हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 78 ☆ भाग्य बनाम कर्म ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख भाग्य बनाम कर्म।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 78 ☆

☆ भाग्य बनाम कर्म ☆

‘भाग्य पर नहीं, कर्म पर उम्मीद रखिए। कर्म उम्मीदों को दुगुन्ना कर देता है।’ सो! हौंसला व रुतबा बनाए रखिए… अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। संबंध इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में उमंग-तरंग व आनंदोल्लास जाग्रत करते हैं … अर्थात् प्रेम, खुशी, उल्लास, सत्य व विश्वास उत्पन्न करते हैं– जिसका मूल उद्देश्य है…सम्मान देना। सो! उम्मीद केवल अपनों से अथवा स्वयं से रखिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि अपेक्षा को उपेक्षा में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता और इंसान की सोच, सिद्धांत व मान्यताएं कांच की तरह पल भर में दरक़ जाती है। वैसे भी दूसरों से उम्मीद रखने से दु:ख प्राप्त होता है और स्वयं से प्राप्त प्रेरणा हमें उत्साह से भर देती है…हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जगाती है और हम अपने हाथ जगन्नाथ समझकर कर्म करने में निमग्न हो जाते हैं। सो! इसके लिए आवश्यकता है; एक-चित्त, एक-मन होकर एकाग्रता व तल्लीनता से कर्म करने की… जिसके लिए मानव को, स्वयं को किसी से कम नहीं आंकना चाहिए और अपना रुतबा व मान-सम्मान कायम रखना चाहिए, क्योंकि समय बदलता रहता है, कभी ठहरता नहीं। अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। सुख सुबह के प्रकाश- सम होता है, जो मांगने पर नहीं, जागने पर ही मिलता है। शाम को थका-हारा सूर्य विश्राम करने के पश्चात् भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, संपूर्ण संसार को आह्लादित कर नवीन ऊर्जा से भर देता है और पक्षियों का मधुर कलरव सुन मानव हृदय आंदोलित हो जाता है; खुशी से झूम उठता है। यह सब देखकर मानव ठगा-सा और अचंभित रह जाता है। वह नयी स्फूर्ति व विश्वास के साथ अपनी दिनचर्या में लग जाता है और इस बीच उसके हृदय में कोई नकारात्मक विचार दस्तक नहीं देता; न ही उसे आलस्य का अनुभव होता है, क्योंकि उसे अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर भरोसा होता है। अक्सर लोग आजीवन इस उधेड़बुन में उलझे रहते हैं, परंतु फिर भी उनका किसी से कोई भी संबंध-सरोकार नहीं होता।

शायद! इसलिए ही मानव को दो प्रकार के लोगों से सावधान रहने का संदेश दिया गया है। प्रथम व्यस्त व द्वितीय घमण्डी, क्योंकि व्यस्त मनुष्य अपनी मर्ज़ी व फ़ुर्सत रहने पर बात करता है और घमण्डी केवल अपने मतलब से ही बात करता है। सो! दोनों ही अविश्वसनीय हैं और कभी भी अच्छे मित्र नहीं बन सकते हैं। दूसरे शब्दों में इनसे सजग व सचेत ही नहीं; सावधान रहना भी अपेक्षित है। स्वार्थ पर आधारित संबंधों का फल कभी भी मधुर, शुभ व सकारात्मक नहीं होता। वे सदैव आपको ग़लत राहों की ओर ले जाते हैं और पथ-विचलित कर सुक़ून पाते हैं। सो! संबंध तो इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में सतरंगी भावनाएं–प्रेम, उदासी, खुशी, ग़म आदि जाग्रत करते हैं और रंगीन स्वप्न दिखाते हैं। आकाश में छाए इंद्रधनुषी बादल भी अपनी रंगीन छटा दिखाकर मानव-मन को आंदोलित व आकर्षित करते हैं और सत्यम्, शिवम् सुंदरम् की भावनाओं से ओतप्रोत करते हैं। कभी वह प्रेम भाव मानव हृदय को नवचेतना से आप्लावित व उद्वेलित करता है; मान-मनुहार के भाव जाग्रत करता है, तो कभी उदासी व विरह के भाव उसके हृदय में स्वतः प्रस्फुटित हो जाते हैं। प्रेम के अभाव में विरह पनपता है; जो मन में वेदना, दु:ख व पीड़ा को जाग्रत करता है। सो! मानव कभी खुशी से फूला नहीं समाता, तो कभी दु:ख व ग़मों के सागर में अवगाहन करता हुआ डूबता-उतराता है। कभी उसे यह मायावी जगत् सत्य भासता है और संबंध शाश्वत… जो मन में आस्था व विश्वास जाग्रत करते हैं। अक्सर मानव क्षणिक सौंदर्य को सत्य जान, उसकी ओर आकर्षित होकर अपनी सुध-बुध खो बैठता है।  सो! वे भाव जीवन में आस्था व विश्वास जाग्रत  करते हैं और इंसान उसे सत्य जान आसक्त रहता है। परंतु उस स्थिति में वह भूल जाता है कि ज़िंदगी आदान-प्रदान का दूसरा नाम है …’आप जैसा करोगे, वैसा भरोगे’.. ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ और ‘कर भला, हो भला’ के भाव को पोषित करते हैं। इसलिए जब मानव विनम्र भाव से दूसरों को सम्मान देता है, तो उसके हृदय में अहं भाव नदारद रहता है तथा उसे सम्पूर्ण सृष्टि में सौंदर्य ही सौंदर्य बिखरा हुआ दिखाई पड़ता है। वह उन ख़ुशनुमा पलों को अपने आंचल में समेट लेना चाहता है; बाहों में भर लेना चाहता है। परंतु आदि शंकराचार्य के मतानुसार ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या है, नश्वर है अर्थात् जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है; अवश्यांभावी है। इसलिए मानव को सांसारिक आकर्षणों व माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि आसक्ति विनाश का मूल है; जो उसे लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग से भटकाती है।

मानव जीवन का मूल लक्ष्य है… प्रभु अथवा मोक्ष की प्राप्ति; आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार व तादात्म्य, जिसे भुलाने के कारण वह लख चौरासी में भटकता रहता है। वह कभी अपने भाग्य को दोषी ठहराता है; तो कभी नियति पर विश्वास कर, हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है और सोचता है कि मानव को भाग्य में लिखा अवश्य प्राप्त होता है। सो! वह कर्म में विश्वास नहीं रखता तथा भूल जाता है कि पुरुषार्थ के बिना मानव को मनचाहा प्राप्त नहीं हो सकता। परिश्रम ही सफलता की कुंजी है और निरंतर अभ्यास से मूर्ख भी विद्वान बन कर, संसार में उत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर आधिपत्य स्थापित कर सकता है। इसके लिए आवश्यकता होती है…सार्थक उद्देश्य व चिंतन-मनन की; जिसके सहारे मानव आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रख सकता है। ‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता। एक पत्थर तो तबीयत से उछालो, यारो!’ दुष्यंत की ये पंक्तियां मानव हृदय को आंदोलित व ऊर्जस्वित करती हैं। सो! आवश्यकता है साहस जुटाने की, आज का काम कल पर न छोड़ने की, क्योंकि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होयेगी, मूर्ख करेगा कब’… अर्थात् प्रलय के आने पर बावरा मन अपने कार्यों को कैसे संपन्न कर पायेगा? इसलिए भाग्य पर नहीं, कर्म पर विश्वास रखिए; आपकी उम्मीदें अवश्य फलित होंगी व रंगीन स्वप्न अवश्य साकार होंगे।

