(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य सेवा का मेवा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 154 ☆
व्यंग्य – सेवा का मेवा
प्रभु मेरा अच्छा मित्र था. पढ़ने लिखने में ज्यादा होशियार न था पर था प्रतिभाशाली. कालेज के हर आयोजन में वह हिस्सेदारी करता था. भाषण प्रतियोगिता हो. या कालेज का कोई सेवा प्रकल्प हो. बाढ़ पीड़ितो की लिये मदद के लिये कालेज के युवाओ की टोली बनाकर चंदा जुटाना हो. ठंड में वृद्धाश्रम के लिये ऊनी वस्त्र, कम्बल इत्यादि खरीदने से लेकर बांटने तक वह मित्रो की टोली के साथ सदैव आगे रहता था. उसकी इस नेतृत्व क्षमता के चलते मोहल्ले के चौराहे पर गणेशोत्सव. दुर्गोत्सव. होली के सार्वजनिक आयोजनो में धीरे धीरे स्वतः ही उसका वर्चस्व बनता गया. प्रभु जहां भी. जिस किसी आयोजन के लिये अपने दल बल के साथ. छपी हुई रसीद बुक के साथ चंदा लेने निकलता. वह आशा से अधिक ही धन एकत्रित कर लाता. चंदा देने वालो को कार्यक्रम में पधारने का निमंत्रण. आयोजन के बाद उन तक प्रसाद पहुंचाना. कार्यक्रम में चंदा देने वालो के परिवार से किसी सदस्य के आने पर उन्हें विशिष्ट महत्व देने की कला के चलते लोग उससे प्रसन्न रहते. अखबारो में कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में भी दान दाताओ का नाम प्रमुखता से छपवा कर वह दान दाताओ का किंचित आभार व्यक्त करना न भूलता था. उसकी लोगों से संबंध बनाने की योग्यता असाधारण थी.कार्यक्रम के बाद बचे हुये चंदे से पार्टी करने से उसे जरा भी गुरेज न था. ऐसी पार्टियो में वह मित्रों को भी बुलाया ही करता था. वह कहता यह सेवा की मेवा है. पढ़ने में वह एवरेज ही रहा होगा पर परीक्षा में येन केन प्रकारेण उसे ठीक ठाक नम्बर मिल ही जाते थे.
समय पंख लगाकर उड़ता गया. कालेज की शिक्षा पूरी कर सब अपनी अपनी जिंदगी की दौड़ में भाग लिये. किसी को कहीं नौकरी मिल गई तो किसी को कहीं. मित्रों के विवाह हो गये. जब तब दीपावली आदि त्यौहारो की छुट्टियों में मित्र कभी शहर लौटते तो जो पुराने साथी मिलते उनसे बाकी सबके हाल चाल पता होते. ऐसे ही कभी पता चला कि प्रभु की कहीं भी नौकरी नही लग सकी थी पर वह शहर छोड़कर जो गया तो कभी वापस ही नही लौटा. न ही किसी को कभी उसके विषय में कोई जानकारी मिल सकी कि वह कहां है क्या कर रहा है ?
समय की द्रुत गति हमें पछाड़ती रही. पुराने साथियो के मिलने पर किसकी कहां नौकरी लगी. कब कहां शादी हुई से बदलती हुई बातो की विषय वस्तु किसके बच्चे कहां क्या कर रहे हैं ? कौन, कब रिटायर होकर कहां बस रहा है तक आ पहुंची. फेसबुक से कई बिछुड़े साथियो को ढ़ूंढ़ निकाला गया. कालेज मेट्स के व्हाट्स अप ग्रुप बन गये.
सेवानिवृति के बाद टी वी देखने के चैनल्स बदल गये थे. फिल्मो की जगह अधिक समय आस्था और संस्कार चैनल्स के प्रवचनो में गुजरने लगा था. सेवा निवृति से एक साथ बड़ी राशि मिली. बच्चो की जबाबदारियां पूरी हो चुकी थीं. तो पत्नी ने सुझाया क्यो न कुछ पूंजी किसी सेवाश्रम को दान दी जाये. बात अच्छी लगी. टीवी पर दिखाये जा रहे प्रभुसेवा धाम का नाम. पता. बैंक खाता नम्बर नोट किया. दान राशि बैंक में जमा कर संतोष अनुभव किया. तीसरे ही दिन डाक से रसीद आ गई. साथ ही संस्थान की पत्रिका प्रभु कृपा और मिश्री के प्रसादम का पेकेट और कभी संस्थान का सेवाश्रम भ्रमण करने का प्रस्ताव भी था. मैं प्रभावित हुआ. फिर तो आये दिन किसी मधुर कण्ठी युवती का फोन आने लगा जो किसी न किसी प्रयोजन से और चंदा भेजने का आग्रह करती.
संयोगवश एक बार एक विवाह आयोजन के सिलसिले में उस महानगर जाना हुआ जहां प्रभुसेवा धाम था. सोचा चलो देख ही आयें. कि हमारे दान का किस तरह सदुपयोग हो रहा है. हमने मात्र एक फोन किया और संस्थान की गाड़ी बताये हुये समय पर हमें लेने हमारे होटल आ गई. एक सेवा दात्री युवा लड़की ने कार का दरवाजा खोल हमें बैठाया और सेवा गतिविधियो की जानकारी देती हुई हमें संस्थान तक ले आई. फिर एक अन्य सेविका हमें सेवाधाम में भर्ती मरीजो से मिलवाती हुई गुरु जी के केंद्रीय आश्रम ले आई. हम सपत्नीक प्रभावित थे और गुरूजी से मिलने के इंतजार में पंक्ति बद्ध थे.हमारानम्बर आया तो प्रभु श्री से हमारा साक्षात्कार हुआ. अरे तुम ! प्रभु श्री ने कहा. प्रभुश्री मेरे गले लग गये. उनके आस पास के सेवादार चौंके. मैं हतप्रभ हुआ. यह तो वही कालेज वाला प्रभु है !
प्रभु मुझे अपने आवास पर ले गया जिसे वह कुटिया कह रहा था. उसने बताया कि जब कालेज से निकलने पर उसे नौकरी नही मिल सकी तो वह यहां राजधानी चला आया. और यह सेवा प्रकल्प प्रारंभ किया.सरकारी अनुदान योजनाओ का लाभ मिला और एक नेता जी व एक सेठ जी के सहयोग से इस जमीन पर यह आश्रम खड़ा किया. टैक्स की छूट के लिये बड़े लोग व कार्पोरेट जगत खूब दान देते हैं. उस राशि को सुनियोजित तरीके सदुपयोग करके सेवा भी करता हूं और उसी में मेवा भी खाता हूं. एक ही बेटी है जिसकी शादी कर दी है और उसके लिये भी केटरेक्ट के हर आपरेशन पर शासकीय अनुदान की योजना का लाभ उठाते हुये नैना सेवा चिकित्सालय खोल दिया है. ये संस्थान अनेको युवाओ को रोजगार दे रहे हैं. जन सेवा कर रहे हैं और लोगो की परमार्थ के लिये दान देने की भावना का उपयोग करते हुये शासकीय स्वास्थ्य योजनाओ में भी सहयोग कर रहे हैं. प्रभु से बिदा लेते हुये मेरे मुंह में उसकी सेवा की मेवा की मिश्री का प्रसादम था और मैं कुछ बोलने की स्थिति में नही था.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – ताकि स्मरण रहे-
सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।
सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?
जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख सुख क्या है?।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 153 ☆
आलेख – सुख क्या है?
