हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 133 ☆ राम, राम-सा..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 133 ☆ राम, राम-सा..! ?

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,

सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।

विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।

राम का शाब्दिक अर्थ  हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।

राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर,  अथवा उन पर भी लागू थे।  फिर भी वे पुराण पुरुष सिद्ध हुए। 

वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे।  सिंहासन के लिए अपने भाइयों और पिता की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिये वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।

भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे  लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’  लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर,  मुझे तो केवल घाव हुआ,  वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’

यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट एक पत्नीव्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्ष्ण है।

शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? ”

इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’

समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी,  सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…!  कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।

राजस्थान में अभिवादन के लिए ‘राम राम-सा’ कहा जाता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई  ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।

राम राम रघुनंदन राम राम,

राम-राम भरताग्रज राम राम।

राम-राम रणकर्कश राम राम,

राम राम शरणम् भव राम राम।।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #117 ☆ दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 117 ☆

☆ ‌दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

दरिद्रता शब्द के अनेक पर्याय वाची शब्द हैं जिनमें – दीन, अर्थहीन, अभाव ग्रस्त, गरीब, कंगाल, निर्धन आदि। जो दारिद्र्य के पर्याय माने जाते है।

प्राय: दरिद्रता का अर्थ निर्धनता से लगाया जाता है जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तथा घर अन्न धन से खाली होता है विपन्नता की स्थिति में जीवन यापन करने वाले परिवार को ही दरिद्रता की श्रेणी में रखा जाता है ऐसे लोगों को प्राय: समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते है,  यदि हमें अन्न तथा धन के महत्व को समझना है तो हमें पौराणिक कथाओं के तथ्य  को शबरी, सुदामा, महर्षि कणाद्, कबीर रविदास लालबहादुर शास्त्री के तथा द्रौपदी के अक्षयपात्र कथा और उनके जीवन दर्शन को समझना श्रवण करना तथा उनके जीवन शैली का अध्ययन करना होगा। दरिद्रता के अभिशाप से अभिशप्त प्राणी का कोई मान सम्मान नहीं, वह जीवन का प्रत्येक दिन त्रासद परिस्थितियों में बिताने के लिए बाध्य होता है।  ऐसे परिवार में दुख, हताशा, निराशा डेरा डाल देते हैं उससे खुशियों के पल रूठ जाते हैं। दुख और भूख की पीड़ा से बिलबिलाता परिवार  दया तथा करूणा का पात्र नजर आता है। कहा भी गया है कि-

विभुक्षितम् किं न करोति पापम्।

अर्थात् दरिद्रता की कोख से जन्मी भूख की पीड़ा से  पीड़ित मानव कौन जघन्यतम नहीं करने के लिए विवश होता।

लेकिन वहीं परिवार जब श्रद्धा  आत्मविश्वास और भरोसे के भावों को धारण कर लेता है और भक्ति तथा समर्पण उतर आता है  तो भगवान को भी मजबूर कर देता है  झुकने के लिए और भगवत पद धारण कर लेता है कम से कम सुदामा और कृष्ण का प्रसंग त़ो यही कहता है।

देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोए |

पानी परात को हाथ छुयो नहि नैनन के जल सो पग धोए।।

जो भगवान  भक्ति की पराकाष्ठा की परीक्षा लेने हेतु वामन की पीठ नाप लेते हैं वहीं भगवान दीन हीन सुदामा के पैर आंसुओं से धोते हैं।

भले ही इस कथा के तथ्य अतिशयोक्ति  के जान पड़ते हों, लेकिन भक्त के पांव पर गिरे मात्र एक बूंद प्रेमाश्रु  भक्त और भगवान के संबंधों की व्याख्या के लिए पर्याप्त है। यहां तुलना मात्रा से नहीं भाव की प्रबलता से की जानी चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी और दरिद्रा दोनों सगी बहन है दरिद्रता के मूल में अकर्मण्यता प्रमाद तथा आलस्य समाहित है जब कि संपन्नता के मूल में कठोर परिश्रम लगन कर्मनिष्ठा  समाहित है। कर्मनिष्ठ अपने श्रम की बदौलत अपने भाग्य की पटकथा लिखता है। दरिद्रता इंसान को आत्मसंतोषी बना देती है। जब की धन की भूख इंसान  में लोभ जगाती हैं।इस लिए कुछ मायनों में दरिद्रता  व्यक्ति के आत्मसंम्मान को मार देती है, उसमें स्वाभिमान  के भाव को जगाती भी है। इसी लिए सुदामा ने भीख मांगकर खाना स्वीकार किया लेकिन भगवान से उन्हें कुछ भी मांगना स्वीकार्य नहीं था।

