(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “विस्तार है गगन में…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 211 ☆देखो दो दो मेघ बरसते… ☆
दोस्ती, रिश्ता, व्यवहार बराबरी में ही करना चाहिए। जब तक एक स्तर नहीं होगा तो विवाद खड़े होंगे। हमारे बोलचाल में अंतर होने से समझने की क्षमता भी अलग होगी। जब भी सच्चे व्यक्ति को जान बूझकर नीचे गिराने का प्रयास होगा तो दोषी व्यक्ति को ब्रह्मांडअवश्य ही दण्ड देता है।
तकदीर बदल परिदृश्य तभी
बदलेंगे क़िस्मत के लेखे।
श्रम करना होगा मनुज सभी
जब स्वप्न विजय श्री के देखे।।
पत्थरों के जुड़ने से पहाड़ बन सकता है, बूंदो के जुड़ने से समुद्र बन सकता है तो यदि हम नियमित थोड़ा – थोड़ा भी परिश्रम करें तो क्या अपनी तकदीर नहीं बदल सकते हैं। अब चींटी को लीजिए किस तरह अनुशासन के साथ क्रमबद्ध होकर असंभव को भी संभव कर देती है।
जहाँ चार बर्तन होते हैं वहाँ नोक – झोक कोई बड़ी बात नहीं। कुछ लोगों को आधी रोटी पर दाल लेने में आनंद आता है ऐसा एक सदस्य ने विवाद को बढ़ाने की दृष्टि से कहा।
तो दूसरे ने मामले को शान्त करवाने हेतु कहा – जिंदगी के हर रंगों का आनन्द लेना भी एक कला है जिसे सभी को आना चाहिए तभी जीवन की सार्थकता है।
सबसे समझदार व अनुभवी सदस्य ने कहा क्या हुआ आप प्रेम का घी और डाल दिया करिये दाल व रोटी दोनों का स्वाद कई गुना बढ़ जायेगा।
ये तो समझदारी की बातें हैं जिनको जीवन में उपयोग में लाएँ, लड़ें – झगड़े खूब परन्तु शीघ्र ही बच्चों की तरह मनभेद मिटा कर एक हो जाएँ तभी तो हम अपने भारतीय होने पर गौरवान्वित हो सकेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – दुनियां एक रंगमंच।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆
बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हमसै कभौं कोई कुछ कयें और हम न करें ऐसो होई न सकत. संपादक जी ने भाट्सऐप पे कई कि हमें बुंदेली में कछु लिखने ही है. काऐ से कि अभिनंदन ग्रंथ की किताब बन रई हैं बुंदेली की. अच्छो काम है, अपनी जड़ों को सींचने भोतई जरूरी और अच्छो काम है.
सो हम बुंदेली में लिखने को मन बना के बैठ तो गये, पर सच्ची कै रये, हमाओ दिमाक थोड़ो कुंद है बुंदेली में. पहले कभौं कुछ लिखोई नई हतो हमने बुंदेली में. और एक बात बतायें भले हमाई अम्मा बरी, बिजौरा, बुकनू, कचरियां बनात हैं मगर हमाए घर में हम औरें खड़ी हिन्दी में बतकई करत हैं, सो बुंदेली में लिखबे को तै करके हम बुरे फंसे. हमाओ फील्ड नई है ऐ. फिर हमने सोची कि ऐसो कौन सों अंग्रेजी में हम बड़े एक्सपर्ट हैं, पर बड़े बड़े पेपर लिखत हैं न, बोलत भी हैं, अरे दुनियां घूम आये अंग्रेजी बोल बोल के. फिर आज को जमानो तो ए आई को है, जो अगर कहीं फंसे तो इंटरनेट को आसरो है ना. तो हम कम्प्यूटर खोल के बैठ गये लिखबे को. कौनो मुस्किल नई, हम लिखहैं, आखिर हमो नरो गड़ो है न मण्डला के महलात में.
अब अगलो पाइंट जे आऔ कि आखिर लिखें तो का लिखें ? सोचे कि सबसे अच्छो ये है बुंदेली के बारे में लिख डारें. तो ऐसो है कि देस के बीचोंबीच को क्षेत्र है बुन्देलखण्ड. इते जौन लोकभाषा बोलचाल में घरबार में लोग बोलत हैं, ओही है बुंदेली. कोई लिखो भओ इतिहास नई होने से तै नई है कि बुंदेली कित्ती पुरानी बोली है. पर जे तो सौ फीसद तै है कि बुंदेली बहुतै मीठी बोली है, अरे ईमें तो गारी भी ऐसीं लगें जैसे कान में सीरा पड़ रओ. भरोसा नई हो तो कोनो सादी में बरात हो आओ. घरे पंगत में बिठाके, प्रेम से पुरी सब्जी और गुलगुले खिला खिला के ऐसी ऐसी गाली देंवे हैं लुगाईयां लम्बे लम्बे घूंघट मे कि सुन के तुम सर्मा जाओ. मगर मजाल है कि तुमे बुरो लगे. अरे ऐसी मिठास भरी संस्कृति है बुंदेली की.
