(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लट्टू (TOP)…“।)
अभी अभी # 445 ⇒ ~ लट्टू (TOP)~… श्री प्रदीप शर्मा
समय के साथ कुछ शब्द अपना अर्थ खोते चले जाते हैं, जितना हम सीखते चले जाते हैं, उतना ही भूलते भी चले जाते हैं। बचपन का एक खेल था जिसे हम हमारी भाषा में भौंरा कहते थे, सिर्फ इसलिए क्योंकि जब उस लकड़ी के खिलौने को रस्सी से बांधकर जमीन पर फेंका जाता था, तो वह खिलौना तेजी से गोल गोल घूमने लगता था, जिससे भंवरे जैसी आवाज सुनाई देती थी।
एक कील पर भौंरा लट्टू की तरह घूमता नजर आता था। छोटे बच्चों की निगाहें उस पर तब तक टिकी रहती थी, जब तक वह थक हारकर जमीन पर लोटपोट नहीं हो जाता था।
बहुत दिनों से यह खेल ना तो खेला है और ना ही किसी बच्चे को आजकल खेलते देखा है। लट्टू एक प्रकार का खिलौना है जिसमें सूत लपेट कर झटके से खींचने पर वह घूमने या नाचने लगता है। इसके बीच में जो कील गड़ी होती है, उसी पर लट्टू चक्कर लगाता है। यह लट्टू के आकार की गोल रचना वाला होता है। लट्टू लकड़ी का बना होता है। ।
हां आजकल छोटे बच्चों के लिए रंगबिरंगे प्लास्टिक के लट्टू जरूर बाजार में नजर आ जाएंगे, जिन्हें जमीन पर रखकर हाथ से भी घुमाया जा सकता है।
जब तक यह घूमता है, इससे रंगबिरंगी रोशनी निकलती रहती है। इसका भी अंत लोटपोट होने से ही होता है।
लट्टू चलाना तब हम बच्चों के लिए बच्चों का खेल नहीं, पुरुषार्थ वाला खेल था। पहले लट्टू को अच्छी तरह मोटे धागे अथवा पायजामे के नाड़े से बांधना और फिर रस्सी हाथ में रखकर लट्टू को जमीन पर घूमने के लिए पटकना, इतना आसान भी नहीं था। बाद में ज़मीन से उस चलते हुए लट्टू को हथेलियों में उठा लेना आज हम बड़े लोगों का खेल नहीं रह गया। ।
हमारे खेल में कभी कभी घर के बड़े लोग भी शामिल हो जाते थे। वे तो लट्टू को ज़मीन पर पटकने के पहले ही, उस घूमते हुए लट्टू को अपनी हथेलियों में थाम लेते थे और लट्टू उनकी हथेलियों पर शान से चक्कर लगाया करता था। उसके लिए शायद एक शब्द भी था, उड़नजाल। हम तो यह देखकर ही लट्टू हो जाते थे।
आज वह खिलौना कहीं गुम हो गया है, और हमारे बच्चे जमीनी खिलौने छोड़ इंटरनेट पर बड़े बड़े खिलौनों से खेल रहे हैं।
आप चाहें तो इन्हें खतरों वाले खिलौनों के साथ खेलने वाले खिलाड़ी कह सकते हैं। मिट्टी से जुड़े खेलों के लिए ना तो उन्हें मिट्टी ही नसीब होती है और ना ही वह वातावरण। ।
इधर लड़के लट्टू चला रहे हैं, गिल्ली डंडा और सितौलिया खेल रहे हैं और उधर लड़कियां फुगड़ी खेल रही हैं और जमीन पर चाक से खाने बनाकर, एक पांव से पौवा सरका रही है। कौन खेलता है आजकल लंगड़ी।
टॉप शब्द जीन्स और टॉप का पर्याय हो गया है। लट्टू और भौंरे जैसे शब्द अब अपना अर्थ ही खो बैठे हैं क्योंकि आजकल हर भंवरा अपनी पसंद की कली पर ही लट्टू हो रहा है। ।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – भारत की बात सुनाता हूँ..! 🇮🇳
आज 15 अगस्त है, भारत का स्वतंत्रता दिवस। भारत नामकरण के संदर्भ में विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक कहता है,
उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।
अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।
माना जाता है कि महाराज भरत ने इस भूभाग का नामकरण ‘भारत’ किया था। हम सिंधु घाटी सभ्यता के निवासी हैं। बाद में तुर्कों का इस भूभाग में प्रवेश हुआ। कहते हैं कि तुर्क ‘स’ को ‘ह’ बोलते थे। फलत: यहाँ के निवासी हिंदू कहलाए। फिर अंग्रेज आया। स्वाभाविक था कि उस समय इस भूभाग के लिए चलन में रहे ‘हिंदुस्तान’ शब्द का उच्चारण उनके लिए कठिन था। सिंधु घाटी सभ्यता के लिए ‘इंडस वैली सिविलाइजेशन’ का प्रयोग किया जाता था। इस नाम के चलते अंग्रेजों ने देश का नामकरण इंडिया कर दिया।
शेक्सपियर ने कहा था, ‘नाम में क्या रखा है?’ अनेक संदर्भों में यह सत्य भी है। तब भी राष्ट्र का संदर्भ भिन्न है। राष्ट्र का नाम नागरिकों के लिए चैतन्य और स्फुरण का प्रतीक होता है। राष्ट्र का नाम अतीत, वर्तमान और भविष्य को अनुप्राणित करता है। भारत हमारे लिए चैतन्य, स्फुरण एवं प्रेरणा है।
