डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपहार व सम्मान। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 102 ☆
☆ उपहार व सम्मान ☆
किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और किसी का प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान है। उपहार व सम्मान दोनों स्थितियां प्रसन्नता प्रदान करती हैं। जब आप किसी के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हैं, तो उसके लिए वह सबसे बड़ा उपहार होता है और जब कोई आपका हृदय से सम्मान करता है; आप के प्रति प्रेम भाव प्रदर्शित करता है, तो इससे बड़ी खुशी आपके लिए हो नहीं सकती। शायद इसीलिए कहा जाता है कि एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले। जिंदगी देने और लेने का सिलसिला है। आजकल तो सारा कार्य-व्यवहार इसी पर आश्रित है। हर मांगलिक अवसर पर भी हम किसी को उपहार देने से पहले देखते हैं कि उसने हमें अमुक अवसर पर क्या दिया था? वैसे अर्थशास्त्र में इसे बार्टर सिस्टम कहा जाता है। इसके अंतर्गत आप एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु प्राप्त कर सकते हैं।
वास्तव में उपहार पाने पर वह खुशी नहीं मिलती; जो हमें सम्मान पाने पर मिलती है। हां शर्त यह है कि वह सम्मान हमें हृदय से दिया जाए। वैसे चेहरा मन आईना होता है, जो कभी झूठ नहीं बोलता। यह हमारे हृदय के भावों को व्यक्त करने का माध्यम है। इसमें जो जैसा है, वैसा ही नज़र आता है। एक फिल्म के गीत की यह पंक्तियां ‘तोरा मन दर्पण कहलाय/ भले-बुरे सारे कर्मण को देखे और दिखाय’ इसी भाव को उजागर करती हैं। इसलिए कहा जाता है कि ‘जहां तुम हो/ वहां तुम्हें सब प्यार करें/ और जहां से तुम चले जाओ/ वहां सब तुम्हें याद करें/ जहां तुम पहुंचने वाले हो/ वहां सब तुम्हारा इंतज़ार करें’ से सिद्ध होता है कि इंसान के पहुंचने से पहले उसका आचार-व्यवहार व व्यक्ति की बुराइयां व खूबियां पहुंच जाती हैं। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज के लिए ज़िम्मेदार तुम स्वयं हो। इस बात को तुम जितनी जल्दी मान लोगे; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी।’ सो! दूसरों को अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी ठहराना मूर्खता है,आत्म-प्रवंचना है। ‘जैसे कर्म करेगा, वैसा ही फल देगा भगवान’ तथा ‘बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाय’ पंक्तियां सीधा हाँट करती हैं।
धरती क्षमाशील है; सबको देती है और भीषण आपदाओं को सहन करती है। वृक्ष सदैव शीतल छाया देते हैं। यदि कोई उन्हें पत्थर मारता है, तो भी वे उसे मीठे फल देते हैं। नदियां पापियों के पाप धोती हैं; निरंतर गतिशील रहती हैं तथा शीतल जल प्रदान करती हैं। बादल जल बरसाते हैं; धरती की प्यास बुझाते हैं। सागर असंख्य मोती व मणियां लुटाता है। पर्वत हमारी सीमाओं की रक्षा करते हैं। सो! वे सब देने में विश्वास रखते हैं; तभी उन्हें सम्मान प्राप्त होता है और वे श्रद्धेय व पूजनीय हो जाते हैं। ईश्वर सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं और बदले में कोई अपेक्षा नहीं करते। परंतु बाबरा इंसान वहां भी सौदेबाज़ी करता है। यदि मेरा अमुक कार्य संपन्न हो जाए, तो मैं इतने का प्रसाद चढ़ाऊंगा; तुम्हारे दर्शनार्थ आऊंगा। आश्चर्य होता है, यह सोच कर कि सृष्टि-नियंंता को भी किसी से कोई दरक़ार हो सकती है। इसलिए जो भी दें, सम्मान-पूर्वक दें; भीख समझ कर नहीं। बच्चे को भी यदि ‘आप’ कह कर पुकारेंगे, तो ही वह आप शब्द का प्रयोग करेगा। यदि आप उस पर क्रोध करेंगे, तो वह आपसे दूर भागेगा। इसलिए कहा जाता है कि आप दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप उनसे करते हैं, क्योंकि जो आप देते हैं; वही लौट कर आपके पास आता है।
