हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है-? ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है-? ?

बात 16 सितम्बर 2019 की है। हिंदी पखवाड़ा के उद्घाटन हेतु केंद्रीय जल और विद्युत अनुसंधान संस्थान, खडकवासला, पुणे में आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद सैकड़ों एकड़ में फैले इस संस्थान के कुछ मॉडेल देखे। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लिए अनेक बाँधों की देखरेख और छोटे-छोटे चेकडैम बनवाने में संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संस्थान चूँकि जल अनुसंधान पर काम करता है, भारत की नदियों पर बने पुल और पुल बनने के बाद जल के प्रवाह में आनेवाले परिवर्तन से उत्पन्न होनेवाले प्रभाव का यहाँ अध्ययन होता है। इसी संदर्भ में यमुना प्रोजेक्ट का मॉडेल देखा। दिल्ली में इस नदी पर कितने पुल हैं, हर पुल के बाद पानी की धारा और अविरलता में किस प्रकार का अंतर आया है, तटों के कटाव से बचने के लिए कौनसी तकनीक लागू की जाए, यदि राज्य सरकार कोई नया पुल बनाने का निर्णय करती है तो उसकी संभावनाओं और आशंकाओं का अध्ययन कर समुचित सलाह दी जाती है। आंध्र और तेलंगाना के लिए बन रहे नए बाँध पर भी सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका में यही संस्थान है। इस प्रकल्प में पानी से 900 मेगावॉट बिजली बनाने की योजना भी शामिल है। देश भर में फैले ऐसे अनेक बाँधों और नदियों के जल और विद्युत अनुसंधान का दायित्व संस्थान उठा रहा है।

मन में प्रश्न उठा कि पुणे के नागरिक, विशेषकर विद्यार्थी, शहर और निकटवर्ती स्थानों पर स्थित ऐसे संस्थानों के बारे में कितना जानते हैं? शिक्षा जबसे व्यापार हुई और विद्यार्थी को विवश ग्राहक में बदल दिया गया, सारे मूल्य और भविष्य ही धुँधला गया है। अधिकांश निजी विद्यालय छोटी कक्षाओं के बच्चों को पिकनिक के नाम पर रिसॉर्ट ले जाते हैं। बड़ी कक्षाओं के छात्र-छात्राओं के लिए दूरदराज़ के ‘टूरिस्ट डेस्टिनेशन’ व्यापार का ज़रिया बनते हैं तो इंटरनेशनल स्कूलों की तो घुमक्कड़ी की हद और ज़द भी देश के बाहर से ही शुरू होती है।

किसीको स्वयं की संभावनाओं से अपरिचित रखना अक्षम्य अपराध है। हमारे नौनिहालों को अपने शहर के महत्वपूर्ण संस्थानों की जानकारी न देना क्या इसी श्रेणी में नहीं आता? हर शहर में उस स्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर से कटे लोग बड़ी संख्या में हैं। पुणे का ही संदर्भ लूँ तो अच्छी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने शनिवारवाडा नहीं देखा है। रायगढ़, प्रतापगढ़ से अनभिज्ञ लोगों की कमी नहीं। सिंहगढ़ घूमने जानेवाले तो मिलेंगे पर इस गढ़ को प्राप्त करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के जिस ‘सिंह’ तानाजी मालसुरे ने प्राणोत्सर्ग किया था, उसका नाम आपके मुख से पहली बार सुननेवाले अभागे भी मिल जाएँगे।

लगभग तीन वर्ष पूर्व मैंने महाराष्ट्र के तत्कालीन शालेय शिक्षामंत्री को एक पत्र लिखकर सभी विद्यालयों की रिसॉर्ट पिकनिक प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके स्थान पर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के स्थानीय स्मारकों, इमारतों, महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों की सैर आयोजित करने के निर्देश देने का अनुरोध भी किया था।

धरती से कटे तो घास हो या वृक्ष, हरे कैसे रहेंगे? इस पर गंभीर मनन, चिंतन और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 6:47 बजे, 19.9.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆

भोर का समय है। लेखन में मग्न हूँ। एकाएक कुछ नगाड़ों के स्वर कानों में गूँजने लगते हैं। विचार करता हूँ कि आज श्री गणेशोत्सव का नौवाँ दिन है। अपवादस्वरूप ही इस दिन विसर्जन होता है। फिर इस वर्ष भी सार्वजनिक गणपति की स्थापना नहीं हुई है। ऐसे में सुबह-सुबह नगाड़ों का स्वर कहाँ से आ रहा है? जिज्ञासा के शमन के लिए बाहर निकलता हूँ और देखता हूँ कि गाजे-बाजे के साथ एक मुनिवर का आगमन हो रहा है। भक्तों की भीड़ मुनिवर के आगे और पीछे पैदल चल रही है। सबसे आगे नगाड़ा बजाने वाले चल रहे हैं। अवलोकन करता हूँ कि हर भक्त बेहद महंगे वस्त्र धारण किये है। पदयात्रा में भव्यता और प्रदर्शन है। इन सबके बीच केवल मुनिवर हैं जो सारे प्रदर्शन से अनजान चिंतन और दर्शन में डूबे हैं। सच्चे निस्पृही, सच्चे अपरिग्रही।

अपरिग्रह भाव मानसपटल पर फ्रीज़ होता है और चिंतन की लहरें उठने लगती हैं। याद आता है एक फक्कड़ साधू महाराज का प्रसंग। महाराज जी के पास ठाकुर जी का अत्यंत सुंदर विग्रह था। वे ठाकुर जी की दैनिक रूप से सेवा करते। स्नान कराते, वस्त्र बदलते, पूजन करते। फिर महाराज जी भिक्षाटन के लिए निकलते। भिक्षा में जो कुछ मिलता, पहले ठाकुर जी को भोग लगाते, पीछे आप ग्रहण करते।

