हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग -2 ?

(23 अगस्त महानायक सुभाषचंद्र बोस की सरकार द्वारा मान्य पुण्यतिथि। उन पर लिखा एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है।  ई-अभिव्यक्ति में हम इस महत्वपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक आलेख को 3 भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।)

2 नवम्बर 1941 को फ्री इंडिया सेंटर की पहली बैठक नेताजी की अध्यक्षता में हुई। इसमें चार ऐतिहासिक निर्णय लिए गये-

1) स्वतंत्र भारत में अभिवादन के लिए ‘जयहिंद’ का प्रयोग होगा। इस बैठक से ही इस पर अमल शुरु हो गया।

2) भारत की राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी होगी।

3) ‘सुख चैन की बरखा बरसे, भारत भाग है जागा’ (रचनाकार हुसैन) भारत का राष्ट्रगीत होगा।

4) इसके बाद से सुभाषचंद्र बोस को ‘नेताजी’ कहकर सम्बोधित किया जाएगा।

कोलकाता से निकल भागने के बाद आजाद हिंद रेडिओ के माध्यम से नेताजी पहली बार जनता के सामने आए। विश्व ने नेताजी के सामर्थ्य पर दाँतों तले अंगुली दबा ली। आम भारतीय के मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। बच्चा-बच्चा जिक्र करने लगा कि देश को स्वाधीन कराने के लिए नेताजी सेना के साथ भारत पहुँचेंगे।

देश की आजादी के अपने स्वप्न को अमली जामा पहनाने की दृष्टि से नेताजी ने ब्रिटेन की ओर से लड़ते हुए धुरि राष्ट्रों द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों को लेकर भारतीय मुक्तिवाहिनी गठित करने का विचार सामने रखा। हिटलर से बातचीत कर इन सैनिकों को मुक्त कराया गया। जर्मनी में पढ़ रहे भारतीय युवकों को भी मुक्तिवाहिनी में शामिल किया गया। जर्मन सरकार के साथ इन सैनिकों को जर्मन इन्फेंट्री में प्रशिक्षण देने का अनुबंध किया गया। नेतृत्व का समर्पण ऐसा कि सैनिक पृष्ठभूमि न होने के कारण स्वयं नेताजी ने भी इन सैनिकों के साथ कठोर प्रशिक्षण लिया। इस प्रकार भारत की पहली सशस्त्र सेना के रूप में जर्मनी की 950वीं  रेजिमेंट को ‘इंडियन इन्फेंट्री रेजिमेंट’ घोषित किया गया। नेताजी ने इस रेजिमेंट को निर्वासन में भारत की स्वतंत्र सरकार का पहला ध्वज प्रदान किया। यह ध्वज काँग्रेस का तिरंगा था, पर इसमें चरखे के स्थान पर टीपू सुल्तान के ध्वज के छलांग लगाते शेर को रखा गया। ‘इत्तेफाक, इत्माद और कुर्बानी’ (एकता, विश्वास और बलिदान) को सेना का बोधवाक्य घोषित किया गया। रामसिंह ठाकुर के गीत ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा’ को आजाद हिंद फौज का कूचगीत बनाया गया।

फरवरी 1942 में जापान ने सिंगापुर को युद्ध में परास्त कर दिया। स्थिति को भांपकर नेताजी ने 15 फरवरी 1942 को आजाद हिंद रेडिओ के माध्यम से ब्रिटेन के विरुद्ध सीधे युद्ध की घोषणा कर दी। द्वितीय विश्वयुद्ध में धुरिराष्ट्र, मित्र राष्ट्रों पर भारी पड़ रहे थे। पर 22 जून 1941 को जर्मनी ने अकस्मात् अपने ही साथी सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। यहीं से द्वितीय विश्वयुद्ध का सारा समीकरण बिगड़ गया। एक नीति के तहत सोवियत संघ युद्ध को शीतॠतु में होनेवाले नियमित हिमपात तक खींच ले गया। स्थानीय स्तर पर सोवियत सैनिक हिमपात में भी लड़ सकने में माहिर थे, पर जर्मनों के लिए यह अनपेक्षित स्थिति थी। फलतः नाजी सेना पीछे हटने को विवश हो गई।

बदली हुई परिस्थितियों में जर्मनी द्वारा विशेष सहायता मिलते न देख नेताजी ने जर्मनी छोड़ने का निर्णय किया। वे बेहतर समझते थे कि भारत को मुक्त कराने का यह ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ का समय है।

नेताजी ने अब जापान से सम्पर्क किया। उनकी जर्मनी से जापान की यात्रा किसी चमत्कार से कम नहीं थी। संकल्प और साहस की यह अदम्य गाथा है। नेताजी 9 फरवरी 1943 को जर्मनी के किएल से जर्मन पनडुब्बी यू-180 से गुप्त रूप से रवाना हुए। यू-180 ने शत्रु राष्ट्र ग्रेट ब्रिटेन के समुद्र में अंदर ही अंदर चक्कर लगाकर अटलांटिक महासागर में प्रवेश किया। उधर जापानी पनडुब्बी आई-29 मलेशिया के निकट पेनांग द्वीप से 20 अप्रैल 1943 को रवाना की गई। 26 अप्रैल 1943 को मेडागास्कर में समुद्र के गहरे भीतर दोनों पनडुब्बियां पहुँची। संकेतों के आदान-प्रदान और सुरक्षा सुनिश्चित कर लेने के बाद 28 अप्रैल 1943 को रबर की एक नौका पर सवार होकर नेताजी तेजी से जापानी पनडुब्बी में पहुँचे। जर्मनी से जापान की यह यात्रा पूरी होने में 90 दिन लगे। साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध में एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी में किसी यात्री के स्थानातंरण की यह विश्व की एकमात्र घटना है।

जापान में नेताजी, वहाँ के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो से मिले। तोजो उनके व्यक्तित्व, दृष्टि और प्रखर राष्ट्रवाद से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नेताजी का विशेष भाषाण जापान की संसद ‘डायट’ के सामने रखवाया।

जापान में ही वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रासबिहारी बोस भारतीय स्वाधीनता परिषद चलाते थे। रासबिहारी ने सुभाषबाबू से मिलकर उनसे परिषद का नेतृत्व करने का आग्रह किया। 27 जून 1943 को दोनों तोक्यो से सिंगापुर पहुँचे। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के फरेर पार्क में हुई विशाल जनसभा में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वाधीनता परिषद (आई.आई.एल.) का नेतृत्व नेताजी को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री तोजो भी यहाँ आई.आई.एल.की परेड देखने पहुँचे थे। यहीं आजाद हिन्द फौज की कमान भी विधिवत नेताजी को सौंपने की घोषणा हुई। कहा जाता है कि इस जनसभा में जो फूलमालाएं नेताजी को पहनाई गईं, वे करीब एक ट्रक भर हो गई थीं। इन फूल मालाओं की नीलामी से लगभग पचीस करोड़ की राशि अर्जित हुई। विश्व के इतिहास में किसी नेता को पहनाई गई मालाओं की नीलामी से मिली यह सर्वोच्च राशि है।

इस सभा में अपने प्रेरक भाषण में नेताजी ने कहा-

‘भारत की आजादी की सेना के सैनिकों !…आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। प्रसन्न नियति ने मुझे विश्व के सामने यह घोषणा करने का सुअवसर और सम्मान प्रदान किया है कि भारत की आजादी की सेना बन चुकी है। यह सेना आज सिंगापुर की युद्धभूमि पर-जो कि कभी ब्रिटिश साम्राज्य का गढ़ हुआ करता था- तैयार खड़ी है।…

एक समय लोग सोचते थे कि जिस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता, वह सदा कायम रहेगा। ऐसी किसी सोच से मैं कभी विचलित नहीं हुआ। इतिहास ने मुझे सिखाया है कि हर साम्राज्य का निश्चित रूप से पतन और ध्वंस होता है। और फिर, मैंने अपनी आँखों से उन शहरों और किलों को देखा है, जो गुजरे जमाने के साम्राज्यों के गढ़ हुआ करते थे, मगर उन्हीं की कब्र बन गए। आज ब्रिटिश साम्राज्य की इस कब्र पर खड़े होकर एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य अब एक बीती हुई बात है।…

मैं नहीं जानता कि आजादी की इस लड़ाई में हममें से कौन-कौन जीवित बचेगा। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अन्त में हम लोग जीतेंगे और हमारा काम तब तक खत्म नहीं होता, जब तक कि हममें से जीवित बचे नायक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दूसरी कब्रगाह-पुरानी दिल्ली के लालकिला में विजय परेड नहीं कर लेते।…

जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा, आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। गुलाम के लिए इससे बड़े गर्व, इससे ऊँचे सम्मान की बात और क्या हो सकती है कि वह आजादी की सेना का पहला सिपाही बने। मगर इस सम्मान के साथ बड़ी जिम्मेदारियाँ भी उसी अनुपात में जुड़ी हुई हैं और मुझे इसका गहराई से अहसास है। मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि अँधेरे और प्रकाश में, दुःख और खुशी में, कष्ट और विजय में मैं आपके साथ रहूँगा। आज इस वक्त में आपको कुछ नहीं दे सकता सिवाय भूख, प्यास, कष्ट, जबरन कूच और मौत के। लेकिन अगर आप जीवन और मृत्यु में मेरा अनुसरण करते हैं, जैसाकि मुझे यकीन है आप करेंगे, मैं आपको विजय और आजादी की ओर ले चलूँगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश को आजाद देखने के लिए हममें से कौन जीवित बचता है। इतना काफी है कि भारत आजाद हो और हम उसे आजाद करने के लिए अपना सबकुछ दे दें। ईश्वर हमारी सेना को आशीर्वाद दे और होनेवाली लड़ाई में हमें विजयी बनाए।… इंकलाब जिन्दाबाद!…आजाद हिन्द जिन्दाबाद!’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग -1 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग -1?

(कल 23 अगस्त थी। महानायक सुभाषचंद्र बोस की सरकार द्वारा मान्य पुण्यतिथि। उन पर लिखा एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है।  ई- अभिव्यक्ति में हम इस महत्वपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक आलेख को 3 भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।)

स्वाधीनता मानवजाति की मूलभूत आवश्यकता है। सोने के पिंजरे में रहकर भरपेट भोजन करते रहने से अच्छा मुक्त गगन में भूखे पेट विहार करना है । जाति को वरदानस्वरूप मिला स्वाधीनता का यह डी.एन.ए. ही है जिसने विश्व के विभिन्न राष्ट्रों को समय-समय पर अपनी सार्वभौमता के लिए संघर्ष करने को उद्यत किया। इस संग्राम ने अनेक नायकों को जन्म दिया। विश्व इतिहास के इन नायकों में सुभाषचंद्र बोस अग्रणी हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महानायक कहा जाता है। सुभाषचंद्र का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ। उनके पिता जानकीनाथ बोस अपने समय के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था।

बालक सुभाष अत्यंत मेधावी छात्र थे। अपने पिता की इच्छा का सम्मान रखने के लिए उन्होंने सर्वाधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की। फलस्वरूप 1920 में उन्हें सरकारी प्रशासनिक सेवा में नौकरी मिली। पर जिसके भीतर राष्ट्र की स्वाधीनता की अग्नि धधक रही हो, वह भला विदेशी शासकों की गुलामी कैसे करता! केवल एक वर्ष बाद उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राजपत्रित अधिकारी का पद छोड़ना परिवार और परिचितों के लिए धक्का था।

20 जुलाई 1921 को सुभाषचंद्र मुम्बई के मणि भवन में महात्मा गांधी से मिले। गांधीजी उनसे प्रभावित हुए और कोलकाता में असहयोग आंदोलन की बागडोर संभालनेवाले देशबंधु चित्तरंजनदास के साथ काम करने की सलाह दी। सुभाषबाबू स्वयं भी देशबंधु के साथ जुड़ना चाहते थे। देशबंधु ने सुभाष की अनन्य प्रतिभा को पहचाना। 1922 में दासबाबू ने काँग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने कोलकाता महानगरपालिका का चुनाव जीता। दासबाबू कोलकाता के मेयर बने और सुभाषचंद्र बोस को प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) बनाया। सीईओ बनते ही सुभाषबाबू ने कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में मारे जानेवाले लोगों के परिजनों को मनपा में नौकरी देना भी आरंभ किया।

सुभाषबाबू का कद तेजी से बढ़ने लगा। 1928 में साइमन कमिशन को प्रत्युत्तर देने और भारत का भावी संविधान बनाने के लिए काँग्रेस ने पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय आयोग गठित किया। बोस को इस आयोग में शामिल किया गया। इसी वर्ष कोलकाता में हुए काँग्रेस के अधिवेशन में सुभाष के भीतर के सैनिक ने मूर्तरूप लिया। उन्होंने खाकी गणवेश धारण कर पं. मोतीलाल नेहरू को सैनिक तरीके से सलामी दी।

1930 में जेल में रहते हुए उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। 26 जनवरी 1931 को सम्पूर्ण स्वराज्य की माँग करते हुए उन्होंने विशाल मोर्चा निकाला। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। अपने सार्वजनिक जीवन में नेताजी ग्यारह बार जेल गए। अंग्रेज उनसे इतना खौफ खाते थे कि छोटे-छोटे कारणों से गिरफ्तार कर उन्हें सुदूर म्यानमार के मंडाले कारागृह में भेज दिया जाता था। 1932 में तबीयत बिगड़ने पर सरकार ने उनके सामने युरोप चले जाने की शर्त रखी। ऐसी शर्तें पहले ठुकरा चुके सुभाषबाबू इस रिहाई को अवसर के रूप में लेते हुए युरोप चले गये। युरोप में वे इटली के नेता मुसोलिनी और आयरलैंड के नेता डी. वेलेरा से मिले। 1934 में अपने पिता की बीमारी के चलते वे भारत लौटे। कोलकाता पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर वापस युरोप भेज दिया गया। युरोप प्रवास में ही 26 दिसम्बर 1937 को उन्होंने ऑस्ट्रिया की एमिली शेंकेल से विवाह किया।

1938 में काँग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। सुभाषबाबू को इसमें काँग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इस अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय उद्बोधन की सर्वाधिक प्रभावशाली अध्यक्षीय वक्तव्यों में गणना होती है। अध्यक्ष के रूप में अपने सेवाकाल में बोस ने पहली बार भारतीय योजना आयोग का गठन किया। पहली बार काँग्रेस ने स्वदेशी वैज्ञानिक परिषद का आयोजन भी किया।

सुभाषबाबू की आक्रमक कार्यपद्धति गांधीजी को मान्य नहीं थी। फलतः 1939 के अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। सुभाषबाबू ने अपने प्रतिद्वंद्वी को 203 मतों से परास्त कर यह चुनाव जीत लिया। काँग्रेस के इतिहास में पहली बार किसीने गांधीजी के अधिकृत प्रत्याशी को पराजित किया था। पार्टी में खलबली मच गई। गांधीजी के विरोध और कार्यकारिणी के सदस्यों के असहयोग के चलते 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने अध्यक्षपद से त्यागपत्र दे दिया।

4 दिन बाद याने 3 मई 1939 को उन्होंने काँग्रेस के भीतर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। सुभाषबाबू के कद को बरदाश्त न कर सकनेवाली लॉबी ने उन्हें काँग्रेस से निष्कासित करवा दिया। फॉरवर्ड ब्लॉक अब स्वतंत्र पार्टी के रूप में काम करने लगी।

इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। भारतीयों से राय लिए बिना भारतीय सैनिकों को इस युद्ध में झोंक देने के विरोध में सुभाषबाबू ने आवाज उठाई। उन्होंने कोलकाता के हॉलवेल स्मारक को तोड़ने की घोषणा भी की। सुभाषबाबू को धारा 129 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इस धारा में अपील करने का अधिकार नहीं था। सुभाष दूसरे विश्वयुद्ध को भारत की आजादी के लिए कारगर अस्त्र के रूप में देखते थे। फलतः रिहाई के लिए उन्होंने जेल में अनशन शुरु कर दिया। बढ़ते दबाव से अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल से तो मुक्त कर दिया पर घर में नजरबंद कर लिया गया।

16 जनवरी 1941 को  सुभाषबाबू जियाउद्दीन नामक एक पठान का रूप धरकर नजरकैद से निकल भागे। वे रेल से पेशावर पहुंचे। भाषा की समस्या के चलते पेशावर से काबुल तक की यात्रा उन्होंने एक अन्य क्रांतिकारी के साथ गूंगा-बहरा बनकर पहाड़ों के रास्ते पैदल पूरी की।