‘नफ़रतों के शहर में/ चालाकियों के डेरे हैं/ यहां वे लोग रहते हैं/ जो तेरे मुख पर तेरे/ मेरे मुख पर मेरे हैं।’ सो! ऐसे लोगों से सावधान रहें, क्योंकि वे पीठ में छुरा घोंकने में तनिक भी देर नहीं लगाते। वे आपके सामने तो आप की प्रशंसा करते हैं और आपके पीछे चटखारे लेकर बुराई करते हैं। ऐसे लोगों को कबीरदास जी ने अपने आंगन में अर्थात् अपने पास रखने की सीख दी है, क्योंकि वे आपके सच्चे हितैषी होते हैं। आपके दोष ढूंढने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। सो! आपको इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। शायद! इसलिए कहा गया है कि ‘दिल के साथ रहोगे; तो कम ही लोगों के खास रहोगे।’ वैसे तो ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्करियां/ वरना पैदा तो हर इंसान साफ दिल से होता है।’ इसलिए ‘यह मत सोचो कि लोग क्या सोचेंगे/ यह भी हम सोचेंगे/ तो लोग क्या सोचेंगे।’ इसलिए ऐसे लोगों की परवाह मत करो; निरंतर सत्कर्म करते रहो।
प्रेम सृष्टि का सार है। हमें एक-दूसरे के निकट लाता है तथा समझने की शक्ति प्रदान करता है। प्रेम से हम संपूर्ण प्रकृति व जीव-जगत् को वश में कर सकते हैं। प्रेम पाना संसार में सबसे बड़ा सम्मान है। परंतु यह प्रतिदान रूप में ही प्राप्त होता है। यह त्याग का दूसरा रूप है। इस संसार में अगली सांस लेने के निमित्त पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए मोह-माया के बंधनों से दूर रहो; अपने व्यवहार से उनके दिलों में जगह बनाओ। सबके प्रति स्नेह, प्रेम, सौहार्द व त्याग का भाव रखो; सब तुम्हें अपना समझेंगे और सम्मान करेंगे। सो! आपका व्यवहार दूसरों के प्रति मधुर होना आवश्यक है।
ज़िंदगी को अगर क़ामयाब बनाना है तो याद रखें/ पांव भले फिसल जाए/ ज़ुबान कभी फिसलने मत देना, क्योंकि वाणी के घाव कभी नहीं भरते और दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देते हैं, जिनका भरना संभव नहीं होता। यह बड़े-बड़े महायुद्धों का कारण बन जाती हैं। वैसे भी लड़ने की ताकत तो सबके पास होती है; किसी को जीत पसंद होती है’ तो किसी को संबंध। वैसे भी ताकत की ज़रूरत तब पड़ती है, जब किसी का बुरा करना हो, वरना दुनिया में सब कुछ पाने के लिए प्रेम ही काफी है। प्रेम वह संजीवनी है, जिसके द्वारा हम संबंधों को प्रगाढ़ व शाश्वत् बना सकते हैं। इसलिए किसी के बारे में सुनी हुई बात पर विश्वास ना करें; केवल आंखिन-देखी पर भरोसा रखें, वरना आप सच्चे दोस्त को खो देंगे।
‘ज़िंदगी भर सुख कमा कर/ दरवाज़े से घर लाने की कोशिश करते रहे/ पता ही ना चला/ कब खिड़कियों से उम्र निकल गई।’ मानव आजीवन सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है। उसे सुख-ऐश्वर्य व भौतिक-सम्पदा तो प्राप्त हो जाती है, परंतु शांति नहीं। इसलिए मानव को असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाने की सीख दीजाती है, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। भरोसा हो तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलने लगते हैं। मौन वह संजीवनी है, जिससे बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि छोटी-छोटी बातों को बड़ा ना किया करें/ उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है। इसलिए गुस्से के वक्त रुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद’ श्रेयस्कर है। सो! अनुमान ग़लत हो सकता है; अनुभव नहीं, क्योंकि अनुमान हमारे मन की कल्पना है; अनुभव जीवन की सीख है। परिस्थिति की पाठशाला ही मानव को वास्तविक शिक्षा देती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन सफल होता है और उसे ही जीवन में सम्मान मिलता है, जो अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियों से बच कर रहता है। वास्तव में यह दोनों स्थितियां ही भयावह हैं, जो हमारी उन्नति में अवरोधक का कार्य करती हैं। उपहार पाने पर क्षणिक सुख प्राप्त होता है और सम्मान पाने पर जिस सुख की प्राप्ति होती है, वह मधुर स्मृतियों के रूप में सदैव हमारे साथ रहती हैं। सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि वे आपकी अनुपस्थिति में भी आप के पक्षधर बनकर खड़े रहते हैं।
© डा. मुक्ता
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