हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 29 ☆ विकास के महासमर में नारी – महिला सशक्तिकरण ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “विकास के महासमर में नारी – महिला सशक्तिकरण”. )

☆ किसलय की कलम से # 29 ☆

☆ विकास के महासमर में नारी – महिला सशक्तिकरण ☆

प्राचीन भारत का लिखित-अलिखित इतिहास साक्षी है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्त्व का आकलन कम नहीं किया। न ही मैत्रेयी, गागी, विद्योतमा, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती के भारत में इनका महत्त्व कम रहा। हमारे वेद और ग्रंथ नारी-शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। इतिहास वीरांगनाओं के बलिदानों का साक्षी है। जब आदिकाल से ही मातृशक्ति को सोचने, समझने, कहने और कुछ कर गुजरने के अवसर मिलते रहे हैं तब वर्तमान में क्यों नहीं ? आज जब परिवार, समाज और राष्ट्र नारी की सहभागिता के बिना अपूर्ण है, तब हमारा दायित्व बनता है कि हम बेटियों में दूना – चौगुना उत्साह भरें। उन्हें घर, गाँव, शहर, देश और अंतरिक्ष से भी आगे सोचने का अवसर दें। उनकी योग्यता और क्षमता का उपयोग समाज और राष्ट्र के विकास में होने दें। आज भले ही हम विकास के अभिलेखों में नारी सहभागिता को उल्लेखनीय कहें परंतु अभी भी पर्याप्त नहीं कह सकते। अब समय आ गया है कि हम बेटियों के सुनहरे भविष्य के लिए गहन चिंतन करें। सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा, अमृता प्रीतम, डॉ. शुभलक्ष्मी, पी.टी. उषा, कल्पना चावला जैसी नारियाँ वे प्रतिभाएँ हैं जो विकास-पथ में मील की पत्थर सिद्ध हुई हैं । बावजूद इसके विकास यात्रा निरंतर आगे बढ़ती रहेगी। नई नई दिशाओं में, नए आयामों में, सुनहरे कल की ओर।

पहले नारी चहारदीवारी तक ही सीमित थी परंतु आज हम गर्वित हैं कि नारी की सीमा समाजसेवा, राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा, खेलकूद, साहित्य और संगीत को लाँघकर दूर अंतरिक्ष तक जा पहुँची है। एक नारी ने अंतरिक्ष में जाकर अपनी उपस्थिति से समग्र नारी समाज को गौरवान्वित किया है। महिला वर्ग में शिक्षा के प्रति जागरूकता, पुरुषों की नारी के प्रति बदलती हुई सोच, नारी प्रतिभा और इनके महत्त्व का एहसास आज सभी को हो चला है। उद्योग-धंधे हों या फिर विज्ञान, चिकित्सा आदि का क्षेत्र। आज ऐसे सभी क्षेत्रों में नारियों का प्रतिनिधित्व स्वाभाविक सा लगने लगा है। अनेक क्षेत्रों में नारी पुरुषों से कहीं आगे निकल गई हैं।

तुम्हारे बिना समाज अधूरा 

समाज महिला और पुरुष दो वर्गों का मिला-जुला रूप है। चहुँमुखी विकास में दोनों की सक्रियता अनिवार्य है। महिलाओं की प्रगति का अर्थ है, आधी सामाजिक चेतना और जनकल्याण। महिलाएँ घर और बाहर दोनों जगह महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं, बशर्ते वे शिक्षित हों, जागरूक हों। उन्हें उत्साहित किया जाए। उन्हें एहसास कराया जाए कि नारी! तुम्हारे बिना यह समाज अधूरा है। तुम्हारे बिना मानव विकास अपूर्ण है। अब स्वयं ही तुम्हें अपने बल, बुद्धि और विवेक से आगे बढ़ने का वक्त आ गया है। कब तक पुरुषों का सहारा लोगी ? बैसाखी पकड़कर चलने की आदत कभी तुम्हें स्वावलंबी नहीं बनने देगी । कर्मठता का दीप प्रज्ज्वलित करो। श्रम की सरिता बहाओ। बुद्धि का प्रकाश फैलाओ और अपनी नारी शक्ति का वैभव दिखा दो। नारी-विकास के पथ में आने वाले रोड़ों को दूर हटा दो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर कूद पड़ो विकास के महासमर में। छलाँग लगा दो विज्ञान के अंतरिक्ष में। परिस्थितियाँ और परिवेश बदले हैं। आत्मनिर्भरता बढ़ी है। बस दृढ़ आत्मविश्वास की और आवश्यकता है।

आंदोलन भर से क्या होगा?

अकेले नारी मुक्ति आंदोलन से कुछ नहीं होगा। पहले तुम्हें स्वयं अपना ठोस आधार निर्मित करना होगा। इसके लिए शिक्षा, कर्मठता का संकल्प, भविष्य के सुनहरे सपने और आत्मविश्वास रूपी आधारशिला की आवश्यकता है। इन्हें प्राप्त कर इनको ही विकास की सीढ़ी बनाओ और पहुँचने की कोशिश करो प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर। कोशिशें ही एक तरह से हमारे कर्म हैं। कर्म करते चलो, परिणाम की चिंता मत करो।

नारी तुम्हारा श्रम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी सहभागिता, तुम्हारे श्रम-सीकर व्यर्थ नहीं जाएँगे। कल तुम्हारा होगा। तुम्हारी तपस्या का परिणाम नि:संदेह सुखद ही होगा, जिसमें तुम्हारी, हमारी और सारे समाज भलाई निहित है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ 2021 – खुशियों भरे दिन लौटें ☆ श्री सूरज प्रकाश

श्री सूरज प्रकाश

(ई- अभिव्यक्ति में वरिष्ठ कहानीकार व लेखक श्री सूरज प्रकाश जी का हार्दिक स्वागत है।)

☆ 2021 – खुशियों भरे दिन लौटें ☆

2020  पूरी दुनिया के लिए भारी गुजरा। कल्पना से भी परे। घर छूटे, काम छूटे, करीबी गुज़र गये और दुख की घड़ी में कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना भी न दे सके। शादियां, आयोजन, नेक काम, पढ़ाई, नौकरी, प्रोमोशन सब टलते रहे। लोग घर में बंद रहे। अस्पतालों को छोड़ कर सारे संस्थान बंद रहे। जहाज, रेलें, टैक्सियां, बसें नहीं चलीं तो उन्हें चलाने वाले, बनाने वाले, उनकी मरम्मत करने वाले भी बेरोजगार हो गये। और कई तय काम नहीं कर पाये लोग। बेशक कुछ लोग ऑनलाइन या वर्क फ्राम होम करते रहे, होम सर्विस देते रहे, नौकरी, पढ़ाई, कन्सलटेंसी या बैंकिंग बेशक ऑनलाइन करते रहे या घर बैठे करते रहे लेकिन सबकुछ ऑनलाइन नहीं हो सकता। ऐसे बेरोजगार हो गये। स्कूल में घंटी बजाने वाले चपरासी, सर्जरी करने वाले डॉक्टर या ट्रेवल एजेंट या टूरिस्ट गाइड। सूची अंतहीन है।