काबुल में रहते हुए उन्होंने ब्रिटेन के कट्टर शत्रु देशों इटली और जर्मनी के दूतावासों से सम्पर्क किया। इन दूतावासों से वांछित सहयोग मिलने पर वे ओरलांदो मात्सुता के छद्म नाम से इटली का नागरिक बनकर मास्को पहुंचे। मास्को में जर्मन राजदूत ने उन्हें विशेष विमान उपलब्ध कराया। इस विमान से 28 मार्च 1941 को सुभाषबाबू बर्लिन पहुंचे।

यहाँ से विश्वपटल पर सुभाषचंद्र बोस के रूप में एक ऐसा महानायक उभरा जिसकी मिसाल नामुमकिन सी है। बर्लिन पहुँचकर नेताजी ने हिटलर के साथ एक बैठक की। हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मीन कॉम्फ’ में भारतीयों की निंदा की थी। नेताजी ने पहली मुलाकात में ही इसका प्रखर विरोध किया। नेताजी के व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव हिटलर पर पड़ा कि ‘मीन कॉम्फ’ की अगली आवृत्ति से इस टिप्पणी को हटा दिया गया।

9 अप्रैल 1941 को नेताजी ने जर्मन सरकार के समक्ष अपना अधिकृत वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस वक्तव्य में नेताजी का योजना सामर्थ्य और विशाल दृष्टिकोण सामने आया। देश में रहते हुए तत्कालीन नेतृत्व जो कुछ नहीं कर पा रहा था, यह वक्तव्य, वह सब करने का ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया। इस दस्तावेज में निर्वासन में स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा, स्वतंत्र भारत के रेडिओ का प्रसारण, धुरि राष्ट्रों और भारत के बीच सीधे सहयोग, भारत की इस अंतरिम सरकार को ॠण के रूप में जर्मनी द्वारा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराया जाना और भारत में ब्रिटिश सेना को परास्त करने के लिए जर्मन सेना की प्रत्यक्ष सहभागिता का उल्लेख था। हिटलर जैसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली शासक के साथ समान भागीदारी के आधार पर रखा गया यह वक्तव्य विश्व इतिहास में अनन्य है। नेताजी को जर्मनी की सरकार ने बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की। जर्मनी के आर्थिक सहयोग से बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर (आजाद भारत केंद्र) और आजाद हिंद रेडिओ का गठन किया गया।

क्रमशः ….

 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 91 – आलेख – प्रणाम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  ज्ञानवर्धक एवं विचारणीयआलेख  “ प्रणाम  । इस सार्थक, ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 91 ☆

 ? आलेख – प्रणाम ?

??
कर प्रणाम तू बंदे
छूट जाएंगे दुख के फंदे
मनुज कर प्रणाम तू भूलोक
सुधार अपना इह लोक परलोक

प्रणाम करना हमारे हिंदू संस्कृति की मूल और प्रथम पहचान है। जब हम किसी से मिलते हैं प्रणाम करते हैं। शाश्वत भगवान से आरंभ कर बड़ों को, गुरुजनों को, माता पिता को और हमें जिन्हें लगता है कि हमें इनको श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करना चाहिए, उन्हें प्रणाम करते हैं। आरंभ से यही सिखाया जाता है।

आजकल ज्यादातर घरों में या यूं कह लीजिए प्रणाम का प्रचलन ही खत्म होने लगा है और कुछ बचता तो इस सोशल मीडिया के चलते सब कुछ बदल गया है। अब बहुत कम घरों में बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद लेकर, कहीं बाहर निकलना या शुभ काम के लिए जाना होता है। जैसे सब कुछ भुला बैठे हैं। हमारी अपनी परंपरा धूमिल होती चली जा रही है। प्रणाम करने से स्वयं का ही फायदा होता है। मन में विश्वास और एक अलग ही उर्जा स्फूर्ति बढ़ती है।

आप सभी को एक पुरानी कहानी का वर्णन कर रही हूं। एक ब्राह्मण के यहाँ बालक ने जन्म लिया। ब्राह्मण महान ज्योतिष था। उसने देखा कि उसके बच्चे की आयु केवल सात वर्ष है। वह बड़े सोच विचार में पड़ गया। पत्नी ने पूछा “क्या बात है स्वामी आप बालक के जन्म से प्रसन्न नहीं हुए?” ब्राह्मण ने कहा “प्रिये खुशी कैसे मनाए। बेटा हमारे पास केवल सात वर्ष ही रह पाएगा।” पत्नी ने कहा “आप चिंता ना करें।”

बच्चा जब थोड़ा बड़ा हुआ और प्रणाम करने का अर्थ समझ गया तब माँ ने उसे प्रणाम का मतलब समझा रोज़ तैयार कर नदी जाने वाले रस्ते में बिठा देती थी और समझाती की ‘बेटा यहाँ से जितने भी ऋषि मुनि और देव आत्मा निकले सभी को झुककर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करना।’ बालक माँ का आज्ञाकारी था। सुबह से बैठ जाता। वहाँ से जितने भी ऋषि मुनि निकलते सभी को प्रणाम करते जाता था।

एक दिन वहाँ से वेद व्यास जी अपने शिष्यों सहित निकले। उन्हें बालक ने तत्काल प्रणाम किया। वेदव्यास जी ने “चिरंजीव भव:” का आशीर्वाद दिया। पास बैठी माँ ने तत्काल खड़े होकर महर्षि से प्रश्न किया “या तो आपका आशीर्वाद झूठा है या फिर मेरे बेटे का जन्म से मरण सात साल का लिखा हुआ आयु?”

अब तो वेदव्यास जी असमंजस में पड़ गए। अपने वचन की रक्षा के लिए तपोबल से उस ब्राह्मण के बालक की आयु को शतायु करना पड़ा। प्रणाम करने का इतना बड़ा उपहार पाकर ब्राह्मण की पत्नी खुशी खुशी घर को लौट चली। और प्रणाम के बदले शतायु और परलोक जाने के बाद श्री हरि के चरणों में स्थान पाने के हकदार बने। मतलब प्रणाम करने से सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं।

आज भी यदि फिर से सभी घरों में बड़ों को सम्मान पूर्वक प्रणाम की परंपरा आरंभ की जाए तो आधी लड़ाई तो यूं ही खत्म हो जाएगी।

महाभारत के युद्ध के समय दुर्योधन के कटु शब्दों के कारण भीष्म पितामह दूसरे दिन “प्रातः पांडव का वध निश्चित करूंगा” कह कर प्रण किये। रात में ही श्री कृष्ण जी द्रोपदी को लेकर भीष्मपितामह के शिविर पर पहुँच गए और बाहर स्वयं खड़े होकर द्रौपदी को अंदर जाने का आदेश दिए। द्रोपदी ने जैसे ही जाकर भीष्म पितामह को प्रणाम किया उन्होंने ‘सौभाग्यवती भव:’ का आशीर्वाद दिया और कहा-” इतनी रात तुम्हें यहाँ शायद माधव ही लेकर आए हैं। क्योंकि यह काम केवल वही कर सकते हैं।”
और बाहर निकलकर श्री कृष्ण और पितामह दोनों एक दूसरे को प्रणाम करते हैं। बदले में दूसरे दिन युद्ध में पाँचों पांडवों जीवित रहते हैं। श्री कृष्ण समझाते हैं “द्रौपदी यदि तुम और बाकी रानियों ने राजमहल में सभी बड़ों को नित प्रणाम और श्रद्धा पूर्वक प्रेम से, विनय से आदर किया होता तो आज महाभारत नहीं होता।”

प्रणाम का एक अर्थ ‘विनय या विनत’ भी है जिसका मूल अर्थ है आदर करना या सम्मान करना। प्रणाम बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की भांति काम करता है। प्रणाम प्रेम है, प्रणाम अनुशासन हैं, प्रणाम शीतलता है, प्रणाम आदर्श सिखाता है, प्रणाम से सुविचार आते हैं, प्रणाम झुकना सिखाता है, प्रणाम क्रोध मिटाता आता है, प्रणाम हमारी संस्कृति है।
??