हम इत्तो कै सकत हैं कि भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में सोई बुंदेली बोली का उल्लेख मिलत है, मने भौतई पुरानी है अपनी बुंदेली. कहो जा सकत है कि बुंदेली की अम्मा प्राकृत शौरसेनी भाषा रई है और संस्कृत को बुंदेली के पिता कै सकत हैं. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचना कही जात हैं. जगनिक और विष्णुदास को बुंदेली के पहले कवि माने जात हैं. भारतेन्दु के टैम के लोककवि ईसुरी के रचे भये फाग गीत आज भी बुंदेलखंड में मन्डली वालों के रटे भए हैं. ईसुरी के गीतन में बुन्देली लोक जीवन की मिठास, अल्हड़ प्रेम की मादकता और रसीली रागिनी है. जे गीत तबियत तर करके मदमस्त कर देत हैं. पढ़बे बारों ने ईसुरी पर डाक्टरेट कर डारी हैं. उनके गीतन में जीवन को मनो बिग्यान, श्रंगार, समाज, राजनीति, भक्ति, योग, संयोग, वियोग, लौकिक शिक्षा, काया, माया सबै कुछ है. गांवन को बर्णन ईसुरी के फागों में कियो गओ है. मजे की बात जे है कि इत्ते पर भी बुंदेली को लिखो भओ बहुत कम है, सब याददास्त के जरिये सुनत कहत सासों से बहुओ और दादा से पोतों तक चल रओ है. बुंदेली में काम करबों को बहुत गुंजाइस है. बुंदेली में बारता मने गद्य में कम लिखो गओ है. गीत जादा हैं. फाग, गारी, बिबाह गीत, खेतन में काम करबे बकत गाने वाले गीत बगैरा बहुत हैं. जा भाषा सारे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय. मगर बोली के कई रूप में बोलबे को लहजा जगा के हिसाब से बदलत जात है. जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. जा हिसाब से बुंदेलखंड में बहुतई बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया( विदिशा जिला में बोली जाने वाली) बगैरा.
तो हमाओ आप सबन से हाथ जोड़ के बिनती है कि बुंदेली कि डिक्सनरी बनाई जाये, जो कहाबतें और मुहाबरे अपनी नानी दादी बोलत हैं उन्हें लिख के किताब बनाई जाए. बुंदेली गीतों को गाकर यू ट्यूब पर लोड करो जाये. जेमें अपने नाती नतरन को हम कभौं बता सकें कि हाउ स्वीट इज बुंदेली.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रार्थना और निवेदन…“।)
अभी अभी # 458 ⇒ प्रार्थना और निवेदन… श्री प्रदीप शर्मा
Prayer & request
प्रार्थना समर्पण और शरणागति की वह सर्वोच्च अवस्था है, जहां अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर स्वयं के कल्याण और पूरे जगत के कल्याण के लिए उस सर्वशक्तिमान घट घट व्यापक, अंतर्यामी परम पिता परमेश्वर से याचक बन कुछ मांगा जाए। जप, तप, ध्यान धारणा और समाधि से जो हासिल नहीं होता, वह केवल सच्चे मन से की गई प्रार्थना से अत्यंत सरलता से प्राप्त हो सकता है। कठिन परिस्थितियों में जब डॉक्टर भी घुटने टेक देते हैं, तो जीव के पास केवल प्रार्थना का ही सहारा होता है।
क्या प्रार्थना इतनी आसान है, कि आंख मूंदी और ॐ जय जगदीश हरे गा लिया। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें, ओम् जय जगदीश हरे। पूरा चार्टर ऑफ़ डिमांड्स है इस जगदीश जी की आरती में। आरती भी तो सामूहिक प्रार्थना का ही परिष्कृत स्वरूप है।।
ईश्वर की इस सृष्टि में एक संसार हमारा भी है। हमारे परिवार के हम कर्ता हैं, हमारा घर परिवार और संसार केवल आपसी प्रेम, अपेक्षा, आग्रह, अनुनय विनय, और निवेदन से ही तो चलता है। स्कूल कॉलेज में भर्ती और रोजगार के लिए आवेदन अथवा प्रार्थना पत्र के बिना कहां काम चलता है। समय आने पर गधे को बाप भी बनाना पड़ता है, और टेढ़ी उंगली से घी भी निकालना पड़ता है।