जुहू तट पर, पार्क में या मॉल में बैठ कर प्रेम करने वाले जोड़ों पर ये बरस बहुत भारी गुज़रा। वे भी ऑनलाइन प्रेम करने पर मजबूर हुए। बेशक लिये दिये जाने वाले उपहार भी कम हुए। उपहार बनाने और बेचने वाले भी बेरोजगार हुए। घरों में बंद बच्चे खेलने, जन्मदिन मनाने या धौल धप्पा करने को तरस गये और सारा सारा दिन सिर और पीठ झुकाए मोबाइल के नन्हें से स्क्रीन पर ऑनलाइन पढ़ाई करते रहे बेशक टीचर की डांट से बचे रहे। ज्यादातर बच्चे इस सुविधा से भी वंचित रहे। पूरी दुनिया सैकड़ों बरस पीछे चली गयी।

महिलाओं की हालत बहुत खराब रही। वे मेकअप करने या नयी साड़ियां खरीदने, पहनने और उसकी तारीफ पाने के लिए तरस गयीं। उनके पति टीशर्ट और नेकर पहन कर ऑफिस के नाम पर घर का एक कोना पकड़ कर लैपटॉप में काम करने के बहाने सोशल मीडिया में बिजी रहे, बहुत कुछ देखते रहे और थोड़ी थोड़ी देर में चाय नाश्ते की फरमाइश करते रहे। कामकाजी महिलाओं और अध्यापिकाओं की हालत और खराब रही। ऑनलाइन काम करने या ऑनलाइन क्लासेस लेने के अलावा उन्हें काम वाली बाई की अनुपस्थिति में घर के सारे काम करने पड़े। सभी, लगभग सभी निजी स्पेस के लिए तरस गये।

कवियों की और भाषणवीरों की मौज़ रही। वे सब के सब ऑनलाइन हो गये। बेशक वे मोबाइल को ही माइक  समझ कर दस मिनट तक खटखटाते रहते थे कि क्या मेरी आवाज़ सब तक पहुंच रही है या भोलेपन से पूछते थे कि कोई दिखाई क्यों नहीं दे रहा है।

कुल मिला कर ये बरस भारी गुजरा। सबके लिए।

दुआ है कि आने वाले इक्कीस में पुराने, खुशियों भरे दिन लौटें।

अच्छे दिन अब तो आयें और सब कुछ ठीक हो जाये।

आमीन

© श्री सूरज प्रकाश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 78 ☆ श्वेतपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 78 ☆ श्वेतपत्र ☆

वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है- ‘शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।’

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 75 ☆ नकली सुखों का त्याग ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  नकली सुखों का त्याग  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 75 ☆

नकली सुखों का त्याग  ☆

‘नकली सुखों के बजाय ठोस उपलब्धियों के पीछे समर्पित रहिए’ कलाम जी का यह सार्थक संदेश अनुकरणीय है, अनुसरणीय है। मानव को सांसारिक सुखों के पीछे नहीं भागना चाहिए, क्योंकि वे क्षणिक होते हैं, सदैव रहने वाले नहीं। ‘ब्रह्म सत्यं,जगत् मिथ्या’ अर्थात् ईश्वर के अतिरिक्त संसार की हर वस्तु नश्वर है, क्षणिक है और माया के कारण ही वह हमें सत्य भासती है। सो! मानव शरीर भी पानी के बुलबुले की भांति पल-भर में नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार कुंभ अर्थात् घड़े का जल बाहरी जल में विलीन हो जाता है; जिस जल में वह कुंभ रखा होता है। उसी प्रकार पंच-तत्वों द्वारा निर्मित शरीर के नष्ट हो जाने पर वह उनमें समा जाता है और आत्मा परमात्मा में समा जाती है। यही है मानव जीवन की दास्तान… जैसे प्रभात की बेला में समस्त तारागण अस्त हो जाते हैं, उसी प्रकार संसार की हर वस्तु व  सुख क्षणिक है, नश्वर हैं। इसलिए हमें नकली सुखों की अपेक्षा, ठोस उपलब्धियों के पीछे भागना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है…अपनी सोच को सार्थक व ऊंचा रखने की। यदि हम बड़े सपने देखेंगे; तभी हम उन्हें साकार कर पाने की तमन्ना रखेंगे और यदि हमारी इच्छा-शक्ति प्रबल व सोच सकारात्मक होगी, तो ही हम उस मुक़ाम पर पहुंच पाएंगे; जहां तक पहुंचने की मानव कल्पना भी नहीं कर सकता। सो! ‘खुली आंखों से ऊंचे स्वप्न देखिए और उन्हें साकार करने के लिए स्वयं को जी-जान से झोंक दीजिए…एक दिन परिश्रम अवश्य रंग लायेगा। इसके निमित्त आवश्यकता है–दृढ़-संकल्प व प्रबल इच्छाशक्ति की; जो मानव को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने का सर्वोत्तम साधन हैं।

मानव जब ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत को जीवन में अपना कर, अपनी राह की ओर अग्रसर होता है, तो बाधाएं, आलोचनाओं के रूप में उसकी राह में उपस्थित होती हैं। इसलिए मानव को कभी भी हताश-निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि उनसे सीख लेकर अपने पथ पर निरंतर अग्रसर होना चाहिए तथा निंदक व दोष-दर्शकों के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए; जिन्होंने हमें ग़लत राह को तज, सही राह पर चलने का संदेश दिया है, मार्ग सुझाया है।

यह सत्य है कि आलोचनाएं पथ-अवरोधक नहीं, पथ-प्रदर्शक व साधक होती हैं। वे मानव के आचार- विचार व व्यवहार को संवारती हैं तथा दुर्गुणों को त्याग, सत्मार्ग पर चलने को प्रेरित करती हैं। वास्तव में आलोचनाएं वे साबुन हैंँ, जिसका प्रयोग कर मानव आत्मावलोकन द्वारा आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होता है। आलोचना से अंत:दृष्टि जाग्रत होती है, जिससे हमें अपने दोषों का दिग्दर्शन होता है और उन्हें त्याग कर हम सत्य की राह पर अग्रसर होते हैं। इस तथ्य में कबीरदास जी का यह दोहा सार्थक प्रतीत होता है, जिसके अंतर्गत मानव को, निंदक को अपने आंगन में तथा अपने आसपास रखने का संदेश दिया गया है। निंदक वह नि:स्वार्थ प्राणी है, जो अपने से अधिक, आपके बारे में सोचने व चिंतन करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करता है…आपके हितों की रक्षा के प्रति चिंतित रहता है।

सो! आलोचक व निंदक के हितों की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक है। निंदक दूसरों की निंदा करने में प्रसन्न रहता है तथा केवल उनके दोषों-अवगुणों व बुराइयों को तलाश कर, उन्हें उजागर करने में सुक़ून प्राप्त करता है। परंतु आलोचक उसके समस्त पहलुओं को समझकर, उसके गुणों व दोषों का सांगोपांग चित्रण करता है। वह नीर-क्षीर विवेकी होता है तथा ईर्ष्या-द्वेष से सदैव दूर रहता है। आलोचक साहसी व विवेकशील होता है तथा संबद्ध पक्षों पर चिंतन कर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है। आलोचक इधर-उधर की नहीं हांकता, जबकि निंदक मानव के दोषों-बुराइयों को तलाश कर; उनका अतिशयोक्ति-पूर्ण वर्णन कर अपने दायित्व की इतिश्री स्वीकारता है। उसे सावन के अंधे की भांति उसकी अभिरुचि के अनुकूल, उसमें केवल दोष ही दोष नज़र आते हैं।

‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् जैसी हमारी सोच होती है; सृष्टि हमें वैसी ही दिखाई पड़ती है। जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए सकारात्मक सोच की दरक़ार रहती है। उसके रहते हमें संसार सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भावों से आप्लावित दिखाई पड़ता है। जो सत्य होगा; वह कल्याणकारी व सुंदर अवश्य होगा। इसलिए आवश्यकता है–तुच्छ स्वार्थों को त्याग कर महानता प्राप्त करने की। यदि हम इस तथ्य का विश्लेषण करें, तो इसके पीछे हमारी मानसिकता झलकती है। यदि हमारा लक्ष्य उच्च व महत्तर होगा, तो हम संकीर्ण मानसिकता को त्याग, लक्ष्य-प्राप्ति की ओर पूर्ण मनोयोग से अग्रसर रहेंगे। हमारा ध्यान उसी की ओर केंद्रित रहेगा और हम अपनी समस्त ऊर्जा उसकी प्राप्ति में लगा देंगे। लक्ष्य के प्रति संपूर्ण समर्पण हमें उस महानतम् शिखर पर पहुंचा देगा।

एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘मानव से पहले उसकी प्रसिद्धि, गुणवत्ता व उसका अच्छा-बुरा आचार-व्यवहार पहुंच जाता है; जिसे अनुभव कर मानव अचम्भित रह जाता है। वैसे भी शब्द नहीं, मानव के कार्य बोलते हैं, जिसे लोग तरज़ीह देते हैं। सो! मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, त्याग, सहनशीलता आदि को विकसित करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। ये हमें दिव्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं…क्षुद्र वासनाओं को त्याग सत्मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं। यही जीवन का ध्येय है, प्रेय है, सफलता है।

इसी संदर्भ में, मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी…साहित्यिक जगत् व समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त ख़ेमों की ओर… परंतु यहां हम साहित्यिक पक्ष पर ही चर्चा करेंगे। ऐसे महारथियों की आश्रयस्थली में शरण ग्रहण किए बिना अस्तित्व-बोध व यथोचित स्थिति बनाए रखने की कल्पना बेमानी है। परंतु इनकी शरण में जाकर, आप वह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जिसके आप योग्य हैं ही नहीं तथा आप में उसे पाने का रत्ती भर सामर्थ्य भी नहीं है। आप रातों-रात साहित्य जगत् के देदीप्यमान सूर्य के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया वाले आपका साक्षात्कार लेकर स्वयं को धन्य समझते हैं। चारों ओर आपकी तूती बोलने लग जाती है। इसके लिए आपको केवल अपने अहं व अस्तित्व को मिटाना होता है और साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करना उसकी प्रथम सीढ़ी है। सो!अन्य दायित्वों व अपेक्षाओं की कल्पना तो आप स्वयं बखूबी कर ही सकते हैं।

सो! ग़लत व अनुचित ढंग से प्राप्त की गई प्रसिद्धि कभी स्थायी व सम्मान-जनक नहीं होती है, क्योंकि जो भी आपको बिना प्रयास के सहसा मिल जाता है, क्षणिक होता है और उससे आपको स्थायी संतोष व संतुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती। परिश्रम सफलता की कुंजी है और उससे प्राप्त परिणाम का प्रभाव चिरस्थायी होता है। आपको हर क्षेत्र में केवल संतोष व सफलता ही प्राप्त नहीं होती; हर जगह आप की सराहना व प्रशंसा भी होने लगती है…आपके नाम की तूती बोलने लगती है। परंतु इन परिस्थितियों में भी यदि आपके हृदय में अहं-भाव जाग्रत नहीं होता, तो यह आपकी अनवरत साधना व परिश्रम का सु-फल होता है।

ध्यातव्य है कि मनचाही वस्तु व सफलता को पा लेने की बेचैनी व खो देने का डर मानव को सदैव आकुल-व्याकुल व आहत करता रहता है। वह सदैव हैरान-परेशान और तनाव-ग्रस्त रहता है। परंतु मानव को मिथ्या सुखों को नकार कर, शाश्वत सुखों की प्राप्ति की ओर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि वह अलौकिक है, आनंद-प्रदाता है; शब्दातीत व कल्पनातीत है…जिसे प्राप्त कर वह राग-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठ जाता है तथा सदैव अनहद-नाद में आकंठ डूबा रहता है। सो! वास्तविक सुखों को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है–भौतिक सुखों का त्याग, अहं का विसर्जन, सत्मार्ग पर चलने का दृढ़-निश्चय व आत्मावलोकन करने की प्रबल इच्छा-शक्ति….यही मुख्य उपादान हैं लख चौरासी से मुक्ति पाने के; जहां पहुंच कर मानव की क्षुद्र वासनाओं का अंत हो जाता है और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है, जिस अलौकिक आनंद में अवग़ाहन कर वह आजीवन सुक़ून पाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 28 ☆ 74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग? ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग?“)

☆ किसलय की कलम से # 28 ☆

☆ 74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग? ☆

स्वतंत्रता के सही मायने तो स्वातंत्र्यवीरों की कुरबानी एवं उनकी जीवनी पढ़-सुनकर ही पता लगेंगे क्योंकि शाब्दिक अर्थ उसकी सार्थकता सिद्ध करने में असमर्थ है। देश को अंग्रेजों के अत्याचारों एवं चंगुल से छुड़ाने का जज्बा तात्कालिक जनमानस में जुनून की हद पार कर रहा था। यह वो समय था जब देश की आज़ादी के समक्ष देशभक्तों को आत्मबलिदान गौण प्रतीत होने लगे थे। वे भारत माँ की मुक्ति के लिए हँसते-हँसते शहीद होने तत्पर थे। ऐसे असंख्य वीर-सपूतों के जीवनमूल्यों का महान प्रतिदान है ये हमारी स्वतन्त्रता, जिसे उन्होंने हमें ‘रामराज्य’ की कल्पना के साथ सौंपा था। माना कि नवनिर्माण एवं प्रगति एक चुनौती से कम नहीं होती? हमें समय, अर्थ, प्रतिनिधित्व आदि सब कुछ मिला लेकिन हम संकीर्णता से ऊपर नहीं उठ सके। हम स्वार्थ, आपसी कलह, क्षेत्रीयता, जातीयता, अमीरी-गरीबी के मुद्दों को अपनी-अपनी तराजू में तौलकर बंदरबाँट करते रहे। देश की सुरक्षा, विदेशनीति और राष्ट्रीय विकास के मसलों पर कभी एकमत नहीं हो पाए।