और तो और संत कबीर दस जी  धनवान और निर्धन की अध्यात्मिक परिभाषा लिखते हुए कहते हैं कि

 कबीरा सब जग निर्धना, धनवंता न कोय ।

धनवंता सो जानिए, जिस पर रामनाम धन होय।।

इसीलिए रहीम दास जी ने लिखा

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।। 

अर्थात् दरिद्र की सेवा मानव को दीन बंधु दीनदयाल दीनानाथ जैसी उपाधियों से विभूषित कर देती है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 127 ☆ घर की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख घर की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 127 ☆

☆ घर की तलाश

एक लम्बे अंतराल से उसे तलाश थी एक घर की, जहां स्नेह, सौहार्द, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव हो। परंतु पत्रकार को सदैव निराशा ही हाथ लगी।

आप हर रोज़ आते हैं और अब तक न जाने कितने घर देख चुके हैं। क्या आपको कोई घर पसंद नहीं आया?

–तुम्हारा प्रश्न वाज़िब है। मैंने बड़ी-बड़ी कोठियां देखी हैं–आलीशान बंगले देखे हैं–कंगूरे वाली ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं व हवेलियां भी देखी हैं;  जहां के बाशिंदे अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं और वहां व्याप्त रहता है अंतहीन मौन व सन्नाटा। यदि मैं उसे चहुंओर पसरी मरघट-सी ख़ामोशी कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

–परंतु तुमने द्वार पर खड़ी चमचमाती कारें, द्वारपाल व जी-हज़ूरी करते गुलामों की भीड़ नहीं देखी, जो कठपुतली की भांति हर आदेश की अनुपालना करते हैं। परंतु मुझे तो वहां इंसान नहीं; चलते-फिरते पुतले नज़र आते हैं, जिनका संबंध-सरोकारों से दूर तक का कोई नाता नहीं होता। वहां सब जीते हैं अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी, जिसे वे सिगरेट के क़श व शराब के नशे में धुत्त होकर ढो रहे हैं।

आखिर तुम्हें कैसे घर की तलाश है?

–क्या तुम ईंट-पत्थर के मकान को घर की संज्ञा दे सकते हो,जहां शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी-सम…कब, कौन, कहां, क्यों से दूर– समाधिस्थ।

–अरे विश्व तो ग्लोबल विलेज बन गया है; इंसानों के स्थान पर रोबोट अहर्निश कार्यरत हैं। मोबाइल ने सबको अपने शिकंजे में इस क़दर जकड़ रखा है, जिससे मुक्ति पाना सर्वथा असंभव है। आजकल सब रिश्ते-नातों पर ग्रहण लग गया है। हर घर के अहाते में दुर्योधन व दु:शासन घात लगाए बैठे हैं। सो! दो माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा की अस्मिता भी सदैव दाँव पर लगी रहती है।

  • चलो छोड़ो! तुम्हारी तलाश तो कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि आजकल घरों का निर्माण बंद हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नकार पाश्चात्य की जूठन ग्रहण कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं और बच्चों को सुसंस्कारित नहीं करते, क्योंकि हमारी भटकन अभी समाप्त नहीं हुई।
  • आओ! हम सब मिलकर आगामी पीढ़ी को घर-परिवार की परिभाषा से अवगत कराएं और दोस्ती व अपनत्व की महत्ता समझाएं, ताकि समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता स्थापित हो सके। हम अपने स्वर्णिम अतीत में लौटकर सुक़ून भरी ज़िंदगी जिएं, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान न हो। संपूर्ण विश्व में अपनत्व का भाव दृष्टिगोचर हो और हम सब दिव्य, पावन निर्झरिणी में अवगाहन करें; जहां केवल ‘तेरा ही तेरा’ का बसेरा हो। हम अहं त्याग कर ‘मैं से हम’ बन जाएं और वहां कुछ भी ‘तेरा न मेरा’ हो।

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30.3.2022

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 44 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 44 ??

