हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 46 ☆ राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  “राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें”.)

☆ किसलय की कलम से # 46 ☆

☆ राष्ट्रभाषा हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारें ☆

भारत एक विशाल देश है। विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं, परंतु सभी भाषाओं की धरोहर भारतीय संस्कृति ही है। प्रत्येक भाषा में रामायण और महाभारत के ग्रंथ उपलब्ध हैं। विभिन्न भाषाओं में कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही विषय पर साहित्य उपलब्ध होना कोई नई बात नहीं है। यही कारण है कि अपनी मूल भाषा की उन्नति के लिए क्षेत्रीय लोगों का उद्वेलित होना एक सीमा तक उचित प्रतीत होता है। हर व्यक्ति अपनी समृद्धि के रक्षार्थ हद से आगे जा सकता है। हिन्दी को लेकर भी कुछ इसी तरह का विरोध समझ में आता है परंतु इसमें क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले कितने दोषी हैं। यह एक चर्चात्मक विषय है। इसके लिए शासन की कमजोरियाँ एवं प्रचार-प्रसार का गलत नजरिया भी दोषी है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों को शायद ऐसा भ्रम होने लगता है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार से कहीं वे अपनी भाषा ही को न खो बैठें। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज हिन्दी के अतिरिक्त सभी अन्य भाषा बोलने वाले लोगों का झुकाव गुरोत्तर अंग्रेजी की ओर होने लगा तथा शासन द्वारा लगातार की जा रही उपेक्षा आग में घी का काम कर रही है। आज देश के प्रत्येक शिक्षित एवं समृद्ध वर्ग की संस्कृति इंग्लिश, हिन्दी एवं अंग्रेजी का मिश्रण होती जा रही है। आज उच्च वर्ग का आधार अंग्रेजियत से भी जोड़ा जाता है। इस परिवेश में हिन्दी की सार्थकता पर चिंतित होना स्वाभाविक है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक सर्वसम्मत भाषा होती है, जिसका आदर एवं प्रचार-प्रसार करना प्रत्येक देशवासी का कर्त्तव्य होना चाहिए। आज हमारे देश में राष्ट्रभाषा के नाम पर स्वीकृत हिन्दी अपने आपको यथोचित स्थान पर स्थापित करने में असमर्थता का अनुभव करती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राष्ट्र स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती तक पहुँचकर भी हिन्दी की प्रगति नहीं कर सकता। आज हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि साहित्य तकनीकी एवं चिकित्सकीय क्षेत्र में भी हिन्दी बहुत आगे निकल गई है। हिन्दी शब्दकोष विशाल से विशालतम हो गया है। प्रत्येक हिन्दी भाषी को उसकी सार्थकता का अनुभव देश-विदेश में होने लगा है। यह अक्षरतशः सत्य है कि हिन्दी अब किसी भी विदेशी भाषा से कमजोर नहीं है। इतनी समर्थ भाषा का सर्वसम्म6 राष्ट्रभाषा बनने की असमर्थता निश्चित रूप से कुछ लोगों की अदूरदर्शिता के अलावा और कुछ नहीं है , क्योंकि संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि किसी भी प्रादेशिक भाषा का विकास भी उतना ही आवश्यक है । जितना कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का सर्वांगीण विकास। आज समय की मांग है कि भारत की सुख-समृद्धि चाहने वाला प्रत्येक भारतवासी सारे भ्रम दूर कर अपनी भाषा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी का भी विकास एवं प्रचार-प्रसार करे तभी हिन्दी की सार्थकता में चार चाँद लग सकेंगे।

अंततः यह कहना उचित होगा कि चाहे राष्ट्र की प्रगति का प्रश्न हो या जन जागृति का, प्रदेश की बात हो अथवा संपूर्ण राष्ट्र की, जब तक हिन्दी भारत की संपर्क भाषा के रूप में अंगीकृत नहीं की जाती तब तक इसकी वास्तविकता सार्थकता सिद्ध नहीं होगी और न ही विश्व समुदाय इसकी महत्ता स्वीकार करेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ चला कपाट आवरु या ! ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

? विविधा ?