हां! जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं… हम बिना सोचे-समझे व विचार-विमर्श किए, कार्य को अंजाम दे देते हैं। दूसरे आलसी व्यक्ति, जो कर्म करते ही नहीं…दोनों की नियति लगभग एक जैसी होती है और उनका परिणाम भी सुखदायक व मंगलकारी नहीं होता। अक्सर हमारी आंखों पर अहं का परदा पड़ा रहता है, जिसके कारण न हमें दूसरों के गुण दिखाई पड़ते हैं, न ही हम अपने अवगुणों से अवगत होकर उन्हें स्वीकार कर पाते हैं। यही मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। इस स्थिति में मानव में ज्ञान का अभाव होता है और सोचने-समझने की शक्ति भी नहीं होती…उससे भी बढ़कर वह स्वयं से अधिक बुद्धिमान किसी अन्य को स्वीकारता ही नहीं… इसलिए दूसरे की बात को सत्य स्वीकारने व अहमियत देने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?

अहं को मानव का सबसे बड़ा शत्रु स्वीकारा गया है तथा अहंनिष्ठ व्यक्ति से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति मानव को पतन की राह की ओर ले जाता है। ‘सो! फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर करना चाहिए; दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति सदैव के लिए स्वयं छूट जाएगी।’ इस स्थिति में दूसरों को आईना दिखाने में अपना समय नष्ट करने की अपेक्षा, आत्मावलोकन करना अधिक श्रेयस्कर है। आत्मचिंतन करना मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। मुझे याद आ रही हैं निर्मल वर्मा की ये पंक्तियां… ‘जब मनुष्य के अंदर का देवता मर जाता है, तो वह झूठे देवताओं की शरण में जाता है।’ इसलिए मानव को परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार, उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक रहना चाहिए; न कि तथाकथित संतों व देवी-देवताओं की शरण में आश्रय ग्रहण करना।’ पहले तो ऋषि-मुनि जप-तप आदि करते थे, तथा मानव-मात्र को कल्याण का मार्ग सुझाते थे…जीने का अंदाज़ सिखाते थे। उनका जीवन सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित होता था और वे ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ के अंतर्गत समस्त वसुधा को अपना परिवार स्वीकार उसके मंगल हित कार्यरत रहते थे। परंतु आज के मानव को निजी स्वार्थों में लिप्त रहने के कारण, अपने व अपने परिजनों के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आता। इसलिए ऐसा व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी व हितकारी कैसे हो सकता है?

मौन-चिंतन व एकांत मानव का सर्वश्रेष्ठ गुण है और ख़ामोशी की तहज़ीब है, जो संस्कारों की खबर देती है। संस्कृति संस्कारों की जननी है, जो हमें अज्ञान रूपी गहन अंधकार से बाहर निकालती है और तथाकथित अपनों में से अपनों को खोजने व पहचान करने का मार्ग दर्शाती है। मित्र वे नहीं होते, जो आपकी खामोशी का अर्थ न समझ सकें अर्थात् ‘जो ज़ाहिर हो जाए वह दर्द कैसा/ ख़ामोशी न समझ पाए वह हमदर्द कैसा?’ यहां ख़ामोशी का पर्याय है… सच्चा मित्र व हमदर्द है, जिसे समझने के लिए भाषा की दरक़ार नहीं होती। वह आपके चेहरे को देखकर अंतर्मन के भावों को समझ जाता है।

‘ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ।’ इसलिए बहुत दूर तक जाना पड़ता है, सिर्फ़ यह जानने के लिए कि नज़दीक कौन है। यह प्रकृति का नियम है कि जब हमें सब कुछ प्राप्त हो जाता है, ज़िंदगी हमें निष्फल व अस्तित्वहीन लगती है और जब हमें किसी वस्तु का अभाव खलता है; हमें उसकी महत्ता व अहमियत नज़र आती है, क्योंकि लोगों की अहमियत व उनके अस्तित्व का भान हमें उनके न रहने पर अनुभव होता है। इसलिए अहं को अपने शब्दकोश से निकाल बाहर फेंकिए। सब्र व सहनशीलता को जीवन में धारण कर निरंतर प्रयासरत रहिए। इसलिए निष्काम कर्म कीजिए, सहनशील बनिए, क्योंकि जो सहना सीख जाता है, उसे रहना आ जाता है अर्थात् जीना आ जाता है। सो! भाग्यवादी मत बनिये, स्वयं पर भरोसा कीजिए तथा ख़ुद से उम्मीद रखिए, क्योंकि बदलता वक्त व बदलते लोग किसी के नहीं होते। सच्चा व्यक्ति ही केवल आस्तिक होता है, जो स्वयं पर विश्वास रखता है तथा यह अकाट्य सत्य है कि कृत-कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है। ‘लफ़्ज़ जब बरसते हैं, बनकर बूंदें/ मौसम कोई भी हो, सब भीग जाते हैं।’ इसलिए ‘अंदाज़ से मत मापिए, किसी इंसान की हस्ती/ ठहरे हुए दरिया अक्सर, गहरे हुआ करते हैं।’ इसलिए लोगों को परखिए… अंदाज़ मत लगाइए और सुंदरता दर्पण में नहीं, लोगों के हृदय में खोजिए।

‘सफल व्यक्ति सीट अथवा कुर्सी पर आराम नहीं करते, उन्हें काम करने में आनंद आता है और वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं ‘ अर्थात् वे सदैव लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और यही होता है उनके जीने का अंदाज़… जो सार्थक है, सुंदर है, अनुकरणीय है। इसलिए जीवन मेंं सब्र व सच्चाई का दामन कभी मत छोड़िए, क्योंकि यह आप को गिरने नहीं देती… न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में। व्यवहार ज्ञान से भी बड़ा होता है, क्योंकि जब विषम परिस्थितियों में ज्ञान फेल हो जाता है, तो व्यवहार अपना करिश्मा दिखाकर उसे सफलता के मार्ग तक ले जाता है। इसलिए विशेष बनने की कोशिश कभी मत कीजिए। यदि आप साधारण हैं, तो साधारण बने रहिए…एक दिन आप अतिविशिष्ट बन जायेंगे। इसके लिए ज़रूरी है ‘आप विचार ऐसे रखिए कि आपके विचार पर दूसरों को विचार करना पड़े।’ सोना अग्नि में तप कर ही कुंदन बनता है, उसी प्रकार मानव संघर्ष रूपी अग्नि में तपकर अर्थात् विभिन्न आपदाओं का सामना कर निखरता है; नये मुक़ाम हासिल करता है। इसलिए   ‘शक्तिशाली विजयी भव’ से अधिक कारग़र है, उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है, सार्थक है, सुंदर है… अनुकरणीय है, मननीय है… ‘संघर्षशील विजयी भव’, क्योंकि वह भाग्य पर विश्वास रखने का पक्षधर नहीं है, बल्कि कर्मशील बनने का प्रेरक और संदेशवाहक है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सामूहिक सत्कर्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ सामूहिक सत्कर्म ☆

