हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पहचान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “पहचान।)

☆ आलेख ☆ पहचान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः काल में मोबाईल दर्शन से ज्ञात हुआ कि श्री के के का रात्रि निधन हो गया। मैसेज भेजने वाले को हमने अपनी अनिभिज्ञता जाहिर की और कहा हमारा संगीत में ध्यान नहीं हैं। कुछ समय के पश्चात सभी टी वी चैनल वाले उनके गीत सुना रहे थे। गीत प्रायः सभी सुने हुए थे, और जुबां पर भी थे। देश के सभी बड़े नेताओं ने संवेदनाएं व्यक्त की। चैनल वाले भी उन से संबंधित जानकारी देते रहे।

हमने मन ही मन विचार किया इनका नाम और चेहरा कभी नही सुना/देखा। अंतर्मन में अपनी आयोग्यता को लेकर नए आयाम तय करने में लगे रहे।

उनको पहचान न पाने के कारण खोज में लगे हुए थे। तभी विचार किया- क्या स्वर्गीय के के ने किसी भी विज्ञापन में कार्य किया था?

क्या किसी रियलिटी शो में प्रतियोगी या जज के रूप में टी वी पर आए थे?

क्या उनके साथ कभी कोई विवाद हुआ था?

यदि इन सब का उत्तर ना है, तो फिर हम उनको कैसे पहचानते?

वर्तमान समय में अकेले काम से आपकी पहचान नहीं बनती हैं। आपको सोशल मीडिया में कार्यशील रहना होता हैं। बिग बॉस या अन्य किसी टीवी शो में छोटे स्क्रीन पर नजर आना होगा। किसी विवाद में आपका नाम है, तो लोग आपको चेहरे से पहचानने लग जाएंगे।

ये सब केके के साथ नहीं था। वो सिर्फ आवाज़ के जादूगर थे। इसलिए वो एक अच्छे इंसान  बनकर ही रह गए। पुरानी कहावत भी है “जो दिखता है, वो ही बिकता है।

ॐ शांति🙏🏻

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ रामचरित मानस मुझे प्रिय क्यों है? ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस मुझे प्रिय क्यों है?॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कोई किसी को प्रिय क्यों लगता है? अचानक स्पष्ट कारण बता सकना कुछ कठिन होता है, ऐसा कहा जाता है। इस कथन में कुछ तो सच्चाई है। पर यदि आत्ममंथन कर बारीक विश्लेषण किया जाये तो प्रियता के कारण खोज निकाले जा सकते हैं। आकर्षक व्यक्तित्व, रूप-लावण्य, विशिष्ट गुण, सदाचार, वाणी का माधुर्य, कोई प्रतिभा, कला-प्रियता, सौम्य व्यवहार, धन सम्पत्ति, वैभव, सुसम्पन्नता, सर्जनात्मक दृष्टि, विचार साम्य, सहज अनुकूलता या ऐसे ही कोई एक या अनेक कारण। यह बात व्यक्ति के संबंध में तो सही हो सकती है पर किसी वस्तु के सम्बन्ध में ? किसी भी वस्तु के प्रति भी किसी के लगाव व आकर्षण का ऐसा ही कुछ कारण होता ही है।

मुझे पुस्तकों से लगाव है। पढऩे और उनका संग्रह करने में रुचि है। अनेेकों पुस्तकें पढ़ी हैं, विभिन्न विषयों की, विभिन्न सुन्दर साहित्यिक कृतियाँ भी। पर किसी पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया जितना तुलसीकृत रामचरित मानस ने। मानस ने तो जैसे जादू करके मन को मोह लिया है। जब-जब पढ़ता हूँ मन आनन्दातिरेक में डृब जाता है। स्वत: आत्मनिरीक्षण करता हूँ तो मानस में वे अनेकों खूबियाँ पाता हूँ जो किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं दिखतीं। इतना चित्ताकर्षक, रमणीक और आनन्ददायी कोई ग्रन्थ नहीं। इसमें मुझे संपूर्ण मानव-जीवन, जगत और उस परम तत्व के दर्शन होते हैं जिसकी अदृश्य सूक्ष्म तरंगों से इस विश्व में चेतना और गति है। साथ ही उस रचनाकार की अनुपम योग्यता, अद्वितीय अभिव्यक्ति की कुशलता और भाषा-शिल्प की, जिसने इस विश्व के कण-कण में साक्षात्ï अपने आराध्य को विद्यमान होने की प्रतीति कराने को लिखा हैं-

”सियाराम मय सब जग जानी, करऊँ प्रणाम जोरि जुग पाणी॥”

महाकवि कालिदास ने कहा है-

”पदे पदे यद् नवताँ विधत्ते, तदैव रूपं रमणीयताया:।”

अर्थ है- रमणीयता का सही स्वरूप वही है जो प्रतिक्षण नवलता प्रदर्शित करे।

रामचरित मानस के संबंध में यह उक्ति अक्षरश: सही बैठती है। हर प्रसंग में एक लालित्य है, मोहकता है और अर्थ में सरसता तथा आनंद है। जैसा कि  ”महाभारत” के संबंध में कहा गया है- ”न अन्यथा क्वचित् यद्ï न भारते।” अर्थात् जो महाभारत में नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है। वही बात प्रकारान्तर से कहने में मुझे संकोच नहीं है कि ऐसा भला क्या है जो ”मानस” में नहीं है ?

व्यक्ति की मनोवृतियों की कलाबाजियाँ, उनसे प्रभावित उसके सोच और योजनायें, पारिवारिक संबंधों की छवि के विविध रंग, सामाजिक जीवन के सरोकारों की झलक समय के साथ व्यवहारों का परिवर्तन और परिणाम, जीवन-दर्शन, व्यवहार कुशलता और सफलता के मंत्र, निष्कपट राजनीति के सूत्र, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की सरल परिभाषा और विवेचनायें, जीवन में अनुकरणीय आदर्श और मर्यादायें तथा मानव मूल्यों की स्थापना, प्रतिष्ठा और आराधनायें। सभी कुछ मनमोहक और अद्वितीय। साथ ही वर्णन व चित्रण में मधुरता, कलात्मक अभिव्यक्ति और सहज संप्रेषणीयता, साहित्यिक गुणवत्ता, प्रसंगों में रसों की विविधता, शैली में स्वाभाविकता और छन्दों की गेयता, हर एक के अन्त:करण को छू लेने वाला प्रस्तुतीकरण। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को रुचने वाली और कुछ सीखने लायक अनेकों सारगर्भित बातें। सामान्य जन से लेकर उद्ïभट विद्वानों तक के लिये विचारणीय, अनुकरणीय, आकर्षित करने वाला कथा-सूत्र तथा लोक और लोकोत्तर जिज्ञासाओं की तुष्टि करके विभिन्न समस्याओं का समाधान, ऐसी सरल भाषा में किन्तु गूढ़ गहन उक्ति में, कि हर पद की अनेकों व्याख्यायें, और आयु व बुद्धि के विकास की वृद्धि के साथ नये अर्थ नयी दृष्टि और नया चिन्तन प्रदान करने वाली अपूर्व कालजयी रचना है- ”मानस”। मैंने बचपन में इसे सुना, बड़े हो के पढ़ा, प्रौढ़ हो के समझा और निरन्तर इससे प्रभावित हुआ हूँ।

याद आता है मुझे वह जमाना जब मैं बच्चा था। उस समय की दुनियाँ आज से हर मायने में भिन्न थी। तब न बिजली थी और न आज के से मनोरंजन के साधन। बच्चों के तीन ही काम प्रमुख थे- खेलना, खाना और पढऩा। स्कूल से आकर शाम को कुछ खेलकूद करने के बाद खाना होता था और लालटेन के हल्के उजाले में घर के आवश्यक कामकाज निपटाकर सभी लोग रात्रि में प्राय: जल्दी निद्रा की गोद में विश्राम करते थे। समय काटने के सबके अपने-अपने तरीके थे- कथा, कहानी, पहेली, भजन, गीत, संगीत, ताश या कोई ऐसे ही हल्के खेल या हल्की-फुलकी चर्चायें, गप्पें।

