हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 40 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 40 ??

मथुरा-वृंदावन-

मथुरा भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली है। यहाँ श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर है। सनातन एकात्मता देखिए कि वंशीधर कन्हैया की नगरी के कोतवाल भुजंगधारी नीलकंठ हैं। मथुरा की चार दिशाओं में भगवान शंकर के चार मंदिर हैं।

वृंदावन माखनचोर की बाल लीलाओं का केंद्र रहा। ‘राधे-राधे जपो, चले आयेंगे मुरारी’ यूँ ही नहीं कहा गया है। जीवन की धारा को उलट दिया जाय तो धारा, राधा हो जाती है। यह केवल अक्षरों का परस्पर परिवर्तन नहीं अपितु वृंदावन का जीवनदर्शन है। यही कारण है कि यहाँ अभिवादन, संबोधन से लेकर रास्ता पूछने तक हर कार्य का आदिसूत्र ‘राधे-राधे’ है। बांके बिहारी जी का मंदिर, अक्षय पात्र, निधिवन और पग-पग पर कृष्णलीला के साक्षी बने अनेकानेक दर्शनीय स्थान यहाँ हैं।

मथुरा के पास स्थित वृंदावन, गोकुल, नंदगांव, बरसाना, गोवर्धन से लेकर सुदूर के गाँवों को  मिलाकर बनता है ब्रजक्षेत्र। ब्रजक्षेत्र में चौरासी कोस की परिक्रमा की जाती है। 268 किमी. की इस परिक्रमा में  1300 से अधिक गाँव, 1000 सरोवर, 48 वन, 24 कदम्ब खण्डियाँ, यमुना जी के अनेक घाट, छोटे-बड़े कई पर्वत एवं लोकमान्यता के अनेकानेक क्षेत्र आते हैं। जीव की 84 लाख योनियाँ और 84 कोस की परिक्रमा का अंतर्सम्बंध वैदिक एकात्मता का उच्चबिंदु है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 39 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 39 ??

वैष्णो देवी-

जम्मू कश्मीर के त्रिकुट पर्वत पर स्थित है माँ वैष्णवी का मंदिर जो कालांतर में वैष्णो देवी के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। वैष्णो देवी का मंदिर जम्मू के कटरा नगर में है। सामान्यतः इसकी यात्रा रात में होती है। पूरी रात चढ़ाई करनी होती है। आजकल यात्रा का बड़ा भाग हेलीकॉप्टर या बैटरी कार से पूरी करने की व्यवस्था भी है। माता की मूर्ति गुफा में है जिसका प्रवेशद्वार अत्यंत संकरा है। प्रतिवर्ष भारी संख्या में यात्री यहाँ दर्शनार्थ आते हैं।

अमरनाथ-

जम्मू कश्मीर में स्थित बाबा अमरनाथ की गुफा हिंदुओं के प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों में से एक है।  मान्यता है कि इसी गुफा में महादेव ने माँ पार्वती को अमरत्व का ज्ञान दिया था। भुरभुरी बर्फ की गुफा में प्राकृतिक रूप से ठोस बर्फ से 10 फुट का शिवलिंग यहाँ बनता है। यही कारण है कि अमरनाथ को बाबा बर्फानी भी कहा जाता है। आषाढ़  से श्रावण पूर्णिमा तक पह यात्रा चलती है।

माना जाता है कि अमरनाथ गुफा की खोज एक मुस्लिम गड़ेरिया ने की थी। इस अन्वेषी के परिजनों को बाबा बर्फानी के कुल चढ़ावे का एक चौथाई भाग आज भी दिया जाता है। धार्मिक भेदभाव की संकीर्णता से परे  वैदिक दर्शन की आँख में बसा यह कल्पनातीत एकात्म भाव, मानवजाति की आँखें खोलने वाला है।

अयोध्या-

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की नगरी है अयोध्या। इसे अवध भी कहा जाता है। अयोध्या मनु महाराज द्वारा बसाया गया नगर है। अयोध्या का अर्थ है, जिसे युद्ध अथवा हिंसा से न प्राप्त किया जा सके। इस नगर में श्रीराम जन्मभूमि, करोड़ों सनातनियों की आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है। इसके अतिरिक्त कनक भवन, हनुमानगढ़ी, श्री लक्ष्मण किला, दशरथ महल जैसे आकर्षण के अनेक केंद्र हैं।

