हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 121 ☆ कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक ज्ञानवर्धक आलेख  ‘कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 121 ☆

?  कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ?

घने ऊँचे वृक्षों के बीच से सूरज की रोशनी कुछ इस तरह से झर रहीं थीं मानो स्वर्ण किरणें सीधे स्वर्ग से आ रही हों. हम खुली जीप पर सवार थे. जंगल की नमी युक्त, महुये की खुशबू से सराबोर हवा हमें एक मादक स्पर्श से अभीभूत कर रही थी.गर्मी के मौसम में भी हल्की ठंड का अहसास हो रहा था,मानो प्रकृति ने एारकंदीशनर चला रखा हो. पत्तों की कड़खड़ाहट भी हमें चौंका देती थी, लगता था कि अगले ही पल कोई वन्य जीव हमारे सामने होगा. मेरे बच्चों की जिज्ञासा हर पल एक नया सवाल लेकर मेरे सम्मुख थी. मिलिट्री कलर की ड्रेस में ग्राम खटिया का रहने वाला मूलतः आदिवासी गौंड़, हमारा गाइड मुन्नालाल बार बार बच्चों को शांत रहने का इशारा  कर रहा था जिससे वह किसी आसन्न जानवर की आहट ले सके. बिटिया चीना ने खाते खाते चिप्स का पैकेट खाली कर दिया था, और उसने पालीथिन के उस खाली पैकेट को अपने बैग में रख लिया जंगल में घुसने से पहले ही हमें बताया गया था कि जंगल नो पालीथिन जोन है. जिससे कोई जानवर पालिथिन गलती से न खा  ले, जो उसकी जिंदगी की मुसीबत बन जाये. कान्हा का अभयारण्य क्षेत्र ईकोलाजिकल फारेस्ट के रूप में जाना जाता है. जंगल में यदि कोई पेड़ सूखकर गिर भी जाता है तो यहां की विशेषता है कि उसे उसी स्थिति में प्राकृतिक तरीके से ही समाप्त होने दिया जाता है. यही कारण है कि कान्हा में जगह जगह उँचे  बड़े दीमक के घर “बांमी” देखने को मिलते हैं.

पृथ्वी पर पाई जानें वाली बड़ी बिल्ली की प्रजातियों में से सबसे रोबीला, अपनी मर्जी का मालिक और खूबसूरत है,भारत का राष्ट्रीय पशु – बाघ. जहां एक बार भारत के जंगलों में 40,000 से अधिक बाघ थे, पिछले दशक में ऐसा लगा मानो यह प्रजाति विलुप्त  होने की कगार पर है.  शिकार के कारण तथा जंगलों की अंधा धुंध कटाई के चलते भारत के वन्य क्षेत्रों में बाघों की संख्या घट कर 2000 से भी कम हो गई थी. समय रहते सरकार और पर्यावरण विदो ने सक्रिय भूमिका निभाई. कान्हा जैसे वन अभयारण्यों में पुनः बाघों को अपना घर मिला और प्रसन्नता का विषय है कि अब बाघो की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है.  बाघों को तो चिड़ियाघर में भी देखा जा  सकता है,  परंतु जंगल में मुक्त विचरण करते बाघ देखने का रोमांच और उत्साह अद्भुत होता है. वन पर्यटन हेतु प्रदेश टूरिज्म डिपार्टमेंट ने   कान्हा राष्ट्रीय उद्यान,  बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान आदि में बाघ सफारी हेतु इंतजाम किये हैं. इन वनो में हम भी शहरी आपाधापी छोड़कर जंगल के नियमों और प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुये, बिना वन्य प्राणियो को नुकसान पहुंचाये उन्हें निहार सकते हैं. इन पर्यटन स्थलो के वन संग्रहालयो में पहुंचकर वन्य प्राणियो के जीवन चक्र को समझ सकते हैं, और लाइफ टाइम मैमोरीज के साथ ही प्राकृतिक छटा में, अविस्मरणीय फोटोग्राफ लेकर एक रोचक, रोमांचक अनुभव कर सकते हैं.

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान व बाघ अभयारण्य मध्य प्रदेश राज्य के मंडला एवम्‌ बालाघाट जिलों में स्थित है. कान्हा में हमें बाघों व अन्य वन्य जीवों के अलावा पृथ्वी पर सबसे दुर्लभ हिरण प्रजातियों में से एक -हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा को भी देखने का मौका मिलता हैं. समर्पित स्टाफ व उत्कृष्ट बुनियादी पर्यटन ढांचे के साथ कान्हा भारत का सबसे अच्छा और अच्छी तरह से प्रबंधित अभयारण्य हैं. यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, हरे भरे साल और बांस के सघन जंगल, घास के मैदान तथा शुद्ध व शांत वातावरण पर्यटक को सम्मोहित कर लेता हैं. कान्हा पर्यटकों, प्राकृतिक इतिहास,वन्य जीव फोटोग्राफरों, बाघ और वन्यजीव प्रेमियों के साथ बच्चो और आम लोगों के बीच बड़े पैमाने पर प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि लेखक श्री रुडयार्ड किपलिंग को ‘जंगल बुक’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास लिखने के लिए इसी जंगल से प्रेरणा मिलीं थी.  किपलिंग रिसार्ट नामक एक परिसर उनकी स्मृतियां हर पर्यटक को दिलाता रहता है. बाघ व बारह सिंगे के सिवाय कान्हा में  तेंदुआ, गौर (भारतीय बाइसन), चीतल, हिरण, सांभर, बार्किंग डीयर, सोन कुत्तों के झुंड, सियार इत्यादि अनेक स्तन धारी जानवरों, तथा कुक्कू, रोलर्स, कोयल, कबूतर, तोता, ग्रीन कबूतर, रॉक कबूतरों, स्टॉर्क, बगुलों, मोर, जंगली मुर्गी, किंगफिशर, कठफोड़वा, फिन्चेस, उल्लू और फ्लाई कैचर जैसे पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियों, विभिन्न सरीसृपों और हजारों कीट पतंगे हम यहाँ  देख सकते हैं. प्रकृति की सैर व वन्य जीवों को देखने के अलावा बैगा और गोंड आदिवासीयो की संस्कृति व रहन सहन को समझने के लिए भी पर्यटक यहाँ देश विदेश से आते हैं.

भारत में सबसे पुराने अभयारण्य में से एक, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान को 1879 में आरक्षित वन तथा 1933 में अभयारण्य घोषित किया गया, 1973 में इसे वर्तमान स्वरूप और आकार में अस्तित्व में लाया गया था, लेकिन इसका इतिहास महाकाव्य रामायण के समय से पहले का हैं. कहा जाता हैं कि अयोध्या के महाराज दशरथ ने कान्हा में स्थित श्रवण ताल में ही श्रवण कुमार को हिरण समझ के शब्द भेदी बाण से मार दिया था तथा श्रवण कुमार का अंतिम संस्कार श्रवण चित्ता में हुआ था. आज भी वर्ष में एक दिन जब श्रवण ताल में आदिवासियो का मेला भरता है, सभी को वन विभाग द्वारा कान्हा वन्य क्षेत्र में निशुल्क प्रवेश दिया जाता है. 