हमारे घर में शाम के भोजन में बाद नियमित रूप से पिताजी ”मानस” (रामायण) पढ़ते-दोहे, चौपाई, सौरठों और छन्दों का लयात्मक पाठ करके अर्थ समझाते थे। अपनी माँ के साथ हम सब भाई सामने दरी पर बैठकर बड़े आदर और ध्यान से कथा सुनते थे। कभी विभिन्न प्रसंगों से संबंधित शंकाओं के  निवारण के लिये पिताजी से प्रश्न पूछते थे और रामकथा का रसास्वादन करते थे।  मुझे  अच्छी तरह से याद है कि मंथरा के कुटिलता, कैकेयी के राजा दशरथ से वर माँगने, दशरथ मरण और राम वनगमन के प्रसंगों में हमारी आँखें गीली हो जाती थीं। मुझे तो रोना आ जाता था। गला रूंध जाता था। अश्रु वह चलते थे और सिसकियाँ बंध जाती थीं। तब माँ अपने आँचल से आँसू पोंछकर समझाती थीं। लेकिन इसके विपरीत, पुष्पवाटिका में राम-लक्ष्मण के पुष्प चयन हेतु जाने पर, सीता का राम को और राम का सीता को देखने पर वर्णन को सुनकर, सीता के गौरी माँ मंदिर में पूजन और आशीष माँगने पर, लक्ष्मण-परशुराम संवाद पर, राम के धनुष्य तोडक़र सीता से ब्याह पर और उनके दर्शन से नगरवासियों, सब स्त्री पुरुषों की प्रसन्नता की बात पर मन गद्ïगद हो जाता था। अपार आनंद की अनुभूति होती थी और एकऐसी खुशी होती थी जैसे किसी आत्मीय की या स्वत: की विजय पर होती है। राम के गंगापार ले जाने के लिए केवट से आग्रह, केवट का श्रीराम के चरण पखारे बिन उन्हें नाँव में न बैठाने का हठ, पैर धोकर अपने परलोक को सुधार लेने की भावना का संकेत, राम का इस हेतु मान जाना और गंगा पार जाने पर केवट को उतराई देने की भावना से सीता की ओर ताकना और सीता का पति के मनाभावों को समझ मणिमुद्रिका केवट को उतार कर देने के मार्मिक प्रसंगों में मन की पीड़ा, परिस्थितियों की विवशता, पती-पत्नी के सोच की समानता से भारतीय गृहस्थ जीवन की पावनता व दम्पत्ति की भावनाओं की एक रूपता का आभास मन पर अमिट छाप छोड़ता हुआ भारतीय संस्कृति की उद्ïदात्तता, अनुपम आल्हाद प्रदान करती थी। मन में एक मिठास घोल देती थी। संपूर्ण मानस के कथा प्रवाह में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जहाँ मन या तो विचलित हो जाता है या अत्यन्त आल्हादित। सबका उल्लेख तो यहाँ नहीं किया जा सकता। सहज कथा प्रवाह में जगह-जगह, ज्ञान और भक्ति की धाराऐं भी बहती हुई दिखाती हैं जो मन को सात्विकता, पावनता और संतोष प्रदान करती हैं।

इस प्रकार ”मानस” एक अद्भुत अप्रतिम गं्रथ है जो मानव-जीवन की समग्रता को समेटे हुए, प्रत्येक को एक आदर्श, कत्र्तव्यनिष्ठ, व्यक्तित्व के विकास की दिशा में उन्मुख कर सुखी व समृद्ध पारिवारिक व राष्ट्रीय जीवन बिताने के लिए आदर्श प्रस्तुत कर आवश्यक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के महत्व को प्रतिपादित करता है।

मानस जिन सामाजिक मूल्यों को अनुशंसित करता है वे कुछ प्रमुख ये हैं- सत्य, प्रेम, निष्ठा, कत्र्तव्य-परायणता, पारस्परिक विश्वास, सद्ïभाव और परोपकार। इनके बल पर व्यक्ति दूसरों पर अमिट छाप छोडक़र विजय पा सकता है जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने प्राप्त की। मानसकार की मान्यता है-

(1)        नहिं असत्य सम पातक पुंजा॥ धरम न दूसर सत्य समाना॥

(2)        प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेमते प्रकट होत भगवाना॥

(3)        परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई॥

(4)        परिहत बस जिनके मनमाहीं तिन्ह कहं जग दुर्लभ कछु नाहिं॥

मानस के श्रवण अध्ययन, मनन ने मन में मेरे ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि मुझे लगता है मेरे जीवन में आचार-विचार, व्यवहार और संस्कार में उसकी सुगंध बस गई है। इसी से मेरे पारिवारिक जीवन में सुख-शांति, संतोष और सफलता की आभा है और इस हेतु मैं मानस का ऋणी हूँ।

अन्य कोई भी ग्रंथ किसी एक विशेष विषय की चर्चा करता है पर मानस तो मानव जीवन की लौकिक परिधि से बाहर जाकर पारलौकिक आनंद की अनुभूति का भी दर्शन कराता है। इसमें ”चारों वेद, पुराण अष्टदश,  छहों शास्त्र सब ग्रंथन को रस” है। यह एक समन्वित जीवन दर्शन है और भारतीय अध्यात्म का निचोड़ है। इसीलिये मुझे प्रिय है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 9 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 9 ??

वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद सत्तालिप्सा, प्राणरक्षा, विचारधारा आदि के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’

इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land.     भारत भी इसी एजेंडा का शिकार हुआ था। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे  भी  आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ रामचरित मानस में लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस में लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महात्मा तुलसी दास विरचित ‘रामचरित मानसÓ एक काल जयी अनुपम रचना है। विश्व साहित्य की अमर धरोहर है जो लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत, भटकी हुई मानवता को युगों युगों तक मार्गदर्शन कर जन जीवन के दुख दूर करने में प्रकाश-स्तंभ की भाँति दूर दूर तक अपनी किरणें बिखेरती रहेगी। महाभारत के विषय में यह लोकोक्ति है कि-

जो महाभारत में नहीं है वह संसार में भी नहीं है

अर्थात्ï महाभारत में वह सभी वर्णित है जो संसार में देखा सुना जाता है। यही बात रामचरित मानस के लिये भी सच मालूम होती है। मनुष्य के समस्त व्यापार, विकार और मनोभावों का चित्रण मानस में दृष्टिगोचर होता है और उसका प्रस्तुतीकरण ऐसा है जो एक आदर्श प्रस्तुत कर बुराइयों से बचकर चलने का मार्गदर्शन करता है। संसार में मानव जाति ने विगत 100 वर्षों में बेहिसाब वैज्ञानिक व भौतिक प्रगति कर ली है किन्तु मानवीय मनोविकार जो जन्मजात प्रकृति प्रदत्त हैं ज्यों के त्यों हैं। इन्हीं के कारण मानव मानव से प्रेम भी होता है और संघर्ष भी। मानस में पारिवारिक सामाजिक राजनैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों से संबंधित परिस्थितियों में मनुष्य का आदर्श व्यवहार जो कल्याणकारी है कैसा होना चाहिए इसका विशद विवेचन है। इसीलिए यह ग्रंथ साहित्य का चूड़ामणि है और न केवल भारत में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी सभी धर्माविलिम्बियों द्वारा पूज्य है।

राजनैतिक क्षितिज पर आज लोकतंत्र की बड़ी चमक है। दुनियाँ के कुछ गिने चुने थोड़े से देशों को छोडक़र सभी जगह लोकतंत्रीय शासन प्रणाली का बोल बाला है। क्यों? -कारण बहुत स्पष्ट है। मानव जाति ने अनेकों सदियों के अनुभव से यही सीखा है कि किसी एक राजा या निरंकुश अधिनयाक के द्वारा शासन किये जाने की अपेक्षा जनता का शासन जनता के द्वारा ही जनता के हित के लिए किया जाना बहुत बेहतर है क्योंकि किसी एकाकी के दृष्टिकोण और विचार के बजाय पाँच (पंचों) का सम्मिलित सोच अधिक परिष्कृत और हितकारी होता है। इसीलिए जनतंत्र में जनसाधारण की राय (मत) का अधिक महत्व होता है और उसे मान्यता दी जाती है।

तुलसी दास के युग में जब उन्होंने मानस की रचना की थी जनतंत्र नहीं था तब तो एकमात्र एकतंत्रीय शासन था जिसमें राजा या बादशाह सर्वेसर्वा होता था। उसका आदेश ईश्वर के वाक्य की तरह माना जाता था। सही और गलत की विवेचना करना असंभव था। तब भी अपने परिवेश की भावना से हटकर दूरदर्शी तुलसी ने कई सदी बाद प्रचार में आने वाली शासन प्रणाली ‘जनतंत्रÓ की भावना को आदर्श के रूप में प्रतिपादित किया है। मानस के विभिन्न पात्रों के मुख से विभिन्न प्रसंगों में तुलसी ने अपने मन की बात कहलाई है जो मानस के अध्येता भली भाँति जानते हैं और पढक़र भावविभोर हो सराहना करते नहीं थकते।