श्रीराम भारतीयता के प्राणतत्व हैं। बच्चे के जन्म पर रामलला की बधाई गाता और अंत्येष्टि में ‘रामनाम सत है’ का घोष करता है भारतीय समाज। अवधनगरी में तो श्वास-श्वास राममय है।

श्रीराम ने बंधु, सखा, वनवासी, वानर, टिटिहरी सबको एक भाव से देखा। रघुनाथ का जीवन एकात्मता का शिलालेख है।

क्रमश: …

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 151 ☆ आलेख – शब्द एक, भाव अनेक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  शब्द एक, भाव अनेक

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 151 ☆

? आलेख  – शब्द एक, भाव अनेक  ?

जब अलग अलग रचनाकार एक ही शब्द पर कलम चलाते हैं तो अपने अपने परिवेश, अपने अनुभवों, अपनी भाषाई क्षमता के अनुरूप सर्वथा भिन्न रचनायें उपजती हैं.

व्यंग्य में तो जुगलबंदी का इतिहास लतीफ घोंघी और ईश्वर जी के नाम है, जिसमें एक ही विषय पर दोनो सुप्रसिद्ध लेखको ने व्यंग्य लिखे. फिर इस परम्परा को अनूप शुक्ल ने फेसबुक के जरिये पुनर्जीवित किया, हर हफ्ते एक ही विषय पर अनेक व्यंग्यकार लिखते थे जिन्हें समाहित कर फेसबुक पर लगाया जाता रहा. स्वाभाविक है एक ही टाइटिल होते हुये भी सभी व्यंग्य लेख बहुत भिन्न होते थे. कविता में भी अनेक ग्रुप्स व संस्थाओ में एक ही विषय पर समस्या पूर्ति की पुरानी परम्परा मिलती है. इसी तरह , एक ही भाव को अलग अलग विधा के जरिये अभिव्यक्त करने के प्रयोग भी मैने स्वयं किये हैं. उसी भाव पर अमिधा में निबंध, कविता, व्यंग्य, लघुकथा, नाटक तक लिखे. यह साहित्यिक अभिव्यक्ति का अलग आनंद है.

सैनिक शब्द पर भी खूब लिखा गया है, यह साहित्यकारो की हमारे सैनिको के साथ प्रतिबद्धता का परिचायक भी है. भारतीय सेना विश्व की श्रेष्ठतम सेनाओ में से एक है, क्योकि सेना की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई हमारे सैनिक वीरता के प्रतीक हैं. उनमें देश प्रेम के लिये आत्मोत्सर्ग का जज्बा है.उन्हें मालूम है कि उनके पीछे सारा देश खड़ा है. जब वे रात दिन अपने काम से  थककर कुछ घण्टे सोते हैं तो वे अपनी मां की, पत्नी या प्रेमिका के स्मृति आंचल में विश्राम करते हैं, यही कारण है कि हमारे सैनिको के चेहरों पर वे स्वाभाविक भाव परिलक्षित होते हैं. इसके विपरीत चीनी सैनिको के कैम्प से रबर की आदम कद गुड़िया के पुतले बरामद हुये वे इन रबर की गुड़िया से लिपटकर सोते हैं. शायद इसीलिये चीनी सैनिको के चेहरे भाव हीन, संवेदना हीन दिखते हैं. हमने देखा है कि उनकी सरकार चीन के मृत सैनिको के नाम तक नही लेती. वहां सैनिको का वह राष्ट्रीय सम्मान नही है, जो भारतीय सैनिको को प्राप्त है. मैं एक बार किसी विदेशी एयरपोर्ट पर था,  सैनिको का एक दल वहां से ट्राँजिट में था, मैने देखा कि सामान्य नागरिको ने खड़े होकर, तालियां बजाकर सैनिक दल का अभिवादन किया. वर्दी को यह सम्मान सैनिको का मनोबल बहुगुणित कर देता है.