एक रात ठाकुर जी ने स्वप्न में दर्शन दिए और बोले, ” महाराज जी, हर रोज सूखी रोटी खाते-खाते थक गया हूँ। कभी थोड़ा घी भी चुपड़ दिया न करो। माखन और गुड़ की कभी-कभार व्यवस्था कर लिया करो।”

महाराज जी नींद से उठकर बैठ गये। सोचने लगे, मेरा ठाकुर तो लोभी निकला! क्रोध में भरकर ठाकुर जी से बोले, ” तुम्हारा यह चटोरापन नहीं चलेगा। ऐसे तो मेरा अपरिग्रह ही नष्ट हो जायेगा।”

चेले को बुलाकर महाराज जी ने ठाकुर जी उसे सौंपते हुए कहा,” इन्हें ले जाओ और किसी मंदिर में विधिवत स्थापित कर दो। सेठों की बस्ती के किसी मंदिर में बैठाना जहाँ इन्हें रोज जी भर के मिष्ठान, पकवान मिल सकें। मेरे पास तो सूखे टिक्कड़ के सिवा और कुछ मिलने से रहा।”

तात्पर्य है कि अपरिग्रह का इतना कठोर पालन कि ठाकुर जी भी छोड़ दिये। वस्तुत: प्रदर्शन, अनावश्यक संचय की जड़ है। दर्शन में सुविधा से ‘प्र’ उपसर्ग जड़कर चैतन्य समाज जड़ हो चला है। अपने ही हाथों खड़े किये इस एकाक्षरी भस्मासुर से मुक्त हो पाना मनुष्य के लिए टेढ़ी खीर सिद्ध हो रहा है।

अंतिम बात, ‘टेढ़ी खीर’ का अर्थ कठिन होता है लेकिन ‘कठिन’ का अर्थ ‘असंभव’ नहीं होता।…विचार कीजिएगा।

 

© संजय भारद्वाज

अपराह्न 4:34 बजे, 18 सितम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #88 ☆ मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक विचारणीय आलेख  “# मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव #। ) 

– श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 88 ☆ # मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव # ☆

भोजपुरी भाषा में एक कहावत है,

मन ना रंगायो ,रंगायो जोगी कपड़ा।

बार दाढ़ी रखि बाबा ,बनिए गइले बकरा।

इसी प्रकार मन की   मनोस्थिति पर   टिप्पणी करते हुए कबीर साहब ने कहा कि —-

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

कर का मनका (माला के दाने)डारि के ,मन का मनका फेर।।

कबिरा माला काठ की ,कहि समुझावत मोहि ।

मन ना फिरायो आपना, कहां फिरावत मोहिं।।

                अथवा

जप माला छापा तिलक,सरै न एकौ काम।

मन कांचे नांचे बृथा ,सांचे रांचे राम।।

तथा गोपी उद्धव संवाद में

सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से मन के मनोभावों का गहराई से चित्रण करते हुए कहा कि  #उधो मन ना भयो दस बीस# तथा अन्य संतों महात्माओं ने भी जगह जगह मन की गतिविधियों को उद्धरित किया है, और श्री मद्भागवत गीता में तो वेद ब्यास जी अर्जुन द्वारा मन की चंचलता पर भगवान कृष्ण से मन को बस में करने का उपाय पूछा था कि—- हे केशव ! आप मन को बस में करने की बात करते हैं —-जिस प्रकार वायु को मुठ्ठी में कैद नहीं किया जा सकता, फिर उसी तरह चंचल स्वभाव वाले मन को कैसे बस में किया जा सकता है।

जिसके प्रतिउत्तर में  भगवान कहते हैं —-हे अर्जुन! निरंतर योगाभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा मन को बस में करना अत्यंत सरल है।

हमने अपने अध्ययन में यह पाया कि क्षणिक ही सही उत्तेजित अवस्था में कठोर  से कठोर साधना करने वाला साधक नियंत्रण खो कर पतित हो अपना मान सम्मान गंवा देता है। आइए हम अपने अध्ययन द्वारा  मानव मन के स्वभाव प्रभाव का अध्ययन करें और समझे कि किस प्रकार उत्तेजना तथा भावुकता का  देश काल परिस्थिति तथा कहानी दृश्य चित्र तथा चलचित्र से परिस्थितियों से  मन  कैसे प्रभावित होता है।

मन की गतिविधियों पर अध्ययन करने से पहले हमें अपनी शारिरिक संरचना पर ध्यान देना होगा।   और उसकी बनावट तथा उसकी कार्यप्रणाली को समझना होगा तभी हम मन  के स्वभाव  को आसानी से समझ पायेंगे।

पौराणिक तथा बैज्ञानिक  अध्ययन तथा मान्यता के आधार पर  पंच भौतिक तत्वों  क्षिति ,जल पावक गगन तथा समीरा के संयोग  से मां के गर्भ में पल रहा , हमारा स्थूल शरीर निर्मित है, तथा शारीरिक संचालन के लिए जिस प्राण चेतना की आवश्यकता होती है वह प्राण वायु है उसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब प्राण शरीर से अलग होता है तब स्थूल शरीर मर जाता है उसी स्थूल शरीर में आत्मा निवास करती है जिसे इश्वरीय अंश से उत्पन्न माना जाता है , शरीर और आत्मा के बीच एक तत्व  मन भी रहता है

 जो इंद्रियों के द्वारा मन पसंद भोग करता है, तथा सुख और दुख की अनुभूति मन में ही होती है। शांत तथा उत्तेजित मन ही होता है मन ही मित्र है मन ही आप का शत्रु है यह अति संवेदनशील है  उसके उपर  परिस्थितियों तथा कथा कहानी गीत चलचित्र छाया चित्र का प्रभाव भी देखा गया है मन का क्षणिक आवेश व्यक्ति को पतन के गर्त में धकेल देता है। वहीं शांत तथा   एकाग्र मन आप को उन्नति शीर्ष पर स्थापित कर देता है।एक