‘भा’ और ‘रत’ के योग से बना है ‘भारत।’ इसका अर्थ है, जो निरंतर प्रकाश में रत हो। ‘भारत’ नाम हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है, अपने अस्तित्व का भान कराता है, अपने कर्तव्य का बोध जगाता है। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के बालकांड में भरत के नामकरण के प्रसंग में लिखा है,
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जो संसार का भरण-पोषण करता है, वही भरत कहलाता है। इसे भारत के संदर्भ में भी ग्रहण किया जा सकता है।
शत्रु को भी अपनी संतान की तरह देखनेवाली इस धरती पर मनुष्य जन्म पाना तो अहोभाग्य ही है।
दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।
अर्थात भारत में जन्म लेना दुर्लभ है। उसमें भी मनुष्य योनि पाना तो दुर्लभतम ही है।
भारतीय कहलाने का हमारा जन्मजात अधिकार और सौभाग्य है। भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी के भाषण का प्रसिद्ध अंश है-
“भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है। हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएँ हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकड़-कंकड़ शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जिएँगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए।”
भारत के एक नागरिक द्वारा सभी साथी नागरिकों को स्वाधीनता दिवस की अग्रिम बधाई एवं शुभकामनाएँ। 🇮🇳
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 216 ☆
☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष –महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी लाला हरदयाल जी 🇮🇳 ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
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लाला हरदयाल भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के उन अग्रणी क्रान्तिकारियों में से थे, जिन्होंने विदेश में रहने वाले भारतीयों को देश की आजादी की लड़ाई में योगदान के लिये प्रेरित व प्रोत्साहित किया। इसके लिये उन्होंने अमरीका में जाकर गदर पार्टी की स्थापना की। वहाँ उन्होंने प्रवासी भारतीयों के बीच देशभक्ति की भावना जागृत की। उनके सरल जीवन और बौद्धिक कौशल ने प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए कनाडा और अमेरिका में रहने वाले हजारों प्रवासी भारतीयों को प्रेरित किया।
लाला हरदयाल का जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में गुरुद्वारा शीशगंज के पीछे स्थित चीराखाना मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता भोली रानी ने तुलसीकृत रामचरितमानस एवं वीर पूजा के पाठ पढ़ा कर उनमें देश के प्रति उदात्त भावना, शक्ति एवं सौन्दर्य बुद्धि का संचार किया। उर्दू तथा फारसी के पण्डित पिता गौरीदयाल माथुर दिल्ली के जिला न्यायालय में रीडर थे। उन्होंने अपने बेटे को शिक्षा के प्रति प्रेरित किया। 17 वर्ष की आयु में सुन्दर रानी नाम की अत्यन्त रूपसी कन्या से उनका विवाह हुआ। दो वर्ष बाद उन दोनों को एक पुत्र की प्राप्ति हुई, किन्तु कुछ दिनों बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1908 में उनकी दूसरी सन्तान एक पुत्री पैदा हुई। लाला जी बहुत कम उम्र में ही आर्य समाज से प्रभावित हो चुके थे।
लाला हरदयाल जी की आरम्भिक शिक्षा कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में हुई। इसके बाद सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली से संस्कृत में स्नातक किया। तत्पश्चात् पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से संस्कृत में ही एम०ए० किया। इस परीक्षा में उन्हें इतने अंक प्राप्त हुए थे कि सरकार की ओर से 200 पौण्ड की छात्रवृत्ति प्रदान की गयी। हरदयाल जी उस छात्रवृत्ति के सहारे आगे पढ़ने के लिये लन्दन चले गये और सन् 1905 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ उन्होंने दो छात्रवृत्तियाँ और प्राप्त कीं। हरदयाल जी की यह विशेषता थी कि वे एक समय में पाँच कार्य एक साथ कर लेते थे। 12 घंटे का नोटिस देकर इनके सहपाठी मित्र इनसे शेक्सपियर का कोई भी नाटक मुँहजुबानी सुन लिया करते थे।