हम पर कब किसी आदेश, निवेदन अथवा प्रार्थना का असर पड़ा है। इधर हम अपनी मनमानी कर रहे हैं और उधर भी केवल ईश्वर की ही मर्जी चल रही है। जब संसार में स्वार्थ और खुदगर्जी बढ़ जाती है तो संकट के समय में सबको खुदा याद आ जाता है। कोरोना काल में पूरा संसार ईश्वर के आगे नतमस्तक था। वही तार रहा था, और वही पार लगा रहा था।।
अपने सांसारिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सबके कल्याण के लिए उसके दरबार में अरज लगाना ही सच्ची प्रार्थना है, अजान, अरदास है, और चित्त शुद्धि का एकमात्र उपाय है ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिनर के पहले… डिनर, के बाद“।)
अभी अभी # 457 ⇒ डिनर के पहले… डिनर, के बाद श्री प्रदीप शर्मा
Startar & dessert
जिसे हम साधारण भाषा में खाना अथवा भोजन कहते हैं, अंग्रेजों ने उसका समयबद्ध तरीके से नामकरण किया है, ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर, जिसे हम साधारण भाषा में सुबह का चाय नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का खाना कहते हैं। आकर्षक भाषा में इसे ही अल्पाहार, स्वल्पाहार एवं रात्रिभोज कहते हैं।
रात भर भूखे रहे, सुबह जाकर उपवास तोड़ा, इसलिए वह अंग्रेजों का ब्रेकफास्ट हुआ। देहात में तो कुल्ला, दातून के बाद ही कुछ कलेवा कर आदमी खेत खलिहान अथवा काम धंधे रोजगार पर निकल जाता था। हां एक शहरी जरूर ब्रेड बटर, पोहे, इडली, अथवा बाजार से लाए जलेबी, समोसा अथवा कचोरी खाकर स्कूल, दफ्तर अथवा कामकाज पर निकल जाता था।।
अंग्रेज जितने समय के पाबंद होते थे उतने ही खाने के भी। उनके हाथ में ही नहीं, दिमाग में भी घड़ी लगी रहती थी। ब्रेकफास्ट टाइम, लंच टाइम, टी टाइम और रात का डिनर भी घड़ी से ही होता था।
समय के साथ घर घर में डाइनिंग टेबल भी पसर गई। उसी पर सुबह का नाश्ता, बच्चों का होमवर्क, और सब्जी सुधारना भी हो जाता था। अब दिन भर डाइनिंग टेबल का अचार डालने से तो रहे, बहू के दहेज में अलमारी और ड्रेसिंग टेबल के साथ घर में डाइनिंग टेबल भी चली आई। रात को सब मिल जुलकर इसी पर डिनर भी कर लेते हैं।।
जो दिन में संभव नहीं हो, उसे रात का डिनर कहते हैं। पूरे सप्ताह काम ही काम, बस वीकेंड में ही थोड़ा आराम मिलता है। टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया ने पुराने सिनेमाघरों का सत्यानाश कर दिया है। सब फिल्में हॉट स्टार और नेट फ्लिक्स पर देख लो।
इसके बजाय क्यों ना रात का खाना बाहर ही खाया जाए।
पुराने जमाने के सिनेमाघरों की तरह आजकल खाने पीने की होटलें भी हाउसफुल रहने लग गई हैं, घंटों इंतजार करने के बाद अपना नंबर आता है।
अच्छी होटलों में तो दरवाजे पर सजा धजा दरबान सलाम भी करता है।।
होटलों का डिनर तो स्टार्ट ही स्टार्टर से होता है। पापड़, सलाद और सूप के अलावा चिली पनीर के कुछ टुकड़े आपकी भूख को बढ़ाने का काम करते हैं। स्प्राउट्स यानी अंकुरित अनाज भला क्यों पीछे रहे। यह अलग बात है कि हमारे जैसे लोगों का तो स्टार्टर से ही पेट भर जाता है। फिर मुख्य भोजन, जिसे मेन कोर्स कहते हैं, वह सर्व होता है।
बच्चों की दुनिया अलग ही होती है। उनको तो सिर्फ सिजलर, पास्ता, पिज्जा मंचूरियन से मतलब होता है। वैसे भी भारतीय भोजन में चाइनीज फूड का अतिक्रमण हो ही चुका है।।
