हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 98 ☆ बदलाव बनाम स्वीकार्यता ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बदलाव बनाम स्वीकार्यता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 98 ☆

☆ बदलाव बनाम स्वीकार्यता ☆

‘जो बदला जा सके, उसे बदलिए; जो बदला न जा सके, उसे स्वीकार कीजिए; जो स्वीकारा न जा सके, उससे दूर हो जाइए। लेकिन ख़ुद को खुश रखिए’ ब्रह्माकुमारी शिवानी का यह सार्थक संदेश हमें जीवन जीने की कला सिखाता है; मानव को परिस्थितियों से समझौता करने का संदेश देता है कि उसे परिस्थितियों के अनुसार अपनी सोच को बदलना चाहिए, क्योंकि जिसे हम बदल सकते हैं; अपनी सूझबूझ से बदल देना चाहिए। परिवर्तन सृष्टि का नियम हैऔर समय का क्रम निरंतर चलता रहता है,कभी थमता नहीं है। इसलिए जिसे हम बदल नहीं सकते, उसे स्वीकारने में ही मानव का हित है। ऐसे संबंध जो जन्मजात होते हैं, उन संबंधियों व परिवारजनों से निबाह करना हमारी नियति बन जाती है। हमें चाहे-अनचाहे उन्हें स्वीकारना पड़ता है ।इसी प्रकार प्राकृतिक आपदाओं र भी हमारा वश नहीं है। हमें उनका पूर्ण मनोयोग से विश्लेषण करना चाहिए तथा उसके समाधान के निमित्त यथा-संभव प्रयास करने चाहिए। यदि हम उन्हें बदलने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, तो उन्हें स्वीकारना श्रेयस्कर है। इन विषम परिस्थितियों में हमें चिन्ता नहीं चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि चिंतन-मनन हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है। चिन्ता को चिता सम कहा गया है, जो मानव को इहलोक से परलोक तक पहुंचाने में सक्षम है।

बदलने व स्वीकारने पर चर्चा करने के पश्चात् आवश्कता है अस्वीकार्यता पर चिन्तन करने की अर्थात् जिसे स्वीकारना संभव न हो, उससे दूर हो जाना बेहतर है। जो परिस्थितियां आपके नियंत्रण में नहीं है तथा जिनसे, आप निबाह नहीं सकते; उनसे दूरी बना लेना ही श्रेयस्कर है। मुझे भी बचपन में यही सीख दी गयी थी;  जहां तनिक भी मनमुटाव की संभावना हो, अपना रास्ता बदलने में ही हित है अर्थात् जो आपको मनोनुकूल नहीं भासता, उसकी और मुड़कर कभी देखना नहीं चाहिए। यही है वह संदेश जिसने मेरे व्यक्तित्व निर्माण में प्रभावी भूमिका अदा की। इसी संदर्भ में मैं एक अन्य सीख का ज़िक्र करना चाहूंगी, जो मुझे अपनी माताश्री द्वारा मिली कि विपत्ति के समय पर इधर-उधर मत झांकें/ अपनी गाड़ी को ख़ुद हांकें’ में छिपा है गीता का कर्मशीलता का संदेश व जीवन-दर्शन–विपत्ति के समय स्वयं पर विश्वास रखें; दूसरों से सहायता की अपेक्षा मत रखें, क्योंकि अपेक्षा दु:खों की जनक है। जब हमें दूसरे पक्ष से सहयोग की प्राप्ति नहीं होती और मनोनुकूल अपेक्षित सहायता नहीं मिलती, तो हमारी जीवन नौका हमें दु:खों के अथाह सागर में हिचकोले खाने के लिए छोड़ जाती है। ऐसी स्थिति अत्यंत घातक बन जाती है। सो! ऐसे लोगों की कारस्तानियों को नजरांदाज़ करना ही बेहतर है। ये परिस्थितियां हमें निराशा के गर्त में भटकने के लिए छोड़ देती हैं और हम ऊहापोह की स्थिति में उचित निर्णय लेने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।

सो! जिन परिस्थितियों और मन:स्थितियों को बदलने में हम सक्षम हैं, उन्हें बदलने में हमें जी-जान से जुट जाना चाहिए; कोई कोर-कसर उठाकर नहीं रखनी चाहिए। हमें पराजय को कभी स्वीकारना नहीं चाहिए, निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए, क्योंकि ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ अर्थात् परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। हमें अंतिम सांस तक उन अप्रत्याशित परिस्थितियों से जूझना चाहिए, क्योंकि जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है तथा निरंतर चलने का नाम ही ज़िंदगी है।

‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!’ जहां हमें ऊर्जस्वि करता है, वहीं हमारे अंतर्मन में अलौकिक तरंगें भी संचरित करता है। यह हमें इस तथ्य से अववगत कराता है कि इस संसार में सब संभव है और असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है। सो! इसे तुरंत बाहर निकाल फेंकना चाहिए। हम अदम्य साहस व अथक प्रयासों द्वारा अपना मनचाहा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि तमाम प्रयासों के बाद भी हम उन्हें बदलने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें स्वीकार लेना चाहिए। व्यर्थ में अपनी शक्ति व ऊर्जा को नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। यह परिस्थितियां हमें अवसाद की स्थिति में लाकर छोड़ देती हैं, जिससे उबरने के लिए हमें वर्षों तक संघर्ष करना पड़ता है। हमें अपने जीवन से घृणा हो जाती है और जीने की तमन्ना शेष नहीं रहती। हमारे मनोमस्तिष्क में सदैव पराजय के विचार समय-असमय दस्तक ही नहीं देते; हमें पहुंचते कोंचते, कचोटते व आहत करते रहते हैं। इसलिए उन परिस्थितियों से समझौता करने व स्वीकारने में आपका मंगल है। उदाहरण बाढ़, भूचाल, सुनामी तथा असाध्य रोग आदि प्राकृतिक आपदाओं पर हमारा वश नहीं होता, तो उन्हें स्वीकारने में हमारा हित है। हमें तन-मन-धन से इनके समाधान तलाशने में जुट जाना चाहिए, पूर्ण प्रयास भी करने चाहिए, परंतु अंत में उनके सामने समर्पण करना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम विकल्प है। पर्वतों से टकराने व बीच भंवर में नौका ले जाने से हानि हमारी होगी। इससे किसी दूसरे को कोई फर्क़ पड़ने वाला नहीं है।

