या भिन्न मत रखते हैं, उनके विचारों के लिए जगह छोड़ना आवश्यक है। सामासिकता कहती है कि दूसरों के विचार के लिए जितनी जगह छोड़ते जाओगे, उतना ही तुम्हारा स्पेस अपने आप बढ़ता जाएगा। है न ग़ज़ब का समीकरण! दूसरों को स्पेस दो तो घटने के बजाय बढ़ता है अपना स्पेस!

ऋग्वेद यूँ ही नहीं कहता, ‘सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्!’ अर्थात मिलकर चलें, मिलकर बोलें। सांप्रतिक जीवन शैली में मिलकर चलना-बोलना न हो सके तब भी दूसरे के विचार के लिए स्थान छोड़कर अपौरूषेय के मार्ग का अवलंबन किया जा सकता है।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सोती हुई आंखों से देखे जो जाते हैं उन्हें स्वप्न कहा जाता है और जागते हुये जो कुछ देखा जाता है उसे सत्य कहा जाता है। जन सामान्य में व्यवहारिक धारणा यही है, किन्तु क्या यह सर्वथा सत्य है? कवि, चित्रकार या वास्तुविद किसी रचना के पहले अपनी रचना का मानसिक प्रतिरूप तैयार करता है। उसके बाद ही अपनी कल्पना को शब्दों या रेखाओं और रंगों से उकेर कर रूप देता है। वह जो सोचता विचारता है वह कल्पना भी उसका स्वप्न होता है। इसीलिये ‘स्वप्न का साकार करना’ एक मुहावरा बन गया है, जिसका अर्थ है कल्पना को वास्तविकता में बदल देना या निर्माण करना। इस प्रकार अपने काल्पनिक चित्र को वास्तविकता में प्रकट कर देने में कर्ता या कलाकार को एक आनन्द और सुख मिलता है।

हर एक के मन में हमेशा कुछ विचार और उनका चित्र उभरते रहते हैं। नींद में देखे जाने वाले अच्छे या बुरे बहुत से स्वप्नों का जैसे कोई उपयोग नहीं होता ऐसे ही बहुत से काल्पनिक चित्र और विचार निरर्थक ही होते हैं और समय की तरंगों के साथ खो जाते हैं। पर कुछ इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि वे जीवन की भावी इमारत को सही रूप देने में सहायक होते हैं और वे एक ही व्यक्ति की नहीं बल्कि उससे संबंधित अनेकों के जीवन को प्रभावित करते हैं। उन पर भविष्य के नव निर्माण की नींव खड़ी कर दी जाती है। ऐसे सार्थक विचारकों और महत्वपूर्ण स्वप्नों के सजाने वालों को चिन्तक, विचारक या स्वप्नदृष्टा कहा जाता है। इन स्वप्नदृष्टा विचारकों और चिन्तकों की भी दो श्रेणियां हैं। एक वे हैं जो इस विश्व में जो प्रकृति प्रदत्त है और दृश्यमान है उस पर चिन्तन खोज और प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित कर नये-नये अविष्कार करके इस धराधाम में सुख-सुविधायें उपलब्ध कराने में लगे हैं। ये भौतिक शास्त्री या विज्ञानी है। जो कुछ संसार में दिखाई देता है वह सभी परिवर्तन शील है और नाशवान है अत: अनित्य है। इसकी अध्ययन और खोज इन भौतिक विज्ञानियों का काम है। दूसरे वे लोग हैं जो इनसे भिन्न हैं। वे अपने चिन्तन मनन से उन तत्वों पर खोज या अनुसंधान करते हैं जो आंखों को दिखाई नहीं देता। जैसे प्राणियों के शरीर और प्रकृति का सारा स्वरूप तो देखा जा सकता है परन्तु शरीर को संचालित करने वाली चेतना जिसे आत्मा कहा जाता है अदृश्य है। मनुष्य या प्राणियों के मृत्यु के उपरांत शरीर तो रह जाता है परन्तु अदृश्य चेतना आत्मा कहीं चली जाती है। आत्मा जैसे अदृश्य है वैसे ही परमात्मा अदृश्य है। इन अदृश्य तत्वों के विचारकों को अध्यात्म विज्ञानी या अध्यात्मिक चिन्तक कहा जाता है। ये उन अदृश्य तत्वों पर विचार और अनुसंधान करते हैं जो अदृश्य हैं अनश्वर हैं। इन्हीं के चिन्तन के परिणाम स्वरूप मनुष्य को यह ज्ञान हो सका कि ईश्वर नाम की महाशक्ति भी है जिसने सारी सृष्टि रची है और उसका वह संचालन भी कर रही है। यह अनश्वर अर्थात् नष्ट न होने वाला तत्व नित्य है अजर अमर है।

जो कुछ नाशवान है उसे धर्मगुरुओं ने मिथ्या कहा है और जो अमर है अपरिवर्तनशील है उसे सत्य कहा है। आदि शंकराचार्य का यह कथन- ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ का अर्थ यही है कि आत्मा व परमात्मा नित्य है इसलिये सत्य है और जगत अर्थात् संसार में अन्य जो कुछ भी दिखाई देता है व परिवर्तनशील और नाशवान है इसलिये वह सब मिथ्या है।