कई वर्ष पहले की बात है। इंटरनेट सर्चिंग या अंतरजाल खोज के क्षेत्र में नया था। रक्षाबंधन पर एक प्रोजेक्ट कर रहा था। राखी की विभिन्न डिज़ाइनों की कुछ तस्वीरों के लिए इंटरनेट पर ‘राखी’ शब्द डाला और परिणाम देखकर अवाक हो गया। उन दिनों फिल्मों में आइटम साँग करने वाली इसी नाम की एक अभिनेत्री की तस्वीरें धड़ाधड़ स्क्रिन पर आने लगी थीं। इच्छित की समुचित खोज के लिए सही शब्दों के प्रयोग और तरीके से मैं तब तक अनजान था। एक बात और जानी कि सर्वाधिक सर्च किये शब्द या चित्र उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है।

‘राखी’ का प्रकरण मज़ाक में ही आया-गया हुआ। इस मज़ाक को भीतर तक चीर  देनेवाला चाकू उस समय लगा,  जब ऑनलाइन कुछ टाइप कर रहा था। अपने कथ्य में किसी संदर्भ में ‘सामूहिक’ शब्द टाइप किया। सामूहिक के साथ ही स्क्रिन पर ‘दुष्कर्म’ शब्द झलकने लगा। ‘सर्वाधिक सर्च किये शब्द उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है’, का नियम याद आया और सिर पर मानो हथौड़ा चल पड़ा। अंगुलियाँ रुक गईं, टाइपिंग थम गई पर सर्वाधिक सर्च हुआ शब्द निरंतर, अबाध  मेरा पीछा करता रहा।

क्या हो गया है हमारी सामुदायिक और सामूहिक चेतना को? मनुष्य का चोला पहने  रंगे सियारों ने मनुष्यता को कलंकित करने की मुहिम छेड़ रखी है। इस मुहिम के विरुद्ध लम्बी सकारात्मक रेखा हम कब खींच पाएँगे? सामुदायिक बोध से उपजा हमारा सामूहिक प्रयास क्या इस ‘दुष्कर्म’ को पीछे ठेलकर ‘सत्कर्म’ को सर्वाधिक सर्च किया जानेवाला शब्द बना पाएगा?

# आज ‘सत्कर्म’ सर्च करें।

 

©  संजय भारद्वाज

(17 नवम्बर 2019, रात्रि 3.40 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 80 ☆ अपरंपार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 80 ☆ अपरंपार ☆

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाईवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं। जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोजाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पाये जीव की गति मनुष्य के संग से ही सम्भव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा

उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा

जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना

कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई

मानुष करनि मूरि कुछ अहई।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

पार जाने की सुध बनी रहे, यही अपरंपार संसार का सार है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 77 ☆ हक़ीक़त में गुमनाम सपने ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख हक़ीक़त में गुमनाम सपने यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 77 ☆

☆ हक़ीक़त में गुमनाम सपने ☆

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद्द अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है, अहसास व जज़्बात का; भावनाओं और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निर्धारित-निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिसके आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व अदम्य साहस को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना, प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’. .. अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर के लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व अन्य लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुसरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर भी कोई आपको पथ- विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर, अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को अन्वेषण की राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद्द उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी ही नहीं, उन्नति के पथ का अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके असंख्य प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्मविश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर, नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण हमें देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ ये उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है। अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना… हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानें तथा धीर, वीर, गंभीर बनकर समाज को रोशन करें… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर, कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है; वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, जो बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर, पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लायी। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने उनमें फूट डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह बटेर अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है’ तथा ‘बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करना अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद से जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिसके आधार पर वह उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उस स्थिति में अपना प्रतिपक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है…मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देखकर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं अघाते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव-जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उसके अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 30 ☆ इंसान का आदर्श होना जन्मजात नहीं है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “इंसान का आदर्श होना जन्मजात नहीं है”. )

☆ किसलय की कलम से # 30 ☆

☆ इंसान का आदर्श होना जन्मजात नहीं है ☆

जब हम सामाजिक व्यवस्थाओं के दायरे में रहकर जीवनयापन करते हैं तब भी हमें अनेक तरह से सीख मिलती है। हमारे नेक सिद्धांत ही हमें आदर्श पथ पर चलने हेतु प्रेरित करते हैं, और यही सन्देश समाज में भी जाता है। हमारे द्वारा किये जाने वाले ऐसे आचार-व्यवहार दूसरों को इस दिशा पर चलने के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं। इंसान का आदर्श होना कोई जन्मजात गुण नहीं होता। हम समाज में रहकर ही सामाजिक गतिविधियों को निकट से देख पाते हैं। यदि हम अपने चिंतन और मनन से अच्छाई-बुराई एवं हानि-लाभ के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिणाम की सूक्ष्मता से थाह लें तो हम उचित एवं अनुचित के काफी निकट पहुँच जाते हैं। इन दोनों पहलुओं में हमें उचित पहलू पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है तथा अनुचित पहलू के प्रति नकारात्मक रुख भी अपनाना होता है। सकारात्मक दृष्टिकोण ही हमारे आदर्श मार्ग का प्रथम चरण होता है। हमारी भावनायें, हमारे संस्कार, हमारी शिक्षा-दीक्षा और हमारी लगन का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। हम प्रायः इनके द्वारा ही उचित और अनुचित का फर्क सहजता से समझ पाते हैं। अपने धीरज और विवेक से अनुचित का प्रतिकार नियोजित ढंग से कर सकते हैं। जैसे परिग्रह की प्रवृति मनुष्य को कहीं न कहीं लोभी और स्वार्थी बनाती है। आवश्यकता से अधिक संग्रह ही हमें वास्तविक कर्म से  विलग करता है। एक सच्चे इंसान का कर्त्तव्य अपनी बुद्धि एवं विवेक का सदुपयोग करना माना गया है । समाज के काम आना और समाज में रहते हुए परस्पर भाईचारे का परिवेश निर्मित करना हर मनुष्य का सिद्धांत होना चाहिए। समाज का उत्थान हम सब की अच्छाईयों पर निर्भर करता है। बुराई समाज को पतन की ओर ले जाती है। हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा। तब हम स्वयं से ही शुरुआत क्यों न करें। कल हमारा परिवार, हमारा मोहल्ला और हमारा नगर इस हेतु प्रेरित होगा। दीप से दीप जलेंगे तो तिमिर हटेगा ही। जब हम एक से दो , दो से चार होंगे तब जग में सुधार की लहर बहना सुनिश्चित है और उसकी परिणति भी सुखद होगी। निश्चित रूप से हमारे मन में आएगा कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि संपूर्ण जग सुधर जाए? परंतु लोग ऐसा सोचते ही क्यों हैं? यदि पेड़ लगाने वाला सोचने लगे कि मुझे उसके फल चखने को मिलेंगे ही नहीं तो मैं पेड़ क्यों लगाऊँ? तब तो हमारे पूर्वजों ने पेड़ क्यों लगाये! यदि हम पेड़ नहीं लगाएँगे तो हमारी अगली पीढ़ी आपको कैसे याद करेगी । बस यही बात है आपको याद किए जाने की। आप के कर्त्तव्य और आपका सामाजिक योगदान ही आप की धरोहर है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है और हमारा समाज इसका संवाहक होता है।