☆ चला कपाट आवरु या ! ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

वर्षातील ५२ रविवार पैकी कुठल्याही  एका रविवारी हे वरील वाक्य एखाद्या घरात म्हणले गेले नसेल असे मला तरी वाटत नाही. रविवार अशा साठी की जरा निवांत, सुट्टीचा दिवस म्हणून. कुटुंबातील सदस्यांनी मिळून कपाट आवरणे हा एक छान कौटुंबिक सोहळा आहे असे माझे स्पष्ट म्हणणे.

म्हणजे बघा अश्विनी ते रेवती अशी २७ नक्षत्र आहेत. पूर्वी ‘अभिजीत ‘ नावाचे पण नक्षत्र मोजत पण आता हे नक्षत्र धरत नाहीत. नक्षत्र पुस्तकात प्रत्येक नक्षत्राची माहिती देताना या नक्षत्रावर एखादी गोष्ट हरवली तर ती मिळण्याचे ठोकताळे दिलेले आहेत. अभिजित नक्षत्रावर ही माहिती अर्थातच नाही. पण पूर्वी समजा या नक्षत्राची कुठे माहिती दिली असेल त्यात या नक्षत्रावर करायच्या कामात

‘कपाट आवरणे ‘ हे नक्की असावे असे माझे मन सांगतय.

अश्विनी ते रेवती नक्षत्रावर केंव्हाही तुमची गोष्ट हरवली असेल आणि तेंव्हा अगदी याच कपाटात, इथल्या ड्राँवर मधे, कप्प्यांमधे कितीही वेळेला तुम्ही शोधली असली तरी आजच्या ‘चला कपाट आवरु या ‘ अभिजात मुहूर्तावर मात्र ही मिळण्याची खूप म्हणजे खूप म्हणजे खूपच शक्यता असते.

मंडळी, मोकळं केलंत सगळं कपाट,  अवती भोवती मस्त पसारा जमलाय ना?  

तर अधून मधून असं कपाट आवरणं हे  जरी शास्त्र असले तरी

मागच्या वर्षी कपाट आवरताना नाही हे राहू दे, टाकू या नको  म्हणून ठेवलेल्या गोष्टी या वर्षी कपाट आवरताना कच-याच्या ढिगात टाकणे ही एक मोठी कला आहे

कपाट आवरताना हातात आलेले मित्राने दिलेले वाढदिवसाचे ग्रिटींग बघून, छान स्माईल करुन परत त्याच जागी ठेवणे हा ” मैत्री धर्म ”  आहे.

लहानपणीची ‘फोटो गँलरी’ आपलं

‘ फोटो अल्बम’ हातात आल्यावर चहाचा कप बाजूला ठेऊन शेवट पर्यतचे फोटो बघणे आणि कपाट आवरण्याच्या कार्यक्रमाला थोडा ब्रेक घेणे  ही “नैतिक जबाबदारी” आहे.

गधडे/ गधड्या  आँन लाईन क्लासला  मिळत नव्हती ना  ही वही  ? कपाटात नीट बघ म्हणलेलं, शोधली नीट?  नाही,  आत्ता कशी मग आली?  नीट बघायचंच नाही,  हे माय लेकींचे / माय लेकांचे ( बर का मित्रों, आपण अशावेळी परत एकदा फोटो अल्बम बघायला काढायचा) संवाद हे “आवश्यक कर्तव्य ” आहे.

ती वही  उघडताच आत मधे  मिळालेली १०० रुपयाची नोट घेऊन आईला देऊन संध्याकाळी भेळ/ पाणीपुरी/  शेव पुरी  ( छे असल्या गोष्टी संकष्टीलाच आठवतात नेमक्या)  रुपी ‘अर्थपूर्ण सेटलमेंट’ आहे.

मागच्या वर्षी आवश्यक वाटणारी गोष्ट पण  यावर्षी अचानक   अनावश्यक कच-यात  टाकून कपाट मस्त आवरलयं आता.  एकदिवस संगणक, मोबाईल रुपी कपाटातील पण कचरा साफ करायचा आहे असाच. विनाकारण सेव्ह केलेल्या फाईल, फोटो,  अँप सगळं साफ करायचं आहे

बघू सवड मिळाली तर याच पद्धतीने मनातील कपाटातील ही काही  अनावश्यक कप्पे,  विनाकारण सेव्ह केलेले विचार, पूर्वग्रह वेगैरे साफ करता आले तर!

