हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”संदूक” – अंतिम भाग ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “संदूक – अंतिम भाग”.)

☆ संस्मरण ☆ “संदूक” – अंतिम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(यादों के झरोखे से)

सत्तरवें दशक के अंतिम वर्षों में संदूक सजावट और उपयोग की परिभाषा से मात्र उपयोग की ही वस्तु बन कर रह गया था।रेल यात्रा में जब तक थर्ड क्लास थी, लंबी दूरी की पारिवारिक यात्रा पर इसके बड़े लाभ थे, छोटा बच्चा आराम से सो कर निद्रा प्राप्त कर लेता था, वैसे इस पर बैठने की क्षमता दो लोगो को सुविधा पूर्वक यात्रा के लिए पर्याप्त हुआ करती थी।सह यात्री के पास भी संदूक होता था तो फिर साधारण लम्बाई के व्यक्ति की नींद में खलल नहीं पड़ता था। रेल का मैनेजर (गार्ड) अभी भी छोटे काले रंग  के संदूक को साथ लेकर गाड़ी की व्यवस्था बनाता हैं।

निम्न माध्यम वर्गीय परिवार अपनी पुरानी विरासत को जल्द विदा नहीं करता हैं। संदूक का उपयोग घरों में बैठने के लिए होने लगा। संदूक पर गद्दा बिछा कर उसको चादर से पूरा ढक कर इज्जत से स्थान दिया जाता था। एक जोड़ी संदूक को ईंट के ऊपर करीने से बैठक खाने में उपयोग आम बात हुआ करती थी। वो बात अलग है,मेहमान को कुर्सी आदि पर आसन प्रदान किया जाता था, मेज़बान इसका उपयोग स्वयं के लिए ही करता था।

ट्रंक या बॉक्स के नाम से जानने वाले घर में “बड़े ट्रंक” से भी भली भांति परिचित  होंगे। सर्दी की रजाई, कंबल या अनुपयोगी वस्तुओं के संग्रह में इसकी क्षमता का कोई सानी नहीं हैं। अब स्टील कि आलमारियों ने इनकी कमी पूरी करने के प्रयास किए हैं। बैंक में इसका उपयोग अनचाहा मेहमान (आडिटर) अपने गोपनीय कागज़ात को रखने के लिए करते थे। अब तो उनके पास भी  चलायमान कंप्यूटर ( लेप टॉप) है, जिसमें सब कुछ निजी रह सकता हैं।

टीवी सीरियल  सीआईडी में भी इसका उपयोग लाश या बड़ी धन राशि को ठिकाने लगाने में किया जाता हैं। पुराने समय में घर की बुजर्ग महिलाएं अपने संदूक को ताला लगाकर संचय की गई प्रिय, निजी वस्तुएं और थोड़ी सी जमा पूंजी को उनके विवाह में मिले संदूक में ही सुरक्षित रख पाती थी। उनके जाने के बाद उस संदूक को “दादी का खजाना” की विरासत की संज्ञा दी जाती थी। अब तो ये सब कहानियों और किस्से की बातें होकर रह गई हैं।

 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 18 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 18 ??

श्रद्धाभाव के साथ मनाई जाती है। वटपूर्णिमा अथवा वटसावित्री को वटवृक्ष को मन्नत के धागे बाँधकर चिरायु कर दिया जाता है। पीपल, आँवला को पूजकर प्रदान की जाती पवित्रता 24 बाय7 ऑक्सीजन का स्रोत बनती है। वटपूर्णिमा का एक आयाम लेखक की इस कविता में देखिये,

लपेटा जा रहा है

कच्चा सूत

विशाल बरगद

के चारों ओर,

आयु बढ़ाने की

मनौती से बनी

यह रक्षापंक्ति

अपनी सदाहरी

सफलता की गाथा

सप्रमाण कहती आई है,

कच्चे धागों से बनी

सुहागिन वैक्सिन

अनंतकाल से

बरगदों को

चिरंजीव रखती आई है!