हमारी गीता में लिखा है-

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’

जिसका आशय हमें यह लगाना चाहिए कि हम कर्म करेंगे तो उसका फल हमें अवश्य प्राप्त होगा। एक-एक बिंदु से रेखा निर्मित होती है,  रेखाओं से अक्षर, अक्षरों से शब्द और यही शब्द अभिव्यक्ति के माध्यम बनते हैं। शब्दशक्ति से कौन अपरिचित है? विश्व की हर क्रांति के पीछे शब्दशक्ति का अहम् योगदान है। बड़ी से बड़ी क्रांति भी विफल हो गई होती यदि अभिव्यक्ति जन-जन तक नहीं पहुँचती। तात्पर्य यह है कि एक बिंदु या एक इंसान भी आदर्श मार्ग पर चलेगा तो वह रेखा जैसा बिंदु समूह या सकारात्मक सोच, यूँ कहें कि उस जैसे लोगों का समूह तैयार होगा जिसमें समाज को नई चेतना और विकास के पथ पर अग्रसर करने की सामर्थ्य होगी । जीवन में ऐसा नहीं है कि इंसान संपन्न एवं उच्च पदस्थ होकर आम आदमी के दुख दर्द का एहसास नहीं कर सकता। परिस्थितिजन्य विचार और दृष्टिकोण वह सब करने की इजाजत नहीं देते जो उसके अंदर विद्यमान एक ‘साधारण आदमी’ करना चाहता है । आखिर ऐसा क्यों करता है यह विशिष्ट वर्ग?

उपरोक्त विशेष वर्ग के आचरण ही समाज में दूरियाँ पैदा करते हैं। हम सदियों से देखते आ रहे हैं कि इस वर्ग की आयु बहुत ही कम होती है। हम जानते हैं कि झूठ और अनैतिकता की बुनियाद पर खडा इंसान कभी स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सकता। बात तो तब है जब इंसान इंसान के काम आए। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े और अमीर-गरीब के बीच की खाई पार्टी जाए। जीव अमर नहीं होता। संपन्नता और विपन्नता जब यहीं पर धरी रह जाना है तो फिर ये बातें लोगों की समझ के परे क्यों होती हैं, कम से कम हम अपने व्यवहार और वाणी से मधुरता तो घोल ही सकते हैं। मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे पेट के साथ दो हाथ और दो पाँव मिलते ही इसीलिए हैं कि वह इनसे अपना और अपने परिवार का भरणपोषण कर सके। यदि हम महत्त्वाकाक्षियों, ईर्ष्यालु और विघ्नसतोषियों को छोड़ दें तो शायद ही कुछ प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो उच्चवर्गीय लोगों के संबंधों से कोई विशेष उम्मीद करते हों। आम इंसान को अपनी मेहनत और लगन पर पूरा भरोसा रहता है, यह होना भी चाहिए। वह जीवन में आगे बढ़ना तो चाहता है परंतु अच्छी नियत से। बुराई तो घोली जाती है। ईश्वर तो हमें इस प्यारी धरती पर निश्छल ही भेजता है। आदमी छोटा हो या बड़ा, यदि उसमें निश्छलता भरी है तो वह सच्चे अर्थों में इंसान है।

इंसान को सदैव स्वयं के अतिरिक्त दूसरों के लिए भी जीना चाहिए। अपने लिए तो हर कोई जी लेता है। हमारे व्यवहार और हमारी भाषा ही हमें समाज में यथायोग्य स्थान पर प्रतिष्ठित कराते हैं। हमारे सत्कर्म हमें स्वयं यश-कीर्ति दिलाते हैं। निःस्वार्थभाव से की गई परसेवा का प्रतिफल सदैव समाज हितैषी और आत्मसंतुष्टिदायक होता है।

तुलसी-कबीर, राणा-शिवाजी, लक्ष्मीबाई, गांधी, विनोवा भावे, मदर टेरेसा ऐसे ही नाम हैं जो इतिहास के पन्नों में अमर रहेंगे। हम इतिहास उठाकर देख सकते हैं कि अधिकतर यादगार शख्सियतें सम्पन्नता या महलों में पैदा नहीं हुईं और पैदा हुई भी हैं तो शिक्षित होते होते वैभव और कृत्रिम चकाचौंध से निर्लिप्त होती गईं, क्योंकि सच्चरित्र, सद्ज्ञान और शिक्षा आपस में नजदीकियाँ बढ़ाते हैं। वैभव और प्रासाद सदैव आम आदमी को उच्चवर्ग से दूर रखता आया है। हमारा चरित्र और हमारा व्यवहार दिल दुखाने वाला कभी नहीं होना चाहिए। अपनी वाणी और सहयोगी भावना से दूसरों को दी गई छोटी से छोटी खुशी भी आपको चौगनी आत्मसंतुष्टि प्रदान कर सकती है। आप एक बार इस पथ पर कदम बढ़ाएँ तो सही। मुझे विश्वास है कि आपकी जिंदगी में अनेक सकारात्मक परिवर्तन परिलक्षित होने लगेंगे, जिन पर आपको स्वयं विश्वास नहीं होगा। यह एक सच्चाई है कि नजदीकियों से गुणों का आदान-प्रदान होता है। हम अच्छाई के निकट रहेंगे तो अच्छे बनेंगे। बुराई के निकट रहेंगे तो बुरे बनेंगे। हम-आप जब अपनी स्मृति पर जोर डालते हैं तो बुरे लोगों की बजाए जेहन में अच्छे लोग ज्यादा आते हैं। सीधी सी बात है बुरे लोगों को कोई भी याद नहीं रखना चाहता। बुरे लोग केवल उदाहरण देने हेतु ही याद रखे जाते हैं। हमारा ध्येय स्पष्ट है कि सच्चाई, परोपकार और सौहार्द की दिशा में बढ़ाए गए कदम हमें आदर्श की ओर ले जाएँगे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ऋतुचक्र – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद श्रीमती माया सुरेश महाजन

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ आलेख ☆ ऋतुचक्र – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – श्रीमती माया सुरेश महाजन ☆

(मूल मराठी आलेख पढ़ने के लिए कृपया यहाँ पर क्लिक करें  >> ऋतुचक्र )

रसोईघर से सटकर होनेवाली गैलरी में पेड़-पौधों को निहारते हुए, चाय की चुस्कियों का मजा लेते हुए खड़ी रहना – मेरे बड़ी पुरानी आदत है । सुबह की ठंडी हवा, सामने फैली हुई पेड़-पौधों की नेत्रसुखद हरियाली, जरा सी ही सही लेकिन साफ हवा की लहरें – इस सब माहौल से तन-मन प्रसन्न हो जाता है।

श्रीमती माया सुरेश महाजन

कुछ समय पहले मैं आठ-दस दिन के लिए शहर से बाहर गई थी । उस समय पतझड़ का मौसम था । उजड़ी हुई पेड़ों की शाखों पर आने जानेवाले पंछी साफ नजर आते थे।

