(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख शब्द एक, भाव अनेक।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 151 ☆
आलेख – शब्द एक, भाव अनेक
जब अलग अलग रचनाकार एक ही शब्द पर कलम चलाते हैं तो अपने अपने परिवेश, अपने अनुभवों, अपनी भाषाई क्षमता के अनुरूप सर्वथा भिन्न रचनायें उपजती हैं.
व्यंग्य में तो जुगलबंदी का इतिहास लतीफ घोंघी और ईश्वर जी के नाम है, जिसमें एक ही विषय पर दोनो सुप्रसिद्ध लेखको ने व्यंग्य लिखे. फिर इस परम्परा को अनूप शुक्ल ने फेसबुक के जरिये पुनर्जीवित किया, हर हफ्ते एक ही विषय पर अनेक व्यंग्यकार लिखते थे जिन्हें समाहित कर फेसबुक पर लगाया जाता रहा. स्वाभाविक है एक ही टाइटिल होते हुये भी सभी व्यंग्य लेख बहुत भिन्न होते थे. कविता में भी अनेक ग्रुप्स व संस्थाओ में एक ही विषय पर समस्या पूर्ति की पुरानी परम्परा मिलती है. इसी तरह , एक ही भाव को अलग अलग विधा के जरिये अभिव्यक्त करने के प्रयोग भी मैने स्वयं किये हैं. उसी भाव पर अमिधा में निबंध, कविता, व्यंग्य, लघुकथा, नाटक तक लिखे. यह साहित्यिक अभिव्यक्ति का अलग आनंद है.
सैनिक शब्द पर भी खूब लिखा गया है, यह साहित्यकारो की हमारे सैनिको के साथ प्रतिबद्धता का परिचायक भी है. भारतीय सेना विश्व की श्रेष्ठतम सेनाओ में से एक है, क्योकि सेना की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई हमारे सैनिक वीरता के प्रतीक हैं. उनमें देश प्रेम के लिये आत्मोत्सर्ग का जज्बा है.उन्हें मालूम है कि उनके पीछे सारा देश खड़ा है. जब वे रात दिन अपने काम से थककर कुछ घण्टे सोते हैं तो वे अपनी मां की, पत्नी या प्रेमिका के स्मृति आंचल में विश्राम करते हैं, यही कारण है कि हमारे सैनिको के चेहरों पर वे स्वाभाविक भाव परिलक्षित होते हैं. इसके विपरीत चीनी सैनिको के कैम्प से रबर की आदम कद गुड़िया के पुतले बरामद हुये वे इन रबर की गुड़िया से लिपटकर सोते हैं. शायद इसीलिये चीनी सैनिको के चेहरे भाव हीन, संवेदना हीन दिखते हैं. हमने देखा है कि उनकी सरकार चीन के मृत सैनिको के नाम तक नही लेती. वहां सैनिको का वह राष्ट्रीय सम्मान नही है, जो भारतीय सैनिको को प्राप्त है. मैं एक बार किसी विदेशी एयरपोर्ट पर था, सैनिको का एक दल वहां से ट्राँजिट में था, मैने देखा कि सामान्य नागरिको ने खड़े होकर, तालियां बजाकर सैनिक दल का अभिवादन किया. वर्दी को यह सम्मान सैनिको का मनोबल बहुगुणित कर देता है.
सैनिक पर खूब रचनायें हुई है हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियां हैं
जवान हिंद के अडिग रहो डटे,
न जब तलक निशान शत्रु का हटे,
हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,
ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,
तजो न सूचिकाग्र भूमि-भाग भी।
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की कविता का अंश है…
तुम पर है ना आज देश को तुम पर हमें गुमान
मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान
सुनकर पुकार देश की तुम साथ चल पड़े
दुश्मन की राह रोकने तुम काल बन खड़े
तुम ने फिजा में एक नई जान डाल दी
तकदीर देश की नए सांचे में ढ़ाल दी
अनेक फिल्मो में सैनिको पर गीत सम्मलित किये गये हैं. प्रायः सभी बड़े कवियों ने कभी न कभी सैनिको पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा है. जो हिन्दी की थाथी है. हर रचना व रचनाकार अपने आप में महत्वपूर्ण है. देश के सैनिको के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुये अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं. हमारे सैनिक राष्ट्र की रक्षा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं । सैनिक होना केवल आजीविका उपार्जन नही होता । सैनिक एक संकल्प, एक समर्पण, अनुशासन के अनुष्ठान का वर्दीधारी बिम्ब होता है ।हम सब भी अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के किसी हिस्से में कही न कही किंचित भूमिका में छोटे बड़े सैनिक होते हैं । कोरोना में हमारे शरीर के रोग प्रतिरोधक अवयव वायरस के विरुद्ध शरीर के सैनिक की भूमिका में सक्रिय हैं ।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख “मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ”.