जनतंत्रीय शासन प्रणाली के आधारभूत स्तंभ जिनपर जनतंत्र का सुरम्य भवन निर्मित है, ये हैं- (1) समता या समानता, (2) स्वतंत्रता, (3) बंधुता या उदारता और (4) न्याय अथवा न्यायप्रियता। इन चारों में से प्रत्येक क्षेत्र की विशालता और गहनता की व्याख्या और विश्लेषण करके यह समझना कि समाज में जनतंत्र प्रणाली ही अपनाये जाने पर प्रत्येक शासक और नागरिक के व्यवहारों की सरहदें और मर्यादा क्या होनी चाहिए, रोचक होगा किन्तु चूँकि इस लेख का उद्ïदेश्य मानस में लोकतंत्रीय भावनाओं का पोषण निरुपित करना है इसलिए विस्तार को रोककर समय सीमा का ध्यान रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में रामचरित मानस से उदाहरण मात्र प्रस्तुत करके संतोष करना ही उचित होगा।

सुधी पाठकों का ध्यान नीचे दिये प्रसंगों की ओर इसी उद्ïदेश्य से, केन्द्रित करना चाहता हूँ।

श्री राम का परशुराम से निवेदन-

छमहु चूक अनजानत केरी, चहिय विप्र उर कृपा घनेरी॥ 

अयोध्या काण्ड 281/4

श्री राम का सोच-

विमल वंश यहु अनुचित एकू, बंधु बिहाय बड़ेहि आभिषेकू॥

अयोध्या काण्ड 7/7

दशरथ जी का जनमत लेकर कार्य करना-

जो पांचहि मत लागे नीका, करहुँ हरष हिय रामहिं टीका॥

अयोध्या काण्ड 4/3

भरत का लोकमत लेकर कार्य करना-

तुम जो पाँच मोर भल मानी, आयसु आशिष देहु सुबानी।

जेहि सुनि विनय मोहि जन जानी आवहिं बहुरि राम रजधानी॥

अयोध्या काण्ड 182/4

चित्रकूट से वापस न होकर श्री राम का भरत से कथन-

इसी प्रकार शबरी मिलन, अहिल्योद्धार, विभीषण को शरणदान, सागर से मार्ग देने हेतु विनती आदि और ऐसे ही अनेकों प्रसंगों में विनम्रता, दृढ़ता, समता, सहजता, स्पष्ट वादिता, उदारता, नीति और न्याय की जो लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धान्त हैं और जो जनतंत्र को पुष्टï करते हैं तथा राजा/राजनेता को जनप्रिय बनाते है बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई हैं। इन्हीं आदर्शों को अपनाने में जन कल्याण है।

इसीलिए मानस सर्वप्रिय, सर्वमान्य और परमहितकारी जन मानस का कंठहार बन गयाहै।

अब्दुर्रहीम खान खाना ने जिसकी प्रशंसा में लिखा है-

रामचरित मानस विमल, सन्तन जीवन-प्राण।

हिन्दुआन को  वेदसम, यवनहिं प्रगट कुरान॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ?

दर्शन और प्रदर्शन पर मीमांसा आज के आलेख में जारी रखेंगे। जैसा कि गत बार चर्चा की गई थी, बढ़ते भौतिकवाद के साथ दर्शन का स्थान प्रदर्शन लेने लगा है। विशेषकर सोशल मीडिया पर इस प्रदर्शन का उफान देखने को मिलता है। साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या जीवन का कोई क्षेत्र हो,  नाममात्र उपलब्धि को ऐसे दिखाया जाने लगा है मानो वह ऐतिहासिक हो गई हो। कुछ लोग तो ऐतिहासिक को भी पीछे छोड़ चुके। उनकी उपलब्धियाँ तो बकौल उनके ही कालजयी हो चुकीं। आगे दिखने की कोशिश में ज़रा-ज़रा सी बातों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना मनुष्य को उपहास का पात्र बना देता है।

यूँ देखें तो आदमी में आगे बढ़ने की इच्छा होना अच्छी बात है। महत्वाकांक्षी होना भी गुण है। विकास और विस्तार के लिए महत्वाकांक्षा अनिवार्य है पर किसी तरह का कोई योगदान दिये बिना, कोई काम किये बिना, पाने की इच्छा रखना तर्कसंगत नहीं है। अनेक बार तो जानबूझकर विवाद खड़े किए जाते हैं, बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा की तर्ज़ पर।  बात-बात पर राजनीति को कोसते-कोसते हम सब के भीतर भी एक राजनीतिज्ञ जड़ें जमा चुका है। कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं हम?

हमारा सांस्कृतिक अधिष्ठान ‘मैं’ नहीं अपितु ‘हम’ होने का है। कठोपनिषद कहता है,

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

विसंगति यह है कि अपने पूर्वजों की सीख को भूलकर अब मैं, मैं और केवल मैं की टेर है। इस ‘मैं’ की परिणति का एक चित्र इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता में देखिए-

नयी तरह की रचनायें रच रहा हूँ मैं,

अख़बारों में ख़ूब छप रहा हूँ मैं,

देश-विदेश घूम रहा हूँ मैं,

बिज़नेस क्लास टूर कर रहा हूँ मैं..,

मैं ढेर सारी प्रॉपर्टी ख़रीद रहा हूँ,

मैं अनगिनत शेअर्स बटोर रहा हूँ,

मैं लिमोसिन चला रहा हूँ,

मैं चार्टर प्लेन बुक करा रहा हूँ..,

धड़ल्ले से बिक रहा हूँ मैं,

चैनलों पर दिख रहा हूँ मैं..,

मैं यह कर रहा हूँ, मैं वह कर रहा हूँ,

मैं अलां में डूबा हूँ, मैं फलां में डूबा हूँ,

मैं…मैं…मैं…,

उम्र बीती मैं और मेरा कहने में,

सारा श्रेय अपने लिए लेने में,

आज श्मशान में अपनी देह को

धू-धू जलते देख रहा हूँ मैं,

हाय री विडंबना..!

कह नहीं पाता-

देखो जल रहा हूँ मैं..!

मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है पर जीवन के सत्य को जानते हुए भी अनजान बने रहना, आँखें मीचे रहना केवल नादानी नहीं अपितु अज्ञान की ओर संकेत करता है। यह अज्ञान प्रदर्शन को उकसाता है। वांछनीय है, प्रदर्शन से उदात्त दर्शन की ओर लौटना। इस वापसी की प्रतीक्षा है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 2॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महाराज दशरथ के व्यवहार में अगाध पुत्र प्रेम, माता कौशल्या, सुमित्रा के व्यवहार में वत्सलता, भरत और लक्ष्मण के कार्यकलापों में भ्रातृ प्रेम और भ्रातृनिष्ठा तथा सीता में पत्नी के उच्चादर्श और पति के मनसा, वाचा, कर्मणा निष्ठा के आदर्श प्रस्तुत हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही उनके सबके साथ चाहें वे परिवार के सदस्य हो, गुरु हों, परिजन हो, पुरजन हों या  निषाद, कोल, किरात, सेवक या शत्रु राक्षस ही क्यों न हो उनके प्रति भी ईमानदारी और भक्ति वत्सलता स्पष्ट हर प्रसंग में सर्वाेपरि है। मानस तो नीति प्रीति और लोक व्यवहार का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है जिस का रसास्वादन और आनंद तो ग्रंथ के अनुशीलन से ही प्राप्त हो सकता है किन्तु सिर्फ बानगी रूप में कुछ ही प्रसंग उद्धृत कर मैंने लेख विस्तार और समय सीमा को मर्यादित रखकर कुछ संकेत करने का प्रयास किया है जिससे पाठक मूल ग्रंथ को पढऩे की प्रेरणा पा सकें। मानस कार ने कहा है –

जहाँ सुमति तँह संपत्ति नाना। जहाँ  कुमति तँह विपति निदाना।

यह कथन राजा दशरथ के परिवार पर अक्षरश:  सत्य भाषित होता है। कैकेयी की कुमति ने सुख से भरे और सम्पन्न परिवार पर विपत्ति का वज्राघात किया- राजा दशरथ और रानी कैकेयी के  दाम्पत्य प्रेम, विश्वास और कैकेयी की स्वार्थपूर्ण कुमति की झलक-