कोई भी डिनर तब तक पूरा नहीं होता, जब तक कुछ डेजर्ट ना मंगवा लिए जाएं। जो मीठे के शौकीन नहीं हैं, वे आइसक्रीम, कोल्डड्रिंक अथवा फ्रूट कस्टर्ड से डिनर का समापन करते हैं। भरपेट भोजन और वह भी पूरी तरह से कैशलैस।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख “इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति”।)
☆ इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति ☆ डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’ ☆
जन्म शब्द मानव जाति के लिए कभी न भूलने वाला वह क्षण है, जब इस जग में हमारा आगमन होता है। जन्मदिन किसी का भी हो महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हम अपनों का जन्म दिवस बड़ी धूमधाम से मना रहे हैं तब हमारे भगवान कृष्ण का जन्मदिन हो तो कहने ही क्या। कान्हा का जन्मदिन मनाने के लिए मन में कितनी श्रद्धा, भक्ति, आस्था, समर्पण और उत्साह होता है, इसे स्वयं आप हम सभी जानते हैं। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी अर्थात कृष्ण जन्माष्टमी की प्रतीक्षा सभी हिंदुओं को पूरे वर्ष रहती है। हरित वसुंधरा, पानी से लबालब झील, बावली, सरोवर और नदियों में उछलती मचलती व्यापक जलराशि के दृश्य देखकर प्रतीत होता है जैसे वसुधा का सौंदर्य चरम पर हो। ऐसे आनंदमय वातावरण में अपने कान्हा का जन्मदिन मनाना हर सनातनी के लिए गर्व की बात है। श्री कृष्ण ने अपने अवतारी जीवनकाल में जितने चमत्कार, लीलाएँ और धर्मसंस्थापनार्थाय कार्य किए हैं, शायद भगवान विष्णु के किसी अन्य अवतारी ने नहीं किये।
हम प्रतिवर्ष भगवान कृष्ण का जन्मदिन धार्मिक परंपराओं, आचार्य के निर्देशानुसार विधि विधान से मनाते हैं। झाँकियाँ सजाते हैं। भक्तिभाव से ओतप्रोत भजन गाते-सुनते हैं व्रत-उपवास रखते हैं। कृष्ण भक्ति में लीन रहते हैं। समाप्ति पर प्रभु से आशीष व प्रसाद लेते हैं। तदुपरांत कृष्ण जन्मोत्सव संपन्नम् कहकर स्वयं को धन्य मान लेते हैं।
ईश्वर की इस आस्था और भक्ति पर कोई भी टिप्पणी करना ईश निंदा जैसा होगा। टिप्पणी करना भी नहीं चाहिए लेकिन हमें यह तो पता होना ही चाहिए कि हम यह जन्मदिन क्यों मनाते हैं। इससे हमें वास्तव में कुछ अर्जित हो भी रहा है अथवा नहीं। यदि हम भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना रहे हैं तो कम से कम हमें उनके इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही चाहिए। यहाँ मेरा आशय यह है कि भले ही हमें उनसे संबंधित व्यापक जानकारी न हो परंतु हम भगवान श्री कृष्ण से इतने भी अनभिज्ञ न हों कि दूसरों के समक्ष हमें लज्जित होना पड़े। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है कि “हरि अनंत हरि कथा अनंता”. अर्थात अनंत श्रीहरि की कथायें भी अनंत हैं। इसलिए अनंत नहीं तो उनकी मूलभूत जानकारी होना ही चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि हम उनके बताये मार्ग का कितना अनुकरण कर पा रहे हैं, क्योंकि ऐसे में श्री कृष्ण के प्रति आस्था और विश्वास रखना आपका धार्मिक कर्तव्य होगा। मानव जाति को समाज में अपने हिसाब से रहने की स्वतंत्रता तो होना चाहिए लेकिन स्वेच्छाचारिता नहीं। हमारे ये पर्व और जन्मदिन हमें यही सीख देते हैं और यही उद्देश्य भी होता है। जब कृष्ण जन्माष्टमी हम सभी मनाते हैं तब आईये, उनसे संबंधित कुछ तथ्यों को जानते हैं।