इसी भाँति तुलसी विवाह प्रकृति में चराचर की एकात्मता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

योग दिवस ‘सर्वे संतु निरामया’ की चैतन्य प्रतीति है। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इसे आदिगुरु महर्षि वेदव्यास की जयंती के रूप में मनाया जाता है। अपने गुरु, मार्गदर्शक, शिक्षक को ईश्वर का स्थान देने का साहस केवल वैदिक संस्कृति ही कर सकती है।

 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः,

गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

कबीर ने गुरु को ईश्वर से भी उच्च स्थान दिया।

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागू पाय|

बलिहारी गुरु आपने , गोविन्द दियो बताय||

ये सब प्रतिनिधि रूप से कुछ त्योहारों का वर्णन किया है। किसी छोटे आदिवासी टोले से लेकर बड़े समुदाय तक हरेक के अपने पर्व हैं। हरेक एकात्मता और सामासिकता का जाज्वल्यमान प्रतीक है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 126 ☆ शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 126 ☆ शून्योत्सव ?

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। शून्य के बाद प्लस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल, पात्र, परिस्थिति के अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।

स्मृति में अपनी एक रचना कौंध रही है-

शून्य अवगाहित / करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की / टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख / हाँफती सीमाएँ,

अगाध शून्य की / अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की / कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही / हाथ लगा?

शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ। अपने अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें।…इति।

 

© संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 17 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 17 ??

ईसा मसीह को तत्कालीन व्यवस्था ने सूली पर चढ़ा दिया था। ईसाई धर्म की मान्यताओं के अनुसार 40 दिन बाद ईस्टर को  ईसा मसीह पुनर्जीवित हो गए। समय साक्षी है कि समाज दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता से अधिक प्रभावित होता है। समाज सक्रिय होकर सामने आए तो पुनर्जागरण में समय नहीं लगता। ईसा का पुनर्जीवित होना सज्जनों की एकता और एकात्मता का प्रतीक है। कहा गया है, ‘ यू आर नेवर अलोन। यू आर इटरनली कनेक्टेड विथ एवरीवन।’ 

हर त्योहार आचार और व्यवहार में एकात्मता का उदात्त दर्शन लेकर आता है। गुरुनानक जयंती को प्रकाशपर्व के रूप में मनाया जाता है। ‘एक ओंकार’ का आदर्श, ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्ज्वलित करना। ‘राम दी चिड़ियाँ, राम दा खेत। चुग लो चिड़ियों, भर-भर पेट,’ का गुरु नानक उवाच एकात्मता का ही एक आयाम है।

भगवान महावीर का जन्म कल्याणक उत्सव सम्यकता के दर्शन का उत्सव है।  दीपावली को उनका  निर्वाण दिवस माना जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती का निर्वाण भी दीपावली को ही हुआ था। अलौकिक आत्माओं का निर्वाण भी जगत को प्रकाशवान कर जाता है।

तथागत गौतम बुद्ध का तो पूरा जीवन एक अद्भुत परिक्रमा  है। उनका जन्म, ज्ञान की प्राप्ति तथा महापरिनिर्वाण एक ही दिन वैशाख पूर्णिमा को हुआ था।

एक माह के रोज़ा के बाद ईद उल फित्र  मनाई जाती है। इस अवसर पर निर्धन वर्ग को दान देने की परंपरा है ताकि वे भी ईद मना सकें। यही एकात्मता है। पारसी नववर्ष पतेती पर भी गरीबों को दान दिया जाता है। यह भी आनंद का विस्तार या एकात्मता ही है।

जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय यमुना नदी उफान पर थी। वसुदेव द्वारा टोकरी में कान्हा को रखकर नदी पार करते समय  शेषनाग का अपने फन से भगवान को भीगने से बचाने की पौराणिक गाथा भी पंचमहाभूतों की एकात्मता है। वैदिक दर्शन केवल बौद्धिक चर्वण तक नहीं रुकता। यहाँ क्रियान्वयन ही कर्म है। क्रियावान ही विद्वान है। ‘य क्रियावान स: पंडित।’ यही कारण है कि कृषिकार्य में उपयोगी बैल के लिए महाराष्ट्र में बैल पोला मनाया जाता है। साक्षात कालरूप माने गये नाग के लिए जैसे नागपंचमी पूरी श्रद्धाभाव के साथ मनाई जाती है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 121 ☆ दर्द की इंतहा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द की इंतहा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 121 ☆

