हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘अ’ से अटल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ? ‘अ’ से अटल ? ?

(आज अटल जी की तृतीय पुण्यतिथि है। 16 अगस्त 2018 को उनके महाप्रयाण पर उद्भूत भावनाएँ साझा कर रहा हूँ।)

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व अनुभव करने का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था। अधिकांश परिवारों में माता,पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ अपने प्रिय वक्ता को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!
इस शख्सियत को समझी नहीं
चकरा गई हैं आप,
कौवों की राजनीति में
राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!
सौगंध है आपको
हमें छोड़ मत जाना,
अगर आप चले जायेंगे
तो वेश्या-सी राजनीति
गिद्धों से राजनेताओं
और अमावस सी व्यवस्था में
दीप जलाने
दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी अजर रहेंगे, अमर रहेंगे!

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©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 98 ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – जयहिंद! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 98 ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – जयहिंद! ☆

विश्व के हर धर्म में स्वर्ग की संकल्पना है। सद्कर्मों द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति का लक्ष्य है। हमारे ऋषि-मुनियों ने तो इससे एक कदम आगे की यात्रा की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि मातृभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध हमारे राजाओं का संघर्ष इसी की परिणति था।

कालांतर में अँग्रेज़ आया। संघर्ष का विस्तार हुआ। आम जनता भी इस संघर्ष में सहभागी हुई।

संघर्ष और स्वाधीनता का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। स्वाधीन होने और स्वाधीन रहने के लिए निरंतर संघर्ष अनिवार्य है। मृत्यु का सहज वरण करने का साहस देश और देशवासियों की अखंड स्वतंत्रता का कारक होता है।

एक व्यक्ति ने एक तोता पकड़ा। उड़ता तोता पिंजरे में बंद हो गया। वह व्यक्ति तोते के खानपान, अन्य सभी बातों का ध्यान रखता था। तोता यूँ तो बिना उड़े, खाना-पीना पाकर संतुष्ट था पर उसकी मूल इच्छा आसमान में उड़ने की थी। धीरे-धीरे उस व्यक्ति ने तोते को मनुष्यों की भाषा भी सिखा दी। एक दिन तोते ने सुना कि वह व्यक्ति अपनी पत्नी से कह रहा था कि अगले दिन उसे सुदूर के एक गाँव में किसी से मिलने जाना है। सुदूर के उस गाँव में तोते का गुरु तोता रहता था। तोते ने व्यक्ति से अनुरोध किया कि गुरू जी को मेरा प्रणाम अर्पित कर मेरी कुशलता बताएँ और मेरा यह संदेश सुनाएँ कि मैं जीना चाहता हूँ। व्यक्ति ने ऐसा ही किया। शिष्य तोते का संदेश सुनकर गुरु तोते अपने पंख अनेक बार जोर से फड़फड़ाए, इतनी जोर से कि निष्चेष्ट हो ज़मीन पर गिर गया।

लौटकर आने पर व्यक्ति ने अपने पालतू तोते सारा किस्सा कह सुनाया। यह सुनकर दुखी हुए तोते ने पिंजरे के भीतर अपने पंख अनेक बार जोर-जोर से फड़फड़ाए और निष्चेष्ट होकर गिर गया। व्यक्ति से तोते की देह को बाहर निकाल कर रखा। रखने भर की देर थी कि तोता तेज़ी से उड़कर मुंडेर पर बैठ गया और बोला, ” स्वामी, आपके आपके स्नेह और देखभाल के लिए मैं आभारी हूँ पर मैं उड़ना चाहता हूँ और उड़ने का सही मार्ग मुझे मेरे गुरु ने दिखाया है। गुरुजी ने पंख फड़फड़ाए और निश्चेष्ट होकर गिर गए। संदेश स्पष्ट है, उड़ना है, जीना है तो मरना सीखो।”

नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी जून 1944 के अपने ऐतिहासिक भाषण में अपने सैनिकों से यही कहा था। उनका कथन था,” किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए- मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके। एक शहीद की मौत मरने की इच्छा जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके।”

देश को ज़िंदा रखने में मरने की इस इच्छा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। 1947 का कबायली हमला हो, 1962, 1965, 1971 के युद्ध, कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद, कारगिल का संघर्ष या सर्जिकल स्ट्राइक, बलिदान के बिना स्वाधीनता परवान नहीं चढ़ती। क्रांतिकारियों से लेकर हमारे सैनिकों ने अपने बलिदान से स्वाधीनता को सींचा है।स्मरण रहे, थे सो हम हैं।

आज स्वाधीनता दिवस है। स्वाधीनता दिवस देश के नागरिकों का सामूहिक जन्मदिन है। आइए, सामूहिक जन्मोत्सव मनाएँ, सबको साथ लेकर मनाएँ। इस अनूठे जन्मोत्सव का सुखद विरोधाभास यह कि जैसे-जैसे एक पीढ़ी समय की दौड़ में पिछड़ती जाती है, उस पीढ़ी के अनुभव से समृद्ध होकर देश अधिक शक्तिशाली और युवा होता जाता है।

देश को निरंतर युवा रखना देशवासी का धर्म और कर्म दोनों हैं। चिरयुवा देश का नागरिक होना सौभाग्य और सम्मान की बात है। हिंद के लिए शरीर के हर रोम से, रक्त की हर बूँद से ‘जयहिंद’ तो बनता ही है।…जयहिंद!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ स्वतंत्रता दिवस विशेष – बुंदेलखंड में स्वतंत्रता आन्दोलन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज प्रस्तुत है स्वतंत्रता दिवस पर विशेष आलेख –  “बुंदेलखंड में स्वतंत्रता आन्दोलन”)

☆ स्वतंत्रता दिवस विशेष – बुंदेलखंड में स्वतंत्रता आन्दोलन ☆ 

बुंदेलखंड पथरीला है दर्पीला है और गर्वीला भी। इसकी सीमाएं नदियों ने निर्धारित की हैं

“ इत यमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस।

छत्रसाल से लरन की, रही न काहू हौस।I”

वर्तमान  में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच विभक्त बुंदेलखंड में स्वतंत्रता की सुगबुगाहट तो 1857 की पहली क्रान्ति से ही शुरू हो गई थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में बुंदेले धर्म और जाति का बंधन भूलकर एक झंडे के नीचे एकत्रित हो गए और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल फूंक दिया। यद्दपि 1847 के बुन्देला विद्रोह को, जिसमें कुछ देशी रियासतों व जागीरदारों ने भाग लिया था, अंग्रेजों ने क्रूरता से कुचल दिया था और इस कारण ओरछा, पन्ना, छतरपुर, दतिया आदि  बड़ी रियासतों ने झाँसी की रानी का साथ न देकर अंग्रेजों से सहयोग किया और विद्रोह को कुचलने में अपनी रियासतों से सैन्य दल भेजे तथापि बांदा के नवाब अली बहादूर, शाहगढ़ के राजा बखत बली, बानपुर के राजा मर्दन सिंह आदि ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में न केवल भाग लिया वरन अपनी तलवार का तेज दिखाया।