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 103 ☆
☆ जल ही जीवन है – मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ ☆
मैंने देखा मेरा एक पड़ोसी पानी का स्विच ऑन करके भूल जाता है, बल्कि दिन में एक बार नहीं, बल्कि कई-कई बार। सदस्य दस के आसपास, लेकिन सभी बादशाहत में जीने वाले, देर से सोना और देर से जगना। ऐसे ही कई बादशाह और भी पड़ोसी हैं, जो पानी की बरबादी निरन्तर करने में गौरव का अनुभव कर रहे हैं। मैं कई बार उन्हें फोन करके बताता हूँ, तो कभी आवाज लगाकर जगाता हूँ। उनमें कुछ बुरा मानते हैं तो अब उनके कान पर जूं रेंगाना बन्द कर दिया है। सब कुछ ईश्वर के हवाले छोड़ दिया है कि जो करा रहा है वो ईश्वर ही तो है, क्योंकि वे सब भी तो उसकी संतानें हैं। उनमें भी जीती जागती आत्माएं है, जो पानी बहाकर और बिजली फूँककर आनन्दित होती हैं। पानी की बर्बादी करने में दो ही बात कदाचित हो सकती हैं कि या तो वे बिजली का प्रयोग चोरी से कर रहे हैं या उन्हें दौलत का मद है। खैर जो भी हो, लेकिन मुझे पानी की झरने जैसी आवाजें सुनकर ऐसा लगता है कि यह पानी का झरना मेरे सिर पर होकर बह रहा है,जो मुझमें शीत लहर-सी फुरफुरी ला रहा है।
पता नहीं क्यों मैं पानी की बचत करने की हर समय सोचा करता हूँ। बल्कि, पानी की ही क्यों, मैं तो पंच तत्वों को ही संरक्षित और सुरक्षित करने के लिए निरन्तर मंथन किया करता हूँ। बस सोचता हूँ कि ये सभी शुद्ध और सुरक्षित होंगे तो हमारा जीवन भी आनन्दित रहेगा। वर्षा होने पर उसके जल को स्नान करनेवाले टब और कई बाल्टियों में भर लेता हूँ। उसके बाद उस पानी से पौधों की सिंचाई , स्नान, शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ। अबकी बार तो मैंने उसे कई बार पीने के रूप में भी प्रयोग किया। जो बहुत मीठा और स्वादिष्ट लगा। टीडीएस नापा तो 40-41 आया। जबकि जो जमीन का पानी आ रहा है, उसका टीडीएस 400 के आसपास रहता है। क्योंकि जमीन में हमने अनेकानेक प्रकार के केमिकल घोल दिए हैं। मेरे गाँव के कुएँ का जल भी वर्षा के जल की तरह मीठा और स्वादिष्ट होता था, अब इधर 40 वर्षों में क्या हुआ होगा, मुझे नहीं मालूम।
सेवानिवृत्त होने के बाद कपड़ों की धुलाई घर में मशीन होते हुए भी मैं हाथों से कपड़े धोता हूँ, ताकि शरीर भी फिट रहे और पानी भी कम खर्च हो। बल्कि सर्विस में रहने के दौरान भी यही क्रम चलता रहा, तब कभी मेरे साथ धुलाई मशीन नहीं रही।
कपड़ों से धुले हुए साबुन के पानी को कुछ तो नाली की सफाई में काम में लेता हूँ और शेष पानी से जहाँ गमले रखे हैं, अर्थात छोटा-सा बगीचा है ,उसके फर्स की धुलाई भी करा देता हूँ। कई प्रकार के हानिकारक कीट पानी के साथ बह जाते हैं और बगीचा भी ठीक से साफ हो जाता है।
आरओ से शुद्ध पानी होने पर जो गन्दा पानी निकलता है, उसे मैं शौचालय में , या कपड़े धोने में या पौंछे आदि में प्रयोग करता हूँ। आरओ का प्रयोग घर-घर में हो रहा है, अब सोचिए लाखों लीटर पानी बिना प्रयोग करे ही नालियों में बहकर बर्बाद किया जा रहा है। लेकिन मैं उसकी भी बचत करता हूँ। मुझे ऐसा करके सुख मिलता है।
स्नान मैं सावर से भी कर सकता हूँ और काफी देर तक कर सकता हूँ, लेकिन मैं नहीं करता, बस एक बाल्टी पानी से ही अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर नहाता हूँ, नहाते समय जो पानी फर्स पर गिरता है, उससे भी बनियान या रसोई का मैला कपड़ा धो लेता हूँ। प्रायः नहाने के लिए साबुन प्रयोग नहीं करता हूँ। बाल कटवाने पर महीने में एकाध बार ही करता हूँ, वैसे मैं बाल और मुँह आदि धोने के लिए आंवला पाऊडर और ताजा एलोवेरा प्रयोग करता हूँ। स्नान करने के बाद कमर को तौलिए से अच्छे से रगड़ता हूँ, ताकि पीठ की 72 हजार नस नाड़ियां जागृत होकर सुचारू रूप से अपना काम करती रहें।
सब्जी, फल आदि को धोने के बाद जो पानी बचता है, उसे भी मैं शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ।
घर में लोग दाल बनाते हैं, तो उसे कई बार धोते हैं और पानी फेंकते जाते हैं। मैं एकाध बार थोड़े पानी से धोकर, उसे पकाने से दो-तीन घण्टे पहले भिगो देता हूँ, वह जब अच्छी तरह फूल जाती है, तब उसे धोकर स्टील के कुकर में धीमी आंच पर पकाने रख देता हूँ, इस तरह दाल एक सीटी आने तक अच्छी तरह पककर तैयार हो जाती है। गैस का खर्च आधा भी नहीं होता है। इस तरह पानी और गैस दोनों ही कम व्यय होते हैं। इसी तरह तरह मैं सब्जियां बनाते समय करता हूँ कि पहले सब्जी को अच्छे से धोता हूँ, फिर उसे छील काटकर बनाता हूँ, इस तरह पानी भी कम खर्च होता है और सब्जी के विटामिन्स भी सुरक्षित रहते हैं। उसे धीमी आंच पर पकाता हूँ, अक्सर लोहे की कड़ाही या स्टील के कुकर का प्रयोग करता हूँ, ताकि पकाने में उपयोगी तत्व मिलें , क्योंकि अलमुनियम आदि के कुकर या कड़ाही, पतीली आदि बर्तनों में पकाने से अलमुनियम के कुछ न कुछ हानिकारक गुण सब्जी या दाल में अवश्य समाहित हो जाते हैं, जो धीमे जहर का काम कर रहे हैं, कैंसर जैसी बीमारियां बढ़ने का एक बहुत कारण यह भी है, जिसे हम कभी नहीं समझना चाहते हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने सबसे पहले इसका प्रयोग भारतीय जेलों में रसोई में प्रयोग करने के लिए इसलिए किया था कि देश स्वतंत्रता दिलाने वाले भारतीय जेलों में ही बीमार होकर जल्दी मर जाएँ।
मैं सड़क राह चलते, रेलवे स्टेशन आदि कहीं पर भी खुली टोंटियाँ देखता हूँ, तो रुककर उन्हें बन्द कर देता हूँ।
मकान में जब कभी कोई टोंटी आदि खराब होती है, उसे तत्काल ही ठीक करने के लिए प्लम्बर बुलाकर ठीक कराता हूँ।
मेरा संकल्प रहता है कि पानी का दुरुपयोग मेरे स्तर से न हो, उसका सही सदुपयोग हो। जो भी लोग मेरे संपर्क में आते हैं, चाहे वह कामवाली हों या कोई अन्य तब मैं उन्हें जागरूक कर समझाता हूँ कि पानी जीवन के लिए अमृत तुल्य होता है, इसका दुरुपयोग जो भी लोग करते हैं उन्हें ईश्वर कभी भी क्षमा नहीं करते हैं। बल्कि पानी के साथ -साथ हमें पंच तत्वों का संरक्षण भी अवश्य करते रहना चाहिए। मैं तो इन्हें सुरक्षित एवं संरक्षित करने लिए निरन्तर प्रयास करता रहता हूँ।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)
☆ आलेख # 25 – प्रबुद्धता या अपनापन ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
विराटनगर शाखा में उच्च कोटि की अलंकृत भाषा में डाक्टरेट प्राप्त शाखाप्रबंधक का आगमन हुआ. शाखा का स्टाफ हो या सीधे सादे कस्टमर, उनकी भाषा समझ तो नहीं पाते थे पर उनसे डरते जरूर थे. कस्टमर के चैंबर में आते ही प्रबंधक जी अपनी फर्राटेदार अलंकृत भाषा में शुरु हो जाते थे और सज्जन पर समस्या हल करने आये कस्टमर यह मानकर ही कि शायद इनके चैंबर में आने पर ही स्टाफ उनका काम कर ही देगा, दो मिनट रुककर थैंक्यू सर कहकर बाहर आ जाते थे. बैठने का साहस तो सिर्फ धाकड़ ग्राहक ही कर पाते थे क्योंकि उनका भाषा के पीछे छिपे बिजनेस प्लानर को पहचानने का उनका अनुभव था.