हम सब सदैव सुख प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते हैं। सभी चाहते हैं कि उन्हें सदा सुख ही मिले, कभी दु:खों का सामना न करना पड़े,हमारी समस्त अभिलाषायें पूर्ण होती रहें, परन्तु ऐसा होता नहीं। अपने आप को पूर्णत: सुखी कदाचित् ही कोई अनुभव करता हो।
जिनके पास पर्याप्त धन-साधन, श्रेय-सम्मान सब कुछ है, वे भी अपने दु:खों का रोना रोते देखे जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों है ? क्या कारण है कि मनुष्य चाहता तो सुख है; किन्तु मिलता उसे दु:ख है। सुख-संतोष के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हुए हमें अनेकानेक दु:खो एवं अभावों का सामना करना पड़ता है। आज की वैज्ञानिक समुन्नति से, पहले की अपेक्षा कई गुना सुख के साधनों में बढ़ोत्तरी होने के उपरान्त भी स्थायी सुख क्यों नहीं मिल सका ? जहाँ साधन विकसित हुए वहीं उनसे ज्यादा जटिल समस्याओं का प्रादुर्भाव भी हुआ। मनुष्य शान्ति-संतोष की कमी अनुभव करते हुए चिन्ताग्रस्त एवं दु:खी ही बना रहा। यही कारण है कि मानव जीवन में प्रसन्नता का सतत अभाव होता जा रहा है।
इन समस्त दु:खों एवं अभावों से मनुष्य किस प्रकार मुक्ति पा सकता है, प्राचीन ऋषियों-मनीषियों एवं भारतीय तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इसके लिए कई प्रकार के मार्गों का कथन किया है, जो प्रत्यक्ष रूप से भले ही प्रतिकूल व पृथक् प्रतीत होते हों; परन्तु सबका- अपना-अपना सच्चा दृष्टिकोण है। एक मार्ग वह है जो आत्मस्वरूप के ज्ञान के साथ-साथ भौतिक जगत् के समस्त पदार्थों के प्रति आत्मबुद्धि का भाव रखते हुए पारलौकिक साधनों का उपदेश देता है। दूसरा मार्ग वह है जो जीवमात्र को ईश्वर का अंश बतलाकर, जीवन में सेवा व भक्तिभाव के समावेश से लाभान्वित होकर आत्मलाभ की बात बतलाता है। तीसरा मार्ग वह है जो सांसारिक पदार्थों एवं लौकिक घटनाक्रमों के प्रति सात्विकता पूर्ण दृष्टि रखते हुए, उनके प्रति असक्ति न होने को श्रेयस्कर बताता है। अनेक तरह के मतानुयायियों ने अपने अपने विचार से ईश्वर का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का बतलाया है, जिसके कारण मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है।
जीवन जीना एक कला है। जी हां, जीवन का सही अर्थ समझना, उसको सही अर्थों में जीना, जीवन में सार्थक काम करना ही जीवन जीने की कला है। जीने के लिए तो कीट पतंगे, पशु-पक्षी भी जीवन जीते हैं, किंतु क्या उनका जीवन सार्थक होता है ? मनुष्य के जीवन में और अन्य प्राणियों के जीवन में यही अंतर हैं। इसलिए कहा गया है कि जीवन जीना एक कला है। हम अपने जीवन को कैसे सजाते-संवारते हैं, कैसे अपने उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित करते हैं, हमारे काम करने का तरीका क्या है, हमारी सोच कैसी है, समय के प्रति हम कितने सचेत हैं, ये सभी बातें जीवन जीने की कला के अंग हैं। ये सभी बातें हमारे जीवन को कलात्मक रूप देकर उसे संवार सकती हैं और उन पर ध्यान न देने से वे उसे बिगाड़ भी सकती हैं।
जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण यदि स्पष्ट नहीं है तो हमने जीवन को जिया ही नहीं। आम व्यक्ति जीवन को सुख से जीना ही ‘जीवन जीना’ मानता है। अच्छी पढ़ाई के अवसर मिले, अच्छी नौकरी मिले, सुंदर पत्नी हो, रहने को अच्छा मकान हो, सुख-सुविधाएं हों, बस और क्या चाहिए जीवन में ? पर होता यह है कि सबको सब कुछ नहीं मिलता। चाहने से कभी कुछ नहीं मिलता। कुछ पाने के लिए मेहनत और संघर्ष करना जरूरी होता हैं और लोग वही नहीं करना चाहते। बस पाना चाहते है-किसी शॉर्टकट से और जब नहीं मिलता तो जीवन को कोसते हैं-अरे क्या जिंदगीं हैं ? बस किसी तरह जी रहे हैं-जो पल गुजर जाए वही अच्छी हैं। ‘सच मानिये आम आदमी आपसे यही कहेगा, क्योंकि उसने जीवन का अर्थ समझा ही नहीं। बड़ी मुश्किल से ही कोई मिलेगा, जो यह कहे कि ‘मैं बड़े मजे से हूँ। ईश्वर की कृपा है। जीवन में जो चाहता हूं-अपनी मेहनत से पा लेता हूँ। संघर्षों से तो मैं घबराता ही नहीं हूँ।’ और ऐसे ही व्यक्ति जीवन में सफल होते हैं। किसी ने ठीक कहा है, ‘संघर्षशील व्यक्ति के लिए जीवन एक कभी न समाप्त होने वाले समारोह या उत्सव के समान है।’
मनुष्य जीवन कर्म करने और मोक्ष की तरफ कदम बढ़ाने के लिए है। कदम उत्साहवर्धक होने चाहिए, अपने जीवन के प्रति रुचि होनी चाहिए। जीवन में कष्ट किसे नहीं भोगना पड़ता। आनंद तो इन कष्टों पर विजय पाने में हैं। कोई कष्ट स्थायी नहीं होता। वह केवल डराता है। हमारी सहनशीलता और धैर्य की परीक्षा लेता है। अच्छा जीवन, ज्ञान और भावनाओं तथा बुद्धि और सुख दोनों का सम्मिश्रण होता है। इसका अर्थ है कि जहां हमें अच्छा ज्ञान अर्जित करना चाहिए, वहीं हमारे विचार और भावनाएं भी शुद्ध और निर्मल हों। तब हमारी बुद्धि भी हमारा साथ देगी और हमें सच्चा सुख मिलेगा।
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय संस्मरण ‘पुस्तक दिवस पर एक पुस्तक प्रेमी की याद…’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)
☆ संस्मरण ☆ पुस्तक दिवस पर एक पुस्तक प्रेमी की याद… ☆ श्री अजीत सिंह ☆
परिजनों, मित्रों आदि से बातचीत के लिए तो अनेकों संपर्क साधन आ गए हैं, पर अपने शहर की जीवनधारा का पूर्ण परिचय, खास तौर पर अनजान व्यक्तियों की दिल छूने वाली कहानियां, तो अखबार से ही मिल पाती है।
कुछ ऐसी ही कहानी हिसार की प्रसिद्ध वर्मा न्यूज एजेंसी के मालिक प्रभुदयाल वधवा की है, जो यूं तो इन दिनों कनाडा के शहर टोरंटो में परिवार से अलग वैरागी जीवन बिता रहे हैं, पर हिसार को वे भूल ही नहीं पाते। बाहर जाने पर घर की याद कुछ ज़्यादा ही आती है।
शहर और यहां के लोगो का हाल जानने के लिए वे सांध्य दैनिक नभ छोर का ई संस्करण ज़रूर पढ़ते हैं। समाचार पत्र का लिंक उन्हे मित्र दीपक वधवा की तरफ से कनाडा में बड़े सवेरे मिलता है। वधवा जी को किसी का लेख अच्छा लगे तो नंबर ढूंढ कर उन्हे फोन करते हैं और लंबी बात करते हैं।