इस क्रान्ति के असफल होने के बाद लम्बे समय तक बुंदेलखंड में स्वंत्रतता की चिंगारी दबी  रही। लेकिन 1915 में गांधीजी के भारत  आगमन, 1917 के चम्पारण सत्याग्रह और जालियाँवाला बाग़ काण्ड और फिर 1921 में कांग्रेस द्वारा शुरू किए असहयोग आन्दोलन की ख़बरें बुंदेलखंड पहुँचने लगी, और रियासतकालीन बुंदेलखंड में इन आन्दोलनों की, महात्मा गांधी की चर्चा होने लगी। काकोरी में रेलगाड़ी से अंग्रेजों का खजाना लूटने के बाद,काकोरी काण्ड के नायक चंद्रशेखर आज़ाद, बहुत समय तक ओरछा के जंगलों मे छद्म वेश में रहे और आसपास  की रियासतों ने उन्हें हथियार उपलब्ध करवाकर क्रान्ति की मशाल को जलाए रखने में सहयोग दिया।  छतरपुर और अजयगढ़ रियासत के किसानों ने चंपारण सत्याग्रह से प्रेरित होकर लगान बंदी आन्दोलन 1932 में  शुरू कर दिया। रियासतों ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए गोलियां चलाई और अनेक लोग इस गोलीचालन में शहीद भी  हो गए। अजयगढ़ रियासत में लगान बंदी आन्दोलन का नेतृत्व गया प्रसाद शुक्ला ने किया। जब मैं स्टेट बैंक की वीरा शाखा में पदस्थ था तो उनके वंशजों, जिनके भवन में हमारी शाखा लगती थी,  से इस आन्दोलन के किस्से सुने थे। बाद में अंग्रेजी शासन ने इन  आन्दोलनों को कुचलने के प्रयासों की जांच करवाई  और लगान में कुछ रियायतें दी गई।

जब 1937 गांधी इरविन समझौता हो गया और संयुक्त प्रांत स्थित  ब्रिटिश शासनाधीन बुंदेलखंड में विधान सभाओं के चुनाव हुए तब जवाहर लाल नेहरु जैसे राष्ट्रीय नेताओं का दौरा  इस क्षेत्र में हुआ और उस दौरान वे रियासती बुंदेलखंड में भी गए। इन दौरों का असर यह हुआ कि छोटी छोटी रियासतों में भी स्वतंत्रता के नारे गूंजने लगे। राजा-महाराजा अंग्रेजों को खुश करने के प्रयास में इन आन्दोलनों को कुचलने का प्रयास करते, गोली चलवाते पर महात्मा गांधी के एकादश व्रतों में से एक अभय ने जनता के मन से पुलिस के डंडे, जेल, गोली, मौत आदि का भय ख़त्म कर दिया था। 

कालान्तर में अनेक रियासतों के राजतंत्र विरोधी व्यक्तित्व, कांग्रेसी नेताओं के संपर्क में आये।उनके  जबलपुर और इलाहाबाद के कांग्रेसी नेताओं के प्रगाढ़ संबधों के चलते, बुंदेलखंड में भी  कांग्रेस का संगठन, प्रजा परिषद् के नाम से गठित किया गया। यह संगठन झंडा जुलूस निकालता, और नारे लगाता। बुंदेलखंड और पूरे देश में उन दिनों एक नारा बहुत प्रसिद्ध था “ एक चवन्नी चांदी की जय बोलो महात्मा गांधी की।” प्रजा परिषद ने 15 अगस्त 1947 के बाद अनेक रियासतों में जबरदस्त जन आन्दोलन चलाए।  इसकी परिणामस्वरूप देशी रियासत के शासकों में भारत संघ में विलय करने की भावना जागृत हुई और मैहर जैसी कुछ रियासतों को छोड़कर सभी ने विलय पत्र पर आसानी से हस्ताक्षर कर दिए।

महात्मा गांधी के संपर्क में आये अनेक युवाओं ने भी इन रियासतों में महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य शुरू किये। ऐसे ही एक विलक्षण पुरुष वियोगी हरी, जिनका जन्म छतरपुर में हुआ था, महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यों को धरातल में उतारने  1925 के आसपास पन्ना  रियासत में शिक्षा अधिकारी बन कर आये। वे लगभग छह वर्ष तक पन्ना में रहे और शिक्षा के प्रचार प्रसार में उन्होंने  महती भूमिका निभाई। उन्होंने पन्ना रियासत के सरदारों, पुलिस अधीक्षक, महाराजा  आदि से अपनी चर्चा के आधार पर  यह निष्कर्ष निकाला कि उनके स्वराज संबंधी विचारों को सरदार  शंका की दृष्टि से देखते थे और सहसा विश्वास नहीं करते थे कि स्वराज आ सकता है। महाराजा भी यह जानते हुए कि वियोगी हरी कांग्रेसी विचारों के समर्थक हैं उन्हें विशेष तौर आमंत्रित कर अपनी रियासत में लाये थे, पर उनकी बातों को वे पसंद नहीं करते थे। वियोगी हरी ने देशभक्ति की भावना बढाने के उद्देश्य से छत्रसाल स्मारक (मूर्ति) की स्थापना   और छत्रसाल के ग्रंथों का सम्पादन व प्रकाशन हेतु महाराजा को तैयार किया। उन्होंने नए स्कूल खुलवाये, बालिका शिक्षा को बढ़ावा दिया और काफी विरोध के बावजूद हरिज़न उत्थान व छुआछूत को मिटाने अभियान चलाये। ऐसे ही प्रयासों से देशी  रियासतों में परिवर्तन की बयार बहने लगी।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 108 ☆ पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित रामेश्वर गुरू स्मृति शताब्दि समारोह के अवसर पर वैचारिक आलेख – पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकारइस ऐतिहासिक रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

रामेश्वर गुरू स्मृति शताब्दि समारोह के अवसर पर वैचारिक आलेख 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 108 ☆

? पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार ?

पं. रामेश्वर गुरू  कलम से ही नहीं मैदानी कार्यो से भी आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार 

वर्ष १९५० का दशक, तब जबलपुर एक छोटा शहर था। कुल दो कालेज थे। विश्वविद्यालय नहीं था। तब शहर के साहित्य के केंद्र में पं. भवानी प्रसाद तिवारी तथा रामेश्वर गुरू थे।शहर के अन्य व्यक्ति जो बहुत अध्ययनशील तथा रचनाशील थे, वे थे बाबू रामानुजलाल श्रीवस्तव ऊंट’, नाटककार बाबू गोविंद दास, सुभद्रा कुमारी चौहान भी थी, जिनका बड़ा रौब-दाब था। परसाई जी व अन्य युवा लेखक व पत्रकार इन सुस्थापित व्यक्तित्वो से संपर्क में रहकर अपनी कलम को दिशा दे रहे थे. पं रामेश्वर गुरु ने पत्रकारिता के शिक्षक की भूमिका भी इन नये लेखको के लिये स्वतः ही अव्यक्त रूप से निभाई. 