तरफ कामुक दृश्य के चल चित्र तथा छाया चित्र उत्तेजना से भर देते हैं, वहीं भावुक दृश्य आपकी आंखों में पानी भर देते हैं इस लिए निरंतर योगाभ्यास तथा विरक्ति पथ पर चलते हुए लोककल्याण में रत रह कर हम अपनी आत्मिक शांति को प्राप्त कर आत्मोउन्नति कर सकते हैं।

ऊं सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

18–09–21

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…1”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…1 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

अन्य सभी समूहों की तरह यह समूह भी बौद्धिक, भावुक, भौतिक, आध्यात्मिक में से किसी एक या दो मौलिक प्रवृत्तियों से प्रधानतः परिचालित मनुष्यों का समूह है। यह लेख आध्यात्मिक रुझान के व्यक्तियों के लिए महत्व का हो सकता है। धार्मिकता और आध्यात्मिकता में बहुत अंतर होता है। आध्यात्मिक ज्ञान की खोज आत्मचिंतन से आरम्भ होकर प्रज्ञा पर जाकर खुलती है। जिसमें बाहरी अवयवों को छोड़ना होता है। यानि मोह की सत्ता को नकारना। धन, व्यक्ति, स्थान, ईश्वर मोह से बाँधते हैं। पत्नी, संतान, भौतिक वस्तुएँ मुझसे अलग हैं। यहाँ तक कि मेरे अंदर पार्थिव देह भी मुझसे विलग है। “मैं” नितांत अकेला है, जैसा जन्म के समय था, जैसा मृत्यु के समय होगा।

इन्हें त्यागकर गृह त्यागने वाला सन्यासी होता है। जो घर में रहकर ही अभ्यास करता है वह गृहस्थ सन्यासी।

हम सब उम्र के जिस पड़ाव पर हैं उसमें “मैं की यात्रा” पर चिंतन-मनन आनंददायक और बहुत राहत देने वाला अभ्यास हो सकता है। कभी हमने काग़ज़-पेन लेकर शांति से बैठकर सोचा ही नहीं कि जन्म से लेकर अब तक “मैं की यात्रा” किन पड़ावों से होकर गुजरी है। यह यात्रा नितांत अकेली है। कोई संगी-साथी नहीं। मैं और मेरी चेतना, परमात्मा से अलग भी और जुड़ी भी।

“मैं की यात्रा” के चार आयाम होते हैं- मेरी बौद्धिक यात्रा, मेरी भावनात्मक यात्रा, मेरी दैहिक यात्रा और मेरी आध्यात्मिक यात्रा। हम क्यों न इन चार यात्राओं पर चिंतन-मनन करें। इसके दो लाभ हो सकते हैं-

एक-यादों के रेचन से राहत महसूस होगी,

दूसरा- वर्तमान से आगे आनंददायक समय गुज़ारने के बारे में हमारा नज़रिया खुलेगा।

हो सकता है कुछ लोगों को यह महज़ बकवास लगे लेकिन पिछले छै महीनों में मैंने इस धारणा पर काम किया है। उसका सबसे बड़ा फ़ायदा हुआ कि “मैं क्या चाहता हूँ” यह अच्छी तरह से स्पष्ट होने लगा। मेरा आनंददायक समय का दायरा बढ़ने लगा है। समय आनंद से गुजरे, इस उम्र में इससे बड़ा वरदान कुछ और नहीं हो सकता।

महान दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसल की पुस्तक “Conquest of Happiness” में बताया गया है कि “अक्सर हम अपने से बात ही नहीं करते हैं। दूसरों से बातें करके अपना मापदंड तय करके समय गुज़ारते रहते हैं।”

भारतीय संदर्भ में कहें तो “आत्म चिंतन” नहीं करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हमारा नियंत्रण दूसरों के जैसे अख़बार, देश, समाज, रिश्तेदार, मीडिया, के हाथों में रहता हैं। हमारी खुद की चाहत नज़रअन्दाज़ होती जाती है। हम बेवजह परेशान होते रहते हैं।

जीवन का समय या तो यूँ ही गुजरता है, या चिंता व्याधि से बीतता है या इंद्रिय सुख-दुःख की अल्टा पलटी में गुजरता है। जीवन का आनंद और उस आनंद से मिलती राहत की अनुभूति कहीं गुम हो जाती है क्योंकि हम क्या चाहते हैं हमें इसका पता ही नहीं चलता।

खुद से बात के लिए हमें सबसे अलग होना होता है। आत्म तत्व को देह तत्व से विलग करना होता है। तब “मैं की यात्रा” शुरू होती है। सोचिए समझिए ठीक लगे तो अभ्यास कीजिए अन्यथा बकवास समझ कर दुनियावी बीन पर नाचते रहिए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 99 ☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख स्वार्थ-नि:स्वार्थ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 99 ☆

☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆

‘बिना स्वार्थ आप किसी का भला करके देखिए; आपकी तमाम उलझनें ऊपर वाला सुलझा देगा।’ इस संसार में जो भी आप करते हैं; लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म करने की सलाह दी जाती है। परन्तु आजकल हर इंसान स्वार्थी हो गया है। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं तथा परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक ही सीमित नहीं रहे; पति-पत्नी तक सिमट कर रह गये हैं। उनके अहम् परस्पर टकराते हैं, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ की बढ़ती संख्या को देखकर लगाया जा सकता है। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने व प्रतिशोध लेने हेतु कटघरे में खड़ा करने का भरसक प्रयास करते हैं। विवाह नामक संस्था चरमरा रही है और युवा पीढ़ी ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगी हैं, जिसका मूल कारण है अत्यधिक व्यस्तता। वैसे तो लड़के आजकल विवाह के नाम से भी कतराने लगे हैं, क्योंकि लड़कियों की बढ़ती लालसा व आकांक्षाओं के कारण वे दहेज के घिनौने इल्ज़ाम लगा पूरे परिवार को जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं। कई बार तो वे अपने माता-पिता की पैसे की बढ़ती हवस के कारण वह सब करने को विवश होती हैं।