अन्य-

ऊपर अति संक्षेप में कुछ ही तीर्थस्थानों की जानकारी दी जा सकी है। इन प्रतिनिधि तीर्थों के अलावा भी सनातन दृष्टि हर पग पर और हर रजकण में तीर्थ देखती है। इन तीर्थों में हरिद्वार, ऋषिकेश, जोशीमठ, गोमुख, हेमकुंड, नैना देवी, शुकताल, शाकंभरी, कुरुक्षेत्र, गढ़मुक्तेश्वर, मिथिला, सोनपुर, गया, बैद्यनाथ, वासुकिनाथ, गंगासागर, कामाख्या पीठ, नरसिंहपुर, कोल्हापुर, नागेश, परली वैजनाथ, आलंदी, देहू, नासिक, घृणेश्वर, शिरडी, त्र्यंबकेश्वर, महिसागर, सोमनाथ, अंबाजी, श्रीनाथद्वारा, एकलिंग जी, ओंकारेश्वर, महाकालेश्वर, करौली, अमरकंटक, श्रीशैलम, श्रीकूर्मम, भद्राचलम, पलक्का नृसिंह, तिरुवत्तियूर, तिरुक्कुलूकुंद्रम, महाबलीपुरम, कांची, कुंभकोणम, जनार्दन, गुरुवायूर, मीनाक्षी मंदिर आदि सम्मिलित हैं।

उनाकोटी हिल्स, त्रिपुरा में देवी-देवताओं की एक करोड़ से एक कम प्रतिमाएँ हैं। इस संख्या का कारण देने के लिए एक पौराणिक कथा भी प्रचलन में है। इसी प्रकार ‘न भूतो न भविष्यति’ का अनुपम उदाहरण है जम्मू का रघुनाथ मंदिर। इस मंदिर में 33 करोड़ देवी-देवताओं के नाम पढ़े जा सकते हैं। तथापि कुल मिलाकर यह सूची भी तीर्थों की संख्या का अत्यल्प अंश ही है।

सच तो यह है कि जहाँ मानसतीर्थ की संकल्पना हो, वहाँ कितने स्थावर तीर्थों की गणना की जा सकती है? यह ‘हरि अनंत, हरिकथा अनंता’ जैसी असीम यात्रा है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 94 ☆ समय के साथ बदलते रहें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “समय के साथ बदलते रहें…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 94 ☆

☆ समय के साथ बदलते रहें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

सभा कोई सी हो, बस विचारकों को ढूंढती रहती है। अब लोकसभा में न जीत पाएँ तो विधानसभा में जोर आजमाइश कीजिए। और यहाँ भी मुश्किल हो तो राज्यसभा या विधानपरिषद की सीट सुरक्षित कीजिए। बस कुछ न कुछ करते रहना है। कहते हैं राजनीति में कोई भी स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता है। बस कुर्सी ही सबकी माई- बाप है। कुर्सी बदलाव माँगती है, सो अधीरता दिखाते हुए उन्होंने विरोधियों को सूचीबद्ध कर दिया। मगर परिणाम उनकी आशा के विपरीत आया। अब गुस्से में ये लिस्ट उन्होंने बाहर फेंक दी। दूसरे दलों ने ये लिस्ट उठा कर सूची में शामिल लोगों को अपना विश्वास पात्र बना लिया क्योंकि दुश्मन का दुश्मन मित्र होता है। इन अनुभवी लोकोक्तियों ने जीने का अंदाज ही बदल दिया है। अब सब कुछ शॉर्टकट सेट हो रहा है। परिश्रम की बातें करना एक बात है, उसे अमल में लाना दूसरी बात है।