प्रयत्न करायला काय हरकत आहे

( प्रयत्नवादी ) अमोल ?

वैशाख. कृष्ण ३

२९/५/२१

©  श्री अमोल अनंत केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 107 ☆ जल-जंगल-जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  का एक ऐतिहासिक जानकारी से ओतप्रोत आलेख  – जल-जंगल -जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा।  इस ऐतिहासिक रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 107 ☆

? जल-जंगल-जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा  ?

आज रांची झारखंड की राजधानी है. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था.  यह तब की बात है जब  ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले ही ईसाइयत के प्रचार के लिये गहन तम भीतरी क्षेत्रो में पहुंच जाया करती थीं. वे गरीबों, वनवासियों की चिकित्सकीय व शिक्षा में मदद करके उनका भरोसा जीत लेती थीं. और फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शिक्षा में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया.

1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में जहां बिरसा रहते थे, अकाल पड़ा, लोग हताश और परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों के धर्म परिवर्तन के अनैतिक स्वार्थी व्यवहार से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की अपने तौर पर मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते हुये उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग उनके अनुयायी बनते गए. सभी वनवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता.

अंग्रेजों ने 1882 में फॉरेस्ट एक्ट लागू किया था जिस से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों को दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया. उलगूलान यानी जल, जंगल, जमीन के अपने अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन भारत जब जब हारा है, भितरघात और अपने ही किसी की लालच से, बिरसा के सर पर अंग्रेजो ने बड़ा इनाम रख दिया. किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी १८९० में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई.

लेकिन बिरसा की मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. और अनेक नये क्रांतिकारी बन गये. राष्ट्र ने उनके योगदान को पहचाना है. आज भी वनांचल में बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं. पक्ष विपक्ष की कई सरकारों ने जल जंगल और जमीन के उनके मूल विचार पर कितनी ही योजनायें चला रखी हैं.उनकी जयंती पर इस आदिवासी गुदड़ी के लाल को शत शत नमन. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ स्निग्ध जिव्हाळा तुझा लाभला (एक आस्वादन) – भाग 5 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

कवयित्री शांताबाई शेळके विशेषांक

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?  विविधा ?

☆ स्निग्ध जिव्हाळा तुझा लाभला (एक आस्वादन) – भाग 5 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(मागील भागात – त्यांच्या ‘ऋतु हिरवा ऋतु बारवा’ कळ्यांचे दिवस फुलांच्या राती’, ‘रुपेरी वाळूत माडांच्या बनात ये ना’, ‘सजणा का धरीला परदेश’, अशी किती तरी गीतं आपल्या कानात रुंजी घालू लागतात. आता इथून पुढे…..)

मेघदूत आणि त्रिवेणी

शांताबाईंच्या कवितांचा विचार त्यांच्या काव्यानुवादाच्या विचारांशीवाय अपुरा राहील. त्यांनी कालिदासाच्या ‘मेघदूता’चा आणि गुलजार यांच्या ‘त्रिवेणी’चा सुंदर अनुवाद केला आहे. अनुवाद करणं ही काही सोपी गोष्ट नाही. त्यातून काव्यानुवाद अधीकच दुरापस्त. केवळ आशयच नव्हे, भावाच्या सूक्ष्म छटा, त्याच्या रूपरंगपोतासहित दुसर्‍या भाषेत आणणं अवघड असतं. त्या भाषेच्या संस्कृतीशी ते समरसून जावं लागतं. शांताबाईंना हे छान जमून गेलय, याची प्रचीती मेघदूत आणि त्रिवेणी वाचताना येते.