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ रक्षाबंधन विशेष – हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी  रक्षाबंधन पर विशेष रचना हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों”  )

☆ रक्षाबंधन विशेष – हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

हमारा राष्ट्रीय पशु, पक्षी, ध्वज, नदी, आदि के अलावा हमारा राष्ट्रीय संबोधन क्या  हो?  इस सबंध में जब विचार-विमर्श किया गया तो…,

फेसबुक व व्हाट्सप पर मित्रों ने राष्ट्रीय संबोधन हेतु “राम-राम”, “वालेकुम् सलाम” नाम  सुझाये। पर ये सब सुझानेवाले हिन्दू- मुसलमान थे। काश्, कुछ हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे के नाम भी सुझाते? तो इन  संबोधनों से मुल्क में भाईचारे की ठंडी हवा  बहने लगती। ये दोनों शब्द जितने पवित्र है,  लोग उतने पवित्र नहीं है। फिर राम का नाम इन दिनों भक्ति से दूर और वोट बैंक के करीब होता जा रहा है। (डर है  कहीं चुनाव आयोग चुनाव के दिनों में. “राम नाम सत्य है” पर भी…..) अतः ये संबोधन व्यवहारिक नहीं है।

उसके बाद जो नाम आये वे हैं,  “जयहिंद और वंदेमातरम”। पर इन्हें इसलिए  रिजेक्ट कर दिये क्योंकि एक तो इसमें सब एकमत नहीं होंगे।

(आजादी के बाद हमें इतनी स्वतंत्रता तो मिली कि हम कहीं भी किसी भी बात पर आपत्ति उठा सके।) दूसरे इन नारों से सभा की शुरुआत का नहीं, सभा की समाप्ति का एहसास होता है।

इसके बाद  नाम आया, “इन्कलाब जिंदाबाद” पर ये जुलूस, घेराव, हड़ताल व आन्दोलन के ज्यादा करीब है।  इसमें एक जोश व उत्तेजना होने से सीनियर सिटीजन को सांस की तकलीफ के कारण कहते वक्त कुछ कष्ट – सा होता है। फिलहाल इसे भी छोड़ा गया।

आखिर, राष्ट्रीय संबोधन के लिए “भाइयों और बहनों पर सहमति बनी। भाई- बहन इतना सहज और पवित्र रिश्ता है कि आपको हर रिश्ते पर लतीफे मिलेंगे (माता-पिता, भाई-भाई, सास-बहू, ससुर-दामाद, जीजा-साली। सभी पर लतीफे मिलेंगे। पति-पत्नी तो लतीफों की खान है।) मगर भाई- बहन पर नहीं। एक युवती जब पहली बार किसी अपरिचित से बात करती है तो उसका पहला संबोधन होता है ” भाईसाब, जरा….”। इसी प्रकार युवक कहेगा-” बहनजी जरा… । इसी चक्कर में पहली नजर में प्यार होने पर एक युवक ने यूँ इजहार किया-” बहनजी, मुझे पहली नजर में आपसे प्यार हो गया।” और वह भी कह उठती है-” धन्यवाद, भाई साब। कल मिलते हैं, इसी बगीचे में ।”

इतना सहज और पाक रिश्ता है ये।

जब विवेकानंद पहली बार शिकागो गये तो उनके भाइयों और बहनों कहते ही सारे लोग खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे।हर शिकागोयी को लगा रहा था, कि उसका भाई बोल रहा है,  और हर शिकागोयीन को लगा जैसे उसके मायके से कोई आया है। विवेकानंद व्दारा कहे ये दो शब्द भारत की पहचान बन गये।

उसके बाद जब बिनाका गीतमाला में अमीन सयानी “बहनों और भाइयों” कहते,  सारा देश झूमने लगता। गुनगुनाने  लगता। उनके कहने में एक सरलता, एक पाकीजगी, एक ऐसा मीठापन होता कि सुनते ही होठों पर एक गीत आ जाता। ये बात तब की है जब किसी गीत की लोकप्रियता गीतकार, संगीतकार, गायक के अलावा अमीन सयानी के “बहनों और भाइयों” कहने पर भी निर्भर होती थी।

आजादी के बाद हमारे नेताओं ने इस पवित्र संबोधन की ऐसी गत् कर दी है कि भाइयों और बहनों कहकर वोट तो मांग लेते हैं, पर सत्ता मिलते ही सिर्फ अपने भाई-बहन को छोड़ बाकी की-ऐसी तैसी करने में लग जाते हैं। इन दिनों भाइयों की पिटाई और बहनों की रूसवाई कुछ ज्यादा ही अखबारों की हेड लाइन और चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनती जा रही हैं। ये समाचार पढ़कर-सुनकर इतनी  शर्मिंदगी होती  है कि अब नेताओं के मुंह से भाइयों और बहनों सुनना अपशब्द सा लगने लगता है।

प्रमुख नेतागण भी इस संबोधन का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं। जब भी कोई खास बात कहनी है तो पहले कहेंगे” भाइयों और बहनों ” और एक साधारण बात भी खास हो जाती है। जब कोई खास बात नहीं सूझती है तब भी कहेंगे “भाइयों और बहनों” और बस, साधारण बात भी खास हो जाती है।

शुरू-शुरू में इस उद्बोधन में विवेकानंद सी गरिमा और अमीन सयानी सी मीठास थी। धीरे-धीरे इस शब्द की  टीआरपी गिरने लगी।

हर 15 अगस्त के पूर्व  लालकिले की प्राचीरें तिरंगे से बतियाती है कि-” भइया, चौहत्तर साल हो गये, क्या इस देश को कोई ऐसा भी  मिलेगा जो यह महसूस करे कि भाई – बहन के रिश्ते सिर्फ कहने के लिए नहीं, निभाने के लिए होते हैं। हुमायूं और कर्मावती की गाथा फिर एक बार पढ़ लें।

रिश्ते निभाने के लिए पार्टी व पद की ही नहीं, जान तक की कुर्बानी देनी होती है। जो आज की राजनीति में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। पर यदि भाइयों और बहनों कहने में विवेकानंद जैसी गरिमा और अमीन सयानी जैसी मिठास भी न ला सको तो वे “भाइयों और बहनों” कहने के बदले कोई और संबोधन ढूंढ लें।

यह बात पक्ष-विपक्ष यानी हर पार्टी के लिए लागू है। क्योंकि कमोबेश सब एक-से ही हैं ।

आज भाई-बहन के पवित्र रिश्ते पर देश के सभी भाईयों को नमस्कार  और देश की सभी  बहनों को प्रणाम।

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 99 ☆ उत्कर्ष और दंभ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

? रक्षाबंधन की मंगलकामनाएँ ? 

येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल:।

दानवीर महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, (धर्म में प्रयुक्त किए गये थे ), उसी से तुम्हें बांधता हूँ ( प्रतिबद्ध करता हूँ)।  हे रक्षे ! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो ( स्थिर रहो/ अडिग रहो)।

भाई-बहन के अनिर्वचनीय नेह के पावन पर्व रक्षाबंधन की मंगलकामनाएँ।

 – संजय भारद्वाज

☆ संजय उवाच # 99 ☆ उत्कर्ष और दंभ ☆

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं।
प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।

अर्थात जगत में कोई ऐसा उत्पन्न नहीं हुआ जो प्रभुता या पद पाकर मद का शिकार न हुआ हो। गोस्वामी तुलसीदास जी का उपरोक्त कथन मनुष्य के दंभ और प्रमाद पर एक तरह से सार्वकालिक श्वेतपत्र है। वस्तुत: दंभ मनुष्य की संभावनाओं को मोतियाबिंद से ग्रसित कर देता है। इसका मारा तब तक ठीक से देख नहीं पाता जब तक कोई ज्ञानशलाका से उसकी सर्जरी न करे।

ऐसी ही सर्जरी की गाथा एक प्रसिद्ध बुजुर्ग पत्रकार ने सुनाई थी। कैरियर के आरंभिक दिनों ने सम्पादक ने उन्हें सूर्य नमस्कार पर एक स्वामी जी के व्याख्यान को कवर करने के लिए कहा। स्वामी जी वयोवृद्ध थे। लगभग सात दशक से सूर्य नमस्कार का ज्ञान समाज को प्रदान कर रहे थे। विशाल जन समुदाय उन्हें सुनने श्रद्धा से एकत्रित हुआ था। पत्रकार महोदय भी पहुँचे। कुछ आयु की प्रबलता, कुछ पत्रकार होने का मुगालता, व्याख्यान पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। व्याख्यान के समापन पर चिंता हुई कि रिपोर्ट कैसे बनेगी? मुख्य बिंदु तो नोट किये ही नहीं। भीतर के दंभ ने उबाल मारा। स्वामी जी के पास पहुँचे, अपना परिचय दिया और कहा, “आपके व्याख्यान को मैंने गहराई से समझा है। तब भी यदि आप कुछ बिंदु बता दें तो रिपोर्ट में वे भी जोड़ दूँगा।”