इसके पहले ही वे मास्टर अमीरचन्द की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था के सदस्य बन चुके थे। उन दिनों लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा भी रहते थे, जिन्होंने देशभक्ति का प्रचार करने के लिये वहीं इण्डिया हाउस की स्थापना की हुई थी। इतिहास के अध्ययन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को पाप समझकर सन् 1907 में “भाड़ में जाये आई०सी०एस०” कह कर उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय तत्काल छोड़ दिया और लन्दन में देशभक्त समाज स्थापित कर असहयोग आन्दोलन का प्रचार करने लगे, जिसका विचार गान्धी जी को काफी देर बाद सन् 1920 में आया। भारत को स्वतन्त्र करने के लिये लाला जी की यह योजना थी कि जनता में राष्ट्रीय भावना जगाने के पश्चात् पहले सरकार की कड़ी आलोचना की जाये, फिर युद्ध की तैयारी की जाये, तभी कोई ठोस परिणाम मिल सकता है, अन्यथा नहीं। कुछ दिनों विदेश में रहने के बाद 1908 में वे भारत वापस लौट आये।
बात उन दिनों की है जब लाहौर में युवाओं के मनोरंजन के लिये एक ही क्लब हुआ करता था, जिसका नाम था यंग मैन क्रिश्चयन एसोसियेशन या ‘वाई एएम सी ए ‘। उस समय लाला हरदयाल लाहौर में एम० ए० कर रहे थे। संयोग से उनकी क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर तीखी बहस हो गयी। लाला जी ने आव देखा न ताव, तुरन्त ही ‘वाई एम् सी ए’ के समानान्तर यंग मैन इण्डिया एसोसियेशन की स्थापना कर डाली। लाला जी के कालेज में मोहम्मद अल्लामा इक़बाल भी प्रोफेसर थे, जो वहाँ दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। उन दोनों के बीच अच्छी मित्रता थी। जब लाला जी ने प्रो॰ इकबाल से एसोसियेशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गये। इस समारोह में इकबाल ने अपनी प्रसिद्ध रचना “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा” तरन्नुम में सुनायी थी। ऐसा शायद पहली बार हुआ कि किसी समारोह के अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय भाषण के स्थान पर कोई तराना गाया हो। इस छोटी लेकिन जोश भरी रचना का श्रोताओं पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि इक़बाल को समारोह के आरम्भ और समापन- दोनों ही अवसरों पर ये गीत सुनाना पड़ा।
उन्होंने पूना जाकर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से भेंट की। उसके बाद फिर न जाने क्या हुआ कि उन्होंने पटियाला पहुँच कर गौतम बुद्ध के समान सन्यास ले लिया। शिष्य-मण्डली के सम्मुख लगातार 3 सप्ताह तक संसार के क्रान्तिकारियों के जीवन का विवेचन किया। तत्पश्चात् लाहौर के अंग्रेजी दैनिक पंजाबी का सम्पादन करने लगे। लाला जी के आलस्य-त्याग, अहंकार-शून्यता, सरलता, विद्वत्ता, भाषा पर आधिपत्य, बुद्धिप्रखरता, राष्ट्रभक्ति का ओज तथा परदु:ख में संवेदनशीलता जैसे असाधारण गुणों के कारण कोई भी व्यक्ति एक बार उनका दर्शन करते ही मुग्ध हो जाता था। वे अपने सभी निजी पत्र हिन्दी में ही लिखते थे किन्तु दक्षिण भारत के भक्तों को सदैव संस्कृत में उत्तर देते थे। लाला जी बहुधा यह बात कहा करते थे- “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से राष्ट्रीय चरित्र तो नष्ट होता ही है, राष्ट्रीय जीवन का स्रोत भी विषाक्त हो जाता है। अंग्रेज ईसाइयत के प्रसार द्वारा हमारे दासत्व को स्थायी बना रहे हैं।”
1908 में क्रूर अंग्रेजी सरकार का दमन चक्र चला। लाला जी के आग्नेय प्रवचनों के परिणामस्वरूप विद्यार्थी कॉलेज छोड़ने लगे और सरकारी कर्मचारी अपनी-अपनी नौकरियाँ। भयभीत सरकार इन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाने में जुट गयी। लाला लाजपत राय के परामर्श को शिरोधार्य कर आप फौरन पेरिस चले गये और वहीं रहकर जेनेवा से निकलने वाली मासिक पत्रिका वन्दे मातरम् का सम्पादन करने लगे। गोपाल कृष्ण गोखले जैसे उदारवादियों की आलोचना अपने लेखों में खुल कर किया करते थे। महान क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा के सम्बन्ध में उन्होंने एक लेख में लिखा था – “इस अमर वीर के शब्दों एवं कृत्यों पर सदियों तक विचार किया जायेगा , जो मृत्यु से नव-वधू के समान प्यार करता था।” मदनलाल ढींगरा जी ने फाँसी दिए जाने से पूर्व कहा था – “मेरे राष्ट्र का अपमान परमात्मा का अपमान है और यह अपमान मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था अत: मैं जो कुछ कर सकता था , वही मैंने किया। मुझे अपने किये पर जरा भी पश्चात्ताप नहीं है।”
