हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 115 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 115 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय 

अंधकार से प्रकाश की यात्रा मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। स्थूल के भीतर सूक्ष्म का प्रकाश है जो मनुष्य को यात्रा कराता है। यह यात्रा बाहर से भीतर की है। कभी-कभी कोई प्रसंग, कोई घटना अकस्मात एक लौ भीतर प्रज्ज्वलित कर देती है। यात्रा आरम्भ हो जाती है।

ब्रह्मा के मानसपुत्र प्रचेता के पुत्र थे रत्नाकर। किंवदंती है कि बचपन में इनका अपहरण एक भीलनी ने कर लिया था। कालांतर में परिवेश के प्रभाव में वे रत्नाकर डाकू हो गए। रत्नाकर डाकू वन में आते- जाते व्यक्तियों को लूट लेने के लिए कुख्यात हो चला। एक बार देवर्षि नारद उस मार्ग से निकले। रत्नाकर रास्ता रोककर खड़ा हो गया। देवर्षि ने पूछा, “यह पापकर्म क्यों करते हो?” उत्तर मिला, “अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए।” देवर्षि ने फिर प्रश्न किया, “तुम्हारे पाप में क्या तुम्हारे परिजन भागीदार होंगे?” ” निश्चित, उन्हीं के लिए तो करता हूँ।”….देवर्षि हँस पड़े। बोले,” चाहे तो मुझे बांध जाओ पर जाकर एक बार अपने परिजनों को पूछ तो लो, उनसे पुष्टि तो ले लो।” नादान रत्नाकर एक मोटी रस्सी से देवर्षि को बांधकर घर पहुँचा। सारा घटनाक्रम सुनाकर परिजनों से पूछा कि उसके पाप में वे सम्मिलित हैं या नहीं?” परिजन बोले, ” हम तुम्हारे पाप में भागीदार क्यों समझे जाएँगे? पाप तुम्हारा, दंड भी तुम्हारा ही।” बैरागी भाव लेकर रत्नाकर, देवर्षि के पास पहुँचा। पापों से मुक्त होने और अंधकार से प्रकाश की यात्रा का मार्ग जानना चाहा। मुनि ने कहा, “तपस्या करो। संभव है। सीधे राम राम तुमसे न जाय तो मरा-मरा से आरम्भ करो।” डाकू रत्नाकर पहला व्यक्ति हुआ जो मरा- मरा, से मराम-मराम होते-होते राम राम तक पहुँचा। प्रदीर्घ तपस्या में शरीर पर दीमकों ने बाँबी बना ली। रत्नाकर, उसी बाँबी में समाप्त हो गए और महर्षि वाल्मीकि ने जन्म लिया।

अज्ञान के तम की जानकारी प्रकाश की यात्रा में पहला चरण है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #98 ☆ -हिंदूधर्माचरण एक   संस्कारित  भारतीय जीवनशैली- ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 98 ☆ -हिंदूधर्माचरण एक   संस्कारित  भारतीय जीवनशैली- ☆

हमारा देश भारतवर्ष  पौराणिक कथाओं तथा धार्मिक मतों के अध्ययन के अनुसार आर्यावर्त के जंबूद्वीप  के एक खंड का हिस्सा है जिसे अखंडभारत  के नाम से पहचाना जाता है। जिसका सीमा विस्तार काफी लंबा था आर्य जहां निवास करते थे ऋग्वेद के अनुसार उस जगह को सप्तसैंधव अर्थात् सात नदियों वाले स्थान के नाम चिंन्हित किया गया। ऋग्वेद नदी सूक्त ( 1075 ) के अनुसार जिस जगह आर्य निवास किए वहां सात नदियां बहती थी, जिसमें 1कुंभा(काबुल नदी) 2- क्रुगु (कुर्रम)3–गोमती(गोमल)4–सिंधु

5–परूष्णी(रावी)6–सुतुद्री(सतलज)7–वितस्ता(झेलम) के अलावा गंगा यमुना सरस्वती तक था इनके आस-पास सीमा क्षेत्र में आर्य रहते थे। लेकिन जल प्रलय के समय आर्यो ने खुद को त्रिविष्टप( तिब्बत) जैसे ऊंचे क्षेत्र में खुद को सुरक्षित कर लिया।जल प्रलय के बाद उन्होंने दक्षिणी एशिया तक अपने देश का सीमा विस्तार किया।

स्वामी दयानंद सरस्वती इसी आधार पर आर्यों को तिब्बत का निवासी मानते हैं। ऋग्वेद काल में धरती का विस्तार से अध्ययन मिलता है उस समय आर्यो का एक समूह उन सात नदी क्षेत्रो तक फैला हुआ था , इतिहास कारों का मानना है कि वैदिक भारतीय जन समूह वहीं से घूमते हुए अन्य जगहों पर पहुंचा। तथा राजा प्रचेतस के जिनका वर्णन पांच पुराणों में आता है,वे प्रचेतस वंशजों के रूप में वे भारत के उत्तर पश्चिमी दिशाओं में फैल कर अपने राज्य स्थापित कर सीमा विस्तार किया। जानकारी स्रोत (बेव दुनिया डांट काम) से—

राजा दुष्यंत के महाप्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।  लेकिन हमारे अध्ययन के अनुसार देश में तीन भरत चरित्र हमारे सामने है जो सामूहिक रूप से हमारे देश हमारी संस्कृति तथा हमारे समाज  के आचार विचार व्यवहार तथा मानवीय गुणों की आदर्श तथा अद्भुतछवि विश्व फलक पर प्रस्तुत करता है।

जिसमें समस्त मानवीय मूल्यों आदर्शों की छटा समाहित है जो हमें हमारे सांस्कृतिक संस्कारों की याद दिलाता रहता है, जो इंगित करता है कि बिना संस्कारों के संरक्षण के कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता। संस्कार विहीन समाज टूट कर बिखर जाता है और अपने मानवीय मूल्य को देता है  वैसे तो हर धर्म और संस्कृति के लोग अपने देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने अपने संस्कारों के अनुसार व्यवहार करते है  लेकिन हमारा समाज  सोडष  संस्कारों की आचार संहिता से आच्छादित है जिसमें मुख्य रूप से  1–गर्भाधान संस्कार 2–पुंशवन संस्कार 3–सीमंतोन्नयन संस्कार 4–जातकर्म संस्कार 5–नामकरण संस्कार 6–निष्क्रमण संस्कार 7–अन्नप्राशन संस्कार 8–मुण्डन संस्कार 9–कर्णवेधन संस्कार 10-विद्यारंभ संस्कार 11-उपनयन संस्कार 12-वेदारंभ संस्कार 13-केशांत संस्कार 14-संवर्तन संस्कार 15–पाणिग्रहण अथवा विवाह संस्कार 16-अंतेष्टि संस्कार।

इनमें से हर संस्कार का‌ मूलाधार आदर्श कर्मकांड पर  टिका हुआ है। हमारे आदर्श ही हमारी संस्कृति की जमा-पूंजी है , यही तो हर भरत चरित्र हम भारतवंशियो की आचार-संहिता की चीख चीख कर दुहाई देता है जिसका आज पतन होता दीख रहा है आज जहां भाई ही भाई के खून का प्यासा है। वहीं त्रेता युगीन भरत चरित भ्रातृप्रेम तथा स्नेह की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है, तो द्वापरयुगीन भरत चरित सूर वीरता शौर्य तथा साहस की भारतीय परम्परा की गौरवगाथा की जीवंत  झांकी दिखाता है।

वहीं जड़भरत का चरित्र हमारी आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा को स्पर्श करता दीखता  है ये नाम हर भारतीय से आदर्श आचार संहिता की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज की आन बान शान के मर्यादित आचरण की कसौटी है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 109 ☆ जीवन का सार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख जीवन का सार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 109 ☆

☆ जीवन का सार ☆

धन, वैभव, सफलता व सार जीवन के मूलभूत उपादान हैं; इनकी जीवन में महत्ता है, आवश्यकता है, क्योंकि ये खुशियाँ प्रदान करते हैं; धन-वैभव व सुख-सुविधाएं प्रदान करते हैं तथा इन्हें पाकर हमारा जीवन उल्लसित हो जाता है। सफलता के जीवन में पदार्पण करते ही धन-सम्पदा की प्राप्ति स्वत: हो जाती है, परंतु प्रेम की शक्ति का अनुमान लगाना कठिन है। प्रेम के साथ तो धन-वैभव व सफलता स्वयंमेव खिंचे चले आते हैं, जिससे मानव को सुख-शांति व सुक़ून प्राप्त होता है; जो अनमोल है। प्रेम जहां स्नेह व सौहार्द-प्रदाता है, वहीं हमारे संबंधों व दोस्ती को प्रगाढ़ता व मज़बूती प्रदान करता है। यदि मैं यह कहूं कि प्रेम जीवन का सार है; इसके बिना सृष्टि शून्य है और सृजन संभव नहीं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेम में त्याग है और वहां से स्वार्थ भाव नदारद रहता है। सो! जिस घर में प्रेम है; वहां जन्नत है, स्वर्ग है और जहां प्रेम नहीं है, वह घर मसान है, श्मशान है।

