हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 44 ☆ सत्य की महिमा अपरम्पार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  जीवन में सत्य की महत्ता को उजागर करता एकआलेख सत्य की महिमा अपरम्पार ।   इस आलेख का  सार उनके वाक्य  “सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है”में ही निहित है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 44 ☆

☆ सत्य की महिमा अपरम्पार

 

‘जीवन में कभी भी अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो, क्योंकि समय के साथ सत्य सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है’… कितना गहन सत्य अथवा रहस्य छिपा है, इस तथ्य में… पूर्ण जीवन-दर्शन उजागर करता है यह वाक्य कि सत्य कठोर होता है, जिस पर कोई भी आसानी से विश्वास नहीं करता। सत्य, शिव व कल्याणकारी होता है, भले ही उसे सब के समक्ष प्रकट होने में समय लग जाए, परंतु एक दिन उस रहस्य की खबर सबको लग जाती है और वह किस्सा आम हो जाता है। इस स्थिति में वह लोगों को भ्रमित होने से बचा लेता है।

‘इसीलिए यह कहा जाता है कि जीवन में अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो’ क्योंकि यदि मानव अपने कृत-कर्म, भले ही वे सत्य हों, यथार्थ से पूर्ण हों, मंगलकारी हों…से दूसरों को अवगत कराता है, तो वह आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा व स्वयं का गुणगान कहलाता है। अक्सर ऐसे लोगों की आलोचना तो होती ही है और वे उपहास के पात्र भी बन जाते हैं। इस से भी अधिक घातक है, दूसरों की हक़ीक़त को बयान करना, जिसे लोग अहंनिष्ठता अथवा आलोचना की संज्ञा देते हैं। शायद इसीलिए शास्त्रों में पर-निंदा से बचने का सार्थक संदेश दिया गया है, जो बहुत ही उपयोगी है, कारग़र है। कबीरदास जी ने निंदक की महिमा को इस प्रकार शब्दबद्ध किया है, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छुवाय/ बिनु साबुन,पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।’ अर्थात् निंदक वह निर्भय व नि:स्वार्थ प्राणी है, जो अपना सारा सारा समय व शक्ति लगा कर, आपको आपके व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराता है…आईना दिखाता है…दोषों से अवगत कराता है और उसके सद्प्रयासों से मानव का स्वभाव साबुन व पानी के बिना ही निर्मल हो जाता है। धन्य हैं ऐसे लोग, जो अपनी उपेक्षा तथा दूसरों के मंगल की सर्वाधिक कामना करते हैं। उनका सारा ध्यान अपने हित पर नहीं, आपके दोषों पर केंद्रित होता है और वे आपको गलतियों व अवगुणों से अवगत करा, उचित राह पर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को सदैव निकट रखना चाहिए, क्योंकि वे  सदैव पर-हितार्थ, निष्काम सेवा में रत रहते  हैं।

कितना विरोधाभास है…दूसरे के दोषों का बखान करने का संदेश, जहां हमें चिंतन-मनन की प्रेरणा देता है; आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि पर-निंदा को मानव का सबसे बड़ा दोष व अवगुण स्वीकारा गया है। इससे मानव की संचित शक्ति व ऊर्जा का ह्रास होता है। सो! इस संदर्भ में हमें सिक्के के दोनों पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। प्रथम है…अपनी ईमानदारी व कृत-कर्मों का बखान करना…यह आत्म-प्रवंचना रूपी दोष कहलाता है। अक्सर लोग ऐसे पात्रों को उपहासास्पद समझ उनकी आलोचना करते हैं। परंतु यह कथन सर्वथा सत्य है कि यदि आपने कुछ ग़लत किया ही नहीं, फिर स्पष्टीकरण कैसा? सत्य तो देर-सवेर सामने आ ही जाता है। हां! इसकी समय- सीमा निर्धारित नहीं होती है।