मेघदूत

‘मेघदूत’ या खंडकाव्याची अनेकांप्रमाणे शांताबाईंना मोहिनी पडली. अनेकांनी ‘मेघदूता’चा मराठीत अनुवाद केलाय. अनेकांनी त्यावर गद्यातून प्रतिक्रिया व्यक्त केल्या आहेत. या सार्‍याचं वाचन, आपण अनावर ओढीनं केलं असं शांताबाई सांगतात. तरीही ‘मेघदूता’चा अनुवाद त्यांना करून बघावासा वाटला. या अनुवाद पुस्तकाच्या प्रारंभी त्या म्हणतात, ‘अनुवाद करून बघणे, हा माझा आनंद व छंद आहे. अनुवाद करून बघणे, हा मूळ कलाकृतीचा अधीक उत्कटतेने रसास्वाद घेण्याचा एक सुंदर मार्ग आहे.’ अशी आपली भूमिका त्यांनी स्पष्ट केलीय. वेगळं काही करायचं म्हणून नव्हे, कलाकृती अधिक समजून घेण्यासाठी त्यांनी हा अनुवाद केलाय. त्यांनी अपेक्षा केल्याप्रमाणे अतिशय ललित, मधुर असा हा अनुवाद, वाचकाच्या मनात मूळ संस्कृत काव्याचे वाचन करण्याची उत्सुकता निर्माण करणारा आहे. ही उत्सुकता निर्माण झाल्यावर, वाचकाला मूळ काव्यासाठी शोधाशोध करायला नको. अनुवादाच्या वर मूळ श्लोक दिलेलाच आहे.

त्रिवेणी

गुलजार हे हिंदीतील प्रतिभावंत लेखक, कवी. त्यांनी ‘त्रिवेणी’ हा कवितेचा एक नवीन रचनाबंध निर्माण केला. यात पहिल्या दोन पंक्तींचा गंगा-यमुनाप्रमाणे संगम होतो. आणि एक संपूर्ण कविता तयार होते पण या दोन प्रवाहाखालून आणखी एक नदी वाहते आहे. तिचे नाव सरस्वती. तिसर्‍या काव्यपंक्तीतून ही सरस्वती प्रगट होते. पहिल्या दोन काव्यपंक्तीतच ती कुठे तरी लपली आहे. अंतर्भूत आहे. शांताबाईंनी या ‘त्रिवेणी’चा अतिशय अर्थवाही, यथातथ्य भाव प्रगट करणारा नेमका अनुवाद केलाय. जीवनाचे, वास्तवाचे, यथार्थ दर्शन, चिंतन त्यातून प्रगट होते. त्यांची एक रचना जीवनावर कसे भाष्य करते पहा.

‘कसला विचित्र कपडा दिलाय मला शिवायला

एकीकडून खेचून घ्यावा, तर दुसरीकडून सुटून जातो

उसवण्या-शिवण्यातच सारं आयुष्य निघून गेले’

किंवा   

‘चला ना बसू या गोंगाटातच, जिथे काही ऐकायला येत नाही

या शांततेत तर विचारही कानात सारखे आवाज करतात.

हे कंटाळवाणे पुरातन एकाकीपण सतत बडबडत असते.’

प्रियकर – प्रेयसीची नजारनजर त्यांचे एकटक बघणे आणि त्याच वेळी लोकं बघातील म्हणून तिला वाटणारा चोरटेपणा किती मनोज्ञपणे खाली व्यक्त झालाय.

‘डोळ्यांना सांग तुझ्या, इतक्या लोकात

मोठ्या आवाजात बोलू नका ना माझ्याशी

लोकांना माझे नाव ओळखू यायचे कदाचित’

अशीच आणखी एक कविता-

‘सांजेला जळणारी मेणबत्ती बघत होती वाट

अजून कसा कुणी पतंग आला नाही

असेल कुणी सवत माझी जवळच कुठे जळत’

या अशा कविता. त्यांच्यावर वेगळं भाष्य नकोच. वाचायच्या अन मनोमनी उमजून घ्यायच्या. जीवन-मृत्यूच्या संदर्भातले एक प्रगल्भ चिंतन पहा.

‘मोजून – मापून कालगणना होते वाळूच्या घड्याळात

एक बाजू रीती होते, तेव्हा घड्याळ पुन्हा उलटे करतात.

हे आयुष्य संपेल तेव्हा तो नाही असाच मला उलटे करणार?’

खरोखर शांताबाईंचा अनुवाद हा केवळ अनुवाद नसतोच. अनुसृजन असते ते!