यदि हम आधुनिक संदर्भ में प्रेम को परिभाषित करें, तो यह अजनबीपन का प्रतीक है, क्योंकि जहां राग-द्वेष वहां प्यार व त्याग नहीं है, जो आजकल हर परिवार में व्याप्त है अर्थात् घर-घर की कहानी है। पति-पत्नी में बढ़ता अलगाव, बच्चों में पल्लवित होता एकाकीपन का भाव, रिश्तों में पनपती खटास हमारे अंतर्मन में आत्म-केंद्रिता के भाव को पोषित करती है। इस कारण तलाकों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है। बच्चे मोबाइल व टी•वी• में अपना समय व्यतीत करते हैं और ग़लत आदतों का शिकार हो जाते हैं। वे दलदल में फंस जाते हैं, जहां से लौटना नामुमक़िन होता है। ऐसी स्थिति में माता-पिता व बच्चों में फ़ासले इस क़दर बढ़ जाते हैं, जिन्हें पाटना असंभव होता है और वे नदी के दो किनारों की भांति मिल नहीं पाते। शेष संबंधों को भी दीमक चाट जाती है, क्योंकि वहां स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, करुणा व सहानुभुति का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता। आजकल रिश्तों की अहमियत रही नहीं और बहुत से रिश्ते अपनी मौत मर रहे हैं, क्योंकि परिवार हम दो, हमारे दो तक सिमट कर रह गये हैं। जहां दादा- दादी व नाना-नानी आदि का स्थान नहीं होता।  मामा, चाचा, बुआ, मौसी आदि संबंध तो अब रहे ही नहीं। वैसे भी कोई रिश्ता पावन नहीं रहा, सब पर कालिख़ पुत रही है। जीवन में प्रेम भाव की अहमियत भी नहीं रही।

मुझे स्मरण हो रही है महात्मा बुद्ध की कथा, जिसमें वे मानव को जीवन की क्षण-भंगुरता व अनासक्ति भाव को स्वीकारने का संदेश देते हैं। आसक्ति वस्तु के प्रति हो या व्यक्ति के प्रति– दोनों मानव के लिए घातक हैं, जिसे वे इस प्रकार व्यक्त करते हैं। यह शाश्वत् सत्य है कि मानव को अपने बेटे से सर्वाधिक प्यार होता है; भाई के बेटे से थोड़ा कम; परिचित पड़ोसी के बेटे से थोड़ा बहुत और अनजान व्यक्ति के बेटे से होता ही नहीं है। अपने बेटे के निधन पर मानव को असहनीय पीड़ा होती है, जो दूसरों की संतान के न रहने पर नहीं होती। इसका मूल कारण है आसक्ति भाव, जिसकी पुष्टि वे इस उदाहरण द्वारा करते हैं। एक बच्चा समुद्र के किनारे मिट्टी का घर बनाता है, जिसे लहरें पल भर में बहा कर ले जाती हैं और वह रोने लगता है। क्या मनुष्य उस स्थिति में आंसू बहाता है? नहीं–वह नहीं रोता, क्योंकि वह इस तथ्य से अवगत होता है कि वह घर लहरों के सम्मुख ठहर नहीं सकेगा। इसी प्रकार यह संसार भी नश्वर है, क्षणभंगुर है; जिसे पानी के बुलबुले के समान पल भर में नष्ट हो जाना है। सो! मानव को अनासक्ति भाव से जीना चाहिए, क्योंकि आसक्ति अर्थात् प्रेम व मोह ही दु:खों का मूल कारण है। मानव को जल में कमलवत् रहने की आदत बनानी चाहिए, क्योंकि संसार में स्थाई कुछ भी नहीं। सुख-दु:ख मेहमान हैं; आते-जाते रहते हैं तथा एक की उपस्थिति में दूसरा दस्तक देने का साहस नहीं जुटाता। इसलिए मानव को हर स्थिति में प्रसन्न रहना चाहिए।

सफलता का संबंध कर्म से होता है। सफल लोग निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। वे भी ग़लतियां करते हैं, लेकिन लक्ष्य के विरुद्ध प्रयास नहीं छोड़ते। कानारार्ड हिल्टन निरंतर परिश्रम करने की सीख देते हैं। संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सत्कर्म व शुद्ध पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। योग वशिष्ठ की यह उक्ति सत्कर्म व पुरुषार्थ की महत्ता प्रतिपादित करती है। भगवद्गीता में भी निष्काम कर्म का संदेश दिया गया है। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘अतीत में मत देखो, भविष्य का सपना मत देखो, वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो’– यही सर्वोत्तम माध्यम है सफलता प्राप्ति का, जिसके लिए सकारात्मक सोच महत्वपूर्ण योगदान देती है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ  का यह कथन उक्त तथ्य की पुष्टि करता है कि ‘यदि आप इस प्रतीक्षा में है कि दूसरे लोग आकर आपकी मदद करेंगे आप सदैव प्रतीक्षा करते रह जाएंगे।’ सो! जीवन में प्रतीक्षा मत करो, समीक्षा करो। विषम परिस्थितियों में डटे रहो तथा निरंतर कर्मरत रहो, क्योंकि संघर्ष ही जीवन है। डार्विन ने भी द्वंद्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष को सृष्टि का मूल स्वीकारा है अर्थात् इससे तीसरी का जन्म होता है। संघर्षशील   मानव को उसके लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। यदि हम आगामी तूफ़ानों के प्रति पहले से सचेत रहते  हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं।

‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ है’–खलील ज़िब्रान जीवन में प्रेम की महत्ता दर्शाते हुए प्रेम रहित जीवन को ऐसे पेड़ की संज्ञा देते हैं, जो बिना फूल के होता है। किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान। प्रेम में अहं का स्थान नहीं है तथा जो कार्य-व्यवहार स्वयं को अच्छा ना लगे, वह दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है। यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। सो! अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ चाणक्य आत्मा की शुद्धता पर बल देते हैं, क्योंकि अहं का त्याग करने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर सुखी हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान व लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठर यहां दुष्ट- प्रवृत्तियों को त्यागने का संदेश देते हैं।

‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तों में/ अलग-अलग विचारों को एक होना पड़ता है।’ यह एकात्म्य भाव अहं त्याग करने के परिणामस्वरूप आता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘ऐ! मन सीख ले ख़ुद से बात करने का हुनर/ खत्म हो जाएंगे सारे दु:ख और द्वंद्व’ अर्थात् यदि मानव अआत्मावलोकन करना सीख ले, तो जीवन की सभी समस्याओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है ‘जहां दूसरों को समझना मुश्किल हो, वहां ख़ुद को समझना अधिक बेहतर होता है।’ इंसान की पहचान दो बातों से होती है–प्रथम उसका विचार, दूसरा उसका सब्र, जब उसके पास कुछ ना हो। दूसरा उसका रवैय्या, जब उसके पास सब कुछ हो। अंत में मैं इन शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी कि ‘मेरी औक़ात से ज़्यादा न देना मेरे मालिक, क्योंकि ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी भी मानव को अंधा बना देती है।’ सो! जीवन में सामंजस्यता की आवश्यकता होती है, जो समन्वय का प्रतिरूप है और दूसरों की सुख-सुविधाओं की ओर ध्यान देने से प्राप्त होता है। वास्तव में यह है जीवन का सार है और जीने की सर्वोत्तम कला।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 60 ☆ समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव ।)