परिश्रम का प्रतिफल तभी सार्थक होता है जब नियत सच्ची हो। एक ही कार्य के दो पहलू हो सकते हैं। जल्दी-जल्दी कार्यकर्ताओं का परिवर्तन, जहाँ एक ओर ये सिद्ध करता है कि संगठन में कमीं हैं तो वहीं दूसरी ओर ये दर्शाता है कि समय-समय पर बदलाव होना चाहिए।

बुद्धिमान व्यक्ति वही होता है जो जिस पल मौका मिले अपने को सिद्ध कर सके क्योंकि समय व विचारधारा कब बदल जाए कहा नहीं जा सकता है। क्रमिक विकास के चरण में बच्चा पहले नर्सरी, प्री प्रायमरी, प्रायमरी, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक पढ़ते हुए विद्यालय से जुड़ जाता है किंतु आगे की पढ़ाई के लिए उसे  इंटर के बाद सब छोड़ कालेज जाना पड़ता है फिर वहाँ से डिग्री हासिल कर रोजी रोटी की तलाश में स्वयं को सिद्ध करना पड़ता है।

इस पूरी यात्रा का उद्देश्य यही है कि कितना भी लगाव हो उचित समय पर सब छोड़ आगे बढ़ना ही पड़ता है अतः केवल लक्ष्य पर केंद्रित हो हर पल को जीते चले क्योंकि भूत कभी आता नहीं भविष्य कहीं जाता नहीं। केवल वर्तमान पर ही आप अपने आप को निखार सकते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 43 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 43 ??

कैलाश-मानसरोवर-

पावन कैलाश पर्वत एवं मानसरोवर तिब्बत में स्थित हैं। जून से सितम्बर तक चलने वाली इस परिक्रमा में लगभग दो माह का समय लगता है। यह यात्रा दो मार्गों, उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रा और सिक्किम के नाथु-ला दर्रा के मार्ग से की जा सकती है। इस क्षेत्र में मीठे पानी की विश्व में सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित मानसरोवर झील है। प्रकृति का अद्भुत संतुलन यह कि खारे पानी वाला राक्षस ताल भी इसी क्षेत्र में है।

कैलाश पर्वत, महादेव का निवासस्थान है। यहाँ आँखों दिखते अनेक चमत्कार हैं। इसके दोनों ओर के पर्वत एकदम कोरे और मध्य में स्थित पूर्णत: हिमाच्छादित दिव्य कैलाश! उपलब्ध रेकॉर्ड के अनुसार इस पर्वत पर आजतक कोई चढ़ नहीं पाया। विज्ञान इस क्षेत्र को अति  रेडियोएक्टिव मानता है। इस रेडिएशन के कारण मनुष्य का यहाँ ठहर पाना संभव नहीं होता। 

कैलाश पर्वत की चार दिशाओं से चार नदियाँ ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलुज, करनाली का उद्गम है। इस आलेख के लेखक को कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म का लेखन और निर्देशन करने का सौभाग्य मिला है।

पशुपतिनाथ-

पशुपतिनाथ मंदिर, नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित है। इसे ईसा पूर्व तीसरी सदी का माना जाता है। तेरहवीं सदी में इसका पुनर्निर्माण हुआ था। केदारनाथ जी में  जैसे महिष के पृष्ठभाग के रूप में महादेव पूजे जाते हैं, वैसे ही महिष के मुखरूप में यहाँ भगवान का विग्रह है।  एकात्म परंपरा ऐसी कि यहाँ मुख्य पुजारी दक्षिण भारत से होते हैं। यद्यपि चीन समर्थक वामपंथी शासकों के आने के बाद कुछ समय पहले यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आलेख – जीवन का टी-20 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – आलेख – जीवन का टी-20 ??