प्रभुदयाल वधवा से मेरी मुलाक़ात भी नभ छोर में पितृ दिवस, फादर्स डे, पर प्रकाशित …. तीन लकीरें, तीन वचन, पिता के नाम… शीर्षक के मेरे लेख के माध्यम से हुई जिसके अंत में मेरा फोन नंबर दिया गया था। उन्हे लेख पसंद आया, फोन मिलाया और लेख की प्रशंसा के बाद अपने पिता से जुड़े बचपन के किस्से भी सुनाने लगे।
कहने लगे राजनैतिक नेताओं की खबरें उन्हे पसंद नहीं हैं। वे फीचर और साहित्यिक समाचार पसंद करते हैं। उन्हे ऐसे लेख खास तौर पर पसंद है जो आम आदमी की बात करते हैं और लेखन का स्टाइल साहित्यिक होता है।
नभ छोर में प्रकाशित मेरे कई लेखों का उन्होंने हवाला दिया। कमलेश भारतीय द्वारा प्रमोद गौरी व अन्य परिचितों व अपरिचितों के इंटरव्यू का ज़िक्र किया।
उनका मानना है कि वर्मा न्यूज एजेंसी ने हिसार के लोगों के जीवन में शिक्षा और साहित्य के के प्रति रुचि पैदा करने में उल्लेखनीय योगदान किया है।
वधवा हर साल एक या दो बार हिसार आते हैं। एजेंसी का काम अब उनकी बेटी कुमारी वीना देखती हैं जो एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं।
वधवा के पास भारत और कनाडा दोनों देशों की नागरिकता है। कनाडा में सरकार उन्हे बुढ़ापा पेंशन देती है और उन्हें सरकार की तरफ से ही एक रिहायशी मकान भी मिला हुआ है। वहां भी वे नई पुरानी किताबों का ही कारोबार करते हैं । टोरंटो की फ्ली मार्केट में, जो केवल शनिवार और रविवार को ही लगती है, वहां उन्होंने एक दुकान ली हुई है। उनके पास विभिन्न विषयों की लगभग 50 हज़ार पुस्तकें हैं। 40, कार्ल हॉल रोड, टोरंटो स्थित यह दुकान भी वर्मा एजेंसी हिसार के नाम से जानी जाती है।
“मैं बिना पैसे के कारोबार करने वाला व्यापारी हूं। व्यापार पैसे से नहीं, ज़ुबान से होता है।
बिजनेस को मैंने सेवा समझ कर किया है, और अच्छा चला है। अगर कोई पाठक किसी पुस्तक की मांग करता है तो मैं दुनिया के किसी भी हिस्से से उसे वह पुस्तक लाकर दूंगा, चाहे इसमें मुझे घाटा ही उठाना पड़े”।
1947 में भारत विभाजन के बाद प्रभुदयाल वधवा का परिवार रेवाड़ी में आकर बसा। उस समय उनकी उम्र दो साल की थी। पढ़ाई और कारोबार के सिलसिले में वे जालंधर, दिल्ली और हिसार होते हुए बरसों पहले कनाडा पहुंचे। पुस्तक प्रेम जो बचपन में मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान से शुरू हुआ था, साथ ही चल रहा है। रेवाड़ी और दिल्ली में उनका आशा पब्लिकेशन नाम से पब्लिशिंग हाउस हुआ करता था जो अब बन्द हो चुका है।
“पुस्तकों में आपकी हर समस्या का हल है। मुझे जब कोई समस्या घेरती है तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ता हूं। मुझे समाधान मिल जाता है”।
वधवा गुरुद्वारों में शबद कीर्तन के लिए भी जाते हैं। वे कई साल गुरुद्वारे में पाठी का काम भी करते रहे।
मेडिकल कॉलेज रोहतक के सुप्रसिद्ध प्रोफेसर डॉ विद्यासागर का उदाहरण देते हुए वधवा कहते हैं, मदद करनी हो तो अनजान की करो, स्लिप लेकर आने वाले की नहीं”।
उनका परिवार अमरीका में विभिन्न शहरों में रहता है पर वे सबसे अलग कनाडा के टोरंटो शहर में वैराग्य जीवन बिता रहे हैं , पुस्तक प्रेम और जनसेवा को लेकर।
“मैं समझौता नहीं करता। जो मेरी आत्मा कहती है, वही करता हूं”।
वे कृष्णमूर्ति और ओशो के अध्यात्म से प्रभावित हैं और कबीर के मुरीद हैं। कबीर का एक दोहा उनका ध्येय वाक्य जैसा है:
कबीरा गृह करै तो धर्म कर,
नहीं तो कर बैराग।
बैरागी बन्धन करै,
ताको बड़े अभाग।।
नभ छोर के प्रधान संपादक ऋषि सैनी को वे ज़मीन से जुड़ा, दमदार स्वनिर्मित इंसान मानते हैं जिसके कारण यह सांध्य दैनिक बड़े बड़े समाचार पत्रों के सामने खड़ा है।
“नभ छोर मुझे रोज़ाना हिसार के बदलते जीवन का परिचय कराता है। दुनिया देखने की चाह और रोज़गार हमें कहां ले आया पर दिल अभी भी हिसार और वर्मा न्यूज एजेंसी में अटका है। नभ छोर मेरे दिल की डोर है”।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 135 ☆ जाग्रत देवता ☆
सनातन संस्कृति में किसी भी मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही मूर्ति जाग्रत मानी जाती है। इसी अनुक्रम में मुद्रित शब्दों को विशेष महत्व देते हुए सनातन दर्शन ने पुस्तकों को जाग्रत देवता की उपमा दी है।
पुस्तक पढ़ी ना जाए, केवल सजी रहे तो निर्रथक हो जाती है। पुस्तकों में बंद विद्या और दूसरों के हाथ गये धन को समान रूप से निरुपयोगी माना गया है। पुस्तक जाग्रत तभी होगी जब उसे पढ़ा जाएगा। पुस्तक के संरक्षण को लेकर हमारी संस्कृति का उद्घोष है-
तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात। मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।
पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग) शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।’
संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है। पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।
पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है, विज्ञान अपंग है, विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि पुस्तकरूपी दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ। अभिनेत्री एमिला क्लार्क के शब्दों में, ‘नेवर ऑरग्यू विथ समवन हूज़ टीवी इज़ बिगर देन देअर बुकशेल्फ।’ छोटे-से बुकशेल्फ और बड़े-से स्क्रिन वाले विशेषज्ञों की टीवी पर दैनिक बहस के इस दौर में अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
केवल देह नहीं होता मनुष्य,
केवल शब्द नहीं होती कविता,
असार में निहित होता है सार,
शब्दों के पार होता है एक संसार,
सार को जानने का
साधन मात्र होती है देह,
उस संसार तक पहुँचने का
संसाधन भर होते हैं शब्द,
सार को, सहेजे रखना मित्रो!
अपार तक पहुँचते रहना मित्रो!