इस क्षेत्र में पायी जाने वाली रेतीली अभ्रक युक्त  मिट्टी जिसे स्थानीय भाषा में ‘कनहार’ के नाम से जाना जाता है, के कारण इस वन क्षेत्र में कान्हा नामक वन्य ग्राम था जिसके नाम पर ही इस जंगल का नाम कान्हा पड़ा. एक अन्य प्रचलित लोक गाथा के अनुसार कवि कालिदास जी द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में वर्णित ऋषि कण्व यहां के निवासी थे तथा उनके नाम पर इस क्षेत्र का नाम कान्हा पड़ा.

कान्हा राष्ट्रीय पार्क के चारों ओर बफर क्षेत्र में आदिवासी संस्कृति और जीवन स्तर को देखने के लिए गांव का भ्रमण तथा जंगल को पास से देखने व समझने के लिए एवम्‌ पक्षियो को  निहारने के लिए सीमित क्षेत्र में पैदल जंगल भ्रमण किया जा सकता हैं. कान्हा के प्राकृतिक परिवेश और शांत वातावरण में स्वास्थ्यप्रद भोजन, योग और ध्यान के साथ स्वास्थ्य पर्यटन का आनंद भी लिया जा सकता है. कान्हा क्षेत्र बैगा और गोंड आदिवासियों का निवास रहा है. बैगा आदिवासियों को भारतीय उप महाद्वीप के सबसे पुराने निवासियों में से एक के रूप में जाना जाता है। वे घुमंतू खेती किया करते थे और जंगल से शहद, फूल, फल, गोंद, आदि लघु वनोपज एकत्र कर के अपना जीवन यापन करते थे. स्थानीय क्षेत्र और वन्य जीवन का उनको बहुत गहरा ज्ञान है. बांस के घने जंगल कान्हा की विशेषता हैं. यहां के स्थानीय ग्रामीण बांस से तरह तरह के फर्नीचर व अन्य सामग्री बनाने में बड़े निपुण हैं. मण्डला में कान्हा सिल्क के नाम से स्थानीय स्तर पर कुकून से रेशम बनाकर हथकरघा से रेशमी वस्त्रो का उत्पादन इन दिनों किया जा रहा है. आप कान्हा से लौटते वक्त सोवेनियर के रूप में बांस की कोई कलाकृति, वन्य उपज जैसे शहद, चिरौंजी, आंवले के उत्पाद या रेशम के वस्त्र अपने साथ ला सकते हैं, जो बार बार आपको प्रकृति के इस रमणीय सानिध्य की याद दिलाते रहें.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ती दिवाळी….. ही दिवाळी ☆ श्री विजय गावडे

श्री विजय गावडे

? विविधा ?

☆ ती दिवाळी….. ही दिवाळी ☆ श्री विजय गावडे ☆  

दिन दिन दिवाळी, गाय म्हशी ओवाळी

गाय म्हशी कुणाच्या, लक्ष्मीमणाच्या,

लक्ष्मण कुणाचा, आईबापाचा……

या ओळी आठवतात ना?  ती दिवाळी आठवतेय का? गावची. बालपणीची. आपल्या बालपणीची. सुमारे पन्नास साठ वर्षांपूर्वीची.

निसर्गाशी एकरूप असा प्रत्येक सण साजरा व्हायचा. सजीव ते ते सर्व सामावून घ्यायचा.  गायी, म्हशी, बैल यांना तर हक्काचं स्थान असायचं.

लहान दिवाळी, मोठी दिवाळी. आठवतात ना.  मोठ्या दिवाळीत गुराखी आपापले गोठे  सारवून सुरवून लक्ख करायचा. गुरांच्या शेणाचा एक गोठ्यात गोठा तयार केला जायचा.  त्या गोठ्यात कारटांची (कडू काकडीची) गुरं ढोर भरली जायची. त्या इवल्याश्या प्रतिकात्मक गोठ्यात लहान लहान कारट वासरं असायची. गोठेकर पती पत्नी गोठ्याची मनोभावे पूजा करायची. आम्हा मुलांना आग्रहाने गोडा धोडाच खाऊ घालायची.  चंगळ असायची.

नरक चतुर्थी ला आमच्या तळ कोकणात ‘चाव दिस’ म्हणतात.  थंडीत कुडकूडत, उटणं लावून आंघोळ झाली कि चावायला मिळायचे गूळ पोहे. नव्या भाताचे नव्याने कुठलेले, चवदार. झालंच तर ढाक चिनी, करांदे या सारखी रताळी सदृश्य कंद किंवा मूळ हि असायची चावदिसाला.  क्वचित कोणी त्यातल्या त्यात धनवान सर्वांना आमंत्रित हि करी फराळाला ज्यात  रताळ्यांचा रतीब मुख्यत्वे करून असायचा.  ती एखाद दुसरीच मेजवानी असायची.

तर अशी हि ‘ती दिवाळी’.  मनात घर करून राहिलेली.  आजच्या प्रत्येक वस्तूच्या मुबलक उपलब्धतेला वाकुल्या दाखविणारी.  कमी साधनातून अमर्याद आनंद देणारी आणि म्हणूनच आठवणींचा कोपरा अजूनही व्यापून उरलेली.

 

© श्री विजय गावडे

कांदिवली, मुंबई 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो…… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज  श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत है  एक विचारणीय आलेख  ‘देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो……’ । हम आपकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय-समय पर साझा करते  रहेंगे।)

☆ जीवन यात्रा ☆ देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो….. ☆

रूठना, मनाना और मान जाना मानवीय व्यव्हार की कुछ अजीब सी मानसिक क्रियाएं हैं। इनका चलन यूं तो आदि काल से देखा जा सकता है पर स्मार्टफोन और व्हाट्सएप के आने के बाद इनका अलग ही रूप देखने को मिल रहा है।

रूठने की शुरुआत किसी बात पर नाराज़ होने से होती है। प्रारम्भिक लक्षण बोलचाल बंद होने के रूप में देखे जा सकते हैं।

व्हाटसएप के कारण क्योंकि संवाद का दायरा बहुत बढ़ गया है, इसीलिए रूठने, मनाने और मान जाने के अवसर भी बढ़ गए हैं।

आजकल दूर चले जाने पर भी व्यक्तियों का संपर्क नहीं टूटता। व्हाटसएप , फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया रूप उन्हे जोड़े ही रखते हैं। मित्रता का दायरा बहुत ही व्यापक हो गया है। सस्ता और आसान भी हो गया है।

आजकल बच्चे, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष घण्टों स्मार्टफोन पर व्यस्त देखे जा सकते हैं। वे अपने आप ही मुस्कुराते और उत्साहित हो अपना उत्तर टाइप करते रहते हैं। इस प्रक्रिया से व्यक्ति का नज़रों से दूर बैठे व्यक्तियों से संपर्क बढ़ा है, पर नज़रों के सामने आसपास और पड़ोस के व्यक्तियों से बहुत ही कम हो गया है। इसे वर्टिकल यूनिटी बढ़ने और हॉरिजॉन्टल यूनिटी घटने के रूप में भी समझा जा सकता है।