गुलजारांनी ‘त्रिवेणी’ शांताबाईंना समर्पित करताना लिहिलय –   

‘आप सरस्वती की तरह ही मिली

और सरस्वती की तरह गुम हो गई

ये ‘त्रिवेणी’

आप ही को अर्पित कर रहा हूँ।’

एका विख्यात, प्रतिभावंत कवीने शांताबाईंना ‘सरस्वती’ची उपमा दिली, ती काही केवळ सरिता- काव्यसरिता या मर्यादित अर्थाने नव्हे! नाहीच! सरस्वती विद्या कला यांची अधिष्ठात्री देवता. या सरस्वतीने आपला अंश शांताबाईंच्या जाणिवेत परावर्तित केलाय, असं वाटावं, इतकी प्रसन्न, प्रतिभासंपन्न कविता शांताबाईंची आहे. रसिक वाचकाला तिचा लळा लागतो. स्निग्ध जिव्हाळा जाणवतो.

समाप्त

©️ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 96 ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 96 ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे यह भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम  देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच ज़मीन की फरोख्त करते हैं। खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ, धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले ही शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों, खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस के आयोजनों  पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ ☆ आठवणीतील शांताबाई शेळके… ☆ डाॅ.व्यंकटेश जंबगी ☆

कवयित्री शांताबाई शेळके विशेषांक

डाॅ.व्यंकटेश जंबगी

?  विविधा ?

☆ आठवणीतील शांताबाई शेळके… ☆ डाॅ.व्यंकटेश जंबगी ☆

साधारणपणे १९९२/९३ सालीची गोष्ट असावी! मी त्यावेळी तळेगाव दाभाडे (जि.पुणे) येथे वैद्यकीय अधिकारी होतो. मला साहित्याची आवड शाळेपासून होती.कविता पाठ करायला आवडायचे.शांता शेळके यांच्या कविता आमच्या मराठीच्या पुस्तकात होत्या.तळेगावातील” चंद्रकिरण काव्य मंडळ” या साहित्य विषयक कार्य करणाऱ्या मंडळाचा मी त्या वेळी अध्यक्ष होतो.एकदा तेथील एका संस्थेने शांता शेळके यांना एका कार्यक्रमासाठी बोलावले होते.त्या कार्यक्रमाला प्रमुख पाहुणे म्हणून मला बोलावले होते.मला अत्यंत आनंद झाला.मला १५ मि.बोलायचे असे सांगण्यात आले. ४ दिवस अवकाश होता.मी वाचनालयात गेलो व त्यांच्या निवडक कविता, भावगीते, चित्रपट गीते यांचा अभ्यास केला.भाषण शांताबाईंसमोर करायचे म्हणजे चांगली तयारी हवी.

कार्यक्रमाचा दिवस आला. शांताबाई वेळेवर आल्या. कार्यक्रमापूर्वी ओळख झाली. मी त्यांच्या पाया पडलो.

चहापाणी झाले. शांताबाईंबरोबर अनौपचारिक गप्पा झाल्या. माझे प्रस्ताविक भाषण झाले. त्यांचे भाषण ऐकताना आम्ही भारावून गेलो.आपली जुनी लोकगीते, त्यांची आवडती गाणी व कविता, प्रचंड वाचन आणि शब्दसंग्रह….सारेच अवाक् करणारे… त्यांनी “तारांबळ” हा शब्द कसा निर्माण झाला असावा ? हे फार मार्मिकपणे सांगितले. त्या म्हणाल्या,”  लग्नामध्ये सगळ्यांची गडबड चालू असते, त्यावेळी भटजी ” तदेव लग्नं सुदिनं तदेव!” ताराबलं” दैवबलं तदेव….!!” असे म्हणत असतात. त्यावेळी ‘आमचं ताराबलं झालं’ (गडबड झाली)असं कोणीतरी म्हणाले असेल, त्यावरून हा शब्द रूढ झाला असावा”. ही एक आठवण..त्या म्हणाल्या,” पाच वर्षे वयाच्या मुलीलाही मी मैत्रीण समजते..मला तिच्याशी छान खेळता येतं. ” ही दुसरी आठवण.

मला भावला तो त्यांचा अत्यंत साधेपणा, ओघवती भाषा, गद्यातून पद्यात आणि पद्यातून गद्यात कधी, कशा जायच्या हे कळायचे नाही. त्यांचा सत्कार करण्याची संधी मला मिळाली, ही माझ्या आयुष्यातील achievement..! त्यांच्या सर्व प्रकारच्या आणि सर्व काळातील साहित्याचा अभ्यास अचंबित करणारा आहे.