मुद्रित शब्दों का ब्रह्मांड होती हैं पुस्तकें। असार से सार और शब्दों के पार का संसार समझने का गवाक्ष होती हैं पुस्तकें। शब्दों से जुड़े रहने एवं पुस्तकें पढ़ते रहने का संकल्प लेना, कल सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक दिवस की प्रयोजनीयता को सार्थक करेगा।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दोस्ती और क़ामयाबी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 129 ☆
☆ दोस्ती और क़ामयाबी ☆
‘क़ामयाब होने के लिए अच्छे मित्रों की आवश्यकता होती है और अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की’ चाणक्य की इस उक्ति में विरोधाभास निहित है। अच्छे दोस्तों पर आप स्वयं से अधिक विश्वास कर सकते हैं। वे विषम परिस्थितियों में आपकी अनुपस्थिति में भी आपके पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं और आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। सो! क़ामयाब होने के लिए उनकी दरक़ार है। परंतु यदि आप अधिक क़ामयाब होना चाहते हैं, तो आपको शत्रुओं की आवश्यकता होगी, क्योंकि वे आपके शुभचिंतक होते हैं और आपकी ग़लतियों व दोषों से आपको अवगत कराते हैं; दोष-दर्शन कराने में वे अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं। इसलिए आप उनके योगदान को कैसे नकार सकते हैं। कबीरदास जी ने भी ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छुआए/ बिन साबुन, पानी बिनु, निर्मल करै सुभाय’ के माध्यम से निंदक को अपने आंगन अथवा निकट रखने का संदेश दिया है, क्योंकि वह नि:स्वार्थ भाव से आपका स्वयं से साक्षात्कार कराता है; आत्मावलोकन करने को विवश करता है। वास्तव में अधिक शत्रुओं का होना क़ामयाबी की सीढ़ी है। दूसरी ओर यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि जिसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं; उसके जीवन में कम से कम शत्रु होंगे। अक्सर झगड़े तो तुरंत प्रतिक्रिया देने के कारण होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि जीवन में मतभेद भले ही हों; मनभेद नहीं, क्योंकि मनभेद होने से समझौते के अवसर समाप्त हो जाते हैं। इसलिए संवाद करें; विवाद नहीं, क्योंकि विवाद बेसिर-पैर का होता है। उसका संबंध मस्तिष्क से होता है और उसका कोई अंत नहीं होता। संवाद से सबसे बड़ी समस्या का समाधान भी निकल आता है और उसे संबंधों की जीवन-रेखा कहा जाता है।
सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अपनी भावनाएं दूसरों से सांझा करना चाहता है, क्योंकि वह विचार-विनिमय में विश्वास रखता है। परंतु आधुनिक युग में परिस्थितियां पूर्णत: विपरीत हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था के स्थान पर एकल परिवार व्यवस्था काबिज़ है और पति- पत्नी व बच्चे सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। संबंध-सरोकार समाप्त होने के कारण वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। सिंगल- पेरेन्ट का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। दोनों के अहं टकराते हैं और झुकने को कोई भी तैयार नहीं होता। सो! ज़िंदगी ठहर जाती है और नरक से भी बदतर हो जाती है। सभी सुंदर वस्तुएं हृदय से आती है और बुरी वस्तुएं मस्तिष्क से आती हैं और आप पर आधिपत्य स्थापित करती हैं। इसलिए मस्तिष्क को हृदय पर हावी न होने की सीख दी गई है। इसी संदर्भ में मानव को विनम्रता की सीख दी गयी है। ‘अदब सीखना है, तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, झुक कर चलती है।’ इसलिए महापुरुष सदैव विनम्र होते हैं और स्नेह व सौहार्द के पक्षधर होते हैं।
भरोसा हो तो चुप्पी भी समझ में आती है अन्यथा शब्दों के ग़लत व अनेक अर्थ भी निकलते हैं। इसलिए मौन को संजीवनी व नवनिधि कहा गया है। इससे सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है। मानव को रिश्तों की अहमियत स्वीकारते हुए सबको अपना हितैषी मानना चाहिए, क्योंकि वे रिश्ते बहुत प्यारे होते हैं, जिनमें ‘न हक़, न शक़, न अपना-पराया/ दूर-पास, जात-जज़बात हो/ सिर्फ़ अपनेपन का एहसास ही एहसास हो।’ वैसे जब तक मानव को अपनी कमज़ोरी का पता नहीं लग जाता; तब तक उसे अपनी सबसे बड़ी ताकत के बारे में भी पता नहीं चलता। यहां चाणक्य की युक्ति अत्यंत कारग़र सिद्ध होती है कि अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की आवश्यकता होती है। वास्तव में वे आपके अंतर्मन में संचित शक्तियों का आभास से दिलाते हैं और आप दृढ़-प्रतिज्ञ होकर पूरे साहस से मैदान-ए-जंग में कूद पड़ते हैं।
मानव को कभी भी अपने हुनर पर अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि पत्थर भी जब पानी में गिरता है, तो अपने ही बोझ से डूब जाता है। ‘शब्दों में भी तापमान होता है; जहां वे सुक़ून देते हैं; जला भी डालते हैं।’ सो! यदि संबंध थोड़े समय के लिए रखने हैं, तो मीठे बन कर रहिए; लंबे समय तक निभाने हैं, तो स्पष्टवादी बनिए। वैसे संबंध तोड़ने तो नहीं चाहिए, लेकिन जहां सम्मान न हो; वहां जोड़ने भी नहीं चाहिए। इसलिए ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि अक्सर वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। दर्द कितना खुशनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं और दौलत कितनी बदनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को भूल जाते हैं। वास्तव में ‘ओस की बूंद-सा है/ ज़िंदगी का सफ़र/ कभी फूल में, कभी धूल में।’ परंतु ‘उम्र थका नहीं सकती/ ठोकरें उसे गिरा नहीं सकतीं/ अगर जीतने की ज़िद्द हो/ तो परिस्थितियां उसे हरा नहीं सकती’, क्योंकि शत्रु बाहर नहीं; हमारे भीतर हैं। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह व घृणा को बाहर निकाल फेंकना चाहिए और शांत भाव से जीना चाहिए। यह प्रामाणिक सत्य है कि जो व्यक्ति इनके अंकुश से बच निकलता है; अहं उसके निकट भी नहीं आ सकता। ‘अहंकार में तीनों गए/ धन, वैभव, वंश। यकीन न आए तो देख लो/ रावण, कौरव, कंस।’ जो दूसरों की सहायता करते हैं; उनकी गति जटायु और जो ज़ुल्म होते देखकर आंखें मूंद लेते हैं; उनकी गति भीष्म जैसी होती है।