खैर बात सोशल मीडिया के दौर में रूठने, मनाने और मान जाने की हो रही थी, तो उसी पर लौटते हुए कह सकते हैं कि आजकल पट दोस्ती और चट नाराज़गी का दौर भी चलने लगा है। अक्सर दोस्त किसी विषय को लेकर बहस में उलझते रहते हैं। फटाफट संदेशों के छक्के लग रहे होते हैं। मित्रता है तो अनोपचारिकता भी होगी और थोड़ी बहुत टांग खिचाई भी चलेगी। बस यही समय होता है कि कोई भाई कुछ कह कर या बिना कहे ही ‘लेफ्ट’ हो जाता है,  यानि ग्रुप छोड़ जाता है। जो बिना कहे छोड़ जाते हैं, उनके बारे में पहले तो यही समझा जाता है कि उनसे कोई ग़लत बटन दब गया होगा तो उन्हे ‘इन्वाइट रिक्वेस्ट’ भेज कर अक्सर मना लिया जाता है।

जो मेसेज छोड़ कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए चले जाते हैं, उन्हे मनाने का दौर शुरू होता है, जो चंद घंटे या चंद दिनों तक चल सकता है। आने वाले अक्सर आ जाते हैं पर उनका पुराना जोश वापिस नहीं आता या फिर उसे आने में लंबा समय लग जाता है।

नाराज़गी का अक्सर कारण फरवार्डेड मेसेज होते हैं यानि ऐसे संदेश जो हमारे पास कहीं से आते हैं और हम बिना कुछ गंभीर विचार के उसे अपने ग्रुप में धकेल देते हैं जहां कोई मित्र उस पर आपत्ति उठा देता है और इस बहसबाजी में कोई न कोई नाराज़ हो ग्रुप छोड़ जाता है। ये उड़ते फिरते मेसेज कई दोस्तियां खराब कर जाते हैं। इनसे बचना जरूरी है। यह न सोचें कि आप यह कह कर बच जाएंगे कि आपने तो केवल फॉरवर्ड किया था। आपकी कानूनी ज़िम्मेदारी भी उतनी ही है जितनी उस व्यक्ति की जिसने वह आपत्तिजनक मेसेज बनाकर पहली बार भेजा था। भेजने का सीधा मतलब है आप सहमति के साथ वह संदेश आगे भेज रहे हैं। आप निरपेक्ष नहीं हो सकते। सावधान रहिए। मित्रों को नाराज़ न करें।

आइए अब लगे हाथ पुराने ज़माने में रूठने, मनाने और मान जाने की बात करते हैं। यह अदा अक्सर युवा प्रेमियों में देखी जाती थी। अक्सर प्रेमिका नाराज़ होती थी और प्रेमी उसे मनाता था। आपने वह गाना तो सुना होगा,

‘रूठ कर पहले उनको सताऊंगी मैं, जब मनाएंगे तो मान जाऊंगी मैं…..’

ऐसा रूठना केवल नखरे दिखाने की अदा होती है। ऐसी अदाओं से प्रेम गहरा होता है। और बानगी देखिए…

‘तुम रूठी रहो,

मैं मनाता रहूं,

तो मज़ा जीने का

और आ जाता है…’

या फिर,

‘देखो रूठा न करो,

बात नज़रों की सुनो,

हम न बोलेंगे कभी,

तुम सताया न करो..’

और यह भी,

‘अजी, रूठ कर अब

कहां जाएगा,

जहां जाइयेगा,

हमें पाएगा….’

पंजाबी के शीर्ष कवि प्रो मोहन सिंह की एक कविता में प्रेमिका लंबे समय बाद लौटने वाले अपने प्रेमी से नाराज़ हो रूठने का मन बनाती है पर जब वो सामने आता है, तो खिड़ खिड़ हंस पड़ती है…

एक और बात। कभी किसी एक के रूठने पर दूसरे को भी  नहीं रूठ जाना चाहिए। वो गीत है ना….

‘असिं दोवें रूस जाईए,

ते मनाऊ कौन वे…’

लगता है रूठने का अधिकार जैसे महिलाओं का ही एकाधिकार है। तभी तो हमारे पिताजी बचपन में हमें धमकाते हुए कहते थे, ‘क्यों औरतों की तरह टसुए बहा रहा है’।

बस ऐसी ही बातों से हम रोना भूलते गए और पत्थर दिल बनते गए। औरतों के दिल आज भी ज़्यादा मानवीय हैं। वे झट से आंसू बहा मन हल्का कर लेती हैं।

एक बात और बताऊं। हमारे गांव में लड़के की शादी के वक्त भाई बंधुओं के रूठने का बड़ा रिवाज़ था। लड़के का पिता साथियों और बुजुर्गों को लेकर नाराज़ व्यक्ति को मनाने जाता था। उसकी शिकायत सुनता था। हाथ जोड़ कर सब बातों की माफी मांगता था। यह ज़रूर कहता था, ‘भाई, तेरे भतीजे का ब्याह है और तुझे ही करना है। तेरे बिना मैं कुछ नहीं कर सकता’। बस इतनी सी बात पर सारे गिले शिकवे फुर्र हो जाते थे। फिर तो नाराज़ हुआ व्यक्ति ही सबसे आगे शादी के प्रबंध देखता था।

कहां गए वो दिन जब कहते थे, ‘फटे को सीये नहीं,

और रूठे को मनाएं नहीं,

तो काम कैसे चलेगा!’

आजकल कोई पूछता भी नहीं कि शादी में कोई आया भी कि नहीं…

आखिर में मैं यह भी बताता चलूं कि एक दो बार मेरा भी मन किया है कि मैं यह ग्रुप ‘लेफ्ट’ कर दूं। पर फिर खयाल आया कि अगर किसी ने न मनाया तो फिर क्या होगा। कोई कह सकता है, ‘गुड रिडैंस यानि अच्छा हुआ, छुटकारा मिला’।

यह तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। इतने प्यारे, इतने सारे दोस्तों को छोड़ कर जाने पर। बस इसी ख्याल से नाराज़गी का घूंट पी कर हम चुप रहते हैं। यारों को पता भी नहीं लगने देते कि हम नाराज़ हुए थे।

और फिर दो चार दिन में ऐसा मौका आता है कि हम खिड़ खिड़ हंस पड़ते हैं।

या फिर कोई लेख लिख लेते हैं।

तो मित्रो, रूठिए मत, कोई रूठ जाए  तो मनाते रहिए और मान जाते रहिए…

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

(लेखक हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे दूरदर्शन हिसार के समाचार निदेशक के रूप में कार्यरत रह चुके हैं। )

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 111 ☆ मन एव मनुष्याणां ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 111 ☆ मन एव मनुष्याणां ☆