स्वार्थ रक्तबीज की भांति समाज में सुरसा के मुख की भांति बढ़ता चला जा रहा है और समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है। इसका मूल कारण है हमारी बढ़ती हुई आकांक्षाएं, जिन की पूर्ति हेतु मानव उचित-अनुचित के भेद को नकार देता है। सिसरो के मतानुसार ‘इच्छा की प्यास कभी नहीं बझती, ना पूर्ण रूप से संतुष्ट होती है और उसका पेट भी आज तक कोई नहीं भर पाया।’ हमारी इच्छाएं ही समस्याओं के रूप में मुंह बाये खड़ी रहती हैं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है तथा समस्याओं का यह सिलसिला जीवन के समानांतर सतत् रूप से चलता रहता है और मानव आजीवन इनके अंत होने की प्रतीक्षा करता रहता है; उनसे लड़ता रहता है। परंतु जब वह समस्या का सामना करने पर स्वयं को पराजित व असमर्थ अनुभव करता है, तो नैराश्य भाव का जन्म होता है। ऐसी स्थिति में विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता होती है तथा समस्याओं को जीवन का अपरिहार्य अंग मानकर चलना ही वास्तव में जीवन है।

समस्याएं जीवन की दशा व दिशा को तय करती हैं और वे तो जीवन भर बनी रहती है। सो! उनके बावजूद जीवन का आनंद लेना सीखना कारग़र है। वास्तव में कुछ समस्याएं समय के अनुसार स्वयं समाप्त हो जाती हैं; कुछ को मानव अपने प्रयास से हल कर लेता है और कुछ समस्याएं कोशिश करने के बाद भी हल नहीं होती। ऐसी समस्याओं को समय पर छोड़ देना ही बेहतर है। उचित समय पर वे स्वत: समाप्त हो जाती हैं। इसलिए उनके बारे में सोचो मत और जीवन का आनंद लो। चैन की नींद सो जाओ; यथासमय उनका समाधान अवश्य निकल आएगा। इस संदर्भ में मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहती हूं कि जब तक हृदय में स्वार्थ भाव विद्यमान रहेगा; आप निश्चिंत जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते और कामना रूपी भंवर से कभी बाहर नहीं आ सकते। स्वार्थ व आत्मकेंद्रिता दोनों पर्यायवाची हैं। जो व्यक्ति केवल अपने सुखों के बारे में सोचता है, कभी दूसरे का हित नहीं कर सकता और उस व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता। परंतु जो सुख देने में है, वह पाने में नहीं। इसलिए कहा जाता है कि जब आपका एक हाथ दान देने को उठे, तो दूसरे हाथ को उसकी खबर नहीं होनी चाहिए। ‘नेकी कर और कुएं में डाल’ यह सार्थक संदेश है, जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। यह प्रकृति का नियम है कि आप जितने बीज धरती में रोपते हैं; वे कई गुना होकर फसल के रूप में आपके पास आते हैं। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से किए गये कर्म असंख्य दुआओं के रूप में आपकी झोली में आते हैं। सो! परमात्मा स्वयं सभी समस्याओं व उलझनों को सुलझा देता है। इसलिए हमें समीक्षा नहीं, प्रतीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानता है तथा वही करता है; जो हमारे लिए बेहतर होता है।

‘अच्छे विचारों को यदि आचरण में न लाया जाए, तो वे सपनों से अधिक कुछ नहीं हैं’ एमर्सन की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। स्वीकारोक्ति अथवा प्रायश्चित सर्वोत्तम गुण है। हमें अपने दुष्कर्मों को  मात्र स्वीकारना ही नहीं चाहिए; प्रायश्चित करते हुए जीवन में दोबारा ना करने का मन बनाना चाहिए। वाल्मीकि जी के मतानुसार संत दूसरों को दु:ख से बचाने के लिए कष्ट सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने के लिए।’ सो! जिस व्यक्ति का आचरण अच्छा होता है, उसका तन व मन दोनों सुंदर होते हैं और वे संसार में अपने नाम की अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

दूसरी ओर दुष्ट लोग दूसरों को कष्ट में डालकर सुक़ून पाते हैं। परंतु हमें उनके सम्मुख झुकना अथवा पराजय स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वीर पुरुष युद्ध के मैदान को पीठ दिखा कर नहीं भागते, बल्कि सीने पर गोली खाकर अपनी वीरता का प्रमाण देते हैं। सो! मानव को हर विषम परिस्थिति का सामना साहस-पूर्वक करना चाहिए। ‘चलना ही ज़िंदगी है और निष्काम कर्म का फल सदैव मीठा होता है। ‘सहज पके, सो मीठा होय’ और ‘ऋतु आय फल होय’ पंक्तियां उक्त भाव की पोषक हैं। वैसे ‘हमारी वर्तमान प्रवृत्तियां हमारे पिछले विचार- पूर्वक किए गए कर्मों का परिणाम होती हैं।’ स्वामी विवेकानंद जन्म-जन्मांतर के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। सो! झूठ आत्मा के खेत में जंगली घास की तरह है। अगर उसे वक्त रहते उखाड़ न फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्छे बीज उगने की जगह भी ना रहेगी। इसलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में ही दबा दें। यदि आपने तनिक भी ढील छोड़ी, तो वह खरपतवार की भांति बढ़ती रहेगी और आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देगी; जहां से लौटने का कोई मार्ग शेष नहीं बचेगा।