दशरथ-

झूठेहु हमहि दोष जनिदेहू: दुई के चार माँग कि न लेहू,

रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाँहि बरु वचन न जाई।

कैकेयी-         

सुनहु प्राणप्रिय भावत जीका, देहु एक वर भरतहिं टीका

मांगऊँ दूसरि वर कर जोरी, पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।

तापस बेष विशेष उदासी, चौदह बरस राम वनवासी॥

यह सुन दशरथ सहम गये-

सुन मृदु बचन भूप हिय सोचू,

शशिकर छुअत विकल जिमी कोकू।

किन्तु राम का माता कैकेयी के प्रति स्नेहभाव-

मोहि कहु मात तात दुख कारण,

करिअ जतन जेहि होहि निवारण।

कैकेयी का उत्तर-

सुनहु राम सब कारण ऐहू राजहि तुम पर अधिक सनेहू

सुत सनेह इत वचन उत, संकट परेउ नरेश,

सकहु तो आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेश॥

राम की विनम्रता-

सुनु जननी सुत सोई बड़भागी, जो पितुमात चरण अनुरागी

तनय मातु-पितु तोषण हारा दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

वनवास तो सब प्रकार हितकर होगा-

मुनिगण मिलन विशेष वन, सबहि भाँति हित मोर,

तेहि महुँ पितु आयसु बहुरि सम्मत जननी तोर।

भरत प्राणप्रिय पावहिं राजू विधि सब विधि मोहि संमुख आजू,

जोन जाऊँ  वन ऐसेऊ काजा, प्रथम गण्हि मोंहि मूढ़ समाजा॥

कैकेयी का राम के प्रति कथन-

तुम अपराध जोग नहि ताता जननी जनक बंधु सुखदाता

राम सत्य सब जो कछु कहहू, तुम पितुमात वचनरत रहहू।

पितहि बुझाई कहहु बलि सोई, चौथेपन जेहि अजसु न होई,

तुम सम सुअन सुकृत जिन्ह दीन्हे, उचित न तासु निरादर कीन्हे।

राम प्रसन्न हैं। कवि कहता है-

नव गयंद रघुवीर मन राज अलान समान

छूट जान बन गवन सुनि, उर अनंद अधिकान॥

राम का पितृ प्रेम

धन्य जनम जगदीतल तासू पिताहि प्रमोद चरित सुन जासू

चार पदारथ करतल ताके प्रिय पितुमात प्राण सम जाके ॥

दशरथ प्रेम विह्वल हो-आँखें खोलते हैं-

सोक विवस कछु कहे न पारा हृदय लगावत बारहिंबारा,

विधिहिं मनाव राऊ उर माही, जेहि रघुनाथ न कानन जाहीं॥

अवधवासी पर दुख

मुख सुखाहि लोचन स्रवहि सोक न हृदय समाय,

मनहुँ करुण रस कटकई उतरी  अवध बजाय॥

नारियाँ कैकेयी को समझाती हैं-

भरत न प्रिय तोहि राम समाना।

सदा कहहु यह सब जन जाना॥

करहु राम पर सहज सनेहू,

केहि अपराध आज बन देहू?

संकेत :

सीय कि प्रिय संग परिहरिहिं, लखन कि रहहहिं धाम

राज की भूंजब भरत पुर, नृप कि जिअहि बिनु राम।

कौशल्या का कथन-

पति के प्रति प्रेम व विश्वास दर्शाता है।

राज  देन  कहि  दीन्ह बन  मोहि  सो  दुख  न लेस

तुम बिन भरतहि भूपतिहि, प्रजहि, प्रचंड कलेश।

जो केवल पितु आयसु ताता तो जनि जाहु जानि बडि़ माता

जो पितुमात कहेऊ बन जाना तो कानन सत अवध समाना॥

पूत परम प्रिय तुम सबहीके प्राण प्राण के जीवन जीके

ते तुम कहहु मात बन जाऊँ, मैं सुनि बचन बैठ पछताऊँ।

सीता-  

समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाय,

जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिर नाय।

पति प्रेम-

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते, प्रिय बिन तियहि तरनिते ताते

तन, धन, धाम, धरनि, पुर, राजू, पति विहीन सब शोक समाजू।

जिय बिन देह, नदी बिन बारी तैसेहि नाथ पुरुष बिन नारी

नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे, सरद विमल बिधु बदन निहारे।

लक्ष्मण की दशा-

कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े, दीन मीन जनु जल ते काढे,

मो कह काह कहब रघुनाथा, रखिहहि भवन कि लैहहिं साथा।

सुमित्रा का कथन लक्ष्मण के प्रति-

अवध तहाँ जहँ राम निवासू, तँहइ दिवस जहँ भानुप्रकासू

जो पै राम-सीय वन जाहीं, अवध तुम्हार काम कछु नाहीं।

राम-प्राण प्रिय जीवन जीके, स्वारथ रहित सखा सब हीके

सकल प्रकार विकार बिहाई, सीय-राम पद सेवहुु जाई

तुम कहँ वन सब भाँति सुपासू, सँग पितु मात रामसिय जासू

सीता का पति प्रेम-

प्रभा जाइ कँह भानु विहाई, कहँ चंद्रिका चंदु तज जाई।

केवट प्रसंग में-

पिय हिय की सिय जाननिहारी, मनिमुंदरी मन मुदित उतारी।

भरत का अयोध्या में आते ही आक्रोश और पश्चाताप-

राम विरोधी हृदय दे प्रकट कीन्ह विधि मोही,

मो समान को पातकी बादि कहहुँ कहु तोही।

कौशल्या भरत को देखते ही-

भरतहि देखि मातु उठिघाई, मुरछित अवनि परी झंई आई।

भरत-

देखत भरत विकल भये भारी, परे चरण तन दशा बिसारी।

कौशल्या-

सरल स्वभाव माय हिय लाये, अतिहित मनहु राम पुनि आये,

भेंटेहु बहुरि लखन लघु भाई, शोक सनेह न हृदय समाई।

भरत-   ते पातक मोहि होऊ विधाता, जो येहि होइ भोर मत माता।

राम ने चित्रकूट में भरत से कहा-

करम बचन मानस विमल तुम समान तुम तात।

गुरु समाज, लघुबंधु गुण कुसमय किमि कहिजात॥

राम आदर्श पति हैं- पत्नी प्रेम में सात्विक भाव से दाम्पत्य जीवन का आनंद भी लेते दिखते हैं-

एक बार चुनि कुसुम सुहाये, निज कर भूषण राम बनाये।

सीतहिं पहराये प्रभु सादर बैठे फटिक शिला अति सुंदर।

मानस में तुलसी दास जी ने राक्षस परिवार की पत्नी और भाई के भी आदर्श संदर्भ प्रस्तुत किये हैं। मंदोदरी की अपने पति रावण को सलाह-

तासु विरोध न कीजिय नाथा, काल, करम जिव जिनके हाथा।

अस विचार सुनु प्राणपति, प्रभुसन बयरु विहाई,

प्रीति करहु रघुवीर पद मम अहवात न जाई।

भाई को (रावण को) विभीषन की सही सलाह-

जो कृपाल पूँछेहु मोहि बाता, मति अनुरुप कहऊ हित ताता

जो आपन चाहे कल्याणा, सुजस सुमति शुभ मति सुख नाना

तो पर नार लिलार गोसाई तजऊ चउथ के चंद की नाई

चौदह भुवन एक पति होई, भूत द्रोह तिष्ठइ नहिं सोई

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत

इस प्रकार मानस में परिवारिक स्नेह के संबंधों के अनुपम आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं। जिनका अनुकरण और अनुसरण कर आज के विकृत समाज के हर परिवार को सुख-शांति और समृद्धि प्राप्ति का रास्ता मिल सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती – 2॥ -॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 1॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती – 2

☆ ॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मानस – नीति-प्रीति और लोक रीति की त्रिवेणी है।

भक्त शिरोमणि तुलसीदास कृत ‘मानस’ एक ऐसा अद्वितीय कालजयी ग्रंथ है कि जिसकी टक्कर का कोई दूसरा ग्रंथ तो मेरी समझ में विश्व में नहीं है। ‘मानस’ में मानव समाज के उत्कर्ष और सुख-शांतिपूर्ण जीवन के जो आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं वे महत्ï कल्याणकारी और लोकोपयोगी हैं। मानस में क्या नहीं है? वह सभी कुछ तो है जिससे मनुष्य का न केवल इहलोक बनता है वरन्ï परलोक के बनाने का सार मंत्र भी मिलता है।

समाज की इकाई व्यक्ति है और व्यक्ति सुशिक्षित और सुसंस्कारित हो तो समाज स्वत: ही सर्वसुख सम्पन्न, सर्वगुण सम्पन्न निर्मित हो सकेगा। बारीक विवेचन से एक बात बड़ी स्पष्ट है कि व्यक्ति और समाज के बीच एक और सशक्त, संवेदनशील तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है-वह है परिवार। अनेकों परिवारों का सम्मिलित समूह ही किसी समाज का निर्माता है अत: परिवार में व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तित्व में निखार भी लाता है और संस्कार भी देता है। इन्हीं सुसंस्कारों से समाज को सुख, शांति, समृद्धि प्राप्त होती है और उस समाज की पहचान भी बनती है। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री प्रमुख सदस्य होते हैं। इनकें सिवाय अनेकों परिवारजन मित्र परिजन और सहयोगी सेवक भी जिनके विचारों व व्यवहारों की घटना दैनिक जीवन चक्र में होती है। हर परिवार की अपनी अलग संरचना होती है। अपनी अलग पारिवारिक परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें हर व्यक्ति की अलग भूमिका होती है। वह भूमिका किस व्यक्ति के द्वारा कितनी भली प्रकार निभाई जाती है इसी पर परिवार का बनना-बिखरना निर्भर करता है। ‘मानसÓ का कथानक बड़ा विस्तृत है और बहुमुखी है। राम को केन्द्र बिन्दु पर रखकर मानसकार ने उनकी संपूर्ण जीवन गाथा को उसमें गुम्फित किया है। राम अयोध्या के चक्रवर्ती राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनकी माता कौशल्या हैं जो प्रमुख राजमहिषी है। उनकी दो विमातायें है सुमित्रा और कैकेयी। सुमित्रा माता के दो पुत्र है लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा कैकयी विमाता के पुत्र का नाम भरत हैं। राम सब भाइयों में सबसे बड़े हैं। उनसे छोटे भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हैं। राज महल में अपार सुख-वैभव, राजसी ठाट और आनंद है। अनेकों सहायक, सुसेवक और  हरेक सदस्य के दास-दासियाँ हैं।