सो! सत्य कभी भी उपेक्षित नहीं होता। उदाहरणतया स्नेह, प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय भाव शाश्वत हैं… जो कल भी सत्य थे, उपास्य थे, मांगलिक थे, सर्वमान्य थे… आज भी हैं और कल भी रहेंगे। ये काल-सीमा से परे हैं। इसी प्रकार झूठ, हिंसा, मार-पीट, लूट-खसोट, फ़िरौती, पर-निंदा आदि भाव कल भी त्याज्य व निंदनीय थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। इससे सिद्ध होता है कि सत्य कालातीत है; सत्य की महिमा अपरंपार है और सत्य सदैव शक्तिशाली है। इसलिए हम कहते हैं, ‘सत्यमेव जयते’ कि ‘सत्य शिव है, सुंदर है, मंगलकारी है और संसार में सदैव विजयी होता है। वह कभी भी उपेक्षित नहीं होता और सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है।’ इसे स्वीकारने- साधने की शक्तियां, जिस शख्स में भी होती हैं, वह सदैव अप्रत्याशित बाधाओं, विपत्तियों व आपदाओं के सिर पर पांव रख कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करता है और सहजता से आकाश की बुलंदियों को छू सकता है।

समय परिवर्तनशील है, कभी ठहरता नहीं। सृष्टि का क्रम निरंतर, निर्बाध चलता रहता है, जिसे देख कर मानव अवाक् अथवा अचम्भित रह जाता है। ‘दिन- रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ- साथ/ फूल और पात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को मिलता नहीं सुकून/ ग़र साथ हो सुरों का/नग़मात बदलते हैं।’ जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात, अमावस के पश्चात् पूनम व समयानुसार ऋतु-परिवर्तन होना निश्चित है, उसी प्रकार समय के साथ मानव की मन:स्थिति में परिवर्तन भी अवश्यंभावी है। सो! मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। सो! जीवन में ऐसे पल भी अवश्य आते हैं, जब मानव हताश-निराश होकर औचित्य-अनौचित्य का भेद त्याग व परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को नकार, निराशा रूपी अंधकार के गर्त में धंसता चला जाता है और एक अंतराल के पश्चात् अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है, जहां उसे सब अपने भी पराए नज़र आते हैं। इस मन:स्थिति में एक दिन वह उन तथाकथित अपनों से  किनारा कर, अपना अलग – थलग जहान बसा लेता है। कई बार परिस्थितियां इतनी भीषण व भयंकर हो जाती हैं कि उधेड़बुन में खोया इंसान, ज़माने भर की रुसवाइयों को झेलता, व्यंग्य-बाण सहन करने में स्वयं को असमर्थ पाकर सुधबुध खो बैठता है और अपने जीवन का अंत कर लेना चाहता है। उसे यह संसार व भौतिक संबंध मिथ्या भासते हैं और वह माया के इस जंजाल से स्वयं को  मुक्त नहीं कर पाता कि ‘जब उसने कुछ गलत किया ही नहीं, तो उस पर दोषारोपण क्यों?’

यदि हम सिक्के के दूसरे पक्ष का अवलोकन करें, तो यह सत्य प्रतीत होता है…फिर निरपराधी को सज़ा क्यों? उस ऊहापोह की स्थिति में वह भूल जाता है कि सत्य शक्तिशाली होता है; प्रभावी होता है; सात परदों को भेद सबके सम्मुख अवश्य प्रकट हो ही जाता है। हां! इसकी एकमात्र शर्त है– सृष्टि-नियंता व मानवता में अटूट-अथाह व असीम-बेपनाह विश्वास …क्योंकि उसकी अदालत में देर है, अंधेर नहीं तथा वह सबको उनके कर्मों के अनुसार ही फल देता है। यह विधि का विधान है कि मानव को समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कभी भी, कुछ भी नहीं मिल सकता। सब्र व संतोष का फल सदैव मीठा होता है और उतावलेपन में कृत-कर्म कभी फलदायी नहीं होता। सो! सबसे बड़ा दोष…मानव की संशय,   अनिर्णय व असमंजस की स्थिति है, जहां उसे सावन के अंधे की भांति सर्वत्र हरा ही हरा दिखाई पड़ता है