☆ दर्द की इंतहा

‘दर्द को भी आधार कार्ड से जोड़ दो/ जिन्हें मिल गया है दोबारा ना मिले’ बहुत मार्मिक उद्गार क्योंकि दर्द हम-सफ़र है; सच्चा जीवन-साथी है, जिसका आदि अंत नहीं। ‘दु:ख तो अपना साथी है’ गीत की ये पंक्तियां मानव में आस्था व विश्वास जगाती हैं; मानव मन को ऊर्जस्वित व संचेतन करती है। वैसे तो रात्रि के पश्चात् भोर, अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा व दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित है; अवश्यंभावी है। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं और एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है।

समय निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; कभी रुकता नहीं। सो! जो आया है अवश्य जाएगा। इसलिए ऐ मानव! तू किसी के आने पर ख़ुशी व जाने का मलाल मत कर। ‘कर्म गति अति न्यारी’ इसके मर्म को आज तक कोई नहीं जान पाया। परंतु यह तो निश्चित् है कि ‘जो जैसा करता, वैसा ही फल पाता’ के माध्यम से मानव को सदैव सत्कर्म करने की सीख दी गयी है।

अतीत कभी लौटता नहीं; भविष्य अनिश्चित् है।  परंतु वह सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वर्तमान ही शाश्वत् सत्य है, शिव है और सुंदर है। मानव को सदैव आज के महत्व को स्वीकारते हुए हर पल को ख़ुशी से जीना चाहिए। चारवॉक दर्शन में भी ‘खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ’ का संदेश निहित है। आज की युवा पीढ़ी भी इसी का अनुसरण कर रही है। शायद! इसलिए ‘वे यूज़ एंड थ्रो’, ‘लिव इन’ व ‘मी टू’ की अवधारणा के पक्षधर हैं। वे पुरातन जीवन मूल्यों को नकार चुके हैं, क्योंकि उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। वे सदैव वर्तमान में जीते हैं। संबंध-सरोकारों का उनके जीवन में कोई मूल्य नहीं तथा रिश्तों की अहमियत को भी वे नकारने लगे हैं, जिसका प्रतिफलन विकराल सामाजिक विसंगतियों के रूप में हमारे समक्ष है।

अमीर-गरीब की खाई सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है और हमारा देश इंडिया व भारत दो रूपों में परिलक्षित हो रहा है। एक ओर मज़दूर, किसान व मध्यमवर्गीय लोग दिन-भर परिश्रम करने के पश्चात् दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते और आकाश की खुली छत के नीचे अपना जीवन बसर करने को विवश हैं। बाल श्रमिक शोषण व बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना रूप हमारे समक्ष है। एक घंटे में पांच बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं; बहुत भयावह स्थिति  है। दूसरी ओर धनी लोग और अधिक धनी होते जा रहे हैं, जिनके पास असंख्य सुख-सुविधाएं हैं और वे निष्ठुर, संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित व निपट स्वार्थी हैं। शायद! इसी कारण गरीब लोग दर्द को आधार-कार्ड से जोड़ने की ग़ुहार लगाते हैं, क्योंकि व्यक्ति छल-कपट से पुन: वे सुविधाएं प्राप्त नहीं कर सकता। उनके ज़हन में यह भाव दस्तक देता है कि यदि ऐसा हो जायेगा, तो उन्हें जीवन में पुन: दर्द प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि वे अपने हिस्से का दर्द झेल चुके हैं। परंतु इस संसार में यह नियम लागू नहीं होता। भाग्य का लिखा कभी बदलता नहीं; वह अटूट होता है। सो! उन्हें इस तथ्य को सहर्ष क़ुबूल कर लेना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक मानव के साथ-साथ चलता है और उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए सुंदर भविष्य की प्राप्ति हेतू सदैव अच्छे कर्म करें, ताकि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -16 – छठ पूजा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 16 – छठ पूजा ??