राजा दशरथ शक्तिशाली, सत्यवादी, उदार, जनप्रिय नरेश हैं। चारों पुत्र उनके वार्धक्य में उन्हें प्राप्त हुए है अत: माता-पिता के सभी अत्यंत लाड़ले हैं। मातायें  भी पुत्रों में अपने पराये का भेद किये बिना सब पर समान स्नेह रखती हैं। भाइयों में आपस में आदर भाव और मेल तथा पूर्ण सामाञ्जस्य  है। चारों भाइयों का साथ-साथ लालन-पालन और गुरुवर  वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा दीक्षा होती है। इसी बीच ऋषि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षार्थ राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेजने की याचना करते हैं। कर्तव्य भाव से बँधे राजा उनके साथ अपने दोनों पुत्रों को भेज देते हैं जहाँ उन्हें युद्ध-विद्या में पारंगत होने का सुअवसर मिलता है और वे अनेकों राक्षकों क ा वध करके मुनि विश्वामित्र जी के साथ मिथिला जाते हैं। मिथिला में संयोगवश राजाजनक की सुपुत्री सीता से राम का विवाह होता है और अन्य तीनों भाइयों के भी उसी परिवार में विवाह संपन्न होते हैं। यहाँ तक तो पूर्ण आनंद और प्रेम के संबंध सबके साथ परिवार में सबके हैं। परिवार में आपसी संबंधों की परीक्षा तो तब होती है जब व्यक्तिगत स्वार्थों में टकराव होते हैं और तभी अच्छे या बुरे, हितकारी या अहितकारी, उदार या अनुदार कौन, कैसे हैं समझ में आता है और व्यक्तित्व की वास्तविक  परख होती है।

वह घड़ी आई राम के राज तिलक की घोषणा होने पर कैकेयी की दासी मंथरा के द्वारा उल्टी पट्ïटी पढ़ाये जाने पर विमाता कैकेयी के द्वारा राजा दशरथ से, अपने जीवन की पूर्व घटनओं की याद दिलाकर राम के स्थान पर अपने पुत्र भरत को राजगद्दी दिये जाने और राम को चौदह वर्षों के लिए वनवास दिये जाने का अडिग प्रस्ताव रखने पर।

यहीं से अनापेक्षित रूप से उत्पन्न हुई विपत्ति के समय परिवार के हर व्यक्ति का सोच, व्यवहार और राम को राज्याभिषेक के स्थान पर वनवास के अवसर पर उलझी समस्याओं के धैर्यपूर्ण स्नेहिल निराकरण के आदर्श दृश्य ‘मानस’ में देखने को मिलते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।

राजा दशरथ का अपने दिये गये वचनों की रक्षा के लिये अपने प्राणों का परित्याग करना- रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाँहि बरु वचन न जाई। कैकेयी का अपने त्रिया-हठ पर अडिग रहकर अपूर्व दृढ़ता का परिचय देना।

राम का, पिता के मानसिक और पारिस्थितिक कष्ट देख दुखी होना तथा पिता की आज्ञा का पालन करने में अपना हित समझ राजपद को सहर्ष त्याग देना। कहीं कोई प्रतिकार न करना, विमाता कैकेयी के प्रति कोई रोष प्रकट न करना और माता कौशल्या को समझाकर वन जाने की तैयारी करना, पितृभक्त पुत्र के व्यवहार की विनम्रता की पराकाष्ठा है।

महाराज दशरथ के व्यवहार में अगाध पुत्र प्रेम, माता कौशल्या, सुमित्रा के व्यवहार में वत्सलता, भरत और लक्ष्मण के कार्यकलापों में भ्रातृ प्रेम और भ्रातृनिष्ठा तथा सीता में पत्नी के उच्चादर्श और पति के मनसा, वाचा, कर्मणा निष्ठा के आदर्श प्रस्तुत हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही उनके सबके साथ चाहें वे परिवार के सदस्य हो, गुरु हों, परिजन हो, पुरजन हों या  निषाद, कोल, किरात, सेवक या शत्रु राक्षस ही क्यों न हो उनके प्रति भी ईमानदारी और भक्ति वत्सलता स्पष्ट हर प्रसंग में सर्वाेपरि है। मानस तो नीति प्रीति और लोक व्यवहार का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है जिस का रसास्वादन और आनंद तो ग्रंथ के अनुशीलन से ही प्राप्त हो सकता है किन्तु सिर्फ बानगी रूप में कुछ ही प्रसंग उद्धृत कर मैंने लेख विस्तार और समय सीमा को मर्यादित रखकर कुछ संकेत करने का प्रयास किया है जिससे पाठक मूल ग्रंथ को पढऩे की प्रेरणा पा सकें।

क्रमशः… 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #136 ☆ संपन्नता मन की ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संपन्नता मन की । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 136 ☆

☆ संपन्नता मन की

संपन्नता मन की अच्छी होती है; धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहंकार देती है और मन की संपन्नता संस्कार प्रदान करती है। शायद इसलिए ही धनी लोगों में अहंनिष्ठता के कारण ही मानवता नहीं होती। वे केवल हृदय से ही निर्मम नहीं होते; उनमें औचित्य-अनौचित्य व अच्छे-बुरे की परख भी नहीं होती। वे न तो दूसरों की भावनाओं को समझते हैं; न ही उन्हें सम्मान देना चाहते हैं। सो! वे उन्हें हेय समझ उनकी उपेक्षा करते हैं और हर पल नीचा दिखाने में प्रयासरत रहते हैं। इसलिए दैवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति को ही जग में ही नहीं; जन-मानस में भी मान-सम्मान मिलता है। लोग उससे प्रेम करते हैं और उसके मुख से नि:सृत वाणी को सुनना पसंद करते हैं, क्योंकि वह जो भी कहता व करता है; नि:स्वार्थ भाव से करता है तथा उसकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होता। वे भगवद्गीता के निष्काम कर्म में विश्वास करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपना फल नहीं खाते; पथिक को छाया व सबको फूल-फल देते हैं। बादल भी बरस कर प्यासी धरती माँ की प्यास बुझाते हैं और अपना जल तक भी ग्रहण नहीं करते। इसलिए मानव को भी परहिताय व निष्काम कर्म करने चाहिए। ‘अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी, ऐ दिल ज़माने के लिए’ से भी यही परोपकार का भाव प्रकट होता है। मुझे स्मरण हो रहा है एक प्रसंग– जब मीरा जी मस्ती में भजन कर रही थी, तो वहां उपस्थित एक संगीतज्ञ ने उससे राग के ग़लत प्रयोग की बात कही। इस पर उसने उत्तर दिया कि वह अनुराग से कृष्ण के लिए गाती है;  दुनिया के लिए नहीं। इसलिए उसे राग की परवाह नहीं है।

‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ ब्रह्म ही केवल सत्य है। उसके सिवाय इस संसार में सब मिथ्या है, परंतु माया के कारण ही वह सत्य भासता है। शरतचंद्र जी का यह कथन कि ‘मित्रता का स्थान यदि कहीं है, तो वह मनुष्य के मन को छोड़कर कहीं नहीं है’ से स्पष्ट होता है कि मानव ही मानवता का सत्पात्र होता है। परंतु उसके मन की थाह पाना आसान नहीं। उसके मन में कुछ और होता है और ज़ुबाँ पर कुछ और होता है। मन चंचल है, गतिशील है और वह पल भर में तीनों लोगों की यात्रा कर लौट आता है।