एक शरारती कस्टमर ने उनसे साहस जुटाकर कह ही दिया कि “सर, आप हम लोगों से फ्रेंच भाषा में बात क्यों नहीं करते.
साहब को पहले तो सुखद आश्चर्य हुआ कि इस निपट देहाती क्षेत्र में भी भाषा ज्ञानी हैं, पर फिर तुरंत दुखी मन से बोले कि कोशिश की थी पर कठिन थी. सीख भी जाता तो यहाँ कौन समझता, आप ?
शरारती कस्टमर बोला : सर तो अभी हम कौन समझ पाते हैं.जब बात नहीं समझने की हो तो कम से कम स्टेंडर्ड तो अच्छा होना चाहिए.
जो सज्जन कस्टमर चैंबर से बाहर आते तो वही स्टाफ उनका काम फटाफट कर देता था.एक सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि चैंबर से बाहर आते ही आप हमारा काम कर देते हैं.
स्टाफ भी खुशनुमा मूड में था तो कह दिया, भैया कारण एक ही है, उनको न तुम समझ पाते हो न हम. इसलिए तुम्हारा काम हो जाता है. क्योंकि उनको समझने की कोशिश करना ही नासमझी है. इस तरह संवादहीनता और संवेदनहीनता की स्थिति में शाखा चल रही थी.
हर व्यक्ति यही सोचता था कौन सा हमेशा रहने आये हैं, हमें तो इसी शाखा में आना है क्योंकि यहाँ पार्किंग की सुविधा बहुत अच्छी है. पास में अच्छा मार्केट भी है, यहाँ गाड़ी खड़ी कर के सारे काम निपटाकर बैंक का काम भी साथ साथ में हो जाता है. इसके अलावा जो बैंक के बाहर चाय वाला है, वो चाय बहुत बढिय़ा, हमारे हिसाब की बनाकर बहुत आदर से पिलाता है.हमें पहचानता है तो बिना बोले ही समझ जाता है. आखिर वहां भी तो बिना भाषा के काम हो ही जाता है। पर हम ही उसके परिवार की खैरियत और खोजखबर कर लेते हैं
पर चाय वाले से इतनी हमदर्दी ?
क्या करें भाई, है तो हमारे ही गांव का, जब वो अपनी और हमारी भाषा में बात करता है तो लगता है उसकी बोली हमको कुछ पल के लिये हमारे गांव ले जा रही है.
एक अपनापन सा महसूस हो जाता है कि धरती की सूरज की परिक्रमा की रफ्तार कुछ भी हो,शायद हम लोगों के सोशल स्टेटस अलग अलग लगें पर हमारा और उसका टाईम ज़ोन एक ही है. याने उसके और हमारे दिन रात एक जैसे और साथ साथ होते हैं।
शायद यही अपनापन महसूस होना या करना, आंचलिकता से प्यार कहलाता हो।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 38
केदारनाथ-
उत्तराखंड के चार तीर्थस्थानों की देवभूमीय चार धाम के रूप में प्रतिष्ठा है। इनमें बद्री विशाल तो हैं ही, साथ में केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री सम्मिलित हैं। इन तीर्थों की यात्रा वामावर्त होती है अर्थात बाईं ओर आरंभ कर आगे चला जाता है।
केदारनाथ उत्तराखंड के गुप्तकाशी क्षेत्र में स्थित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार महिष का रूप धारण कर भगवान शंकर जब पाताल-लोक में प्रवेश करने लगे तो परिजनों की हत्या के पाप से पांडुकुल को मुक्त करने के लिए भीम ने महेश का पृष्ठ भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर ने पांडवों को दर्शन देकर पापमुक्त किया। इस स्थान पर महिष के पृष्ठ भाग के रूप में प्राकृतिक शीला में विराजमान महादेव के विग्रह की आराधना होती है। यह वैदिक संस्कृति की एकात्मता ही है जो कभी महिष में ईश्वरीयता का दर्शन कर अवतरित होती है तो कभी ईश्वर, वराह का अवतार लेते हैं।
गंगोत्री-
गंगोत्री अमृतवाहिनी गंगा जी का उद्गम स्थल है। यह क्षेत्र उत्तरकाशी में है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भागीरथी ने इसी स्थान पर पृथ्वी को स्पर्श किया था। प्राचीन समय में यहाँ गंगा जी की साकार स्वरूप में ही पूजा होती थी। कालांतर में मंदिर का निर्माण हुआ। इस क्षेत्र में नदियों की धारा का प्रवाह अकल्पनीय है। उल्लेखनीय है कि एवरेस्ट विजेता एडमंड हिलेरी 1977 में कोलकाता से बद्रीनाथ तक गंगा जी के प्रवाह के विरुद्ध जलमार्ग से यात्रा करने के अभियान पर निकले थे। नंदप्रयाग के बाद गंगा जी के अद्भुत जलप्रवाह के आगे नतमस्तक होकर हिलेरी ने अपना अभियान रोक दिया था।
यमुनोत्री-
यमुनोत्री पावन यमुना जी का उद्गम स्थल है। यह क्षेत्र उत्तरकाशी में है। यमुनोत्री हिमनद से लगभग 5 मील नीचे गर्म पानी के स्रोत मिलते हैं। ऐसे दो स्रोतों के बीच एक शिला पर स्थित है यमुनोत्री का मंदिर। इन स्रोतों में पानी इतना गर्म होता है कि प्रसाद के रूप में सूर्यकुंड में आलू या चावल पकाने की परंपरा है।
सनातन संस्कृति माटी, जल, अग्नि, आकाश, वायु को काया का घटक मानती है। जलस्रोतों का सम्मान और मानवीकरण, उदार व सदाशय वैदिक एकात्मता का साक्षात उदाहरण है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबत” की अगली कड़ी। )
☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विगत दिनों करीब दो वर्ष के पश्चात भारतीय रेल से दिल्ली की यात्रा की। मोबाइल से अग्रिम टिकट करवाना भूल चुके हैं, IRCTC का ID आदि भी मेमोरी से डिलीट हो गए है। विचार किया स्टेशन पर पहुंच कर टिकट लेकर बैठ जायेंगे। पांच घंटे की तो यात्रा है, Covid के कारण ट्रेन भी खाली ही चल रहीं होंगी, परंतु जब स्टेशन पहुंचे तो पता चला no room है। मरता क्या ना करता, साधारण टिकट लेकर बिना रिजर्वेशन वाले कोच में प्रवेश किया तो देखकर आश्चर्यचकित हो गए। एकदम शमशान भूमि जैसी शांति, कोई चिल्ल-पों नहीं हो रही। एक बैठे हुए यात्री से पूछा ये कौन सी क्लास का डिब्बा है। तो वो कान से यंत्र को निकलते हुए बोला, “जो हर क्लास में फेल हो वो यहां आ जाते हैं। हम समझ गए सही जगह आए हैं।”