सैनिक पर खूब रचनायें हुई है हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियां हैं

जवान हिंद के अडिग रहो डटे,

न जब तलक निशान शत्रु का हटे,

हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,

ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,

तजो न सूचिकाग्र भूमि-भाग भी।

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की कविता का अंश है…

तुम पर है ना आज देश को तुम पर हमें गुमान

मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान

सुनकर पुकार देश की तुम साथ चल पड़े

दुश्मन की राह रोकने तुम काल बन खड़े

तुम ने फिजा में एक नई जान डाल दी

तकदीर देश की नए सांचे में ढ़ाल दी

अनेक फिल्मो में सैनिको पर गीत सम्मलित किये गये हैं. प्रायः सभी बड़े कवियों ने कभी न कभी सैनिको पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा है. जो हिन्दी की थाथी है. हर रचना व रचनाकार अपने आप में  महत्वपूर्ण है. देश के सैनिको के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुये अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं. हमारे सैनिक  राष्ट्र की रक्षा में  अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं  । सैनिक होना केवल आजीविका उपार्जन नही होता । सैनिक एक संकल्प, एक समर्पण, अनुशासन के अनुष्ठान का  वर्दीधारी बिम्ब होता है  ।हम सब भी अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के किसी हिस्से में कही न कही किंचित भूमिका में छोटे बड़े सैनिक होते हैं  । कोरोना में हमारे शरीर के रोग प्रतिरोधक  अवयव वायरस के विरुद्ध शरीर के सैनिक की भूमिका में सक्रिय हैं ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 103 ☆ आलेख – मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख  “मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 103 ☆

☆ जल ही जीवन है – मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ ☆ 

मैंने देखा मेरा एक पड़ोसी पानी का स्विच ऑन करके भूल जाता है, बल्कि दिन में एक बार नहीं, बल्कि कई-कई बार। सदस्य दस के आसपास, लेकिन सभी बादशाहत में जीने वाले, देर से सोना और देर से जगना। ऐसे ही कई बादशाह और भी पड़ोसी हैं, जो पानी की बरबादी निरन्तर करने में गौरव का अनुभव कर रहे हैं। मैं कई बार उन्हें फोन करके बताता हूँ, तो कभी आवाज लगाकर जगाता हूँ। उनमें कुछ बुरा मानते हैं तो अब उनके कान पर जूं रेंगाना बन्द कर दिया है। सब कुछ ईश्वर के हवाले छोड़ दिया है कि जो करा रहा है वो ईश्वर ही तो है, क्योंकि वे सब भी तो उसकी संतानें हैं। उनमें भी जीती जागती आत्माएं है, जो पानी बहाकर और बिजली फूँककर आनन्दित होती हैं। पानी की बर्बादी करने में दो ही बात कदाचित हो सकती हैं कि या तो वे बिजली का प्रयोग चोरी से कर रहे हैं या उन्हें दौलत का मद है। खैर जो भी हो, लेकिन मुझे पानी की झरने जैसी आवाजें सुनकर ऐसा लगता है कि यह पानी का झरना मेरे सिर पर होकर बह रहा है,जो मुझमें शीत लहर-सी फुरफुरी ला रहा है।

पता नहीं क्यों मैं पानी की बचत करने की हर समय सोचा करता हूँ। बल्कि, पानी की ही क्यों, मैं तो पंच तत्वों को ही संरक्षित और सुरक्षित करने के लिए निरन्तर मंथन किया करता हूँ। बस सोचता हूँ कि ये सभी शुद्ध और सुरक्षित होंगे तो हमारा जीवन भी आनन्दित रहेगा। वर्षा होने पर उसके जल को स्नान करनेवाले टब और कई बाल्टियों में भर लेता हूँ। उसके बाद उस पानी से पौधों की सिंचाई , स्नान, शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ। अबकी बार तो मैंने उसे कई बार पीने के रूप में भी प्रयोग किया। जो बहुत मीठा और स्वादिष्ट लगा। टीडीएस नापा तो 40-41 आया। जबकि जो जमीन का पानी आ रहा है, उसका टीडीएस 400 के आसपास रहता है। क्योंकि जमीन में हमने अनेकानेक प्रकार के केमिकल घोल दिए हैं। मेरे गाँव के कुएँ का जल भी वर्षा के जल की तरह मीठा और स्वादिष्ट होता था, अब इधर 40 वर्षों में क्या हुआ होगा, मुझे नहीं मालूम।