© डॉ. व्यंकटेश जंबगी

एफ-३, कौशल अपार्टमेंट, श्रीरामनगर, ५ वी गल्ली, सांगली – ४१६ ४१४
मो ९९७५६००८८७

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 93 ☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 93 ☆

☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ 

ग़लत सोच, ग़लत अंदाज़ इंसान को हर रिश्ते से  गुमराह कर देता है। इसलिए सबको साथ रखो, स्वार्थ को नहीं, क्योंकि आपके विचारों से अधिक कोई भी आपको कष्ट नहीं पहुंचा सकता– यह कथन कोटिशः सत्य है। मानव की सोच ही शत्रुता व मित्रता का मापदंड है। ग़लत सोच के कारण आप पूरे जहान को स्वयं से दूर कर सकते हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप आपके अपने भी आपसे आंखें चुराने लग जाते हैं और आपको अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देते हैं। यदि आपकी सोच सकारात्मक है, तो आप सबकी आंखों के तारे हो जाते हैं। सब आपसे स्नेह रखते हैं।

ग़लत सोच के साथ-साथ ग़लत अंदाज़ भी बहुत ख़तरनाक होता है। इसीलिए गुलज़ार ने कहा है कि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और इंसान को लफ़्ज़ों को परोसने से पहले अवश्य चख लेना चाहिए। महात्मा बुद्ध की सोच भी यही दर्शाती है कि जिस व्यवहार की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं, वैसा व्यवहार आपको उनके साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जो भी आप करते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए, ताकि आपको उसका अच्छा फल प्राप्त हो सके।

मानव स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि जैसी उसकी सोच व विचारधारा होती है, वैसी ही उसे संपूर्ण सृष्टि भासती है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपनी संगति से पहचाना जाता है। उसे संसार के लोग इतना कष्ट नहीं पहुंचा सकते; जितनी आप स्वयं की हानि कर सकते हैं। सो! मानव को स्वार्थ का त्याग करना कारग़र है। इसके लिए उसे अपनी मैं अथवा अहं का त्याग करना होगा। अहं मानव को आत्मकेंद्रिता के व्यूह में जकड़ लेता है और वह अपने घर-परिवार के इतर कुछ भी नहीं सोच पाता। सो! मानव को सदैव ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की कामना करनी चाहिए, क्योंकि हम भारतीय वसुधैव कुटुंबकम् की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, जो सकारात्मक सोच का प्रतिफल है।

सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और सुख और दु:ख दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला व्यक्ति ही सफल होता है। मानव को सुख-दु:ख में सदैव सम रहना चाहिए, क्योंकि सुख में व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है और किसी को अपने समान नहीं समझता। दु:ख में व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा होती है। परंतु दु:ख में वह टूट जाता है और पथ-विचलित हो जाता है। उस स्थिति में चिंता व तनाव उसे घेर लेते हैं और वह अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है। सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है; दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की उपस्थिति होने पर दूसरा कभी दस्तक नहीं देता और उसके जाने के पश्चात् ही वह आता है। सृष्टि का क्रम आना और जाना है। मानव संसार में जन्म लेता है और कुछ समय पश्चात् उसे अलविदा कह चला जाता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।

परमात्मा हमारा भाग्य नहीं लिखता। हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य निश्चित करते हैं। जैसी हमारी सोच होगी, वैसे हमारे विचार होंगे और कर्म भी यथानुकूल होंगे। हमें किसी के प्रति ग़लत विचारधारा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि यह हमारे अंतर्मन में शत्रुता का भाव जाग्रत करती है और दूसरे लोग भी हमारे निकट आना तक पसंद नहीं करते। उस स्थिति में सब स्वप्न व संबंध मर जाते हैं। इसलिए मानव को ग़लत सोच कभी नहीं रखनी चाहिए और बोलने से पहले सदैव सोचना चाहिए, क्योंकि हमारे बोलने के अंदाज़ से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए रहीम जी का यह दोहा मानव को मधुर वाणी में बोलने की सीख देता है– ‘रहिमन वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय।’ इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगी कि मानव को तभी बोलना चाहिए जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अर्थात् यथासमय, अवसरानुकूल सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना श्रेयस्कर है।

                  

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 45 ☆ चेदि के नंदिकेश्वर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  “चेदि के नंदिकेश्वर”.)