सब अपने अपने मोबाइल में कुछ देख रहे थे या सुन रहे थे, बाकी के बोल रहे थे। कोई राजनैतिक, व्यवस्था विरोधी या सामाजिक चर्चा नहीं कर रहा था। नौकरी के दिन याद आ गए जब फर्स्ट क्लास में यात्रा करते थे तो सभी अंग्रेजी पेपर से अपना चेहरा छुपाकर बैठे रहते थे। Excuse me जैसा शब्द हमने वहीं पर सुना था। हमने अपना मोबाइल बंद करके रख दिया था, क्योंकि उसकी बैटरी अधिकतम तीस मिनट ही चल पाती थी। उसके बाद उसे वेंटीलेटर पर लेना पड़ता था। स्टेशन पर कोई पेपर /पत्रिका बेचने वाला भी नहीं दिखा था, हां चार्जिंग पॉइंट पर लंबी लाइन लगी हुई थी। लाइन में लगे एक व्यक्ति से पूछा – “आपको कौन सी गाड़ी में जाना है?” तो वो बोला “पहले मोबाइल चार्ज हो जाए, फिर उसके बाद किसी भी गाड़ी से चले जाएंगे।”
दिल्ली के सराय रोहिल्ला स्टेशन पर उतर कर हमेशा की तरह हम पंडित चाय वाले के यहां गए, तो पंडितजी नहीं दिख रहे थे। एक युवा जो कि कान में यंत्र लगा कर चाय बना रहा था ने इशारा किया। हमने “एक कट फीकी चाय” बोला तो उसके समझ में नहीं आया, झुंझलाते हुए उसने कान से wire निकालकर हमको ऐसे घूर कर निहारा जैसे हमसे कोई बड़ी गलती हो गई हो। वो बोला “उधर बेंच में बैठ जाओ, आपकी बारी आएगी तो बताना।” मैंने पूछा “पंडितजी नहीं दिख रहे?” तो उसने एक माला पहनी हुई फोटो दिखाई और बोला “वो covid में सरक गए।” पहले समय में पंडितजी पूछते थे “कचोरी गर्म है, चाय के साथ लोगे या बाद में” अब वो युवा तो कानों में यंत्र डाल कर संगीत की दुनिया के मज़े ले रहा था। हमने भी अपनी फीकी चाय पी और चल पड़े ! युवक अभी भी अपनी मोबाइल की दुनिया में खोया हुआ था और उसको पैसे लेने की भी याद नहीं थी। शायद इसी को “मोबाइल में मग्न” होना कहते है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 37
रामेश्वरम धाम-
तमिलनाडु के रामनाथपुरम जनपद में रामेश्वर धाम स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध के लिए लंका जाते समय शिवलिंग की स्थापना की थी। रामेश्वरम धाम बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर से घिरा हुआ एक टापू है।
यह वही स्थान है जहाँ रामसेतु बना था। धनुष्कोडि से जाफना तक 48 किलोमीटर लम्बा यह सेतु था। नासा के सैटेलाइटों द्वारा खींची गई तस्वीरों में यह समुद्र के भीतर एक पतली रेखा के रूप में दिखाई देता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में भी रामसेतु का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि 5 दिन में रामसेतु तैयार हो गया था। वाल्मीकि रामायण में रामसेतु का वर्णन मिलता है जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।
नल और नील नामक दो वानर सेनानी रामसेतु के मुख्य शिल्पी और वास्तुविद थे। किंवदंती है कि उन्होंने इसके निर्माण के लिये प्रयुक्त पत्थरों पर ‘श्रीराम’ लिखवाया था। जिस समुद्र को लांघना साक्षात श्रीराम के लिए कठिन था, वह रामनाम के पत्थरों से बने सेतु से साध्य हो गया। इसीलिए लोकोक्ति प्रचलित हुई कि ‘राम से बड़ा राम का नाम।’ व्यक्ति नहीं गुणों की महत्ता का प्रतिपादन वही संस्कृति कर सकती है जो पार्थिव नहीं सूक्ष्म देखती हो।
आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरीपीठ रामेश्वरम में है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 131 ☆ ‘जगत रंगमंच है… ☆
‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।
यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।
जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।
फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।
रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।
लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।
मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”
जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।
सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है। ….विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ अवसाद एक मनोरोग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
यह शरीर प्रकृति प्रदत्त एक उपहार हैं जिसकी संरचना विधाताद्वारा की गई है। इसकी आकृति प्रकृति वंशानुगत गुणों द्वारा निर्मित तथा निर्धारित होती है। सृष्टि में पैदा होने वाला शरीर योनि गत गुणों से आच्छादित होता है। यद्यपि भोजन, शयन, संसर्ग प्रत्येक योनि का प्राणी करता है। बुद्धि और ज्ञान प्रत्येक योनि के जीवों में मिलता है, लेकिन मानव शरीर इस मायने में विशिष्ट है कि ईश्वर ने मानव को ज्ञान बुद्धि के साथ विवेक भी दिया है। इसके चलते विवेक शील प्राणी उचित-अनुचित का विचार कर सकता है जब कि अन्य योनि के जीवों में संभवतः यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
शारिरिक संरचना का अध्ययन करने से पता चलता है कि स्थूल शरीर संरचना के मुख्य रूप से दो भाग हैं पहला बाह्यसंरचना तथा दूसरा आंतरिक संरचना। बाह्य शरीर को हम देख सकते हैं जब की आंतरिक संरचना बिना शरीर के विच्छेदन किए देख पाना संभव नहीं है। आज़ विज्ञान बहुत प्रगति कर चुका है लेकिन फिर भी वह इस शरीर की जटिलता को समझ नहीं पाया है अभी भी शोध कार्य जारी है। शरीर की आंतरिक संरचना में जब रासायनिक परिवर्तन अथवा अन्य विकृतियों के चलते तमाम प्रकार के रोग पनपते हैं और मानव जीवन को त्रासद बना देते हैं, इन्ही में कुछ बीमारियां है जो मन से पैदा होती है इनमें अवसाद एक मनोरोग है। इसके रोगी को नींद नहीं आती, वह एकांत वास चाहता है, एकाकी पन के चलते घुटता रहता है।