आज केन्द्र और राज्य सरकारें अपनी दलगत नीतियों के अनुरूप ही विकास का राग अलापती रहती हैं। माना कि कुछ क्षेत्रों में विकास हो रहा है, लेकिन यहाँ भी महत्त्वपूर्ण यह है कि विकास किस दिशा में होना चाहिए? क्या एकांगी विकास देश और समाज को संतुलित रख सकेगा? क्या शहरी विकास पर ज्यादा ध्यान देना गाँव की गरीबी और भूख को समाप्त कर सकेगा? क्या मात्र देश की आतंरिक मजबूती देश की चतुर्दिक सीमाओं को सुरक्षित रख पाएगी? क्या हम अपने अधिकांश युवाओं का बौद्धिक व तकनीकि उपयोग अपने देश के लिए कर पा रहे हैं? हम तकनीकि, विज्ञान, चिकित्सा, अन्तरिक्ष आदि क्षेत्रों में आगे बढ़ें। बढ़ भी रहे हैं लेकिन क्या इसी अनुपात से अन्य क्षेत्रों में भी विकास हुआ है? क्या वास्तव में गरीबी का उन्मूलन हुआ है? क्या ग्रामीण शिक्षा का स्तर समयानुसार ऊपर उठा है? क्या ग्रामीणांचलों में कृषि के अतिरिक्त अन्य पूरक उद्योग, धंधे तथा नौकरी के सुलभ अवसर मिले हैं? क्या अमीरी और गरीबी के अंतर में स्पष्ट रूप से कमी आई है? क्या जातीय और क्षेत्रीयता की भावना से हम ऊपर उठ पाए हैं? यदि हम ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसका सीधा सा आशय यही है कि हम जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं वह स्वतंत्रता के बलिदानियों और देश के समग्र विकास के अनुरूप नहीं है।

आज राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी सोच एवं नीतियाँ बनाना अनिवार्य हो गया है, जो शहर-गाँव, अमीर-गरीब, जाति-पाँति, क्षेत्रीयता-साम्प्रदायिकता के दायरे से परे समान रूप से अमल में लाई जा सकें। आज पुरानी बातों का उद्धरण देकर बहलाना या दिग्भ्रमित करना उचित नहीं है। अब सरकारी तंत्र एवं जनप्रतिनिधियों द्वारा असंगत पारंपरिक सोच बदलने का वक्त आ गया है। जब तक सोच नहीं बदलेगी, तब तक हम नहीं बदलेंगे और जब हम नहीं बदलेंगे तो राष्ट्र कैसे बदलेगा? आज देश को विश्व के अनुरूप बदलना नितांत आवश्यक हो गया है। देश में उन्नत कृषि हो, गाँव में छोटे-बड़े उद्योग हों, शिक्षा, चिकित्सा, सड़क-परिवहन और सुलभ संचार माध्यम ही ग्रामीण एवं शहर की खाई को पाट सकेंगे। आज भी लोग गाँवों को पिछड़ेपन का पर्याय मानते हैं। आज भी हमारे जीवन जीने का स्तर अनेक देशों की तुलना में पिछड़ा हुआ है। ऐसे अनेक देश हैं जो हमसे बाद में स्वतंत्र हुए हैं या उन्हें राष्ट्र निर्माण के लिए कम समय मिला है, फिर भी आज वे हम से कहीं बेहतर स्थिति में हैं, इसका कारण सबके सामने है कि वहाँ के जनप्रतिनिधियों द्वारा अपने देश और प्रजा के लिए निस्वार्थ भाव से योजनाबद्ध कार्य कराया गया है।

आज स्वतन्त्रता के 74 वर्षीय अंतराल में कितनी प्रगति किन क्षेत्रों में की गई यह हमारे सामने है। अब निश्चित रूप से हमें उन क्षेत्रों पर भी ध्यान देना होगा जो देश की सुरक्षा, प्रतिष्ठा और सर्वांगीण विकास हेतु अनिवार्य हैं। आज देश की जनता और जनप्रतिनिधियों की सकारात्मक सोच ही देश की एकता और अखंडता को मजबूती प्रदान कर सकती है। राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु कोई दबाव, कोई भूल या कोताही क्षम्य नहीं होना चाहिए। आज बेरोजगारी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार जैसी महामारियों के उपचार तथा प्रतिकार हेतु सशक्त अभियान की महती आवश्यकता है। गहन चिंतन-मनन और प्रभावी तरीके से निपटने की जरूरत है। इस तरह आजादी के इतने बड़े अंतराल के बावजूद  देश की अपेक्षानुरूप कम प्रगति के साथ ही सुदृढ़ता की कमी भी हमारी चिंता को बढाता है। आईये आज हम “सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा” को चरितार्थ करने हेतु संकल्पित हो आगे बढ़ें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता -3”)

☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -3 ☆

भारत और इसके निवासियों को ईसाइयत ने भी काफी प्रभावित किया। वर्तमान समय की पोशाकें, खानपान के तरीके, आधुनिक शिक्षा, चिकित्सा प्रणाली , तकनीकी ज्ञान और सबसे बढ़कर आधुनिक समाजशास्त्र के नियम, जो रंग, जाति, लिंग का भेदभाव किये बिना सबको जीने का समान अवसर देने के पक्षधर हैं, हमें पाश्च्यात संस्कृति से ही मिले हैं।

हमारे देश के अनेक मनीषियों ने समय समय पर इस सामासिक संस्कृति को आगे बढाने में अपना अमूल्य योगदान दिया है। महान संत रामकृष्ण परमहंस ने तो ईश्वर एक है की अवधारणा की पुष्टि हेतु ईसाइयों के पादरी और मुस्लिम मौलवी का रूप धर लम्बे समय तक परमेश्वर की आराधना उन्ही की पद्धत्ति से की एवं ईश्वर की अनुभूति की। स्वामी विवेकानंद तो कहते थे कि हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिंदुत्व और इस्लाम, मिलकर एक हो जाएँ। वेदांती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खडा होगा, वही  भारत की आस्था है। हमारी सामासिक संस्कृति की सच्ची अनुभूति तो महात्मा गांधी को हुई। यंग इंडिया और हरिजन के विभिन्न अंको में लिखे अनेक लेखो व संपादकीय और हिन्द स्वराज नामक पुस्तक के माध्यम से गांधीजी ने हिन्दू मुस्लिम एकता, मिलीजुली संस्कृति,अंधाधुंध  पाश्चातीकरण के दुष्प्रभाव पर प्रकाश डाला है। हिंद्स्वराज में महात्मा गांधी लिखते हैं कि ” हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नए लोग उसमे दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगो का समावेश करने का गुण होना चाहिए. हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है।” यंग इंडिया के एक अंक में उन्होंने लिखा कि “मेरा धर्म मुझे आदेश देता है कि मैं अपनी संस्कृति को सीखूँ, ग्रहण करूँ और उसके अनुसार चलूँ. किन्तु साथ ही वह मुझे दूसरों की संस्कृतियों का अनादर करने या उन्हें तुच्छ समझने से भी रोकता है। ” गांधीजी का मानना था कि हमारा देश विविध संस्कृतियों के समन्वय का पोषक है। इन सभी संस्कृतियों ने भारतीय जीवन को प्रभावित किया है हमारी संस्कृति की विशेषता है कि उसमे प्रत्येक संस्कृति का अपना उचित स्थान है।

हमारी सामासिक संस्कृति वस्तुतः विश्व की धरोहर है। यह सतरंगी है. इस संस्कृति में अनेक रंगों के फूल अपनी सुन्दरता लिए सदियों से महकते आये हैं। हमारी नदियाँ और पर्वत सभी भारत वासियों को एक ही दृष्टी से आकर्षित करते हैं। भारत एक भूमि का टुकडा मात्र नहीं है। यह अनेक संस्कृतियों का मिलन स्थल है इसलिए वह एक सम्पूर्ण राष्ट्र है। इसमें इतनी विविधताएं हैं कि कई विद्वान् इसे उपमहाद्वीप कहते हैं। हमारी सामासिक संस्कृति आरम्भ से ही सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया  का उद्घोष करती आ रही है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 77 ☆ संतुलन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 77 – संतुलन☆