जब शहर वापस आई, आदतन दूसरे दिन चाय की प्याली लेकर गैलरी में जा खड़ी हुई। उसी समय ‘चिर्र ssss’ आवाज करता  हुआ एक पंछी आया और पेड़ की हरी पत्तियों से बने छाते में घुसकर गायब हो गया। मैंने पेड़ में नजरे गड़ाकर ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ चारों ओर देखा, परंतु वह कहीं नहीं दिखाई दिया । मन में विचार उठा – जब मैं बाहर गाँव गई थी तब यह पेड़ उजड़ा हुआ था, अब देखो कैसे नाजुक, कोमल, फीके हरी पत्तियों से भर गया है । हवा के झोंके के साथ ये नई अंकुरित पत्तियाँ कैसे मस्त डोल रही थी ।

नीचे झुकी हुई एक शाखा पर एक छोटी सी कोमल पत्ती के पास में ही एक पुराना, सूखा पत्ता, विदीर्ण पत्ता अभी भी मौजूद था । उसका ऊबड़-खाबड़ डंठल पेड़ की टहनी को जिद से पकड़े हुए था । लेकिन उसकी यह पकड़ अब किसी भी पल छूटनेवाली थी । उसके पास ही उगी हुई वह छोटी, नाजूक, कोमल दूसरी पत्ती लड़ में आकर कभी उसे स्पर्श करती तो कभी पल भर के लिए उसकी गोदी में समा जाती । यह दृश्य देखते हुए लगा कि मानो दादाजी की गोदी में पोता खेल रहा हो; उनसे बातें कर रहा हो । मन में विचार आया – ‘क्या बातें हो रही होंगी उनकी आपस में !’

उस पुरानी पत्ती को तो अब थोड़े ही समय में टहनी से अलग होना था । छोटी कोमल पत्ती के माथे पर हाथ फेरते हुए मानो वह विदा लेने की तैयारी कर रही हो तो रुआंसी होकर वह कोमल पत्ती कह रही होगी, “दादाजी, आप मत जाइए, आप के जाने से मुझे बहुत बुरा लगेगा।”

वह दादाजी पत्ता मानो समझाने लगेगा, “मुझे जाना ही पड़ेगा ! हम पुरानी पत्तियां नहीं जाएंगे तो नए फूल -पत्ते कैसे उगेंगे ?” “कहाँ जाएँगे आप ?” छोटा पत्ता पूछता है।

“मैं यहाँ से पेड़ की तराई में जाऊंगा, मिट्टी में समाऊंगा, घुलमिल जाऊंगा । धीरे-धीरे धरती के अंदर जाऊंगा …. बिलकुल गहराई में ! नीचे जड़ों में पहुँचकर मेरा खाद बनेगा । जड़ें मेरा सत्व चूस लेंगी । तने से होते हुए मुझे टहनियों तक पहुंचा देंगी । वहाँ से मैं फूल-पत्तों तक पहुंचूंगा । इस तरह मैं फिर से तुम्हारे पास आकर तुम में समा जाऊंगा । अब तुम नहीं ना उदास होगे ? नहीं ना रोओगे ? ”

“दादाजी जल्दी आना, मैं इंतजार करूंगा !” कोमल पत्ते ने कहा शायद ! “हाँ हाँ” कहते हुए उस सूखे पत्ते के डंठल ने टहनी का अपना घर छोड़ दिया । छोटे पत्ते से विदा लेकर वह पेड़ की तराई में मिट्टी पर गिर गया। वहाँ पर पड़े सूखे-पीले पत्तों में खो गया।

यह सब देखकर मेरे मन में कुछ पंक्तियाँ उभर आईं –

‘पर्णराशि सुनहरी तरुतराई में उतर आई,

ऊंचाई पर खिलखिलाते फूल रत्नप्रभा से दमक उनकी ;

आज हंस रहें हैं फूल, कल माटी चूमेंगे वे भी’

लेकिन फलों के रस-रूप में चमकेगी शाश्वत हंसी उनकी ।

फिर से झड़ेंगे पत्ते, फूल माटी में खो जाएंगे,

रस से बनेगा बीज, बीज से वृक्ष बन जाएंगे।”

तो इस तरह से यह कविता बनी, सामनेवाले पेड़ के बदलते रूप को देखकर सहजता से उमड़ पड़ी येँ  पंक्तियाँ!!

 

अनुवाद – सुश्री माया सुरेश महाजन 

मो.-९८५०५६६४४२

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य ☆ नववर्ष नव विहान पर चिंतन ☆ श्री हरिप्रकाश राठी

श्री हरिप्रकाश राठी

( प्रतिष्ठित कहानीकार श्री हरिप्रकाश राठी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।)

☆ नववर्ष नव विहान पर चिंतन ☆

समय का रथ एक और नए मुकाम पर जाने की तैयारी में है। मनुष्यता के मार्ग में अब तक न जाने कितने अवरोध, कितनी मुश्किलें आई पर मनुष्य के जीवट एवं अदम्य इच्छाशक्ति के आगे सारे अवरोध दम तौड़ गए। वर्ष 2020 भी एक ऐसा ही चुनौती भरा वर्ष था जब समूची मनुष्यता कोरोना के ख़ौफ़ से दहल गई। ऐसा समय तो पहले कभी नहीं आया। न भूतो न भविष्यतो । दैहिक, दैविक, भौंतिक कोप तो कई देखे पर किसी को छूना मात्र मौत बन जाएगा यह पहली बार ही देखा।

मनुष्य के हौंसले के आगे कोई समस्या क़ब तक टिकी है। विश्वभर के वैज्ञानिकों ने अथक श्रम कर कोरोनो का टीका तैयार किया एवं अब मनुष्य ने इस प्राणान्तक बीमारी को भी ठेंगा दिखाने के लिए कमर कस ली है। मनुष्य के मार्ग में भला कौनसा विघ्न ठहर सकता है। मनुष्य के प्रयासों के आगे पर्वत हिलते हैं, पत्थर पिघलते हैं।

हे वर्ष 2020 ! तुमने हमें परेशान तो बहुत किया पर अब हमनें तुम्हें नेस्तनाबूद करने की तैयारी कर ली है। तूँ कितने ही रूप बदल लें हम तुम्हें मिटा के रहेंगे। न हम सर झुका कर जिएंगे न मुंह छुपा कर घरों में बैठेंगे क्योंकि जीवन नाम है गिर-गिर कर पुनः उठने का, जीवन नाम है अनवरत संघर्ष का एवं इसी भाव के साथ हम निश्चय ही हर समस्या का मुकाबला कर लेंगे।कल समय ने हमें झुकाया, निराश किया आज हम समय को मुट्ठी में कैद करने की आशा से भरे हैं।

 

© हरिप्रकाश राठी

कहानीकार

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य ☆ नव वर्ष की मंगलकामनाएं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ सम्पादक ई- अभिव्यक्ति (हिंदी) 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। –  हेमन्त बावनकर, ब्लॉग संपादक )

☆ नव वर्ष की मंगलकामनाएं ☆

नये वर्ष का सूरज उग चुका है, पर शाश्वत सच तो यह है कि सूरज तो हर दिन उसी ऊर्जा के साथ उगता है, दरअसल यह हम होते हैं जो किसी तारीख को अपने व्यवहार और कामो से स्वर्ण अक्षरो में अंकित कर देते हैं, या फिर उस पर कालिख पोत डालते हैं. ये स्वर्णाक्षरों में अंकित दिन या कालिमा लिये हुये तारीखें इतिहास के दस्तावेजी पृष्ठ बन कर रह जाते हैं.