आजकल लोगों से किसी की उन्नति कहां बर्दाश्त होती है। इसलिए अक्सर लोग अपने दु:ख से कम, दूसरे के सुखों को देखकर अधिक दु:खी रहते हैं। उनका यह ईर्ष्या भाव उन्हें निकृष्टतम कार्य करने की ओर प्रवृत्त करता है। वे दूसरे को हानि पहुंचाने के लिए अपना घर जलाने को भी तत्पर रहते हैं। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य उन्हें अधिकतम हानि पहुंचाना होता है। इसलिए ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखने में जीवन की सार्थकता है। दूसरे शब्दों में स्वीकार्य नहीं है, उससे दूरी बनाए रखना ही हितकर है। यही है खुश रहने का मापदंड। इसलिए मानव को सदा खुश रहना चाहिए, क्योंकि प्रसन्न-चित्त मानव सबकी आंखों का तारा होता है, सबका प्रिय होता है। उसका साथ पाकर सब हर्षोल्लास अनुभव करते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों से स्वयं को बचा कर रखना चाहिए; जानबूझकर आग में छलांग नहीं लगानी चाहिए।खुशी हमारे अंतर्मन में निहित रहती हैऔर हम उसे हम ज़र्रे-ज़र्रे में तलाश सकते हैं। हमारी मन:स्थिति ही हमारे भावों को आंदोलित व उद्वेलित करती है।हमारे भीतर नवीन भावनाओं को जागृत करती है, जिसके परिणाम-स्वरूप हम सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। वर्डस्वर्थ का यह कथन कि ‘सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में निवास करता है।’ इसलिए सौंदर्य के मापदंडों को निर्धारित करना असंभव है। वैसे ही खुशी भी प्रकृति की भांति पल-पल रंग बदलती है, क्योंकि जिस वस्तु या व्यक्ति को देखकर आपको प्रसन्नता प्राप्त होती है, चंद लम्हों बाद वह सुक़ून नहीं प्रदान करती, बल्कि आपके रोष का कारण बन जाती है। हमारी मन:स्थितियां परिस्थितियों व आसपास के वातावरण पर आधारित व  काल-सापेक्ष होती हैं। बचपन, युवावस्था व वृद्धावस्था में इनके मापदंड बदल जाते हैं। सो! हमें विपरीत परिस्थितियों में भी कभी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि सदैव प्रसन्न रहने से ज़िंदगी का सफ़र आसानी से कट जाता है। आइए! छोटी-छोटी खुशियां अपने दामन में समेट लें, ताकि जीवन उमंग व उल्लास से आप्लावित रह सके। मन-मयूर सदैव मद-मस्त रहे, क्योंकि खुश रहना हमारा दायित्व है, जिसका हमें बखूबी वहन करना चाहिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 50 ☆ बाल सखा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “बाल सखा”.)

☆ किसलय की कलम से # 50 ☆

☆ बाल सखा ☆

मिट्टी अर्थात वह पदार्थ जिसका साधारणतः मूल्यांकन कभी नहीं किया जाता, लेकिन इसके उपयोग से हम क्या-क्या नहीं बनाते। कुम्भकार जब मिट्टी गूँथकर उसे अपने हाथों में लेता है, तब तक सामने वाला समझ नहीं पाता कि यह कलाकार उसे कौन सा रूप देगा। उसका कौशल, उसका ज्ञान, उसका अनुभव और उसका विवेक उसे एक मूल्यवान वस्तु, खिलौना, मूर्ति, उपयोगी उपकरण में तब्दील कर देता है। शिशु भी एक गुँथी हुई मिट्टी जैसा जीता-जागता बुद्धि, विवेक, ज्ञान और अनुभव विहीन होता है। उसे एक श्रेष्ठ, विवेकशील और आदर्श बनाने के लिए दक्षता का सानिध्य बहुत जरूरी होता है।

जिस तरह कच्चे घड़े पर यथास्थान दबाव, थपकी और सहारे की जरूरत होती है ठीक उसी प्रकार एक शिशु के उत्तरोत्तर विकास हेतु भी इन सभी बातों की आवश्यकता होती है। धैर्य, शांति, स्नेह और उसके समकक्ष व्यवहार के साथ ही स्नेहिल वार्तालाप भी महत्त्वपूर्ण होता है। हमें समझना होता है कि एक बार की सीख या शिक्षा नन्हा शिशु स्मृत नहीं रख पाएगा। हमें उसको प्रायोगिक तौर तरीके से भले-बुरे का ज्ञान कराना होगा।

एक प्रौढ़ एवं शिशु के मध्य आयु का विशाल फासला होता है। आपकी सोच और अनुभव आपका पका-पकाया कहा जा सकता है, लेकिन शिशु के जीवन में, उसके कोरे मस्तिष्क में शिक्षा, संस्कार, संस्कृति एवं सामाजिक परंपराएँ  स्थापित करने के लिए आपको अपने स्तर से नीचे उसके समकक्ष आना होगा और उसके जैसा बनना भी होगा। उसे सत्कर्मों हेतु प्रोत्साहित करना होगा, उसकी प्रशंसा करनी होगी। उसकी त्रुटियों, उसकी असफलताओं तथा उसकी जिद पर नियंत्रित व्यवहार करना होगा। जिस तरह नन्हे शिशु आपस में गलत-सही का भेद किए बिना रूठकर, हँसकर व रोकर भी बार-बार साथ में खेलने लगते हैं। इसी तरह आपको भी बार-बार उनकी बात सुनना होगी। बार-बार उनके एक ही प्रश्न का उत्तर देना होगा। बार-बार उनकी जिज्ञासा शांत करना होगी।

माता-पिता अथवा अभिभावक जब तक संतानों के बालसखा नहीं बनेंगे, अपेक्षानुरूप शिशु का विकास संभव हो ही नहीं सकता। शिशु हतोत्साहित, भयभीत या ढीठ किस्म का भी बन सकता है। अपनी उपेक्षा से अपनों के स्नेह को पहचान ही नहीं पाएगा। यही कारण है कि आयाओं द्वारा पोषित बच्चे अक्सर माँ-बाप के महत्त्व एवं स्नेह से काफी हद तक अनभिज्ञ रह जाते हैं।

आज के बदलते परिवेश में हम अपना जीवन जी लेते हैं और बच्चों को उनकी किस्मत पर छोड़ देते हैं, यह कहाँ तक और कितना उचित है? बच्चे भला समाज और किताबों से कितना और क्या सीख पाएँगे। जब तक अपनों के बीच स्नेह, समर्पण, त्याग, सद्भावना और आदर का पाठ नहीं पढ़ेंगे, सामाजिक जीवन में इनको व्यवहृत कैसे कर पाएँगे।

आज के क्षरित होते मानवीय मूल्यों के बीच रिश्तों की टूटन और मानसिक घुटन की अजीबोगरीब परिस्थितियों में जब हम अपनों को ही महत्त्व नहीं देते तो क्या हमारी संतानें भविष्य में आपको महत्त्व दे पाएँगी?