मुंबई में हूँ और सुबह का भ्रमण कर रहा हूँ। यह इलाका संभवत: ऊँचे पहाड़ को काटकर विकसित किया गया है। नीचे समतल से लेकर ऊपर तक अट्टालिकाओं का जाल। अच्छी बात यह है कि विशेषकर पुरानी सोसायटियों के चलते परिसर में हरियाली बची हुई है। जैसे-जैसे ऊँचाई की ओर चलते हैं, अधिकांश लोगों की गति धीमी हो जाती है, साँसें फूलने लगती हैं। लोगों के जोर से साँस भरने की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही हैं।

लम्बा चक्कर लगा चुका। उसी रास्ते से लौटता हूँ। चढ़ाव, ढलान में बदल चुका है। अब कदम ठहर नहीं रहे। लगभग दौड़ते हुए ढलान से उतरना पड़ता है।

दृश्य से उभरता है दर्शन, पार्थिव में दिखता है सनातन। मनुष्य द्वारा अपने उत्थान का प्रयास, स्वयं को निरंतर बेहतर करने का प्रवास लगभग ऐसा ही होता है। प्रयत्नपूर्वक, परिश्रमपूर्वक एक -एक कदम रखकर, व्यक्ति जीवन में ऊँचाई की ओर बढ़ता है। ऊँचाई की यात्रा श्रमसाध्य, समयसाध्य होती है, दम फुलाने वाली होती है। लुढ़कना या गिरना इसके ठीक विपरीत होता है।  व्यक्ति जब लुढ़कता या गिरता है तो गिरने की गति, चढ़ने के मुकाबले अनेक गुना अधिक होती है। इतनी अधिक कि अधिकांश मामलों में ठहर नहीं पाता मनुष्य। मनुष्य जाति का अनुभव कहता है कि ऊँचाई की यात्रा से अधिक कठिन है ऊँचाई पर टिके रहना।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, विषयभोगों के पीछे भागने की अति, धन-संपदा एकत्रित करने  की अति, नाम कमाने की अति। यद्यपि कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, तथापि अति अनंत है। हर पार्थिव अति मनुष्य को ऊँचाई से नीचे की ओर धकेलती है और अपने आप को नियंत्रित करने में असमर्थ मनुज गिरता-गिरता पड़ता रसातल तक पहुँंच जाता है।

विशेष बात यह है कि ऊँचाई और ढलान एक ही विषय के दो रूप हैं। इसे संदर्भ के अनुसार समझा जा सकता है। आप कहाँ खड़े हैं, इस पर निर्भर करेगा कि आप ढलान देख रहे हैं या ऊँचाई। अपनी आँखों में संतुलन को बसा सकने वाला न तो ऊँचाई  से हर्षित होता है,  न ढलान से व्यथित। अलबत्ता ‘संतुलन’ लिखने में जितना सरल है, साधने में उतना ही कठिन। कई बार तो लख चौरासी भी इसके लिए कम पड़ जाते हैं।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – एक आत्मकथा – वतन की मिटटी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का एक भावप्रवण आलेख “ एक आत्मकथा – वतन की मिटटी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  एक आत्मकथा – वतन की मिटटी

मैं घर से परदेश चला था, रोजी-रोटी की तलाश में। रेलवे स्टेशन पर‌ पहुँच कर मैंने एक सुराही तथा एक मिटृटी का गिलास लिया, रास्ते में शीतल जल  पीने के लिए और सफ़र कटता गया। उस सुराही के जल से साथ चल रहे सहयात्रियों की प्यास बुझाई। मुझे अपने सत्कर्मो पर गर्वानुभूति हो चली थी।  मुझे भी जोर की प्यास लगी थी। जैसे ही मैंने पानी से भरे  मिट्टी के गिलास को हाथ में उठा होंठों लगाना चाहा तभी वह सिसकती हुई मिट्टी बोल पड़ी “मै भारत देश की महान धरती के एक अंश  से बनी हूं। मैं तुम्हारे वतन की मिट्टी हूँ। मेरे संपूर्ण अस्तित्व को अनेकों नामों से संबोधित किया जाता है। मुझे लोग धरती, धरणी, वसुंधरा, रत्नगर्भा, महि‌, भूमि आदि न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। मैं बार बार  राजाओं महाराजाओं  की लोलुपता का शिकार हुई हूँ। मुझे प्राप्त करने की‌ इक्षा‌ रखने वाले राजाओ की गृहयुद्ध ‌की साक्षी भी मैं ही हूँ।

यह उस जमाने की बात है, जब प्लास्टिक का चलन शुरू ही  हुआ था लेकिन मिट्टी ने  भविष्य में आने वाले खतरे को भाँप लिया था।

वह मुझसे संवाद कर उठी –“उसने कहा ओ परदेशी  पहचाना मुझे, मैं तेरे वतन की मिट्टी हूँ। जब तू परदेश के लिए चला था, तभी से मैं तेरा साथ छूटने पर दुखी थी। मैं तुझे इसलिए बुला रही थी कि तुझे अपनी राम कहानी सुना सकूँ। लेकिन तूने मेरी सुनी कहाँ, तू मेरी वफ़ा को देख। मैंने फिर भी तेरा साथ नहीं छोड़ा और सुराही के रूप में चल पड़ी हूँ तेरे साथ तेरी प्यास बुझाने तथा तेरे साथ चल रहे इंसान की प्यास बुझाने के लिए। मुझे धरती खोद कर निकाल कर कुंभार अपने घर लाया। फिर मुझे रौंदा गया, मुझे रौंदे जाते देख मेरे एक पुत्र कबीर से मेरी दुर्दशा देखी न गई, उन्होंने मुझे माध्यम बना कुंभार को चेतावनी भी दे डाली और यथार्थ समझाते हुए कहा कि-

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे ।
इक दिन ऐसा आयेगा, मैं रुन्दूगी तोहे।।

लेकिन कुम्हार ने जिद नहीं छोड़ी। उसने मुझे आग में तपा दिया और गढ़ दी अनेकों आकृतियां अपनी आवश्यकता के अनुरूप। मैने एक दिन उसे भी अपनी गोद में जगह दे दिया वह सदा के लिए मुझमें समा गया। लेकिन मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई और मैं दुकान से होती जीवन यात्रा तय करती तुमसे आ टकराई।  मैं आशंकित हूँ अपने भविष्य के प्रति। एक दिन तेरा स्वार्थ पूरा होते ही तू मुझे तोड़ कर फेंक देगा। काश मैं सुराही न होकर प्लास्टिक कुल में पैदा थर्मस होती तो यात्रा पूरी करने के बाद भी तेरे घर के कोने में शान से रहती।