नववर्ष का अर्थ होता है  कैलेंडर में साल का बदलाव. समय को हम सेकेण्डों, मिनटों, घंटों, दिनों, सप्ताहों, महीनों और सालों में गिनते हैं. वर्ष जिसकी तारीखो के साथ हमारी  जिंदगी चलती है.  जिसके हिसाब से हम त्यौहार मनाते हैं, कैलेण्डर उन तिथियो का हिसाब रखता है. प्रकृति और मौसम में बदलाव के साथ हमारा खान पान, पहनावा,रहन सहन  बदलता रहता है,प्रकृति सदा से बिना किसी कैलेण्डर के नियमित और व्यवस्थित परिवर्तन की अनुगामी रही है, वास्तविकता तो यह है कि प्रकृति स्वयं ही एक सुनिश्चित नैसर्गिक कैलेण्डर है.

प्रकृति और मौसम के इस बदलाव को कैलेंडर महीनो और तारीखो में  गिनता है.  बैंको में वित्तीय वर्ष अप्रैल से शुरू होता है, तो भारतीय पंचांग की अपनी तिथियां होती हैं. विश्व के अलग अलग हिस्सो में अलग अलग सभ्यताओ के अपने अपने कैलेंण्डर हैं पर ग्रेगेरियन कैलेण्डर को आज वैश्विक मान्यता मिल चुकी है,  और इसीलिये रात बारह बजते ही जैसे ही घड़ी की सुइयां नये साल की ओर आगे बढ़ती हैं दुनिया हर्ष और उल्लास से सराबोर हो जाती है, लोग खा पी कर, नाच गा कर अपनी खुशी को व्यक्त करते हैं . परस्पर शुभकामनाओ तथा उपहारो  का आदान प्रदान करके अपने मनोभावो को अभिव्यक्त करते हैं .  हर कोई अपने जानने वालों को बधाई देता है और आने वाले समय में उसके भले  और सफलता की कामना करता है, मैं भी आप सबके साथ पूरे विश्व के प्रत्येक प्राणी की भलाई की कामना में शामिल हूँ. ईश्वर करे कि हम सबकी शुभकामना पूरी हो और यह जो प्रकृति जिसे हम परमात्मा की छाया कहते हैं उसका स्वरूप और सुंदर बन पाए. सब प्राणी एक-दूसरे का भला मांगते हुए, भला करते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर हों, यही  प्रार्थना है.

लेकिन इस सबके साथ ही नये साल का मौका  वह वक्त भी होता है जब हमें अपने आप  से एक साक्षात्कार करना चाहिये. अपने पिछले सालो के कामो का हिसाब खुद अपने आप से मांगना चाहिये.अपने जीवन के उद्देश्य तय करने चाहिये. क्या हम केवल खाने पीने के लिये जी रहे हैं या जीने के लिये खा पी रहे हैं ? हमें अपने लिये  नये लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये और उन पर अमल करने के लिये निश्चित कार्यक्रम बनाना चाहिये. स्व के साथ साथ  समाज के लिये सोचने और कुछ करने के संकल्प लेने चाहिये. अपना, और अपने बच्चो का हित चिंतन तो जानवर भी कर लेते हैं, यदि हम जानवरो से भिन्न सोचने समझने वाले  सामाजिक प्राणी हैं तो हमें अपने परिवेश के हित चिंतन के लिये भी कुछ करना ही चाहिये, अपने सुखद वर्तमान के लिये हम अपने पूर्वजो के अन्वेषणो और आविष्कारो के लिये  समाज के ॠणी हैं, अतः  समाज के प्रति हमारी भी जबाबदारी बनती है और नये साल पर जब हम आत्म चिंतन करें तो हमें सोचना  चाहिये  कि अपने क्रिया कलापों से किस तरह हम समाज के इस ॠण से मुक्त हो सकते हैं. हमें समझना चाहिये कि पाने के सुख से देने का सुख कहीं अधिक महत्वपूर्ण और दीर्घजीवी होता है.

आइये नये साल के इस पहले दिन हम ढ़ृड़ संकल्प करें कि हम आगामी समय में अपने बुरे व्यसन छोड़ेंगे. महिलाओ का सम्मान करेंगे. अपने कार्य व्यवहार से देश भक्ति का परिचय देंगे. अपने परिवेश में सवच्छता रखेंगे और आत्म उन्नति के साथ साथ अपने परिवेश की प्रगति में मददगार बनेंगे. भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने में स्वयं का हर संभव योगदान देंगे. निहित स्वार्थों के लिये नियमो से समझौते नही करेंगे. मेरा विश्वास है कि यदि हम इन बिंदुओ पर मनन चिंतन कर इन्हें कार्य रूप में परिणित करेंगे तो अगले बरस जब हम नया साल मना रहे होंगे तब हमें अपनी आंखों में आँखें डालकर स्वयं से बातें करने में गर्व ही होगा. पुनः पुनः इन संकल्पों के सक्षम क्रियांवयन के लिये अशेष मंगलकामनाये।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

सम्पादक ई- अभिव्यक्ति (हिंदी)  

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 76 ☆ ग़ुमशुदा रिश्ते ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़ुमशुदा रिश्ते, यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 76 ☆

☆ ग़ुमशुदा रिश्ते ☆

‘हक़ीक़त में गुमनाम सपने ढूंढ रही हूं/ अपनों की भीड़ में/ आजकल ग़ुमशुदा ढूंढ रही हूं।’ ग़ुमशुदा… ग़ुमशुदा…ग़़ुमशुदा। जी हां! यह है आज की ज़िंदगी की हक़ीक़त…हर इंसान को तलाश है सुक़ून की, जो अपनों के सान्निध्य व संसर्ग से प्राप्त होता है और सबसे कठिन है … अपनों की भीड़ में से, अपनों को तलाश करना। वे तथाकथित अपने, जो अपने होने का स्वांग रचते हैं और स्वार्थ-साधने के हित आपके आसपास मंडराते रहते हैं। ऐसे लोग तब तक आपके अपने बनकर रहते हैं, जब तक आप किसी पद पर काबिज़ हैं और पद-प्रतिष्ठा के न रहने पर वे आपको पहचानते भी नहीं। यदि आपको उनकी ज़रूरत होती है, तो वे पास से कन्नी काट जाते हैं। यही कटु यथार्थ है ज़िंदगी का; यहां सब रिश्ते-नाते स्वार्थ से जुड़े हैं। रिश्तों की अहमियत रही नहीं… अपने ही अपने बन, अपनों को छलते हैं। चारों ओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है; संदेह, शक़ व आशंका मानव के हृदय में इस प्रकार रचे-बसे हैं कि पति-पत्नी के रिश्ते भी दरक़ रहे हैं। पहले सात फेरों के बंधन को सात जन्मों का पावन बंधन स्वीकार उसका निबाह हर कीमत पर किया जाता था; परंतु अब स्थिति पूर्णत: विपरीत है। एक छत के नीचे रहते हुए, एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर, पति-पत्नी अपना जीवन अजनबी-सम ढोते हैं। उनमें स्नेह, संबंध व सरोकार समाप्त हो चुके हैं। सब अपने-अपने अहम् में डूबे एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु भावनाओं पर कुठाराघात कर सुक़ून पाते हैं और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलते हुए ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाते हैं; जहां से लौट पाना मात्र स्वप्न बन कर रह जाता है।