‘अमृत बाजार पत्रिका’ दैनिक समाचार पत्र के प्रतिनिधि के रूप में पं रामेश्वर गुरू

वर्ष १९४६ में पं. रामेश्वर गुरू जी जबलपुर के प्रतिष्ठित क्राइस्ट चर्च के हाई स्कूल में अध्यापक थे पर साथ ही वे आजीवन एक सजग पत्रकार भी रहे । उनकी पत्रकारिता में भी रचनात्मक गुण थे। अपने लेखन से ‘अमृत बाजार पत्रिका’ दैनिक समाचार पत्र के प्रतिनिधि के रूप में उन्होने जबलपुर की सकारात्मक छबि राष्ट्रीय स्तर पर बनाई. 

प्रहरी के संपादक   

वर्ष १९४७ मे तिवारी जी और गुरू जी के संपादकत्व में ‘प्रहरी’ साप्ताहिक पत्र जबलपुर से निकला। यह तरूण समाजवादियों का पत्र था और प्रखर था। इसी पत्र में परसाई उपनाम से हरिशंकर परसाई जी की  पहली रचना छपी. परसाई जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि प्रहरी के माध्यम से ही  गुरू जी से उनका परिचय हुआ। वे उनके घर जाने लगे। उनके निकट जाने पर परसाई जी को मालूम हुआ कि गुरू जी कितने अध्ययनशील साहित्य प्रेमी और रचनाकार थे। 

प्रहरी’ में वे नियमित लिखते थे। गंभीर भी, आलोचनात्मक भी और व्यंग्यात्मक भी। उनकी भाषा बहुत प्रखर और बहुत जीवंत थी। वे ‘प्रहरी’ में इस प्रतिभा के साथ बहुत धारदार लेख लिखते थे। उनके लेखों में  गहरी संवेदना होती थी। वे गरीबों, शोषितों के पक्षधर थे। इस वर्ग के लोगों पर उनके रेखाचित्र बहुत संवेदनपूर्ण और बहुत मार्मिक है। दूसरी तरफ़ वे सत्ता और उच्चवर्ग की आत्मकेंद्रित जीवन शैली के विरोधी थे। सत्ता चाहें राजनैतिक हो या आर्थिक या साहित्यिक- उस पर वे प्रहार करते थे। घातक प्रव्रत्तियों में लिप्त बड़े व्यक्तियों पर वे बिना किसी डर के बहुत कटु प्रहार करते थे।

पं. रामेश्वर गुरू का व्यंग काव्य 

 ‘प्रहरी’ में वे व्यंग्य काव्य भी लिखते थे जिसका शीर्षक था- बीवी चिम्पो का पत्र। यह हर अंक में छपता था और लोग इसका इंतजार करते थे। उसी पत्र में ‘राम के मुख से’ कटाक्ष भी वे लिखते थे।

पं. रामेश्वर गुरू का बाल साहित्य  

‘प्रहरी’ में एक पृष्ठ बच्चों के लिए होता था। उसे गुरू जी संपादित करते थे और इसमें लिखते भी थे। यह पृष्ठ सुदन और मुल्लू के नाम से जाता था। “सुदन” पं भवानी प्रसाद तिवारी जी का घर का नाम था और “मुल्लू” गुरू जी का। गुरू जी बाल साहित्य में बहुत रूचि लेते थे और उन्होंने बच्चों के लिए नाटक भी लिखे थे। ‘प्रहरी’ की फ़ाइलों में उनका लिखा ढेर सारा बाल साहित्य है, जिसके संकलन तैयार किये जाने चाहिये.

‘वसुधा’ मासिक पत्रिका में सहयोग 

पं. रामेश्वर गुरू का बहुत महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य ‘वसुधा’ मासिक पत्रिका का पौने तीन वर्षों तक प्रकाशन था। इस पत्रिका में सहयोग सबका था, पर ‘वसुधा’ तब बिखरे हुए प्रगतिशील साहित्यकारों की पत्रिका थी।गुरू जी बौद्धिक भी थे और भावुक भी। वे छायावादी युग के थे, मगर छायावादी कविताएं उन्होंने नहीं लिखी। वे दूसरे प्रकार के कवि थे। माखनलाल चतुर्वेदी का प्रभाव उन पर था, पर वह प्रभाव प्यार, मनुहार, राग का नहीं, राष्ट्र्वाद का था। भाषा श्री माखनलाल जी से प्रभावित थी। कवि भवानी प्रसाद मिश्र उनके अभिन्न मित्र थे। कुछ प्रभाव उनका भी रहा होगा। गुरू जी की कविताओं पर न निराला का प्रभाव है, न पंत का। इस मामले में वे सर्वथा स्वतंत्र थे। उनकी कविताओं में देश प्रेम, सुधारवादिता, और जनवादिता है। वे संवेदनशील थे और गरीब शोषित वर्ग के प्रति उनकी स्थाई सहानुभूति थी। वे इस वर्ग के संघर्ष, अभाव और दुख पर कविताएं लिखते थे। वे उदबोधन काव्य भी लिखते थे। तरूणों का, मजदूरों का, संघर्ष और परिवर्तन के लिए आव्हान अपनी कविताओं में वे करते थे। 

उनकी शब्द-सामर्थ्य बहुत थी और वे मुहावरों के धनी  थे। वे बहुत अच्छी बुंदेली जानते थे और उनकी बुंदेली कविताएं बहुत अच्छी है। व्यंग्य काव्य अकसर वे बुंदेली में लिखते थे।

पं. रामेश्वर गुरू  मैदानी कार्यो से भी जनता के प्रतिनिधी पत्रकार 

पं. रामेश्वर गुरू ने जनता के प्रतिनिधी पत्रकार की भूमिका न केवल कलम से वरन अपने मैदानी कार्यो से भी निभाई है.  सुभद्राकुमारी चौहान की प्रतिमा की स्थापना नगर निगम कार्यालय के सामनेवाले लान में उन्होने ही  कराई। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के अभिनंदन में समारोह आयोजित किया। चिकित्सक और राजनीतिज्ञ डा. डिसिल्वा की स्मृति में उन्होंने डिसिल्वा रतन श्री माध्यमिक विद्यालय की  स्थापना कराई। वे जब शहर के मेयर बने, तब महात्मा गांधी और पंडित मदनमोहन मालवीय की आदमकद प्रतिमाओं की स्थापना उन्होने करवाई। अपने मित्र प्रसिद्ध पत्रकार हुकुमचंद नारद की स्मृति में उन्होंने विक्टोरिया अस्पताल में विश्राम-कक्ष भी बनवाया।

इस तरह पं. रामेश्वर गुरू  ने पत्रकारिता के वास्तविक मायने और आदर्श हमारे सामने रखे हैं, जिनके अनुसार पत्रकारिता केवल स्कूप स्टोरी या सनसनी फैलाना नही वरन समाज और लोकतंत्र के चौथे  स्तंभ के रूप में जनहितकारी सशक्त भूमिका का निर्वहन है. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 89 –विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!– ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीयआलेख  विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!। इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 89 ☆

 ? आलेख – विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!  ?