हमें स्वीकारना होगा कि हम अपनी संतानों के कभी सखा नहीं बन पा रहे हैं। हम अर्थ एवं स्वार्थ तक ही सीमित होते जा रहे हैं। हम संतानों में आदर्श संस्कार के बजाय उनको दिखावटी आधुनिकता व कुबेर के खजाने का महत्त्व ही बताने को श्रेयष्कर मानने लगे हैं। जब संतान आपके द्वारा दिशादर्शित मार्ग पर चल पड़ता है और पीछे मुड़कर आपको भी नहीं देखता, तब जाकर आपको याद आता है कि हमने ही तो अपनी संतान को यही सब सिखाया था। हम ही थे जिनके पास अपने बच्चों के लिए कभी वक्त नहीं रहा। हम ही थे जो कभी अपनी संतानों के बालसखा नहीं बन पाए, लेकिन जब चिड़िया हाथ से उड़ जाए तो आपके पास बचता ही क्या है। हम बचपन से बुढ़ापे तक अपने धार्मिक ग्रंथों, अपने बुजुर्गों व महापुरुषों के उद्धरण पढ़ने-सुनने के बावजूद इन पर अमल न करने और अपनी संतानों को  इनसे दूर रखने का प्रतिफल ही तो भोग रहे हैं। निश्चित रूप से जिनके माँ-बाप अपनी संतानों के बालसखा बने थे और उन्होंने भी अपनी संतानों के बालसखा बनकर अपने बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण किया। उनकी बच्चे भी निश्चित रूप से अपने माँ-बाप के कृतज्ञ होंगे।

वक्त आदिकाल का रहा हो, वर्तमान का हो या भविष्य में आने वाला हो। मानव-मन, मानव-विवेक सदैव नीति-अनीति, सत्य-असत्य व प्रेम-घृणा में अंतर भलीभाँति समझता रहा है और समझेगा भी। इसीलिए समय या युगपरिवर्तन के बावजूद संतानों को आपके द्वारा दी गई सीख एवं आपके द्वारा प्रदत्त संस्कार कभी व्यर्थ नहीं होंगे यह हमें मानकर ही चलना चाहिए।

                       

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – चुराये हुए साहित्य की दुकानें ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चुराये हुए साहित्य की दुकानें ?

ईश्वर ने मनुष्य को अभिव्यक्ति के जो साधन दिये, लेखन उनमें सारस्वत प्रकार है। श्रुति से आरम्भ हुई परम्परा पत्तों से होते हुए आज के पेपरलेस सोशल मीडिया तक आ पहुँची है। हर काल में लिखना, मनुष्य के कह सकने का एक मुख्य माध्यम रहा है। कोई लेखक हो न हो, अपनी बात कहने के बाद एक प्रकार का विरेचन अवश्य अनुभव करता है।

वस्तुत: विचार से कहन तक वाया चिंतन अपनी प्रक्रिया है। प्रक्रिया की अपनी पीड़ा है, प्रक्रिया का अपना आनंद है। यह बीजारोपण से प्रसव तक की कहानी है, हरेक की अपनी है, हरेक की ज़ुबानी है।

सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद अभिव्यक्ति के लिए विशाल मंच उपलब्ध हुआ। चूँकि यह इंटरएक्टिव किस्म का मंच है, पढ़े हुए पर लिखी हुई प्रतिक्रिया भी तुरंत आने लगी। स्वाभाविक था कि लेखकों को इसके तिलिस्म ने बेतहाशा अपनी ओर आकृष्ट किया। लेकिन जल्दी ही इसका श्याम पक्ष भी सामने आने लगा।

बड़ेे साहित्यकारों को पढ़ने-समझने की तुलना में येन-केन प्रकारेण परिदृश्य पर छा जाने का उतावलापन बढ़ा। इस प्रक्रिया में जो साहित्य पहले बाँचा जाता था, अब टीपा जाने लगा।

इसी मनोवृत्ति का परिणाम है-चुराये हुए साहित्य की दुकानें।

मनुष्य जीवन में गर्भावस्था के लिए सामन्यत: नौ महीने का प्राकृतिक विधान है। विज्ञान कितनी ही तरक्की कर ले, इसे कम नहीं कर सकता। अन्यान्य कारणों से आजकल सरोगेसी का मार्ग भी अपनाया जा रहा है। साहित्य के क्षेत्र में अनुसंधान इससे भी आगे पहुँच गया है। सोशल मीडिया पर उपलब्ध साहित्य की बहती गंगा में चर्चित रचना के कुछ शब्द हाथ की सफाई से अपहृत कर लीजिए, फिर उसमें अपने कुछ शब्द बलात ठूँसकर सर्जक हो जाइये। प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के समानांतर कुछ लिखने का एक पिछला दरवाज़ा भी है। कुछ मामलों में लिखने के बजाय लिखवाने का चलन भी है।

प्रश्न इसके बाद जन्म लेता है। प्रश्न है कि क्या इन दाँव-पेंची अपहरणकर्ताओं को सृजन का सुख मिल सकता है? स्पष्ट उत्तर है-‘नहीं।’ क्या कभी वे अपनी रचना की प्रक्रिया पर चर्चा कर पाएँगे?..‘नहीं।’ चिंतन में फलां शब्द क्यों आया, बता पाएँगेे?..‘कभी नहीं।’ सारे ‘नहीं’ में इनके साहित्यकार होने को कैसे ‘हाँ’ कहा जा सकता है? ‘स’ हित में रचे गए शब्द साहित्य हैं। ऐसे में दूसरे के अहित को सामने रखकर जो जुगाड़ की गई हो, वह साहित्य नहीं हो सकती। फलत: ऐसी जुगाड़ करनेवाला साहित्यकार भी नहीं हो सकता।

ऐसा नहीं है कि ये स्थितियाँ आज से पहले नहीं थीं। निश्चित थीं और आगे भी रहेंगी। अलबत्ता सूचना क्रांति के विस्फोट से पहले संज्ञान में बहुत कम आती थीं। कालानुकूल चोले में मूलभूत समस्याएँ हर युग में कमोबेश एक-सी होती हैं। इनका हल हर युग को अपने समय की नीतिमत्ता और उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से तलाशना होता है।

वर्तमान समय में कथित लेखक जिस सोशल मीडिया का लाभ उठाकर चोरी के साहित्य की दुकानें खोले बैठे हैं, उसी मीडिया का उपयोग उनके विरुद्ध किया जाना चाहिए। वैधानिक मार्ग अपना काम करते रहेंगे पर साहित्यिक क्षेत्र में उनका बहिष्कार तो हो ही सकता है। एक मत है कि यों भी पाइरेटेड की उम्र नहीं होती। किंतु पाइरेसी से मूल को नुकसान हो रहा है। वाचन संस्कृति का आलेख अवरोही हो चला है। ऐसे में मात्रा के मुकाबले गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। पाठक जो पढ़े, जितना पढ़े, वह स्तरीय हो। स्तरीय को उस तक उसे पहुँचाने के लिए चोरी का साहित्य हटाना हमारा दायित्व बनता है। इस दायित्व की पूर्ति के लिए सजग साहित्यकार और जागरूक पाठक दोनों को साथ आना होगा। अस्तु!