सो! मानव को परमात्म-सत्ता पर विश्वास रखते हुए सदैव आशावादी होना चाहिए, क्योंकि आशा जीवन में साहस, उत्साह व धैर्य संचरित करती है;  जिसका दारोमदार सकारात्मक सोच पर है। आइए! व्यर्थ की सोच व नकारात्मकता को अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकें। अपनी आंतरिक शक्तियों व ऊर्जा को अनुभव कर जीवन का निष्पक्ष व निरपेक्ष भाव से आकलन करें तथा उसे निष्कंटक समझ, सहज रूप से स्वीकारें। परनिंदा से कभी भी विचलित हो कर अपना जीवन नरक न बनाएं, बल्कि उसे स्वर्ग बनाने का हर संभव प्रयास करें…क्योंकि निराश व अवसाद -ग्रस्त व्यक्ति के साथ कोई पल-भर का समय भी व्यतीत करना पसंद नहीं करता …सब उससे ग़ुरेज़ करते हैं, दूरी बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी ओर प्रसन्न-चित्त व्यक्ति सदैव मुस्कुराता रहता है; महफ़िलों की शोभा होता है, सब उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते तथा उसका सान्निध्य पाकर स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं।

अन्त मैं यही कहना चाहूंगी कि सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है। प्रारंभ में भले ही लोग उस पर विश्वास न करें, परंतु एक अंतराल के पश्चात् सच्चाई सबके सम्मुख प्रकट हो जाती है और विरोधी पक्ष के लोग भी उसके मुरीद हो जाते हैं। सब यही कहते हैं ‘बेचारा समय की मार झेल रहा था, जबकि वह निर्दोष था… व्यवस्था का शिकार था। कितना धैर्य दिखाया था, उसने आपदा-विपदा के समय में…उसने न तो किसी पर अंगुली नहीं उठाई और न ही स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे पर इल्ज़ाम लगाया व दोषारोपण किया।’ ऐसे लोग वास्तव में महान् होते हैं, जिनकी महात्मा बुद्ध, महावीर वर्द्धमान व अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के रूप में श्रद्धा-पूर्वक उपासना-आराधना होती है और वे युग-पुरुष बन जाते हैं; विश्व-विख्यात व विश्व-वंदनीय बन जाते हैं। आइए! हम भी उपरोक्त गुणों को आत्मसात् कर सर्वांगीण विकास करें तथा अपने व्यक्तित्व को सर्व-स्वीकार्य व चिर-स्मरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 26 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर हम आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास  कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का चतुर्थ एवं अंतिम आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 26 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 4

जब डाक्टर आम्बेडकर दलितों के लिए संघर्ष कर रहे थे तब उनका प्रभाव क्षेत्र वर्तमान  महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश का कुछ भू-भाग था। महाराष्ट्र की राजनीति में ब्राह्मणों का अच्छा वर्चस्व था और तब तक नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना भी हो चुकी थी। लेकिन डाक्टर आम्बेडकर को किसी भी रुढीवादी हिन्दू संगठन या बड़े  नेतृत्व का साथ उनके सत्यागृह व अछुतोद्दार आन्दोलन मे नहीं मिला। कतिपय ब्राह्मण मित्रों के अलावा, जिन्होंने डाक्टर आम्बेडकर के आह्वान पर दलितों का यज्ञोपवीत संस्कार किया, रत्नागिरी में नजरबन्द विनायक दामोदर उर्फ़ वीर  सावरकर ने उनका भरपूर साथ दिया। यद्दपि वीर सावरकर रत्नागिरी से बाहर नहीं जा सकते थे तथापि उन्होंने वहां अछूतों के लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना की और एक पृथक स्कूल खोलने का प्रस्ताव दिया जहाँ अछूतों के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। उन्होंने समय समय पर पत्राचार द्वारा डाक्टर आम्बेडकर के प्रयासों को पूर्ण समर्थन दिया तथा सनातनी हिन्दुओं को भी सामाजिक भेदभाव के लिए लताड़ा। वीर सावरकर की सहमति डाक्टर आम्बेडकर रोटी बेटी सम्बन्ध से भी थी। यद्दपि हिन्दू महासभा के अन्य नेता तथा घनश्यामदास बिडला सरीखे सनातनी हिन्दू अस्पृश्यता  को तो दूर करना चाहते थे पर दलितों के साथ रोटी बेटी सम्बन्ध को लेकर उन्हें आपत्ति थी। गांधीजी उस समय अंग्रेजों की अनेक कूटनीतिक चालों का अपने राजनीतिक अस्त्र सत्य और अहिंसा से जबाब दे रहे थे। मुसलमानों को राष्ट्रीय  आन्दोलन से जोड़ने के उनके प्रयासों की आलोचना की जा रही थी और उसे मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम दिया जा रहा था, दूसरी ओर युवा वर्ग, क्रांतिकारियों के विचारों की ओर आकर्षित होकर, हिंसा का रास्ता अपनाने उत्सुक हो रहा था। ऐसे समय में गांधीजी के सामने बड़ी विकट स्थिति थी वे हिन्दू समाज में संतुलन बनाए रखना चाहते थे साथ ही दलित समुदाय को अलग-थलग भी नहीं होने देना चाहते थे। गांधीजी की सौम्यता भरी नीतियों ने उस वक्त समाज को विघटन से बचाने में बड़ी मदद की।