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म वर्ष, गोकुल-वृंदावन और मथुरा की निवास अवधि। द्वारकाधीश बनने के समय में मतैक्य नहीं है, फिर भी अंतरिम रूप से स्वीकारते हुए उनके बारे में कुछ बातें जानते हैं। कुछ वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म ईसा पूर्व लगभग 3100 ईस्वी में हुआ था। भगवान विष्णु के आठवें अवतारी पुरुष भगवान श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारावास में देवकी और वसुदेव के पुत्र के रूप में हुआ था। वध के डर से पिता वसुदेव जी कृष्ण के पैदा होते ही उन्हें गोकुल में यशोदा-नंद के घर छोड़ आए थे। पूरे बाल्यकाल में इन्होंने अपनी बाल लीलाओं और चमत्कारों से सारे गोकुल और वृंदावन वासियों को चमत्कृत तथा सम्मोहित- सा कर रखा था। अनेक राक्षसों का वध तथा गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर उठाकर स्वयं को अलौकिक बना दिया था। इनके बचपन से ही लोग इन्हें माखनचोर, मुरारि, गिरधारी, रासबिहारी के नाम से पुकारने लगए थे। गोप-गोपियों से प्रेम, रासलीला तथा राधा से पारलौकिक प्रेम मानव लोक में अद्वितीय कहा जा सकता है। इस अवतार में लक्ष्मी स्वरूपा राधारानी का विरह भी अकल्पनीय है। अपने जीवन के बारहवें वर्ष में श्रीकृष्ण ने वृंदावन छोड़ा और मथुरा जाकर अपने मामा कंस का वध किया। पुनः राजा अग्रसेन का राजतिलक कराया। जरासंध द्वारा अपने दामाद कंस का बदला लेने के उद्देश्य से मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया, लेकिन कृष्ण जी उसे हर बार जीवित छोड़ते रहे। कृष्ण जी अंतिम बार युद्ध छोड़कर भाग गए जिस कारण उन्हें भगवान रणछोड़ भी कहा जाता है। तभी परिवार और प्रजा सहित वे मथुरा छोड़कर द्वारका में जा बसे। करीब 36 वर्ष तक द्वारकाधीश बने रहे। इसी अवधि में महाभारत सहित धर्म की स्थापना हेतु अनेक कार्य करते हुए अपने अवतार को सार्थक किया।
यही से उनकी द्वारकाधीश कृष्ण की यात्रा शुरू होती है महायोगेश्वर, सुदर्शन चक्रधारी, विराट रूप धारी, सारथी और धर्म संस्थापक कृष्ण जैसी भूमिकाओं का उद्देश्यपूर्ण निर्वहन करते हैं। भगवान कृष्ण लगभग 36 वर्ष तक द्वारकाधीश के रूप में रहते हैं। 125 वर्ष की आयु में श्री कृष्ण जी वापस निजलोक गमन कर जाते हैं।
आज से लगभग 5230 वर्ष से हम निरंतर भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाते चले आ रहे हैं। यही हमारे सनातन संस्कार हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए आज भी जीवित हैं। इनसे भी हमें सीख मिलती है कि जब हम अपने आराध्य भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना कर उनके बताए आदर्श मार्ग व उनके व्यक्तित्व-कृतित्व का विधिवत स्मरण करते हैं, तब हम अपने बुजुर्गों, पूर्वजों, पारिवारिक सदस्यों के भी जन्मदिन को हर्षोल्लास से मनायें। हम अपने महापुरुषों, मार्गदर्शकों, देशभक्तों के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञता निवेदित करना अपना नैतिक धर्म मानें।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्तों की धूप छांव…“।)
अभी अभी # 456 ⇒ रिश्तों की धूप छांव… श्री प्रदीप शर्मा
यहां कौन है तेरा,
मुसाफिर जायेगा कहां
दम ले ले घड़ी भर,
ये छैयाँ पायेगा कहां ..