लाला हरदयाल ने पेरिस को अपना प्रचार-केन्द्र बनाना चाहा था , किन्तु वहाँ पर इनके रहने खाने का प्रबन्ध प्रवासी भारतीय देशभक्त न कर सके। विवश होकर वे सन् 1910 में पहले अल्जीरिया गये बाद में एकान्तवास हेतु एक अन्य स्थान खोज लिया और लामार्तनीक द्वीप में जाकर महात्मा बुद्ध के समान तप करने लगे। परन्तु वहाँ भी अधिक दिनों तक न रह सके और भाई परमानन्द के अनुरोध पर हिन्दू संस्कृति के प्रचारार्थ अमरीका चले गये। तत्पश्चात् होनोलूलू के समुद्र तट पर एक गुफा में रहकर आदि शंकराचार्य, काण्ट, हीगल व कार्ल मार्क्स आदि का अध्ययन करने लगे। भाई परमानन्द के कहने पर इन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन पर कई व्याख्यान दिए। अमरीकी बुद्धिजीवी इन्हें हिन्दू संत, ऋषि एवं स्वतन्त्रता सेनानी कहा करते थे। आप 1912 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन तथा संस्कृत के ऑनरेरी प्रोफेसर नियुक्त हुए। वहीं रहते हुए आपने गदर पत्रिका निकालनी प्रारम्भ की। पत्रिका ने अपना रँग दिखाना प्रारम्भ ही किया था कि जर्मनी और इंग्लैण्ड में भयंकर युद्ध छिड़ गया। लाला जी ने विदेश में रह रहे सिक्खों को स्वदेश लौटने के लिये प्रेरित किया। इसके लिये वे स्थान-स्थान पर जाकर प्रवासी भारतीय सिक्खों में ओजस्वी व्याख्यान दिया करते थे। आपके उन व्याख्यानों के प्रभाव से ही लगभग दस हजार पंजाबी सिक्ख भारत लौटे। कितने ही रास्ते में गोली से उड़ा दिये गये। जिन्होंने भी देश के लिए स्वतंत्रता के लिए प्रदर्शन किया, वे सूली पर चढ़ा दिये गये। लाला हरदयाल ने उधर अमरीका में और भाई परमानन्द ने इधर भारत में क्रान्ति की अग्नि को प्रचण्ड किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि दोनों ही गिरफ्तार कर लिये गये। भाई परमानन्द को पहले फाँसी का दण्ड सुनाया गया, बाद में उसे काला पानी की सजा में बदल दिया गया , परन्तु हरदयाल जी अपने बुद्धि-कौशल्य से अचानक स्विट्ज़रलैण्ड खिसक गये और जर्मनी के साथ मिल कर भारत को स्वतन्त्र करने के यत्न करने लगे। महायुद्ध के उत्तर भाग में जब जर्मनी हारने लगा , तो लाला जी वहाँ से चुपचाप स्वीडन चले गये। उन्होंने वहाँ की भाषा आनन-फानन में सीख ली और स्विस भाषा में ही इतिहास, संगीत, दर्शन आदि पर व्याख्यान देने लगे। उस समय तक वे विश्व की तेरह भाषाएं पूरी तरह सीख चुके थे।
लाला जी को सन् 1927 में भारत लाने के सारे प्रयास जब असफल हो गये तो उन्होंने इंग्लैण्ड में ही रहने का मन बनाया और वहीं रहते हुए डॉक्ट्रिन्स ऑफ बोधिसत्व नामक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी , जिस पर उन्हें लंदन विश्वविद्यालय ने पीएच०डी० की उपाधि प्रदान की। बाद में लन्दन से ही उनकी कालजयी कृति ‘हिंट्स फार सेल्फ कल्चर’ प्रकाशित हुई, जिसे पढ़कर लगता है कि लाला हरदयाल जी की विद्वत्ता अथाह थी। अन्तिम पुस्तक ‘ट्वेल्व रिलीजन्स ऐण्ड मॉर्डन लाइफ’ में उन्होंने मानवता पर विशेष बल दिया। मानवता को अपना धर्म मान कर उन्होंने लन्दन में ही आधुनिक संस्कृति संस्था भी स्थापित की। तत्कालीन ब्रिटिश भारत की सरकार ने उन्हें सन् 1938 में हिन्दुस्तान लौटने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही उन्होंने स्वदेश लौटकर जीवन को देशोत्थान में लगाने का निश्चय किया।
हिन्दुस्तान के लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि लाला जी स्वदेश आयेंगे भी या नहीं, किन्तु इस देश के दुर्भाग्य से लाला जी के शरीर में अवस्थित उस महान आत्मा ने फिलाडेल्फिया में 4 मार्च 1938 को अपने उस शरीर को स्वयं ही त्याग दिया। लाला जी जीवित रहते हुए भारत नहीं लौट सके। उनकी अकस्मात् मृत्यु ने सभी देशभक्तों को असमंजस में डाल दिया। तरह-तरह की अटकलें लगायी जाने लगीं। परन्तु उनके बचपन के मित्र लाला हनुमन्त सहाय जब तक जीवित रहे बराबर यही कहते रहे कि हरदयाल की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी, उन्हें विष देकर मारा गया।
ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी, लेखक, पत्रकार, विद्वान को हम शत- शत- नमन, नमन और वंदन करते हैं , जिन्होंने देश को स्वतंत्रता दिलवाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज हम सभी को ऐसे महान आत्मा के आदर्शों को अपनाकर देश के हित में कार्य करने चाहिए। देश को कमजोर करने वालों को उचित प्रतिउत्तर देना चाहिए , ताकि वे देश को जातियों , धर्मों में फूट डलवाकर देश को कमजोर नहीं करें।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बढ़ता है शोभाधन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 209 ☆बढ़ता है शोभाधन… ☆
कर्म के महत्व को ज्ञानी विज्ञानी सभी ने स्वीकार किया है। सच्चाई ये है कि कोई ध्यान योग, कोई कर्म योग तो कोई भोग विलास के साधक बन जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
जो कर्मवान है उसकी उपयोगिता तभी तक है जब तक उसका कार्य पसंद आ रहा है जैसे ही वो अनुपयोगी हुआ उसमें तरह-तरह के दोष नज़र आने लगते हैं।
बातों ही बातों में एक कर्मवान व्यक्ति की कहानी याद आ गयी जो सबसे कार्य लेने में बहुत चतुर था परन्तु किसी का भी कार्य करना हो तो बिना लिहाज मना कर देता अब धीरे – धीरे सभी लोग दबी जबान से उसका विरोध करने लगे, जो स्वामिभक्त लोग थे वे भी उसके अवसरवादी प्रवृत्ति से नाखुश रहते ।
एक दिन बड़े जोरों की बरसात हुई कर्मयोगी का सब कुछ बाढ़ की चपेट में बर्बाद हो गया। अब वो जहाँ भी जाता उसे ज्ञानी ही मिल रहे थे, लोग सच ही कहते हैं जब वक्त बदलता है तो सबसे पहले वही बदलते हैं जिन पर सबसे ज्यादा विश्वास हो। किसी ने उसकी मदद नहीं कि वो वहीं उदास होकर अपने द्वारा किये आज तक के कार्यों को याद करने लगा कि किस तरह वो भी ऐसा ही करता था, इतनी चालाकी और सफाई से कि किसी को कानों कान खबर भी न होती।
पर कहते हैं न कि जब ऊपर वाले कि लाठी पड़ती है तो आवाज़ नहीं होती। दूध का दूध पानी का पानी अलग हो जाता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – इंटरनेट ने दुनियां को नए सोपान दिए हैं।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 295 ☆
आलेख – इंटरनेट ने दुनियां को नए सोपान दिए हैं… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
एक अप्रचलित अपेक्षाकृत सर्वथा नई तकनीक है इंटरनेट रेडियो। इस को ऑनलाइन रेडियो, वेब रेडियो, नेट रेडियो, स्ट्रीमिंग रेडियो, ई-रेडियो और आईपी रेडियो के नाम से भी जाना जाता है।
यह इंटरनेट के ज़रिए प्रसारित होने वाली एक डिजिटल ऑडियो सेवा है। इसलिए इसकी आवाज बहुत साफ होती है। त्वरित प्रसारण विधा है। इंटरनेट पर प्रसारण को आमतौर पर वेबकास्टिंग के रूप में संदर्भित किया जाता है क्योंकि इसे व्यापक रूप से वायरलेस माध्यम से प्रसारित नहीं किया जाता है। इसे या तो इंटरनेट के माध्यम से चलने वाले एक स्टैंड-अलोन डिवाइस के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, या एक कंप्यूटर के माध्यम से चलने वाले सॉफ़्टवेयर के रूप में उपयोग किया जाता है। यह पॉडकास्ट से भिन्न होता है, क्योंकि इसकी रिकॉर्डिंग सदैव सुलभ नहीं होती।
इंटरनेट रेडियो का उपयोग आम तौर पर आवाज के माध्यम से संचार और आसानी से संदेश प्रसारण के लिए किया जाता है। इसे एक वायरलेस संचार नेटवर्क के माध्यम से प्रसारित किया जाता है जो इंटरनेट से जुड़ा होता है।
इंटरनेट रेडियो में स्ट्रीमिंग मीडिया शामिल है, जो श्रोताओं को ऑडियो की एक सतत स्ट्रीम प्रदान करता है जिसे आम तौर पर यू ट्यूब के समान फिर से नहीं चलाया जा सकता। यह बिल्कुल पारंपरिक प्रसारण रेडियो मीडिया की तरह होता है, अंतर यह होता है कि इंटरनेट से जुड़े होने के कारण इंटरनेट रेडियो डाउन लोडिंग द्वारा कहीं भी सुना जा सकता है।
इंटरनेट रेडियो सेवाएँ समाचार, खेल, बातचीत और संगीत की विभिन्न शैलियाँ प्रदान कर रही हैं – हर वह प्रारूप जो पारंपरिक प्रसारण रेडियो स्टेशनों पर उपलब्ध है। इंटरनेट रेडियो पर भी धीरे धीरे सुलभ हो रहा है।
स्टार्ट-अप हेतु यह बिल्कुल नायाब नया आइडिया है। कम लागत में विज्ञापन द्वारा बड़ी कमाई का साधन बन सकता है। इसके लिए कोई लाइसेंस वांछित नहीं है।
पहली इंटरनेट रेडियो सेवा 1993 में शुरू की गई थी। 2017 तक, दुनिया में सबसे लोकप्रिय इंटरनेट रेडियो प्लेटफ़ॉर्म और एप्लिकेशन में ट्यूनइन रेडियो, आईहार्टरेडियो और सिरियस एक्सएम शामिल हैं।