सेवानिवृत्त होने के बाद कपड़ों की धुलाई घर में मशीन होते हुए भी मैं हाथों से कपड़े धोता हूँ, ताकि शरीर भी फिट रहे और पानी भी कम खर्च हो। बल्कि सर्विस में रहने के दौरान भी यही क्रम चलता रहा, तब कभी मेरे साथ धुलाई मशीन नहीं रही।

कपड़ों से धुले हुए साबुन के पानी को कुछ तो नाली की सफाई में काम में लेता हूँ और शेष पानी से जहाँ गमले रखे हैं, अर्थात छोटा-सा बगीचा है ,उसके फर्स की धुलाई भी करा देता हूँ। कई प्रकार के हानिकारक कीट पानी के साथ बह जाते हैं और बगीचा भी ठीक से साफ हो जाता है।

आरओ से शुद्ध पानी होने पर जो गन्दा पानी निकलता है, उसे मैं शौचालय में , या कपड़े धोने में या पौंछे आदि में प्रयोग करता हूँ। आरओ का प्रयोग घर-घर में हो रहा है, अब सोचिए लाखों लीटर पानी बिना प्रयोग करे ही नालियों में बहकर बर्बाद किया जा रहा है। लेकिन मैं उसकी भी बचत करता हूँ। मुझे ऐसा करके सुख मिलता है।

स्नान मैं सावर से भी कर सकता हूँ और काफी देर तक कर सकता हूँ, लेकिन मैं नहीं करता, बस एक बाल्टी पानी से ही अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर नहाता हूँ, नहाते समय जो पानी फर्स पर गिरता है, उससे भी बनियान या रसोई का मैला कपड़ा धो लेता हूँ। प्रायः नहाने के लिए साबुन प्रयोग नहीं करता हूँ। बाल कटवाने पर महीने में एकाध बार ही करता हूँ, वैसे मैं बाल और मुँह आदि धोने के लिए आंवला पाऊडर और ताजा एलोवेरा प्रयोग करता हूँ। स्नान करने के बाद कमर को तौलिए से अच्छे से रगड़ता हूँ, ताकि पीठ की 72 हजार नस नाड़ियां जागृत होकर सुचारू रूप से अपना काम करती रहें।

सब्जी, फल आदि को धोने के बाद जो पानी बचता है, उसे भी मैं शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ।

घर में लोग दाल बनाते हैं, तो उसे कई बार धोते हैं और पानी फेंकते जाते हैं। मैं एकाध बार थोड़े पानी से धोकर, उसे पकाने से दो-तीन घण्टे पहले भिगो देता हूँ, वह जब अच्छी तरह फूल जाती है, तब उसे धोकर स्टील के कुकर में धीमी आंच पर पकाने रख देता हूँ, इस तरह दाल एक सीटी आने तक अच्छी तरह पककर तैयार हो जाती है। गैस का खर्च आधा भी नहीं होता है। इस तरह पानी और गैस दोनों ही कम व्यय होते हैं। इसी तरह तरह मैं सब्जियां बनाते समय करता हूँ कि पहले सब्जी को अच्छे से धोता हूँ, फिर उसे छील काटकर बनाता हूँ, इस तरह पानी भी कम खर्च होता है और सब्जी के विटामिन्स भी सुरक्षित रहते हैं। उसे धीमी आंच पर पकाता हूँ, अक्सर लोहे की कड़ाही या स्टील के कुकर का प्रयोग करता हूँ, ताकि पकाने में उपयोगी तत्व मिलें , क्योंकि अलमुनियम आदि के कुकर या कड़ाही, पतीली आदि बर्तनों में पकाने से अलमुनियम के कुछ न कुछ हानिकारक गुण सब्जी या दाल में अवश्य समाहित हो जाते हैं, जो धीमे जहर का काम कर रहे हैं, कैंसर जैसी बीमारियां बढ़ने का एक बहुत कारण यह भी है, जिसे हम कभी नहीं समझना चाहते हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने सबसे पहले इसका प्रयोग भारतीय जेलों में रसोई में प्रयोग करने के लिए इसलिए किया था कि देश स्वतंत्रता दिलाने वाले भारतीय जेलों में ही बीमार होकर जल्दी मर जाएँ।