स्वामी जी ने युवा पत्रकार पर गहरी दृष्टि डाली, मुस्कराये और बोले, ” बेटा तू तो दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिमान है। जिस विषय को मैं पिछले 70 वर्षों में पूरी तरह नहीं समझ पाया, उसे तू केवल 70 मिनट के व्याख्यान में समझ गया।” पत्रकार महोदय स्वामी जी के चरणों में दंडवत हो गए।

जीवन को सच्चाई से जीना है तो ज्यों ही एक सीढ़ी ऊपर चढ़ो, अपने दंभ को एक सीढ़ी नीचे उतार दो। ऐसा करने से जब तुम उत्कर्ष पर होगे तुम्हारा दंभ रसातल में पहुँच गया होगा। गणित में व्युत्क्रमानुपात या इन्वर्सल प्रपोर्शन का सूत्र है। इस सूत्र के अनुसार जब एक राशि की मात्रा में वृद्धि ( या कमी) से दूसरी राशि की मात्रा में कमी (या वृद्धि) आती है तो वे एक-दूसरे से व्युत्क्रमानुपाती होती हैं। स्मरण रहे, उत्कर्ष और दंभ परस्पर व्युत्क्रमानुपाती होते हैं।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 95 ☆ आईना झूठ नहीं बोलता☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आईना झूठ नहीं बोलता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 95 ☆

☆ आईना झूठ नहीं बोलता ☆

लोग आयेंगे, चले जायेंगे। मगर आईने में जो है, वही रहेगा, क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, सदैव सत्य अर्थात् हक़ीक़त को दर्शाता है…जीवन के स्याह व सफेद पक्ष को उजागर करता है। परंतु बावरा मन यही सोचता है कि हम सदैव ठीक हैं और दूसरों को स्वयं में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह तो आईने की धूल को साफ करने जैसा है, चेहरे को नहीं, जबकि चेहरे की धूल साफ करने पर ही आईने की धूल साफ होगी। जब तक हम आत्मावलोकन कर दोष-दर्शन नहीं करेंगे; हमारी दुष्प्रवृत्तियों का शमन कैसे संभव होगा? हम हरदम परेशान व दूसरों से अलग-थलग रहेंगे।

जीवन मेंं सदैव दूसरों का साथ अपेक्षित है। सुख बांटने से बढ़ता है तथा दु:ख बांटने से घटता है। दोनों स्थितियों में मानव को लाभ होता है। सुंदर संबंध शर्तों व वादों से नहीं जन्मते, बल्कि दो अद्भुत लोगों के मध्य संबंध स्थापित होने पर ही होते हैं। जब एक व्यक्ति अपने साथी पर अथाह, गहन अथवा अंधविश्वास करता है और दूसरा उसे बखूबी समझता है, तो यह है संबंधों की पराकाष्ठा।

सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधा हुआ। दोनों में यदि अंतर भी हो, तो भी भाव-धरातल पर समता की आवश्यकता है। इसी में जाति, धर्म, रंग, वर्ण का ही स्थान नहीं है, बल्कि पद-प्रतिष्ठा भी महत्वहीन है। वैसे प्यार व दोस्ती तो विश्वास पर कायम रहती है, शर्तों पर नहीं। महात्मा बुद्ध का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है कि ‘जल्दी जागना सदैव लाभकारी होता है। फिर चाहे नींद से हो, अहं से, वहम से या सोए हुए ज़मीर से। ख़िताब, रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है…बशर्ते लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग से नहीं।’ सो! संबंध तीन-चार वर्ष में समाप्त होने वाला डिप्लोमा व डिग्री नहीं, जीवन भर का कोर्स है। यह अनुभव व जीने का ढंग है। सो! आप जिससे संबंध बनाते हैं, उस पर विश्वास कीजिए। यदि कोई उसकी निंदा भी करता है, तो भी आप उसके प्रति मन में अविश्वास का भाव न पनपने दें, बल्कि संकट की घड़ी में उसकी अनुपस्थिति में ढाल बन कर खड़े रहें। लोगों का काम तो कहना होता है। वे किसी को उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख, केवल ईर्ष्या ही नहीं करते; उनकी मित्रता में सेंध लगा कर ही सुक़ून पाते हैं। सो! कबीर की भांति आंख मूंदकर नहीं, आंखिन देखी पर ही विश्वास कीजिए। उन्हीं के शब्दों में ‘बुरा जो ढूंढन मैं चला, मोसों बुरा न कोय।’ इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए, आप स्वयं में असंख्य दोष पाएंगे। दोषारोपण की प्रवृत्ति का त्याग ही आत्मोन्नति का सुगम व सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। केवल सत्य पर विश्वास कीजिए। झूठ के आवरण को हटाने के लिए चेहरे पर लगी धूल को हटाने की आवश्यकता है अर्थात् अपने अंतस की बुराइयों पर विजय पाने की दरक़ार है।

इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ऐसे लोगों की ओर आकर्षित मत होइए, जो ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचे हैं,। वास्तव में वे तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं, जो तुम्हें ऊंचाई से गिरते देख थाम लेते हैं। सो! लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग़ से नहीं। जहां प्रेम होता है, तमाम बुराइयां, अच्छाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा अविश्वास के दस्तक देते व अच्छाइयां लुप्तप्राय: हो जाती हैं। त्याग व समर्पण का दूसरा नाम दोस्ती है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी हैसियत से बढ़ कर समर्पण करना चाहिए। अहं इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ईगो अर्थात् अहं तीन शब्दों निर्मित है, जो रिलेशनशिप अर्थात् संबंधों को अपना ग्रास बना लेता है। दूसरे शब्दों में एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। संबंध तभी स्थायी अथवा शाश्वत बनते हैं, जब उनमें अहं, राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होता।

सो! जिससे बात करने में खुशी दुगुन्नी तथा दु:ख आधा रह जाए, वही अपना है… शेष तो दुनिया है; जो तमाशबीन होती है। वैसे भी अहंनिष्ठ लोग समझाते अधिक व समझते कम हैं। इसलिए अधिकतर मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा जीवन। इसलिए कहा जाता है कि असंभव दुनिया में कुछ भी नहीं है। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। इसलिए कहा जाता है, मानव असीम शक्तियों का पुंज है। स्वेट मार्टन के शब्दों में ‘केवल विश्वास ही एकमात्र ऐसा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचा देता है।’ सो! विश्वास के साथ-साथ लगन व्यक्ति से वह सब करवा लेती है, जो वह नहीं कर सकता। साहस व्यक्ति से वह सब करवाता है; जो वह कर सकता है। किन्तु अनुभव व्यक्ति से वह करवा लेता है, जो उसके लिए करना अपेक्षित है। इसलिए अनुभव की भूमिका सबसे अहम् है, जो हमें ग़लत दिशा की ओर जाने से रोकती है और साहस व लग्न अनुभव के सहयोगी हैं।

परंतु पथ की बाधाएं हमारे पथ की अवरोधक हैं। सो! कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है। यहां साहस अपना चमत्कार दिखाता है। सो! संकट के समय परिवर्तन की राह को अपनाना चाहिए। तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं/ ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध के बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। सो! अहंनिष्ठ मानव पल भर मेंं अर्श से फ़र्श पर आन गिरता है। इसलिए ऊंचाई पर पहुंचने के लिए मन में प्रतिशोध का भाव न पनपने दें, क्योंकि इसका जन्म ईर्ष्या व अहं से होता है। आंख बंद करने से मुसीबत टल नहीं जाती और मुसीबत आए बिना आंख नहीं खुलती। जब तक हम अन्य विकल्प के बारे में सोचते नहीं, नवीन रास्ते नहीं खुलते। इसलिए मुसीबतों का सामना करना सीखिए। यह कायरता है, पराजय है। ‘डू ऑर डाई, करो या मरो’ जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। ‘कौन कहता है आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। अक्सर मानव को स्वयं स्थापित मील के पत्थरों को तोड़ने में बहुत आनंद आता है। सो थककर राह में विश्राम मत करो और न ही बीच राह से लौटने का मन बनाओ। मंज़िल बाहें पसारे आपकी राह तकेंगी। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैंं; हमारे कार्य-व्यवहार ही उन्हें निर्धारित करते हैं।