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ हे ईश्वरा – डाॅ.निलीमा गुंडी ☆ संग्रहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून  ?

☆ हे ईश्वरा – डाॅ.निलीमा गुंडी ☆ संग्रहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

हे ईश्वरा,

तुझ्या  असण्याविषयीच्या 

भोव-यात गुंतण्यापूर्वी

नि तुझ्या बासरीच्या सुरांनी 

मोहित होण्यापूर्वी 

विचारायचा आहे  तुला 

एक प्रश्न ! 

पुन्हा पुन्हा अवतार घेताना 

एकदाही तू स्त्रीचा जन्म 

कसा नाही  घेतलास ?

तिच्या दुर्दैवाचे दशावतार 

भोगायला का कचरलास ? 

सोपे होते रे तुझे 

कुब्जेला सुंदर करणे 

नि द्रौपदीला वस्त्रे पुरवणे ! 

जगून तरी पाहायचे 

त्यांचे अपमानित जगणे !

मोरपिसाच्या स्पर्शाने 

बुजतात का क्षणात 

सा-या जखमांचे व्रण ?

नि शिळा जिवंत होताच 

सरते का रे ,

तिचे अपराधीपण ? 

हे सर्वज्ञा, 

जन्माचे रहस्य  तूच 

जिच्याकडे  सोपवलेस,

तिच्या मनाचा थांग 

तुला कसा नाही लागला ?

  • डाॅ. नीलिमा गुंडी

संग्राहक :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 102 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – तस्मै श्रीगुरवै नम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 102 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – तस्मै श्रीगुरवै नम: ☆

गुरु ऐसा शब्द जिसके उच्चारण और अनुभूति के साथ एक प्रकार की दिव्यता जुड़ी है, सम्मान की प्रतीति जुड़ी है। गुरु का शाब्दिक अर्थ है अंधकार को दूर करने वाला।

प्रायः हरेक के मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या जीवन में एक ही गुरु हो सकता है? इसका उत्तर दैनिक जीवन के क्रियाकलापों और सांस्कृतिक परम्पराओं में अंतर्भूत है।

वैदिक संस्कृति में भिन्न-भिन्न गुरुकुलों में अध्ययन की परंपरा रही। गुरुकुल में शिक्षा और विचार की भिन्नता भी मिलती है। इन्हें विभिन्न- ‘स्कूल्स ऑफ थॉट’ कहा जा सकता है। वर्तमान में मुक्त शिक्षा का मॉडल काम कर रहा है। छात्र, विज्ञान के साथ कला और वाणिज्य का विषय भी पढ़ सकते हैं। शिक्षा ग्रहण करते हुए कभी भी अपना ‘स्कूल ऑफ थॉट’ बदल सकते हैं।

वर्णमाला का उच्चारण विद्यार्थी के.जी. में सीखता है। प्री-प्राइमरी में वर्ण लिखना सीखता है। शिक्षा के बढ़ते क्रम के साथ शब्द, तत्पश्चात शब्द से वाक्य, फिर परिच्छेद जानता है, अंततोगत्वा धाराप्रवाह लिखने लगता है। के.जी. से पी.जी. तक के प्रवास में कितने गुरु हुए? जिनसे के.जी. में पढ़ा, उन्हीं से पी.जी. में क्यों नहीं पढ़ते? उलट कर भी देख सकते हैं। जिनसे पी.जी. में पढ़ा, उनसे ही के.जी. में पढ़ाने के लिए क्यों नहीं कहते? यही नहीं भाषा की शिक्षा के लिए अलग शिक्षक, चित्रकला के लिए अलग, शारीरिक शिक्षा, विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र हर एक के लिए अलग शिक्षक। उच्च शिक्षा में तो विषय के एक विशिष्ट भाग में स्पेशलाइजेशन किया हुआ शिक्षक होता है। कोई एम.डी.मेडिसिन, कोई स्त्रीरोग विशेषज्ञ, कोई हृदयरोग विशेषज्ञ तो एम.एस. याने शल्य चिकित्सक।

काव्य में कोई गीत का विशेषज्ञ है, कोई ग़ज़ल कहने का व्याकरण बताता है तो कोई मुक्त कविता में लयबद्ध होकर बहना सिखाता है। सभी विधाएँ एक ही से क्यों नहीं सिखी जा सकती? खननशास्त्र का ज्ञाता, गगनशास्त्र नहीं पढ़ा सकता, हवाई जहाज उड़ाने का प्रशिक्षण देनेवाला, पानी का जहाज चलाना नहीं सिखा सकता। भरतनाट्यम, कथक, कुचिपुड़ी, मणिपुरी की साधना एक ही नृत्यगुरु के पास नहीं साधी जा सकती।

गुरु और शिक्षक की भूमिका को लेकर भी अनेक के मन में ऊहापोह होता है। यह सच है कि एक समय गुरु और शिक्षक में अंतर था। शिक्षक अपना पारिश्रमिक स्वयं निर्धारित करता था जबकि गुरु को प्रतिदान शिष्य देता था। कालांतर में बदलती परिस्थितियों ने इस अंतर-रेखा को धूसर कर दिया। वर्तमान में गुरु और शिक्षक न्यूनाधिक पर्यायवाची हैं। शिक्षक, जीवन को अक्षर और व्यवहार के ज्ञान का प्रकाश देनेवाला गुरु है।

गुरुदेव दत्त अर्थात भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव का अवतार माना जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समन्वित अवतार की यह आस्था अनन्य है। उन्होंने चौबीस गुरु बनाये थे। राजा यदु को इन गुरुओं की जानकारी देते हुए भगवान दत्तात्रेय ने आत्मा को सर्वोच्च गुरु घोषित किया। साथ ही बताया कि चौबीस चराचर को गुरु मानकर उनसे जीवनदर्शन की शिक्षा ग्रहण की है। भगवान के ये चौबीस गुरु हैं, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र, अजगर, कपोत, पतंगा, मछली, हिरण, हाथी, मधुमक्खी, शहद निकालने वाला, कुरर पक्षी, कुमारी कन्या, सर्प, बालक, पिंगला नामक वैश्या, बाण बनाने वाला, मकड़ी, और भृंगी कीट। प्रत्येक गुरु से उन्होंने जीवन का भिन्न आयाम सीखा।