‘वैसे आजकल इंसान मुखौटा धारण कर रहता है। उस पर विश्वास करना स्वयं से विश्वासघात करना है।’ दूसरे शब्दों में मन से अधिक छल कोई भी नहीं कर सकता। इसलिए कहा जाता है कि यदि गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला कोई है, तो वह इंसान ही है। यही कारण है कि आजकल गिरगिट भी इंसान के सम्मुख शर्मिंदा है, क्योंकि वह उसे पछाड़ आगे निकल गया है। यही दशा साँप की है। काटना उसका स्वभाव है, परंतु वह अपनी जाति के लोगों को पर वार नहीं करता। परंतु मानव तो दूसरे मानव पर जानबूझ कर प्रहार करता है और प्रतिस्पर्द्धा में उसे पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है। इस स्थिति में वह किसी के प्राण लेने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता। दुष्टता में इंसान सबसे आगे रहता है, क्योंकि वह मन के हाथों की कठपुतली है। अहंनिष्ठ मानव की सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है और उसे सावन के अंधे की भांति केवल हरा ही हरा दिखाई देता है। वह अपने परिवार के इतर कुछ सोचता ही नहीं और स्वार्थ हित कुछ भी कर गुज़रता है। मानव का दुर्भाग्य है कि वह आजीवन यह नहीं समझ पाता कि उसे सब कुछ यहीं छोड़ कर जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ ‘यह किराए का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर  पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे!/खाली हाथ तू जाएगा’ इसी तथ्य को उजागर करती हैं। काश! इंसान उक्त तथ्य को आत्मसात् कर पाता तो  संसार में धर्म, जात-पाति व अमीर-गरीब आदि के झगड़े न होते और न ही किसी प्रकार का पारस्परिक वैमनस्य, भय व आशंका मन में उपजती।

‘काश! जीवन परिंदो जैसा होता/ सारा जग अपना आशियां होता।’ यदि मानव के हृदय में संकीर्णता का भाव नहीं होता, तो वे भी अपनी इच्छानुसार संसार में कहीं भी अपना नीड़ बनाते । सो! हमें भी अपनी संतान पर अंकुश न लगाकर उन्हें शुभ संस्कारों से पल्लवित करना चाहिए, ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके। वे कर्त्तव्यनिष्ठ हों और उनके हृदय में प्रभु के प्रति आस्था, बड़ों के प्रति सम्मान भाव व छोटों के प्रति स्नेह व क्षमा भाव व्याप्त हो। पति-पत्नी में सौहार्द व समर्पण भाव हो और परिजनों में अजनबीपन का एहसास न हो। हमें यह ज्ञान हो कि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए हमें दूसरों के अधिकारों के प्रति सजग रहना आवश्यक है। हमें समाज में सामंजस्य अथवा सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हेतू सत्य को शांत भाव से स्वीकारना होगा तथा झूठ व मिथ्या को त्यागना होगा। सत्य अटल व शिव है, कल्याणकारी है, जो सदैव सुंदर व मनभावन होता है, जिसे सब धारण करना चाहते हैं। जब हमारे मन में आत्म-संतोष, दूसरों के प्रति सम्मान व श्रद्धा भाव होगा, तभी जीवन में समन्वय होगा। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। यदि हमारे कर्म यथोचित होंगे, तभी हमारी इच्छाओं की पूर्ति संभव है।

जीवन में संयम का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर अंकुश नहीं रख पाता, तो उससे संयम की अपेक्षा करना निराधार है; मात्र कपोल-कल्पना है। महात्मा बुद्ध की यह सोच अत्यंत श्लाघनीय है कि ‘यदि कोई आपका अनादर कर रहा है, तो शांति स्थापित होने तक आपको उस स्थान को नहीं छोड़ना चाहिए।’ सो! आत्म-संयम हेतू वाणी पर नियंत्रण पाना सर्वश्रेष्ठ व सशक्त साधन है। वाणी माधुर्य से मानव पलभर में शत्रु को मित्र बना सकता है और कर्कश व कटु शब्दों का प्रयोग उसे आजीवन शत्रुता में परिवर्तित करने में सक्षम है। यह शब्द ही महाभारत जैसे बड़े-बड़े युद्धों का कारण बनते हैं। 

हर वस्तु की अधिकता हानिकारक होती है,भले वह चीनी हो व अधिक लाड़-प्यार हो। इसलिए मानव को संयम से व्यवहार करने व अनुशासन में रहने का संदेश दिया गया है। ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप उनसे अपेक्षा करते हैं, क्योंकि जीवन में वही लौट कर आपके पास आता है’ में दिव्य अनुकरणीय संदेश निहित है। इसलिए बच्चों को शास्त्र ज्ञान, परमात्म तत्व में आस्था व बुज़ुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव संजोने की सीख देनी चाहिए। बच्चे अपने माता-व गुरुजनों का अनुकरण करते हैं तथा जैसा वे देखते हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं। इसलिए हमें फूंक-फूंक कर कदम रखने चाहिए, ताकि हमारे कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर न हों और हमें किसी के सम्मुख नीचा न देखना पड़े। हमें मन का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जहाँ वह हमारा पथ-प्रशस्त करता है, वहीं भटकन की स्थिति उत्पन्न करने में भी समर्थ है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जिस युग में आज हम जी रहे हैं, वह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने एक से बढक़र एक, अनेकों सुविधाएँ उपलब्ध कराईं हैं। इनसे मानव जीवन में सुगमता आई है। हर क्षेत्र में विकास और भारी परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य के सोच-विचार और व्यवहार मेें बदलाहट आई है। किन्तु इस प्रगति और नवीनता के चलते जीवन में नई उलझनें, आपाधापी, कठोरता और कलुषता भी बढ़ी है। आपसी प्रेम के धागे कमजोर हुए हैं। नैतिकता और पुरानी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं का हृास हुआ है और अपराध वृत्ति बढ़ी है। स्वार्थपरता दिनों दिन बाढ़ पर है। अनेकों विवशताओं ने परिवारों को तोड़ा है। सुख की खोज में भौतिकवादी विज्ञान ने नये नये चमत्कार तो कर दिखाये किन्तु सुख की मृगमरीचिका में भागते मनुष्य ने प्यास और त्रास अधिक पाये हैं, सुख कम। मैं सोचता हूँ ऐसा क्यों हुआ? मुझे लगता है कि भौतिकता के आभा मण्डल से हमारा आँगन तो जगमगा उठा है, जिसने हमें मोहित कर लिया है किन्तु हमारा भीतरी कमरा जहाँ अध्यात्म की पावन ज्योति जलती थी, उपेक्षित होने से अँधेरा हो गया है। हमने अन्तरिक्ष में तो बड़ी ऊँची उड़ानें भरी हैं और  उसे जीत लिया है परन्तु अपने अन्त:करण को जानने समझने के लिए उस ओर झाँकने का भी यत्न छोड़ दिया है। पश्चिम की भौतिकवाद की  आँधी ने हमारी भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक विरासत के दीपक को निस्तेज कर दिया है। हम अपनी संस्कृति के मन्तव्य को समझे बिना उसके परिपालन से हटते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति मानवीयता की भावभूमि पर तप, त्याग, सेवा और सहयोग पर आधारित है। वह सुमतिपूर्ण कर्मठता में संतोष सिखाती है जबकि पश्चिम की भौतिकवादी दृष्टि इसके विपरीत उपभोगवाद पर अधिक आधारित है। इसलिये वह त्याग और अपरिग्रह के स्थान पर संघर्ष, संग्रह और भोग पर जोर देती है।

सामाजिक जीवन के विकास क्रम में, मनुष्य जबसे किसी समुदाय का सदस्य बन कर रहने लगा तभी से उस समुदाय को सुरक्षा, जीवनयापन के साधन और विकास के अवसरों की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए किसी योग्य, सशक्त, समझदार मुखिया या शासक की बात उठी। प्रत्येक समुदाय जो जहाँ रहता था, उसे अपना देश कहकर उसे सुरक्षा प्रदान करते हुए शासन करने वाले मुखिया को राजा के नाम से संबोधित करने लगा। राजा भी अपने अधिकार क्षेत्र में रहने वाले परिवार व उसके प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सन्तान की भाँति मानकर, सुरक्षा और स्नेह प्रदान कर उस समुदाय को अपनी प्रजा कहने लगा और उसके नियमित ढंग से पालन-पोषण के दायित्व को अपनी धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी के रूप में निभाने लगा। इस प्रकार देश, राजा तथा प्रजा और उनके कत्र्तव्यों की अवधारणा विकसित हुई। राज्य नामक संस्था स्थापित हो गई। राजा ने प्रजा के पालन-पोषण, संवर्धन और सुरक्षा का भार अपना धार्मिक कत्र्तव्य मानकर न्यायोचित कार्य करना अपना लिया और प्रजा ने भी कृतज्ञता वश  राजा को अपना स्वामी या ईश्वर की भाँति सर्वस्व और शक्तिमान स्वीकार कर लिया। यही परिपाटी विश्व के सभी देशों में मान्य परम्परा बन गई और राजा का पद पारिवारिक विरासत बन गया। संसार में जनतांत्रिक शासन-व्यवस्था के चालू होने के पहलेे अभी निकट भूतकाल तक विभिन्न देशों के शासक और स्वामी राजा ही होते थे और वे अपनी प्रजा की रक्षा सुख-सुविधा के लिये जो उचित समझते थे, करते थे। आदर्श व सुयोग्य राजा या शासक से यही अपेक्षा होती है कि वह प्रजा-वत्सल हो, प्रजा के हितों का ध्यान रखे संवेदनशील हो और अपनी राज्य सीमा के समस्त निवासियों को हर प्रकार से सुखी रखे।