प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं, अगर देने लग जाओ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। सो! लफ़्ज़ों को सदैव चख कर व शब्द संभाल कर बोलिए। शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। शब्द यदि सार्थक हैं, तो प्राणवायु की तरह आपके हृदय को ऊर्जस्वित कर सकते हैं। यदि आप अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो दूसरों के हृदय को घायल भी कर सकते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए। यह आप्त मन में आशा का संचरण करती है। निगाहें भी व्यक्ति को घायल करने का सामर्थ्य रखती हैं। दूसरी ओर जब कोई अनदेखा कर देता है, तो बहुत चोट लगती है। अक्सर रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं और जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बहुत तकलीफ़ होती है। परंतु जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है, तो उससे भी अधिक तकलीफ़ होती है। इसलिए जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकारें; संबंध लंबे समय तक बने रहेंगे। अपने दिल में जो है; उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है; उसे समझने की कला यदि आप में है, तो रिश्ते टूटेंगे नहीं। हां इसके लिए आवश्यकता है कि आप वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें, क्योंकि ‘ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम/ वे फिर नहीं आते।’ इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, बल्कि यह भाव मन में रहे कि हमने किसी के लिए किया क्या है? ‘सो! जीवन में देना सीखें; केवल तेरा ही तेरा का जाप करें– जीवन में आपको कभी कोई अभाव नहीं खलेगा।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 51 ☆ गरीबों का विकास ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “गरीबों का विकास”.)

☆ किसलय की कलम से # 51 ☆

☆ गरीबों का विकास ☆

आज से साठ-सत्तर वर्ष पूर्व तक “दो जून की रोटी मिलना” समाज में एक संतुष्टिदायक मुहावरा माना जाता था। घर का मुखिया दिहाड़ी पर जाता था और पूरे घर के उदर-पोषण की जरूरतें पूरी कर लेता था। पूरा परिवार साधारण जीवनशैली से जीवन यापन कर लेता था। शनैःशनैः शिक्षा, प्रगति, फैशन, नई जरूरतें व महत्त्वाकांक्षाओं के चलते श्रमिक समुदाय इन सब के पीछे भागने लगा। मनोरंजन, व्यसन, सुख-सुविधाओं के संसाधन जुटाने को प्राथमिकता देने लगा। जरूरी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं के बजाय बाह्याडंबर व गैर जरूरी चीजों हेतु कर्ज तक लेने लगा, तब दैनिक मजदूरी से उसकी ये सब जरूरतें पूरी होना भला कैसे संभव होगा। पहले घर की पत्नी थोड़ा-थोड़ा करके अच्छी खासी रकम बचत के रूप में अपने पास सुरक्षित रख लिया करती थी, जो घर की जरूरतों के अतिरिक्त घर जमीन, जेवर खरीदने, शादी, त्योहार व तीर्थाटन करने में बड़े काम आते थे।  इन परिवारों की बचत उनके सुख-दुख व भविष्य के लिए निश्चिंतता का मुख्य कारक हुआ करते थे। अनावश्यक खर्च, दिखावे, व ‘संतोषी परम सुखी’ की धारणा इनके जीवन को सुखमय बनाए रखने में बड़ी सहायक होती थी। परिवार के अन्य सदस्यों की कमाई और संतानों के नौकरी पेशा होने से परिवारों का उत्तरोत्तर संपन्न होना अक्सर दिखाई देता था।

आज की परिस्थितियाँ इसके एकदम विपरीत हो चली हैं।  हम भले ही गले तक कर्ज में डूब जाएँ लेकिन हमारे शौक व सुख सुविधाओं में कोई कमी नहीं होना चाहिए। वहीं जब आपके द्वारा लिए गए कर्ज के तगादे किए जाते हैं, आपके कर्ज न चुकाने पर धमकियाँ और गालियाँ मिलती हैं। सरेआम बेइज्जती होती है, तब आपका और आपके परिवार का क्या हाल होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। गरीब तबके की महत्वाकांक्षा एवं बाह्याडंबर उनको विकास नहीं विनाश के मार्ग पर ले जाता है।

चिंतन करने पर स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि आज का गरीब तबका प्रायः गरीब ही रहता है। इस तबके के लोग न चाहते हुए भी अपनी कमाई को झूठी प्रतिष्ठा के मोह में उन वस्तुओं को क्रय करने और उन सुविधाओं को भोगने में खर्च करते रहते हैं जिनके न रहने पर भी वे छोटी-मोटी परेशानियाँ सहकर सुखी रह सकते हैं। अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण ही एक दिन वह उपरोक्त असहज स्थिति में पहुँच जाता है। आज हम देख रहे हैं कि दुनिया की समस्त सुख-सुविधाएँ होने पर भी कुछ लोग उनका उपभोग नहीं कर पाते। कार-हवाई जहाज होने पर भी स्वास्थ्य के  लिए लोग घंटों पैदल चलते हैं। काजू-बादाम और छप्पनभोग उपलब्ध होने पर भी लोग भुने चने और कच्ची सब्जियों का सेवन करने बाध्य होते हैं, फिर भी क्यों आज के लोग इतने ऐशोआराम और फिजूलखर्ची में अपना और अपने परिवार का चैन हराम करने पर तुले रहते हैं।

आज जब शिक्षा का प्रतिशत बढ़ रहा। रोजगार, नौकरियाँ, धंधों की कमी नहीं है, तब हम पहले सुख-समृद्धि को प्राप्त करने हेतु कटिबद्ध क्यों नहीं हो पाते। कुछ करने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। यदि आपको सुख-समृद्धि की चाह है तो पहले आपको शिक्षित होना होगा, परिश्रम करना होगा, प्रयास करने होंगे। कहा भी गया है कि ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ इसलिए हमें अपेक्षाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं परिश्रम, लगन व प्रयास से अवसर तलाशने होंगे, एक-एक पल को सार्थक बनाने का संकल्प लेना होगा। समय के साथ चलने वाले ही आगे बढ़ते हैं, वैसे भी आज की परिस्थितियों में आपको पीछे मुड़कर कौन देखने वाला है।