संसार का जीवन में अपना बड़ा महत्व है व्यक्ति के लिये सदा मतलब भी रखता है। कई लोग जो यह अर्थ निकालते हैं कि जगत का कोई अस्तित्व ही नहीं है केवल आत्मा या ईश्वर तत्व ही है, अनुचित है और गलत है। सत्य और मिथ्या शब्दों का सही अर्थ समझ कर उनके उक्त सूत्र को सही समझकर अर्थ करना चाहिये।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ आदर्श के अनुकरण की आवश्यकता ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आदर्श के अनुकरण की आवश्यकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जीवन को सही दिशा में विकसित करने के लिये एक आदर्श की आवश्यकता होती है। सामने कोई आदर्श रहने से उसका अनुकरण कर चलने से कोई निश्चित उपलब्धि पाई जा सकती है, मार्ग सरल हो जाता है। जैसे कोई चित्रकार सामने कोई मॉडल रख उसकी अनुकृति बनाना सरल पाता है वैसे ही जीवन को किसी निर्धारित सांचें में ढालना आदर्श का अनुकरण कर बढऩा आसान होता है। स्वरुचि के अनुसार जिस किसी भी क्षेत्र में विकास करना हो, उस क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के जीवन विकास क्रम को समझना और उसका क्रमिक अनुकरण करना उचित होता है। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिये एक सफल मार्गदर्शक चाहिये। उसकी प्रेरणा और अनुकरण से उस पथ पर चलना और आने वाली कठिनाइयों से जूझ सकना आसान हो जाता है। शिक्षा, समाजसेवा, व्यवसाय, व्यापार, विज्ञान, धर्म, अध्यात्म, योग, भक्ति, राजनीति या चिकित्सा यहां तक कि खेल के क्षेत्र में भी मार्गदर्शन के लिये आदर्श का होना अच्छा है। यह विश्व विभिन्नताओं से भरा पड़ा है। आज हर क्षेत्र में विकास की संभावनायें हैं और आदर्श  उपलब्ध हैं। सुयोग्य आदर्श की जानकारी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त की जा सकती है। स्वत: के ज्ञान और खोज से अखबारों से टीवी से पत्र-पत्रिकाओं से और सत्साहित्य से। इसीलिये साहित्य को जीवनोत्कर्ष के लिये सहायक कहा जाता है। पुस्तकों ने अनेकों के विकास के दरवाजे खोले हैं। पुस्तकें सबकी परम मित्र हैं। अनेकों सफल महापुरुषों ने अपने पूर्ववर्ती नायकों के जीवन चरित्र पुस्तकों में पढक़र अपने रास्ते चुने हैं और सत्य अहिंसा, जनसेवा, करुणा के भावों को जगाकर उनका अनुकरण करने का संकल्प कर जीवन को सजाया और संवारा है तथा खुद महान बन सके हैं। आदर्श का चित्र मन में बस जाने से उसके प्रति श्रद्धाभाव वैसे ही उत्पन्न हो जाता है जैसे भक्त के मन में भगवान के प्रति अनुरक्ति श्रद्धा और विश्वास। यही विश्वास सफलता देता है। कहा है- विश्वास: फलदायक:। विश्वास से ही भक्त को भगवान मिलते हैं। विश्वास और श्रद्धा से ही व्यक्ति को हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। हर उपासक के सामने जाने या अनजाने में भी कोई एक आदर्श तो होता ही है। आदर्श की प्रतिमा सतत प्रेरणा देती है। शक्ति भी देती है, जिससे लक्ष्य को पाया जाता है। हर एक के लिये उसके विश्वास और निष्ठा के अनुसार आदर्श अलग-अलग हो सकते हैं। एक ही आदर्श सभी के लिये आदर्श नहीं हो सकता। किसी के लिये आदर्श राम है तो किसी के आदर्श कृष्ण है और किसी के लिये शिव अथवा हनुमान जी। हर मनोदशा का जीवन में भिन्न आदर्श हो सकता है। एक ही व्यक्ति का एक परिस्थिति में कार्य संपादन का आदर्श एक हो सकता है और दूसरी परिस्थिति में कुछ अन्य। मूलत: आदर्श की आवश्यकता सफलता के लिये लक्ष्य को पाने के लिये होती है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #147 ☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम संवेदनाएं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 147 ☆

☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं

सांसों की नमी ज़रूरी है, हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो/ तो हाथों से फिसल जाती है। प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं; अगर देने लग जाओ/ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं–जैसे जीने के लिए एहसासों की ज़रूरत है; संवेदनाओं की दरक़ार है। वे जीवन का आधार हैं, जो पारस्परिक प्रेम को बढ़ाती हैं; एक-दूसरे के क़रीब लाती हैं और उसका मूलाधार हैं एहसास। स्वयं को उसी सांचे में ढालकर दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करना ही साधारणीकरण कहलाता है। जब आप दूसरों के भावों की उसी रूप में अनुभूति करते हैं; दु:ख में आंसू बहाते हैं तो वह विरेचन कहलाता है। सो! जब तक एहसास ज़िंदा हैं, तब तक आप भी ज़िंदा मनुष्य हैं और उनके मरने के पश्चात् आप भी निर्जीव वस्तु की भांति हो जाते हैं।