‘मेरे शुरुआती दिनों में उसने मेरे साथ बुरा किया था। अब मेरा समय है। ऐसी हालत की है कि ज़िंदगी भर याद रखेगा।’…’मेरी सास ने मुझे बहुत हैरान-परेशान किया था। बहुत दुखी रही मैं। अब घर मेरे मुताबिक चलता है। एकदम सीधा कर दिया है मैंने।’…’उसने दो बात कही तो मैंने भी चार सुना दीं।’…आदि-आदि। सामान्य जीवन में असंख्य बार प्रयुक्त होते हैं ऐसे वाक्य।

यद्यपि  पात्र और परिस्थिति के अनुरूप हर बार प्रतिक्रिया भिन्न हो सकती है पर मनुष्य के मूल में मनन न हो तो मनुष्यता को लेकर चिंता का कारण बनता है।

मनुष्यता का सम्बंध मन में उठनेवाले भावों से है। मन के भाव ही बंधन या मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। कहा गया है,

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है।

वस्तुत: भीतर ही बसा है मोक्ष का एक संस्करण, उसे पाने के लिए, उसमें समाने के लिए मन को मनुष्यता में रमाये रखो। मनुष्यता, मनुष्य का प्रकृतिगत लक्षण है। प्रकृतिगत की रक्षा करना मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।

एक साधु नदी किनारे स्नान कर रहे थे। डुबकी लगाकर ज्यों ही सिर बाहर निकाला, देखते हैं कि एक बिच्छू बहे जा रहा है। साधु ने समय लगाये बिना अपनी हथेली पर बिच्छू को लेकर जल से निकालकर भूमि की ओर फेंकने का प्रयास किया। फेंकना तो दूर जैसे ही उन्होंने बिच्छू को स्पर्श किया, बिच्छू ने डंक मारा। साधु वेदना से बिलबिला गये, हथेली थर्रा गई, बिच्छू फिर पानी में बहने लगा। अपनी वेदना पर उन्होंने बिच्छू के जीवन को प्रधानता दी। पुनश्च बिच्छू को हथेली पर उठाया और क्षणांश में ही फिर डंक भोगा। बिच्छू फिर पानी में।…तीसरी बार प्रयास किया, परिणाम वही ढाक के तीन पात। किनारे पर स्नान कर रहा एक व्यक्ति बड़ी देर से घटना का अवलोकन कर रहा था। वह साधु से बोला, ” महाराज! क्यों इस पातकी को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। आप बचाते हैं और यह काटता है। इस दुष्ट का तो स्वभाव ही डंक मारना है।” साधु उन्मुक्त हँसे, फिर बोले, ” यह बिच्छू होकर अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूँ?”…

लाओत्से का कथन है, “मैं अच्छे के लिए अच्छा हूँ, मैं बुरे के लिए भी अच्छा हूँ।” यही मनुष्यता का स्वभाव है। मनन कीजिएगा क्योंकि ‘मन एव मनुष्याणां…।’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 105 ☆ युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों? ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों ? यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 105 ☆

☆ युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों ? ☆

भोर होते समाचार पत्र हाथ में लेते ही मस्तिष्क की नसें झनझना उठती हैं… अमुक ने नाबालिग़ से दुष्कर्म कर, उसका वीडियो वॉयरल करने की धमकी दी; कहीं मज़दूरिन की चार वर्ष की बेटी बेसमेंट में लहूलुहान दशा में पाई गई; कहीं विवाहिता से उसके पति के सम्मुख दुष्कर्म; तो कहीं मासूम बच्ची को स्कूल से लौटते हुए अग़वा कर हफ़्तों नहीं, महीनों तक बंदी बनाकर उससे बलात्कार; कहीं ज़मीन या मकान की रजिस्ट्री अपने नाम पर करवाने के लिए वृद्धा या विधवा को हवस का शिकार बनाने का प्रचलन सामान्य-सा हो गया है। यह आमजन को कटघरे में खड़ा करता है… आखिर क्यों मौन हैं हम सब…ऐसे असामाजिक तत्वों का विरोध-बहिष्कार क्यों नहीं…उन्हें सरे-आम फांसी की सज़ा क्यों नहीं … यह तो बहुत कम है, एक पल में मुक्ति…नहीं… नहीं; उन्हें तो नपुंसक बना आजीवन सश्रम, कठोर कारावास की सज़ा दी जानी चाहिए, ताकि उनके संबंधियों को उसे असहाय दशा में देखने का दुर्लभ अवसर प्राप्त हो…मिलने का नहीं, ताकि वे अपने लाड़-प्यार व स्वतंत्रता देने का अंजाम देख, प्रायश्चित हेतु केवल आंसू बहाते रहें और दूसरों को यह संदेश दें, कि ‘वे भविष्य में अपने बच्चों से सख्ती से पेश आएं…उन्हें सुसंस्कार दें, ताकि वे समाज में सिर उठा कर जी सकें।’

परन्तु यह सब होता कहां है? कहां दी जाती है उन्हें …कानून के अंतर्गत फांसी की कठोर व भीषणतम सज़ा…यह तो मात्र जुमला बनकर रह गया है। कानून की देवी की आंखों, कानों पर बंधी पट्टी इस बात का संकेत है कि वह अंधा व बहरा है…आज- कल वह पीड़ित पक्ष की सुनता ही कहां है…अक्सर तो वह रसूखदार लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर कार्य करता है…और शक़ की बिनाह पर छूट जाते हैं वे दुष्कर्मी …वैसे भी फांसी की सज़ा मिलने पर भी उन्हें अधिकार है; राष्ट्रपति से दया की ग़ुहार लगाने का, जिसका फैसला होने में एक लंबा समय गुज़र जाता है।

ज़रा सोचिए! कितने मानसिक दबाव में जीना पड़ता होगा उस पीड़िता व उसके परिवारजनों को? हर दिन गाली-गलौज, केस वापस लेने का दबाव, अनुरोध व धमकी तथा नित्य नए हादसे… उनकी ज़िन्दगी को नरक बना कर रख देते हैं। ज़रा ग़ौर कीजिए, उन्नाव की पीड़िता …कितनी शारीरिक पीड़ा व मानसिक यंत्रणा से गुज़र रही होगी वह मासूम… किस बात की सज़ा मिली रही है, उसके माता-पिता व परिजनों को… सोचिए! अपराधिनी वह पीड़िता है या राजनेता, जो दो वर्ष से उस परिवार पर ज़ुल्म ढा रहा है। क्या यही है, सत्य की राह पर चलने का अंजाम…अपने अधिकारों की मांग करने का इनाम? शायद! आपबीती अर्थात् स्वयं पर हुए ज़ुल्मों की दास्तान बखान कर, केस दर्ज कराने का साहस जुटाना जुर्म है? ऐसा लगता है कि सज़ा प्रतिपक्षी ‘औ’ दुष्कर्मी को नहीं, पीड़िता को मिल रही है।