याद रख मैं कृत्रिम नहीं हूँ।  मैं तेरी सभ्यता संस्कृति का वाहक तो हूँ ही, मुझसे ही तेरी पहचान भी है। मैं युगों-युगों से देवता और दानव कुल के बीच चल रहे संघर्षों की भी साक्षी रही हूँ। मैंने पारिवारिक पृष्ठभूमि के  युध्द देखे। आततायियों को धराशाई होते देखा। वीरों को वीरगति को प्राप्त होते देखा। मैं भी नारी कुल से पैदा हुई धरती माँ का अंश हूँ। मैंने सीता जैसी कन्या को अपनी कोख से पैदा किया तो उसकी व्यथा सुनकर अपने आँचल में समेटा भी। मैंने ही जीवन यापन करने के लिए लोगों को फल-फूल, लकड़ी-चारा, जडी़ बूटियां, खनिज दिया।

मैं न रही तो प्लास्टिक का ढेर तेरी पीढ़ियों को खा जायेगा। फिर तुझे किसी को पिंडदान करने के लिए भी नहीं छोड़ेगा। हर तरफ करूण क्रंदन ही क्रंदन होगा।

मुझे अपने भविष्य का तो कुछ भी पता नहीं है। लेकिन तेरा भविष्य मैं जानती हूँ। तू पैदा हुआ है, मेरे सीने पर खेला भी, मेरी गोद में तू मरेगा भी। मेरी आँचल की छांव में और  चिरनिंद्रा में  सोने पर तुझे अपनी गोद में  जगह  भी मैं ही दूंगी। क्योंकि, मैं तेरे वतन की पावन मिट्टी हूँ। तुम्हारे ही भाईयों ने अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए विभाजन की अनेक सीमा रेखायें खींच दी। मुझे दुख और क्षोभ भी हुआ। लेकिन, दूसरे बेटे के कर्म पर गर्व भी है, जिसने मुझे अपने माथे से  लगा कर मेरी आन-बान-शान की रक्षा में अपनी जान देने की कसम खा रखी है। आज भी देश भक्त मेरी ‌मिट्टी से  अपने माथे का  तिलक लगाकर अपनी जान दे देते । उनका जीना भी मेरी खातिर और मरना भी मेरी खातिर। लेकिन, उनका क्या, जो मेरे नाम पर देश का भाग्य विधाता बन अपने अपने सत्ता सुख के लिए ‌मुद्दो की तलाश में हर बार विभाजन की एक और लकीर मेरे सीने पर और खींच देते हैं जातिवाद क्षेत्रवाद, भाषावाद, और अब तो संप्रदायवाद के दंश से‌ मै दुखी महसूस कर रही हूँ। उन भाग्यविधाताओं से मेरे वे सपूत अच्छे है जहां जाति, धर्म/का कोई भेद नहीं। सच्ची देशभक्ति, प्रजातंत्र के मंदिर में नहीं दिखती। वहाँ अब अपने अपने मतलब के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम होता है। मैंने प्रजातंत्र के मंदिर में अवांछित शब्दों के प्रयोग से लेकर मार पीट भी‌ होते देखा है। काश कि वहां पर हितचिंतन की बातें करते जनहित के मुद्दों पर स्वार्थ रहित बहस करते। संसद चलने देते तो मेरी आत्मा निहाल हो जाती। काश, कोई सरहद पे जाता और देखता जहां बिना जाति, धर्म मजहब की परवाह किए  मेरा जवान लाल मेरे लिए ही जीता है मेरे लिए ही मरता है  तभी तो उनकी जहां चिता जलती है वहां की माटी भी आज पूजी जाती है। तभी तो किसी शायर ने कहा कि—–

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होंगा।।

तभी तो किसी रचना कार ने  फूल की इच्छा का चित्रण करते हुए लिखा जो यथार्थ के दर्शन ‌कराता है–

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक

तभी कोई भोजपुरी रचना कार कह उठता है–

जवने माटी जनम लिहेस उ, उ ,माटी भी धन्य हो गइल।
जेहि जगह पे ओकर जरल चिता, काबा काशी उ जगह हो गईल।

भला मेरे सम्मान करने वालों का इससे‌ बढ़िया उदाहरण और कहाँ ?  … और तुम भी उनमें से ही एक हो। तुम्हारी यात्रा और ज़रूरतें पूरी हो जायेगी और तुम मुझे कहीं भी उपेक्षित फेंक दोगे। काश कि अपनी जरूरत पूरी कर किसी गरीब जरूरतमंद को दे देते तो मेरा जन्म सुफल हो जाता। इस तरह संवाद करते करते उसकी आँखें भर आईं थी और मेरा दिल भी भर आया था। मैं मिट्टी का गिलास ओंठो से लगाना भूल गया था। आज मुझे अपने वतन की माटी की पीड़ा कचोट रही थी और अपने वतन की माटी से प्यार हो आया था।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 75 ☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं, मैं और सिर्फ़ मैं यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 75 ☆

☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆

‘कोई भी इंसान खुश रह सकता है, बशर्ते वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ कहना छोड़ दे और स्वार्थी न बने’ मैथ्यू आर्नल्ड का यह कथन इंगित करता है कि मानव को कभी फ़ुरसत में अपनी कमियों पर अवश्य ग़ौर करना चाहिए… दूसरों को आईना भी दिखाने की आदत स्वत: छूट जाएगी।

मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, आजीवन दूसरों के दोष-अवगुण खोजने में व्यस्त रहता है। उसे अपने अंतर्मन में झांकने का समय ही कहां मिलता है? वह स्वयं को ही नहीं, अपने परिवारजनों को भी सबसे अधिक विद्वान, बुद्धिमान अर्थात् ख़ुदा से कम नहीं आंकता। सो! उसके परिवारजन सदैव दोषारोपण करना ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकारते हैं। इसलिए न परिवार में सामंजस्यता की स्थिति आ सकती है, न ही समाज में समरसता। चारों ओर विश्रंखलता व विषमता का दबदबा रहता है, क्योंकि मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में लिप्त रहता है और अपनी अहंनिष्ठता के कारण वह सबकी नज़रों से गिर जाता है। आपाधापी भरे युग में मानव एक- दूसरे को पीछे धकेल आगे बढ़ जाना चाहता है, भले ही उसे दूसरों की भावनाओं को रौंद कर ही आगे क्यों न बढ़ना पड़े। सो! उसे दूसरों के अधिकारों के हनन से कोई सरोकार नहीं होता। वह निपट स्वार्थांध मानव केवल अपने हित के बारे में सोचता है और अपने अधिकारों के प्रति सजग व अपने कर्त्तव्यों से अनभिज्ञ, दूसरों को उपेक्षा भाव से देखता है, जबकि अन्य के अधिकार तभी आरक्षित-सुरक्षित रह सकते हैं, जब वह अपने कर्त्तव्य व दायित्वों का सहर्ष निर्वहन करे। मैं, मैं और सिर्फ़ मैं की भावना से आप्लावित मानव आत्मकेंद्रित होता है…केवल अपनी अहंतुष्टि करना चाहता है तथा उसके लिए वह अपने संबंधों व पारिवारिक दायित्वों को तिलांजलि देकर निरंतर आगे बढ़ता चला जाता है, जहां उसकी काम-वासनाओं का अंत नहीं होता… और संबंधों व सामाजिक सरोकारों से निस्पृह मानव एक दिन स्वयं को नितांत अकेला अनुभव करता है और ‘मैं’ ‘मैं’ के दायरे व व्यूह से बाहर आना चाहता है, स्वयं में स्थित होना चाहता है और प्रायश्चित करना चाहता है…परंतु अब किसी को उसकी व उसकी करुणा-कृपा की दरक़ार नहीं होती।