गरीबों का विकास तभी संभव है जब वे अपना समय और अपनी कमाई को सत्कर्म तथा सत्मार्ग में लगाएँगे। समाज में लोग सत्कर्म, परिश्रम एवं सकारात्मक सोच से ही आगे बढ़ सकते हैं। केवल दो वक्त खाना खाकर तो पशु-पक्षी भी जीवन जी लेते हैं। मानव जीवन की सार्थकता तभी है जब हम सादगी और परमार्थ के मार्ग पर चलते हुए अपना परलोक सँवारें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हिंदी अपनाइए, न शरमाइए ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख  ☆ हिंदी अपनाइए, न शरमाइए ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

आज हिंदी दिवस है। सब तरफ कुछ दिन पहले से ही हिंदी की याद सताने लग जाती है हरबार, हर साल। यह मेरा सौभाग्य रहा कि मेरा जन्म ऐसे परिवार में हुआ जो हिंदी प्रेमी था और मेरे ननिहाल इससे भी बढ़कर आर्य समाज से जुड़े थे। आर्य समाज और हिंदी का नाता सब जानते हैं कि कितना मजबूत जोड़ है बिल्कुल फेविकोल जैसा। इस तरह अहिंदी भाषी प्रांत पंजाब से होते हुए भी मैं हिंदी के ज्यादा करीब आया और आता चला गया। जहां तक कि मेरी सारी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई। और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि जिस हिंदी की एम ए करते मुझे मेरे ही बी एड के प्राध्यापक ने डराया कि इसमें रोज़गार नहीं है, नौकरी नहीं है मेरा सौभाग्य कि उसी हिंदी ने मुझे एक दिन भी बेरोजगार न रहने दिया। आज भी आपके सामने सम्मान पूर्वक हिंदी के चलते ही खड़ा हूं। इस तरह हिंदी न केवल रोज़गार बल्कि साहित्य, मनोरंजन और राजनीति की भाषा है।

यह बात भी सभी जानते हैं कि हिंदी दिवस क्यों चौदह सितम्बर को मनाया जाता है -ठीक इसी दिन सन् 1949 में हमारे देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान मिला था। इसीलिए हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है और अब तो हिंदी पखवाड़ा ही मनाया जाने लगा है यानी आज से हिंदी दिवस शुरू होकर तीस सितम्बर तक चलता रहेगा और मनाया जाता रहेगा। पर दुख की बात है कि आम तौर पर हिंदी पखवाड़े के साथ श्राद्ध पक्ष भी आ जाता है तो कहीं हम इसे सिर्फ श्रद्धा के रूप में ही तो नहीं मनाते? या इसे अपनाने के लिए मनाते हैं?

अब बात करते हैं कि स्वतंत्रता पूर्व हिंदी को किसने प्रोत्साहित किया? हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद जी ने। संयोग देखिए कि दोनों महानुभाव गुजरात से संबंध रखते थे। जहां महात्मा गांधी ने नवजीवन समाचार पत्र शुरू करवाया और हिंदी के सुधार के लिए अनेक प्रयत्न किये। वहीं आर्य समाज की ओर से स्वामी दयानंद के प्रयास भी कम नहीं रहे। उनका ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में ही है और आज भी प्रतिवर्ष लाखों प्रतियां लोगों तक पहुंचती हैं। इसी प्रकार महात्मा गांधी की आत्मकथा- सत्य के प्रयोग भी देश विदेश में लोकप्रिय है और हर वर्ष इसकी भी न जाने कितनी प्रतियां बिकती हैं। मैं खुद इसकी प्रति महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम से खरीद कर लाया था जब अहमदाबाद में एक लेखक शिविर लगाने गया था। वैसे एक और सुखद संयोग भी है कि इन दिनों देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात से हैं लेकिन वे भी हिंदी के प्रचारक हैं। हिंदी का इस देश में कितना महत्त्व है यह आप इस बयान से समझिये जो हमारे पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दिया। उन्होंने कहा कि मैं राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहता था लेकिन हिंदी भाषी न होना मेरी सबसे बड़ी रुकावट बन गया। ममता बनर्जी भी हिंदी को ज्यादा नहीं बोल पातीं।

स्वतंत्रता पूर्व लाला लाजपत राय,  मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरु  लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, अशफाक, सुखदेव, आदि क्रांतिकारियों व नेताओं ने हिंदी को ही स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। इस तरह हिंदी स्वतंत्रता आंदोलन की आधारभूमि बनी रही। भगत सिंह की अनेक पुस्तकें हिंदी में हैं। उनका परिवार भी आर्य समाज से जुड़ा था।

माखन लाल चतुर्वेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और सबसे बढ़कर भारतेंदु हरिश्चंद्र आदि ने हिंदी को जनमानस तक पहुंचाने में सब कुछ अर्पण कर दिया। भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने तो लेखक मंडली बनाई और घर का सारा पैसा हिंदी के प्रचार प्रसार में लगा दिया। नये समय में नरेंद्र कोहली के उपन्यासों ने भी काफी पाठक बनाये। हास्य कवियों काका हाथरसी और सुरेंद्र शर्मा आदि ने भी हिंदी को जन जन तक पहुंचाया।