सुशिक्षित, संस्कारवान, धर्मप्राण व्यक्ति चाहे जो भी हो, राजा प्रजा या सेवक, अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करता है। परन्तु जब शिक्षा से संस्कार न मिलें, परहित की जगह स्वार्थपरता प्रबल हो, भोग और लिप्सा में कर्तव्य याद न रहें, आत्म मुग्धता और अभिमान में संवेदनशीलता न रहे, अनैतिकता और अधार्मिकता का उद्भव हो जाय तो न तो सही आचरण हो सकता है और न सही न्याय ही।

समय और परिस्थितियों के प्रवाह में बहते समाज के विचारों, धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन होते रहते हैं। इसीलिए धर्मपीठाधीश्वर, सचेतक संत और साहित्यकार समाज मेें सदाचार, सद्ïविचार और कर्तव्य बोध की चेतना जागृत करने के लिए धर्मोपदेश, प्रवचन और चिंतन से तथा बोधगम्य आदर्श पात्र चरित्रों की प्रस्तुति से मार्गदर्शन देते आये हैं। महान विचारक, समाज-सुधारक, श्री राम भक्त, परम विवेकी विद्वान्ï महात्मा तुलसीदास जी ने भी अपने काव्य ”रामचरितमानस” की श्रेष्ठ सरस रचना कर, जन जन को श्रीराम कथा के माध्यम से पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक आदर्श प्रस्तुत कर आध्यात्मिक विकास के लिये दिशा दिखाई है। ईश्वर की भक्ति का अनुपम प्रतिपादन कर भारतीय दर्शन की व्याख्या की है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम को महाकवि तुलसी दास जी ने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श सखा, आदर्श संरक्षक, आदर्श राजा, आदर्श कष्ट हर्ता और भक्तों के आदर्श उपास्य के रूप में प्रस्तुत कर सहृदय पाठकों का मन मोह लिया है। वे सबके लिए सभी रूपों में अनुकरणीय हैं। मानस वास्तव में मानवता को तुलसीदास जी का दिया हुआ मनमोहक उपहार है। आज के भौतिकवादी समाज में चूँकि लोग स्वार्थवश मोह में फँस अपने कर्तव्य पथ से विरत हैं, सामाजिक अनुशासन के लिए निर्धारित मान्यताओं का निरादर कर रहे हैं, चारित्रिक पतन के गर्त में गिरे हैं, इसी से दुखी हैं।

मानस  का अनुशीलन और श्रीराम का अनुकरण समाज को दु:खों से उबारने में संजीवनी का काम कर सकता है किन्तु यह तभी संभव है जब ‘मानस’ का मौखिक पाठ भर न हो, उसकी पावन भावना का पढऩे वाले के मन में सुखद अवतरण भी हो और जीवन में आचरण भी। समाज के हर तबके के जन साधारण से लेकर सर्वाेच्च शासक-नृपति तक को उचित मार्गदर्शन देने के लिए सारगर्भित विचारों और भावों से समस्त ग्रंथ भरा पड़ा है। प्रत्येक शब्द के सार्थक नियोजन से एक एक छन्द में अलौकिक अमृतरस घुला हुआ है जो वर्षा की शीतल फुहार या वसन्त की नवजीवन दायिनी बयार सा आह्लाद प्रदान करता है। संवेदन शीलता, सत्य, न्याय और प्रेम पर आधारित शासन ही जन-जन को सुखकर हो सकता है।

मनोज्ञ राजा श्रीराम के शासन काल में अयोध्या कैसी सुखी, सम्पन्न और प्रफुल्लि थी इसकी सुन्दर झाँकी मानस के निम्न छन्दों में निहारिये-

दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहुहिं नहि व्यापा।

सबजन करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।

नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना, नहिं कोउ अनबुध लच्छन हीना।

सब गुणज्ञ, पंडित सब ज्ञानी, सब कृतज्ञ नहिं कपट-सयानी।

सब उदार सब पर उपकारी, विप्रचरण सेवक नर-नारी।

एक नारिव्रत रत सब झारी, ते मन बचक्रम पति हितकारी।

बिधु महि पूर मययूखन्हि, रवि तप जेतनहि काज।

माँगे वारिद देंहि जल, रामचंद्र के राज॥

जहाँ ऐसी अच्छी व्यवस्था हो और ऐसा समाज हो वहाँ दु:ख कहाँ? और असंतोष किसे? इसीलिये भारतीय जनमानस में रामराज्य की परिकल्पना सर्वाेपरि सुखदायी शासन व्यवस्था की है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त देश में ऐसे ही रामराज्य की कामना महात्मा गाँधी ने की थी और ऐसे ही सपने जन जन ने सँजोये थे। किन्तु हमारे शासक (जन-नेता) न तो अपने मनोविकारों को जीत राजाराम का अनुकरण करना सीख सके और न राम-राज्य आज तक आ सका। हाँ उसकी लालसा देश के जनमानस में आज भी सुरक्षित है। पश्चिम की हवा ने हमारी संस्कृति के दीपक की लौ को अस्थिर कर रखा है।

तुलसीदास जी ने लिखा है –

मुखिया मुख सों चाहिये खान-पान में एक

पालै पोषै सकल अँग तुलसी सहित विवेक।

यदि राजा या वर्तमान जनतांत्रिक प्रणाली में शासक ऐसा हो तो रामराज्य की स्थापना असंभव नहीं है। शासक के मन में सदा क्या चिंता होनी चाहिए, इसकी झलक श्रीराम की इस अभिव्यक्ति में देखिये जो उन्होंने लक्ष्मण से वन गमन के समय उनकी विवश आतुरता को राम के साथ वन जाने को देखकर कहा था। श्री राम समझाते हैं कि अन्य कोई भाई अयोध्या में नहीं है इसलिए प्रजा के हित में राज्य संचालन के लिए लक्ष्मण का अयोध्या में रुकना उचित है क्योंकि

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।

राज परिवार को चाहे जो दुख हो पर प्रजा को दुख नहीं होना चाहिए अन्यथा राजा को नरक की यातना भोगनी होती है।

इसी प्रकार श्री राम को वापस अयोध्या चलकर राज्य करने के लिये मनुहार करने के प्रसंग में प्रिय भाई भरत को भी वे ही समझाते हैं कि राजधर्म    का सार तत्व यही है कि अपने मन की बात मन ही रखकर या मन मारकर प्रजा के हित में गुरुजनों का आशीष ले राज्य काज करना भरत को ही उचित होगा सुनिये श्री राम क्या समझाते हैं-

राज धरम सरबस इतनोई, जिमि मन माँहि मनोरथ गोई

देश, कोष, परिजन, परिवारू, गुरुपदरजहि लागि धरिभारू

तुम मुनि मातु सचिव सिख मानी पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी।

ये विचार श्री राम के मन में वनवास में भी अपनी प्रजा के प्रति चिंता और प्रेम के भाव प्रदर्शित करते हैं।

रावण का विनाश कर चौदह वर्ष के वनवास के बाद जब अयोध्या लौटते हैं और उन्हें राजा बनाया जाता है तब उनकी दिनचर्या और बन्धु तथा जन-स्नेह को कवि ने यों वर्णित किया है-

राम करहि भ्रातन पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती,

हर्षित रहहिं नगर के लोगा, करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।

मैं समझता हूँ कि ऐसा राजा और उसकी विचार-धारा व राजनीति तो आज की जनतांत्रिक शासन व्यवस्था से भी अच्छी थी। जनतांत्रिक व्यवस्था तार्किक विचार से जनता को यों ही सुख देने की कामना से तो की गई थी।

प्रजा को सुख देना और उनके अभिमत को महत्त्व देना श्री राम की पारिवारिक परम्परा रही है। राजा दशरथ ने जब राम को युवराज पद देने का विचार किया तो उन्होंने अपने मनोभाव प्रजा पर थोपे नहीं वरन्ï सभा में सबसे खुले रूप में सहमति देने का निवेदन किया- सभा में उन्होंने प्रस्ताव रखा राम को युवराज पद देने का और कहा-