हमें छाँव की आवश्यकता तब ही होती है, जब सर पर तपती धूप होती है, और पांव के नीचे पिघलता पत्थर, लेकिन अगर रास्ता ही बर्फीला हो, और कहीं सूरज का नामो निशान ही ना हो, तो हमारी गर्म सांसें भी जवाब दे जाती है, और बस बाकी रह जाती है, एक उम्मीद की किरण।
रिश्ते हमारी जिंदगी की धूप छांव हैं, रिश्ता उम्मीद का एक ऐसा छाता है, जो बारिश में भी हमारे सर को भीगने से बचाता है, और धूप में भी सूरज की तपती धूप में हमें छांव प्रदान करता है। लेकिन जब समय की आंधी चलती है, तो ना तो सर के ऊपर का छाता साथ देता है और ना ही अपना खुद का साया। ।
पैदा होते ही, हम रिश्तों में ही तो सांस लेते हैं, और पल बढ़कर बड़े होते हैं।
लेकिन बदलते वक्त के साथ अगर इन रिश्तों से आती खुशबू गायब हो जाए, रंग बिरंगे फूल अगर कागज के फूल निकल जाएं, तो एक प्यार के रिश्तों का प्यासा, इन कागज़ के फूलों को देखकर सिर्फ यही तो कह सकता है ;
देखी जमाने की यारी
बिछड़े सभी बारी बारी
क्या ले के मिलें
अब दुनिया से,
आँसू के सिवा
कुछ पास नहीं।
या फूल ही फूल थे दामन में,
या काँटों की भी आस नहीं।
मतलब की दुनिया है सारी
बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी
वक़्त है महरबां, आरज़ू है जवां
फ़िक्र कल की करें, इतनी फ़ुर्सत कहाँ…
मरने जीने से रिश्ता नहीं मर जाता, लेकिन जब इंसानियत मर जाती है, तो सारे रिश्ते भी दफ़्न हो जाते हैं। ।
साहिर एक तल्ख़ शायर था। शौखियों में फूलों के शबाब को घोलने का हुनर उसके पास नहीं था। उसकी तो ज़ुबां भी कड़वी थी और शराब भी और शायद इसीलिए गुरुदत्त जैसा संजीदा कलाकार हमारी इस नकली दुनिया में ज्यादा सांस नहीं ले सका।
होते हैं कुछ लोग, जो अकेले ही खुली सड़क पर सीना ताने निकल पड़ते हैं, फिर चाहे साथी और मंजिल का कोई ठिकाना ना हो। जो मिल गया उसे मुकद्दर बना लिया और जो खो गया, मैं उसको भुलाता चला गया। ।
काश सब कुछ भुलाना इतना आसान हो। काश हमारे रिश्ते किसी ऐसे फूलों के गुलदस्ते के समान हो, जो कभी मुरझाए ना। काश पुराने रिश्तों का भी नवीनीकरण हो पाता, कुछ निष्क्रिय रिश्तों में फिर से जान आ जाती, तो यह जिंदगी जीने लायक रह जाती। रिश्तों को ढोया नहीं, लादा नहीं जाए, उनको प्रेम की चाशनी में भिगोया जाए, धो पोंछकर चमकाया जाए। मतलब और स्वार्थ के नये रिश्तों में वह चमक, दमक कहां।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 98 ☆ देश-परदेश – राजनीति निषेध ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मीडिया और सोशल ने राजनीति को इस कदर हवा दी है, कि अब वो काबू में नहीं हो पा रहा हैं। सोते जागते, खाते पीते और ये चोबीस घंटे समाचारों को सुनाने वाले चैनल, हमारे जीवन में राजनीति का विष घोल चुके हैं।
बाप बेटा, पति पत्नी सभी संबंधों की दूरियां बढ़ाने के लिए अब और कुछ भी नहीं चाहिए। यादि आप अपने किसी के रिश्तों में दरार डालना चाहते है, तो उस व्यक्ति की राजनैतिक सोच के विरुद्ध चले जाएं। संबंधों में वैमनस्यता स्वाभाविक रूप से आ जायेगी।
राजनीति, अब क्या, हमेशा से ही घृणित और नीच प्रवृत्ति की होती है। आज के इस दौर में जब सामाजिक सोच और मानवीय मूल्य पातललोक से भी नीचे जा चुके है, तब राजनीति की स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
समाचार पत्र में उपरोक्त पंक्तियां पढ़ कर बहुत सुकून मिला, चलो अमेरिका जैसे देश में भी हमारे जैसी मानसिकता वाले लोग ही रहते हैं, और घटिया राजनीति में ही जीवन यापन करते हैं।
हम भी जब तीन चार मित्र मिलते हैं, तो ना चाहते हुए भी कब राजनीति वाली लाइन पकड़ लेते है, ज्ञात ही नहीं होता है। वो तो जब आवाज़ में गति और बुलंदी आ जाती है, तो समझ आता है कि राजनीति की तलवारें म्यान से बाहर आ चुकी हैं। ये ही हाल परिवार मिलन के समय होता है।