अब आइए स्वतंत्रता के बाद हिंदी की स्थिति पर जब इसे राजभाषा घोषित कर दिया गया तब लगा कि अब हिंदी के दिन फिरेंगे लेकिन हुआ इसके विपरीत। हिंदी जन भावना और देश के स्वाभिमान व बलिदान देने वालों की भाषा न रही बल्कि इसकी जगह ले ली अंग्रेजी ने क्योंकि मैकाले महाशय यह षड्यंत्र रच गये थे कि रोज़गार अंग्रेजी पढ़ने पर ही मिलेगा और इस तरह अंग्रेज़ी ने हमारी हिंदी को दबाने का काम शुरू किया। हमारे अंग्रेजी स्कूलों की संख्या बढ़ती गयी और हिंदी माध्यम के स्कूलों की संख्या घटती चली गयी। इनकी संख्या घटने से साफ है कि हिंदी का प्रयोग भी कम होता गया। अब नयी पीढ़ी अंग्रेजीमय पीढ़ी है। अंग्रेजी बोलना शान की प्रतीक है। रोज़गार मिले या न मिले लेकिन अंग्रेजी आनी चाहिए। हाय, हैलो बोलना आना चाहिए। गरीब से गरीब परिवार हिंदी स्कूल में अपने बच्चों को न पढ़ा कर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने के इच्छुक हैं।  इस पीढ़ी के चलते ही हिंदी साहित्य के पाठक कम होने लगे हैं जिस पीढ़ी को हिंदी भी नहीं आती या कामचलाऊ हिंदी आती है तो वह पीढ़ी हिंदी साहित्य के प्रति उत्सुक कैसे होगी? हिंदी की पुस्तकों के नाम चाहे न आएं लेकिन हैरी पाॅटर का नाम आता है। स्पाइडर-मैन का काॅमिक्स पता है लेकिन शक्तिमान  या चाचा चौधरी का नहीं। 

हिंदी की सबसे बड़ी कमी यह बताई और गिनाई जाती है कि इससे रोज़गार  नहीं मिलता और न ही विज्ञान सीखा जा सकता है। क्या कल्पना चावला हिंदी पढ़कर ही अंतरिक्ष तक नहीं पहुंची थी? पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम बच्चों के बीच हिंदी बोलते थे। जहां तक रोज़गार की बात है तो हिंदी पत्रकारिता एक बड़ा रोज़गार देने वाली साबित हुई है। आज हिंदी के अखबार अंग्रेजी अखबारों से प्रसार संख्या में आगे निकल गये हैं और विश्वसनीय भी बन गये हैं। इनके चलते बड़ी संख्या में रोज़गार मिलने लगा है। दूरदर्शन, आकाशवाणी और मीडिया चैनल भी हिंदी के चलते ही लोकप्रिय होते हैं। यही क्यों हिंदी फिल्मों ने भी रोज़गार के द्वार खोले हैं। दक्षिण भारतीय अभिनेता अभिनेत्रियां भी हिंदी बोलने सीख कर करोड़ों करोड़ों रुपये कमाते हैं।  फिर कौन कहता है कि हिंदी मे रोज़गार नहीं? बड़ी बड़ी विदेशी कम्पनियों को हिंदी अपनानी पड़ रही है ताकि उनकी कम्पनी की जानकारी आम जनता तक पहुंच सके।

आप यह जानकर हैरान होंगे कि हिंदी सीखने के लिए एक समय चंद्रकांता संतति की सीरीज ने लोगों को मजबूर कर दिया था। ऐसे साहित्य की आज भी जरूरत है। फिल्मों में तो दूसरी भाषाओं मे रिमेक बनने लगे हैं।

आज फिर हिंदी दिवस है। आइए हिंदी आपनाइए, बिल्कुल न शरमाइए  । हिंदी हमारी है और हम हिंदी के। हिंदी के बिना हम अधूरे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सन्तान सप्तमी की परिपाटी ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

☆ आलेख – सन्तान सप्तमी की परिपाटी… – श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव ☆

संतान सप्तमी व्रत का यह व्रत पुत्र प्राप्ति, पुत्र रक्षा तथा पुत्र अभ्युदय के लिए भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को किया जाता है।  माताएँ शिव पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान माँगती हैं। इस व्रत को ‘मुक्ताभरण’ भी कहते हैं।

अब जब लड़कियां लड़को की बराबरी से समाज मे हिस्सेदारी कर रही हैं , तो यह व्रत लड़का लड़की भेद से परे सन्तान के सुखी जीवन के लिए किया जाता है ।

चूंकि व्रत कथा में कहा गया है कि रानी ईश्वरी व उसकी सखी भूषणा में से रानी यह व्रत करना विस्मृत कर गईं थीं , संभवतः इसीलिये सामान्य महिलाओ को व्रत का स्मरण बना रहे इस आशय से इस अवसर पर कोई गहना , कंगन आदि नियत किया जाता है , जिसे माता पार्वती को समर्पित किया जाता है व हर वर्ष उसमें कुछ मात्रा में गहने की मूल्यवान धातु का अंश बढ़ा कर उसे नया रूप दे दिया जाता है . इस तरह यह व्रत वर्ष दर वर्ष परिवार की संपन्नता  बढ़ते रहने के प्रतीक के रुप में व आर्थिक रूप से समृद्धि का द्योतक है . 

इस समय मौसम बरसाती गर्मी का रहता है शायद इसलिए पुआ दही खाने का रिवाज है । पुए में आटे व गुड़ का सम्मिश्रण होता है जो कम्पलीट इनर्जी फूड होता है ।

©  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 103 ☆ मील का पत्थर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 103 ☆ मील का पत्थर ☆

संध्याकाल है, टहलने निकला हूँ। लगभग 750 मीटर लम्बा यह फुटपाथ सामान्य से अधिक चौड़ा है, साथ ही समतल और स्वच्छ। तुलनात्मक रूप से अधिक लोग इस पर टहल सकते हैं।

अवलोकन की दृष्टि टहलते लोगों के कदमों की गति मापने लगती है। देखता हूँ कि लगभग अस्सी वर्षीय एक वृद्ध टहलते हुए आ रहे हैं, एकदम धीमी गति, बहुत धीरे-धीरे बेहद संभलकर कदम रखते हुए, हर कदम के साथ शरीर का संतुलन बनाकर चल रहे हैं।