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। काल की गेंदबाजी पर कर्म के बल्ले से साँसों द्वारा खेला जा रहा क्रिकेट। अंपायर की भूमिका में समय सन्नद्ध है। दुर्घटना, अवसाद, निराशा, आत्महत्या फील्डिंग कर रहे हैं। मारकेश अपनी वक्र दृष्टि लिए विकेटकीपर की भूमिका में खड़ा है। बोल्ड, कैच, रन-आऊट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू…., ज़रा-सी गलती हुई कि मर्त्यलोक का एक और विकेट गया। अकेला जीव सब तरफ से घिरा हुआ है जीवन के संग्राम में।

महाभारत में उतरना हरेक के बस में नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के फेर में अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह समय तय करेगा। तुम रन बटोरो, खतरे उठाओ, रिस्क लो, रन-रेट नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि मैच जीतो ही पर अंतिम गेंद तक जीत के जज़्बे से खेलते रहने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, ‘स्ट्रैटिजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, विकेटकीपर और क्षेत्ररक्षक तो तैयार हैं ही।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 103 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (14)  गतांक से आगे

रामायण पाण्डे कथा भी बाँच लेते और थोड़ी बहुत जानकारी ज्योतिष की भी रखते थे। गाँव के लोग अक्सर गुमे हुये गाय बैल व चोरी गई चीजों का पता लगाने पांडेजी के पास आते और कार्य सिद्ध हो जाने पर अपने खेत से उपजी भाटा-भाजी, कुम्हड़ा, लौकी, तरोई  आदि  उन्हे दक्षिणा में दे जाते। बरसात आती तो किसान मंदिर में रामायण को घेर बैठ जाते और बरखा कब होगी या नक्षत्रों की स्थिति पूंछते । रामायण अपना पंचांग निकालते और गणना कर बताते कि

“बरस लगेंगी ऊतरा, माँड पियेंगे कूतरा।“  (ऊतरा नक्षत्र लगते ही वर्षा शुरू हो गई है इसलिए  बाकी नक्षत्रों में भी पानी खूब बरसेगा)

जब चित्रा नक्षत्र लग जाता और बारिश होने लगती तो रामायण किसानों को सलाह देते

“चित्रा बरसें तीन भये, गोऊँ सक्कर माँस। चित्रा बरसें तीन गये, कोदों तिली कपास॥“

(चित्रा नक्षत्र में पानी बरसने वाला है इसलिए गेहूँ और गन्ना की फसल अच्छी होगी पर कोदों तिली व कपास मत बोना इसकी फसल खराब होगी।)

कभी कभी तो रामायण दो तीन महीने पहले ही अकाल की भविष्यवाणी कर देते। जब किसान घबरा कर कारण पूंछते तो कहते कि

“पंचमी कातिक सुकल की , जो होबैं सनिवार। तौ दुकाल भारी परें ,मचिहै हाहाकार॥ “

(इस बार कार्तिक शुक्ल पंचमी को शनिवार का दिन पड़ने वाला है इसलिए भारी अकाल पड़ेगा पहले से व्यवस्था रखो )

कभी कभी औरतें भी मंदिर आती और पंडिताइन के पास बैठ जाती गप्पें करती और अपना भविष्य जानने के लिए धीरे से उकसाती। औरतों को बस दो ही चिंता होती एक अगली संतान मौड़ा होगा  की मौड़ी और दूसरी पिछले साल जन्मा मौड़ा जिंदा रहेगा कि नहीं।

ऐसी ही सास बहू की जोड़ी को रामायण ने एक दिन मंदिर की ओर आते देखा। ‘दोनों पेट से थी’ , रामायण समझ गए कि कैसा प्रश्न सामने आने वाला है। उन्होने पंडिताइन से कहा

‘भागवान तुमाए जजमान आ रय हें, लाओ हमाइ पोथी पत्रा दे देओ’।

सास बहू ने आते ही पहले पंडिताइन को पायें लागी कहा और फिर ओट से पंडित जी को। ‘सूखी रहा का’ आशीर्वाद से दोनों को संतोष न हुआ और दोनों एक साथ अपने बढ़े हुये पेट पर हाथ का इशारा कर पूंछ बैठी ‘ का हुईहे महराज।‘ 

रामायण चुप रहे तो सास बोल पड़ी जा बहू तो चार चार मौडियन की मतारी हो गई है हमाओ कुल कैसे चलहे महराज ।‘

रामायण उस दिन कुछ ज्यादा ही मूड में थे बोल उठे

‘सास बहू की एकई सोर, लच्छों कड़ गई पांखा फोर।‘ (जहाँ सास बहू का प्रसव एक साथ होता है, वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती और पांखा(दीवार) फोड़कर भी  निकल जाती है, परिवार गरीब हो जाता है।)