बहुआयामी ज्ञानदाता माँ प्रथम गुरु होती हैं। माँ प्रथम होती हैं अर्थात द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम गुरु भी होते हैं। इनमें से कोई किसीका स्थान नहीं ले सकता वरन हरेक का अपना स्थान होता है।

आज शिक्षक दिवस के संदर्भ में विनम्रता से कहता हूँ कि प्रत्येक का मान करो। ज्ञान को धारण करो, जिज्ञासानुसार एक अथवा अनेक गुरु करो।..तस्मै श्रीगुरवै नम:।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 97 ☆ ज़िंदगी समझौता है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी समझौता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 97 ☆

☆ ज़िंदगी समझौता है ☆

‘ज़िंदगी भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और हर स्थिति में आपको अपनी भावनाओं का त्याग कर यथार्थ को स्वीकारना पड़ता है।’ यदि हम यह कहें कि ‘ज़िंदगी संघर्ष नहीं, समझौता है’, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे औरत को तो कदम-कदम पर समझौता करना ही पड़ता है, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है और कानून द्वारा प्रदत्त समानाधिकार भी कागज़ की फाइलों में बंद हैं। प्रसाद जी की कामायनी की यह पंक्तियां ‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि-पत्र लिखना होगा’—औरत को उसकी औक़ात का अहसास दिलाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ द्वारा नारी का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी नियति, असहायता, पराश्रिता व विवशता का आभास कराया गया है; जो सतयुग से लेकर आज तक उसी रूप में बरक़रार है।

यहां हम आधी आबादी की बात न करके, सामान्य मानव के जीवन के संदर्भ में चर्चा करेंगे, क्योंकि औरत के पास समझौते के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं। चलिए! दृष्टिपात करते हैं कि ‘जीवन भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और वह मानव की नियति है।’ यह संघर्ष है…हृदय व मस्तिष्क के बीच अर्थात् जो हमें मिला है… वह हक़ीक़त है; यथार्थ है और जो हम चाहते हैं; अपेक्षित है…वह आदर्श है, कल्पना है। हक़ीक़त सदैव कटु और कल्पना सदैव मनोहारी होती है; जो हमारे अंतर्मन में स्वप्न के रूप में विद्यमान रहती है और उसे साकार करने में इंसान अपना पूरा जीवन लगा देता है। मानव को अक्सर जीवन के कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ता है और उन परिस्थितियों का विश्लेषण व गहन चिंतन कर समझौता करना पड़ता है। वैसे भी जीवन की हक़ीक़त व सच्चाई कड़वी होती है। सो! मानव को ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल कर, विपरीत

परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है। इस स्थिति में यथार्थ को स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। इसमें सबसे अधिक योगदान होता है…हमारी पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का …जो मानव को विषम परिस्थितियों का दास बना देती हैं और लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त उसे हरपल उनसे जूझना पड़ता है। वास्तव में वे विकास के मार्ग में अवरोधक के रूप में सदैव विद्यमान रहती हैं।

आइए! चर्चा करते हैं, पारिवारिक परिस्थितियों की… जैसाकि सर्वविदित है कि प्रभु द्वारा प्रदत्त जन्मजात संबंधों का निर्वाह करने को व्यक्ति विवश होता है। परंतु कई बार आकस्मिक आपदाएं उसका रास्ता रोक लेती हैं और वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाने को विवश हो जाता है। पिता के देहांत के बाद बच्चे अपने परिवार का आर्थिक-दायित्व वहन करने को मजबूर हो जाते हैं और उनके स्वर्णिम सपने राख हो जाते हैं। अक्सर पढ़ाई बीच में छूट जाती है और उन्हें मेहनत-मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है। वे सृष्टि-नियंता को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर बैठते हैं कि ‘आखिर विधाता ने उन्हें जन्म ही क्यों दिया? अमीर-गरीब के बीच इतनी असमानता व दूरियां क्यों पैदा कर दीं? ये प्रश्न उन के मनोमस्तिष्क को निरंतर कचोटते रहते हैं और सामाजिक विसंगतियां–जाति-पाति विभेद व अमीरी-गरीबी रूपी वैषम्य उन्हें उन्नति के समान अवसर प्रदान नहीं करतीं।

प्रेम सृष्टि का मूल है तथा प्राणी-मात्र में व्याप्त है। कई बार इसके अभाव के कारण उन अभागे बच्चों का बचपन तो खुशियों से महरूम रहता ही है; वहीं युवावस्था में भी वे माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल, मनचाहे साथी के साथ विवाह-बंधन में नहीं बंध पाते; जिसका घातक परिणाम हमें ऑनर-किलिंग व हत्या के रूप में दिखाई पड़ता है। अक्सर उनके विवाह को अवैध क़रार कर, खापों व पंचायतों द्वारा उन्हें भाई-बहिन के रूप में रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है; जिसके परिणामस्वरूप वे अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और चंद दिनों पश्चात् आत्महत्या तक कर लेते हैं।

‘शक्तिशाली विजयी भव’ के रूप में समाज शोषक व शोषित दो वर्गों में विभाजित है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु रूप में खड़े दिखाई पड़ते हैं; जिससे सामाजिक-व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है और उसका प्रमाण इंडिया व भारत के रूप में परिलक्षित है। चंद लोग ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में सुख-सुविधाओं से रहते हैं; वहीं अधिकांश लोग ज़िंदा रहने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। उनके पास सिर छुपाने को छत भी नहीं होती; जिसका मुख्य कारण अशिक्षा व निर्धनता है। इसके प्रभाव व परिणाम -स्वरूप वे जनसंख्या विस्फोटक के रूप में भरपूर योगदान देते हैं।

जहां तक चुनाव का संबंध है…हमारे नुमांइदे इन के आसपास मंडराते हैं; शराब की बोतलें देकर इन्हें भरमाते हैं और वादा करते हैं– सर्वस्व लुटाने का, परंंतु सत्तासीन होते ये दबंगों के रूप में शह़ पाते हैं।’ आजकल सबसे सस्ता है आदमी…जो चाहे खरीद ले…सब बिकाऊ है…एक बार नहीं, तीन-तीन बार बिकने को तैयार है। यह जीवन का कटु यथार्थ है; जहां समझौता तो होता है, परंतु उपयोगिता के आधार पर और उसका संबंध हृदय से नहीं, मस्तिष्क से होता है।