छठ पूजा-

छठ या षष्ठी पूजा विशेषकर बिहार और झारखंड का सबसे बड़ा पर्व है। षष्ष्ठी माता को समर्पित  चार दिवसीय छठ पूजन  कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक चलता है।  नहाय-खाय पहला दिवस है। द्वितीय दिवस को खरना अथवा लोहंडा नाम से जाना जाता है। तीसरे दिन सूर्यास्त के समय सूर्यनारायण को अर्घ्य दिया जाता है। अंतिम दिन प्रात:काल सूर्योदय के समय सूर्यदेव को उषा अर्घ्य  देकर व्रत खोला जाता है। छठ जाग्रत देवता सूर्य की उपासना वाला पर्यावरण स्नेही त्योहार है।

केवल उगते को सलाम करने की संकुचित मनोवृत्ति के समय में यह उदात्त भारतीय दर्शन ही है जो उदय एवं अस्त दोनों समय सूर्यदेव को अर्घ्य देकर प्रणाम करता है।

विभिन्न पर्वों में एकात्मता-

भारत विविध धर्मों एवं विविध मतों से सज्जित भूभाग है। दुनिया में कहीं से कोई भी आया हो, वैदिक एकात्मता के रंग में रंँगता गया। वस्तुत: आदर्श सदा समान रहते हैं, काल, पात्र, परिस्थितिनुसार नैतिकता बदलती रहती है। स्वाभाविक है कि सबके पर्व, त्योहारों में भी विविधता हो। तब भी विविधता में वैदिक दर्शन सबको एक सूत्र में बाँधता है। यही कारण है कि अथर्ववेद कहता है,

।।मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्‌, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।।

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 15 – दीपावली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 15 – दीपावली ??

दीपावली भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,

असतो मा सद्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्मामृतं गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय का वास्तविक अर्थ यही है।  हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है,

अँधेरा मुझे डराता रहा,

हर अँधेरे के विरुद्ध

एक दीप मैं जलाता रहा,

उजास की मेरी मुहिम

शनै:-शनै: रंग लाई,

अनगिन दीयों से

रात झिलमिलाई,

सिर पर पैर रख

अँधेरा पलायन कर गया

और इस अमावस

मैंने दीपावली मनाई !

कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। अनेक मत, संप्रदाय सामूहिक प्रयासों की बात तो कर सकते हैं पर वैदिकता ही है जो व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करती है। यह ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है।

माना जाता है कि प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर  दीपावली मनाई थे। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के  हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। 

सामूहिक दीपोत्सव के रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही हैं। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ क्रांतितले अप्रकाशित तारे – भाग-1 ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆

? विविधा ? 

☆ क्रांतितले अप्रकाशित तारे – भाग-1 ☆सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆ 

क्रांतीतले अप्रकाशित तारे – रानी मां गायडिल्लू (Gaidinlue)

ब्रिटिश काळात इंग्रजांच्या अत्याचाराच्या विरोधात असंख्य क्रांतिकारकांनी देशासाठी लढे दिले. कित्येकांनी प्राणही गमाविले. त्या सर्वांचीच नावे प्रकाशात आली नाहीत.काही जणांचे बलिदान खूप गाजले. आजही त्यांची नावे अभिमानाने घेतली जातात. पण काही जणांनची नावे फक्त इतिहासालाच माहीत आहेत.त्यांचे कार्य खूपच महान आहे. पण त्याची कुणाला फारशी माहिती नाही. त्यांच्यापैकीच एक नाव आहे ” रानी मां गायडिन्ल्यू”.

या मणिपूर राज्यात तेमेलून जिल्ह्यातील ल्युंकाऊं या गावी जन्मल्या. जन्मतारीख होती २६ जानेवारी, १९१५. त्यांचे वडील लाॅथॅनाॅंग हे त्यांच्या राॅन्ग माई या समाजातील मोठे समाजसुधारक कार्यकर्ते होते. आई कारोटल्यू या अत्यंत धार्मिक, सात्विक अशा गृहिणी होत्या.या दांपत्याला आठ मुले मुली होत्या, त्यापैकी  रानी ही त्यांचे सातवे अपत्य होते.