☆ किसलय की कलम से # 60 ☆

☆ समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव

जो साहित्यकार हमारे समाज में पथ प्रदर्शक की भूमिका निर्वहन करता चला आ रहा था। आज वही अन्य क्षेत्रों की तरह अनगिनत खेमों में बँटता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों के शीर्षस्थ नेताओं की तर्ज पर साहित्य के मठाधीश भी अपने-अपने खेमों का वर्चस्व बनाने में अपनी सारी बौद्धिक क्षमता झोंक देते हैं। काश! ये अपना बौद्धिक कौशल सार्थक सृजन में लगाते तो हमारे समाज की तस्वीर कुछ और होती। पद्मश्री और भारत रत्न जैसे अवॉर्डों तक के लिए ये मठाधीश अपनी संकलित शक्ति का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने में पीछे नहीं हटते। शासकीय सम्मान चयन प्रक्रिया में कितनी भी पारदर्शिता की बात की जाए परंतु पूरे देश में फैले ये स्वार्थी लोग स्वयं अथवा अपने लोगों को सम्मान दिलाने में सफल हो ही जाते हैं। इनका रुतबा इतना होता है कि शीर्ष पर बैठे राजनेता तक इनके फरमानों को टाल नहीं पाते। अपने वक्तव्य अपनी पत्रिकाओं व अपने शागिर्दों की दम पर अपने ही समाज के लोगों की टाँग खींचना भर नहीं, उन्हें नीचा दिखाने से भी ये लोग नहीं चूकते। अपना पूरा नेटवर्क अपने प्रतिस्पर्धी के पीछे लगा देते हैं। वैसे तो आज का अधिकांश सृजन भी कई हिस्सों में ठीक वैसा ही बँट गया है, जिस तरह आज का चिकित्सक वर्ग आँख, दाँत, हड्डी, त्वचा, हृदय, मस्तिष्क आदि में बँटकर वहीं तक सीमित रहता है।

साहित्य लेखन काव्य, कहानी, गीत, ग़ज़ल, नाटक, प्रगतिवाद, छायावाद जैसी सैकड़ों शाखाओं में विभक्त हो गया है। हम अपनी किसी एक विधा में सृजन कर भला समाज के सर्वांगीण विकास की बात कैसे कह पाएँगे। वैसे भी अधिकांश साहित्यकार एक दूसरे की पीठ ठोकने और तालियाँ बजाने के अतिरिक्त और करते ही क्या हैं। आज सृजन के विषय भी समाजिक उत्थान के न चुनकर ऐसे विषयों का चयन किया जाता है जिससे सामाजिक हित के बजाय समाज में फूट की ही ज्यादा संभावना रहती है।

आलेख हों, कविताएँ हों अथवा कहानियाँ। इन विधाओं में भी लोग आज कट्टरवाद, धार्मिक उन्माद, जातिवाद जैसे वैमनस्यता के बीज बोने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इनका उद्देश्य बस सुर्खियों में रहना होता है। इनके लेखन से समाज को क्या मिलेगा, इससे इनको कोई फर्क नहीं पड़ता। तुलसी, कबीर जैसे मनीषी अब जाने कहाँ खो गए हैं। अर्थ और स्वार्थ के मोहपाश ने इन साहित्यकारों को ऐसा जकड़ लिया है कि ये अपने नैतिक दायित्व भी भूल बैठे हैं।

इन सब प्रपंचों से हटकर अब भी निश्छल साहित्य मनीषी कहीं-कहीं तारागणों के सदृश झिलमिलाते दिख जाते हैं लेकिन इनके प्रकाश पर अज्ञान का तिमिर भारी पड़ता है। वर्तमान में सार्थक और दिशाबोधी साहित्य पढ़ने में लोगों की रुचि ही नहीं रह गई है। अपनी व्यस्तताओं से जूझकर घर लौटे लोग हल्का-फुल्का अथवा कोई तनावहीन मनोरंजक साहित्य ही पढ़ना पसंद करते हैं। आज लोगों को स्वयं के अतिरिक्त समाज और देश की चिंता हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। साहित्यकार वर्ग लगातार हिंदी लेखन के चलते भी आज तक कोई विशेष या नियमित पाठक वर्ग बनाने में असफल ही रहा है। ज्यादा से ज्यादा लोग दैनिक अखबार ही पढ़कर स्वयं को नियमित पाठक कहलाना पसंद करते हैं।

हम सभी देखा है कि आज अधिकांश प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है और जो बची हैं वे भी बंद होने की कगार पर हैं। इसका भी वही कारण है कि हम अमुक विधा के साहित्य को देखना भी पसंद नहीं करेंगे। आज सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले पद्य साहित्य को प्रकाशक भी छापने से कतराते लगे हैं। इनका अभिमत है कि पद्य के पाठकों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है, लेकिन मेरा ये अलग नजरिया है कि सौ में से सत्तर साहित्यकार पद्य लिखते हैं, अपनी पुस्तक छपवाते हैं और विजिटिंग कार्ड की तरह बाँटते रहते हैं। अब आप ही सोचिए कि ऐसे में कोई काव्य पुस्तकें दुकानों से भला क्यों खरीदेगा।

इस तरह इन सब बँटे साहित्यकारों को एक साथ एक मंच पर आना होगा। जब गद्य वाले कविता-गीत और गजल से प्यार करेंगे तब ही कवि-शायर गद्योन्मुख होंगे। मेरी मंशा यही है कि अब साहित्यिक गोष्ठियाँ भी मिली-जुली अर्थात गद्य और पद्य की एक साथ होना चाहिए और सभी विधाओं के साहित्यकारों की कम से कम एक जिलास्तरीय ‘एकीकृत संस्था’ भी होना आज की जरूरत है।

आज के क्षरित होते साहित्यिक स्तर से  वरिष्ठ और प्रबुद्ध साहित्यकार चिंतित होने लगे हैं। इन्होंने अपने प्रारंभिक काल में जो साहित्य पढ़ा था और आज जो पढ़ रहे हैं, इनके स्तर में बहुत फर्क आ गया है। उद्देश्य और मानवीय मूल्य बदल गए हैं। यहाँ तक कि लेखकीय दायित्व का भी निर्वहन नहीं किया जाता। यही वे सारी बातें हैं जिनके कारण पाठकों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वहीं आज की बदलती जीवनशैली तथा अन्तरजालीय सुविधाओं के चलते आज सहज उपलब्ध साहित्य को पढ़कर वर्तमान पीढ़ी न अपनी संस्कृति जान पा रही है और न ही संस्कारों को अपना रही है। साठ-सत्तर के दशक तक पाठ्यक्रमों में ऐसे विषय निश्चित रूप से समाहित किये जाते थे, जिन्हें पढ़कर विद्यार्थी जीवनोपयोगी बातें सीखते थे और अंगीकृत भी करते थे। उन्हें समाज में रहने का तरीका, आदर, सम्मान और व्यवहारिक बातों की भी जानकारी हो जाती थी। असंख्य ऐसी पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था, जो नई पीढ़ी और पाठकों को दिशाबोध कराने के साथ ही सार्थक मनोरंजन सामग्री का भी प्रकाशन होता था। ये सब बातें लुप्तप्राय होती जा रही हैं। बुद्धू-बक्से भी कम होते जा रहे हैं। आज तो एंड्रॉयड और आई-फोन का जमाना है, जो आज के हर इंसान की जेब में मिलेगा, जिससे आभास होता है कि सारी दुनिया उनकी जेब में सिमट आई है।

आज के बदलते समय और परिवेश में भी लिखे साहित्य के महत्त्व और औचित्य को नकारा नहीं जा सकता, इसलिए अभी भी वक्त है कि हम लेखन का तरीका बदलें। आगे आने वाली पीढ़ी को आदर्शोन्मुखी, व्यवहारिक, परोपकारी तथा पर्यावरण प्रेमी बनाएँ।

आज सारे साहित्यकारों पर बहुत बड़ी जवाबदारी आ पड़ी है कि वे समाज में गिरते हुए मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करने हेतु आगे आएँ। पश्चिमीकरण, स्वार्थ, असंवेदनशीलता को त्यागकर  सम्मान, मर्यादा और परोपकार जैसे भावों को समाज में पुनः जगाएँ और इसी दिशा में अपने सृजन की धारा बहाएँ। हो सकता है पाठकों को ये बातें हास्यास्पद लगें। वैसे भी सार्थक बातें प्रारंभ में कठिन और अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन जब ये आदत और आचरण में आ जाएँ तो फिर आम हो जाती हैं।

अभी भी समय है इस साहित्य समाज के पास कि वह अपने सृजन को सार्थक और व्यापक बनाने हेतु एक साथ आगे आए और सब मिलकर समाज को मानवता के शिखर पर पहुँचाने में सहायक बने। साथ ही सिद्ध कर दे कि साहित्यकारों की कलम और उनके एकीकृत रूप में अतुल्य शक्ति होती है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #85 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #85 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 1 ☆ 