हर इंसान गुमनाम सपनों के पीछे बेतहाशा दौड़ता चला जा रहा है। कम से कम समय में अधिकाधिक धन कमाने की दौड़, जिसके निमित्त वह झोंक देता है अपना जीवन… होम कर देता है अपने स्वप्न… जिसका उदाहरण कॉरपोरेट जगत् के रूप में हम सब के समक्ष है। इस क्षेत्र में काम करने वाले युवा आजकल विवाह के बंधन को अस्वीकारने लगे हैं। यदि वे इस बंधन को पावन समझ स्वीकार भी लेते हैं; तो उनमें चंद दिनों बाद अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि उनकी नज़रों में घर- परिवार की अहमियत होती ही नहीं। उनके बीच पारस्परिक संवाद भी नहीं होता, क्योंकि उनके पास न एक-दूसरे के लिए समय होता है, न ही होती है– एक-दूसरे की दरक़ार। वे दोषारोपण करने का एक भी अवसर नहीं चूकते और एक दिन ज़िंदगी उन्हें उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां वे एक-दूसरे की भावनाओं को नकार, स्वतंत्रता से जीवन जीना चाहते हैं… जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है… उन अभागोंं को माता-पिता दोनों का स्नेह व संरक्षण मिल ही नहीं पाता। सो! इन विषम परिस्थितियों में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है?

हां! यदि बुज़ुर्ग माता-पिता भी उनके साथ रहते हैं, तो वे देर रात तक उनकी राह निहारते रहते हैं। दोनों थके-मांदे, काम का बोझ सिर पर लादे अलग-अलग समय पर घर लौटते हैं और दिन-भर की खीझ एक-दूसरे पर निकाल संतोष पाते हैं। अक्सर बच्चे उनकी बाट जोहते-जोहते सो जाते हैं और वे संडे मम्मी-पापा बन कर रह जाते हैं। यदि बच्चे किसी दिन मान-मनुहार करते हैं, तो उन्हें उनके कोप का भाजन बनना पड़ता है। सो! वे आया व नैनी के प्रति अपने माता- पिता से अधिक स्नेह व आत्मीयता का भाव रखते हैं। जब वे दूसरे बच्चों को अपने माता- पिता के साथ मौज-मस्ती व अठखेलियां करते देखते हैं, तो उनके हृदय का आक्रोश ज्वालामुखी पर्वत के लावे के समान सहसा फूट निकलता है और वे डरे-सहमे से अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और दिन-रात मोबाइल व टी•वी• में खोए रहते हैं…आत्मीय संबंधों- सरोकारों से दूर, आत्म-केंद्रित होकर रह जाते हैं तथा बच्चों व युवाओं की अपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्तता, माता-पिता द्वारा प्रदत्त एकाकीपन के उपहार के रूप में परिलक्षित होती है।

वैसे तो आजकल हर इंसान ग़ुमशुदा है। अतिव्यस्तता के कारण सबके पास समयाभाव रहता है। दोस्तो! आजकल तो इंसान की ख़ुद से भी मुलाक़ात नहीं होती। इक्कीसवीं सदी में मानव मशीन बनकर और संयुक्त परिवार, एकल परिवार के दायरे में सिमट कर रह गए हैं। पति-पत्नी व बच्चे एकल परिवार की इकाई स्वीकारे जाते हैं। हां! इस युग में कामवाली बाईयों का भाग्योदय अवश्य हुआ है। उन्हें मालकिन का दर्जा प्राप्त हुआ है और वे सुख- सुविधाओं का बखूबी आनंद ले रही हैं। उन्हें किसी का तनिक भी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं। यह है, इस सदी की विशेष उपलब्धि…उनका जीवन-स्तर अवश्य काफी ऊंचा हो गया है, क्योंकि उनके बिना तो आजकल गुज़र-बसर की कल्पना करना भी बेमानी है। वैसे भी उनके तो भाव भी आजकल बहुत बढ़ गए हैं। उनसे सबको डर कर रहना पड़ता है। उनकी इच्छा के बिना तो घर में पत्ता भी नहीं हिलता। वे बच्चों से लेकर बड़ों तक को अपने इशारों पर नचाती हैं। इतना ही नहीं, सगे-संबंधी भी उस घर में दस्तक देते हुए क़तराने लगे हैं।

दुनिया का दस्तूर है साहब! जब तक पैसा है, तब तक सब पूछते हैं…’हाउ आर यू?’ और पैसा खत्म होते ही ‘हू आर यू?’ यह जीवन का कटु यथार्थ है कि ‘हाउ से हू?’ की यात्रा पलक झपकते कैसे सम्पन्न हो जाती है; इंसान समझ ही नहीं पाता और यह स्वार्थ का पहिया निरंतर समय के साथ ही नहीं, पद-प्रतिष्ठा के साथ घूमता रहता है। दौलत में वह चुंबकीय शक्ति है…जो ग़ैरों को भी अपना बना लेती है। सत्य ही तो है, ‘जब दौलत आती है, इंसान खुद को भूल जाता है और जब जाती है, तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-संपदा पाकर व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है तथा स्वयं को सर्वश्रेष्ठ स्वीकारने लगता है। दूसरों को अपने सम्मुख निकृष्ट समझ, उनकी भावनाओं का निरादर करने लगता है और सबको एक लाठी से हांकने लगता है। उस स्थिति में वह भूल जाता है कि लक्ष्मी चंचला है… एक स्थान पर टिक कर कभी नहीं रहती और जब वह चली जाती है, तो ज़माने के लोग भी अक्सर उससे मुख मोड़ लेते हैं… उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं देते। वास्तव में दोनों स्थितियों में वह एकांत की त्रासदी झेलता है। प्रथम में वह स्वेच्छा से सबसे दूरियां बनाए रखता है और दौलत के न रहने पर तो कोई भी उससे बात करना भी पसंद नहीं करता। यह है नियति उस इंसान की… जिसके लिए दोनों स्थितियां ही भयावह हैं। बिहारी का यह दोहा, ‘कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय/ इहि पाय बौराय जग, उहि पाय बौराय।’ इंसान बावरा है…धन-संपदा प्राप्त होने पर बौरा जाता है और धतूरा खाने के पश्चात् उसकी सोचने- समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है… उसका व्यवहार सामान्य नहीं रह पाता। शायद! इसलिए कहा जाता है कि जिसे ‘मैं’ की हवा लगती है, उसे न दुआ लगती है, न दवा लगती है’ तथा अहंनिष्ठ व्यक्ति दौलत व सुरा-सुंदरी के नशे में आठों पहर धुत्त रहता है। सोने को पाकर और धतूरे को खाकर लोग बौरा जाते हैं, यह कथन सर्वथा सत्य है।