श्रेष्ठता संस्कारों से प्राप्त होती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। जिसने दूसरों के दु:ख में दु:खी होने का हुनर सीख लिया, वह कभी दुखी नहीं हो सकता। ‘ज़रा संभल कर चल/ तारीफ़ के पुल के नीचे से/  मतलब की नदी बहती है।’ इसलिए प्रशंसकों से सदैव दूरी बना कर रखनी चाहिए, क्योंकि ये उन्नति के पथ में अवरोधक होते हैं। इसलिए कहा जाता है, घमंड मत कर ऐ दोस्त/ अंगारे भी राख बनते हैं। इसलिए संसार में इस तरह जीओ कि कल मर जाना है। सीखो इस तरह कि जैसे आपको सदैव जीवित रहना है। शायद इसलिए ही थमती नहीं ज़िंदगी किसी के बिना/  लेकिन यह गुज़रती भी नहीं/ अपनों के बिना। सो! क़िरदार की अज़मत को न गिरने न दिया हमने/  धोखे बहुत खाए/ लेकिन धोखा न दिया हमने। इसलिए अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, आनंद आभास है/  जिसकी सबको तलाश है/ दु:ख अनुभव है/ जो सबके पास है। फिर भी ज़िंदगी में वही क़ामयाब है/ जिसे ख़ुद पर विश्वास है। इसलिए अहं नहीं, विश्वास रखिए। आपको सदैव आनंद की प्राप्ति होगी। रास्ते अनेक होते हैं। निश्चय आपको करना है कि आपको किस ओर जाना है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 47 ☆ हिन्दु धर्म के अस्तित्व एवं स्वाभिमान की बात ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  हिन्दु धर्म के अस्तित्व एवं स्वाभिमान की बात ”.)

☆ किसलय की कलम से # 47 ☆

☆ हिन्दु धर्म के अस्तित्व एवं स्वाभिमान की बात ☆

सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलयुग की आवृत्तियों की श्रंखला में अक्सर हमें सतयुग के समुद्र मंथन वाले विष्णु, त्रेता के समुद्र पर सेतु बनवाने वाले राम और द्वापर के समुद्र के अंदर निर्मित द्वारिका वाले कृष्ण के वृतांत ही सुनने पढ़ने मिलते हैं। इन सभी को, देवों के देव महादेव को या शक्तिरूपा माँ दुर्गा को आस्था और विश्वास सहित अपना आराध्य मानने वाले लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सनातन धर्मियों के रूप में इस पृथ्वी पर जीवन जीते आ रहे हैं। वर्तमान में यही सनातन धर्म हिंदू धर्म के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। आज हमारे धर्मशास्त्रों में वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, रामायण, रामचरित मानस जैसे महान ग्रंथ एवं वृहद साहित्य उपलब्ध है। सप्रमाण इनकी प्राचीनता को परखा जा सकता है और हमारे हिन्दु धर्म को विश्व का प्राचीनतम धर्म कहने पर किसी को भी लेश मात्र संशय नहीं है।

देवासुर संग्राम, राम-रावण युद्ध महाभारत धर्मयुद्ध के साथ ही जाने कितनी उथल-पुथल हमारे समाज में हुई लेकिन आज भी हिन्दु धर्म और इसके अनुयायियों में कमी नहीं आई। हूण, शक, मुगल और अंग्रेजों द्वारा किये गए दमन, अत्याचार और उनके आधिपत्य के बावजूद हम हिन्दु आज विश्व के समक्ष सीना तानकर खड़े हैं। सभी विदेशी शासकों ने हिन्दु धर्म के अस्तित्व को मिटाने हेतु क्या नहीं किया, यह सभी को विदित है। साम-दाम-दंड-भेद की नीति से धर्मांतरण कराना आज भी जारी है।

आज जब हिन्दु धर्मावलम्बी दूसरे धर्मों को अपना लेते हैं, तब यह बताना भी जरूरी है कि हिन्दु धर्म में अन्य धर्मों की तुलना में कोई कमियाँ नहीं हैं बल्कि हिन्दु धर्म की उदारता, तरलता एवं शांतिप्रियता की आड़ में यह धर्मांतरण का खेल खेला जा रहा है। यह बात भी खुले मन से कही जा सकती है कि हमारी आर्थिक व सामाजिक व्यवस्थाओं में कमी भी इसका सबसे बड़ा कारण है। आर्थिक रूप से परेशान और सामाजिकता के दायरे में स्वयं को हीन समझने वाला इंसान भी अर्थ और सम्मान पाने भ्रम पाल बैठता है। यही भ्रम उसे धर्मांतरण हेतु प्रेरित करता है। इसके पश्चात जब हिन्दु धर्म तथा समाज का उसे यथोचित संभल नहीं मिलता तब वह अंत में टीस लिए न चाहते हुए भी धर्मांतरण कर लेता है। इसके अतिरिक्त अन्य तरह-तरह के प्रलोभन भी धर्मांतरण में सहायक बनते हैं। कभी-कभी ऐसे कारण भी हो सकते हैं जो उक्त श्रेणी में नहीं आते।

ऐसा ही धर्मांतरण का एक किस्सा है कि एक महाशय जिनका नाम ‘छेदी’ था। उसे लोग छेदी-छेदी पुकार कर चिढ़ाया करते थे। मानसिक रूप से परेशान श्री छेदी ने सोचा कि मैं क्यों न अपना धर्म बदल लूँ जिससे मेरा नाम भी बदल जाएगा। बस इतनी सी बात पर उसने ईसाई बनने की ठान ली। धर्म परिवर्तन का फंक्शन आयोजित हुआ और सभी के बीच चर्च के फादर ने उसका नामकरण करते हुए कहा- आज से तुम ‘मिस्टर होल’ के नाम से जाने जाओगे। फिर क्या था, सब लोग उसे मिस्टर होल – मिस्टर होल कहने लगे। अब उसे और बुरा लगने लगा। ऐसी परिस्थिति दुबारा निर्मित होने पर इसी नाम के चक्कर में वह पुनः धर्मांतरण हेतु इस्लाम धर्म कबूल करने पहुँच गया। अति तो तब हुई जब मौलवी साहब ने उसका नामकरण “सुराख अली” के रूप में किया। इतना सब कुछ करने के बाद उसका माथा ठनका की धर्मांतरण इस समस्या का हल नहीं है। निराकरण उसकी एवं उसके धर्मावलंबियों की सोच पर भी निर्भर करता है।

आशय यह है कि धर्मांतरण के लिए केवल वह व्यक्ति उत्तरदायी नहीं होता, उसका धर्मावलम्बी समाज भी उत्तरदायी होता है क्योंकि उसका धर्म उसे वह सब नहीं दे पाता जो दूसरे धर्म के लोग और दूसरे धर्म-प्रचारक अपने धर्म में शामिल करने हेतु थाली सजाकर उसको देने तैयार रहते हैं।

आज हिन्दु विश्व में अरबों की संख्या में हैं। जब संख्या बड़ी होती है तब सभी असतर्क, निश्चिंत और बहुसंख्यक होने के भ्रम में जीते रहते हैं। गैर धर्म के लोग हिन्दु धर्म में सेंध लगाते रहते हैं लेकिन हम उसे आज भी अनदेखा और अनसुना करते रहते हैं, जिसका ही परिणाम है कि लोग हमें गाय जैसा सीधा समझकर हमें परेशान करने से नहीं चूकते।

बस इसीलिए मैं गंभीरता पूर्वक यह बात पूछना चाहता हूँ कि सदियों, दशकों, वर्षों या यूँ कहें कि आए दिन हिन्दु धर्म, हिन्दु धर्मग्रंथों, हिन्दु देवी-देवताओं, हिन्दुओं के तीज-त्यौहार, पूजा-अर्चना और परंपराओं का अपमान करना और माखौल उड़ाना कितना उचित है? वे आपके दिए हुए प्रसाद का आदर नहीं करते, न ही खाते। आपके देवी-देवताओं और धार्मिक ग्रंथों के प्रति उनकी कोई श्रद्धा नहीं होती। हमारी उदारता देखिए कि हम उनके धार्मिक स्थलों और मजहबी कार्यक्रमों में टोपी पहन कर जाना धर्म-विरोधी नहीं मानते लेकिन वे हमारे धार्मिक कार्यक्रमों में तिलक लगाकर आने और शामिल होने से परहेज करते हैं। हम मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों को ईश्वर का घर मानते हैं लेकिन हमारे मंदिरों में जाने में, हमारे धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होने में इतर धर्मियों को इतनी घृणा, इतनी नफरत और इतना परहेज क्यों रहता है?