जयपुर से बॉक्स एफ एम नाम से एक इंटरनेट रेडियो शुरू किया गया है। इसमें अत्यंत उत्कृष्ट साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। श्री प्रभात गोस्वामी जी इसमें व्यंग्य के रंग नाम से व्यंग्य केंद्रित लोकप्रिय अद्भुत आयोजन प्रत्येक बुधवार को शाम 4 से 5 बजे तक प्रस्तुत करते हैं।
7 अगस्त को मुझे इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था।
आप भी www.boxfm.co.in जैसे इंटरनेट रेडियो एप के द्वारा मोबाइल पर नवीन टेलेकास्ट किए गए प्रोग्राम सुन सकते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पालना (Cradle)…“।)
अभी अभी # 445 ⇒ पालना (Cradle)… श्री प्रदीप शर्मा
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥
माता यशोदा कहां जानती है, जिस नंद के लाल को वह पालने में झुला रही है, वे संसार को पालने वाले पालनहार और तारनहार साक्षात योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं।
पालने को पलना भी कहा जाता है। मां की गोद से और मां के आंचल से बड़ा दुनिया का कोई पलना नहीं। पालने का एक अर्थ पालन पोषण करना भी होता है। इसी मां का पेट कभी बालक के लिए एक ऐसा पालना होता है, जिसमें वह जीव जन्म के पहले ही, लगातार नौ महीने तक आराम से खाता पीता, और पुष्ट होता रहता है।
पहले मां के पेट में पलना और जन्म के बाद पालने में माता यशोदा की लोरी सुनना। ।
एक मां के लिए उसका बालक किसी कृष्ण से कम नहीं, और हर बालक के लिए उसकी मां ही यशोदा है। हर बच्चा पलने में पलकर ही बड़ा होता है।
आजकल यह काम तो आया और घर की मेड भी कर लेती है। बच्चा झूले में सो रहा है, मां दफ्तर में काम करने गई है।
पाल पोसकर जब हमें बड़ा किया जाता है, तो हम खुद ही बगीचे में झूला झूलने लग जाते हैं। पालने का सुख हमें झूले में मिलने लगता है। पालने में पले बच्चे को आप झूले से कैसे दूर रख सकते हैं। गुजरात में आपको हर घर में एक झूला मिलेगा, जिसमें बड़े बूढ़ सभी, अवकाश के पलों में, पालने का सुख लेते नजर आएंगे। ।
एक मां अपने बच्चे को कितने कष्ट से पालती है। मजदूरों के बच्चे भी पालने में झूलते हैं। उनकी माएं, मजदूरी करते करते, किसी पेड़ की छांव में, अपनी साड़ी से ही झूला तैयार कर, उसमें बच्चे को सुला, काम करती रहती हैं। मां वसुन्धरा इतनी दयावान और कृपालु है कि किसी मां को मातृत्व सुख से वंचित नहीं रखती, और हर बालक के जीवन में मां का प्यार और आंचल की छांव सुरक्षित है।
हरी भरी हमारी वसुंधरा क्या किसी मां से कम है। जगत माता और परम पिता ही सारी सृष्टि में व्याप्त हैं। कोई बालक अनाथ नहीं। सर पर आशा का आसमान, उसकी हरी भरी गोद और मंद मंद समीर क्या किसी पालने से कम है। उसका पालना बहुत बड़ा है और उसकी गोद में सभी ऋषि, मुनि, सन्यासी और गृहस्थ दिन रात खेलते रहते हैं ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आया साजन झूम के…“।)
अभी अभी # 444 ⇒ आया साजन झूम के… श्री प्रदीप शर्मा
क्या बात है, क्या इस बार सावन के महीने में यह उदासी क्यों, क्या इस बार सावन नहीं आया। नहीं आया तो है, लेकिन हर बार की तरह उमड़ घुमड़कर, जोर शोर से और झूमकर नहीं आया। बड़ा परेशान सा, उमस और पसीने से नहाया सा लगता है। उधर कुछ पसीने की बूंदें टपकती हैं, और लोग उसे ही सावन की बूंदाबांदी समझ लेते है और सावन के गीत गाना शुरू कर देते हैं।
क्या बात करते हो, कहीं कहीं तो सड़कों पर नाव चल रही है, लोग झूमकर नहीं, तैरकर सड़क पार कर रहे हैं, कहीं बादल फट रहे हैं और कहीं धरती फट रही है। वहां तो सावन, साजन की तरह नशे में धुत होकर झूम रहा है और इधर आपको सावन से इसलिए शिकायत है, कि सावन झूम नहीं रहा है। ।
ये सावन और साजन की भी गजब की जुगलबंदी है, उधर सावन झूमता है, इधर साजन नशे में झूमता है। सजनी को अगर सावन और साजन एक साथ मिल जाए, तो वह भी झूम उठती है ;
पड़ गए झूले
सावन रुत आई रे
सीने में हूक उठे
अल्लाह दुहाई रे …
मौसम की मस्ती का मज़ा कुछ अलग ही होता है। सावन का महीना आस और प्यास का है। अगर इस मौसम में भी सावन नहीं झूमे, तो कब झूमेगा। सूरज ने निकलना छोड़ दिया है, यानी उसने सावन के लिए आसमान साफ कर दिया है। लेकिन सावन के बादलों की स्थिति ऐसी है, मेरे साथी खाली जाम। वह कैसे छलकाए जाम। बेचारा प्यासा सावन।