मानव के हृदय पर सदैव बुद्धि भारी पड़ती है। हमारे आसपास का वातावरण और हमारी मजबूरियां हमारी दिशा-निर्धारण करती हैं और मानव उन के सम्मुख घुटने टेकने को विवश हो जाता है …क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प होता ही नहीं। अक्सर लोग विषम परिस्थितियों में टूट जाते हैं; पराजय स्वीकार कर लेते हैं और पुन:उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते। ‘वास्तव में पराजय गिरने में नहीं, बल्कि न उठने में है’ अर्थात् जब आप धैर्य खो देते हैं; परिस्थितियों को नियति स्वीकार सहर्ष पराजय को गले लगा लेते हैं… उस असामान्य स्थिति से कोई भी आपको उबार नहीं सकता अर्थात् मुक्ति नहीं दिला सकता और वे निराशा रूपी गहन अंधकार में डूबते-उतराते रहते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छे की उम्मीद रखना; हमारे आधे दु:खों का कारण है और आधे दु:ख अच्छे लोगों में दोष-दर्शन से आ जाते हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति से शुभ की अपेक्षा करना आत्म-प्रवंचना है, क्योंकि उसके पास जो कुछ होगा, वही तो वह देगा। बुराई-अच्छाई में शत्रुता है… दोनों इकट्ठे नहीं चल पातीं, बल्कि वे हमारे दु:खों में इज़ाफ़ा करने में सहायक सिद्ध होती हैं। अक्सर यह तनाव हमें अवसाद के उस चक्रव्यूह में ले जाकर छोड़ देता है; जहां से मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। इस स्थिति में भावनाओं से समझौता करना हमारे लिए हानिकारक होता है। दूसरी ओर जब हम अच्छे लोगों में दोष व अवगुण देखना प्रारंभ कर देते हैं, तो हम उनसे लाभान्वित नहीं हो पाते और हम भूल जाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति सदैव कल्याणकारी व लाभदायक होती है। इसलिए हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे चंदन घिसने के पश्चात् उसकी महक स्वाभाविक रूप से अंगुलियों में रह जाती है और उसके लिए मानव को परिश्रम नहीं करना पड़ता। भले ही मानव को सत्संगति से त्वरित लाभ प्राप्त न हो, परंतु भविष्य में वह उससे अवश्य लाभान्वित होता है और उसका भविष्य सदैव उज्ज्वल रहता है।

‘मानव का स्वभाव कभी नहीं बदलता।’ सोने को भले ही सौ टुकड़ों में तोड़ कर कीचड़ में फेंक दिया जाए; उसकी चमक व मूल्य कभी कम नहीं होता। उसी तरह ‘कोयला होय न उजरो, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् ‘जैसा साथ, वैसी सोच’… सो! मानव को सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए, क्योंकि इंसान अपनी संगति से ही पहचाना जाता है। शायद! इसीलिए यह सीख दी गयी है कि ‘बुरी संगति से व्यक्ति अकेला भला।’ सो! व्यक्ति के गुण-दोष परख कर उससे मित्रता करनी चाहिए, ताकि आपको शुभ फल की प्राप्ति हो सके। आपके लिए बेहतर है कि आप भावनाओं में बहकर कोई निर्णय न लें, क्योंकि वे आपको विनाश के अंधकूप में धकेल सकती हैं; जहां से लौटना नामुमक़िन होता है।

सो! यथार्थ से कभी मुख मत मोड़िए। साक्षी भाव से सब कुछ देखिए, क्योंकि व्यक्ति भावनाओं में बहने के पश्चात् उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए सत्य को स्वीकारिए; भले ही उसके उजागर होने में समय लग जाता है और कठिनाइयां भी उसकी राह में बहुत आती हैं। परंतु सत्य शिव होता है और शिव सदैव सुंदर होता है। सो! सत्य को स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। जीवन में संघर्ष रूपी राह पर यथार्थ की विवेचना करके समझौता करना सर्वश्रेष्ठ है। जब गहन अंधकार छाया हो; हाथ को हाथ भी न सूझ रहा हो…एक-एक कदम निरंतर आगे बढ़ाते रहिए; मंज़िल आपको अवश्य मिलेगी। यदि आप हिम्मत हार जाते हैं, तो आपकी पराजय अवश्यंभावी है। सो! परिश्रम कीजिए और तब तक करते रहिए; जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। संबंधों की अहमियत स्वीकार कीजिए; उन्हें हृदय से महसूसिए तथा बुरे लोगों से शुभ की अपेक्षा कभी मत कीजिए। बिना सोचे-विचारे जीवन में कभी कोई भी निर्णय मत लीजिए, क्योंकि एक ग़लत निर्णय आपको पथ-विचलित कर पतन की राह पर ले जा सकता है। सो! भावनाओं को यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही सदैव निर्णय लेना तथा उसकी हक़ीक़त को स्वीकारना श्रेयस्कर है। यथा-समय, यथा-स्थिति व अवसरानुकूल लिया गया निर्णय सदैव उपयोगी, सार्थक व अनुकरणीय होता है। उचित निर्णय व समझौता जीवन-रूपी गाड़ी को चलाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, उपादान है; जो सदैव ढाल बनकर आपके साथ खड़ा रहता है और प्रकाश-स्तंभ अथवा लाइट-हाउस के रूप में आपका पथ-प्रशस्त करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 49 ☆ वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म”.)

☆ किसलय की कलम से # 49 ☆

☆ वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म ☆

आस्था और विश्वास सहित धर्म के पथ पर चलना इंसान अपना कर्त्तव्य मानता है। विश्व के हर धर्म में कुछ ऐसी अच्छाईयाँ होती हैं कि वे धर्मावलंबी किसी अन्य धर्म को अपनाने की सोचते भी नहीं है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि वे अन्य धर्मों के प्रति ईर्ष्या या द्वेष रखते हैं। अधिकांश लोग इतर धर्मों की गहन जानकारी रखते हैं, आदर और श्रद्धा का भाव भी रखते हैं। वैसे तो मेरी दृष्टि से धर्म संकीर्णता से परे होता है। यदि संकीर्णता को अपनाया जाए तो इसका मतलब यही होगा कि उस धर्म के लोग यह सब किसी स्वार्थवश ऐसा कर रहे हैं। भारतवर्ष सनातन-धर्म प्रधान राष्ट्र है। सनातन धर्म की विराटता एवं तरलता विश्वविख्यात है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ एवं ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसे सनातन धर्म के ये वाक्य विश्वव्यापी हो गए हैं।

सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है कि प्रत्येक धर्मावलंबी मूर्ति उपासक होता है। मूर्ति उपासक होने का आशय यही है कि लोग मूर्तियों के सामने बैठकर पूजा-अर्चना, भक्ति-साधना, उपवास-तपस्या आदि के माध्यम से मोक्ष के साथ-साथ ईश्वर की शरण भी चाहते हैं।

हमें अपने धर्म पर कभी शंका या अविश्वास नहीं करना चाहिए। हमारे महान ऋषि-मुनियों, तपस्वियों ने हजारों-हजार वर्ष पूर्व कठोर तप-साधना, चिंतन-मनन व एकाग्रता से परहितार्थ, समाजहितार्थ अथवा यूँ कहें कि विश्व कल्याणार्थ जो कुछ लिखा, जो दिशानिर्देश दिए, जिसे धर्म सम्मत बताया वह निर्मूल तो हो ही नहीं सकता। प्राचीन संतों व महापुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथ आज भी विश्वकल्याण का ही पाठ पढ़ाते नजर आते हैं।

सनातन धर्म मात्र एक धर्म  नहीं है, एक विकसित विज्ञान भी है। सनातन धर्म अथवा प्रचलित भाषा में कहें तो हिंदू धर्म में इंगित अधिकांश बातें, विधियाँ, पर्व, तिथियाँ, खगोलीय घटनाएँ, ऋतु-परिवर्तन आदि का विज्ञानपरक विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। आज का हिंदू धर्मावलंबी किसी न किसी अज्ञानता वश धर्म की बातों को गंभीरता से नहीं लेता और मुसीबतों को स्वयमेव आमंत्रण देता रहता है।

यदि हम सनातन धर्म की वैज्ञानिकता पर आधारित दिनचर्या का पालन करें तो आपका नीरोग, निश्चिंत और संतुष्ट रहना अवश्यंभावी है। महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन पढ़ें। उसे यथासंभव अपनाएँ। प्रथम पूज्य गणेश जी के विराट व्यक्तित्व को जानें और उनके द्वारा अपनाई गई बातों को अंगीकृत करने का प्रयास करें। देखिए फिर आप कैसे सुखी और शांत नहीं रहते।

एक छोटी सी बात यह भी है कि हम जब सच्चे मन से अपने ईश्वर की मूर्ति के समक्ष उनकी आराधना करते हैं तब  हमारे मन में इतर भाव नहीं आते। यदि आते हैं तब कहना होगा कि आप सच्चे मन से ईश्वर की पूजा-अर्चना नहीं कर रहे हैं।

यह भी अनुभव कीजिये कि कम से कम जितना भी समय आपने ईश्वर आराधना में लगाया, उतने समय तक आपका मस्तिष्क एकाग्र रहा। अर्थात शांत रहा। उसमें मात्र ईश्वर रचा-बसा रहा। अब वैज्ञानिक बात लीजिए कि साधारण रूप से मन के तनाव को सामान्य स्थिति में लाने के लिए जहाँ 20 घंटे भी लग सकते हैं वहीं ईश-आराधना के माध्यम से घड़ी दो घड़ी में ही आपका तनाव समाप्त हो जाता है। क्या यह विज्ञान नहीं है।

प्रातः स्नान करना, जल्दी शयन करना, सूर्योदयपूर्व जागना, ध्यान-योग करना, ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखना, संतोषी होना, परोपकार करना, सादगी और सद्भाव को अपनाना। क्या इन बातों को निराधार कहा जा सकता है? हिन्दुधर्म की कोई भी बात लो, कोई भी पक्ष लो, हर कहीं आपको मानवता के ही दर्शन होंगे।

सच्चा धर्म वही है जिसे धारण करने से हमें मनुष्यता पर गर्व हो। हम दूसरों के काम आएँ, हमारे कृत्यों से किसी अन्य को पीड़ा न हो, हमारे व्यवहार से लोगों के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठें, हमारा नाम सुनते ही लोगों के मानस पटल पर सच्चरित्र व्यक्तित्व की छवि उभर आए। यही है सच्चे और श्रेष्ठ धर्म को मानने वाले इंसान की पहचान। आईए, हम भी ऐसे ही पथ पर चलना प्रारम्भ करें, जो कहीं न कहीं श्रेष्ठ धर्म की सार्थकता सिद्ध करे।

                       

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 112 ☆ लघुकथा एक युग सापेक्ष साहित्यिक विधा …. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय विमर्श लघुकथा एक युग सापेक्ष साहित्यिक विधा ….। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 112 ☆

? लघुकथा एक युग सापेक्ष साहित्यिक विधा ?

(सन्दर्भ – ‘लघुकथा के परिंदे मंच की गूगल संगोष्ठी  दिनांक – 1 सितम्बर, 2021, बुधवार को शाम 6.30 बजे)

युग २० २० क्रिकेट का है. युग ट्विटर की माइक्रो ब्लागिंग का है. युग इंस्टेंट अभिव्यक्ति का है. युग क्विक रिस्पांस का है. युग १० मिनट भर में २० खबरो का है. यह सब बताने का आशय केवल इतना है कि साहित्य में भी आज पाठक जीवन की विविध व्यस्तताओ के चलते समयाभाव से जूझ रहा है. पाठक को कहानी का, उपन्यास का आनन्द तो चाहिये पर वह यह सब फटाफट चाहता है.

संपादक जी को शाम ६ बजे ज्ञात होता है कि साहित्य के पन्ने पर कार्नर बाक्स खाली है, और उसके लिये वे ऐसी सामग्री चाहते हैं जो कैची हो.