जो पाँचहि मत लागै नीका, करऊं हरष हिय रामहिं टीका।

जहाँ राजा प्रजा की रुचि और सहमति का ख्याल रखता है वहाँ प्रजा प्रसन्न रहती है और प्रजा की प्रसन्नता ही किसी भी राज्य की सुख संमृद्धि और प्रगति का आधार मात्र नहीं होती बल्कि राजा या शासक के मनोबल और उस की शक्ति का, कार्य निष्पादन में भी बड़ा संबल होती हैं।

ऐसे जनमन रंजक लोक प्रिय राजा राम पर अनैतिकता का आरोप लगाकर महारानी सती सीता के लिए कटु शब्दों का प्रयोग करने वाले किसी प्रजाजन का मनोभाव अपने गुप्तचर से जानकर भी उन्होंने संंबंधित व्यक्ति को प्रताडि़त न कर, उसके आक्रोश और विषाद को दूर करने के लिये आदर्श राजा के रूप में आत्मप्रतारणा ही उचित समझा। इसीलिए उन्होंने प्रायश्चित स्वरूप अपने अद्र्धांग को त्याग कर जनहित में स्वत: दुख भोगना स्वीकार कर लिया। यह प्रसंग रामचरित मानस में तो भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने नहीं उठाया है परन्तु वाल्मीकि रामयण में है जिसे राजाराम के द्वारा सीता परित्याग की संज्ञा दी जाती है और राम के अपनी पवित्र पत्नी पर किये गये अन्याय का रूप देकर उंगली उठाई जाती है किन्तु वास्तव में वह नारी के प्रति अन्याय की बात नहीं, बात है राजधर्म के निवहि में प्रजा के सुख के हेतु राजा के मनोभाव की जिसके कारण उन्होंने अद्र्धांग से ही दूर हो आत्म त्याग का अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया है। ऐसा उन्होंने किया केवल अपनी प्रजा के सामान्य जन की प्रसन्नता देखने के लिये न कि राजरानी सीता को किसी प्रकार प्रताडि़त करने के लिये और न उनको लांछित और अपमानित करने के लिए। सीता तो उनके हृदय में सतत विराजित थीं और इसीलिए अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर सीता की स्वर्ण प्रतिमा को अधीष्ठित कर यज्ञ की धार्मिक विधि सम्पन्न की थी। यदि हृदय से उन्होंने किसी कारण से पत्नी का परित्याग किया होता तो स्वर्णमूर्ति बनवाने की स्थिति कैसे बनती? इस प्रसंग में राजा के मनोभाव को समझने की आवश्यकता है। किन्तु परिवार के किसी एक व्यक्ति के दुख से सभी परिवारी जनों का मन अस्वस्थ हो जाता है और उसका दुख भोग अन्यों को भी करना ही पड़ता है। इसीलिये सीता को राम की जीवन संगिनी के नाते उनके विचारों और कर्माे का परिणाम भोगना पड़ा क्योंकि भारतीय संस्कृति तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण मानती है। (यह सारा प्रसंग एक अलग विवेचना का विषय बन सकता है।) घटना का यह दूसरा दुखद पक्ष है। परन्तु इस घटना में प्रजा के लिये राजा का अनुपम त्याग न केवल महान है वरन अलौकिक है तथा स्तुत्य है।

इस पृष्ठभूमि में आज के शासकों, जन नेताओं और अधिकारियों  के व्यवहारों को देखना चाहिए जो जनहित के विपरीत दिखते हैं। देश में अब स्थिति कुछ यों है-

आज दिखती शासकों में स्वार्थ की बस भावना

बहुत कम है जिनके मन है लोकहित की कामना।

राम से त्यागी कहाँ है? कहाँ पावन आचरण?

लक्ष्य जन सेवा के बदले लक्ष्य है धन-साधना॥

इसीलिए हर क्षेत्र में असंतोष है, कलह है, दुख है और नित नई समस्याएं हैं। कहाँ राजा राम का आदर्श आचरण और कहाँ आज के अधिकार संपन्न शासकों का व्यवहार? मानस के इस एक ही उपदेश को ध्यान में रख यदि आज के शासक व्यवहार करें तो स्थिति बहुत भिन्न होगी- “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।”

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बुकर पुरस्कार से उठे कुछ सवाल … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ बुकर पुरस्कार से उठे कुछ सवाल … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

गीतांजलिश्री के हिंदी उपन्यास ‘रेत समाधि’ को मिले बुकर पुरस्कार से कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं जिन पर विचार होना चाहिए। इतना बड़ा पुरस्कार हिंदी उपन्यास पर मिलने पर गीतांजलिश्री चर्चा में आ गयी हैं जैसे कभी अरुंधति राॅय आ गयी थीं -‘गाॅड ऑफ स्माल थिंग्स’ के पुरस्कार से। वैसे तो पुरस्कार छोटा हो या बड़ा चर्चा तो होती ही है। हर पुरस्कार के साथ विवाद या कुछ बहस भी चलती है। गीतांजलिश्री को मिले बुकर पुरस्कार से भी यह चर्चा और बहस चल निकली है कि अनुवाद को पुरस्कार मिला है और जवाब यह है कि आखिर तो हिंदी में और अपने ही समाज के बारे में लिखा गया है। फिर बहस कैसी?  मालगुडी डेज को फिर पसंद कैसे किया? अंग्रेजी अनुवाद न हुआ होता तो क्या पुरस्कार मिलता? गीतांजलिश्री को मिला और उनके लेखन को मिला। हिंदी गौरवान्वित हुई। हिंदी लेखिका का मान सम्मान बढ़ने पर बधाई। फिर किसी प्रकार की बहस कैसी और क्यों?

यदि बहस होनी ही है और जरूरी है तो इस बात पर क्यों नहीं कि पहले से कितने लोगों ने यह उपन्यास पढ़ा है? हिंदी में पुस्तकों के पठन पाठन की परंपरा क्यों नहीं? मैं खुद ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूं कि मैंने ‘रेत समाधि’ उपन्यास नहीं पढ़ा है। बल्कि एक समाचारपत्र के संपादक ने फोन पर पूछा था कि क्या मैंने यह उपन्यास पढ़ा है तो मैंने जवाब में इंकार कर दिया उतनी ही ईमानदारी से। पर मन ही मन शर्मिंदा जरूर हुआ कि यार, क्यों नहीं पढ़ा? इतनी किताबें पढ़ता हूं, फिर यही उपन्यास कैसे नहीं पढ़ा? वैसे किस किताब को पुरस्कार मिलने वाला है, मैं कैसे जान सकता हूं? मेरी अपनी किताब ‘महक से ऊपर’ को भाषा विभाग, पंजाब की ओर से सन् 1985 में वर्ष की सर्वोत्तम कथाकृति का पुरस्कार मिला तब मैं अपनी ही पुस्तक के बारे में अनजान था। डाॅ इंद्रनाथ मदान ने पुरस्कारों पर कहा है कि अब कोई ध्यान नहीं देता। पुरस्कार ईमानदारी से दिये नहीं जाते और लोग इनकी परवाह करना छोड़ चुके हैं। हालांकि वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया का कहना है कि पुरस्कार मिलने से रचनाकार और कृति को चर्चा तो मिल ही जाती है। विष्णु प्रभाकर ने भी कहा था कि मैं चयन समितियों में भी रहा लेकिन इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि पुरस्कारों के देने में भेदभाव नहीं होता। कोई सबसे मशहूर पंक्तियां भी हैं कि नोबेल पुरस्कार आलू की बोरी के समान है और मैं इसे लेने से इंकार करता हूं। यानी कोई नोबेल पुरस्कार भी ठुकरा सकता है और कोई छोटे से छोटे से पुरस्कार के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

बुकर पुरस्कार मिलने से यह बात तो जरूर है कि पुस्तक के प्रति पाठकों की रूचि जागृत हुई है और वे पुस्तक मंगवा भी रहे हैं। तुरत फुरत एक संस्करण आ भी गया है जिस पर यह सूचना भी है कि इस उपन्यास को बुकर सम्मान मिला है।

कभी रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को भी अंग्रेजी में अनुवाद होने पर ही देश को एकमात्र नोबेल मिला था। फिर रेत समाधि को बुकर मिल जाने पर इतना हल्ला क्यों? पुरस्कार मिलने पर बहुत बहुत बधाई और हिंदी ऐसे ही आगे आगे बढ़ती रहे, यही दुआ है। वैसे हमारी देश की इतनी भाषाओं की रचनाएं भी हम अनुवाद से ही समझते हैं और ज्ञानपीठ ऐसी ही अनुवादित पुस्तकों पर मिलते है, तब तो कोई हो हल्ला नहीं मचाया जाता? गीतांजलिश्री निश्चित ही आपने हिंदी को गौरव प्रतिनिधित्व किया है जिसके लिए आप बधाई की पात्र हैं। जिनका काम बहस और सियासत हो, वो जानें…

अपना पैगाम मोहब्बत है

जहां तक पहुंचे…

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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