सास को रामायण का यह व्यंग्य समझ में न आया, बहू से बोली पंडितजी को दंडवत करो और मौड़ा पैदा हो ऐसा आशीर्वाद माँगो।

अब रामायण से रहा न गया मन ही मन सोचा कि कैसी सास है बहू पेट से है और उसे दंडवत प्रणाम करने को कह रही है। खैर बिना विलंब किए उन्होने पुत्र होने की आशीष दी पर सास को इंगित कर यह कहावत भी जड़ दी

‘सावन घोरी भादों गाय, माघ मास जो भैंस ब्याय। जेठे बहू आषाढ़ें सास, तौ घर हू है बाराबाट॥‘

(जिस घर में सावन में घोड़ी, भादों में गाय व माघ मास में भैंस बियाती है और जेठ में बहू तथाआषाढ़ में सास का प्रसव होता है तो ऐसा घर बुरी तरह विनष्ट हो जाता है।) 

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 42 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 42 ??

तिरुपति बालाजी-

यह सुप्रसिद्ध देवस्थान आंध्र प्रदेश के चित्तूर जनपद में है। तिरुपति बालाजी का मंदिर सप्तगिरि पर्वतमाला पर है। प्रतिदिन लगभग एक लाख श्रद्धालु यहाँ दर्शन के लिए आते हैं। तिरुपति बालाजी भगवान विष्णु का विग्रह है। बालाजी के वक्ष पर लक्ष्मी जी का निवास माना जाता है। इस मान्यता के चलते विग्रह को प्रतिदिन अधोभाग में धोती एवं उर्ध्वभाग में साड़ी से सज्जित करने की परंपरा है।

शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की अवधारणा को यह मंदिर विस्तार देता है। सृष्टि के दोनों पूरक तत्वों का एक विग्रह में एकाकार होना वैदिक एकात्म दर्शन का आँखों दिखता प्रत्यक्ष उद्घोष है।

सबरीमला-

केरल की पतनमथिट्टा पहाड़ियों में सबरीमला मंदिर स्थित है। यहाँ अयप्पन स्वामी के विग्रह की पूजा होती है। अयप्पन, शिव और मोहिनी की संतान माने जाते हैं। मोहिनी, विष्णु का स्त्री रूप है। प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख लोग यहाँ दर्शन करने आते हैं। मकरसंक्रांति को यहाँ पर्वतमाला में एक दिव्य ज्योति दिखाई देती है।

मंदिर के मार्ग में मुस्लिम सेनापति वावर की समाधि है। वावर , अयप्पन का परम अनुयायी था। भक्त समाधि के दर्शन कर आगे बढ़ते हैं। जिज्ञासुओं के लिए एकात्म की शाब्दिकता का यह साकार रूप है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 152 ☆ आलेख – पाठक मंच – देश में अपने तरह की अभिन्न योजना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  पाठक मंच देश में अपने तरह की अभिन्न योजना

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 152 ☆

? आलेख  – पाठक मंच देश में अपने तरह की अभिन्न योजना  ?

साहित्य अकादमी की पाठक मंच योजना देश में अपने तरह से अभिन्न है. हमें इसके साथ जुड़े होने और पुस्तक संस्कृति के विस्तार में किंचित योगदान का जो अवसर पाठक मंच के माध्यम से मिल रहा है, उस पर मुझे गर्व है. पाठक मंच प्रदेश के प्रत्येक अंचल में साहित्य अकादमी की प्रतिनिधि इकाई के रूप में,एक सृजनात्मक संस्था के रूप में  सक्रिय हैं.  समकालीन चर्चित व महत्वपूर्ण किताबो पर प्रदेश के  पाठको तथा  लेखको को वैचारिक अभिव्यक्ति का सुअवसर पाठक मंच के माध्यम से सुलभ है. मण्डला में और अब जबलपुर में पाठक मंच से जुड़े अपने अनुभवो के आधार पर मै पाठक मंचो को लेकर कुछ बिन्दु आपके माध्यम से साक्षात्कार के पाठको से बांटना चाहता हूं

१ प्रकाशको से पुस्तक प्राप्ति में विलंब

अनेक किताबें प्रकाशक अप्रत्याशित विलंब से भेजते हैं, जिससे निर्धारित माह में  गोष्ठी संपन्न नही हो पाती.