व्हाट्स ऐप के समूहों पर ये ही लागू होता हैं। एडमिन के समझाने पर भी सदस्य राजनीति के घिसे पिटे मैसेज साझा करने से बाज़ नहीं आते हैं। कुछ सदस्य तो नाराजगी में समूह तक त्याग देते हैं। तैयार (बने बनाए) राजनीति और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले मैसेज प्रेषित कर अपने आप को धर्म और राष्ट्र के प्रति बहुत बड़ा और महान समझने लगते हैं।
हमें भी इंतजार है, हमारे देश में भी कब विवाह, भंडारे, जन्मदिन आदि में राजनीति करने वालों को ‘भोजन निषेध है’, कह कर रवाना कर दिया जायेगा।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति
जरासंध ने कृष्ण के वध के लिए कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूर द्वारकाधीश युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू किया।
कालयवन को दौड़ाते-छकाते कृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। ऋषि को विवश हो चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। ज्ञान के सम्मुख योगेश्वर की साक्षी में अहंकार को भस्म तो होना ही था।
कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।
भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे नहीं होंगे और प्रजा पर इस तरह के आक्रमण होंगे तब क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन उसे करवा रहे थे।
स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।
प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखनेवाले के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रवण मास साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।
आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष आलेख ‘सौ पंखुरी वाले कमल हैं, कृष्ण‘।)
☆ आलेख ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – सौ पंखुरी वाले कमल हैं, कृष्ण… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆
यदि कृष्ण के बारे में सोचें तो एक ऐसे शिशु के बारे में विचारें जिसके जन्म से पूर्व ही उसकी हत्या कर डालने को सत्ता कृत संकल्प है। सत्ताधारी इतना व्यग्र्र है कि उसके जन्म की सूचना मिलते ही, वह वध कर देने को आतुर हो उठता है। कृष्ण के बारे में सोचने से पूर्व उस नवजात अबोध के बारे में विचार करें जिसे जन्मते ही मां से विलग होना पड़ा। झूला झूलने की उम्र में पालने से उसका अपहरण करके मारने का प्रयास किया गया था। कृष्ण एक ऐसा बालक था जिसे काले रंग का तंज बार बार सुनना पड़ा। जिसे बालपन में चोर और महाशरारती करार दिया गया और उसकी सजा उसे दसियों दफा पड़ी थी।
उसी उपेक्षित कान्हा ने जब जीवन के उन सारे नकारात्मक पहलुओं को ध्वत करते हुए स्वयं का ऐसा उत्कर्ष किया कि गोकुल तो मंत्र मुग्ध हुआ ही, शनैः शनैः समूचा विश्व उसके व्यक्तित्व की आभा से चकाचौंध हो गया। कृष्ण एक त्याज्य शिशु से महानायक हो गए। संसार के सारे मिथक, इतिहास और सभी लोक गाथाएं खंगाल लें तो अवसादग्रस्त और अकर्णमण्य की दशा भुगत रहे लोगों को बाहर लाने तथा घबराए, हताश हुए जीव को प्रेरणा देने वाली गोविंद-गाथा के अतिरिक्त ऐसी और कोई गाथा नहीं मिलेगी। कान्हा से श्रीकृष्ण हो जाने की प्रेरक कथा बहुतेरे निहितार्थ सामने लाती है। जीवन से हारे हुओं हेतु आशा का मार्ग प्रशस्त करती है।
गोकुल में ग्वाल-बालों के संग गाय चराते, खिलंदड़ी करते, माखन चुराते, मटकी फोड़ते, गोपिकाओं को छकाते, वस्त्रहरण करते, नटखट कन्हैया सबका मन मोह कर, मोहन हो जाते हैं। आयु बढने पर राधा और सखियों के संग रास रचाते, रसेश्वर होते हैं तो उलटबांसी यह कि बावजूद इसके वे योगेश्वर(योगीराज) भी हैं।
अनूठा और अप्रतिम चरित है कृष्ण का। जब, मुरलीधर होकर मुरली की तान छेड़ी तो जड़ और चेतन सब कुछ सम्मोहित हो गया। दिक्-दिगांत में अनहद गूंज उठा। समस्तराग-रागनियां ब्रज मंडल में प्रवेश कर समाहित हो गयीं।
श्याम-श्यामा का प्रेम और गोपियों का सखी भाव ऐसा कि वे भाव, विश्व व्यापी हो गए।