जब 1937 में गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के तहत राज्य विधान मंडल के चुनाव हुए तो डाक्टर आम्बेडकर ने महाराष्ट्र में कांग्रेस के विरुद्ध अपने प्रत्याक्षी खड़े किये फलस्वरूप कांग्रेस वहाँ सबसे बड़े दल के रूप में तो चुनाव जीती पर उसे सरकार बनाने के लिए निर्दलीय विधायकों का साथ लेना पडा क्योंकि डाक्टर आम्बेडकर ने कांग्रेस के साथ सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था। इसी समय मोहमद अली जिन्ना ने मुसलमानों की पृथकतावादी मांगों को जोरशोर से उठाना शुरू कर दिया और उनके लिए अलग राष्ट्र की मांग की। इधर डाक्टर आम्बेडकर भी यदाकदा दलितों से हिन्दू धर्म त्यागने की बात करने लगे और मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्मों के लोग उनपर डोरे डालने लगे। इस दौरान डाक्टर आम्बेडकर को एक दो अवसर पर मुस्लिम लीग ने अपने कार्यक्रमों मे बुलाया और जब कांग्रेस ने आठ राज्यों के अपने मंत्रिमंडल को इस्तीफा देने का निर्देश नवम्बर 1939 में दिया तो मुस्लिम लीग ने इसे मुक्ति दिवस के रूप में मनाया। लीग के इस आयोजन में डाक्टर आम्बेडकर भी भाषण देने पहुंचे। आम जनता में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। उस दौरान जब गांधीजी और कांग्रेस लीग की पृथक राष्ट्र पाकिस्तान बनाने की मांग का विरोध करते हुए अखंड भारत पर जोर दे रहे थे तब डाक्टर आम्बेडकर ने 1940 में ‘थाट्स ऑन पाकिस्तान’ नामक पुस्तक लिखकर मुसलमानों की पृथक राष्ट्र संबंधी मांग का समर्थन कर दिया। जब देश में भारत छोड़ो आन्दोलन जोरों पर था तब भी डाक्टर आम्बेडकर ने इसमें अपनी भागीदारी न दिखाते हुए फ़ौज में दलितों की भर्ती का अभियान चलाया। इस प्रकार हम पाते हैं कि गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर की नीतियों और तरीकों में गंभीर मतभेद थे पर वे दोनों एक बात पर तो सहमत थे वह था अछूतोद्धार।