‘उदाहरण देना बहुत आसान है और उसका अनुकरण करना बहुत कठिन है’ मदर टेरेसा की यह उक्ति बहुत सार्थक है। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् दूसरों को उपदेश देना बहुत सरल है, परंतु उसे धारण करना अत्यंत दुष्कर। मुश्किलें जब भी जवाब देती हैं, हमारा धैर्य भी जवाब दे जाता है। ईश्वर सिर्फ़ मिलाने का काम करता है; संबंधों में दूरियां-नज़दीकियां बढ़ाने का काम तो मनुष्य करता है। जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं। प्रथम हम बिना सोचे-समझे कार्य करते हैं, दूसरे जब हम केवल सोचते हैं और कर्म नहीं करते। यह दोनों स्थितियां मानव के लिए घातक हैं। इसलिए ‘कभी फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर कीजिए/ दूसरों को आईना दिखाने की आदत छूट जाएगी।’ जीवन बहती नदी है। अत: हर परिस्थिति में आगे बढ़ें, क्योंकि जहां कोशिशों का अंत होता है; वहां नसीबोंं को भी झुकना पड़ता है। क़ामयाब होने के लिए रिश्तों का निर्वहन ज़रूरी है, क्योंकि रिश्ते अंदरूनी एहसास व आत्मीय अनुभूति के दम पर टिकते हैं। जहां गहरी आत्मीयता नहीं, वह रिश्ता रिश्ता नहीं; मात्र दिखावा हो सकता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्ते खून से नहीं; परिवार से नहीं; मित्रता व व्यवहार से नहीं; सिर्फ़ आत्मीय एहसास से वहन किए जा सकते हैं। यदि परिवार में विश्वास है, तो चिंताओं का अंत हो जाता है; अपने-पराए का भेद समाप्त हो जाता है। सो! ज़िंदगी में अच्छे लोगों की तलाश मत करो; ख़ुद अच्छे हो जाओ। शायद! किसी दूसरे की तलाश पूरी हो जाए। इंसान की पहचान तो चेहरे से होती है, परंतु संपूर्ण पहचान विचार व कर्मों से होती है। अतः में मैं यह कहना चाहूंगी कि दुनिया वह किताब है, जो कभी पढ़ी नहीं जा सकती, लेकिन ज़माना वह अध्याय है, जो सब कुछ सिखा देता है। ज़िंदगी जहां इम्तिहान लेती है, वहीं जीने की कला भी सिखा देती है। वेद पढ़ना आसान हो सकता है, परंतु जिस दिन आपको किसी की वेदना को पढ़ना आ गया; आप प्रभु को पा जाते हैं। वैसे भौतिक सुख- सम्पदा पाना बेमानी है। मानव की असली कामयाबी प्रभु का सान्निध्य प्राप्त करने में है, जिसके द्वारा मानव को कैवल्य अर्थात् अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अंतिम कड़ी।)
☆ आलेख ☆ पनवाड़ी (अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆
समय के बदलाव के साथ ही साथ पनवाड़ियो ने भी अपने रंग ढंग बदल लिए। पहले इस व्यापार में “चौरसिया” लोग ही कार्यरत थे। पान के शौकीन अधिकतर पूर्वी राज्यों तक ही सीमित थे। धीरे धीरे उत्तर और पश्चिम दिशा में भी इसके सेवन करने वालों की संख्या में वृद्धि होती गई।
हमारा परिवार उत्तर भारत के होने के कारण पान का सेवन नहीं करता था। सत्तर के दशक में शादी विवाह के समय जरूर इसका एक काउंटर लगता था। कॉलेज समय तक इसका स्वाद हमने नही चखा था। पान खाने वाले को “बिगड़ैल” की श्रेणी में गिना जाता था।
आज पनवाड़ी माहौल के अनुसार “बीटल” लिखने लग गए हैं। पान की कीमत भी दस रुपे से हज़ार तक में होती हैं। चांदी के वर्क में लिपटा हुआ “बीड़ा” कहीं कहीं सोने के वर्क में भी उपलब्ध करवाया जाता हैं। “पैसा फैंको और तमाशा देखो” बर्फ, आग के शोलों वाला पान और ना जाने कितने नए तरीकों से पान आपकी जिव्हा के स्वाद के लिए परोसा जाता हैं।
कुछ पान वाले इसलिए भी मशहूर हो जाते हैं कि उनकी दुकान पर पान खाए हुए बड़े मंत्री पद पर आसीन हो गए हैं। उनकी पान खाते हुए की फोटो लगा कर व्यवसाय वृद्धि करते हैं, और पुरानी उधारी का जिक्र भी कर देते हैं। सही भी है, क्या बिना उधारी चुकाए ही बड़ा आदमी बना जा सकता हैं?
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 134 ☆ असार का सार ☆
मनुष्य के मानस में कभी न कभी यह प्रश्न अवश्य उठता है कि उसका जन्म क्यों हुआ है? क्या केवल जन्म लेने, जन्म को भोगने और जन्म को मरण तक ले जाने का माध्यम भर है मनुष्य?
वस्तुत: जीवन समय का साक्षी बनने के लिए नहीं है अपितु समय के पार जाने की यात्रा है। अपार सृष्टि के पार जाने का, मानव देह एकमात्र अवसर है, एक मात्र माध्यम है। यह सत्य है कि एक जीवन में कोई बिरला ही पार जा पाता है, तथापि एक जीवन में प्रयास कर अगले तिरासी लाख, निन्यानवे हजार, नौ सौ निन्यानवे जन्मों के फेरे से बचना संभव है। मानव देह में मिले समय का उपयोग न हुआ तो कितना लम्बा फेरा लगाकर लौटना पड़ेगा!
जीवन को क्षणभंगुर कहना सामान्य बात है। क्षणभंगुरता में जीवन निहारना, असामान्य दर्शन है। लघु से विराट की यात्रा, अपनी एक कविता के माध्यम से स्मरण हो आती है-
जीवन क्षणभंगुर है;
सिक्का बताता रहा,
समय का चलन बदल दिया;
उसने सिक्का उलट दिया…,
क्षणभंगुरता में ही जीवन है;
अब सिक्के ने कहा,
शब्द और अर्थ के बीच
अलख दृष्टि होती है,
लघु से विराट की यात्रा
ऐसे ही होती है..।
ज्ञान मार्ग का जीव मनुष्येतर जन्मों को अपवाद कर देता है, एक छलांग में इन्हें पार कर लौट आता है फिर मनुज देह को धारण करने, फिर पार जाने के लिए।
मनुष्य जाति का आध्यात्मिक इतिहास बताता है कि ज्ञानशलाका के स्पर्श से शनै:-शनै: अंतस का ज्ञानचक्षु खुलने लगता हैं। अपने उत्कर्ष पर ज्ञानचक्षु समग्र दृष्टिवान हो जाता है महादेव-सा। यह दर्शन सम्यक होता है। सम्यक दृष्टि से जो दिखता है, अद्वैत होता है विष्णु-सा। अद्वैत में सृजन का एक चक्र अंतर्निहित होता है ब्रह्मा-सा। ज्ञान मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश-सा कर सकता है। सर्जक, सम्यक, जागृत होना, मनुष्य को त्रिदेव कर सकता है।
जिसकी कल्पना मात्र से शब्द रोमांचित हो जाते हैं, देह के रोम उठ खड़े होते हैं, वह ‘त्रिदेव अवस्था’ कैसी होगी! भीतर बसे त्रिदेव का साक्षात्कार, द्योतक है सृष्टि के पार का।
असार है संसार। असार का सार है मनुष्य होना। सार का स्वयं से साक्षात्कार कहलाता है चमत्कार। यह चमत्कार दही में अंतर्निहित माखन-सा है। माखन पाने के लिए बिलोना तो पड़ेगा। यशोदा ने बिलोया तो साक्षात श्याम को पाया।
संभावनाओं की अवधि, हर साँस के साथ घट रही है। अपनी संभावनाओं पर काम आरंभ करो आज और अभी। असार से केवल ‘अ’ ही तो हटाना है। साधक जानता है कि अ से ‘आरंभ’ होता है। आरंभ करो, सार तुम्हारी प्रतीक्षा में है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, कि सहसा उस नीरव वातावरण में एक आवाज तैरती सुनाई दी।अरे ओ यायावर मानव!