२ पठनीयता का अभाव

अनेक पाठक पुस्तक तो पढ़ने हेतु ले लेते हैं, पर जब उनसे निर्धारित अवधि में किताब वापस मांगी जाती है, तो वे उसे पूरा न पढ़ पाने की बात कहते हैं, समीक्षा लिखित रूप में प्राप्त कर पाना अत्यधिक दुष्कर कार्य होता है. यद्यपि नये पाठक, छात्र व कुछ समर्पित साहित्यिक अभिरुचि के लोग इसमें पूरा सहयोग भी करते हैं.

३ स्थानीय गुटबंदी

साहित्य समाज में स्थानीय गुटबंदी एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का विषय है, प्रायः इसके चलते पाठक मंच गोष्ठी भी इससे प्रभावित होती है, इससे बचने के लिये पाठक मंच संयोजक को उदारमना व गुटनिरपेक्ष रहकर अपनी भूमिका स्वयं निर्धारित करनी होती है. मैने इससे बचने के लिये हर गोष्ठी एक अलग स्थान पर,जैसे पुस्तकालयो में, शालाओ व महाविद्यालयो में, क्लबो में,  अलग अलग लोगो के बीच करने की नीति अपनाई इस तरह के संयुक्त आयोजनो  के सुपरिणाम भी परिलक्षित हुये, किंतु “मैं सबका पर मेरा कौन ?” वाला अनुभव अवांछनीय भी रहा.

४ गोष्ठी रपट का प्रकाशन एवं गोष्ठी में महत्व

साक्षात्कार में गोष्ठी रपट का प्रकाशन बहुत लंबे समय के बाद हो पाता है, स्थानीय अखबारो में गोष्ठी रपट का प्रकाशन केंद्र संयोजक के स्वयं के कौशल पर ही निर्भर है. अनेक पाठक गोष्ठी में इसलिये भी हिस्सेदारी करते हैं कि प्रतिसाद में वे मीडिया में स्वयं को देखना चाहते हैं. साथ ही वे चाहते हैं कि साक्षात्कार व साहित्य अकादमी के प्रकाशनो, व अन्य आयोजनो से महत्वपूर्ण तरीके से जुड़ सकें. मैं पाठको की इस भावना की पूर्ति हेतु गोष्ठी को दो चरणो में रखने का यत्न करता हूं, पहले चरण में पाठक मंच की पुस्तक पर समीक्षा तथा द्वितीय चरण में काव्य पाठ या स्थानीय किताब पर चर्चा के आयोजन से व्यापक जुड़ाव लोगो में देखने को मिलता है.

५ पाठक मंच को एक सृजनात्मक स्थानीय संस्था के रूप में स्थापित करना

केंद्र संयोजक अपनी व्यक्तिगत सक्रियता से पाठक मंच को एक सृजनात्मक स्थानीय संस्था के रूप में स्थापित कर सकता है, जो निर्धारित किताबो पर चर्चा के सिवाय भी विभिन्न रचनात्मक साहित्यिक गतिविधियो में अपनी भूमिका निभा सकती है.

सुझाव

० संयोजको द्वारा प्रेषित स्थानीय रचनाकारो की रचनाओ को साक्षात्कार में एक स्तंभ बनाकर प्रकाशन,

० संयोजको को अकादमी की मेलिंग लिस्ट में स्थाई रूप से जोड़कर अकादमी के विभिन्न आयोजनो की सूचना और आमंत्रण पत्र भेजना

० किताबो की प्रतियां बढ़ाना, यूं इस वर्ष से ३ प्रतियां आ रही हैं जो पर्याप्त लगती हैं

० पाठक मंच की समीक्षाओ व संयोजको की रचनाओ के संग्रह पर आधारित पुस्तक का प्रकाशन

आदि अनेक प्रयास संभव हैं, जिनसे अकादमी की  अवैतनिक प्रतिनिधि संस्था के रूप में पाठक मंच और भी क्रियाशील होंगे तथा यह योजना और सफल हो सकेगी.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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