महात्मा गांधी विगत शताब्दी की ऐसी विलक्षण विभूति हुए जो आज भी कालजयी हैं। उनके विचारों को जितना पढ़ा गया, उस पर लिखा गया और विश्व जनमत में स्वीकार्य किया गया उतना गौरव शायद ही किसी विभूति को मिला होगा। गांधीजी की प्रासंगिकता क्यों बनी हुई है? यह उनके विचारों व कृतित्व का पारायण और उनकी यात्राओं से  संबंधित विवरणों को जानकर ही समझा जा सकता है।  गांधीजी ने कहा था कि उनका जीवन ही संदेश है और उनके जीवन के दर्शन हमें होते हैं, उनके यात्रा वृतांतों को पढ़कर। गांधीजी ने जीवन भर भारत की विशाल भूमि को कई बार नापा। उनकी कोई भी यात्रा कभी भी निरुद्देश्य नहीं रही। वे जहां  कहीं गए, समय के एक एक पल का सदुपयोग, उन्होनें  भारत के जनजागरण में किया। मध्य प्रदेश की उनकी यात्राएं इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। वे मध्य प्रदेश सर्वप्रथम 1918 में आए, उद्देश्य था हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षता करना। यहाँ उन्होनें हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की अगर पैरवी की तो दूसरी ओर वे उपाय भी सुझाए जिससे हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। गांधीजी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उसके बाद उनकी एक सभा मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जैसे छोटे से कस्बे में हुई। यहां उनके द्वारा दिया गया भाषण वस्तुत: स्वराज प्राप्ति के लिए जनता के आह्वान की ऐसी उद्घोषणा थी जिसने देश को झकझोरने में अहम भूमिका निभाई। गांधीजी जहां कहीं गए उन्होनें अपना एजेन्डा जनता के सामने स्पष्ट शब्दों में रखा। और उनका एजेन्डा था मद्दनिषेध, सर्वधर्म समभाव, हिन्दू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता निवारण, स्वराज  के लिए स्वदेशी अपनाने का आह्वान और स्वदेशी के लिए चरखा चलाने की वकालत, स्वराज के लिए धन संग्रह । गांधीजी ने अपने आंदोलन को जन जन का आंदोलन बनाने के लिए सबका विश्वास जीता और विश्वास जीतने के लिए अगर मंडला में उन्होंने कहा कि यदि आप मुझसे सहमत न हों तो मेरा विरोध करें तो जबलपुर के ईसाइयों को संबोधित करते हुए उन्होनें कहा कि अस्पृश्यता निवारण में हमारी मदद सच्चे मन से करें। गांधीजी जहां कहीं गए जनता ने उनका स्वागत अपने मुक्तिदाता के रूप में किया और गांधीजी ने भी उनका ध्यान एक पालक के रूप में रखा। वे सबसे मिले बिना किसी भेदभाव के मिले, अगर बुजुर्गों से मिले तो अनंतपुरा  नवयुवक जेठालाल से भी न केवल मिलने गए वरन एक रात उसकी कुटिया  में बिताई भी। सभी से उन्होंने दान की अपील की और आज से सौ वर्ष पूर्व महिलाओं ने अपने गहने उन्हें अर्पित किए तो मनकीबाई सरीखी गरीबणी ने एक-एक पैसा एकत्रित कर कुछ रुपये गांधीजी के भिक्षा पात्र में डाले। हरिजनों के मंदिर प्रवेश को गांधीजी ने सुनिश्चित किया और उनके इन्हीं प्रयासों का प्रतिफल आज भारत के लोग भोग रहे हैं।

महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत वापस आए, तो उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे भारत आकर शीघ्रता से कोई कार्य न करें और किसी भी  सार्वजनिक प्रश्न पर कुछ कहने से पहले, एक साल तक चुपचाप देश की परिस्थितियों का अध्ययन करें।  गांधीजी ने इस सलाह की गांठ बांध ली और आजीवन वे भारत की यात्रा करते रहे, यहां के निवासियों से मिलते रहे, उनके दुख दर्द जानने और उन्हें दूर करने का प्रयास करते रहे। इन यात्राओं से गांधीजी को देश की  समसामयिक परिस्थतियों की जानकारी मिली। लोगों से उनकी ही भाषा में संवाद करने के बाद ही गांधीजी के मन में स्वदेशी और अस्पृश्यता निवारण जैसे विषयों पर ध्यान केंद्रित करने की भावना जागृत हुई। गांधीजी को आम लोगों के मध्य व्याप्त हीन भावना व शासकों के प्रति भय का पता चला. इसी क्रम में वे नौ बार तत्कालीन मध्य प्रांत और वर्तमान मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ शामिल नहीं है) की धरती पर पधारे। प्रदेश की यह यात्राएं व्यापक प्रयोजन के साथ की गई और गांधीजी ने रेल गाड़ी के तृतीय श्रेणी के डिब्बे से लेकर, मोटर कार, बैलगाड़ी, नाव और पैदल घूमकर  मध्य प्रदेश की भूमि को, इंदौर से लेकर जबलपुर, मंडला  तक कृतार्थ किया। उनके चरण जहां पड़े वे आज गांधीधाम बन गए, लोगों ने दिल खोलकर अपने प्रिय बापू, महात्मा, राष्ट्रपिता और स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्वकर्ता का स्वागत पलक-पावड़े बिछाकर  किया। मध्यप्रदेश में गांधीजी की यात्राओं का विवरण इस प्रकार है –   

इंदौर :- महात्मा गांधी का इंदौर आगमन दो बार हुआ, जब वे 1918 और फिर 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने पधारे थे। वस्तुत: 1918 में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता का दायित्व महामना मदनमोहन मालवीय को निभाना था, किन्तु कतिपय कारणों से उनका आना स्थगित हो गया और आयोजकों ने गांधीजी से इस हेतु विशेष आग्रह किया। देशव्यापी यात्रा से गांधीजी को हिन्दी की स्वीकार्यता का पता चल ही चुका था और इसीलिए उन्होंने आयोजकों के आग्रह को सहर्ष स्वीकार कर लिया।  28 मार्च 1918 को जब गांधीजी रेलगाड़ी से तृतीय श्रेणी के डिब्बे में बैठकर आए, तो उन्हे दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए तीन वर्ष का समय ही हुआ था पर रेलगाड़ी से उतरते ही उनका भव्य स्वागत हुआ। गांधीजी को बग्घी में बिठाया गया और इंदौर के विद्यार्थी उस बग्घी को स्वयं खीचने आगे बढ़े। गांधीजी इसके लिए तैयार नहीं हुए किन्तु लोगों के आग्रह को अस्वीकार कर पाना संभव नहीं था अत: उन्होंने विद्यार्थियों से बग्घी को प्रतीकात्मक तौर पर सौ कदम तक खीचने की अनुमति दी और फिर बग्घी में घोड़े जोते गए। अगले दिन हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता गांधीजी ने की और अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने अंग्रेजी की जगह मातृभाषा के अधिकाधिक प्रयोग पर बल दिया। गांधीजी ने अदालतों में वकीलों की बहस व न्यायाधीशों द्वारा फैसले लिखने में अंग्रेजी के प्रयोग को देशी रियासतों में समाप्त करने पर जोर दिया। गांधीजी ने कहा कि यदि हिन्दी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी तो उसके  साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। हिन्दी भाषा की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है।  हिंदुओं की बोली से फारसी शब्दों का सर्वथा त्याग और मुसलमानों की बोली से संस्कृत का सर्वथा त्याग अनावश्यक है। उन्होंने हिन्दी उर्दू के झगड़े में नहीं पड़ने की सलाह दी। गांधीजी ने कहा कि अंग्रेजी भाषा  के माध्यम से हमें विज्ञान आदि का लाभ लेना चाहिए पर शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा ही होनी चाहिए। दक्षिण में हिन्दी प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्न करने की वकालत करते हुए गांधीजी ने वहां हिन्दी सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करने की अपील की और अपने पुत्र देवदास गांधी को इस हेतु वहां भेजने की घोषणा की। 20 अप्रैल 1935 को एक बार पुन: गांधीजी ने इंदौर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की और दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी प्रचार पर बल दिया। गांधीजी ने एक बार फिर हिन्दी –उर्दू के विवाद के मुद्दे पर अपनी राय देते हुए हिन्दी- हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग किया और कहा कि हिन्दुस्तानी और उर्दू में कोई फरक नहीं है.       

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 127 ☆ इच्छा मृत्यु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख  ‘इच्छा मृत्यु । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 127☆

?  इच्छा मृत्यु  ?

राजा शांतनु सत्यवती से विवाह करना चाहते थे.  किंतु सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती का पुत्र ही हो.  अपने पिता की सत्यवती से विवाह की प्रबल इच्छा को पूरा करने के लिए गंगा पुत्र भीष्म ने अखंड ब्रह्मचार्य की प्रतिज्ञा ले ली.  पिता के प्रति प्रेम के इस अद्भुत   त्याग से प्रसन्न हो, उन्होने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था.  

किंतु पितामह भीष्म को बाणों की शैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी.  भीष्म शर शैया पर दुखी थे और उनकी इस अवस्था पर भगवान कृष्ण मुस्करा रहे थे.  