इतना ही नही लेखक की  एक घटना से अंतर्मन तक प्रभावित होते हैं, वे उस विसंगति को अपने पाठकों तक पहुंचाने पर मानसिक उद्वेलन से विवश हैं किन्तु उनके पास भी ढ़ेरों काम हैं, वे लम्बी कथा लिख नही सकते. यदि उपन्यास लिखने की सोचें तो सोचते ही रह जायें और रचना की भ्रूण हत्या हो जावे. ऐसी स्थिति में लघुकथा एक युग सापेक्ष साहित्यिक विधा के रूप में उनका सहारा बनती है. लघुकथा संक्षिप्त अभिव्यक्ति की अत्यंत प्रभावशाली विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है. बीसवीं सदी के अंतिम तीन चार दशकों में लघुकथा  प्रतिष्ठित होती गई. मुझे स्मरण है कि १९७९ में मेरी पहली लघुकथा दहेज, गेम आफ स्किल, बौना आदि प्रकाशित हुईं थी. तब नई कविता का नेनो स्वरूप क्षणिका के रूप में छपा करता था. लघुकथायें फिलर के रूप में बाक्स में छपती थीं. समय के साथ लघुकथा ने क्षणिका को पीछे छोड़कर आज एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा का स्थान अर्जित कर लिया है. व्यंग्य, ललित निबंध, लघुकथा क्रियेटिव राइटिंग की अपेक्षाकृत नई विधायें हैं. जिनमें भी व्यंग्य तथा लघुकथा का पाठक प्रतिसाद बड़ा है. इन दोनो ही विधाओ के समर्पित लेखकों का संसार भी बड़ा है. इंटरनेट ने दुनियां भर के लघुकथाकारों को परस्पर एक सूत्र में जोड़ रखा है. लघुकथा के एकल संग्रहों की संख्या अपेक्षाकृत सीमित है, यद्यपि संयुक्त संग्रह बड़ी संख्या में छप रहे हैं. लघुकथा का साहित्यिक भविष्य व्यापक है, क्योंकि परिवेश विसंगतियों से भरा हुआ है, अपने अनुभवो को व्यक्त करने की छटपटाहट एक नैसर्गिक प्रक्रिया है, जो लघुकथाओ की जन्मदात्री है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 101 ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णानीति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 101 ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ☆

यूट्यूब लिंक =>> कृष्णनीति

जरासंध ने कृष्ण के वध के लिए कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूर द्वारकाधीश युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू किया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते कृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। ऋषि को विवश हो चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। ज्ञान के सम्मुख योगेश्वर की साक्षी में अहंकार को भस्म तो होना ही था।

कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।

भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे नहीं होंगे और प्रजा पर इस तरह के आक्रमण होंगे तब क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन उसे करवा रहे थे।

स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।

प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखनेवाले के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 100 ☆ ‘संजय’ की नियति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  100वीं  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

? चरैवेति-चरैवेति ? 

‘संजय उवाच’ ने जब मानसपटल से काग़ज़ पर उतरना आरम्भ किया तो कब सोचा था कि यात्रा पग-पग चलते शतकीय कड़ी तक आ पहुँचेगी। आज वेब पोर्टल ‘ई-अभिव्यक्ति’ में संजय उवाच की यह 100वीं कड़ी है

किसी भी स्तंभकार के लिए यह विनम्र उपलब्धि है। इस उपलब्धि का बड़ा श्रेय आपको है। आपके सहयोग एवं आत्मीय भाव ने उवाच की निरंतरता बनाये रखी। हृदय से आपको धन्यवाद।

साथ ही धन्यवाद अपने पाठकों का जिन्होंने स्तंभ को अपना स्नेह दिया। पाठकों से निरंतर प्राप्त होती प्रतिक्रियाओं ने लेखनी को सदा प्रवहमान रखा।

आप सबके प्रेम के प्रति नतमस्तक रहते हुए प्रयास रहेगा कि ‘संजय उवाच’ सुधी पाठकों की आकांक्षाओं पर इसी तरह खरा उतरता रहे।

(विशेष- संगम-सा त्रिगुणी योग यह कि आज ही बंगलूरू और चेन्नई के प्रमुख हिंदी दैनिक ‘दक्षिण भारत राष्ट्रमत’ में उवाच की 65वीं और भिवानी, हरियाणा के लोकप्रिय दैनिक ‘चेतना’ में 50वीं कड़ी प्रकाशित हुई है।)

संजय भारद्वाज

☆ संजय उवाच # 100 ☆ ‘संजय’ की नियति ☆

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, “धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?”

इस प्रश्न के उत्तर से आरम्भ हुआ संजय उवाच ! वस्तुत: धृतराष्ट्र द्वारा पूछे इस प्रश्न से पूर्व भी महाभारत था, धृतराष्ट्र और संजय भी थे। जिज्ञासुओं को लगता होगा कि महाभारत तो एक बार ही हुआ था, धृतराष्ट्र एक ही था और संजय भी एक ही। चिंतन कहता है, भीतर जब कभी महाभारत उठा है, अनादि काल से मनुष्य के अंदर बसा धृतराष्ट्र, भीतर के संजय से यही प्रश्न करता रहा है।

वस्तुत: अनादि से लेकर संप्रति, स्थूल और सूक्ष्म जगत में जो कुछ घट रहा है, उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम भर है संजय उवाच।

महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र रूपी स्वार्थांधता को उसके कर्मों का परिणाम दिखाने हेतु संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। संजय की आँखों की दिव्यता, विपरीत ध्रुवों के एक स्थान पर स्थित होने की अद्भुत बानगी है। उसकी दिव्यता में जब जिसे अपना पक्ष उजला दिखता है, वह कुछ समय उसका मित्र हो जाता है। दिव्यता में जिसका स्याह पक्ष उजाले में आता है, वह शत्रु हो जाता है। उसकी दिव्यता उसका वरदान है, उसकी दिव्यता उसका अभिशाप है। उसका वरदान उसे अर्जुन के बाद ऐसा महामानव बनाता है जिसने साक्षात योगेश्वर से गीताज्ञान का श्रवण किया। मनुज देह में संजय ऐसा सौभाग्यशाली हुआ, जो पार्थ के अलावा पार्थसारथी के विराट रूप का दर्शन कर सका। उसका अभिशाप उसे अभिमन्यु के निर्मम वध का परोक्ष साक्षी बनाता है और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या देखने को विवश करता है। दिव्य दृष्टि के शिकार संजय की स्थिति कुछ वर्ष पूर्व कविता में अवतरित हुई थी..,

 

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

गुणातीत वरद अवध्य हूँ

कालातीत अभिशप्त हूँ!

 

संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे सरल है, संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे जटिल है। असत्य के झंझावात में सत्य का तिनका थामे रहना, सत्य कहना, सत्य का होना, सत्य पर टिके रहना सबसे कठिन और जटिल है। बहुत मूल्य चुकाना पड़ता है, सर्वस्व होम करना पड़ता है। संजय सारथी है। समय के रथ पर आसीन सत्य का सारथी।

आँखों दिखते सत्य से दूर नहीं भाग सकता संजय। जैसा घटता है, वैसा दिखाता है संजय। जो दिखता है, वही लिखता है संजय। निरपेक्षता उसकी नीति है और नियति भी।

महर्षि वेदव्यास ने समय को प्रकाशित करने हेतु शाश्वत आलोकित सत्य को चुना, संजय को चुना। संकेत स्पष्ट है। अंतस में वेदव्यास जागृत करो, दृष्टि में ‘संजय’ जन्म लेगा। तब तुम्हें किसी संजय और ‘संजय उवाच’ की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यही संजय उवाच का उद्देश्य है और निर्दिष्ट भी।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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