उसे खुद का जीवन नीरस लगने लगता है। वह खुद को उपेक्षित तथा असमर्थ समझने लगता है उसकी भूख और नींद उड़ जाती है। ऐसे व्यक्ति प्राय: नशे का शिकार हो जाते हैं। कुछ न कुछ बड़बड़ाते रहते हैं और अनाप-शनाप हरकतें करने लगते हैं। अकेले रहना चाहते हैं।
वे अपनी दुख और पीड़ा किसी से कह नहीं सकते हैं उनके भीतर बार बार नकारात्मक विचार आते हैं। और ऐसे रोगी प्राय: आत्महीनता की स्थिति में आत्महत्या कर लेते हैं। मनोरोगी को प्राय: मनोचिकित्सा की आवश्यकता होती है। एक कुशल मनोचिकित्सक ही उनका इलाज कर सकता है। ऐसे रोगी घृणा नहीं सहानुभूति के पात्र होते हैं। इन्हें ओझा और तांत्रिक से दूर रखना चाहिए इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं एक कुशल मनोवैज्ञानिक उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन कर उन्हें सामाजिक मुख्य धारा में शामिल कर उन्हें अवसाद से बाहर ला सकता है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 36
जगन्नाथ पुरी-
भारत के पूर्व में ओडिशा राज्य के पूर्वी समुद्री तट पर स्थित है जगन्नाथ पुरी। अनुसंधान इसे दसवीं सदी का मंदिर मानते हैं तथापि धार्मिक मान्यता इसके आदिकाल से यहाँ स्थित होने की है। भगवान जगन्नाथ, अपने बड़े भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के साथ यहाँ विराजमान हैं। भाई-बहन की मूर्तियों वाला यह एकमात्र मंदिर है। ये मूर्तियाँ लकड़ी से बनी होती हैं। बारह वर्ष पश्चात इन्हें बदला जाता है। इन मूर्तियों के चरण नहीं हैं। भगवान जगन्नाथ और बलभद्र के हाथ तो हैं किंतु कलाई और उंगलियाँ नहीं हैं। इसके पीछे अन्याय किंवदंतियाँ हैं।
इस मंदिर को लेकर अनेक आँखों दिखती आध्यात्मिक विशेषताएँ हैं। मंदिर की ध्वजा का हवा की विपरीत दिशा में उड़ना, सिंहद्वार से अंदर पग रखते ही समुद्र का कोलाहल न सुनाई देना, मंदिर के कंगूरों पर पक्षियों का न बैठना, अक्षय रसोई की पद्धति आदि का इनमें समावेश है।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को आरंभ होने वाला जगन्नाथ पुरी का रथयात्रा उत्सव अब अंतरराष्ट्रीय आकर्षण है। ‘नंदीघोष’ नामक रथ में भगवान जगन्नाथ, ‘तालध्वज’ में बलभद्र और ‘दर्पदलन’ में देवी सुभद्रा की मूर्तियाँ आरूढ़ होती हैं। मुख्य मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक रथों को खींचकर ले जाया जाता है। सात दिनों तक भगवान द्वारा विश्राम लेने के बाद रथों को रस्सियों से खींच कर पुनः मुख्य मंदिर तक लाया जाता है। इन रथों को भक्त खींचते हैं।
ध्यान देनेवाली बात है कि भक्त, भगवान के दर्शन के लिए मंदिर जाता है। रथयात्रा में भगवान, मंदिर से निकलकर भक्तों के बीच आते हैं। समता और लोकतंत्र की यही मूलभूत अवधारणा भी है।
जगन्नाथपुरी में आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित गोवर्धन पीठ है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 125 ☆
☆ कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य ☆
कोरोना काल का नाम ज़हन में आते ही मानव दहशत में आ जाता है; उसकी धड़कने तेज़ी से बढ़ने लगती हैं और वह उस वायरस से इस क़दर भयभीत हो जाता है कि उसके रोंगटे तक खड़े हो जाते हैं। इस छोटे से वायरस ने संपूर्ण विश्व में तहलक़ा मचा कर मानव को उसकी औक़ात से अवगत करा दिया था। इतना ही नहीं, उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया था। ‘दो गज़ की दूरी; मास्क है ज़रूरी’ का नारा विश्व में गूंजने लगा था। सैनेटाइज़र व साबुन से हाथ धोने की प्राचीन परंपरा का अनुसरण भी इस काल में हुआ और बाहर से लौटने पर स्नान करने की प्रथा का भी पुन: प्रचलन हो गया। मानव अपने घर से बाहर कदम रखने से भी सकुचाने लगा और सब रिश्ते-नाते सहमे हुए से नज़र आने लगे। संबंध-सरोकार मानो समाप्त हो गए। यदि ग़लती से किसी ने घर में दस्तक दे दी, तो पूरे घर के लोग सकते में आ जाते थे और मन ही मन उसे कोसने लगते थे। ‘अजीब आदमी है, न तो इसे अपनी चिंता है, न ही दूसरों की परवाह… पता नहीं क्यों चला आया है हमसे दुश्मनी निभाने।’ इन असामान्य परिस्थितियों में उसके निकट संबंधी भी उससे दुआ सलाम करने से कन्नी काटने लगते थे। वास्तव में इसमें दोष उस व्यक्ति-विशेष का नहीं; कोरोना वायरस का था। वह अदृश्य शत्रु की भांति पूरे लश्कर के साथ उस परिवार पर ही टूट पड़ता था, जिससे उसका उस काल विशेष में संबंध हुआ था। इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत चल निकलता था और पता लगने तक असंख्य लोग इसकी गिरफ़्त में आ चुके होते थे।
कोरोना के रोगी को तुरंत अस्पताल में दाखिल करा दिया जाता था, जहां उसके सगे-संबंधी व प्रियजनों को मिलने की स्वतंत्रता नहीं होती थी और उन विषम परिस्थितियों में वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हो जाता था। उसके भीतर ऑक्सीजन की कमी हो जाती थी और वह एक-एक सांस का मोहताज हो जाता था। डॉक्टर व सहायक कर्मचारी आदि भी आवश्यक दूरी बनाकर उसे देखकर चले जाते थे तथा डर के मारे रोगी के निकट नहीं आते थे। अक्सर लोगों को तो अपने घर के अंतिम दर्शन करने का अवसर भी प्राप्त नहीं होता था; न ही उसके परिवारजन भयभीत होकर उसके शव को देखने आते थे। दूसरे शब्दों में वह सरकारी संपत्ति बन जाता था और परिवार के पांच सदस्य दूर से उसके दर्शन कर सकते थे। सो! आत्मजों के मन में यह मलाल रह जाता था कि अंतिम समय में कोई भी रोगी के निकट नहीं था; जो उसके गले में गंगा जल डाल सकता। इतना ही नहीं, असंख्य लावारिस लाशों को श्मशान तक पहुंचाने व उनका अंतिम संस्कार करने का कार्य भी विभिन्न सामाजिक संस्थानों द्वारा किया जाता था।