यदि तुरंत कार्यवाही कर निर्णय लेना अनिवार्य कर दिया जाता, तो उसे इतनी भीषण यातनाएं न सहन करनी पड़तीं और न ही उन लोगों के हौंसले इतने बुलंद होते…वे उस परिणाम से सीख लेकर, भविष्य में गलत राह पर न चलते और बेटियों के माता-पिता को दहशत के साये में अपना जीवन बसर नहीं करना पड़ता। हर दिन निर्भया व आसिफ़ा दरिंदगी का शिकार न होतीं और लोगों को न्याय प्राप्त करने हेतु केंडल मार्च निकाल व धरने देकर आक्रोश की अभिव्यक्ति न करनी पड़ती… और बेटी के जन्म पर घर में मातम-सा माहौल पसरा नहीं दिखाई पड़ता।

एक प्रश्न हर दिन मन में कुलबुलाता है कि आखिर हमारी कानून-व्यवस्था इतनी लचर क्यों? विदेशों में ऐसे हादसे क्यों नहीं होते… वहां के लोग सुसभ्य व सुसंस्कृत क्यों होते हैं? आइए! ज़रा दृष्टिपात करें, इस समस्या के विविध पहलुओं व उसके समाधान पर… हमें जन्म से बेटी-बेटे को समान समझ उनकी परवरिश करनी होगी, क्योंकि बेटे में व्याप्त जन्म- जात श्रेष्ठता व अहमियत का भाव, वास्तव में उसे ऐसे दुष्कर्म व कुकृत्य करने को प्रोत्साहित करता है। इसके निमित्त हमें दोनों के लिए शिक्षा व व्यवसाय के समान अवसर जुटाने होंगे। हां! इसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता है… बुज़ुर्गों की सोच बदलने की; जिनके मन में आज भी यह भावना बलवती है कि मृत्यु के समय, पुत्र के हाथों गंगा-जल का आचमन करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होगी। परन्तु ऐसा कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आज कल तो बेटियां भी मुखाग्नि तक देने लगी हैं। प्रश्न उठता है, क्या उनके माता-पिता आजीवन प्रेत-योनि में भटकते रहेंगे और परिवारजनों को आहत करते रहेंगे?

सो! हमें बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता को भी इन अंधविश्वासों व दक़ियानूसी धारणाओं से मुक्त करना होगा तथा उन्हें इस तथ्य से अवगत कराना होगा कि ‘बेटियां दो-दो कुलों को आलोकित करती हैं…घर को स्वर्ग बनाती हैं।’ हां! यदि कोई बच्चा या युवा गलत राहों पर चल निकलता है, तो उसके लिए ऐसे गुरुकुल व सुधार-गृहों का निर्माण किया जाए; जहां उसे संस्कार व संस्कृति की महत्ता से अवगत कराया जाए तथा उस राह का अनुसरण न करने पर, उसके भीषणतम परिणामों से अवगत करा कर, यह चेतावनी दी जाए कि यदि भविष्य में उसने कोई गलत काम किया, तो कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर पाएगा। इन परिस्थितियों में शायद, उसकी सोच में कुछ सुधार आ पाए और समाज में शांत व सुखद वातावरण स्थापित हो सके।

चलिए! हम विवेचना करते हैं– सरकार द्वारा निर्मित कानूनों की…आखिर वे इतने अप्रभावी क्यों हैं? लोग जुर्म करने से पहले उसके भयावह पक्षों पर ध्यान क्यों नहीं देते; उनके बारे में क्यों सोच-विचार अथवा गहन चिंतन-मनन नहीं करते? इसके लिए हमें त्वरित न्याय-प्रणाली को अपनाना होगा और ऐसे शोहदों को सरे-आम दंण्डित करना होगा, ताकि समाज के पथ-भ्रष्ट बाशिंदे उनके हृदय-विदारक अंजाम को देख कर शिक्षा ग्रहण कर सकें…अपने बच्चों पर पूर्ण रूप से अंकुश लगा पाएं…भले ही उन्हें किसी भी सीमा तक दण्डित क्यों न करना पड़े। इसके साथ-साथ आवश्यकता है– स्कूल व कॉलेजों में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में मान्यता प्रदान करने की, ताकि उनकी दूषित मानसिकता परिवर्तित हो सके; उनकी विकृत मन: स्थिति में बदलाव आ सके और सोच सकारात्मक बन सके।

चंद दिन पहले यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पब्लिक स्कूलों के बच्चे ‘फन सेक’ कंडोम तक का प्रयोग करते हैं और बाल्यावस्था के यह असामान्य संबंध, भविष्य में उनके लिए इतना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकते हैं…यह गंभीर विषय है। हमें पब्लिक स्कूलों में बढ़ते ऐसे फन पर प्रतिबंध लगाना होगा, क्योंकि ऐसी कारस्तानियां मन को आहत करती हैं और हमारा मीडिया उन्हें भ्रमित कर, किस दिशा की ओर अग्रसर कर रहा है? आप अनुमान नहीं लगा सकते, यह स्थिति समाज व देश के लिए किस क़दर घातक है तथा विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर सकती है। कल्पना कीजिए, क्या होगा…इस देश के बच्चों का भविष्य… क्या वे अपने गंतव्य पर पहुंच देश को समुन्नत बनाने में योगदान दे पाएंगे? शायद नहीं… कभी नहीं।

मैं लौट जाना चाहती हूं, पचपन वर्ष पूर्व के समय में, जब मुझे महाविद्यालय की छात्रा के रूप में, वाद- विवाद प्रतियोगिता में प्रतिभागिता करने का अवसर प्राप्त हुआ; जहां प्राचार्या को अपने महाविद्यालय की छात्राओं को आदेश देते हुए सुना,’पुट योअर दुपट्टा एट योअर प्रो-पर प्लेस’ …सुनकर बहुत विचित्र-सी अनुभूति हुई। परन्तु आज से सोलह वर्ष पूर्व जब मैंने महिला महाविद्यालय का कार्यभार संभाला, तो छात्राओं को टॉइट जींस, शार्ट टॉप पहने व हाथों में मोबाइल थामे देख, मन यह सोचने पर विवश हो गया…’आखिर क्या होगा, हमारे देश का भविष्य? क्या यह लड़कियां भविष्य में दो कुलों को रोशन करने में समर्थ सिद्ध हो पायेंगी…जिनमें शालीनता लेशमात्र को भी नहीं है। क्या इनके ससुराल वाले ‘हैलो-हॉय’ कल्चर पसंद करेंगे? यह जानकर मैं अवाक् रह गयी, जब चंद दिन बाद सी•आई•डी• वालों ने मुझे इस तथ्य से अवगत कराया कि आजकल लड़कियां अक्सर होटलों में दुल्हन की वेशभूषा में सोलह-सिंगार किए अपने ब्वॉयफ़्रेंड के साथ पायी जाती हैं; जिसके प्रमाण देख मेरे पांव तले से ज़मीन खिसक गई और मन उन्हें गलत राह से लौटा लाने को कटिबद्ध हो गया।