आजकल बच्चा बच्चा जानता है, सावन आग लगाता भी है और फिर बुझाता भी वही है। उधर विरहिणी के नैना सावन भादो हो रहे हैं, और इधर सावन सूखा जा रहा है। सावन तो झूम नहीं रहा है, और उधर साजन झूमते हुए, यह गीत गाते चले आ रहे हैं ;
सावन के महीने में
एक आग सी सीने में
लगती है तो पी लेता हूं
दो चार घड़ी जी लेता हूं …
हे इंद्रदेव, सावन की आग बुझाओ, सबको दो घड़ी जी लेने दो, अमृत वर्षा करो, सबको पीकर तृप्त हो लेने दो। सजनी सावन की झड़ी में झूमने लगे, और साजन का नशा हिरन हो जाए और वह भी कह उठे,
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “योगदान (Contributuon)…“।)
अभी अभी # 444 ⇒ योगदान (Contributuon)… श्री प्रदीप शर्मा
देश की आजादी में भले ही हमारा योगदान ना रहा हो, लेकिन देश को आगे बढ़ाने में तो हर नागरिक का कुछ ना कुछ योगदान रहता ही है। योगदान स्वैच्छिक और नजर भी आ सकता है और परोक्ष अथवा अनिवार्य भी।
हमारा सरकार को कर चुकाना दायित्व भी है और योगदान भी। मतदान भी एक तरह से लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में आपका योगदान ही तो है।
चूंकि यह शब्द संज्ञा है, अत: योगदान के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। ऐसा प्रतीत होता है, योगदान दो शब्दों से मिलकर बना है, जिनका अपने आप में स्वतंत्र अर्थ है। योग एवं दान। यानी किसी भी तरह के दान में आपकी ओर से भी कुछ जोड़ा जाए अथवा मिलाया जाए। योग जोड़ने अथवा मिलाने को ही तो कहते हैं। अनुदान अथवा अंशदान भी तो योगदान में ही आते हैं। वैसे अनुदान स्वीकार करने में आपकी पात्रता देखी जाती है, इसमें आपका कैसा योगदान।।
अगर वास्तव में योगदान की बात करें तो हमसे अधिक योगदान तो इस संसार में पेड़ पौधों, वनस्पतियों, नदी नालों, सूरज चंदा और पशु पक्षियों का है। पांच में से एक तत्व की भी कमी हुई और हमारी हालत खराब। पेड़ पौधे अगर ऑक्सीजन नहीं छोड़ें और कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण नहीं करें, तो हमारा तो सांस लेना ही दूभर हो जाए।
इसे भी योग ही कहेंगे कि हमारी नजर एक और ऐसे ही शब्द पर पड़ गई जो योगदान से मिलता जुलता है। आप चाहें तो दोनों को एक दूसरे का पूरक भी कह सकते हैं। वहां दान की नहीं, सहयोग की भावना है।।
क्या सहयोग और योगदान में आपको कुछ समानता नज़र आती है। आपका सहयोग ही तो आपका योगदान है। बस दोनों में केवल इतना अंतर है कि सहयोग पूरी तरह स्वैच्छिक होता है। और तो और आजादी के पहले, अंग्रेजों के खिलाफ किया गया असहयोग आंदोलन भी पूरी तरह स्वैच्छिक ही था लेकिन उसमें लोगों का योगदान जबर्दस्त था।
सहयोग का अर्थ दो या अधिक व्यक्तियों या संस्थाओं का मिलकर काम करना है। सहयोग की प्रक्रिया में ज्ञान का बारंबार तथा सभी दिशाओं में आदान-प्रदान होता है। यह एक समान लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में उठाया गया बुद्धि विषयक कार्य है। यह जरूरी नहीं है कि सहयोग के लिये नेतृत्व की आवश्यकता हो।।
साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जाएगा
मिलकर बोझ उठाना ….
आपका सहयोग ही तो आपका योगदान है। सबसे बड़ा योग सहयोग ही है और सबसे बड़ा दान, उस दिशा में आपका योगदान।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 96 ☆ देश-परदेश – अनुशासनहीनता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
एक पुराना गीत “सारे नियम तोड़ दो” हमारे देशवासियों का प्रिय गीत हैं। हमारे कर्म भी तो वैसे ही हैं। कोई भी धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि कार्य में नियमों को तोड़ना हमारी फितरत में हैं। हमारी रगों में बहता खून भी नियम तोड़ कर रक्त दबाव बढ़ता रहता हैं। आप यादि नियम से रहेंगे तो खून भी नियमित होकर बह सकता हैं।
बचपन में घर से दो पेंसिल लेकर जाते बच्चे को मां ये कहती है, कोई दूसरा बच्चा यादि पेंसिल मांगे तो कह देना मेरे पास एक ही है। माता पिता बच्चे के साथ होटल में खाना खा कर आने के बाद घर में आकर कोई और बहाना बना देते हैं। बच्चा भी झूठ बोलने की कला सीख लेता हैं।
युवा बच्चे को बिना लाइसेंस वाहन चलाने के लिए प्रेरित कर यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ाना सिखा देते हैं। पिता लाल बत्ती नियम का खुलम खुल्ला उलंघन करते हुए, बचपन में ही बच्चों को नियम तोड़ने की कला में महारत बनने की प्रेरणा दे देता हैं।