मैं सड़क राह चलते, रेलवे स्टेशन आदि कहीं पर भी खुली टोंटियाँ देखता हूँ, तो रुककर उन्हें बन्द कर देता हूँ।

मकान में जब कभी कोई टोंटी आदि खराब होती है, उसे तत्काल ही ठीक करने के लिए प्लम्बर बुलाकर ठीक कराता हूँ।

मेरा संकल्प रहता है कि पानी का दुरुपयोग मेरे स्तर से न हो, उसका सही सदुपयोग हो। जो भी लोग मेरे संपर्क में आते हैं, चाहे वह कामवाली हों या कोई अन्य तब मैं उन्हें जागरूक कर समझाता हूँ कि पानी जीवन के लिए अमृत तुल्य होता है, इसका दुरुपयोग जो भी लोग करते हैं उन्हें ईश्वर कभी भी क्षमा नहीं करते हैं। बल्कि पानी के साथ -साथ हमें पंच तत्वों का संरक्षण भी अवश्य करते रहना चाहिए। मैं तो इन्हें सुरक्षित एवं संरक्षित करने लिए निरन्तर प्रयास करता रहता हूँ।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 25 – प्रबुद्धता या अपनापन ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ आलेख # 25 – प्रबुद्धता या अपनापन ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

विराटनगर शाखा में उच्च कोटि की अलंकृत भाषा में डाक्टरेट प्राप्त शाखाप्रबंधक का आगमन हुआ. शाखा का स्टाफ हो या सीधे सादे कस्टमर, उनकी भाषा समझ तो नहीं पाते थे पर उनसे डरते जरूर थे. कस्टमर के चैंबर में आते ही प्रबंधक जी अपनी फर्राटेदार अलंकृत भाषा में शुरु हो जाते थे और सज्जन पर समस्या हल करने आये कस्टमर यह मानकर ही कि शायद इनके चैंबर में आने पर ही स्टाफ उनका काम कर ही देगा, दो मिनट रुककर थैंक्यू सर कहकर बाहर आ जाते थे. बैठने का साहस तो सिर्फ धाकड़ ग्राहक ही कर पाते थे क्योंकि उनका भाषा के पीछे छिपे बिजनेस  प्लानर को पहचानने का उनका अनुभव था.

एक शरारती कस्टमर ने उनसे साहस जुटाकर कह ही दिया कि “सर, आप हम लोगों से फ्रेंच भाषा में बात क्यों नहीं करते.

साहब को पहले तो सुखद आश्चर्य हुआ कि इस निपट देहाती क्षेत्र में भी भाषा ज्ञानी हैं, पर फिर तुरंत दुखी मन से बोले कि कोशिश की थी पर कठिन थी. सीख भी जाता तो यहाँ कौन समझता, आप ?

शरारती कस्टमर बोला : सर तो अभी हम कौन समझ पाते हैं.जब बात नहीं समझने की हो तो कम से कम स्टेंडर्ड तो अच्छा होना चाहिए.

जो सज्जन कस्टमर चैंबर से बाहर आते तो वही स्टाफ उनका काम फटाफट कर देता था.एक सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि चैंबर से बाहर आते ही आप हमारा काम कर देते हैं.

स्टाफ भी खुशनुमा मूड में था तो कह दिया, भैया कारण एक ही है, उनको न तुम समझ पाते हो न हम. इसलिए तुम्हारा काम हो जाता है. क्योंकि उनको समझने की कोशिश करना ही नासमझी है. इस तरह संवादहीनता और संवेदनहीनता की स्थिति में शाखा चल रही थी.

हर व्यक्ति यही सोचता था कौन सा हमेशा रहने आये हैं, हमें तो इसी शाखा में आना है क्योंकि यहाँ पार्किंग की सुविधा बहुत अच्छी है. पास में अच्छा मार्केट भी है, यहाँ गाड़ी खड़ी कर के सारे काम निपटाकर बैंक का काम भी साथ साथ में हो जाता है. इसके अलावा जो बैंक के बाहर चाय वाला है, वो चाय बहुत बढिय़ा, हमारे हिसाब की बनाकर बहुत आदर से पिलाता है.हमें पहचानता है तो बिना बोले ही समझ जाता है. आखिर वहां भी तो बिना भाषा के काम हो ही जाता है। पर हम ही उसके परिवार की खैरियत और खोजखबर कर लेते हैं

पर चाय वाले से इतनी हमदर्दी ?