तत्पश्चात् मैंने अपने महाविद्यालय में मोबाइल व जीन्स पर प्रतिबंध लगा दिया। मुझे यह बताते हुए अत्यंत दु:ख हो रहा है कि जिन प्राध्यापकों की बेटियां वहां शिक्षा ग्रहण कर रहीं थीं; उन्होंने इसे ग़लत ठहराया और महाविद्यालय में ऐसे नियम न लागू करने की सलाह भी दी। उनकी यह दलील कि साइकिल चलाते हुए, उनकी चुन्नियां उलझ कर रह जाती हैं। बताइए! क्या यह तर्क उचित है? इसी प्रकार मोबाइल की सार्थकता के बारे में कहा गया कि यह आज के समय की ज़रूरत है… वर्तमान की मांग है। इसके माध्यम से उनसे संवाद बना रहता है। परन्तु मैंने यह प्रतिबंध लागू कर दिया और इसकी अनुपालना न करने पर फ़ाइन की व्यवस्था का आदेश भी जारी कर दिया। परंतु उनके द्वारा विरोध करने की नौबत नहीं आई, क्योंकि चंद दिन बाद हरियाणा सरकार ने भी यह प्रतिबंध लागू कर दिया।

मेरा इस घटना को बताने का आशय यह है कि यदि माता-पिता व शिक्षक वर्ग चाहे, तो सब कुछ संभव है, क्योंकि बच्चे उन पर सर्वाधिक विश्वास करते हैं…उन्हें आदर्श मानकर उन जैसा ही बनने का प्रयास करते हैं। वे गीली मिट्टी के समान होते हैं और उन्हें मन-चाहा रूपा-कार प्रदान किया जा सकता है।

सो! सही दशा व दिशा जीवन का आधार है। आइए, हम सब इस यज्ञ में समिधा डाल कर अपने दायित्वों का निर्वहन करें, ताकि ऐसे भीषण हादसों से समाज को निज़ात मिल सके…चहुंओर शांति का साम्राज्य स्थापित हो सके। परिवार व समाज में समन्वय, सामंजस्यता व समरसता का वातावरण हो; संयुक्त परिवार-व्यवस्था में बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करें और उनका सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके… यह मेरी ही नहीं, समाज के हर बाशिंदे की इच्छा है, चाहना है। इस संदर्भ में इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया भी अपना भरपूर योगदान दे सकते हैं। इसके लिये सरकार को ऐसी वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाना सुनिश्चित करना होगा, ताकि बच्चों में अपने लक्ष्य के प्रति गंभीरता व एकाग्रता बनी रहे और वे उसे प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 56 ☆ मानवता की सेवा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “मानवता की सेवा”.)

☆ किसलय की कलम से # 56 ☆

☆ मानवता की सेवा ☆

इंसान जन्म लेता है, जिंदगी गुजारता है और एक दिन इस दुनिया से कूच कर जाता है। क्या, मात्र जीवन जीना और मरना मानव की नियति मानी जाए। नहीं। बचपन और बुढ़ापा छोड़ दिया जाए तो मुश्किल से तीस-चालीस वर्ष ही मानव के अपने हिस्से में आते हैं, जिसमें आधा समय रात्रि का होता है। बाद के शेष समय में भी दैनिक कार्य शामिल होते हैं। अब बचता ही कितना समय है, जिसे हम मानव सेवा हेतु निकालें।

वैसे अन्य जीव भी एक पूरा जीवन जी लेते हैं, परन्तु उनके मरने के बाद उन्हें किन बातों के लिए याद किया जाता है? किंतु इंसान को उसके मरणोपरांत उसे याद न किया जाए तो उसका इस संसार में जन्म लेने का औचित्य ही क्या होगा। इस तरह उस इंसान और अन्य जीवों के जीवन जीने में अंतर ही क्या होगा।

संसार में मानव ही एक ऐसा जीव है जिसे बुद्धि और विवेक की दृष्टि से श्रेष्ठ माना गया है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव के कर्त्तव्यों में भी व्यापकता होती है। उसे अपने साथ-साथ अपने परिवार और समाज के लिए भी जीना होता है। दुनिया में बिना किसी उपलब्धि, परोपकारिता, मिलनसारिता और निःस्वार्थता के जीना निरर्थक माना जाता है। हमारी शिक्षा, संस्कृति, संस्कार एवं परंपराएँ इतनी सुदृढ़ हैं कि उनका अनुकरण करने वाला सदैव विशिष्ट बन ही जाता है।

ईश्वर जन्म देता है लेकिन विवेक पर आपका अपना अधिकार होता है, जो आपके भले बुरे के लिए सदैव जवाबदेह होता है। आपके विवेक का निर्णय ही आपके रास्ते चुनता है। फर्क बस इतना होता है कि आपके संस्कार व आप की संलिप्तता आपके विवेक को प्रभावित करती है, जिस अच्छे या बुरे विचार का पलड़ा भारी होता है, आप उसी दिशा में आगे बढ़ जाते हैं। अर्थात परिणति का रास्ता आपके द्वारा पूर्व में ही चुन लिया जाता है।

यह सभी भलीभाँति जानते हैं कि मरने के बाद अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के इंसानों की चर्चा होती है, लेकिन अच्छे इंसानों का याद किया जाना ही समाज में मायने रखता है। देखा गया है कि समाज में लोग जब तक दूसरों के काम नहीं आते, दूसरों के लिए नहीं जीते, तब तक उनकी कोई खास पूछ परख नहीं होती। आपकी आर्थिक, बौद्धिक, पदेन उपलब्धियाँ आपकी अपनी होती हैं, जो मात्र आपके सेवा काल तक ही सीमित होती हैं, लेकिन परोपकारिता, जरूरतमंदों की सेवा, आपकी सहयोगी प्रवृत्ति तथा मिलनसारिता आपकी ऐसी उपलब्धियाँ होती हैं जो आपको चिरस्मरणीय तथा विशिष्ट सम्मान दिलाती हैं।

विगत पचास-साठ साल से मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है। बड़ी अजीब बात यह है कि एक ओर तो हम शिक्षा और प्रगति के नए सोपानों पर चढ़ रहे हैं वहीं इसके ठीक विपरीत परोपकारिता व  सद्भावना के क्षेत्र में हम पिछड़ते जा रहे हैं।आज अर्थ व स्वार्थ की जकड़न इतनी मजबूत होती जा रही है कि हमारे अपनों के लिए भी कोई स्थान नहीं बच पाता।

आज ऐसी परिस्थितियों व परिवेश में यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि उक्त बातों को गंभीरता से लिया जाए। यदि यह क्रम जारी रहा तो हमारे मानवीय रिश्तों का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा। क्या भाई-भाई की अहमियत रह जाएगी। क्या पड़ोसी का औचित्य रह जाएगा। तब कोई निस्वार्थ भाव से किसी की  मदद कर सकेगा? अपने और पराए को जब तराजू के एक ही पलड़े में तौला जाएगा तब सारे सामाजिक रिश्ते गड्डमड्ड नहीं हो जाएँगे? स्वजनों और परिजनों में अंतर ही क्या रह जाएगा? यह सब सोचकर ही जब हम असहज हो जाते हैं तब वास्तविकता में क्या हाल होगा।