यौवन की दहलीज पार करते ही सरकारी कार्यालय में गलत कार्यों के लिए रिश्वत देना/ लेना को जीवन की एक अनौपचारिकता का नाम देकर अपना लिया जाता हैं।
पेरिस ओलंपिक में एक महिला पहलवान सुश्री अंतिम पंगल ने अपनी बहन को नियम विरुद्ध अपने कार्ड से उसको “सिर्फ खिलाड़ियों” के लिए निर्धारित स्थान पर ले जाने का प्रयास किया और पकड़ी गई हैं। उनके निजी सहायक भी नशे की हालत में टैक्सी वाले से वाद विवाद कर चर्चा में हैं।
ओलंपिक नियम के अनुसार तुरंत पेरिस से निष्कासित कर दिया गया हैं। तीन वर्ष का प्रतिबंध भी संभव हैं। इससे पूर्व भी एक अन्य पहलवान सुश्री विनेश पोगट ने भी अपने भाई को उसकी कुश्ती के समय विशेष अनुमति की मांग करी थी।
मांग तो पंजाब के मुख्य मंत्री ने भी की थी, वो पेरिस जायेंगे तो हॉकी टीम का मनोबल बढ़ा सकेंगे। हॉकी टीम में अधिकतर खिलाड़ी पंजाबी भाषा वाले ही हैं, यादि पंजाब के मुख्य मंत्री वहां चले जाते, तो हो सकता है, हॉकी का गोल्ड मेडल हमारी झोली में होता। उन्होंने तो विनेश को भी वज़न कम करने के लिए मूढ़ मुड़वाने की सलाह भी दी हैं। यादि वो पेरिस गए हुए होते तो विनेश को और भी ज्ञानवर्धन कर देते।
अब आप सब भी तो दिन भर व्हाट्स ऐप खोल खोल कर देखते रहते है, कोई समय निर्धारित कर लेवें, इसलिए हम सब भी तो अनुशासनहीन श्रेणी में ही आते हैं। खेलों के मेडल हो या जिंदगी की जंग हो सभी अनुशासन से ही संभव हो सकता हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “षड्यंत्र की बू…“।)
अभी अभी # 443 ⇒ षड्यंत्र की बू … श्री प्रदीप शर्मा
ईश्वर ने हमें सोचने के लिए दिमाग, अच्छा बुरा देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और सूंघने के लिए एक नाक भी दी है।
हमारे सेंस ऑफ ह्यूमर की तरह ही हमारी सेंस ऑफ स्मेल यानी घ्राण शक्ति भी गज़ब की है। खुशबू बदबू की अच्छी पहचान तो हमें बचपन से है ही, हमारी पाक साफ नाक पर कभी कोई गंदी मक्खी भी नहीं बैठ सकती, और अगर कभी बैठी भी हो, तो वह यकीनन, मधुमक्खी ही होगी ;
हर हसीं चीज़ का मैं तलब्गार हूँ।
रस का फूलों का गीतों का बीमार हूँ।
कहने का मतलब यह कि- हम खुशबू और बदबू में आसानी से अंतर पहचान लेते हैं। दुनिया ओ दुनिया, तेरा जवाब नहीं। फूलों की खुशबू से किसे परेशानी होगी लेकिन कृत्रिम खुशबू हमारी पसंद नहीं। जो स्वाद के शौकीन हैं, उन्हें तो प्याज लहसुन में भी खुशबू नजर आती है।
लेकिन माफ करें, बदबू तो बदबू होती है।।
क्या कभी आपको नेकी में खुशबू नजर आई। अगर नेकी में खुशबू होती तो क्या लोग उसे दरिया में डालते। लेकिन हम तो सूंघकर ही समझ जाते हैं, आज रसोई में क्या पक रहा है। सराफे की गर्गागर्म सेंव और खौलती कढ़ाई में तैरते कचोरी समोसे की खुशबू राजवाड़े तक फैल जाती है। लेकिन अगर आपके आसपास कहीं ट्रेंचिंग ग्राउंड है, तो समझिए आपकी नाक कट गई।
सभी जानते हैं, बद अच्छा बदनाम बुरा की तरह ही, बू तो ठीक है, लेकिन बदबू बहुत बुरी है। हमने भी इस पहाड़ जैसी जिंदगी में कई तरह की बदबूएं झेली हैं, हमारी हालत क्या हुई होगी, केवल हम और हमारी नाक ही जानती है, फिर भी हमें आज तक किसी षड्यंत्र की बू नहीं आई।।
बू शब्द को आप गंध भी कह सकते हैं। गैस पर रखा दूध भी जल सकता है और सब्जी भी। जलने की भी एक गंध होती है, जिसे आप बू कह सकते हैं। केवल एक इंसान ही ऐसा है, जो ऊपर से तो शांत नजर आता है, लेकिन अंदर से पूरी तरह जल भुन जाता है। पारखी लोग पहचान ही लेते हैं, यह आग कहां कहां लगी है। आओ, थोड़ा और हवा दे दें। जली अच्छी जली।
बात षडयंत्र की बू की हो रही है। हमारी नाक इसके बारे में मौन है। वह इस मामले में अनावश्यक नहीं घुसना चाहती। उसे आज तक कभी किसी षडयंत्र की बू नहीं आई। हां कान जरूर यह कबूल करते हैं कि उन्हें इसकी भनक जरूर हुई थी।।
नाक का काम सूंघना है, चाहे खुशबू हो या बदबू, अनावश्यक अफवाहें फैलाना नहीं। इस काम के लिए ईश्वर ने आपको जुबां दी है, लगाओ जितना नमक मिर्ची लगाना हो, लेकिन आय विल नेवर पोक माय नोज इन दीज़ अफेअर्स। यानी इन मामलों में, मैं कभी व्यर्थ ही अपनी नाक नहीं घुसेड़ूंगा। जय हिंद !