वैसे तो आजकल ‘लिव-इन’ का ज़माना है तथा उसे कोर्ट-कचहरी द्वारा मान्यता प्राप्त है। सो! घर-परिवार तेज़ी से टूट रहे हैं, जिसमें ‘मी टू’ का भी अहम् योगदान है। वर्षों पूर्व के संबंधों को उजागर करने की स्वतंत्रता के कारण हंसते- खेलते परिवार अग्नि की भेंट चढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो पर-स्त्री गमन की भी आज़ादी है, जिसके परिणाम-स्वरूप घर-परिवार में पारस्परिक संबंध व स्नेह-सौहार्द समाप्त हो रहा है। संदेह व अविश्वास के कारण रिश्ते दरक़ रहे हैं। इस विघटन के लिए दोनों दोषी हैं और उनकी समान प्रतिभागिता है। महिलाएं भी कहां कम हैं…वे भी पुरुषों की भांति जीन्स-कल्चर अपना कर, क्लबों व महफ़िलों की शोभा बनने में फ़ख्र महसूस करने लगी हैं। वे अक्सर सड़क व आफिस में शराब के नशे में धुत्त, मदमस्त हो सिगरेट के क़श लगाती व जुआ खेलती नज़र आती हैं, जिसे देखकर मस्तक शर्म से झुक जाता है। शायद! यह सदियों पुरानी दासता और अंकुश का परिणाम व जुनून है, जो सिर चढ़ कर बोल रहा है।

समाज में बढ़ रही अराजकता व विश्रंखलता का मुख्य कारण यह है कि हम परिस्थितियों को बदलने का प्रयास करते हैं; स्वयं को नहीं। इसलिए जीवन में विषम परिस्थितियां व विसंगतियां उत्पन्न होती हैं और जीवन हमें दुआ नहीं, सज़ा-सा लगता है। अहं के कारण पति- पत्नी में स्नेह-सौहार्द रहा नहीं, न ही शेष बचे हैं..आत्मीयता व सामाजिक सरोकार। संवेदनाएं मर चुकी हैं और वे दोनों अकारण एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु विभिन्न हथकंडे अपनाते हैं, जिसके परिणाम-स्वरूप आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। वे प्रतिपक्ष के परिजनों पर आक्षेप लगा, कटघरे में खड़ा करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। इस गतिविधि में महिलाएं अग्रणी हैं। वे पति व उसके परिवारजनों पर दहेज व घरेलू हिंसा का आरोप लगा, किसी भी पल जेल भिजवाने से लेशमात्र भी ग़ुरेज़ नहीं करती हैं।

कैसा ज़माना आ गया है…’आजकल तो ख़ुद से ही ख़ुद की मुलाकात नहीं होती’ सर्वथा सत्य है। सो! अक्सर यह संदेश दिया जाता है कि ‘इंसान को कुछ समय अपने साथ अवश्य व्यतीत करना चाहिए।’ वास्तव में आत्मावलोकन व अपने अंतर्मन में झांकना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम योग है, आत्म-साक्षात्कार है। एकांत में किया गया चिंतन, आत्मा को परमात्मा से मिलाता है तथा उस स्थिति में पहुंच कर सभी कामनाओं व वासनाओं का अंत हो जाता है…आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य हो जाता है। जो व्यक्ति प्रतिदिन अपने द्वारा किए गए कर्मों का आकलन करता है… उसे ज्ञात हो जाता है कि आज तक उसने कैसे कर्म किए हैं? सो! वह सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है तथा राग-द्वेष के बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है…अपने मन का मालिक बन जाता है। वह अलौकिक आनंद अथवा अनहद-नाद की स्थिति में रहता है। उसे किसी की संगति की अपेक्षा नहीं रहती। उस स्थिति में वह यही कामना करता है …नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहे लेहुं/ न हौं देखूं ओर को, न तुझ देखन देहुं।’ इस स्थिति में आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है और वह हर पल उस सृष्टि-नियंता के दर्शन पा अलौकिक आनंद की मस्ती में रहती है।

‘सो! खुली आंख से स्वप्न देखिए, ताकि वे गुमनामी के अंधकार में न खो जाएं और जब तक वे साकार न हो जाएं, आप विश्राम न करें…उनके पूर्ण होने पर ही सुख की सांस लें।’ सपनों को साकार करना भी, अपनों की भीड़ में ग़ुमशुदा अर्थात् अपनों की तलाश करने जैसा है। वास्तव में अपने वे होते हैं, जो सदैव आपकी ढाल बनकर आपके साथ खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर रहते हैं। सो! स्वार्थ व मतलब के बगैर के संबंधों के का फल मीठा होता है।’ इसलिए नि:स्वार्थ भाव से निष्काम कर्म करने का संदेश दिया गया है। दुनिया की सबसे अच्छी किताब आप स्वयं हैं। ख़ुद को समझ लीजिए, समस्याओं का स्वत: अंत हो जाएगा। सो! अपनी सोच बड़ी व सकारात्मक रखिए। छोटी सोच शंका और बड़ी सोच समाधान को जन्म देती है। इसलिए सुनना सीख लो, सहना व रहना स्वत:आ जाएगा। जिसे सहना आ गया, उसे जीना आ गया। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। जब आप संवाद करना बंद कर देते हैं; अमूल्य संबंध नष्ट होने लगते हैं, क्योंकि संबंध कभी भी जीतकर नहीं निभाये जा सकते… उनके लिए झुकना व पराजय स्वीकार करना लाज़िमी होता है।

अन्ततः गुमनाम सपनों को तलाशना जितना कठिन है, उससे भी अधिक कठिन है… अपनों की भीड़ में ग़ुमशुदा अर्थात् अपनों को ढूंढना। वैसे तो आजकल हर इंसान ख़ुद से बेखबर है। वह कहां जानता है… वह कौन है, कौन से आया है और इस संसार में उसके जीवन का प्रयोजन क्या है? अज्ञानतावश वह आजीवन उलझा रहता है–माया-मोह के बंधनों में और शाश्वत् संबंधों से बेख़बर, वह लख चौरासी के बंधनों में उलझा रहता है। आइए! अपनों की भीड़ में पहले स्वयं को ढूंढ कर, ख़ुद से मुलाकात करें। उसके पश्चात् उन अपनों को ढूंढें, जो मुखौटा धारण किए रहते हैं… गिरगिट की भांति हर पल रंग बदलते हैं। सो! आजकल किसी पर भी विश्वास करना अत्यंत कठिन व दुष्कर है। ‘कौन अपना कब दग़ा दे जाए’… कोई नहीं जानता। सो! अपने ही घर में दस्तक देते हुए, भ्रमित मानव को अजनबीपन का अहसास होने लगा है…मानो वह ग़ुमशुदा है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 79 ☆ भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 79 ☆ भोर भई ☆

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाईं ओर सड़क सरपट दौड़ रही है। महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है,

‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला।

न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का आज से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

संतन का साथ बना रहे, मंथन का भाव जगा रहे। 2021 सार्थक और शुभ हो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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