आज पुनः अपनी संतानों में ऐसे संस्कार और विचारों के रोपण की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है, जिससे उन्हें उस कल्पित भयावह परिस्थितियों का सामना न करना पड़े। वर्तमान में हमें भी परोपकारिता और समाज के जरूरतमंदों की मदद करने हेतु आगे आना होगा। सद्भावना को बढ़ावा देना होगा, जिससे हमारी आगे आने वाली पीढ़ी भी इन सबका अनुकरण कर सके, साथ ही उनका महत्व भी समझे। वैसे भी किसी की मदद व परोपकार के पश्चात मिली खुशी का अपना स्थान होता है। मन की शांति और प्रसन्नता आपके जीवन को भी प्रभावित करती है, जो आपके सफल जीवन का एक अहम कारक भी कहा जा सकता है।

आईए हम आज से ही कुछ ऐसे कार्य प्रारम्भ करें जो समाजहित, मानवहित और स्वहित के लिए जरूरी हैं। आपके द्वारा किए गए कार्यों से अगर कुछ लोग भी लाभान्वित हो पाए तो निश्चित रूप से यह आपके जीवन की सार्थकता होगी। साथ ही ये कार्य समाज में मानव सेवा हेतु प्रेरणा के स्रोत भी बनेंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 120 ☆ मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय  आलेख  ‘मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 120 ☆

? आलेख  – मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय ?

हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight). जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि है. हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है. यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।

सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्कदृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।

क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं. किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है.आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं.आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं,असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य ☆ जीवेम शरदः शतम – शिव से संवाद है – डॉ. सुमित्र का सृजन ☆ डॉ. राजेश पाठक ‘प्रवीण’

? जीवेम शरदः शतम ?

डॉ. राजकुमार सुमित्र (कवि, कथाकार, व्यंग्यकार, रूपकलेखक, चिंतक, छंदशास्त्र में निष्णात वरिष्ठ पत्रकार – साहित्यकार)

✍ शिव से संवाद है – डॉ. सुमित्र का सृजन ☆ डॉ. राजेश पाठक ‘प्रवीण’☆

डॉ. राजकुमार सुमित्र का सृजन परमपिता शिव से साक्षात संवाद है। शिव-संवाद की विलक्षण शक्ति से सम्पन्न अग्रज डॉ. सुमित्र जी के सृजन में समाज निर्माण के बीज मंत्र जैसा चमत्कार निहित है।

दादा सुमित्र जी के अन्तर्मन में समाहित मानवीय करुणा का स्पंदन और आत्मीय भावों का प्रवाह उनके व्यक्तित्व की पारस आभा है। सम्बन्धों को पूजा भाव से जीने वाले दादा सुमित्र जी यथा नाम तथा गुणों से अलंकृत हैं। उनके व्यक्तित्व में कभी कृष्ण की कान्ति की दार्शनिक आभा अनुभूत होती है, तो कभी बुद्ध के मौन-माधुरी का विलक्षण सौन्दर्य । दादा के गीतों की माधुर्यता में कभी मन कि मनु भूमिका के दर्शन होते हैं तो कभी पुरुरवा के अभिसार के …. ।

शब्दों को चमत्कारपूर्ण तरीकों से अंकित करते हुए नित नए शब्द विन्यास की कला में निष्णात सुमित्र जी के अन्तर्मन की शालीनता, निर्मलता, सहजता, सरलता, सात्विकता, सत्यता ही उनके व्यक्तित्व की विराटता है। शब्दब्रह्म के उपासक दादा को जीवेम शरदः शतम की भावना के साथ प्रणाम ?

 – डॉ. राजेश पाठक ‘प्रवीण’

? ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से गुरुवर  डॉ. राजकुमार सुमित्र जी को उनके 83वें जन्मदिवस पर सादर प्रणाम एवं हार्दिक शुभकामनाएं ?

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 110 ☆ छत्रछाया ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 110 ☆ छत्रछाया  ☆

प्रातः भ्रमण के बाद पार्क में कुछ देर व्यायाम करने के लिए बैठा। व्यायाम के एक चरण में दृष्टि आकाश की ओर उठाई। जिन पेड़ों के तनों के पास बैठकर व्यायाम करता हूँ, उनकी ऊँचाई देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। लगभग 70 से 80 फीट ऊँचे, विशाल पेड़ एवम उनकी घनी छाया। हल्की-सी ठंड और शांत वातावरण, विचार के लिए पोषक बने। सोचा, माता-पिता भी पेड़ की तरह ही होते हैं न! हम उन्हें उतना ही देख-समझ पाते हैं जितना पेड़ के तने को। तना प्रायः हमें ठूँठ-सा ही लगता है। अनुभूत होती इस छाया को समझने के लिए आँखें फैलाकर ऊँचे, बहुत ऊँचे देखना होता है। हमें छत्रछाया देने के लिए निरंतर सूरज की ओर बढ़ते और धूप को ललकारते पत्तों का अखण्ड संघर्ष समझना होता है। दुर्भाग्य यह कि अधिकांश मामलों में छाया समाप्त हो जाने पर ही समझ आता है, माँ-बाप का साया सिर पर होने का महत्व ! …

अँग्रेज़ी की एक लघुकथा इसी सार्वकालिक सार्वभौम दर्शन का शब्दांकन है। छह वर्ष का लड़का सामान्यत: कहता है, ‘माई फादर इज़ ग्रेट।’ बारह वर्ष की आयु में आते-आते उसे अपने पिता के स्वभाव में ख़ामियाँ दिखने लगती हैं। उसे लगता है कि उसके पिता का व्यवहार  विचित्र है। कभी बेटे की आवश्यकताएँ पूरी करता है, कभी नहीं। किशोर अवस्था में उसे अपने पिता में एक गुस्सैल पुरुष दिखाई देने लगता है। युवा होने पर सोचता है कि मैं अपने बच्चों को दुनिया से अलग, कुछ हटकर-सी परवरिश दूँगा।…फिर उसकी शादी होती है। जीवन को देखने की  दृष्टि बदलने लगती है। वह पिता बनता है। पिता होने के बाद  अपने पिता का दृष्टिकोण उसे समझ आने लगता है। दस-बारह साल के बच्चे की हर मांग पूरी करते हुए भी कुछ छूट ही जाती हैं। यह विचार भी होता है कि यदि जो मांगा, उपलब्ध करा दिया गया तो बच्चा ज़िद्दी और खर्चीले स्वभाव का हो जायेगा। बढ़ते खर्च के साथ वह विचार करने लगता है कि उसके पिता सीमित कमाई में सारे भाई-बहनों की पढ़ाई का खर्च कैसे उठाते थे! उधर उसका बेटा/ बेटी भी उसे लगभग उसी तरह देखते-समझते हैं, जैसे उसने अपने पिता को देखा था। आगे चलकर युवा बेटे से अनेक बार अवांछित टकराव होता है। फिर बेटे की शादी हो जाती है। …चक्र पूरा होते-होते बचपन का वाक्य, काल के परिवर्तन के साथ,जिह्वा पर लौटता है, वह बुदबुदा उठता है, ‘माई फादर वॉज़ ग्रेट।’