इस दौर में वह अपनी कमियों पर ग़ौर कर अपने अंतर्मन मेंं झांकना चाहता है…आत्मावलोकन करना चाहता है। परंतु उसे अपने भीतर अवगुणों, दोषों व बुराइयों का पिटारा दिखाई पड़ता है और वह स्वयं को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में लिप्त पाता है। इन विषम परिस्थितियों में वह उस स्वनिर्मित जाल से बाहर निकल, संबंधों व सरोकारों का महत्व समझ कर लौट जाना चाहता है; उन अपनों में … अपने आत्मजों में, परिजनों में… जो अब उसकी अहमियत नहीं स्वीकारते, क्योंकि उन्हें उससे कोई अपेक्षा नहीं रहती। वैसे भी ज़िंदगी मांग व पूर्ति के सिद्धांत पर निर्भर है। हमें भूख लगने पर भोजन तथा प्यास लगने पर पानी की आवश्यकता होती है…और यथासमय स्नेह, प्रेम, सहयोग व सौहार्द की। सो! बचपन में उसे माता के स्नेह व पिता के सुरक्षा-दायरे की ज़रूरत व उनके सानिध्य की अपेक्षा रहती है। युवावस्था में उसे अपने जीवन- साथी, दोस्तों व केवल अपने परिवारजनों से अपेक्षा रहती है, माता-पिता के संरक्षण की नहीं। सो! अपेक्षा व उपेक्षा भाव दोनों सुख-दु:ख की भांति एक स्थान पर नहीं रह सकते, क्योंकि प्रथम भाव है, तो द्वितीय अभाव और इनमें सामंजस्य ही जीवन की मांग है।

जीवन जहां संघर्ष का पर्याय है, वहीं समझौता भी है, क्योंकि संघर्ष से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते, जो प्रेम द्वारा पल-भर में प्राप्त कर सकते हैं। आपका मधुर व्यवहार ही आपकी सफलता की कसौटी है, जिसके बल पर आप लाखों लोगों के प्रिय बन, उन के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। विनम्रता हमें नमन सिखलाती है, शालीनता का पाठ पढ़ाती है, और विनम्र व्यक्ति विपदा-आपदा के समय पर अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता… सदैव धैर्य बनाए रखता है। अहं उसके निकट जाकर भी उसे छूने का साहस नहीं जुटा पाता अर्थात् वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ के शिकंजे से सदैव मुक्त रहता है और आत्मावलोकन कर ख़ुद में सुधार लाने की डगर पर चल पड़ता है। वह अपनी कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास करता है और कबीरदास जी की भांति ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय’ अर्थात्  पूरे संसार में उसे ख़ुद से बुरा व कुटिल कोई अन्य दिखाई नहीं पड़ता। इसी प्रकार सूर, तुलसी आदि को भी स्वयं से बड़ा पातकी-पापी ढूंढने पर भी दिखायी नहीं पड़ता, क्योंकि ऐसे लोग स्वयं को बदलते हैं, संसार को बदलने की अपेक्षा नहीं रखते।

कंटकों से आच्छादित मार्ग से सभी कांटो को चुनना अत्यंत दुष्कर कार्य है। हां! आत्मरक्षा के लिए पांवों में चप्पल पहन कर चलना अधिक सुविधाजनक व कारग़र है। सो! समस्या का समाधान खोजिए; ख़ुद मेंं बदलाव लाइए और दूसरों को बदलने में अपनी ऊर्जा नष्ट मत कीजिए। जब आपकी सोच व दुनिया को देखने का नज़रिया बदल जाएगा, आपको किसी में कोई भी दोष नज़र नहीं आयेगा और आप उस स्थिति में पहुंच जाएंगे… जहां आपको अनुभव होगा कि जब परमात्मा की कृपा के बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता, तो व्यक्ति किसी का बुरा करने की बात सोच भी कैसे सकता है? सृष्टि-नियंता ही मानव से सब कुछ कराता है… इसलिए वह दोषी कैसे हुआ? इस स्थिति में आपको दूसरों को आईना दिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

मानव ग़लतियों का पुतला है। यदि हम अपने जैसा दूसरा ढूंढने को निकलेंगे, तो अकेले रह जाएंगे। इस लिए दूसरों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारना सीखिये … यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है। वैसे भी आपको जीवन में जो भी अच्छा लगे, उसे सहेज व संजोकर रखिए और शेष को छोड़ दीजिए। इस संदर्भ में आपकी ज़रूरत ही महत्वपूर्ण है और ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ तथा ‘जहां चाह, वहां राह… यह है जीने का सही राह।’ यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्मविश्वासी है, तो वह नवीन राह  ढूंढ ही लेता है और इस स्थिति में उसका मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी हो जाता है। सो! साहस व धैर्य का दामन थामे रखिए, मंज़िल अवश्य प्राप्त हो जायेगी।

हां! अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, आपको सत्य की राह पर चलना होगा, क्योंकि सत्य ही शिव है, कल्याणकारी है…और जो मंगलकारी है, वह सुंदर तो अवश्य ही होगा। इसलिए सत्य की राह सर्वोत्तम है। सुख-दु:ख तो मेहमान की भांति आते- जाते रहते हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देता है। सो! इनसे घबराना व डरना कैसा? इसलिए जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं और ‘जो ज़िंदगी में होता है, हमें भाता नहीं’… वही हमारे दु:खों का मूल कारण है। जिस दिन हम दूसरों को बदलने की भावना को त्याग कर, ख़ुद में सुधार लाने का मन बना लेंगे, दु:ख,पीड़ा,अवमानना, आलोचना, तिरस्कार आदि अवगुण सदैव के लिए जीवन से नदारद हो जाएंगे। इसलिए ‘परखिए नहीं, समझिए’ … यही जीने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि ‘जब चुभने लगें, ज़माने की नज़रों मेंं/ तो समझ लेना तुम्हारी चमक बढ़ रही है’ अर्थात् महान् व बुद्धिमान मनुष्य की सदैव आलोचना व निंदा होती है और वे सामान्य लोगों की नज़रों में कांटा बन कर खटकने लगते हैं। इस स्थिति में मानव को कभी भी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रसन्नता से स्वयं को ग़ौरवान्वित अनुभव करना चाहिए कि ‘आपकी बढ़ती चमक व प्रसिद्धि देख, लोग आपसे ईर्ष्या करने लगे हैं।’ सो! आपको निरंतर उसी राह पर अग्रसर होते रहना चाहिए।

ज़िंदगी जहां हर पल नया इम्तहान लेती है, वहीं वह  एक सुहाना सफ़र है। कौन जानता है, अगले पल क्या होने वाला है? इसलिए चिंता, तनाव व अवसाद में स्वयं को झोंक कर, अपना जीवन नष्ट नहीं करने का संदेश प्रेषित है। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में–’उठो! आगे बढ़ो और तब तक न रुको, जब तक आप मंज़िल को नहीं पा लेते तथा उस स्थिति में मन में केवल वही विचार रखो, जो तुम जो पाना चाहते हो और केवल उसे ही हर दिन दोहराओ…आपको उस लक्ष्य के प्राप्ति आपको अवश्य हो जाएगी।’