कुछ पल मेरे पास रूक और मेरी भी राम कहानी सुनता जा और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा। ताकि जब मैं इस जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।
जब मैंने कौतूहल बस अगल बगल देखा तो वहीं पास में ही जड़ से कटे पड़े धराशाई वटवृक्ष से ये आवाज़ फिज़ा में तैर रही थी। और दयनीय अवस्था में गिरा पड़ा वह वटवृक्ष मुझसे आत्मिक संवाद करता अपनी राम कहानी सुनाने लगा था। मैंने जब ध्यानपूर्वक उसकी तरफ देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय अत्याचारों की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना जड़ से कटा गिरा पड़ा था और उसके पास ही उसकी अनेकों छोटी-छोटी शाखाएं भी कटी बिछी पड़ी थी।
वह धरती के सीने पर गिरा पड़ा था, बिल्कुल महाभारत के भीष्म पितामह की तरह, उसके चेहरे पर चिंता और विषाद की असीम रेखाएं खिंची पड़ी थी। वहीं पर उसके हृदय में और अधिक लोकोपकार न कर पाने की गहरी पीड़ा भी थी।
उसका हृदय तथा मन मानवीय अत्याचारों से दुखी एवं बोझिल था। उसने अपने जीवन काल के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा।
प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेरा जन्म एक महात्मा की कुटिया के प्रांगण के भीतर धरती की कोख से हुआ था। धरती की कोख में एक नन्हे बीज रूप में मैं पड़ा पड़ा ठंडी गर्मी सहता पड़ा हुआ था कि एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी फुहारों से तृप्त हो उस बीज से नवांकुर फूट पड़े थे।जब मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की निगाहें पड़ी,तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे थे। उन्होंने लोक कल्याण की भावना से मुझे उस कुटिया प्रांगण में रोप दिया था। वे रोज सुबह शाम पूजा वंदना के बाद बचे हुए अमृतमयी गंगाजल से मेरी जड़ों को सींचते तो उसकी शीतलता से मेरी अंतरात्मा निहाल हो जाती, और मैं खिलखिला उठता।।
इसी तरह समय अपनी मंथर गति से चलता रहा और समय के साथ मेरी आकृति तथा छाया का दायरा विस्तार लेता जा रहा था।इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया था।
मुझे तो पता ही नहीं चला, वे रोज कभी मेरी जड़ों में खाद पानी डाला करते, और कभी मेरी जड़ों पर मिट्टी डाल चबूतरा बना लीपा पोता करते, और परिश्रम करते करते जब थक कर बैठ जाते तो मेरी शीतल छांव से उनके मन को अपार शांति मिलती। मेरी शीतल घनेरी छांव उनकी सारी पीड़ा और थकान हर लेती। उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि का भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता।मेरा चेहरा चमक उठता और मेरी शाखाएं झुक झुक कर अपने धर्म पिता के गले में गल बहियां डालने को व्याकुल हो उठती। गुजरते हुए समय के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया। अब मैं जवान हो चला था, और मैंने हरियाली की एक चादर तान दी थी अपने धर्म पिता के कुटिया के उपर तथा सारे प्रांगण को अपनी सघन शीतल छांव से ढंक दिया था। मेरी शीतल छांव का एहसास धूप से जलते पथिक तथा मेरे पके फल खाते पंक्षियो के कलरव से सारा कुटिया प्रांगण गूंज उठता तो उसे सुनकर महात्मा जी का चेहरा अपने सत्कर्मों के आत्मगौरव से खिल उठता और उनके चेहरे का आभामंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता। और उनकी प्रेरणा मेरे सत्कर्मो की प्रेरक बना जाती। और मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट हो जाता। एक संत के सानिध्य का मेरी जीवन वृत्ति पर बड़ा ब्यापक असर पड़ा था। मेरी वृति भी लोकोपकारी हो गई थी। अब औरों के लिए दुख और पीड़ा सहने में ही मुझे आनंद मिलने लगा था। मैं लगातार कभी बर्षा कभी गर्मी की लू कभी पाला और तुषार की प्राकृतिक आपदाओं को झेलते हुए भी निर्विकार भाव से तन कर खड़ा रहा आंधियों तूफानों के झंझावातों को झेल लोककल्याण हेतु तन कर खड़ा लड़ता रहा। अब औरों के लिए खुद पीड़ा सहने में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी।और महात्मा जी ने मेरी जड़ों के नीचे बने चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था। और लोगों का आना-जाना और सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक जीवन का अंग बन गया था। मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी और सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते देखा है। और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता पर इस नश्वर संसार से विदा होते भी देखा। अब मेरी उस छाया के नीचे बने चबूतरे को महात्मा जी का समाधि स्थल बना दिया गया था। तब से अब तक महात्मा जी के सानिध्य में बिताए पलों को अपने स्मृतिकोश में सहेजे, लोककल्याण की आस अपने हृदय में लिए उस समाधि को अपनी घनी शीतल छांव में आच्छादित किए वर्षों से ज्यों का त्यों खड़ा हूं। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। मैं कभी पंछियों का आश्रय बना, तो कभी थके-हारे पथिक की शरणस्थली ।
पर हाय ये मेरी किस्मत! ना जाने क्यूं? ये मानव मुझसे रूठ गया। यह मुझे नहीं पता। वो अब तक अपने तेज धार कुल्हाडे से मुझे चोट पहुंचाता रहा, मैं शांत हो उस दर्द और पीड़ा को सहता रहा और वो अपना स्वार्थ सिद्धि करता रहा।
परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर दी, और मेरी सारी जड़े काट कर मुझे मरने पर विवश कर दिया। क्यों कि उन बेदर्द इंसानों ने वहां भव्य मंदिर को बनाने का निर्णय ले लिया है, इस क्रम में पहली बलि उन्होंने मेरी ही ली है।
और इस प्रकार मैंने सोचा कि जब मैं इस जग से जा ही रहा हूं तो क्यों न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता जाऊं, ताकि मरते समय मेरे मन की मलाल पीड़ा और घुटन थोड़ी कम हो जाय, और सीने का बोझ थोडा़ हल्का हो जाय। मैं अपने आखिरी समय में अल्पायु मृत्यु को प्राप्त हो, लोगों की और सेवा न कर पाने की टीस मन में लिए जा रहा हूं। मेरा तुमसे यही निवेदन है कि मेरी पीड़ा और दर्द से सारे समाज को अवगत करा देना। ताकि यह मानव समाज अब और हरे वृक्ष न काटे। इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते देते उस वृक्ष की आंखें छलछला उठी, उसकी जुबां ख़ामोश हो गई। वह वटवृक्ष मर चुका था, उस समाधि के वट वृक्ष की दयनीय स्थिति देखकर मेरा भावुक हृदय चीत्कार कर उठा था मैं इंसानी अत्याचारों का शिकार हुए उस धराशाई वटवृक्ष को निहार रहा था, अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहज असहाय हो कर।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ आलेख ☆ कहानी : एक पाठक की नज़र से ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
कहानी कहना मनुष्य का स्वभाव है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब कहानी सुनना पसंद करते हैं। कभी सुख तो कभी दुख। कभी धूप, कभी छांव। कहीं शहर, कहीं गांव। सबकी अपनी अपनी कहानी। अपनी अपनी व्यथा। अपने अपने छोटे छोटे सुख दुख। कथाकारों का इंद्रधपुषी संसार। सारी दुनिया के रंग समेटे हुए। कहीं मैदान तो कहीं पहाड़। कहीं कल कल बहती नदियां, कहीं सूखा उजाड़। कुछ कम, कुछ ज्यादा पर बहुत कुछ है कहानी में। हर कहानी कुछ कहती है ।
कथा साहित्य के पहले पहले कथाकार रहे माधव प्रसाद मिश्र जिनका उल्लेख कितने आह्लाद में भर देता है। और फिर चंद्रधर शर्मा गुलेरी और उनकी ‘उसने कहा था’ को कौन भूल सकता है? कोई नहीं। इस जैसी अमर प्रेम कथा की तो बात ही क्या? क्या आज तक हिंदी फिल्मों में ‘उसने कहा था’ जैसे प्रेम त्रिकोण और मूक बलिदान ही लगातार दोहराया नहीं जा रहा है? यह क्या कम उपलब्धि है?