आपने कभी सोचा कि हर प्रार्थना का उत्तर नहीं आता है और कई बार भगवान का भेजा हुआ संदेश इंसान समझ नहीं पाता है?? ऐसा क्यों होता है कि – अपनों का साथ बीच में ही छूट जाता है?

आज जो विषम परिस्थितियां बनी हैं। वे पहले भी बन चुकी हैं। एक सृष्टिकर्ता केवल सृष्टि करते जाए तो सोचिए क्या होगा ? वसुंधरा तो पूरी तरह नष्ट हो जाएगी न। इसीलिए विनाश या जिसे प्रलय या नष्ट होना कहा जाता है। इसका होना भी नितांत आवश्यक है।

विनाश और विकास के बीच संतुलन कैसे हो इस पर किसी कवि की सुंदर पंक्तियां हैं….

सब कुछ करता रहता फिर भी मौन है

सब को नचाने वाला आखिर कौन है

आज देखा जाए तो कोई भी ऐसा इंसान नहीं है जिसने अपनों को नहीं खोया है। सारी सृष्टि हाहाकार कर उठी है। विनाश की ज्वाला ने धधक कर लाशों का ढेर बना दिया  और ऐसा विनाश रचा कि मानव मन भी आशंकित है।

किसी को किसी अपनों का कांधा नसीब नहीं हुआ तो किसी को अंतिम दर्शन भी नहीं मिले। यह विडंबना प्रकृति का एक ज्वलंत रूप ही है। आज का दृश्य सदियों बाद याद किया जायेगा। 

आज हम हैं कल हमारी यादें होंगी

जब हम ना होंगे हमारी बातें होंगी

कभी पलटोगे जिंदगी के पन्ने

तब शायद आपकी आंखों में भी बरसात होगी

यह विनाश की कहानी हमारी आने वाली कई पीढ़ियां याद करेगी। प्रकृति का नियम है और गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है…. मां के पेट से और पृथ्वी पर जन्म लेने वाला जो है उसका अंत उसी के चुने हुए कर्मों से होता है। पर विनाश सुनिश्चित है।

हम सब माया मोह के बंधन में भूल जाते हैं मेरा घर, मेरा बेटा, मेरा परिवार और मैं ही सर्वशक्तिमान, उस परम शक्ति को एक किनारे कर देते हैं। इस पर एक सुंदर सी घटना आपको याद दिलाती हूँ। एक राजा अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। सारे जतन कर उसने वरदान प्राप्त किया कि…. जिसे भी वह छुए सब सोना हो जाए। विधाता ने तथास्तु कहकर सब नियंत्रित किया।

राजा की बेटी ने मांगा था कि उसकी मृत्यु अपने पिता के हाथों हो। राजा सब कुछ बड़े ध्यान से छूता। पर क्षण भर में ही वरदान उससे विनाश की ओर ले चला। राज्य का सारा राजपाट हर वस्तु सोने की हो निर्जीव हो गई।

बेटी खेलते खेलते आई राजा परेशान था। बेटी को गले लगाना चाहा पर।  यह क्या बात हुई वह छूते ही सोने की हो गई।

सृष्टि ने राजा को विकास और विनाश की घटना क्षणभर की ही लिखी थी।

ठीक वैसा ही मानव सब कुछ अपने हाथों लेकर आतताई बनने लगा था, परंतु सृष्टि की गतिविधि सभी को अलग-अलग कर नष्ट नहीं कर सकती थी। कहीं तूफान, कहीं जल का भयंकर प्रकोप, कहीं सूखा, तो कहीं कोरोना जैसी महामारी।

समूचा विश्व नष्ट होने की कगार पर था। उसने अपने शक्ति का आभास कराया और कुछ महात्मा जीव के कारण कहीं जीवन दायक हवा बनी, कहीं टीका बना और कहीं जीवन रक्षक दवाइयां, कहीं अच्छी चीजों का आविष्कार हुआ। शक्ति का संतुलन फिर से बनने लगा।

आत्मा कभी मर नहीं सकती, ना जल सकती है, न टूट सकती है, और ना खत्म हो सकती है, आत्मा अमर है।

नैन छिंदन्ती शस्त्राणि, नैन दहति पावकः

न चैनः क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः

बस एक नयी काया कवच से जीवन का फिर से आरंभ होता है। यही प्रकृति की विनाश और विकास की प्रक्रिया है। बिना दर्द के आंसू बहते नहीं है इसीलिए यह वक्त आया जो बहुत कुछ सिखा गया।

संपूर्ण जीवन की परिभाषा विकास विनाश से ही होकर गुजरती है। रेगिस्तान भी हरा हो जाता है।

जब अपने अपनों के साथ खड़े हो जाते हैं।  अब हमें हमारे जो अपने हैं उन्हें फिर से जीवन की आश नहीं छोड़नी चाहिए अपनों को समेट कर नई जिंदगी की शुरुआत करनी चाहिए।

चलिए जिंदगी का जश्न

कुछ इस तरह मनाते हैं

कुछ अच्छा याद रखते हैं

कुछ बुरा भूल जाते हैं

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 97 ☆ सामान्य लोग, असामान्य बातें ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 97 ☆ सामान्य लोग, असामान्य बातें ! ☆

सुबह का समय है। गाय का थैलीबंद दूध लेने के लिए रोज़ाना की तरह पैदल रवाना हुआ। यह परचून की एक प्रसिद्ध दुकान है। यहाँ हज़ारों लीटर दूध का व्यापार होता है। मुख्य दुकान नौ बजे के लगभग खुलती है। उससे पूर्व सुबह पाँच बजे से दुकान के बाहर क्रेटों में विभिन्न ब्रांडों का थैलीबंद दूध लिए दुकान का एक कर्मचारी बिक्री का काम करता है।