हमारे बहुत से इतर धर्मी मित्र हैं। उनसे हमारी सकारात्मक चर्चाएँ होती हैं। उनका यही मानना है कि हर धर्म में कुछ कट्टरपंथी व विघ्नसंतोषी होते हैं। उन्हें कोई नहीं सुधार सकता। आशय यही है कि कुछ ही लोग होते हैं जो फिजा को जहरीला बनाने से नहीं चूकते।

लगातार इतर धर्मावलंबियों के धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों द्वारा लगातार अपने मजहब के अन्दर हिन्दु धर्म के प्रति जहर घोला जा रहा है। यही कारण है कि एक सामान्य से हिन्दु आदमी की भी समझ में आने लगा है कि ये सुनियोजित चलाई जा रहीं गतिविधियाँ देश और समाज को गलत दिशा में मोड़ने का प्रयास है। यदि अब आगे और शांति मार्ग अपनाया गया अथवा इसका प्रत्युत्तर नहीं दिया गया तो पानी सिर के ऊपर चल जाएगा। यह प्रतिशोध की भावना नहीं है। यह अपने धर्म की रक्षा का प्रश्न है। यह हमारे हिन्दु धर्म के अस्तित्व एवं स्वाभिमान की बात है। मैं न सही, आप न सही लेकिन तीसरे, चौथे और आखिरी इंसान तक क्या गांधीगिरी का पाठ पढ़ाया जा सकता है? आज जब कुछ हिन्दु, हिन्दु धार्मिक संगठन एवं संस्थाएँ इतर धर्मों के कटाक्ष व अनर्गल प्रलापों का प्रत्युत्तर देने लगें तो बौखलाहट क्यों?

इनके जो दृष्टिकोण जायज हैं, वहीं दृष्टिकोण हिंदुओं के लिए उचित क्यों नहीं? हम यह कहने से कभी नहीं चूकते कि हम उदारवादी हैं। हम शांतिप्रिय हैं। हम सर्वधर्म समभाव की विचारधारा वाले हैं, तो इसका यह आशय कदापि नहीं लगा लेना चाहिए कि वे हमारे घर, हमारे परिवार और हमारे समाज के अस्तित्व को ही समाप्त करने की कोशिश करें। आज जो यत्र-तत्र उक्त आक्रोश ,उत्तेजक वक्तव्य, धार्मिक प्रदर्शन एवं शिकायतें सामने आ रही हैं, ये सब हमारे प्रतिरोध न करने का ही प्रतिफल समझ में आता है। भारत में रहने वाले हर नागरिक को यह समझना ही होगा कि उसे संविधान के दायरे में रहना होगा। धर्म निरपेक्षता का पाठ सीखना होगा। मौलवियों, पादरियों एवं मठाधीशों की संकीर्ण, उत्तेजक एवं असंवैधानिक बातों को खुले आँख-कान और बुद्धि से परख कर मानना होगा।

आज हमारे देश भारत को पूरे विश्व में आदर्श दर्जा प्राप्त है। सभी देशवासियों को अपने देश की और अपने समाज की उन्नति को ही प्राथमिकता देना होगी, तभी हम सबकी भलाई और प्रगति सम्भव है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ककनूस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ? ककनूस ?

‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।

फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।

मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।

अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।

लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।

फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।

ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’

अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 109 ☆ बिना कलम कागज…. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित आलेख  बिना कलम कागज….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 109 ☆

? बिना कलम कागज…. ?

वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा वैदिक भारतीय संस्कृति की ही देन है . वैज्ञानिक अनुसंधानो , विशेष रूप से संचार क्रांति  तथा आवागमन के संसाधनो के विकास ने तथा विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है , कोरोना त्रासदी ने दवा , वैक्सीन जैसे मुद्दे वैश्विक एकता के उदाहरण हैं . हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं . सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमटकर एक गांव बन गया है .

लेखन , प्रकाशन , पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं . नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के ही कम्प्यूटर पर ही सीधे  लिख रही है ,प्रकाशित हो रही है , और पढ़ी जा रही है . ब्लाग तथा सोशल मीडीया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज , सस्ते , सर्वसुलभ , त्वरित साधन बन चुके हैं .सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है .लोकतंत्र में विधायिका , कार्यपालिका , न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है , आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते सोशल मीडिया व ब्लाग जगत को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है . वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन इसी सोशल मीडिया के माध्यम से खड़े हुये हैं .

हमारे देश में भी बाबा रामदेव , अन्ना हजारे के द्वारा बिना बंद , तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन , और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा था . इन  आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट , मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया .

जब हम भारतीय परिदृश्य में इस प्रौद्योगिकी परिवर्तन को देखते हैं तो हिंदी  पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखते हैं . 21 अप्रैल, 2003 की तारीख वह स्वर्णिम तिथि है जब  रात्रि  22:21 बजे हिन्दी के प्रथम ब्लॉगर, मोहाली, पंजाब निवासी आलोक ने अपने ब्लॉग ‘9 2 11’ पर अपना पहला ब्लॉग-आलेख हिन्दी में पोस्ट किया था . तब से होते निरंतर प्रौद्योगिकी विकास के साथ हिन्दी के महत्व को स्वीकार करते हुये ही बी बी सी , स्क्रेचमाईसोल , रेडियो जर्मनी ,टी वी चैनल्स , तथा देश के विभिन्न अखबारो तथा न्यूज चैनल्स ने भी अपनी वेबसाइट्स पर पाठको के ब्लाग के पन्ने बना रखे हैं . ब्लागर्स पार्क दुनिया की पहली ब्लागजीन के रूप में नियमित रूप से मासिक प्रकाशित हो चुकी है . यह पत्रिका ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री को पत्रिका के रूप में संयोजित  करने का अनोखा कार्य कर रही थी .मुझे गर्व है कि मैं इसके मानसेवी संपादन मण्डल का सदस्य रहा हूं .  अपने नियमित स्तंभो में  प्रायः समाचार पत्र ब्लाग से सामग्री उधृत करते दिखते हैं . हिन्दी ब्लाग के द्वारा जो लेखन हो रहा है उसके माध्यम से साहित्य , कला समीक्षा , फोटो , डायरी लेखन आदि आदि विधाओ में विशेष रूप से युवा रचनाकार अपनी नियमित अभिव्यक्ति कर रहे हैं . ई अभिव्यक्ति वेब पोर्टल हेमन्त बावनकर जी का अनूठा प्रयोग है , जिसकी हर सुबह पाठक प्रतीक्षा करते हैं ।

वेब दुनिया , जागरण जंकशन , नवभारत टाइम्स  जैसे अनेक हिन्दी पोर्टल ब्लागर्स को बना बनाया मंच व विशाल पाठक परिवार सुगमता से उपलब्ध करवा रहे हैं .और उनके लेखन के माध्यम से अपने पोर्टल पर विज्ञापनो के माध्यम से धनार्जन भी करने में सफल हैं . हिन्दी और कम्प्यूटर मीडिया के महत्व को स्वीकार करते हुये ही अपने वोटरो को लुभाने के लिये राजनैतिक दल भी इसे प्रयोग करने को विवश हैं . हिन्दी न जानने वाले राजनेताओ को हमने रोमन हिन्दी में अपने भाषण लिखकर पढ़ते हुये देखा ही है .

यह सही है कि ब्लाग लेखन और व्यापकता चाहता है , पर जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी , इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन  और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा , एवं  भविष्य में  लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा . युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं .विज्ञापन , क्रय विक्रय , शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश कम्प्यूटर और एंड्रायड मोबाईल , सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग,  ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, ने सुलभ करवाया है , बाजारवाद ने उसके नगदीकरण के लिये इंटरनेट के स्वसंपादित स्वरूप का भरपूर दुरुपयोग किया है . हिट्स बटोरने हेतु उसमें सैक्स की वर्जना , सीमा मुक्त हो चली है . वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे .प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं , और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद , कुछ चटपटी , बातें होती हैं , इस कारण अनेक लेखक  गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं . हिंदी भाषा का कम्प्यूटर लेखन साहित्य की समृद्धि में  बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं ,क्योकि ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों , लेखको , विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं . पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग , मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से कम्प्यूटर लेखन और भी लोकप्रिय हो रहा है . अनेक लेखक जो पहले ब्लाग पर लिखते थे प्रौद्योगिकी के परिवर्तनो के साथ सुगमता की दृष्टि से फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स पर शिफ्ट हो रहे हैं .