जिज्ञासा बढ़ती है, तुलनात्मक विवेचन जगता है, पचास-पचपन की आयु के कदमों को मापता है। उनके चलने की गति कुछ अधिक और शरीर का संतुलन  साधे रखने का प्रयास तुलनात्मक रूप से कम है। तीस-पैंतीस की आयु वालों के कदमों की गति और अधिक है, वे अधिक निश्चिंत भी हैं।  किशोर से युवावस्था के लोग हैं जो सायास टहलने की दृष्टि से नहीं अपितु  मित्रों के साथ हँसी मजाक करते हुए चल रहे हैं।  छह-सात साल की एक नन्ही है जो चलती कम, उछलती, कूदती, थिरकती, दौड़ती अधिक है। उसके माता-पिता आवाज़ लगाते हैं, उसी तरह दौड़ती-गाती आती है, माँ से कुछ कहती है, अगले ही क्षण फिर छूमंतर! मानो आनंद का एक अनवरत चक्र बना हुआ है।

इसी चक्र से प्रेरित होकर चिंतन का चक्र भी घूमने लगता है। अवलोकन में आए लोगों का आयुसमूह भिन्न है, दैहिक अवस्था और क्षमता भिन्न है। तथापि आनंद ग्रहण करने की क्षमता और मनीषा, यात्रा को सुकर अथवा दुष्कर करती हैं।

किसी गाँव में मंदिर बन रहा था। ठेकेदार के कुछ श्रमिक काम में लगे थे। एक बटोही उधर से निकला। सिर पर गारा ढो रहे एक मजदूर से पूछा, “क्या कर रहे हो?” उसने कहा पिछले जन्म में अच्छे कर्म नहीं किए थे सो इस जन्म में गारा ढो रहा हूँ।”  दूसरे से पूछा, उसने कहा, “अपने बच्चों का पेट पालने की कोशिश कर रहा हूँ।” तीसरे ने कहा, ” दिखता नहीं, मजदूरी करके गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा हूँ।” चौथे श्रमिक के चेहरे पर आनंद का भाव था। सिर पर कितना वज़न है, इसका भी भान नहीं। पूछने पर पुलकित होकर बोला, “गाँव में सियाराम जी का मंदिर बन रहा है। मेरा भाग्य है कि मैं उसमें अपनी सेवा दे पा रहा हूँ।”

दृष्टि की समग्रता से जगत को देखो, सर्वत्र आनंद छलक रहा है। इसे  ग्रहण करना या न करना तुम्हारे हाथ में है। इतना स्मरण रहे कि परमानंद की यात्रा में आनंद मील का पत्थर सिद्ध होता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे..…! ☆ संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित

? मनमंजुषेतून ?

☆ पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे..…! ☆ संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित ☆

घरी आल्यावर हातपाय धुतलेस का? चल उठ आधी, तशीच बसलियेस घाणेरडी! अग जेवायला बसायचं ना, हात धुतलेस का स्वच्छ? संध्याकाळ झाली, आधी तोंड धू आणि नीट केस विंचरून वेणी घाल. तोंड पुसायचा टॉवेल हात पुसायला घेऊ नको ग, गलिच्छ कुठली!  बाथरूम मधून बाहेर येताना पाय कोरडे कर, ओले पाय घेऊन फिरू नको घरभर! केस स्वयंपाकघरात नको ग विंचरू, अन्नात जातील, शिळ्या भाताचा चमचा ताज्या भाताला वापरू नकोस, खराब होईल तो, दुधाची पातेली एकदम वरच्या खणात ग फ्रीजमध्ये, खालती नको ठेऊ! वाट्टेल त्या भांड्यात दुध नाही तापवायच ग. तुझ्या भांड्याने पाणी पी, माझं घेऊ नकोस, अग केस पुसायच्या पंचाने अंग नको पुसू, बेक्कार नुसती!!! खोकताना तोंडावर रुमाल घे, कितीवेळा सांगायचं, आणि तो रुमाल स्वतः धू, बाकीच्या कपड्यात टाकू नको धुवायला, दुसऱ्याशी बोलताना चांगलं हातभार अंतर ठेवून उभी रहा, थुंकी उडते कधीकधी ?. कशाला जाता येता मिठ्या मारायच्या एकमेकांना, घाम असतो, धूळ असते अंगाला ती लागेल ना! काहीतरी फ्याड एकेक, काय ते प्रेम लांबून करा!!! चप्पल घालून घरात आलीस तर याद राख, काढ आधी ती दारात. खजूर खल्लास, बी टाकून दे लगेच, तशीच ठेवायची नाही,तोंडातली आहे ना ती? नीट जेव, शीत तळहाताला कस लागतं ग तुझं? कसं जेवत्येस! ताट स्वच्छ कर, आणि पाणी घालून ठेव, करवडेल नाहीतर! तोंडात घास असताना बोलू नकोस, इतकं काय महत्वाचं सांगायचंय  ??

——–तात्पर्य काय? तुम्हाला जर असं वाढवलं गेलं असेल, तर कोरोना ची अजिबात चिंता करू नका, कारण आज सगळं मेडिकल सायन्स जे सांगतंय, ते आपल्या पितरांनी आपल्याला लहानपणीच शिकवलंय. तेव्हा जाच वाटला खरा, पण आज ह्याच सवयी आपलं कोरोना पासून रक्षण करतील. तेव्हा काळजी करू नका, जसे वागत आलायत तसेच वागत रहा .

——–एक शंका, आपल्या पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे तर कोरोनाच्या रूपाने परत आले नाहीत जगाला स्वच्छता शिकवायला??? नाही म्हणजे, इंग्लंड चा राजा पण शेकहँड करायच्या ऐवजी नमस्कार करतोय म्हणे ??

 संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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