पूर्वोत्तर राज्यातील राणी लक्ष्मीबाई म्हणून त्या नागा लोकांमध्ये प्रसिद्ध होत्या. त्यांना ” क्रांतीच्या वीरांगना”  म्हटले जाई. इंग्रजांविरुद्ध त्यांनी वयाच्या अवघ्या तेराव्या वर्षी आंदोलनात सहभाग घेतला. कारण इंग्रज नागा लोकांच्या अज्ञानाचा गैरफायदा घेऊन त्यांना ख्रिस्ती धर्म स्वीकारण्याची सक्ती करत होते. हे इंग्रज नागा लोकांवर अतोनात अत्याचार  करीत होते. त्यासाठी रानी मां गायडिन्ल्यू यांनी त्यांचा चुलत भाऊ हैपॉव जाडूनॉन्ग याने सुरू केलेल्या चळवळीत उडी घेतली. ही चळवळ Heraka Religious Movement म्हणून ओळखली जायची. ही धार्मिक स्वरूप असलेली चळवळ नंतर राजकीय स्वरूपात परिवर्तित झाली. त्यामुळे रानी मां ही प्रथम अध्यात्मिक नेता म्हणून ओळखली जायची ती आता राजकीय नेता बनली.

इंग्रज लोकांनी तिला  ” पूर्वोत्तर की आतंकवादी” म्हणून घोषित करून टाकले होते. तिला पकडण्यासाठी इंग्रजांनी प्रथम २०० रू. , नंतर ५०० रू. अशी बक्षिसे जाहीर केली. तरीही ती पकडली गेली नाही. म्हणून इंग्रज सरकार उदार झाले. त्यांनी साऱ्या विभागाचा कर रद्द करण्याची घोषणा केली होती.

वयाच्या सतराव्या वर्षी रानी मां गायडिन्ल्यू यांनी ब्रिटिशांविरुद्ध चळवळीत प्रत्यक्ष भाग घेतला. आणि तिने Zeliangrong Three Tribe नावाच्या आर्मीची स्थापना केली. त्याचसाठी तिला. १९३२ साली इंग्रजांनी तुरूंगात डांबले. तिचा भाऊ, चळवळीतील सहकारी, नेता हैपॉव याला इंग्रजांनी १९३९ साली फाशीची शिक्षा दिली.

हरिपूर जेलमधून तिची  सुटका व्हावी म्हणून सुभाषचंद्र बोस यांच्या अध्यक्षतेखाली काॅ॑ग्रेसने ठराव संमत केला. तरीही तिची सुटका झाली नाहीच. जेलमध्ये पंडित जवाहरलाल नेहरू तिला भेटायला गेले होते. त्यांनी ” नागाओंकी रानी”  असा तिचा गौरव केला. ते रानीपुढे नतमस्तक झाले. इंग्रजांनी सुनावलेली आजीवन कारावासाची शिक्षा ब्रिटिश देशातून जाईपर्यंत तिने भोगली.

तिचे कार्य झाशीच्या राणी इतकेच महान होते. ब्रिटिशांनी नागा लोकांचे जे हाल केले , त्यांना ख्रिश्चन बनण्यासाठी अत्याचार केले, त्याविरुद्ध ती मणिपूर, नागालँड च्या गावागावात फिरली.निरक्षर, अडाणी नागा आदिवासी हे ब्रिटिश ईसाईंचे लक्ष्य होते. ते वेगवेगळी आमिषे दाखवून त्यांना ख्रिश्चन बनवीत. त्याविरोधात रानी मां आदिवासी लोकांमध्ये जागृती करण्याचे काम करू लागली.

त्यासाठी तिने देवपूजा, भजन, कीर्तन ,या हिंदू पूजापाठ पद्धतीचा अवलंब करण्यास सुरुवात केली. आदिवासी लोकांमध्ये ती हिंदू धर्माविषयी जागृती, प्रेम निर्माण करू लागली.  तिने जुनी भजने लोकांमध्ये प्रसारित केली. तसेच नवी नवी भजने लिहायला ,गायला, शिकवायला सुरुवात केली. आणि जनजागृती करून लोकांना धर्मांतर करण्यापासून परावृत्त केले. रानी मां गायडिन्ल्यू फार शिकलेली नव्हती.पण तिच्या कार्याचा धडाका पाहून इंग्रज सरकार आणि ईसाई यांच्या छातीत मात्र धडकी भरत होती.