क्या करें भाई, है तो हमारे ही गांव का, जब वो अपनी और हमारी भाषा में बात करता है तो लगता है उसकी बोली हमको कुछ पल के लिये हमारे गांव ले जा रही है.

एक अपनापन सा महसूस हो जाता है कि धरती की सूरज की परिक्रमा की रफ्तार कुछ भी हो,शायद हम लोगों के सोशल स्टेटस अलग अलग लगें पर हमारा और उसका टाईम ज़ोन एक ही है. याने उसके और हमारे दिन रात एक जैसे और साथ साथ होते हैं।

शायद यही अपनापन महसूस होना या करना, आंचलिकता से प्यार कहलाता हो।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 38 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 38 ??

केदारनाथ-

उत्तराखंड के चार तीर्थस्थानों की देवभूमीय चार धाम के रूप में प्रतिष्ठा है। इनमें बद्री विशाल तो हैं ही, साथ में केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री सम्मिलित हैं। इन तीर्थों की यात्रा वामावर्त होती है अर्थात बाईं ओर आरंभ कर आगे चला जाता है।

केदारनाथ उत्तराखंड के गुप्तकाशी क्षेत्र में स्थित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार महिष का रूप धारण कर भगवान शंकर जब पाताल-लोक में प्रवेश करने लगे तो परिजनों की हत्या के पाप से पांडुकुल को मुक्त करने के लिए भीम ने महेश का पृष्ठ भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर ने पांडवों को दर्शन देकर पापमुक्त किया। इस स्थान पर महिष के पृष्ठ भाग के रूप में प्राकृतिक शीला में विराजमान महादेव के विग्रह की आराधना होती है। यह वैदिक संस्कृति की एकात्मता ही है जो कभी महिष में ईश्वरीयता का दर्शन कर अवतरित होती है तो कभी ईश्वर, वराह का अवतार लेते हैं।

गंगोत्री-

गंगोत्री अमृतवाहिनी गंगा जी का उद्गम स्थल है। यह क्षेत्र उत्तरकाशी में है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भागीरथी ने इसी स्थान पर पृथ्वी को स्पर्श किया था। प्राचीन समय में यहाँ गंगा जी की साकार स्वरूप में ही पूजा होती थी। कालांतर में मंदिर का निर्माण हुआ। इस क्षेत्र में नदियों की धारा का प्रवाह अकल्पनीय है। उल्लेखनीय है कि  एवरेस्ट विजेता एडमंड हिलेरी  1977 में कोलकाता से बद्रीनाथ तक गंगा जी के प्रवाह के विरुद्ध जलमार्ग से यात्रा करने के अभियान पर निकले थे। नंदप्रयाग के बाद गंगा जी के अद्भुत जलप्रवाह के आगे नतमस्तक होकर हिलेरी ने अपना अभियान रोक दिया था।

यमुनोत्री-

यमुनोत्री पावन यमुना जी का उद्गम स्थल है। यह क्षेत्र उत्तरकाशी में है। यमुनोत्री हिमनद से लगभग 5 मील नीचे गर्म पानी के स्रोत मिलते हैं। ऐसे दो स्रोतों के बीच एक शिला पर स्थित है यमुनोत्री का मंदिर। इन स्रोतों में पानी इतना गर्म होता है कि  प्रसाद के रूप में सूर्यकुंड में आलू या चावल पकाने की परंपरा है।

सनातन संस्कृति माटी, जल, अग्नि, आकाश, वायु को काया का घटक मानती है। जलस्रोतों का सम्मान और मानवीकरण, उदार व सदाशय वैदिक एकात्मता का साक्षात उदाहरण है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबतकी अगली कड़ी। )

☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत  – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत दिनों करीब दो वर्ष के पश्चात भारतीय रेल से दिल्ली की यात्रा की। मोबाइल से अग्रिम टिकट करवाना भूल चुके हैं, IRCTC का ID आदि भी मेमोरी से डिलीट हो गए है। विचार किया स्टेशन पर पहुंच कर टिकट लेकर बैठ जायेंगे। पांच घंटे की तो यात्रा है, Covid के कारण ट्रेन भी खाली ही चल रहीं होंगी, परंतु जब स्टेशन पहुंचे तो पता चला no room है। मरता क्या ना करता, साधारण टिकट लेकर बिना रिजर्वेशन वाले कोच में प्रवेश किया तो देखकर आश्चर्यचकित हो गए। एकदम शमशान भूमि जैसी शांति, कोई चिल्ल-पों नहीं हो रही। एक बैठे हुए यात्री से पूछा ये कौन सी क्लास का डिब्बा है। तो वो कान से यंत्र को निकलते हुए बोला, “जो हर क्लास में फेल हो वो यहां आ जाते हैं। हम समझ गए सही जगह आए हैं।”

सब अपने अपने मोबाइल में कुछ देख रहे थे या सुन रहे थे, बाकी के बोल रहे थे। कोई राजनैतिक, व्यवस्था विरोधी या सामाजिक चर्चा नहीं कर रहा था। नौकरी के दिन याद आ गए जब फर्स्ट क्लास में यात्रा करते थे तो सभी अंग्रेजी पेपर से अपना चेहरा छुपाकर बैठे रहते थे। Excuse me जैसा शब्द हमने वहीं पर सुना था। हमने अपना मोबाइल बंद करके रख दिया था, क्योंकि उसकी बैटरी  अधिकतम तीस मिनट ही चल पाती थी। उसके बाद उसे वेंटीलेटर पर लेना पड़ता था। स्टेशन पर कोई पेपर /पत्रिका बेचने वाला भी नहीं दिखा था, हां चार्जिंग पॉइंट पर लंबी लाइन लगी हुई थी। लाइन में लगे एक व्यक्ति से पूछा – “आपको कौन सी गाड़ी में जाना है?” तो वो बोला “पहले मोबाइल चार्ज हो जाए, फिर उसके बाद किसी भी गाड़ी से चले जाएंगे।”

दिल्ली के सराय रोहिल्ला स्टेशन पर उतर कर हमेशा की तरह हम पंडित चाय वाले के यहां गए, तो पंडितजी नहीं दिख रहे थे। एक युवा जो कि कान में यंत्र लगा कर चाय बना रहा था ने इशारा किया। हमने “एक कट फीकी चाय” बोला तो उसके समझ में नहीं आया, झुंझलाते हुए उसने कान से wire निकालकर हमको ऐसे घूर कर निहारा जैसे हमसे कोई बड़ी गलती हो गई हो। वो बोला “उधर बेंच में बैठ जाओ, आपकी बारी आएगी तो बताना।” मैंने पूछा “पंडितजी नहीं दिख रहे?” तो उसने एक माला पहनी हुई फोटो दिखाई और बोला “वो covid में सरक गए।” पहले समय में पंडितजी पूछते थे “कचोरी गर्म है, चाय के साथ लोगे या बाद में” अब वो युवा तो कानों में यंत्र डाल कर संगीत की दुनिया के मज़े ले रहा था। हमने भी अपनी फीकी चाय पी और चल पड़े ! युवक अभी भी अपनी मोबाइल की दुनिया में खोया हुआ था और उसको  पैसे लेने की भी याद नहीं थी। शायद इसी को “मोबाइल में मग्न” होना कहते है।

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© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 37 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 37 ??

रामेश्वरम धाम-

तमिलनाडु के रामनाथपुरम जनपद में रामेश्वर धाम स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक  है। भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध के लिए लंका जाते समय  शिवलिंग की स्थापना की थी। रामेश्वरम धाम  बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर से घिरा हुआ एक टापू है।

यह वही स्थान है जहाँ रामसेतु बना था। धनुष्कोडि से जाफना तक 48 किलोमीटर लम्बा यह सेतु था। नासा के सैटेलाइटों द्वारा खींची गई तस्वीरों में यह समुद्र के भीतर एक पतली रेखा के रूप में दिखाई देता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में भी रामसेतु का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि  5 दिन में रामसेतु  तैयार हो गया था। वाल्मीकि रामायण में रामसेतु का वर्णन मिलता है जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।

दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्।ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।।

वाल्मीकि रामायण (6/22/76)