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि ‘सिर्फ़ मैं’ के भाव का दंभ मत भरो। आत्मावलोकन कर अपने अंतर्मन में झांको, दोष-दर्शन कर अपनी कमियों को सुधारने में प्रयास-रत रहो… आप स्वयं को अवगुणों की खान अनुभव करोगे। दूसरों से अपेक्षा मत करो और जब आपके हृदय में दैवीय गुण विकसित हो जाएं और आप लोगों की नज़रों में खटकने लगें, तो सोचो… आपका जीवन, आपका स्वभाव आपके कर्म उत्तम हैं, श्रेष्ठ हैं, अनुकरणीय हैं। सो! आप जीवन में अपेक्षा-उपेक्षा के जंजाल से मुक्त रहो…कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक पायेगी। यही मार्ग है खुश रहने का… परंतु यह तभी संभव होगा, जब आप स्व-पर से ऊपर उठ कर, नि:स्वार्थ भाव से परहित के कार्यों में स्वयं को लिप्त कर, उन्हें दु:खों से मुक्ति दिला कर सुक़ून अनुभव करने लगेंगे। सो! दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और मानव-मात्र के मनोरथ पूरे होंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 27 ☆ सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य)

☆ किसलय की कलम से # 27 ☆

☆ सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य ☆

पिछले तीन-चार दशक से सम्मान एवं पुरस्कारों की बाढ़ सी आ गई है। समाचार पत्रों, टी.वी. चैनलों और मीडिया की खबरें हम तक पहुँच रही हैं। आमंत्रण पत्र भी उबाऊ लगने लगे हैं। हर चौराहे सभागारों या मैदानों में आए दिन समारोह देखे जा सकते हैं। यहाँ पहुँचने वालों में स्वजन, स्वार्थी एवं सम्मान पिपासुओं के अलावा मात्र आयोजकों की उपस्थिति दिखाई देती है। यदि किसी बड़े नेता या धनाढ्य द्वारा कार्यक्रम आयोजित किया गया हो तो निजी वाहनों से ढोकर श्रोता जुटाए जाते हैं और यदि सभोज समारोह हुआ तो बिना बुलाए ही श्रोताओं की भीड़ जुट जाती है। कभी आपने सोचा है कि ये कार्यक्रम क्यों और कैसे आयोजित होते हैं? इतने सम्मान कैसे लिए और दिए जाते हैं? वर्तमान समय में इन सम्मानों और पुरस्कारों का औचित्य क्या है?

आदिकाल से ही संसार में किसी श्रेष्ठ कार्य अथवा उपलब्धि पर लोगों को प्रोत्साहित करने की परम्परा चली आ रही है। पहले लोग इसे अपने सौभाग्य और शुभकर्मों का प्रतिफल मानते थे। उत्तरदायित्व की विराटता समझते थे। समाज में इन लोगों की प्रतिष्ठा और पूछ-परख होती थी। लोग उनके कृतित्व एवं चरित्र का अनुकरण करते थे। पूर्व की तुलना में आज सम्मान और पुरस्कारों का बाहुल्य होते हुए भी लोगों का किसी से कोई लेना-देना नहीं होता। आज के अधिकांश सम्मान एवं पुरस्कार श्रम, सेवा और समर्पण से नहीं अर्थ, स्वार्थ और पहुँच से प्राप्त किए जाते हैं। परस्पर आदान-प्रदान की एक नई परिपाटी जन्म ले चुकी है। देखा गया है कि छोटे सम्मान की बदौलत बड़ा सम्मान मिलता है। पैसों से सम्मान और पुरस्कार प्राप्त करना आज आम बात हो गई है, लेकिन योग्यता, ईमानदारी और समर्पण से सम्मान या पुरस्कार वर्तमान में टेढ़ी खीर हो गए हैं। आज हम पहुँच और पैसों से खरीदे सम्मानों की सूची अपने बायोडाटा में देने लगे हैं। राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कारों के लिए गणमान्य लोगों से अनुशंसायें लिखवाते हैं। ऐसी उपलब्धि क्या हमारी दशा और दिशा बदल पायेगी? क्या हम अपेक्षित सामाजिक उत्तरदायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर पायेंगे? शायद नहीं, क्योंकि हम मात्र समाज के सामने श्रेष्ठ बनने और अपना उल्लू सीधा करने के लिए इतना ताना-बाना बुनते हैं। अधिकतर लोगों का सामाजिक सरोकारों से कोई लेना नहीं होता। अपने धन, वैभव और पहचान का अनुचित प्रयोग कर ऊँची से ऊँची आसंदी पर स्वयं को देखना चाहते हैं, लेकिन आज भी ऐसे बहुतेरे योग्य, ईमानदार और समर्पित लोग समाज में दिखाई देते हैं जो समाज सेवा और राष्ट्र के उत्थान हेतु अपना सर्वस्व खपाने का संकल्प लिए नि:स्वार्थ भाव से निरन्तर सक्रिय हैं, उन्हें किसी सम्मान, पुरस्कार या अभिनन्दन की लालसा नहीं होती। ऐसा माना जाता है कि समाज के इन्हीं 10-20 प्रतिशत लोगों के कारण ही समाज में ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा जीवित है। क्या हम और हमारी सरकार इन ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठों की उपेक्षा कर इनके संकल्पित हृदय को आहत नहीं कर रही है। क्या झूठे प्रमाण-पत्र, अनुशंसाएँ एवं प्रशस्ति-पत्र आज प्रतिष्ठित सम्मानों, पुरस्कारों के साक्ष्य तथा मानक बनते रहेंगे? क्या हम बिना आदर्श-सत्यापन के, बिना काबिलियत के इसी तरह सम्मान और पुरस्कार देते रहेंगे, क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि आम आदमी की बगैर मध्यस्थता वाली अनुशंसायें एवं प्रस्ताव आमंत्रित कर पारदर्शिता के साथ सम्मान एवं पुरस्कार सुयोग्य व्यक्तित्व को दिया जाये।

सम्मान, अलंकरण पुरस्कार अथवा अभिनन्दन समारोह मानवीय मूल्यों की पूजा के समतुल्य होता है। अत: समाज को ऐसे सम्मानों एव पुरस्कारों के विकृत अस्तित्व को नकारने का उत्तरदायित्व लेना चाहिए, क्योंकि यह छद्म उपलब्धि व  वाहवाही समाज के लिए घातक परम्परा का रूप ले सकती है।

बिना परिश्रम, बिना दृढ निश्चय एवं बिना योग्यता के किसी भी कार्य, सेवा या चलाये जा रहे अभियान की वास्तविक पूर्णता सम्भव ही नहीं है। खोखली बातों से समाज और देश नहीं चलता। इसलिए हमें अपनी अन्तरात्मा और सच्चाई की आवाज सुनना होगी। योग्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा और परमार्थभाव को ही पूजना होगा। यही सच्ची मानवसेवा है, जो हमें और हमारे समाज को आदर्श बनाने में सहायक होगी। हमें उम्मीद है कि आज के शिक्षित तथा सुसंस्कृति को जानने वाले मानव द्वारा अब तथाकथित झूठी और प्रदर्शित की जा रही योग्यता को नकार दिया जायेगा।इसके पश्चात ही सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य सही साबित होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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