दुकान पर पहुँचा तो ग्राहकों के अलावा किसी नये ब्रांड का थैलीबंद दूध इस दुकान में रखवाने की मार्केटिंग करता एक अन्य बंदा भी खड़ा मिला। उसके काफी जोर देने के बाद दूधवाले कर्मचारी ने भैंस के 50 लीटर दूध रोज़ाना का ऑर्डर दे दिया। मार्केटिंग वाले ने पूछा, “गाय का दूध कितना लीटर भेजूँ?” ….”गाय का दूध नहीं चाहिए। इतना नहीं बिकता,” उत्तर मिला।…”ऐसे कैसे? पहले ही गायें कटने लगी हैं। दूध भी नहीं बिकेगा तो पूरी तरह ख़त्म ही हो जायेंगी। गाय बचानी चाहिए। हम ही लोग ध्यान नहीं देंगे तो कौन देगा? चाहे तो भैंस का दूध कुछ कम कर लो पर गाय का ज़रूर लो।”….”बात तो सही है। अच्छा गाय का भी बीस लीटर डाल दो।” ..संवाद समाप्त हुआ। ऑर्डर लेकर वह बंदा चला गया। दूध खरीद कर मैंने भी घर की राह ली। कदमों के साथ चिंतन भी चल पड़ा।

जिनके बीच वार्तालाप हो रहा था, उन दोनों की औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर थी। अलबत्ता जिस विषय पर वे चर्चा कर रहे थे, वह शिक्षा की सर्वोच्च औपचारिक पदवी की परिधि के सामर्थ्य से भी बाहर था। वस्तुतः जिन बड़े-बड़े प्रश्नों पर या प्रश्नों को बड़ा बना कर शिक्षित लोग चर्चा करते हैं, सेमिनार करते हैं, मीडिया में छपते हैं, अपनी पी.आर. रेटिंग बढ़ाने की जुगाड़ करते हैं, उन प्रश्नों को बड़ी सहजता से उनके समाधान की दिशा में सामान्य व्यक्ति ले जाता है।

एक सज्जन हैं जो रोज़ाना घूमते समय अपने पैरों से फुटपाथ का सारा कचरा सड़क किनारे एकत्रित करते जाते हैं। सोचें तो पैर से कितना कचरा हटाया जा सकता है..! पर टिटहरी यदि  रामसेतु के निर्माण में योगदान दे सकती है तो एक सामान्य नागरिक की क्षमता और  उसके कार्य को कम नहीं समझा जाना चाहिए।

आकाश की ओर देखते हुए मनुष्य से प्राय: धरती देखना छूट जाता है। जबकि सत्य यह है कि सारा बोझ तो धरती ने ही उठा रखा है। धरती की ओर मुड़कर और झुककर देखें तो ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपने-अपने स्तर पर समाज और देश की सेवा कर रहे हैं।

इन लोगों को किसी मान-सम्मान की अपेक्षा नहीं है। वे निस्पृह भाव से अपना काम कर रहे हैं।

युवा और किशोर पीढ़ी, वर्चुअल से बाहर निकल कर अपने अड़ोस-पड़ोस में रहनेवाले इन एक्चुअल रोल मॉडेलों से प्रेरणा ग्रहण कर सके तो उनके समय, शक्ति और ऊर्जा का समाज के हित में समुचित उपयोग हो सकेगा।

सोचता हूँ, सामान्य लोगों की असामान्य बातों और तदनुसार क्रियान्वयन पर  ही जगत का अस्तित्व टिका है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ उधार की बैसाखी पर टिकी हिंदी लघुकथा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  
आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है हिंदी लघुकथा पर उनकी बेबाक राय रखता हुआ एक विचारणीय आलेख ‘उधार की बैसाखी पर टिकी हिंदी लघुकथा’। )

☆ उधार की बैसाखी पर टिकी हिंदी लघुकथा : डॉ. कुंवर प्रेमिल

‘चहुं ओर लघुकथाएं फैली हैं! ‘

यह मैं अकेला नहीं कह रहा हूं, बल्कि हर कोई कह रहा है. पढे लिखे,  बिना पढ़े-लिखे सभी लघुकथा के फैन हैं. सभी लघुकथाएं पढ़ रहे हैं. कहते हैं लंबी-लंबी कहानी पढ़ने के लिए किसके पास समय है. लघुकथा सरल-सुबोध है. हर जगह उपलब्ध है.

ट्रेन में सफर करते चलो, लघुकथाएं पढ़ते चलो, पढ़ते-पढ़ते दिल्‍ली पहुंच गए तो वहां तो लघुकथा के समुद्र में ही पहुंच गए. एक से बढ़कर एक. छोटी, मंझोली और बड़ी भी. कोई दो पंक्ति की, कोई एक पृष्ठ भर की, कोई डेढ़ दो पृष्ठ की भी मिल जाएगी.

लघुकथा के पास पाठकों की कमी नहीं है. लघुकथाकार हैं तो पाठक भी हैं. पाठकों के मामले में लघुकथा धनवान है. वरिष्ठ लघुकथाकार तो हैं ही, पढ़ते-पढ़ते पाठक भी न जाने कब लघुकथा लिखने लगता है, पता ही नहीं चलता. कहानी-कविता के बनिस्बत लघुकथा लिखना ज्यादा सरल प्रतीत होता है.

डॉ. शंकर पुणतांबेकर ने कहा है- ‘ कविता में कथा न हो तो प्रसंग तो होता ही है. इस मायने में कविता और लघुकथा परस्पर निकट हैं. हां समीक्षक इसे स्वीकार न करें यह अलग बात है. लघुकथा के साथ यह त्रासदी है कि उसकी वकालत उसी को ही करनी होती है. फैसला सुनाने वाला भी कोई तीसरा नहीं आता. ‘ (संदर्भ ‘ प्रतिनिधि लघुकथाएं-2010’).

कोई अपनी कहानी को संक्षिप्त कर लघुकथा कर देता है; उसके लिए वही लघुकथा है. वह जानता है कि लघुकथा के पास ऐसा कोई रूप-स्वरूप, आकार तो सुनिश्चित है नहीं तो डर काहे का. लिख डालो कैसी भी कितनी भी, छोटी-बड़ी और बन जाओ रातों रात लघुकथाकार.

आजकल एक-एक, दो-दो किलोमीटर पर लघुकथाकार मिल जाएंगे. अब तो मोबाइल पर भी लघुकथा पढ़ी जाने लगी है. अब सवाल यह उठता है कि जब लघुकथाओं को इतनी प्रसिद्धि मिली है, विस्तारित है, तो उसका आकार-प्रकार सुनिश्चित क्यों नहीं किया गया … और अब कौन व आकार को सुनिश्चित करने का प्रयत्न करेगा. इतना जरूरी काम गैरजरूरी बन कर कैसे रह गया ?