नल और नील नामक दो वानर सेनानी रामसेतु के मुख्य शिल्पी और वास्तुविद थे। किंवदंती है कि उन्होंने इसके निर्माण के लिये प्रयुक्त पत्थरों पर ‘श्रीराम’ लिखवाया था। जिस समुद्र को लांघना साक्षात श्रीराम के लिए कठिन था, वह रामनाम के पत्थरों से बने सेतु से साध्य हो गया। इसीलिए लोकोक्ति प्रचलित हुई कि ‘राम से बड़ा राम का नाम।’ व्यक्ति नहीं गुणों की महत्ता का प्रतिपादन वही संस्कृति कर सकती है जो पार्थिव नहीं सूक्ष्म देखती हो।  

आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरीपीठ रामेश्वरम में है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 131 ☆ ‘जगत रंगमंच है… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 131 ☆ ‘जगत रंगमंच है… ?

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख  सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही।  सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने  दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर  तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर  अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”

जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।

सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है। ….विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #115 ☆ अवसाद एक मनोरोग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 115 ☆

☆ ‌अवसाद एक मनोरोग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यह  शरीर प्रकृति प्रदत्त एक उपहार हैं जिसकी संरचना विधाताद्वारा की गई है। इसकी आकृति प्रकृति वंशानुगत गुणों द्वारा निर्मित तथा निर्धारित होती है। सृष्टि में पैदा होने वाला शरीर योनि गत गुणों से आच्छादित होता है। यद्यपि भोजन, शयन, संसर्ग प्रत्येक योनि का प्राणी करता है। बुद्धि और ज्ञान प्रत्येक योनि के जीवों में मिलता है, लेकिन मानव शरीर इस मायने में विशिष्ट है कि ईश्वर ने मानव को ज्ञान बुद्धि के साथ विवेक भी दिया है। इसके चलते विवेक शील प्राणी उचित-अनुचित का विचार कर सकता है जब कि अन्य योनि के जीवों में संभवतः यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।

शारिरिक संरचना का अध्ययन करने से पता चलता है कि स्थूल शरीर संरचना के मुख्य रूप से दो भाग हैं पहला बाह्यसंरचना तथा दूसरा आंतरिक संरचना। बाह्य शरीर को हम देख सकते हैं जब की आंतरिक संरचना बिना शरीर के विच्छेदन किए देख पाना संभव नहीं है। आज़ विज्ञान बहुत प्रगति कर चुका है लेकिन फिर भी वह इस शरीर की जटिलता को समझ नहीं पाया है अभी भी शोध कार्य जारी है। शरीर की आंतरिक संरचना में जब रासायनिक परिवर्तन अथवा अन्य विकृतियों के चलते तमाम प्रकार के रोग पनपते हैं और मानव जीवन को त्रासद बना देते हैं, इन्ही में कुछ बीमारियां है जो मन से पैदा होती है इनमें अवसाद एक मनोरोग है। इसके रोगी को नींद नहीं आती, वह एकांत वास चाहता है, एकाकी पन के चलते घुटता रहता है।

उसे खुद का जीवन नीरस लगने लगता है। वह खुद को उपेक्षित तथा असमर्थ समझने लगता है उसकी भूख और नींद उड़ जाती है। ऐसे व्यक्ति प्राय: नशे का शिकार हो जाते हैं। कुछ न कुछ बड़बड़ाते रहते हैं और अनाप-शनाप हरकतें करने लगते हैं। अकेले रहना चाहते हैं।

वे अपनी दुख और पीड़ा किसी से कह नहीं सकते हैं उनके भीतर बार बार नकारात्मक विचार आते हैं। और ऐसे रोगी प्राय: आत्महीनता की स्थिति में आत्महत्या कर लेते हैं। मनोरोगी को प्राय: मनोचिकित्सा की आवश्यकता होती है। एक कुशल मनोचिकित्सक ही उनका इलाज कर सकता है। ऐसे रोगी घृणा नहीं सहानुभूति के पात्र होते हैं।  इन्हें ओझा और तांत्रिक से दूर रखना चाहिए इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं एक कुशल मनोवैज्ञानिक उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि  तथा परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन कर उन्हें सामाजिक मुख्य धारा में शामिल कर उन्हें अवसाद से बाहर ला सकता है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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