इन असामान्य परिस्थितियों में कुछ लोगों ने खूब धन कमाया तथा अपनी तिजोरियों को भरा। आक्सीजन का सिलेंडर लाखों रुपये में उपलब्ध नहीं था। रेमेसिवर के इंजेक्शन व दवाएं भी बाज़ार से इस क़दर नदारद हो गये थे– जैसे चील के घोंसले से मांस। टैक्सी व ऑटो वालों का धंधा भी अपने चरम पर था। चंद किलोमीटर की दूरी के लिए वे लाखों की मांग कर रहे थे। लोगों को आवश्यकता की सामग्री ऊंचे दामों पर भी उपलब्ध नहीं थी। अस्पताल में रोगियों को बेड नहीं मिल रहे थे। चारों ओर आक्सीजन के अभाव के कारण त्राहि-त्राहि मची हुई थी। परंतु इन विषम परिस्थितियों में हमारे सिक्ख भाइयों ने जहां गुरुद्वारों में अस्पताल की व्यवस्था की; वहीं आक्सीजन के लंगर चलाए गये। लोग लम्बी क़तारों में प्रतीक्षारत रहते थे, ताकि उन्हें ऑक्सीजन के अभाव में अपने प्राणों से हाथ न धोने पड़ें। बहुत से लोग अपने प्रियजनों के शवों को छोड़ मुंह छिपा कर निकल जाते थे कि कहीं वे भी कोरोना का शिकार न हो जाएं।
चलिए छोड़िए! ‘यह दुनिया एक मेला है/ हर शख़्स यहां अकेला है/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा।’ यह है जीवन का शाश्वत् सत्य– इंसान दुनिया में अकेला आया है और अकेले ही उसे जाना है। कोरोना काल में गीता के ज्ञान की सार्थकता सिद्ध हो गयी और मानव की आस्था प्रभु में बढ़ गयी। उसे आभास हो गया कि ‘यह किराये का मकां है/ कौन कब तक ठहर पायेगा।’ मानव जन्म से पूर्व निश्चित् सांसें लिखवा कर लाता है और सारी सम्पत्ति लुटा कर भी वह एक भी अतिरिक्त सांस तक नहीं खरीद पाता है।
सो! कोरोना काल की दूसरी व तीसरी लहर ने विश्व में खूब सितम ढाया तथा करोड़ों लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। लॉकडाउन भी लगभग दो वर्ष तक चला और ज़िंदगी का सिलसिला थम-सा गया। सब अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गये। वर्क फ्रॉम होम का सिलसिला चल निकला, जो लोगों पर नागवार गुज़रा। जो लोग पहले छुट्टी के लिए तरसते थे; ट्रैफिक व रोज़ की आवाजाही से तंग थे और यही कामना करते थे… काश! उन्हें भी घर व परिवारजनों के साथ समय गुज़ारने का अवसर प्राप्त होता। अंततः भगवान ने उनकी पुकार सुन ली और लॉकडाउन के रूप में नवीन सौग़ात प्रदान की, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् वे सब सकते में आ गए। घर-परिवार में समय गुज़ारना उन्हें रास नहीं आया। पत्नी भी दिनभर पति व बच्चों की फरमाइशें पूरी करते-करते तंग आ जाती थी और वह पति से घर के कामों में सहयोग की अपेक्षा करने लगी। सबकी स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई और उस पर प्रश्नचिन्ह लग गए थे। सभी लोग तनाव की स्थिति में रहने और दुआ करने लगे…हे प्रभु! इस लॉकडाउन से मुक्ति प्रदान करो। अब उन्हें घर रूपी मंदिर की व्यवस्था पर संदेह होने लगा और उनके अंतर्मन में भयंकर तूफ़ान उठने लगे। फलत: वे मुक्ति पाने के लिए कुलबुलाने लगे।
1जनवरी 2020 से नवंबर 2021 तक कोरोना ने लोगों पर खूब क़हर बरपाया। इसके पश्चात् लोगों को थोड़ी राहत महसूस हुई। तभी ओमीक्रॉन के रूप में तीसरी लहर ने दस्तक दी। लोग मन मसोस कर रह गए। परंतु गत वर्ष अक्सर लोगों को वैक्सीनेशंस की दोनों डोज़ लग चुकी थी। सो! इसकी मारक शक्ति क्षीण हो गई। शायद! उसका प्रभाव भी लम्बे समय तक नहीं रह पायेगा। आशा है, वह शीघ्र ही अपनी राह पर लौट जाएगा और सामान्य दिनचर्या प्रारंभ हो जायेगी।
आइए! कोरोना के उद्गम के मूल कारणों पर चिन्तन करें…आखिर इसके कारण विश्व में असामान्य व विषम परिस्थितियों ने दस्तक क्यों दी? वास्तव में मानव स्वयं इसके लिए उत्तरदायी है। उसने हरे-भरे जंगल काट कर कंकरीट के महल बना लिए हैं। वृक्षों का अनावश्यक कटाव, तालाब व बावड़ियों की ज़मीन पर कब्ज़ा कर बड़ी-बड़ी कालोनियां के निर्माण के कारण भयंकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस प्रकार मानव ने अनावश्यक-अप्राकृतिक दोहन कर प्रकृति से खिलवाड़ किया और वह भी अपना प्रतिशोध लेने पर आमादा हो गई…कहीं सुनामी दस्तक देने लगा, तो कहीं ज्वालामुखी फूटने लगे; कहीं पर्वत दरक़ने लगे, तो कहीं बादल फटने से भीषण बाढ़ के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया। इतना ही नहीं, आजकल कहीं सूखा पड़ रहा है, तो कहीं ग्लेशियर पिघलने से तापमान में परिवर्तन ही नहीं; कहीं भूकम्प आ रहे हैं, तो कहीं सैलाब की स्थिति उत्पन्न हो रही है। बेमौसमी बरसात से किसानों पर भी क़हर बरप रहा है और लोगों की ज़िंदगी अज़ाब बनकर रह गयी है; जहां मानव दो पल भी सुक़ून से नहीं जी पाता।