सो! रिश्तों में एहसासों की नमी ज़रूरी है, वरना रिश्ते सूखी रेत की भांति मुट्ठी से दरक़ जाते हैं। उन्हें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक है– सबके प्रति प्रेम की भावना रखना; उन्हें सम्मान देना व उनके अस्तित्व को स्वीकारना…यह प्रेम की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में जब आप अहं का त्याग कर देते हैं, तभी आप प्रतिपक्ष को सम्मान देने में समर्थ होते हैं। प्रेम के सम्मुख तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। रिश्ते-नाते विश्वास पर क़ायम रह सकते हैं, अन्यथा वे पल-भर में दरक़ जाते हैं। विश्वास का अर्थ है, संशय, शंका, संदेह व अविश्वास का अभाव–हृदय में इन भावों का पदार्पण होते ही शाश्वत् संबंध भी तत्क्षण दरक़ जाते हैं, क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं। ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। भरोसा जहाँ ज़िंदगी की सबसे महंगी शर्त है, वहीं त्याग व समर्पण का मूल आधार है। जब हमारे अंतर्मन से प्रतिदान का भाव लुप्त हो जाता है; संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। इसलिए जीवन में देना सीखें। यदि कोई आपका दिल दु:खाता है, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि लोग उसी पेड़ पर पत्थर मारते हैं, जिस पर मीठे फल लगते हैं। सो! रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं। इसलिए अपनों से कभी मत ग़िला-शिक़वा मत कीजिए।

‘जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए।’ हर पल, हर दिन प्रसन्न रहें और जीवन से प्यार करें; यह जीवन में शांत रहने के दो मार्ग हैं। जैन धर्म में भी क्षमापर्व मनाया जाता है। क्षमा मानव की अद्भुत् व अनमोल निधि है। क्रोध करने से सबसे अधिक हानि क्रोध करने वाले की होती है, क्योंकि दूसरा पक्ष इस तथ्य से बेखबर होता है। रहीम जी ने भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ के माध्यम से यह संदेश दिया है। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। इसे कभी मुरझाने मत दें। इसलिए कहा जाता है कि वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें। स्नेह का धागा व संवाद की सूई उधड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं। सो! संवाद बनाए रखें, अन्यथा आप आत्मकेंद्रित होकर रह जाएंगे। सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाएंगे– एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर। ‘सोचा ना था, ज़िंदगी में ऐसे फ़साने होंगे/ रोना भी ज़रूरी होगा, आंसू भी छुपाने होंगे’ अर्थात् अजनबीपन का एहसास जीवन में इस क़दर रच-बस जाएगा और आप उस व्यूह से चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाएंगे।

आज का युग कलयुग अर्थात् मशीनी युग नहीं, मतलबी युग है। जब तक आप दूसरे के मन की करते हैं; तो अच्छे हैं। एक बार यदि आपने अपने मन की कर ली, तो सभी अच्छाइयां बुराइयों में तबदील हो जाती हैं। इसलिए विचारों की खूबसूरती जहां से मिले; चुरा लें, क्योंकि चेहरे की खूबसूरती तो समय के साथ बदल जाती है; मगर विचारों की खूबसूरती दिलों में हमेशा अमर रहती है। ज़िंदगी आईने की तरह है, वह तभी मुस्कराएगी, जब आप मुस्कराएंगे। सो! रिश्ते बनाए रखने में सबसे अधिक तक़लीफ यूं आती है कि हम आधा सुनते हैं; चौथाई समझते हैं; बीच-बीच में बोलते रहते हैं और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। सो! उससे रिश्ते आहत होते हैं। यदि आप रिश्तों को लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं, तो जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार लें, क्योंकि उपेक्षा, अपेक्षा और इच्छा सब दु:खों की जननी हैं और वे दोनों स्थितियां ही भयावह होती हैं। मानव को इनके चंगुल से बचकर रहना चाहिए। हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए और साहस व धैर्य का दामन थामे आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहां कोशिशों का क़द बड़ा होता है; उनके सामने नसीबों को भी झुकना पड़ता है। ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।’ आप निरंतर कर्मरत रहिए, आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। रिश्तों को बचाने के लिए एहसासों को ज़िंदा रखिए, ताकि आपका मान-सम्मान बना रहे और आप स्व-पर व राग-द्वेष से सदा ऊपर उठ सकें। संवेदना ऐसा अस्त्र है, जिससे आप दूसरों के हृदय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और उसके घर के सामने नहीं; उसके घर अथवा दिल में जगह बना सकते हैं। संवेदना के रहने पर संबंध शाश्वत बने रह सकते हैं। रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिए। परंतु जहां सम्मान न हो; जोड़ने भी नहीं चाहिएं। आज के रिश्तों की परिभाषा यह है कि ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध व रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ सचमुच यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

16.7.22.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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