हिंदी कथाकारों में एक और महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं -विष्णु प्रभाकर। उन्होंने हरियाणा के हिसार में अपने जीवन के बीस वर्ष बिताये और यहीं कलम का सफर शुरु किया। ‘धरती अब भी घूम रही है ‘ बहुचर्चित कहानी है विष्णु प्रभाकर की। ‘पुल टूटने से पहले’ कहानी उनके मुख से ही अहमदाबाद के अहिंदी भाषी लेखक शिविर में सुनने का सुअवसर आज भी याद है। ऐसे ही एक बार प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी के कहानी पाठ को सुनने का अवसर चंडीगढ़ में हरियाणा साहित्य अकादमी के लेखक कार्यशाला में मिला था और कहानी पाठ करने की कला भी सामने आई थी। भीष्म साहनी ने ‘लीला नंदलाल की ‘ कथा का पाठ किया था ऐसे किया था जैसे सबकुछ सामने नाटक की तरह घटित हो रहा हो। उनकी कहानी ‘ओ हरामजादे’ भी खूब चर्चित रही और ‘चीफ की दावत ‘ तो मन में बस ही गयी। भीष्म साहनी की अनेक कहानियां चर्चित हैं और बार बार पढ़ने को मन करता है। भीष्म साहनी के बड़े भाई और अपने समय के लोकप्रिय अभिनेता बलराज साहनी भी कथाकार व लेखक थे पर पंजाबी में ।
कथा साहित्य पर बात करनी हो तो निर्मल वर्मा का जिक्र न हो? ऐसा कैसे हो सकता है? निर्मल वर्मा के अनेक कथा संग्रह हैं और उनमें धूप के नन्हे खरगोश, प्रकृति और व्यक्ति का एक साथ मनोभाव, भाषा का बड़े संतुलित व सधे ढंग से उपयोग किया गया है। भाषा का जादू जिसे कह सकते हैं। ‘दूसरी दुनिया’ एक लम्बी कहानी है जिसमें पार्क में खेलती एक नन्ही बच्ची के मोहजाल में फंसा नायक कैसे उसकी दुनिया में धीरे धीरे प्रवेश कर जाता है और उसकी मां का सारा सच जान जाता है। यह निर्मल वर्मा ही कर सकते हैं। ‘लंदन की एक रात’ में देश विदेश के युवा की क्या स्थिति है, इसे सामने लाते हैं। उनके भाई रामकुमार वर्मा ने कलाकृतियां भी बनाईं और कलाकृतियों जैसी प्यारी कहानियां भी लिखीं ।
हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध करने वालों में कृष्ण वलदेव वैद व उनके छोटे भाई यशपाल वैद भी इसी तरह एक साथ याद आते हैं। हरियाणा के कथाकारों में स्वदेश दीपक, राकेश वत्स, पृथ्वीराज मोंगा और विकेश निझावन सब एक साथ अम्बाला शहर या छावनी से याद आते हैं। वैसे ज्ञानप्रकाश विवेक भी चर्चित कथाकारों में एक हैं। हरियाणा में एक समय वर्तिका नंदा और प्रतिभा कुमार नवलेखन प्रतियोगिताओं में कहानी पुरस्कार जीत कर चर्चित रही थीं लेकिन अब वर्तिका नंदा ‘तिनका तिनका डासना’ एक एनजीओ चला रही है तो प्रतिभा कुमार बहुत कम कहानिया लिख रही है। स्वदेश दीपक की कहानियों में मनोविज्ञान भी अपनी भूमिका निभाता है। आदमी के अंदर क्या और बाहर क्या और कैसे चल रहा है? कैसे वह चीते की फुर्ती से छलांग लगा देता है अचानक और किस तरह खलनायक बन जाता है। ‘महामारी’ ऐसी ही कहानी है। स्वदेश दीपक का नायक महंगाई, वृद्धावस्था और अकेलेपन से ग्रस्त है। आर्थिक अभाव से जूझते अपने माता पिता की विवशता समझते कैसे अपने ही बेटे पर हाथ उठा देता है, जो बेटा एक सप्ताह रहने आया था, वह तीन दिन में ही महामारी के चलते लौट जाता है। मां बाप का उत्साह भी खत्म हो जाता है। पुलिस में उच्चाधिकारी रहे और लाॅन टेनिस की उभरती खिलाड़ी के चर्चित प्रसंग पर भी कहानी लिखी थी और बाल भगवान् भी खूब विवाद में आई थी। ‘तमाशा’ का नाट्य रूपांतरण भी टीवी पर आया। स्वदेश दीपक बहुत खामोशी से विदा या गायब हो गये। उनके कथा साहित्य में दिये योगदान को भुलाया नहीं जा सकता ।
मोहन राकेश ने ही हिमाचल के धर्मपुर, सोलन और शिमला के वातावरण के साथ साथ विभाजन की व्यथा को बखूबी ‘मलबे का मालिक’ कहानी में दिखाया सफलतापूर्वक। ‘मंदी’ कहानी भी पर्यटन स्थलों के माध्यम से विश्व भर की मंदी तक सब पोल खोल देती है। ‘एक और जिंदगी’ अपने ही जीवन पर लिखी कहानी है। वैवाहिक जीवन की व्यथा और अलगाव चित्रित किया है। भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी जब पकड़ लिया जाता है और नीलामी होने के बाद जब पत्नी नीचे उतरती है तो उसे लगता है कि वह आखिरी सामान है जिसकी बोली लग रही है। जगदीश चंद्र वैद को कौन भूल सकता है? ग्राम्य जीवन के चितेरे और धरती धन न अपना उपन्यास से बहुचर्चित वैद ने कहानियां भी लिखीं और ‘पहली रपट’ कहानी सदैव याद रहती है। कृष्णा सोबती भी बेशक उपन्यासों ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ और,’मित्रो मरजानी’ के साथ साथ ‘जिंदगीनामा’ के लिए ज्यादा जानी जाती हैं लेकिन कहानियां भी खूब लिखीं। राजी सेठ ने लगातार कहानियां दीं। ‘गलत होता पंचतंत्र’, ‘क्योंकर’ और ‘तुम भी’ सहित अनेक कहानियां एक साथ याद आ रही हैं। ‘तुम भी’ में तो पति परिवार के लिए बोरियों में से अनाज चुराता है लेकिन बेटी की शादी के अवसर पर जब पत्नी चोरी के लिए कहती है तब वह सवाल उसके मन में उठता है कि क्या तुम भी? कथाकारों में बलवंत सिंह, जसवंत सिंह विरदी और डाॅ महीप सिंह भी उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण नाम हैं। जसवंत सिंह विरदी हिंदी पंजाबी दोनों में सक्रिय रहे तो डाॅ महीप सिंह ने संचेतना पत्रिका के माध्यम से भी योगदान दिया और वर्ष की श्रेष्ठ कहानियां संपादित करके भी चर्चित रहे ।
राकेश वत्स का नाम भी अग्रणी कथाकारों में है। राकेश वत्स ने निम्न मध्यवर्गीय जीवन के रंगों को चित्रित किया है। एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल होने के बाद वे उभर नहीं पाये और विदा हो गये थे। अम्बाला छावनी से ही उर्मि कृष्ण और विकेश निजावन भी चर्चित कथाकार हैं ।