धरती हमारी मां है; जो हमें आश्रय व सुरक्षा प्रदान करती है। पावन नदियां जीवनदायिनी ही नहीं; हमारे पापों का प्रक्षालन भी करती हैं। पर्वतों को काटा जा रहा है, जिसके कारण वे दरक़ने लगे हैं और मानव को अप्रत्याशित आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। पराली जलाने व वाहनों के इज़ाफा होने का कारण पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, जिसके कारण मानव को सांस लेने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। प्लास्टिक के प्रयोग का भी असाध्य रोगों की वद्धि में भरपूर व असाधारण योगदान है। इतना ही नहीं–बच्चों का बचपन कोरोना ने लील लिया है। युवा व वृद्ध मानसिक प्रदूषण से जूझ रहे हैं। वे तनाव व अवसाद के शिकंजे में हैं और लॉकडाउन ने इसमें भरपूर इज़ाफा किया है।
काश! हमने अपनी संस्कृति को संजोकर रखा होता… प्रकृति को मां स्वीकार उसकी पूजा, उपासना, आराधना व वंदना की होती; संयुक्त परिवार व्यवस्था को अपनाते हुए घर में बुज़ुर्गों को मान-सम्मान दिया होता; बेटे-बेटी को समान समझा होता; बेटों को बचपन से मर्यादा का पाठ पढ़ाया होता, तो वे भी सहनशील होते। उन्हें घर में घुटन महसूस नहीं होती। वे घर को मंदिर समझ कर गुनगुगाते…’ईस्ट और वेस्ट, होम इज़ दी बेस्ट’ अर्थात् मानव विश्व में कहीं भी घूम ले; उसे अपने घर लौट कर ही सुक़ून प्राप्त होता है। वैसे तो लड़कियों को बचपन से कायदे-कानून सिखाए जाते हैं; मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाता है; घर की चारदीवारी न लांघने का संदेश दिया जाता है और पति के घर को अपना घर स्वीकारने की सीख दी जाती है। परंतु लड़कों के लिए कोई बंधन नहीं होता। वे बचपन से स्वतंत्र होते हैं और उनकी हर इच्छा का सम्मान किया जाता है। यहीं से चल निकलता है मनोमालिन्य व असमानता बोध का सिलसिला…जिसका विकराल रूप हमें कोरोना काल में देखने को मिला और गरीबों, श्रमिकों व सामान्यजनों पर इसकी सबसे अधिक गाज़ गिरी। उन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हुई। यातायात के पहिए थम गए और वे अपने परिवारजनों के साथ अपने घर की ओर निकल पड़े उन रास्तों पर, ताकि वे अपने घर पहुंच सकें। मीलों तक बच्चों को कंधे पर बैठा कर सामान का बोझा लादे, माता-पिता का हाथ थामे उन्होंने पैदल यात्रा की। तपती दोपहरी में तारकोल की सड़कों पर नंगे पांव यात्रा करने का विचार भी मानव को सकते में डाल देता है, परंतु उनके दृढ़ निश्चय के सामने कुछ भी टिक नहीं पाया। पुलिस वालों ने उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया, तो कहीं बल प्रयोग कर लाठियां मांजी, क्योंकि वहां जाकर उन्हें क्वारंटाइन करना पड़ेगा। जी हां! कोरोना व क्वारंटाइन दोनों की राशि समान है। सो! चंद दिनों की यात्रा उन लोगों के लिए पहाड़ जैसी बन गई। कई दिन की लम्बी यात्रा के पश्चात् वे अपने गांव पहुंचे, परंतु वहां भी उन्हें सुक़ून प्राप्त नहीं हुआ। चंद दिनों के पश्चात् उन्हें लौटना पड़ा, क्योंकि उनके लिए वहां भी कोई रोज़गार नहीं उपलब्ध नहीं था। कोराना ने जहां मानव को निपट स्वार्थी बना दिया, वहीं उसने मानव में स्नेह, सौहार्द व अपनत्व भाव को भी विकसित किया। असंख्य लोगों ने नि:स्वार्थ भाव से पीड़ित परिवारों की तन-मन-धन से सहायता की ।
आइए! करोना के दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें। करोना ने मानव को एकांत में आत्मावलोकन व चिंतन-मनन करने का शुभ अवसर प्रदान किया। वैसे भी इंसान विपत्ति में ही प्रभु को स्मरण करता है। कबीरदास जी की पंक्तियां ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोय/ जो सुख में सिमरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ के माध्यम से मानव को ब्रह्म की सत्ता को स्वीकारने व हर परिस्थिति में उसका स्मरण करने का संदेश प्रेषित किया गया है, क्योंकि वह मानव का सबसे बड़ा हितैषी है और सदैव उसका साथ निभाता है। सुख-दु:ख एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है। सो! ‘जो आया है; अवश्य जाएगा। ऐ मन! भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह समां भी बदल जाएगा।’ आकाश में छाए घने बादलों का बरसना व शीतलता प्रदान करना अवश्यंभावी है। कोरोना ने ‘अतिथि देवो भव’ तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीन:’ की भावना को सुदृढ़ किया है। परिणामत: मानव मन में सत्कर्म करने की भावना प्रबल हो उठी, क्योंकि मानव को विश्वास हो गया कि उसे कृत-कर्मों के अनुरूप ही फल प्राप्त होता है। कोरोना काल में जहां मानव अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गया, वहीं उसने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के नवीन साधन भी खोज निकाले। इंटरनेट पर वेबीनारज़ व काव्य-गोष्ठियों का सिलसिला अनवरत चल निकला। विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया। लोगों को प्रतिभा-प्रदर्शन के विभिन्न अवसर प्राप्त हुए, जो इससे पूर्व उनके लिए दूर के ढोल सुहावने जैसे थे।
सो! मानव प्रकृति की दिव्य व विनाशकारी शक्तियों को स्वीकार उसकी ओर लौटने लगा और नियति के सम्मुख नत-मस्तक हो गया, क्योंकि एक छोटे से वायरस ने सम्पूर्ण विश्व को हिलाकर रख दिया था। अहं सभी दोषों का जनक है; मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और अहं को प्रभु चरणों में समर्पित कर देना– शांति पाने का सर्वोत्तम उपाय स्वीकारा गया है। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ ही जीवन का सत्य है और माया के प्रभाव के कारण ही वह नश्वर संसार सत्य भासता है। इसलिए मानव को सांसारिक बंधनों में लिप्त नहीं रहना चाहिए।