और जब उस लीलाधर ने प्राणियों की रक्षार्थ गिरिवर को अपनी अंगुली पर उठाकर, देवेंद्र को चुनौती देते हुए जता दिया कि ये तो उनकी चिटकी अंगुली का खेल है तो वे गिरधारी कहाए।
तदुपरांत, राधारमण बांके बिहारी ब्रज में विरह-वेदना का संचार कर, रसेश्वर से योगेश्वर हो गए। एक ऐसा निर्मोही योगी जो एक बार मथुरा गया तो फिर न लौटा क्योंकि यदि वह विराग न होता तो बांसुरी छोड़ सुदर्शन कैसे थामते? अन्याय और अनाचार का प्रतिकार कैसे करते? ऐसे वियोग के बाद भी कृष्ण ब्रज में न होकर भी वहां के कण कण में आज भी रचे बसे हैं।
आततायी मामा के वध के उपरांत वे द्वारिकाधीश हुए। राजा होकर सुदामा सरीखे निर्धन सखा को विस्मृत नहीं किया। यही मैत्री-भाव अर्जुन के प्रति रखा और उसके दिगभ्रमित होने पर दिग्दर्शन देते हुए कहा- ‘‘जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का अभ्युदय होता है, तब तब मैं स्वयं का सृजन करता हूं।’’ और अपना विराट स्वरूप प्रदर्शित कर वे कोटिसूर्य समप्रभा कहाए।’’
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपने अपने ग्रह…“।)
अभी अभी # 455 ⇒ अपने अपने ग्रह… श्री प्रदीप शर्मा
यूं तो हमारी पृथ्वी भी एक ग्रह ही है, लेकिन फिर भी इंसान कई ग्रहों के चक्कर में पड़ा रहता है। बिना ग्रहों की शांति के उसे गृह शांति तक नसीब नहीं होती। पृथ्वी पर तो सिर्फ इंसान बसते हैं, लेकिन ग्रहों में देवताओं का वास होता है। अगर आप राहू, केतु और शनि को संभाल लो, तो समझो, आपके सभी ग्रह बलवान हैं।
जो आस्तिक है, वह भगवान को भी मानेगा और ग्रहों को भी। सुबह सूर्य को अर्घ्य भी अर्पित करेगा और पूर्णिमा पर व्रत उपवास भी करेगा। जो व्यक्ति इन्हें ढोंग ढकोसला और पाखंड मानता है, उसके ग्रह अक्सर खराब ही रहते हैं। ऐसे लोग साढ़े साती कहलाते हैं।।
अगर हम इन नवग्रहों से ऊपर उठकर कुछ सोचने की कोशिश करें तो पता चलता है, हमारे जीवन में कुछ और ग्रह भी हैं, जिनके प्रभाव में हम अक्सर रहते हैं। इनमें सबसे बड़ा ग्रह है, आग्रह। क्योंकि हम खुद इसे न्यौता देते हैं, इसीलिए शायद इसे आग्रह कहा जाता है।
होते हैं बहुत से लोग, जो आग्रह के बहुत कच्चे होते हैं, उनसे बहुत सोच समझकर व्यवहार करना पड़ता है। अगर गलती से आपने उनसे चाय का पूछ लिया, तो वे तपाक से कह उठेंगे, जी अवश्य, चाय तो हमारी कमजोरी है, लेकिन हम खाली पेट चाय नहीं पीते, गैस करती है। आप भी समझ जाते हैं, केवल गैस पर चाय चढ़ाने से काम नहीं चलेगा, और अगर गलती से नाश्ता स्वादिष्ट हुआ, तो समझ लीजिए आपने मुसीबत को दावत दे दी। वे इतने अनौपचारिक हो जाएंगे कि अगली बार बिना आग्रह के ही आ धमकेंगे। भाभी जी की बनाई चाय तो अमृत है, और उनके हाथ के स्वादिष्ट पकौड़ों का जवाब नहीं।।
हम नहीं जानते, आग्रह के दो भाई और भी हैं, पूर्वाग्रह और दुराग्रह। हमें तो इनमें से एक अगर फरसा वाले परशुराम नजर आते हैं तो दूसरे महर्षि दुर्वासा। किसी व्यक्ति अथवा मसले पर अपनी पूर्व धारणा अथवा एकतरफा सोच पूर्वाग्रह कहलाता है। एक शब्द है, मान्यता, जिसके आगे कोई आग्रह, दलील अथवा तर्क काम नहीं करता। पूर्वाग्रह में कभी नीर क्षीर विवेक काम नहीं करता। अक्ल के सभी दरवाजे जब बंद हो जाते हैं, तब पूर्वाग्रह का जन्म होता है।
दुराग्रह पूर्वाग्रह की एडवांस स्टेज है। अपने विचार किसी पर जबरदस्ती थौंपना दुराग्रह ही तो है। कभी कभी आग्रह की अति भी दुराग्रह की शक्ल अख्तियार कर लेती है। अगर हमारे साथ बैठकर शराब नहीं पी, तो आज से दोस्ती खत्म। अपनी गलत बात मनवाने के लिए किसी को कसम खाने के लिए बाध्य करना भी क्या दुराग्रह नहीं है।।
सभी आग्रहों का एक बाप भी है, जिसे सत्याग्रह कहते हैं। हमने नमक सत्याग्रह भी देखा है और अन्ना हजारे का आमरण अनशन भी। कम नमक का आग्रह तो हम भी पत्नी से करते हैं, लेकिन सत्याग्रह आज तक नहीं कर पाए। हमें अपने सभी ग्रह खराब कर, घर बैठे, गृह शांति भंग नहीं करनी।।