कहते हैं कि लघुकथा का अभी तक कोई मान्य समीक्षक नहीं है. समीक्षा हो रही है. मान्य समीक्षक के लिए इन समीक्षकों के पास कोई डिग्री-डिप्लोमा तो जरूर होगा. कौन सा विद्यालय या विश्व विद्यालय समीक्षक बनाने का पुनीत काम कर रहा है यह मालूम तो होना चाहिए. समीक्षकों के पास कोई डिग्री है भी या नहीं.

यहां तो हर कोई दूसरा-तीसरा लघुकथा लेखक समीक्षक बना घूम रहा है. किसी की लघुकथा की किताब छपी नहीं कि वह खाना-पीना भूलकर किसी अच्छे समीक्षक की तलाश में घूमने लगता है. अच्छी समीक्षा लिख गई तो फिर बल्‍ले-बल्ले हो गई. तथाकथित समीक्षक ने भी उन लघुकथाओं को पूरा पढ़ा भी था, कौन जानता है ?

यह मान लेने में भी कोई हर्ज नहीं है कि उस समीक्षा को पढ़ने वाले कितने होंगे. सच पूछा जाए तो प्रबुद्ध पाठक हर किसी ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे की लिखी समीक्षा क्यों पढ़े ? सच पूछा जाए तो अमान्य ही होंगी ऐसी समीक्षाएँ.

अब आते हैं लघुकथा विधा पर. इसे विधा मानने पर ही प्रश्न चिन्ह है.  डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ कहते हैं – ‘लघुकथा को विधा मानने वालें ने मौन साध लिया है और मौन स्वीकृतिलक्षणम्‌’. (संदर्भ-प्रतिनिधि लघुकथाएं’ वर्ष 2010).

लघुकथा आलेखों में प्राय: पढ़ने मिलता है- संवेदना लघुकथा की पहचान है.

दूसरे – सामाजिक परिवर्तन में लघुकथा का विशेष योगदान है.

ये दोनों बातें कितनी एक्सेप्टेबिल हैं, पाठक ही जानें.

जिस लघुकथा में संवेदनशीलता नहीं होगी तो क्या वह लघुकथा नहीं होगी और सामाजिक परिवर्तन तो ऐसा कुछ लघुकथा के खाते में गया नहीं है. अलबत्ता समाज में कहानी का पुरातनकाल से दखल रहा था पर वह भी कहानी, नई कहानी, समानांतर कहानी, दलित कहानी में बंटकर हाशिए पर चली गई.

‘लघुकथा एक आंदोलन है जो व्यवस्था को बदलने में सक्षम है.’ – यह भी गले नहीं उतरती. किसी लघुकथा ने किसी अंधविश्वास या रूढ़िवाद को उतारकर नहीं फेंका. अलबत्ता यह भी लिखा मिला, चाहे कहानी हो या लघुकथा, बाल कहानी-उपदेशात्मक न हो. सबक सिखाने जैसी कहानी/लघुकथा अब नहीं होनी चाहिए. यही बात पुरानी पीढ़ी के पाठक के गले नहीं उतरती. जब रचना में कोई सीख या सबक न हो तो उस कपोल कल्पित को पढ़ने में फायदा क्या है? दिया तले अंधेरा कहीं इसी को न कहते हों.

अब लघुकथा के विषय भी चुकने लगे हैं. लघुकथाकारों ने ढूंढ-दूंढकर विषयान्तर्गत लघुकथाएं लिख डाली हैं. एक लघुकथा दूसरी लघुकथा में घुसपैठ करने लगी है.

उत्तराखंड रुड़की की पत्रिका “अविराम साहित्यकी’ ने अपने जनवरी-मार्च 2013 के अंक में एक बहस “लेखन में मौलिकता की समस्या और साहित्यिक चोरी’ पर एक परिचर्चा का आयोजन किया था. पत्रिका के संपादक डॉ. उमेश महादोषी की चिंता सबके सामने हैं. उक्त परिचर्चा में विविध विचार पत्रिका के अंक (जुलाई-सितंबर 2013) में प्रकाशित हुए थे. मेरे अपने विचार भी उसमें शामिल हुए थे.

विश्व साहित्य में चेखव, ओ हेनरी, मोपांसा, सआदत हसन मंटो तुर्गनेव, खलील जिब्रान, आस्कर वाइल्ड, मार्कट्वेन, शेक्सपियर, कार्ल  सेंडबर्ग, माधवराव सप्रे, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, प्रेमचंद, ओर्लोस आदि. हमारे पुरोधा जो अपनी लघुकथाओं से भूत-वर्तमान-भविष्य के बीच सामंजस्य बैठा गए हैं उनमें हम कितना इजाफा कर पाए हैं या कर पाएंगे …. और प्रश्न यह भी है कि क्या तब उनकी लघुकथाएं भी किन्हीं योग्य समीक्षकों की नजरों से गुजरी होंगी या नहीं.

अंत में मेरा निवेदन है कि लघुकथा जो आज तक पूर्ण विधा नहीं बन पाई, जिसके पास आज भी समीक्षक नहीं और जिसका आकार बिना किसी ठौर-ठिकाने का है वह लघुकथा उधार की बैसाखी पर कितनी देर टिकी रह पाएगी. सभी गौर फरमाएं यह मेरी इल्तिजा है. इति.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ☆ गहराते श्याम वर्ण की उजास ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग

श्रीमती समीक्षा तैलंग

( आज प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्रीमती समीक्षा तैलंग जी का गंभीर चिंतन  से उपजा एक विचारणीय ललित लेख गहराते श्याम वर्ण की उजास।)

☆  ललित लेख ☆ गहराते श्याम वर्ण की उजास ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग  ☆

आज सुबह ऊपरवाले ने क्या खूब कूची चलाई कि आसमान में कहीं रंग हल्के तो कहीं गाढे थे। हल्का नीला आंखों को शीतलता और तरोताजा कर रहा था। गाढा नीला रंग उसके बीच अपना अस्तित्व दिखा रहा था। सारे हल्के रंग मिलकर ही तो गाढा रंग बनाते हैं। जैसे जीवन के रंग…!!