☆ किसलय की कलम से # 45 ☆

☆ चेदि के नंदिकेश्वर ☆

देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की पूजा आराधना तो बहुत बाद की बात है, भोले शंकर के स्मरण मात्र से मानव अपने तन-मन में उनका अनुभव करने लगता है। पावन सलिला माँ नर्मदा की जन्मस्थली अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक 16 करोड़ शिवलिंग तथा दो करोड़ तीर्थ होने की मान्यता सुनकर आश्चर्य होता है। अतैव हम नर्मदातट को शिवमय क्षेत्र भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं माना जाएगा। नर्मदा तट के जनमानस में भगवान शिव के प्रति प्रारंभ से ही अगाध आस्था के प्रमाण उपलब्ध हैं। सोमेश्वर , मंगलेश्वर , तपेश्वर , कुंभेश्वर , शूलेश्वर , विमलेश्वर , मदनेश्वर , सुखेश्वर , ब्रम्हेश्वर , परमेश्वर , अवतारेश्वर एवं बरगी जबलपुर (मध्य प्रदेश) के नजदीक नंदिकेश्वर शिवलिंग आज भी विद्यमान हैं। नर्मदा में डुबकी लगाकर निकाले गए पाषाणों की शिवलिंग के रूप में स्थापना कर भक्तगण पूरी आस्था के साथ पूजा करते हैं। माँ नर्मदा की धारा में शिव रूपी पाषाण सहजता से देखे जा सकते हैं। ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ के परिवर्तन की स्थिति में नर्मदेश्वर की ही स्थापना की जाती है। नर्मदा एवं भगवान शिव की कृपा से नर्मदा के दोनों तटों के एक डेढ़ किलोमीटर क्षेत्र में कभी अकाल या दुर्भिक्ष नहीं पड़ता। इसीलिए यह क्षेत्र सुभिक्ष क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में यह भी देखा गया है कि हमारे अनेक ऋषियों ने नर्मदा के किनारे जिस स्थान को अपनी तपोस्थली बनाया अथवा जहाँ ठहरे वहाँ उन्हीं नाम से उस स्थान अथवा कुंड का नामकरण हो गया।

पौराणिक कथाओं, नर्मदा पुराण, धार्मिक ग्रंथों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर प्राचीन चेदि के अंतर्गत महिष्मती एवं त्रिपुरी आती थी। महिष्मती के महाबली सहस्रार्जुन, परशुराम के पिताश्री जमदग्नि एवं चेदि नरेश शिशुपाल को कौन नहीं जानता। नर्मदा तट भगवान दत्तात्रेय, शिवभक्त रावण की तपोभूमि एवम् भ्रमण स्थली रही है। चेदि की प्राचीनता का प्रमाण इसी से लगाया जा सकता है कि चेदि नरेश स्वयं सीता जी के स्वयंवर में गए थे। बाल रामायण के अनुसार:-

सीतास्वयंवर निदान धनुर्धरेण

दग्धात्पुर त्रितयतो बिभूना भवेन्।

खंड निपत्य भुवि या नगरी बभूव

तामेष चैद्य तिलकस्त्रिपुरीम् प्रशस्ति।।

इसी तरह स्वयं भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का पिंडदान भी नर्मदा तट पर ही किया था। परशुराम द्वारा सहस्रार्जुन के पुत्रों को मारने के उपरांत भयभीत हैहयवंशी राजा सुरक्षा की दृष्टि से त्रिपुरी (जो वर्तमान में जबलपुर, भेड़ाघाट मार्ग पर पश्चिम दिशा में 13 किलोमीटर दूर तेवर है) आ गए और त्रिपुरी को ही राजधानी के रूप में अपनाया । प्रमाणित है कि इसी त्रिपुरी में त्रिपुरासुर के अत्याचारों से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने त्रिपुर नामक राक्षस का वध किया था।