दूसरी ओर यह समझते हुये भी कि सीता हरण कर भागते रावण को रोक पाना उसके वश में नहीं है, जटायु ने रावण से भरसक युद्ध किया.  घायल जटायु को लेने यमदूत आ पहुंचे, किंतु जटायु ने मृत्यु को ललकार कर कहा, जब तक मैं इस घटना की सूचना, प्रभु श्रीराम को नहीं दे देता मृत्यु तुम मुझे छू भी नहीं सकती.  जटायु ने स्वयं ही जैसे इच्छा मृत्यु का चयन कर लिया.  

श्रीराम सीता को ढ़ूंढ़ते हुये आये, जटायु से उन्हें सीताहरण की जानकारी मिली.  जटायु ने  अपनी अंतिम सांसे भगवान श्रीराम की गोद में लीं.  भगवान दुखी थे और जटायु स्वयं की ऐसी इच्छा मृत्यु पर प्रसन्न थे.  

भीष्म पितामह और जटायु दोनो ने ही इच्छा मृत्यु का वरण किया.  किन्तु अंतिम पलों में दोनो की मृत्यु में विरोधाभास. .. कदाचित इसलिये क्योंकि भीष्म ने स्वयं की लाज बचाने के लिये बिलखती द्रौपदी की चीत्कार अनसुनी कर दी थी, तो दूसरी ओर  सीता जी की रक्षा का सामर्थ्य न होते हुये भी जटायु ने स्वयं को दांव पर लगा दिया था.  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् !

देख रहा हूँ कि एक चिड़िया दाना चुग रही है। एक दाना चोंच में लेने से पहले चारों तरफ चौकन्ना होकर देखती है, कहीं किसी शिकारी के वेश में काल तो घात लगाये नहीं बैठा। हर दाना चुगने से पहले, हर बार न्यूनाधिक यही प्रक्रिया अपनाती है।

माना जाता है कि पशु-पक्षी बुद्धि तत्व में विपन्न हैं पर जीवन के सत्य को सरलता से स्वीकार करने की दृष्टि से वे सम्पन्न हैं। मनुष्य में बुद्धितत्व विपुल है पर  सरल को  जटिल करना, भ्रम में रहना, मनुष्य के स्वभाव में प्रचुर है।

मनुष्य की इसी असंगति को लेकर यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था,

दिने दिने हि भूतनि प्रविशन्ति यमालयम्।शेषास्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहाँ बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य है?

युधिष्ठिर ने प्रश्न में ही उत्तर ढूँढ़कर कहा था,

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहीं बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य हो सकता है?

सचमुच इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है कि लोग रोज़ मरते हैं पर ऐसे जीते हैं जैसे कभी मरेंगे ही नहीं। हास्यास्पद है कि पर मनुष्य चोर-डाकू से डरता है, खिड़की-दरवाज़े मज़बूत रखता है पर किसी अवरोध के बिना कहीं से किसी भी समय आ सकनेवाली मृत्यु को भूला रहता है।

संभवत: इसका कारण ज़ंग लगना है। जैसे लम्बे समय एक स्थान पर पड़े लोहे में वातावरण की नमी से ज़ंग लग जाती है, वैसे ही जगत में रहते हुए मनुष्य की बुद्धि पर अहंकार की परत चढ़ जाती है। सामान्य मनुष्य की तो छोड़िए, अपने उत्तर से यक्ष को निरुत्तर करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर भी इसी ज़ंग का शिकार बने।

हुआ यूँ कि महाराज युधिष्ठिर राज्य के विषयों पर मंत्री से गहन विचार- विमर्श कर रहे थे। तभी अपनी शिकायत लेकर एक निर्धन ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। कुछ असामाजिक तत्वों ने उसकी गाय छीन ली थी। यह गाय उसके परिवार की उदरपूर्ति का मुख्य स्रोत थी।

महाराज ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। अभी मंत्री से चर्चा पूरी हुई भी नहीं थी कि किसी देश का दूत आ पहुँचा। फिर नागरी समस्याओं को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल आ गया। तत्पश्चात सेना से सम्बंधित किसी नीतिविषयक निर्णय के लिए राज्य के सेनापति, महाराज से मिलने आ गए। दरबार के काम पूरे कर महाराज विश्राम के लिए निकले तो निर्धन  को प्रतीक्षारत पाया।

उसे देखकर धर्मराज बोले, ” आपको न्याय मिलेगा पर आज मैं थक चुका हूँ। आप कल सुबह आइएगा।”

निराश ब्राह्मण लौट पड़ा। अभी वापसी के लिए चरण उठाये ही थे कि सामने से भीम आते दिखाई दिए। सारा प्रसंग जानने के बाद भीम ने ब्राह्मण से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। तदुपरांत भीम ने सैनिकों से युद्ध में विजयी होने पर बजाये जानेवाले नगाड़े बजाने के लिए कहा।

उस समय राज्य की सेना कहीं किसी तरह का कोई युद्ध नहीं लड़ रही थी। अत: नगाड़ों की आवाज़ से आश्चर्यचकित महाराज युधिष्ठिर ने भीम से इसका कारण जानना चाहा। भीम ने उत्तर दिया, ” महाराज युधिष्ठिर ने एक नागरिक को उसकी समस्या के समाधान के लिए कल आने के लिए कहा है। इससे सिद्ध होता है कि महाराज ने जीवन की क्षणभंगुरता को परास्त कर दिया है तथा काल पर विजय प्राप्त कर ली है।”

महाराज युधिष्ठिर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। ब्राह्मण को तुरंत न्याय मिला।

हर क्षण मृत्यु का भान रखने का अर्थ जीवन से विमुखता नहीं अपितु हर क्षण में जीवन जीने की समग्रता है। अपनी कविता ‘चौकन्ना’ स्मरण हो आती है-

सीने की / ठक-ठक / के बीच

कभी-कभार / सुनता हूँ

मृत्यु की भी / खट-खट,

ठक-ठक.. / खट-खट..,

कान अब / चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा / ठक-ठक और /

खट-खट तो / जन्म से ही /

चल रही हैं साथ / और अनवरत..,

आदमी यदि / निरंतर /सुनता रहे /

ठक-ठक / खट-खट / साथ-साथ,

बहुत संभव है / उसकी सोच / निखर जाए,

खट-खट तक / पहुँचने से पहले

ठक-ठक / सँवर जाए..!

मनुष्य यदि ठक-ठक और खट-खट में समुचित संतुलन बैठा ले तो संभव है कि भविष्य के किसी यक्ष को भविष्य के किसी युधिष्ठिर से यह पूछना ही न पड़े कि किमाश्चर्यमतः परम् !

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1:10 बजे, 18 नवम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 108 ☆ सपने वे होते हैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सपने वे होते हैंयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 108 ☆

☆ सपने वे होते हैं ☆

सपने वे नहीं होते, जो आपको रात में सोते  समय नींद में आते हैं। सपने तो वे होते हैं, जो आपको सोने नहीं देते– अब्दुल कलाम जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि जीवन में उन सपनों का कोई महत्व नहीं होता, जो हम नींद में देखते हैं। वे तो माया का रूप होते हैं और वे आंख खुलते गायब हो जाते हैं; उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि सपनों को साकार करने के लिए मानव को कठिन परिश्रम करना पड़ता है; अपनी सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी पड़ती है। उस परिस्थिति में मानव की रातों की नींद और दिन का सुक़ून समाप्त हो जाता है। मानव को केवल अर्जुन की भांति अपना लक्ष्य दिखाई पड़ता है, जो उन सपनों की मानिंद होता है, जो आपको सोने नहीं देते। सो! खुली आंखों से सपने देखना कारग़र होता है। इसलिए हमारा लक्ष्य सार्थक होना चाहिए और हमें उसकी पूर्ति हेतु स्वयं को झोंक देना चाहिए। वैसे काम तो दीमक भी दिन-रात करती है, परंतु वह निर्माण नहीं; विनाश करती है। इसलिए अपनी सोच को सकारात्मक रखिए, दृढ़-प्रतिज्ञ रहिए व कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखिए… यही सफलता का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

सो! हमें खास समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने हर समय को खास बनाना चाहिए, क्योंकि आपको भी दिन में उतना ही समय मिलता है; जितना महान् लोगों को मिलता है। इसलिए समय की कद्र कीजिए। समय अनमोल है, परिवर्तनशील है, कभी किसी के लिए ठहरता नहीं है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप समय को कितना महत्व देते हैं। इसके साथ ही मानव को यह बात अपने ज़हन में रखनी चाहिए कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हमें पूर्ण निष्ठा व तल्लीनता से उस कर्म को उस रूप में अंजाम देना चाहिए कि आप से अच्छा कार्य कोई कर ही ना पाए। सो! दक्षता अभ्यास से आती है। कबीर जी का यह दोहा ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ इसी भाव को परिलक्षित करता है। यदि आप में जज़्बा है, तो आप हर स्थिति में स्वयं को सबसे सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकते हैं। गुज़रा हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता। इसलिए हर पल को अंतिम पल मान कर हमें निरंतर कर्मरत रहना चाहिए।

‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/ तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है’–जी हां! यही दस्तूर-ए-दुनिया है। मोमबत्ती को भी इंसान अंधेरे में याद करता है। इसलिए इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। इंसान भी अपने स्वार्थ हेतू दूसरे को स्मरण करता है; उसके पास जाता है और यदि उसकी समस्या का हल नहीं निकलता, तो  वह उससे किनारा कर लेता है। इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, क्योंकि उम्मीद स्वयं से करने में मानव का हित है और यह जीवन जीने की सर्वोत्तम कला है। इस तथ्य से तो आप परिचित ही होंगे– इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती है जो वह दूसरों से करता है।

यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। हर समस्या के केवल दो समाधान ही नहीं होते, इसलिए मानव को तीसरा विकल्प अपनाने की सलाह दी गई है, क्योंकि मंज़िल तक पहुंचने के लिए तीसरे मार्ग को अपनाना श्रेयस्कर है। ‘आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़्यादा हैं।’ आजकल हर व्यक्ति स्वयं सर्वाधिक बुद्धिमान समझता है। वह संवाद में नहीं, विवाद में अधिक विश्वास रखता है। इसलिए वह आजीवन स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। सो! जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने ख़ुद को बदल लिया; वह जीत गया, क्योंकि आप स्वयं को तो बदल सकते हैं, दूसरों को नहीं। इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो मानव दूसरों से करता है।

‘जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है– जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह सीख अत्यंत सार्थक है। दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए मूल्यों से समझौता मत करिए, आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है। जी हां! यही है सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। ‘एकला चलो रे’ के द्वारा मानव हर आपदा का सामना कर सकता है। यदि मानव दृढ़-निश्चय कर लेता है कि मुझे स्वयं पर विजय प्राप्त करनी है, तो वह नये मील के पत्थर स्थापित कर, जग में नये कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। ‘सो! कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं। कोशिश करो, क्योंकि नाकामी सबके हिस्से में नहीं आती’– सेम्युअल बेकेट की इस सोच अनुकरणीय है, जो मानव को किसी भी परिस्थिति में पराजय स्वीकारने का संदेश देती, क्योंकि अच्छी नाकामी चंद लोगों के हिस्से में आती है। इस तथ्य को स्वीकारते हुए स्वाममी रामानुजम संदेश देते हैं कि ‘अपने गुणों की मदद से अपना हुनर निखारते चलो। एक दिन हर कोई तुम्हारे गुणों व काबिलियत पर बात करेगा।’ दूसरे शब्दों में वे अपने भीतर दक्षता को बढ़ाने पर बल देते हैं। दुनिया में सफल होने का सबसे अच्छा तरीका है–उस सलाह पर काम करना, जो आप दूसरों को देते हैं। महात्मा बुद्ध भी यही कहते हैं कि इस संसार में जो आप करते हैं, वह सब लौट कर आपके पास आता है। इसलिए दूसरों से ऐसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं। इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि ‘उतना विनम्र बनो, जितना ज़रूरी हो। बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहम् को बढ़ावा देती है, क्योंकि आदमी साधन से नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से श्रेष्ठ बनता है। सो! तप कीजिए, साधना कीजिए, क्योंकि मानव के अच्छे आचरण की हर जगह सराहना होती है। व्यक्ति का सौंदर्य महत्व नहीं रखता, उसके गुणों की समाज में सराहना होती है और वह अनुकरणीय बन जाता है। शायद इसलिए मानव को ऐसी सीख दी गई है कि सलाह हारे हुए की, तुज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ ख़ुद का– इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता। मानव को अपने मस्तिष्क से काम लेना चाहिए, व्यर्थ दूसरों के पीछे नहीं भागना चाहिए। वैसे दूसरों के  अनुभव से लाभ उठाने वाले बुद्धिमान कहलाते तथा सफलता प्राप्त करते हैं।

‘पांव हौले से रख/ कश्ती में उतरने वाले/ ज़मीं अक्सर किनारों से/  खिसका करती है’ के माध्यम से मानव को जीवन में समन्वय व सामंजस्य रखने का संदेश दिया गया है। यदि मानव शांत भाव से अपना कार्य करता है, धैर्य बनाए रखता है, तो उसे असफलता का मुख कभी नहीं देखना पड़ता। यदि वह तल्लीनता से कार्य नहीं करता और तुरंत प्रतिक्रिया देता है, तो वह परेशानियों से घिर जाता है। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में भी अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही आप जो भी स्वप्न देखें, उसकी पूर्ति में स्वयं को झोंक दें; अनवरत कर्मरत रहें और तब तक चैन से न बैठें, जब तक आप अपनी मंज़िल तक न पहुंच जाएं। वास्तव मेंं मानव को ऐसे सपने देखने चाहिएं, जो हमें सही दिशा-निर्देश दें, हमारा पथ-प्रशस्त करें और हमारे अंतर्मन में उन्हें साकार करने का जुनून पैदा कर दें। आप शांत होकर तभी बैठें, जब हम अपनी मंज़िल को प्राप्त करे लें। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि असावधानी ही दुर्घटना का कारण होती है। इसलिए हमें सदैव सचेत, सजग व सावधान रहना चाहिए, क्योंकि लोग हमारे पथ में असंख्य बाधाएं उत्पन्न करेंगे, विभिन्न प्रलोभन देंगे, अनेक मायावी स्वप्न दिखाएंगे, ताकि हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति न कर सकें। परंतु हमें सपनों को साकार करने को दृढ़ निश्चय रखना है और दिन-रात स्वयं को परिश्रम रूपी भट्टी में झोंक देना है। सो! स्वप्न देखना मानव के लिए उपयोगी है, कारग़र है, सार्थक है और साधना का सोपान है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

सामयिकी के अंतर्गत –

? संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ??

दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर हाहाकार मचा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों से सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर माह में दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर बवाल उठना, न्यायालय द्वारा कड़े निर्देश देना और राजनीति व नौकरशाही द्वारा लीपापोती कर विषय को अगले साल के लिए ढकेल देना एक प्रथा बनता जा रहा है।

यह खतरनाक प्रथा, विषय के प्रति हमारी अनास्था और लापरवाही का द्योतक है। वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ) द्वारा दुनिया के 100 देशों के 4000 शहरों का वायु प्रदूषण की दृष्टि से अध्ययन किया गया था। इसके आधार पर दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों की सूची जारी की गई। यह सूची हम भारतीयों को लज्जित करती है। इसमें एक से चौदह तक भारतीय शहर हैं। कानपुर विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। तत्पश्चात क्रमश: फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरनगर, श्रीनगर, गुड़गाँव, जयपुर, पटियाला और जोधपुर का नाम है। अंतिम क्रमांक पर कुवैत का अल-सलेम शहर है।

देश के इन शहरों में (और लगभग इसी मुहाने पर बैठे अन्य शहरों में भी) साँस लेना भी साँसत में डाल रहा है। यह रपट आसन्न खतरे के प्रति सबसे बड़ी चेतावनी है। साथ ही यह भारतीय शासन व्यवस्था, राजनीति, नौकरशाही, पत्रकारिता और नागरिक की स्वार्थपरकता को भी रेखांकित करती है। स्वार्थपरकता भी ऐसी आत्मघाती कि अपनी ही साँसें उखड़ने लग जाएँ।

वस्तुत: श्वास लेना मनुष्य के दैहिक रूप से जीवित होने का मूलभूत लक्षण है। जन्म लेते ही जीव श्वास लेना आरंभ करता है। अंतिम श्वास के बाद उसे मृत या ‘साँसें पूरी हुई’ घोषित किया जाता है। श्वास का महत्व ऐसा कि आदमी ने येन केन प्रकारेण साँसे बनाये, टिकाये रखने के तमाम कृत्रिम वैज्ञानिक साधन बनाये, जुटाये। गंभीर रूप से बीमार को वेंटिलेटर पर लेना आजकल सामान्य प्रक्रिया है। विडंबना है कि वामन कृत्रिम साधन जुटानेवाला मनुष्य अनन्य विराट प्राकृतिक साधनों की शुचिता बनाये रखना भूल गया।

शुद्ध वायु में नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% होती है। शेष 1% में अन्य घटक गैसों का समावेश होता है। वायु के घटकों का नैसर्गिक संतुलन बिगड़ना (‘बिगाड़ना’ अधिक तार्किक होगा) ही वायु प्रदूषण है। कार्बन डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, धूल के कण प्रदूषण बढ़ाने के मुख्य कारक हैं।