सुनहरी छटा को बीच-बीच में कुछ छिड़क-सा दिया था। हां, यही सुनहरा चाहते हैं ना हम सब। धुंधलके से उजला होता। धीमा पडता स्याह रंग।

वह द्रव्य भी तो श्याम ही है जिसमें धरती समाहित है। लेकिन उस श्याम को वरण करना इतना ही आसान होता तो उसमें हम सब समा जाते। खुद को समर्पित कर देते उस श्याम में।

लेकिन हमारी आंखों की चमक सुनहरेपन से हमेशा ही आकर्षित होती है। हम भागते हैं उसके पीछे। लेकिन श्याम तो हमारे जीवन का मुख्य रंग है। उसे हम आंखें मूंदकर भी महसूस कर सकते हैं। उसी में प्रस्फुटित होता है ये सुनहरापन। और यही हमेशा शाश्वत रहता है।

काले में सुनहरा ढूंढना हरेक के बस की बात नहीं होती। इसीलिए हमारे अपने हाथों में भी वही कूची दे दी जन्मदाता ने। ऊपरवाला रंगों से परिचय करा देता है। लेकिन जीवन के कैनवस पर उसे भरने के लिए यही कूची काम आती है।

हम यदि उन रंगों के मार्फत उसका संदेश समझ पाते हैं तो हम सही रंगों का संतुलित सम्मिश्रण कर उससे अपनी जन्मकुंडली में निखार लाते हैं। बस रंगों की गहराई को समझना ही तो जीवन है।

जिस दिन श्याम को समझ जाएंगे, जीवन उजास हो जाएगा। प्रकृति ने अपनी रंगीन छटा में मुझे आकृष्ट कर लिया। और अब उसने अपना सुनहरा रूप दिखाना शुरू कर दिया है।

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ नात्यातील  वीण… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ नात्यातील  वीण… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

नात्यातली वीण  ” “नाते”दोनच अक्षरी शब्द.मनामनांना जोडणारा. स्नेह, प्रेम, आपुलकी,  जवळीक दर्शविणारा. जन्मल्याबरोबर आई-वडिलांबरोबर रक्ताच्या नात्याचे बंध निर्माण होतात. त्यानंतर मूल जसजसे मोठे होत जाते तसतसा त्याचा/तिचा भाऊ, बहिण, आजी आजोबा,  काका-काकू, मावशी, आत्या इ. अनेक नात्यांशी परिचय होऊ लागतो. आईच्या स्पर्शातून मायाच पाझरते. म्हणूनच आपण मोठे झालो तरी ठेच लागली किंवा काही दुखले-खुपले तरी “आई ग” असेमहणतो. राव रंक सर्वांसाठी हे नातेसमान असते. पिता कठोर असतो तर दोघेही अपत्याच्या भल्यासाठी झटतात. आई वडिलांच्या संस्कारांची शिदोरी घेऊन आपण वाटचाल करतो.

बंधुप्रेमाचे उदाहरण घ्यायचे झाले तर राजसिंहासनावर श्रीरामांच्या पादुका स्थापून स्वतः पर्णकुटीत राहणारा भरत आठवतो. राखीचा एक धागा  बहिणीने बांधला कि भाऊराया  तिच्या प्रेमात बद्ध होतो. तिचा रक्षणकर्ता होतो, पाठीराखा बनतो.रक्ताचे नाते नसले तरीही काही वेळा हे नाते मनाने स्वीकारलेले असते. महाभारतात श्रीकृष्ण दौपदीशी असाच जोडलेला दिसतो. इतका कि वस्त्रहरणाच्या बाक्या प्रसंगी त्याने  तिचे नव्हे तर समस्त स्त्रीजातीचे लज्जारक्षण केले असे म्हणावे वाटते.

 समाजात वावरताना जेंव्हा परस्परांची. वेव्हलेंग्थ दोघांना आक्रुष्ट करते तेव्हा प्रियकर प्रेयसीचे नाते निर्माण होते.हे आगळेच. संमती ने किंवा संमतीशिवाय ही ते दोघे पती पत्नीत रुपांतरित होतात. नि वीण घट्ट बनते.

.. परंतु काही वेळा रक्ताच्या नात्याच्या पलिकडचे असे एक जिवाभावाचे नाते आपण पाहतो, अनुभवतो. ते नाते म्हणजे मैत्रीचै. म्हणूनच” पसायदानात” ज्ञानेश्वर माउली म्हणतात भूतां परस्परे जडो। मैत्र जीवाचे।

इथं भूत म्हणजे फक्त कुटुंबिय नाहीत तर परिसरातील किंबहुना अखिल विश्वातील पशु; पक्षी, प्राणी, वनस्पती यांच्याशी सुद्धा आपण मैत्र साधले पाहिजे. “वसुधैव कुटुंबकम्” म्हणजे हे विश्वचि माझे घर अशी भावना असली तरच आपण नातेसंबंध टिकवु शकतो. शुद्ध हवा, शुद्ध पाणी देणारा नि अन्न ,वस्त्र, निवारा या गरजा पूर्ण करणारा निसर्ग हा आपला सर्वात जवळचा मित्र आहे. संत तुकाराम म्हणतात “व्रुक्ष वल्ली आम्हां सोयरे वनचरे.”

सर्वात शेवटी यम्हणावे वाटते कि मानवतेचे अर्थाने माणुसकीचे नाते सर्वश्रेष्ठ आहे. गुरू-शिष्य, रुग्ण-डॉक्टर हे मानवतेच्या नात्याने जोडले आहेत.

इथं विश्वासाची गरज असते. म्हणूनच असे हे परस्परांना जोडणारे नाते संबंध स्नेहबंध ठरतात नि म्हणावे वाटते

मनामनांचे प्रेम जपते ते नाते।

परस्परांचा स्नेह वर्धिते ते नाते।।

 

© सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

कोल्हापूर

भ्र. 9552448461

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 94 ☆ अनुकरणीय सीख ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  अनुकरणीय सीख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 94 ☆

☆ अनुकरणीय सीख

‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज़ के लिए ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो। इस बात को जितनी जल्दी मान लोगे, ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी’ अब्दुल कलाम जी की यह सीख अनुकरणीय है। आप अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं, क्योंकि जैसे कर्म आप करते हैं, वैसा ही फल आपको प्राप्त होता है। सो! आप के कर्मों के लिए दोषी कोई अन्य कैसे हो सकता है? वैसे दोषारोपण करना मानव का स्वभाव होता है, क्योंकि दूसरों पर कीचड़ उछालना अत्यंत सरल होता है। दुर्भाग्य से हम यह भूल जाते हैं कि कीचड़ में पत्थर फेंकने से उसके छींटे हमारे दामन को भी अवश्य मलिन कर देते हैं और जितनी जल्दी हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हैं; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाती है। वास्तव में मानव ग़लतियों का पुतला है, परंतु वह दूसरों पर आरोप लगा कर सुक़ून पाना चाहता है, जो असंभव है।

‘विचारों को पढ़कर बदलाव नहीं आता, विचारों पर चलकर आता है।’ कोरा ज्ञान हमें जीने की राह नहीं दिखाता, बल्कि हमारी दशा ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ व ‘थोथा चना, बाजे घना’ जैसी हो जाती है। जब तक हमारे अंतर्मन में चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं होती, हमारा भटकना निश्चित् है। इसलिए हमें कोई भी निर्णय लेने से पूर्व उसके सभी पक्षों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। यदि हम तुरंत निर्णय दे देते हैं, तो उलझनें व समस्याएं बढ़ जाती हैं। इसलिए कहा गया है ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ क्योंकि जिह्वा से निकले शब्द व कमान से निकला तीर कभी लौटकर नहीं आता। द्रौपदी  का एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ महाभारत के युद्ध का कारण बना। वैसे शब्द व वाक्य जीवन की दिशा बदलने का कारण भी बनते हैं। तुलसीदास व कालिदास के जीवन में बदलाव उनकी पत्नी के एक वाक्य के कारण आया। ऐसे अनगिनत उदाहरण विश्व में उपलब्ध हैं। सो! मात्र अध्ययन करने से हमारे विचारों में बदलाव नहीं आता, बल्कि उन्हें अपने जीवन में धारण करने पर उसकी दशा व दिशा बदल जाती है। इसलिए जीवन में जो भी अच्छा मिले, उसे अपना लें।