बलशाली त्रिपुरासुर ने भगवान शिव के विश्वकर्मा द्वारा निर्मित अद्भुत रथ को भी जब छतिग्रस्त कर दिया तब अपने आराध्य की सहायतार्थ भगवान विष्णु ने मायावी बैल नंदी का रूप धारण कर रथ को अपने सींगों से ऊपर उठा लिया था। उसी समय  भगवान शिव त्रिपुर राक्षस का वध करके त्रिपुरारि अर्थात त्रिपुर के अरि (दुश्मन) नाम से विख्यात हुए। इसी तरह जैसा सभी जानते हैं कि विष्णु के आराध्य भगवान शिव ही हैं। अतः इस त्रिपुरासुर संग्राम स्थल पर विष्णु ने नंदी का रूप धारण किया था, जिस कारण नंदी के ईश्वर (आराध्य) अर्थात नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना की गई यहाँ से लगभग 7 किलोमीटर दूर जिस स्थान पर नंदी रूपी विष्णु भगवान ने विश्राम किया था वह स्थान नाँदिया घाट नाम से विख्यात है। नंदिकेश्वर के समीप ही भगवान परशुराम के पिता जमदग्नि की तपोभूमि के पास जमदग्नि कुंड एवम् ब्रह्महत्या के पाप से भी मुक्ति दिलाने वाले हत्याहरण कुंड का स्थित होना समसामयिक तत्त्वों की पुष्टि करता है। ज्ञातव्य है कि इनमें से अनेक स्थल नर्मदा नदी पर बरगी बाँध बनने के कारण जलमग्न हो चुके हैं। हम पाते हैं कि त्रिपुरासुर वध विषयक शिलालेख से प्रतीत होता है कि शिव द्वारा त्रिपुरासुर का वध देवासुर संग्राम की कथा नहीं वरन आर्य एवं अनार्य जातियों के संघर्ष का प्रतीक है। महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 5-4 छंद 8 में त्रिपुरी एवं चेदि का उल्लेख मिलता है। प्रामाणिक रूप से उपरोक्त तथ्यों की ओर ध्यानाकर्षण का मात्र उद्देश्य वर्तमान प्रामाणिक स्थल हमारे पुराने एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार कहे जा सकते हैं । जबलपुर जिले के बरगी नगर स्थित नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना परशुराम काल में ही की गई थी विद्वानों द्वारा की गई काल गणना के अनुसार राम जन्म के पूर्व परशुराम हुए थे। नंदिकेश्वर शिवलिंग का स्थापना काल लगभग 8 लाख वर्ष ही माना जाना चाहिए।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 95 ☆ सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 95 ☆ सोंध ☆

असमय बरसात हुई है। कुछ बच्चे घर से मनाही के बाद भी भीगने के आनंद से स्वयं को वंचित होने से रोक नहीं पा रहे हैं। महामारी  के समय में परिजनों की अपनी चिंताएँ हैं। अलग-अलग घर से अपने-अपने बच्चे का नाम लेकर पुकार लग रही है। ऐसे में अपना आनंद अधूरा छोड़कर घर लौटे लड़के को डाँटती उसकी माँ का स्वर कानों में पड़ा, “आई टोल्ड यू मैनी टाइम्स बट यू डोंट लिसन। मिट्टी इज़ डर्टी थिंग.., मिट्टी को हाथ भी नहीं लगाना। यू अंडरस्टैंड?”…इस आभिजात्य(!)  माँ की चिंता कानों में पिघले सीसे की तरह उतरी।

मिट्ट इज़ डर्टी थिंग..!!  सृष्टि के 84 लाख जीवों में से एक मनुष्य को छोड़कर शेष सबका प्रकृति के साथ तादात्म्य है। बुद्धि का वरदान प्राप्त विकास की राह पर चलते मनुष्य से यह तादात्म्य अधिक अपेक्षित है। तथापि अनेक प्राकृतिक आपदाएँ झेलते मनुष्य की भस्मासुरी प्रवृत्ति आश्चर्यचकित करती है। अपनी लघुकथा ‘सोंध’ स्मरण हो आई। कथा कुछ इस प्रकार है-…..

‘इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें।

हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं।  माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।…..

इस लघुकथा का संदर्भ इसलिए कि अपनी क्षणभंगुर कृत्रिमता को अविनाशी प्रकृति के सामने खड़ा करता मनुष्य दयनीय लगने लगा है। मिट्टी से बना आदमी अपनी मिट्टी खुद पलीद कर रहा है।

मिट्टी में मिलने के सत्य को जानते हुए भी मिट्टी से एलर्जी रखने वाली मनुष्य की यह मानसिकता सचमुच भय उत्पन्न करती है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 92 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 92 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं। 

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print