वायु प्रदूषण की भयावहता का अनुमान से बात से लगाया जा सकता है कि अकेले दिल्ली में पीएम 10 का औसत 292 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है जो राष्ट्रीय मानक से साढ़े चार गुना अधिक है। इसी तरह पीएम 2.5 का वार्षिक औसत 143 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर भी राष्ट्रीय मानक से तिगुना है।

बिरला ही होगा जो इस आपदा का कारण और निमित्त मनुष्य को न माने। अधिक और अधिक पैदावार की चाहत ने खेतों में रसायन छिड़कवाए। खाद में केमिकल्स के रूप में एक तरह का स्टेरॉइडल ज़हर घोलकर धरती की कोख में उतारा गया। समष्टि की कीमत पर अपने लाभ की संकीर्णता ने उद्योगों का अपशिष्ट सीधे नदी में बहाया। प्रोसेसिंग से निकलनेवाले धुएँ को कम ऊँचाई की चिमनियों से सीधे शहर की नाक में छोड़ दिया।
ओजोन परत को तार-तार कर मानो प्रकृति के संरक्षक आँचल को फाड़ा गया। सेंट्रल एसी में बैठकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर चर्चा की गई। माटी की परत-दर-परत उघाड़कर खनन किया गया।

पिछले दो दशकों में देश में दुपहिया और चौपहिया वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस वृद्धि और वायु प्रदूषण में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। जितनी वाहनों की संख्या अधिक, उतनी प्रदूषण की मात्रा अधिक। ग्लोबलाइजेशन के अंधे मोह ने देश को विकसित देशों के ऑब्सेलेट याने अप्रचलित हो चुके उत्पादों और तकनीक की हाट बना दिया। सारा कुछ ग्लोबल न हो सकता था, न हुआ उल्टे लोकल भी निगला जाने लगा। कुल जमा परिस्थिति घातक हो चली। नागासाकी और हिरोशिमा का परिणाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी देखने और भोपाल का यूनियन कारबाइड भोगने के बाद भी सुरक्षा की तुलना में व्यापार और विस्तार के लिए दुनिया को परमाणु बम और सक्रिय रेडियोेधर्मिता की पूतना-सी गोद में बिठा दिया गया।

कहा जाता है कि प्रकृति में जो नि:शुल्क है, वही अमूल्य है। वायु की इसी सहज उपलब्धता ने मनुष्य को बौरा दिया। प्रकृति की व्यवस्था में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर उसके बदले ऑक्सीजन देने का संजीवनी साधन हैं वृक्ष। यह एक तरह से मृत्यु के अभिशाप को हर कर जीवन का वरदान देने का मृत्युंजयी रूप हैं वृक्ष। ऑक्सीजन को यूँ ही प्राणवायु नहीं कहा गया है। पंचवट का महत्व भी यूँ ही प्रतिपादित नहीं किया गया। बरगद से वट-सावित्री की पूजा को जोड़ना, पीपल को देववृक्ष मानना विचारपूर्वक लिये गये निर्णय थे। वृक्ष को मन्नत के धागे बाँधने का मखौल उड़ानेवाले उन धागों के बल पर वृक्ष के अक्षय रहनेे की मन्नत पूरी होती देख नहीं पाये।

फलत: जंगल को काँक्रीट के जंगल में बदलने की प्रक्रिया में वृक्षों पर ऑटोमेटेड हथियारों से हमला कर दिया गया। औद्योगीकरण हो, सौंदर्यीकरण या सड़क का चौड़ीकरण, वृक्षों की बलि को सर्वमान्य विधान बना दिया गया। वृक्ष इको-सिस्टिम का एक स्तंभ होता है। अनगिनत कीट उसकी शाखाओं पर, कुछ कीड़े-मकोड़े-सरीसृप-पाखी कोटर में और कुछ जीव जड़ों में निवास करते हैं। सह-अस्तित्व का पर्यायवाची हैं छाया, आश्रय, फल देनेवाले वृक्ष। इन वृक्षों के विनाश ने प्रकृतिचक्र को तो बाधित किया ही, दिन में बीस हजार श्वास लेनेवाला मनुष्य भी श्वास के लिए संघर्ष करने लगा।

बचपन में हम सबने शेखचिल्ली की कहानी सुनी थी। वह उसी डाल को काट रहा था, जिस पर बैठा था। अब तो आलम यह है कि पूरी आबादी के हाथ में कुल्हाड़ी है। मरना कोई नहीं चाहता पर जीवन के स्रोतों पर हर कोई कुल्हाड़ी चला रहा है। डालें कट रही हैं, डालें कट चुकी। मनुष्य औंधे मुँह गिर रहे हैं, मनुष्य गिर चुका।

इस कुल्हाड़ी के फलस्वरूप विशेषकर शहरों में सीपीओडी या श्वसन विकार बड़ी समस्या बन गया है। सिरदर्द एक बड़ा कारण प्रदूषण भी है। इसके चलते शहर की आबादी का एक हिस्सा आँखों में जलन की शिकायत करने लगा है। स्वस्थ व्यक्ति भी अनेक बार दम घुटता-सा अनुभव करता है।

यह कहना झूठ होगा कि देर नहीं हुई है। देर हो चुकी है। मशीनों से विनाश का चक्र तो गति से घुमाया जा सकता है पर सृजन के समय में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। बीस मिनट में पेड़ को धराशायी करनेवाला आधुनिक तंत्रज्ञान, एक स्वस्थ विशाल पेड़ के धरा पर खड़े होने की बीस वर्ष की कालावधि में कोई परिवर्तन नहीं कर पाता। यह अंतर एक पीढ़ी के बराबर हो चुका है। इसे पाटने के त्वरित उपायों से हानि की मात्रा बढ़ने से रोकी जा सकती है।

हर नागरिक को तुरंत सार्थक वृक्षारोपण आज और अभी करना होगा। यही नहीं उसका संवर्धन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सार्थक इसलिए कि भारतीय धरती के अनुकूल, दीर्घजीवी, विशाल वृक्षों के पौधे लगाने होंगे। इससे ऑक्सीजन की मात्रा तो बढ़ेगी ही, पर्यावरण चक्र को संतुलित रखने में भी सहायता मिलेगी।

सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से दुरुस्त करना होगा। सरकारी महकमे की बसों के एकाधिकार वाले क्षेत्रों में निजी कंपनियों को प्रवेश देना होगा। सरकारी बसों में सुधार की आशा अधिकांश शहरों में ‘न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी’ सिद्ध हो चुकी है।

उद्योगों को अनिवार्य रूप से आवासीय क्षेत्रों से बाहर ले जाना होगा। वहाँ भी चिमनियों को 250 फीट से ऊपर रखना होगा। इसके लिए निश्चित नीति बना कर ही कुछ किया जा सकता है। सबसे पहले तो लाभ की राजनीति का ऐसे मसलों पर प्रवेश निषिद्ध रखना होगा। उत्खनन भी पर्यावरण-स्नेही नीति की प्रतीक्षा में है।

हर बार, हर विषय पर सरकार को कोसने से कुछ नहीं होगा। लोकतंत्र में नागरिक शासन की इकाई है। नागरिकता का अर्थ केवल अधिकारों का उपभोग नहीं हो सकता। अधिकार के सिक्के का दूसरा पहलू है कर्तव्य। साधनों के प्रदूषण में जनसंख्या विस्फोट की बड़ी भूमिका है। जनसंख्या नियंत्रण तोे नागरिक को ही करना होगा।

आजकल घर-घर में आर.ओ. से शुद्ध जल पीया जा रहा है। घर से बाहर खेलने जाते बच्चे से माँ कहती है, ‘बाहर का पानी बहुत गंदा है, मत पीना।’ समय आ सकता है कि घर-घर में ऑक्सीजन किट लगा हो और और अपने बच्चे को शुद्ध ऑक्सीजन की खुराक देकर खेलने बाहर भेजती माँ आगाह करे, ‘साँस मत लेना।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 59 ☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग।)

☆ किसलय की कलम से # 59 ☆

☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆

एक समय था जब गाँव या मोहल्ले के एक छोर की गतिविधियाँ अथवा सुख-दुख की बातें दो चार-पलों में ही सबको पता चल जाती थीं। लोग बिना किसी आग्रह के मानवीय दायित्वों का निर्वहन किया करते थे। तीज-त्यौहारों, भले-बुरे समय, पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में एक परिवार की तरह एक साथ खड़े हो जाते थे।