अनुमान ग़लत हो सकता है, अनुभव नहीं। यदि जीवन को क़ामयाब बनाना है, तो याद रखें – ‘पांव भले ही फिसल जाए, ज़ुबान को कभी ना फिसलने दें।’ अनुभव जीवन की सीख है और अनुमान मन की कल्पना। मन बहुत चंचल होता है। पल-भर में ख़्वाबों के महल सजा लेता है और अपनी इच्छानुसार मिटा डालता है। वह हमें बड़े-बड़े स्वप्न दिखाता है और हम उन के पीछे चल पड़ते हैं। वास्तव में हमें अनुभव से काम लेना चाहिए; भले ही वे दूसरों के ही क्यों न हों? वैसे बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव से सीख लेते हैं और सामान्य लोग अपने अनुभव से ज्ञान प्राप्त करते हैं। परंतु मूर्ख लोग अपना घर जलाकर तमाशा देखते हैं। हमारे ग्रंथ व संत दोनों हमें जीवन को उन्नत करने की सीख देते और ग़लत राहों का अनुसरण करने से बचाते हैं। विवेकी पुरुष उन द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलकर अपना भाग्य बना लेते हैं, परंतु अन्य उनकी निंदा कर पाप के भागी बनते हैं। वैसे भी मानव अपने अनुभव से ही सीखता है। कबीरदास जी ने भी कानों-सुनी बात पर कभी विश्वास नहीं किया। वे आंखिन देखी पर विश्वास करते थे, क्योंकि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती और उसका पता हमें उसे परखने पर ही लगता है। हीरे की परख जौहरी को होती है। उसका मूल्य भी वही समझता है। चंदन का महत्व भी वही जानता है, जिसे उसकी पहचान होती है, अन्यथा उसे लकड़ी समझ जला दिया जाता है।

यदि नीयत साफ व मक़सद सही हो, तो यक़ीनन किसी न किसी रूप में ईश्वर आपकी सहायता अवश्य करते हैं और आपकी चिंताओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि परमात्मा में विश्वास रखते हुए सत्कर्म करते जाओ; आपका कभी भी बुरा नहीं होगा। यदि हमारी नीयत साफ है अर्थात् हम में दोग़लापन नहीं है; किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं है, तो वह हर विषम परिस्थिति में आपकी सहायता करता है। हमारा लक्ष्य सही होना चाहिए और हमें ग़लत ढंग से उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। यदि हमारी सोच नकारात्मक होगी, तो हम कभी भी अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाएंगे; अधर में लटके रह जाएंगे। इसके साथ एक अन्य बात की ओर भी मैं आपका ध्यान दिलाना चाहूंगी कि हमारे पांव सदैव ज़मीन पर टिके रहने चाहिए। इस स्थिति में हमारे अंतर्मन में अहं का भाव जाग्रत नहीं होगा, जो हमें सत्य की राह पर चलने को प्रेरित करेगा और भटकन की स्थिति से हमारी रक्षा करेगा। इसके विपरीत अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव हमें वस्तुस्थिति व व्यक्ति का सही आकलन नहीं करने देता, बल्कि हम दूसरों को स्वयं से हेय समझने लगते हैं। अहं दौलत का भी भी हो सकता है; पद-प्रतिष्ठा व ओहदे का भी हो सकता है। दोनों स्थितियां घातक हैं। ये मानव को सामान्य व कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं रहने देती। हम दूसरों पर आधिपत्य स्थापित कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। पैसा बिस्तर दे सकता है, नींद नहीं; भोजन दे सकता है, भूख नहीं: अच्छे कपड़े दे सकता है, सौंदर्य नहीं; ऐशो-आराम के साधन दे सकता है, सुक़ून नहीं। सो! दौलत पर कभी भी ग़ुरूर नहीं करना चाहिए।

अहंकार व संस्कार में फ़र्क होता है। अहंकार दूसरों को झुकाकर खुश होता है; संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। इसलिए बच्चों को सुसंस्कृत करने की सीख दी जाती है; जो परमात्मा में अटूट आस्था, विश्वास व निष्ठा रखने से आती है। तुलसीदास जी ने भी ‘तुलसी साथी विपद् के, विद्या, विनय, विवेक’ का संदेश दिया है। जब भगवान हमें कठिनाई में छोड़ देते हैं, तो विश्वास रखें कि या तो वे तुम्हें गिरते हुए थाम लेंगे या तुम्हें उड़ना सिखा देंगे। प्रभु की लीला अपरंपार है, जिसे समझना अत्यंत कठिन है। परंतु इतना निश्चित है कि वह संसार में हमारा सबसे बड़ा हितैषी है। इंसान संसार में भाग्य लेकर आता है और कर्म लेकर जाता है। अक्सर लोग कहते हैं कि इंसान खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। परंतु वह अपने कृत-कर्म लेकर जाता है, जो भविष्य में उसके जीवन का मूलाधार बनते हैं। इसलिए रहीम जी कहते हैं कि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा।’

सो! संसार में मन की शांति से बड़ी कोई संपत्ति नहीं है। महात्मा बुद्ध शांत मन की महिमा का गुणगान करते हैं। ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्कारियां/ वरना पैदा तो हर इंसान साफ़ दिल से होता है।’ इसलिए मानव को ऐसे लोगों से सचेत व सावधान रहना चाहिए, जिनका ‘तन उजला और मन मैला’ होता है।’ ऐसे लोग कभी भी आपके मित्र नहीं हो सकते। वे किसी पल भी आपकी पीठ में छुरा घोंप सकते हैं। ‘भरोसा है तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलते हैं।’ इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न कीजिए; ज़िंदगी छोटी हो जाती है। गुस्से के वक्त रुक जाना/ ग़लती के वक्त झुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद।’ हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ की तरह मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। ऐसे लोगों की कद्र करें; वे भाग्य से मिलते हैं। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि मानव स्वयं अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है और इस तथ्य को स्वीकारना ही बुद्धिमानी है, महानता है। सो! अपनी सोच, व्यवहार व विचार सकारात्मक रखें, यह ही आपके भाग्य-निर्माता हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

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