एक मजेदार बात बताने जा रहा हूं कि एक समय मैंने ऐसी फाइल लगाई जिसमें पंजाब, हिमाचल और हरियाणा के कथाकारों की धर्मयुग, सारिका व कहानी में प्रकाशित कहानियों की कतरन संभाल कर रखता गया। आज वह फाइल तो नहीं है लेकिन कुछ बहुचर्चित नाम उनके आधार पर याद हैं। जैसे रवींद्र कालिया और उनकी पत्नी ममता कालिया का उल्लेख। रवींद्र कालिया की ‘काला रजिस्टर’ व ममता कालिया की ‘उपलब्धि’ कहानियां हमेशा याद रहती हैं। रवींद्र कालिया की ‘नौ साल छोटी पत्नी’ भी खूब रही। ममता कालिया की ‘उपलब्धि’ में एक बच्चे से अचानक मुस्लिम समाज के जलूस पर पानी गिर जाता है जो सारे घर के लिए संकट का कारण बनता है। बस बचता है तो वह बच्चा और यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। फूलचंद मानव की धर्मयुग में प्रकाशित ‘अंजीर ‘ कहानी भी चर्चित रही थी। इसी नाम से फूलचंद मानव का कथा संग्रह भी आया। हिमाचल के कथाकार व हिमप्रस्थ के संपादक रहे केशव की कहानी ‘छोटा टेलीफोन, बड़ा टेलीफोन’ आज तक याद रहती है कि कैसे सिफारिश का खेल चलता है और प्रतिभा सिर धुनती है। हिमाचल के कथाकारों में सुशील कुमार फुल्ल, सुंदर लोहिया, सुदर्शन वाशिष्ठ, तुलसी रमण, बद्री सिंह भाटिया, राजकुमार राकेश, एस आर हरनोट, रेखा डडवाल, रत्न चंद रत्नेश, विजय उपाध्याय, पीयूष गुलेरी, प्रत्यूष गुलेरी, अदिति गुलेरी, राधा गुलेरी, रमेश पठानिया, पौमिला ठाकुर, देवकन्या ठाकुर और राजेंद्र राजन भी चर्चित हैं। इन कथाकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान व चर्चा पाई ।
जालंधर (पंजाब) के कथाकार सुरेश सेठ की दो कहानियां मन में जगह बनाये रही हैं -धंधा और भुगतान। धंधा में राजनीति की दयनीय स्थिति का वर्णन करते आखिरकार नायक अपनी पत्नी के खत्म होते आकर्षण के बाद बेटी को साथ ले जाने को विवश हो जाता है। ‘भुगतान’ में मध्यवर्गीय पति अपनी पत्नी को विवाह के बाद किसी पहाड़ी क्षेत्र में चाहकर भी नहीं ले जा पाता लेकिन जब बीमार होकर बड़े अस्पताल के अलग कमरे में होता है तब लगता है कि कितना भुगतान करने के बाद वह ए फाॅर सारो, टू फाॅर जाॅय की मनस्थिति में आ जाता है। विनोद शाही बेशक आज आलोचना में ज्यादा सक्रिय हैं लेकिन एक समय कथाकार के तौर पर ज्यादा जाने जाते थे। ‘ श्रवण कुमार की खोपड़ी ‘ आई और खूब चर्चित रही। फिलहाल ताजा कहानी ‘बाघा बाॅर्डर’ ने व ‘रक्तजिह्वा ‘ ने भी पाठकों का ध्यानाकर्षित किया। इसी प्रकार इन दिनों सुरेंद्र मनन की कहानी ‘आप्रेशन ब्लैकवर्ड्स ‘ ने फिर याद दिलाई। पंजाब के जालंधर से कृष्ण भावुक भी एक समय खूब चर्चित रहे। उनकी कहानी ‘फाॅसिल’ ने सबका ध्यान आकर्षित किया था। सिमर सदोष,तरसेम गुजराल, डाॅ अजय शर्मा, गीता डोगरा भी जालंधर से सक्रिय हैं लगातार कहानी क्षेत्र में। कभी सुरेंद्र मनन भी जालंधर से था और आजकल दिल्ली में बस गया है ‘ उठो लछमीनारायण’ प्रथम कथा संग्रह ही खूब प्रशंसा व चर्चा बटोर ले गया था। तरसेम गुजराल ने ‘खुला आकाश’ कथा संग्रह संपादित कर एक साथ उस समय के चर्चित युवा कथाकारों को सामने लाने में बड़ी भूमिका निभाई। रमेश बतरा ने न केवल खुद कहानियां लिखी बल्कि पंजाब की हमउम्र पीढ़ी के लेखकों को साथ लिया और साहित्य निर्झर के माध्यम से बड़ी भूमिका निभाई। ‘नंगमनंग’ और ‘कुएं की सफाई ‘कहानियां खूब खूब याद आती हैं। रमेश बतरा की पत्नी जया रावत की कहानी ‘भागवंती कहां जाओगी ‘ बहुत प्रिय है। मैं भी पंजाब से कथाकार हूं और मेरी कहानियां ‘नीले घोड़े वाले सवारों के नाम’ और ‘जादूगरनी ‘ को खूब प्रशंसा मिली। सैली बलजीत, धर्मपाल साहिल, जवाहर धीर और अन्य रचनाकार लगातार सक्रिय हैं पंजाब से। डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता को कैसे भूल सकता हूं? सबसे लम्बे समय से कथा लेखन में सक्रिय। ‘धूप में चटकता कांच’ मेरी प्रिय कहानियों में एक है। इंदु बाली की कहानी ‘दो हाथ ‘ खूब चर्चा बटोर गयी ।
हरियाणा के कथाकारों में ज्ञानप्रकाश विवेक, माधव कौशिक, हरभगवान चावला, सुभाष रस्तोगी, चंद्रकांता, कमला चमोला, मुकेश शर्मा, डाॅ रोहिणी, प्रद्युम्न भल्ला, डाॅ अमृत लाल मदान, अशोक जैन, महावीर प्रसाद जैन आदि सक्रिय हैं। हालांकि डाॅ मदान ज्यादा नाटक व कविता लेखन के लिए जाने जाते हैं। माधव कौशिक की ‘ठीक उसी वक्त ‘ व ‘रोशनी वाली खिड़की ‘ कहानियां बहुत कुछ कह जाती हैं। भगवान दास मोरवाल ने ज्यादा नाम उपन्यास लेखन में कमाया। चंद्रकांता मूल रूप से कश्मीरी हैं और गुरुग्राम में रहती हैं। उनकी रचनाओं में कश्मीर से विस्थापन का दर्द, साम्प्रदायिकता पर चोट दिखती है। उन्होंने विस्थापन के दंश को झेला है। कमला चमोला की ‘बिच्छूबूट्टी’ कहानी शिक्षक समाज की न भूलने वाली व्यथा है। क्या शिक्षक ने बिच्छूबूट्टी ही तैयार की? यह समाज किसने दिया? तारा पांचाल, पृथ्वीराज अरोड़ा, रूप देवगण, डाॅ शमीम शर्मा और शील कौशिक भी कथा क्षेत्र में सक्रिय रहे। इधर कई पत्रिकाओं में सुषमा गुप्ता खूब कहानियां लिखवाई रही हैं और ‘पीठ पर लिखा नाम’ कथा संग्रह भी आया है। नरेश कौशिक भी अच्छी कहानियां लिखवाई रही हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘मसखरे कभी नहीं रोते ‘ मन में रहती है। ब्रह्म दत्त शर्मा भी हरियाणा की नयी संभावना हैं और उनका कथा संग्रह आया है -पीठासीन अधिकारी जो चर्चित रहा। अच्छी कहानियां लिख रहे हैं ब्रह्म दत्त शर्मा ।
डाॅ प्रेम जनमेजय बेशक व्यंग्य यात्रा और व्यंग्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं लेकिन कहानियां भी लिखी हैं। ‘टूटते पहाड की लालसा’ ऐसे ही हर बार याद आती है।
रचनाकार आते रहेंगे और नयी पीढ़ी पर ही कथा साहित्य का भविष्य टिका है। नयी धारा भी कथा में बहती रहेंगीं। शुभकामनाओं सहित।