रानी मां गायडिन्ल्यू या Daughter of the Hills म्हणून नागालँड मणिपूर मध्ये सुप्रसिद्ध होत्या. त्या न घाबरता, न डगमगता नागांच्या हक्काकरिता ब्रिटिश सत्तेविरुद्ध सतत लढे देत राहिल्या. वयाची उमेदीची चौदा पंधरा वर्षे  त्यांना तुरूंगवास सोसावा लागला.

क्रमशः…

© सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

पुणे 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -14 श्रीगणेश चतुर्थी एवं श्राद्ध पक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 14  – श्रीगणेश चतुर्थी एवं श्राद्ध पक्ष ??

श्रीगणेश चतुर्थी- श्रीगणेश का जन्मोत्सव है श्रीगणेशचतुर्थी। सनातन धर्म में श्रीगणेश प्रथमपूज्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका प्रथमपूज्य होना वैदिक दर्शन में निहित उदात्तता तथा माता-पिता के प्रति गहन आदर व श्रद्धा का प्रतीक है। महर्षि मनु का उवाच है,

उपाध्यान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन माता गौरवेणातिरिच्यते।।

दस उपाध्यायों से बढ़कर आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और एक हजार पिताओं से बढ़कर माता, गौरव में अधिक है।

इसी दर्शन का अंगीकार करते हुए श्रीगणेश ने माता-पिता की परिक्रमा को ब्रह्मांड की परिक्रमा की प्रतिष्ठा प्रदान की। यही कारण है कि कालांतर में ‘श्रीगणेश करना’, किसी भी काम का आरंभ करने के अर्थ में रूढ़ हुआ।

आरंभ में श्रीगणेशचतुर्थी घर में मनाया जानेवाले त्योहार तक सीमित था। विशेषत: महाराष्ट्र में पर्व के रूप में इसे व्यक्तिगत से समष्टिगत बनाने का मार्ग दिखाया लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने। आज यह पर्व एकात्मता एवं सहयोग का सजीव प्रतीक बन चुका है।

श्राद्ध पक्ष- भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। सोलह दिवस चलने वाले श्राद्धपक्ष को पर्व कहना अटपटा लग सकता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे पर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए सदाचारी निर्धन पुरोहित के स्थूल शरीर के माध्यम से स्वर्गीय के सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता वैदिक दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला लिए श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वा

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -13 -हरतालिका एवं गणगौर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 13 – हरतालिका एवं गणगौर ??

हरतालिका-  सुहागिनों (और कुमारिकाओं द्वारा भी) द्वारा किया जाता विशेषकर उत्तर भारत का यह प्रसिद्ध पर्व  है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाने वाला यह हरतालिका की महाराष्ट्र में भी विशेष मान्यता है। अखंड सौभाग्य के लिए किये जाने वाले इस व्रत में अंतर्निहित सामाजिकता देखिए कि सम्बंधित महिला की बीमारी की स्थिति में दूसरी स्त्री  उसके लिए यह व्रत रख लेती है। अनेक बार पत्नी के अस्वस्थ होने पर पति यह व्रत करता है।

गणगौर- यह मुख्यत: राजस्थान में  मनाया जाता है। गणगौर, गण और गौर ( शिवजी और गौरा जी) की पूजा है। पौराणिक गाथा है कि चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को गौरा जी अपने पीहर आती हैं। आठ दिन बाद ईसर जी (शिवजी) उन्हें विदा कराने आते हैं। चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरा जी विदा होती हैं। इस प्रकार गणगौर  अठारह दिनों तक चलता है।

इसे सुहागिन और कुंवारी दोनों करती हैं। चूँकि यह युगलपूजा है, दो महिलाएँ मिलकर पूजती हैं। स्त्री  सामासिकता एवं एकात्मता का समन्वित प्रतिरूप है। यही कारण है कि गणगौर में भी यही भाव प्रतिबिंबित होते हैं। सुहागिनें अपने पीहर और ससुराल दोनों में सुख- समृद्धि बनाये रखने और अखंड सौभाग्य के लिए गणगौर पूजती हैं। कुंवारियाँ सच्चे व अच्छे जीवनसाथी के लिए गणगौर करती हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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