कोरोना काल में हर इंसान को शारीरिक व मानसिक आपदाओं से जूझना पड़ा–यह अकाट्य सत्य है। मुझे भी बीस माह तक अनेक शारीरिक आपदाओं का सामना करना पड़ा। सर्वप्रथम कंधे, तत्पश्चात् टांग की हड्डी टूटने पर उनकी सर्जरी ने हिला कर रख दिया और एक वर्ष तक मुझे इस यातना को झेलना पड़ा। इसी बीच कोरोना की दूसरी लहर ने अपना प्रकोप दिखाया और लंबे समय तक ज़िंदगी व मौत से कई दिन तक जूझना पड़ा। उस स्थिति में प्रभु सत्ता का पूर्ण आभास हुआ और उसकी असीम कृपा से वह दौर भी गुज़र गया। परंतु अभी और भी परीक्षाएं शेष थीं। कैंसर जैसी बीमारी ने सहसा जीवन में दस्तक दी। उससे रूबरू होने के पश्चात् पुन: नवजीवन प्राप्त हुआ, जिसके लिए मैं प्रभु के प्रति हृदय से शुक्रगुज़ार हूं। मात्र दो माह पश्चात् साइनस की सर्जरी हुई। यह सिलसिला यहां थमा नहीं। उसके पश्चात् दांत की सर्जरी ने मेरे मनोबल को तोड़ने का भरसक प्रयास किया। परंतु इस अंतराल में प्रभु में आस्था व निष्ठा बढ़ती गयी। ‘उसकी रहमतों का कहां तक ज़िक्र करूं/ उसने बख़्शी है मुझे ज़िंदगी की दौलत/ ताकि मैं संपन्न कर सकूं अधूरे कार्य/ और कर सकूं जीवन को नई दिशा प्रदान।’ जी हां! कोराना काल में जो भी लिखा, उसके माध्यम से प्रभु महिमा का गुणगान व अनेक भक्ति गीतों का सृजन हुआ, जिसके फलस्वरूप आत्मावलोकन, आत्मचिंतन व आत्म-मंथन का भरपूर अवसर प्राप्त हुआ। मानव प्रभु के हाथों की कठपुतली है। वह उसे जैसा चाहता है; नाच नचाता है। सो! मानव को हर पल उस सृष्टि-नियंता का ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वही भवसागर में डूबती-उतराती नैया को पार लगाता है; मन में विरह के भाव जगाता है और एक अंतराल के पश्चात् मिलन की उत्कंठा इतनी प्रबल हो जाती है कि प्रभु के दरस के लिए मन चातक आतुर हो उठता है। मुझे स्मरण हो रही हैं अपने ही गीत की पंक्तियां ‘मन चातक तोहे पुकार रहा/ अंतर प्यास गुहार रहा’ और ‘कब रे मिलोगे राम/ बावरा मन पुकारे सुबहोशाम’ आदि भाव मानव को प्रभु की महिमा को अंत:करण से स्वीकारने का अवसर प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, प्रभु ही मानव की इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संसार के प्रति वैराग्य भाव जाग्रत करते हैं। ‘चल मन गंगा के तीर/ क्यों वृथा बहाए नीर’ आदि भक्ति गीतों में व्यक्त भावनाएं कोरोना काल में आत्म-मंथन का साक्षात् प्रमाण हैं। इस अंतराल में सकारात्मक सोच पर लिखित मेरी चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं तथा आध्यात्म पर अब भी लेखन जारी है।
‘कोरोना काल में आत्म-मंथन’ पुस्तक के प्रथम भाग में कोरोना से संबंधित पांच आलेख व कविताएं संग्रहित हैं तथा द्वितीय भाग में कोरोना के दुष्प्रभाव के फलस्वरूप श्रमिक व गरीब लोगों के पलायन से संबंधित कविताएं द्रष्टव्य हैं। तृतीय भाग में अध्यात्म व दर्शन से संबंधित भक्ति गीत व चिन्तन प्रधान कविताएं हैं, जो संसार की नश्वरता व प्रभु महिमा को दर्शाती हैं। उस स्थिति में मानव मन अतीत की स्मृतियों में विचरण कर निराश नहीं होता, बल्कि उसमें आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है। ‘समय बलवान् है/ सभी रत्नों की खान है/ आत्मविश्वास संजीवनी है/ साहस व धैर्य का दामन थामे रखें/ मंज़िल तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत है।’ मैं तो उसकी रज़ा के सम्मुख नत-मस्तक हूं तथा उसकी रज़ा को अपनी रज़ा समझती हूं। वह करुणानिधि, सृष्टि-नियंता प्रभु हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानता है। इसलिए उस पर भरोसा कर, हमें अपनी जीवन नौका को नि:शंक भाव से उसके हाथों में सौंप देना चाहिए। जब मैं इन दो वर्ष के अतीत में झांकती हूं, तो सबके प्रति कृतज्ञता भाव ज्ञापित करती हूं, जिन्होंने केवल मेरी सेवा ही नहीं की; मेरा मनोबल भी बढ़ाया। अक्सर मैं सोचती हूं कि ‘यदि प्रभु मुझे इतने कष्ट न देता, तो शायद यह सृजन भी संभव नहीं होता–न ही मन में प्रभु भक्ति में लीन होता और न ही उसअलौकिक सत्ता के प्रति सर्वस्व समर्पण का भाव जाग्रत होता। सो! जीवन में इस धारणा को मन में संजो लीजिए कि उसके हर काम में भलाई अवश्य होती है। इसलिए संदेह, संशय व शंका को जीवन में कभी दस्तक न देने दीजिए, क्योंकि ‘डुबाता भी वही है/ पार भी वही लगाता है/ इसलिए ऐ बंदे! तू क्यों व्यर्थ इतराता/ और चिन्ता करता है।’ भविष्य अनिश्चित है; नियति अर्थात् होनी बहुत प्रबल है तथा उसे कोई नहीं टाल सकता। मैं तो वर्तमान में जीती हूं और कल के बारे में सोचती ही नहीं, क्योंकि होगा वही, जो मंज़ूरे-ख़ुदा होगा। वही सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा और हमारे हित में होगा। सो! अपनी सोच सकारात्मक रखें व निराशा को अपने आसपास भी फटकने न दें। समय परिवर्तनशील है, निरंतर द्रुत गति से चलता रहेगा। सुख-दु:ख भी क्रमानुसार आते-जाते रहेंगे। इसलिए निरंतर कर्मशील रहें। राह के कांटे बीच राह अवरोध उत्पन्न कर तुम्हें पथ-विचलित नहीं कर पाएंगे। इन शब्दों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूं। आशा है, यह पुस्तक आपको आत्मावलोकन ही नहीं, आत्म-चिन्तन करने पर भी विवश कर देगी और आप मानव जीवन की क्षण-भंगुरता को स्वीकार स्व-पर व राग-द्वेष की मानसिक संकीर्णता से ऊपर उठ सुक़ून भरी ज़िंदगी जी पाएंगे।