यात्रा रिजर्वेशन , नेट-बैंकिंग, सेटेलाईट टीवी,  हाई टेक हिन्दी फ़िल्मों, रोजमर्रा की जीवन शैली में क्म्प्यूटर के बढ़ते समावेश से  देश-वासियों और देश-दुनिया के साथ हिन्दी-भाषियों के भी काम-काज, घर-बार और दैनिक जीवन के प्रयोग-अनुप्रयोग में , शासकीय गैरशासकीय वेबसाइट्स की सूचनाओ के माध्यम से भी हिन्दी समृद्ध होती जा रही है . दुनिया भर के हिन्दी लेखक नेट संवाद के जरिये पास आ रहे हैं . इंटरनेट पर हिन्दी लेखन की सबसे बड़ी कमी उसका वर्चुएल होना और उसका कोई स्थाई संग्रहण न होना है . यद्यपि आज भी कम्प्यूटर पर हिन्दी इतनी समृद्ध हो चुकी है कि जब भी हमें कुछ संदर्भ आवश्यक होता है , हम पुस्तकालय जाने से पहले संदर्भ सामग्री की तलाश इंटरनेट पर ही करते हैं , यह उपलब्धि बहुत महत्वपूर्ण है तथा भविष्य के लिये स्पष्ट संकेत है . सर्च इंजन की कुशलता बढ़ने के साथ ही हमारी संदर्भ के लिये यह निर्भरता और बढ़ती जायेगी . कम्प्यूटर लेखन के साफ्ट कापी से हार्ड कापी में नव परिवर्तनों के इस दौर में प्रिंटंग प्रौद्योगिकी की बढ़ती सुविधाओ के चलते पुस्तक प्रकाशन अब पहले से कहीं सरल हो चला है , इससे भी हिन्दी के विकास को प्रोत्साहन मिला है .

संसद से सड़क तक….बाज़ार से बस्ती तक…शिक्षित से सुशिक्षित तक….चूल्हे-चौके से चौक तक ..मिल से मॉल तक …कैटल क्लास से कॉर्पोरेट क्लास तक .. हिन्दी भाषा किसी  प्रचार की मोहताज़ नही है  .हिन्दी का  अपना प्रवाह , अपना समृद्ध शब्दकोष ,अपना व्याकरण है .हिन्दी जड़ता से परे विकासशील और उदारवादी भाषा है .  महात्मा गांधी विश्व  चिंतक थे ,  उन्होने हिन्दी को देश को जोड़ने के लिये आवश्यक बताते हुये इसे राष्ट्रभाषा बताया था .  अपने परिवेश की बोलियों , अन्य भाषाओ  तथा नई प्रौद्योगिकी के संसाधनो को समाहित करने की क्षमता ही हिन्दी को सहज और सर्वस्वीकार्य बनाती है.  भूमण्डलीकरण एवं नई प्रौद्योगिकी से हिन्दी और भी समृद्ध होगी .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 90 –आजादी की कीमत कितना समझे हम ? ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  समसामयिक विषय पर आधारित एक समसामयिक एवं विचारणीयआलेख  “आजादी की कीमत कितना समझे हम ? । इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 90 ☆

 ? आलेख – आजादी की कीमत कितना समझे हम ??

मैं अपनी बात महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की पंक्तियों से आरंभ करती हूँ ….

 हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार

उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार

जहां पर ज्ञान, संस्कृति, संस्कार और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने जीवन को न्यौछावर कर देने वाले वीर सपूतों की गिनती नहीं की जा सकती, और उनके बलिदानों के कारण ही आज हम अपनी गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो स्वतंत्रता का फल और जीवन जी रहे हैं। बहुत ही सुंदर शब्दों में एक गाना है जो आप सभी गुनगुनाते हैं….

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के
 इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के

क्या? कभी गाने के पीछे छिपी मनसा या उस पर विचार किया गया? एक एक शब्द में विचार करके देखिए की गुलामी की तूफान से स्वतंत्रता रूपी कश्ती को हम अब तुम सब के हवाले कर रहे हैं इसे बचा कर रखना भी है और आगे तक ले जाना भी है।

परंतु नहीं हम केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी को मातृभूमि देशभक्ति के गीत गाकर या तिरंगा फहराकर, हाथों में बांध ली या गाल पर चिपका लिए और अपना कर्तव्य समझ शाम के आते-आते सब भूल जाते हैं।

एक सच्ची घटना को बताना चाहूंगी एक बार मैं 15 अगस्त के आस पास एक हाथ ठेले पर एक बूढ़े दादाजी से छोटे छोटे तिरंगा झंडा खरीद रही थी और बातों ही बातों में उनसे कहा कि…. यही तिरंगा बड़े दुकानों पर महंगे दामों पर बेच रहे हैं और आप क्यों सस्ते दामों पर बेच रहे हैं। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा…. बिटिया यह तिरंगा मैं बेच नहीं रहा मैं तो हमारे भारत के झंडे को जगह-जगह फैला रहा हूं। सभी के हाथों और गाड़ियों पर एक दिन ही सही तिरंगा लगा दीखे।

इसलिए जो जितना दे रहा है मैं कोई मोल भाव नहीं कर रहा। उनकी बातों से में प्रभावित हो उन्हें प्रणाम करते चली गई। आज भी उनके लिए मन श्रद्धा से भर उठता है कि उन दादा जी ने आजादी की कीमत कितना आंका हैं।

आधुनिक भारत में आजादी का मतलब राजनीति का भी होना को चुका है। जिसके दुष्परिणाम आप सब देख रहे हैं। आज सबसे बड़ी आजादी का मतलब युवा वर्ग निकाल रहा है। भारत में चरित्रिक पतन अपनी चरम सीमा पर है। जिसके कारण परिवारों का विघटन और अपनों का टूटता हुआ घर सरेआम दिखाई दे रहा है।

जिस देश में नदी पहाड पेड़ पौधे और तीर्थ स्थलों का पूजा महत्व दर्शाया गया है। वहां पर आज सांप्रदायिकता, आतंकवाद, भाषाभेद मतभेद और कुछ बचा तो राजनीतिक   पार्टियों के कारण आपसी मनमुटाव बढ गया है।

भारत स्वतंत्र हो चुका है परंतु संघर्षरत बन गया है। हर जगह एकता संगठन औरअनुशासन की कमी दिखाई दे रही है।

प्राचीन सभ्यताएं नष्ट हो चुकी है।  देश भक्ति की भावना महज दिखावा बनकर रह गया है। हम अपने आजादी को गलत रूप में गले लगा आगे बढ़ते जा रहे हैं। जो निश्चित ही पतन की ओर लिए जा रहा है।

आचार विचार, परस्पर सहयोग और सद्भावना मानवता जैसे शब्द अब केवल लिखने और बिकने को ही मिल रहे हैं। किसी को किसी के लिए समय नहीं है। आज मां बाप को शिक्षा की आजादी और उनकी योग्यता समझ चुप हो जाते हैं परंतु जब गलत दिशा पर जाने लगते हैं। तब वो ही आजादी कष्टदायक लगने लगती है।

विलासिता भरा जीवन अपने आप को आजादी का रूप मानने लगे हैं। आजादी का दुष्परिणाम तो आज घर घर छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बड़ो तक बात सुनने में आता है क्या इसे ही आजादी कहा जाए? सम्मान सूचक शब्द और आदर करना पुराने रीति रिवाज लगते हैं। खुले आम गले में बाहें डाल गाड़ियों में बैठे ऐसे कितने नौजवान बेटे बेटियां दिखाई देते हैं क्या? इसे हम आजादी कहते हैं।

यदि किसी ने प्यार से समझाना भी चाहा तो उपहार कर या हूंटिग कर आगे बढ़ जाते हैं।

अगर हमारे वीर जवान ऐसे ही होते तो क्या… हमारा अपना भारतवर्ष गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हो सकता था। कभी नहीं उन्हें तो उस समय देश प्रेम और अपनी मातृभूमि के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता था। एक आठ साल का बच्चा भी अपने गुलाम भारत को मुक्त कराने के लिए रणबांकुरे बन अपनी आहुति दे देता था।

भारतीय नारी भी अपने पूर्ण परिधानों को पहन जौहर होने या तलवार चलाने से नहीं चुकी है। इसे कहते हैं आजादी। धन्य है वह भारत के वीर सपूतों को शत शत नमन जिनके कारण आज हम स्वतंत्र भारत के नागरिक कहलाए।

स्वतंत्रता रुपी धरोहर को बचाए रखना और इसे सुरक्षित रखना हमारा कर्तव्य समझना चाहिए और इसके लिए नागरिकों को जागरुक होना चाहिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print