अनुभव हुआ, हम इतने बौने हैं कि पेड़ हों या माता-पिता, लंबे समय तक गरदन उठाकर उनकी ऊँचाई निहार भी नहीं सकते, गरदन दुखने लगती है। गरदन दुखना अर्थात अनुभव ग्रहण करना। यह ऊँचाई इतने अधिक अनुभव की मांग करती है कि ‘इज़’ के ‘वॉज़’ होने पर ही दिखाई देती है।

…ईश्वर सबके सिर पर यह ऊँचाई और छत्रछाया लम्बे समय तक बनाये रखें।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 (2) – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह (2)”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक… 5 – मोह (2) ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

संसार में आस्था के आधार पर लोगों का वर्गीकरण तीन भागों में किया जाता है- आस्तिक (Theist), नास्तिक (Atheist) और यथार्थवादी (Agnostic) जिसे अज्ञेय वाद भी कहा जाता है। वास्तविकता यह है कि अधिकांश लोग जानते ही नहीं हैं कि वे पूरी तरह आस्तिक हैं या नास्तिक। ऐसे लोगों को अज्ञेयवादी कहा जा सकता है।

“मैं” को आत्म चिंतन से पहले यह निर्णय करना चाहिए कि उसकी आस्था ईश्वर में है या नहीं या वह दोनों याने ईश्वर में आस्था और अनास्था को नकारता है। एक बार यह निर्णय हो जाए तो “मैं” की यात्रा कुछ आसान होने लगती है। वर्तमान जीवन की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हम सर्कस के झूलों में कभी आस्तिक झूला पकड़ते हैं, कभी नास्तिक झूले में झूलते हैं और कभी अज्ञेयवादी रस्सी की सीढ़ी पर टंग जाते हैं। आगे बढ़ने के पूर्व निर्णय करना होगा कि हमारी आस्था का स्तर क्या है ?

पहले हम आस्तिकवादी के मोह से निकलने पर बात करेंगे। आस्तिकवादी को मोह से निकलना थोड़ा सरल है। आस्तिकवादी वह है जिसका ईश्वरीय सत्ता में अक्षुण्य विश्वास है। सनातन परम्परा अनुसार प्रत्येक जीवित में जड़ अर्थात पंचभूत प्रकृति और चेतन याने आत्मा-परमात्मा का अंश जीव रूप में विद्यमान है। आत्मा कभी नष्ट नहीं होती सिर्फ़ चोला बदलती है। पिछले जन्म के संस्कार नए जीवन की रूपरेखा तैयार कर देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि “मैं” एक अविनाशी सत्ता का प्रतिनिधि है। उसी सत्ता से आया है और उसी सत्ता में विलीन हो जाएगा। उसने अपने सभी ऋणों के निपटान हेतु अनिवार्य कर्तव्यों का निर्वाह कर दिया है। कर्तव्यों के निर्वाह में उसे मोह की आवश्यकता थी-वह मोह यंत्र का अनिवार्य हिस्सा था, नहीं तो जैविकीय दायित्वों का निर्वाह नहीं कर सकता था।

“मैं” की जीविका निर्वाह में सबसे महत्वपूर्ण उसकी देह थी। उसका देह से मोह स्वाभाविक था। लेकिन वह तो पाँच प्राकृतिक तत्वों की देन है। “मैं” नहीं था तब भी प्राकृतिक तत्व थे। “मैं” नहीं रहेगा तब भी वे रहेंगे। अब देह जीर्ण शीर्ण दशा को प्राप्त होने लगी है। उसके रखरखाव के अलावा अन्य किसी प्रकार की आसक्ति की ज़रूरत देह को नहीं है। उसका पंचतत्व में विलीन होना अवश्य संभावी है, उस प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। जिसका नष्ट अटलनीय है-उससे मोह कैसा। यही तर्क धन, व्यक्ति, स्थान, सम्मान, यश सभी पर लागु होता है। ये सभी ही नहीं, बल्कि पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, तारे याने समस्त ब्रह्मांड नश्वर है। “मैं” की सत्ता उनके सामने बहुत तुच्छ है? “मैं” को मोह से मुक्त होना ही एकमात्र उपाय है। ताकि वह शांतचित्त हो ईश्वरीय प्रेम में मगन हो सके। इस तरह अस्तित्ववादी “मैं” की यात्रा थोड़ी आसान है।

अस्तित्ववादी “मैं” की यात्रा एक और अर्थ में आसान है। ईश्वर में विश्वास होने से उसका पुनर्जन्म में भी भरोसा रहता है। यह देह नष्ट हो रही है तो नई देह उसकी राह देख रही है। फिर एक नए सिरे से इंद्रियों भोग की लालसा और कामना उसे दिलासा सा देती हैं। यह सब ईश्वरीय विधान है। वह ऐसा सोचकर शांत चित्त स्थिति को प्राप्त करता रह सकता है। अनस्तित्व वादी की स्थिति इसकी तुलना में कष्टप्रद होती है।

नास्तिकता अथवा नास्तिकवाद या अनीश्वरवाद (Atheism), वह सिद्धांत है जो जगत् की सृष्टि, संचालन और नियंत्रण करनेवाले किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर स्वीकार नहीं करता। (नास्ति = न + अस्ति = नहीं है, अर्थात ईश्वर नहीं है।) नास्तिक लोग भगवान के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण न होने कारण झूठ करार देते हैं। अधिकांश नास्तिक किसी भी देवी देवता, परालौकिक शक्ति, धर्म और आत्मा को नहीं मानते। भारतीय दर्शन में नास्तिक शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।

(1) जो लोग वेद को प्रमाण नहीं मानते वे नास्तिक कहलाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार बौद्ध और जैन मतों के अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं। ये दोनो दर्शन ईश्वर या वेदों पर विश्वास नहीं करते इसलिए वे नास्तिक दर्शन कहे जाते हैं।

(2) जो लोग परलोक और मृत्युपश्चात् जीवन में विश्वास नहीं करते; इस परिभाषा के अनुसार केवल चार्वाक दर्शन जिसे लोकायत दर्शन भी कहते हैं, भारत में नास्तिक दर्शन कहलाता है और उसके अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं।

(3) ईश्वर में विश्वास न करनेवाले नास्तिक कई प्रकार के होते हैं। घोर नास्तिक वे हैं जो ईश्वर को किसी रूप में नहीं मानते। चार्वाक मतवाले भारत में और रैंक एथीस्ट लोग पाश्चात्य देशें में ईश्वर का अस्तित्व किसी रूप में स्वीकार नहीं करते।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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