आज हम पड़ोसियों के नाम व जाति-पाँति तक जानने का प्रयास नहीं करते। मुस्कुराहट के साथ अभिवादन करना तथा हाल-चाल पूछने के बजाय हम नज़रें फेरकर या सिर झुकाये निकल जाते हैं, फिर मोहल्ले वालों की बात तो बहुत दूर की है। उपयोगी व आवश्यक कार्यवश ही लोगों से बातें होती हैं। हम पैसे कमाते हैं और उन्हें पति-पत्नी व बच्चों पर खर्च करते हैं, अर्थात पैसे कमाना और अपने एकल परिवार पर खर्च करना आज की नियति बन गई है। रास्ते में किसका एक्सीडेंट हो गया है। पड़ोसी खुशियाँ मना रहा है अथवा उसके घर पर दुख का माहौल है, आज लोग उनके पास जाने की छोड़िए संबंधित जानकारी लेने तक की आवश्यकता नहीं समझते। आज मात्र यह मानसिकता सबके जेहन में बैठ गई है कि जब पैसे से सब कुछ संभव है तो किसी के सहयोग की उम्मीद से संबंध क्यों बनाये जाएँ। पैसों से हर तरह के कार्यक्रमों की समग्र व्यवस्थाएँ हो जाती हैं। बस आप कार्यक्रम स्थल पर पहुँच जाईये और कार्यक्रम संपन्न कर वापस घर आ जाईये। जिसने हमें बुलाया था, जिनसे हमें काम लेना है, बस उन्हें प्राथमिकता देना है। इन सब में परिवार, पड़ोस और मोहल्ले सबसे पिछले क्रम में होते हैं। जितना हो सके, इन सब से दूरी बनाये रखने का सिद्धांत अपनाया जाता है।

आज हम सभी देखते हैं कि जब कार्ड हमारे घर पर पहुँचते हैं, तब जाकर पता चलता है कि उनके घर पर कोई कार्यक्रम है। यहाँ तक कि जब भीड़ एकत्र होना शुरू होती है तब पता चलता है कि आस-पड़ोस के अमुक घर में किसी सदस्य का देहावसान हो गया है। आज लोग शादी में दूल्हे-दुल्हन को, बर्थडे में बर्थडे-बेबी को महत्त्व न देकर डिनर को ही प्राथमिकता देते हैं।  मृत्यु वाले घर से मुक्तिधाम तक शवयात्रा में शामिल लोग व्यक्तिगत, राजनीतिक वार्तालाप, यहाँ तक कि हँसी-मजाक में भी मशगूल देखे जा सकते हैं, उन्हें ऐसे दुखभरे माहौल से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल अधिकांशतः लोग त्योहारों में घरों से बाहर निकलना पसंद नहीं करते। होली, दीपावली जैसे खुशी-भाईचारा बढ़ाने वाले पर्वों तक से लोग दूरियाँ बनाने लगे हैं।

आज बुजुर्ग पीढ़ी यह सब देखकर हैरान और परेशान हो जाती है। उन्हें अपने पुराने दिन सहज ही याद आ जाते हैं। उन दिनों लोग कितनी आत्मीयता, त्याग और समर्पण के भाव रखते थे। बड़ों के प्रति श्रद्धा और छोटों के प्रति स्नेह देखते ही बनता था। बच्चों को तो अपनों और परायों के बीच बड़े होने पर ही अंतर समझ में आता था। पड़ोसी और मोहल्ले वाले हर सुख-दुख में सहभागी बनते थे। यह बात एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देती थी पड़ोसी कि पहले पहुँचते थे और रिश्तेदार बाद में। कहने का तात्पर्य यह है कि आपका पड़ोसी आपके हर सुख-दुख में सबसे पहले आपके पास मदद हेतु खड़ा होता था।

वाकई ये बहुत गंभीर मसले हैं। ये सब अचानक ही नहीं हुआ। इस वातावरण तक पहुँचने का भी एक लंबा इतिहास है। बदलते समय और बदलती जीवन शैली के साथ शनैः शनैः  हम अपने बच्चों और पति-पत्नी के हितार्थ ही सब करने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार और खून के रिश्तों की अहमियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है। लोग संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार में अपने हिसाब से रहना चाहते हैं। ज्यादा कमाने वाला सदस्य अपनी पूरी कमाई संयुक्त परिवार में न लगाकर अपने एकल परिवार की प्रगति व सुख सुविधाओं में लगाता है। अपनी संतान का सर्वश्रेष्ठ भविष्य बनाना चाहता है। संयुक्त परिवार के सुख-दुख में भी हिसाब लगाकर बराबर हिस्सा ही खर्च करता है। इन सब के पीछे हमारे भोग-विलास और उत्कृष्ट जीवनशैली की बलवती अभिलाषा ही होती है। हम इसे ही अपना उद्देश्य मान बैठे हैं, जबकि मानव जीवन और दुनिया में इससे भी बड़ी चीज है दूसरों के लिए जीना। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना।

यह भी अहम बात है कि हमने जब किसी की सहायता नहीं की, हमने जब अपने खाने में से किसी भूखे को खाना नहीं खिलाया। हमने जब किसी गरीब की मदद ही नहीं की। और तो और जब इन कार्यो से प्राप्त खुशी को अनुभूत ही नहीं किया तब हम कैसे जानेंगे कि परोपकार से हमें कैसी खुशी और कैसी संतुष्टि प्राप्त होती है। यह भी सच है कि आज जब हम अपने परिजनों के लिए कुछ नहीं करते तब परोपकार से प्राप्त खुशी कैसे जानेंगे। एक बार यह बात बिना मन में लाए कि अगला आदमी सुपात्र है अथवा नहीं, आप  नेक इंसान की तरह अपना कर्त्तव्य निभाते हुए किसी भूखे को खाना खिलाएँ। किसी गरीब की लड़की के विवाह में सहभागी बनें। किसी पैदल चलने वाले को अपने वाहन पर बैठाकर उसके गंतव्य तक छोड़ें। किसी विपत्ति में फँसे व्यक्ति को उसकी परेशानी से उबारिये। बिना आग्रह के किसी जरूरतमंद की सहायता करके देखिए। किसी बीमार को अस्पताल पहुँचाईये। सच में आपको जो खुशी, संतोष और शांति मिलेगी वह आपको पैसे खर्च करने से भी प्राप्त नहीं होगी।

आज विश्व में भौतिकवाद की जड़ें इतनी मजबूत होती जा रही हैं कि हमें उनके पीछे बेतहाशा भागने की लत लग गई है। हम अपने शरीर को थोड़ा भी कष्ट नहीं देना चाहते और यह भूल जाते हैं कि हमारा यही ऐशो-आराम बीमारियों का सबसे बड़ा कारक है। ये बीमारियाँ जब इंसान को घेर लेती हैं तब आपका पैसा पानी की तरह बहता रहता है और बहकर बेकार ही चला जाता है। आप पुनः नीरोग जिंदगी नहीं जी पाते। आप स्वयं ही देखें कि समाज में दो-चार प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो पैसों के बल पर नीरोग और चिंता मुक्त होंगे।

हमारी वृद्धावस्था का यही वह समय होता है जब हमारे ही बच्चे, हमारा ही परिवार हमारी उपेक्षा करता है। हमने जिनके लिए अपना सर्वस्व अर्थात ईमान, धर्म और श्रम खपाया वही हमसे दूरी बनाने लगते हैं। यहाँ तक कि हमें जब इनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है वे हमें वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं।

अब आप ही चिंतन-मनन करें कि यदि आपने अपने विगत जीवन में अपनों से नेह किया होता। पड़ोसियों से मित्रता की होती। कुछ परोपकार किया होता तो इन्हीं में से अधिकांश लोग आपके दुख-दर्द में निश्चित रूप से सहभागी बनते। आपकी कुशल-क्षेम पूछने आते। आपकी परेशानियों में आपका संबल बढ़ाते रहते, जिससे आपका ये शेष जीवन संतुष्टि और शांति के साथ गुजरता।

समय बदलता है। जरूरतें बदलती हैं। बदलाव प्रकृति का नियम है।आपकी नेकी, आपकी भलाई, आपकी निश्छलता की सुखद अनुभूति लोग नहीं भूलते। लोग यथायोग्य आपकी कृतज्ञता ज्ञापित अवश्य करते। आपके पास आकर आपका हौसला और संबल जरूर बढ़ाते।

हम मानते हैं कि आज का युग भागमभाग, अर्थ और स्वार्थ के वशीभूत है। ऐसे में किसी से सकारात्मक रवैया की अपेक्षा करना व्यर्थ ही है। इसलिए क्यों न हम ही आगे बढ़कर भाईचारे और सहृदयता की पहल करें। फिर आप ही देखेंगे कि उनमें  भी कुछ हद तक बदलाव अवश्य आएगा और यदि इस पहल की निरन्तरता बनी रही तो निश्चित रूप से मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग दिखाई नही देंगे साथ ही हम पड़ोसियों और मोहल्ले वालों से जुड़कर प्रेम और सद्भावना का वातावरण निर्मित करने में निश्चित रूप से सफल होंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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