स्वराज प्राप्ति के बाद गांधीजी के अनुरोध पर ही संविधान सभा में डाक्टर आम्बेडकर को शामिल किया गया और इस प्रकार एक समता मूलक एवं लोकतांत्रिक  संविधान की रचना संभव हो सकी जिसका सपना महात्मा गांधी ने आज़ादी के पहले देखा था और जिसका वायदा उन्होंने डाक्टर आम्बेडकर से पूना पेक्ट के जरिये किया था। डाक्टर आम्बेडकर ने देश को उदार  राजनीतिक लोकतंत्र का संविधान दिया । उनके मतानुसार आर्थिक लोकतंत्र हांसिल करने के अनेक मार्ग यथा व्यक्तिवादी, समाजवादी, साम्यवादी हो सकते हैं, और किसी एक मार्ग का चयन समूह विशेष की तानाशाही का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, इसीलिए उन्होंने  अर्थनीति के निर्धारण का दायित्व चुनी हुई सरकार पर छोड़ा गया और प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया।   आम्बेडकर  संविधान निर्माण में भी कतिपय विषयों पर आम्बेडकर का गांधीवादियों से टकराव हुआ। आम्बेडकर एक शक्तिशाली केंद्र पर आश्रित व्यवस्था के समर्थक थे । डाक्टर आम्बेडकर मानते थे कि आवश्यकता से अधिक संघवाद पूरे देश में संविधान के समान रूप से क्रियान्वयन को अवरुद्ध करेगा और अस्पृश्यता समाप्ति  जैसे विषयों को अनेक राज्य लागू करने से मना कर देंगे। गांधीजी के समर्थक गाँव के स्तर तक सत्ता के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे वे नए संविधान में प्राचीन भारत के राजनय की झलक देखना चाहते थे और पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जगह नए संविधान को ग्राम पंचायतों और जिला पंचायतों की आधारशिला पर खडा करना चाहते थे। अंततः डाक्टर आम्बेडकर ने अपने तर्कों से आवश्यकता से अधिक संघवाद के प्रस्तावों को खारिज करवा दिया और इस प्रकार संविधान निर्माण में गांधीजी के ग्राम स्वराज संबंधी चिंतन की उपेक्षा हुई। आगे चलकर  प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण व पंचायती राज्य संबंधी संविधान संशोधन विभिन्न स्वरूपों में इंदिरा गांधी ,राजीव गांधी व नरसिम्हा राव  के प्रधानमंत्रित्व में पारित हुए। त्रिस्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था लागू करने  के प्रयास तो 1956 से ही शुरू हो गए थे पर इसे गति प्रदान की राजीव गांधी ने और अंततः 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से गांधीजी का पंचायती राज का सपना 1993 में लागू हुआ। डाक्टर आम्बेडकर ने गांधीवादियों के द्वारा दिए गए अन्य सुझाव जैसे शराब बंदी, ग्रामीण क्षेत्रों कुटीर उद्योगों की स्थापना, सहकारिता को प्रोत्साहन, गौवध  आदि विषयों को भी संविधान के मौलिक विषयों / अधिकारों की बजाय  नीति निर्देशक सिद्धांतों संबंधी अनुछेद में शामिल करवाया।इसके फलस्वरूप यह सभी बातें जो  गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का हिस्सा रही हैं वे समान रूप से सारे देश में लागू नही की जा सकीं एवं इन्हें संघ के राज्यों पर उचित कदम लेने हेतु अधिकृत कर दिया गया। चूँकि यह सभी बातें संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत वर्गीकृत की गई अत: नागरिकों के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं रहा जिससे वे संघ या राज्य पर इसे लागू करने हेतु संवैधानिक अधिकारों के तहत दावा कर सकें। कतिपय राज्यों ने इन नीति निर्देशक सिद्धांतों संबंधी अनुछेद का सहारा लेकर अपने अपने राज्यों में कुटीर उद्योग, सहकारिता, शराब बंदी आदि को सफलतापूर्वक लागू कर गांधीजी के सपनों को साकार किया। लघु एवं ग्रामोंद्योग को लेकर भी सरकारों ने अपने स्तर पर आधे अधूरे प्रयास किये और आपसी तालमेल के अभाव में वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो सके।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इन दोनों महापुरुषों में अस्पृश्यता को लेकर गहन मतभेद तो थे पर दोनों के प्रयास एक दूसरे के पूरक थे और उनके प्रयासों ने इन समस्या के निदान में महती भूमिका का निर्वहन किया।  यद्दपि डाक्टर आम्बेडकर ने अनेक बार कठोर रुख अपनाया और अपनी बात पर अडिग रहे तथापि उनके मन में महात्मा गांधी के प्रति श्रद्धा का भाव था और वे यह भलीभांति जानते थे कि देश हित में महात्मा गांधी का स्थान महत्वपूर्ण है। इसी भावना के वशीभूत होकर उन्होंने पूना पैक्ट को स्वीकार किया और इस प्रकार गांधीजी के प्राणों की रक्षा हो सकी। डाक्टर आम्बेडकर ने गांधीजी की, अस्पृश्यता के संबंधी विचारों का दोनों स्तर पर विरोध किया। डाक्टर आम्बेडकर  अस्पृश्यता को सामाजिक बुराई ही नहीं वरन अभिशाप भी मानते थे। वे गांधीजी की दलील से सहमत नहीं थे कि     अस्पृश्यता वर्ण व्यवस्था या जाति प्रथा के कारण नहीं है। उन्होंने गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत का भी इसी आधार पर विरोध किया और कहा कि जैसे सवर्ण अछूतों को उनके सामजिक अधिकारों से वंचित रखना चाहते हैं उसी प्रकार अमीर भी गरीबों को अपना धन कैसे दे सकते हैं। वे गांधीजी की इस बात से भी असहमत थे कि जाति प्रथा भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करती है और यह रोजगार की गारंटी भी देती है। महात्मा गांधी से उनके मतभेद संविधान निर्माण में भी परिलक्षित हुए हैं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्व पृथ्वी दिवस , विश्व पुस्तक दिवस और रमज़ान मुबारक ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल

श्री राकेश कुमार पालीवाल

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री राकेश कुमार पालीवाल जी  वर्तमान में महानिदेशक (आयकर), हैदराबाद के पद पर पदासीन हैं। गांधीवादी चिंतन के अतिरिक्त कई सुदूरवर्ती आदिवासी ग्रामों को आदर्श गांधीग्राम बनाने में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। आपने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें  ‘कस्तूरबा और गाँधी की चार्जशीट’ तथा ‘गांधी : जीवन और विचार’ प्रमुख हैं।

लॉक डाउन के इस सप्ताह में कोरोना के आंकड़ों के बीच कुछ दिन विशेष थे जो आये और चले गए।  हम आदरणीय श्री राकेश कुमार पालीवाल जी की  फेसबुक वाल से ऐसे ही तीन दिनों की स्मृतियाँ सजीव करने का प्रयास कर रहे हैं  – विश्व पृथ्वी दिवस , विश्व पुस्तक दिवस और  रमज़ान मुबारक )

☆ अर्थ डे (धरती दिवस) पर : दो पंक्ति मेरी भी ☆

सबसे पहले यह वैज्ञानिक सच कि हमारे सौर मंडल में कोई और ग्रह या किसी ग्रह का कोई ऐसा उपग्रह नहीं है जहां विविध जीवन रूपों के लिए इतनी अच्छा वातावरण है। अभी तक तो सौर मंडल के बाहर भी और कहीं जीवन के निशान नहीं मिले हैं इसलिए धरती ही इकलौती ऐसी जगह है जहां प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत खजाना होने।

हमने इस प्राकृतिक सौंदर्य को पिछले सौ साल में बहुत नष्ट भ्रष्ट किया है। इस सदी के महानतम वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंस धरती को अलविदा कहने से पहले हमें चेता कर गए हैं कि प्रकृति का विनाश करने की यही रफ्तार रही तो यह धरती मनुष्य का बोझ अगले पचास साल भी नहीं झेल पाएगी और मनुष्य के अस्तित्व पर ही खतरा खड़ा हो जाएगा।

सौ साल पहले गांधी ने हमें चेताया था कि यह धरती सारे मनुष्यों और जानवरों की आवश्यकता की पूर्ति करने में सक्षम है लेकिन एक व्यक्ति के लालच के लिए कम है। आज कितने लोगों के कितने लालच धरती की सतह से जंगल मिटा रहे हैं और गर्भ को खोद कर तेल खनिज और गैस आदि निकाल रहे हैं। इसका खामियाजा बढ़ता प्रदूषण, गिरता स्वास्थ और महामारी का खतरा हमारे सामने सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है।

कम शब्दों में अपनी बात समाप्त करते हुए धरती की तरफ से आप सबको अपना यह अशआर अर्ज करता हूं –

अपनी कामना और स्वार्थ की चादर निचोड़ दो

कुछ  दिन को मेरे हाल पर मुझको भी छोड़ दो

–  राकेश क़मर (आर के पालीवाल)

☆ विश्व पुस्तक दिवस पर : गांधी पर गांधी के पौत्र की पुस्तक ☆

इधर हाल ही में राजमोहन गांधी की गांधी पर लिखी शोध पुस्तक A Good Boatman पढ़ी है। पुस्तक का शीर्षक भारत की आजादी के आंदोलन की नाव को गांधी द्वारा ठीक से खेने की तरफ इंगित करता है।

सामान्यत: जब कोई परिजन या नजदीकी रिश्तेदार अपने किसी आत्मीय के बारे में लिखता है तो तो वह जरूरत से ज्यादा तारीफ करने लगता है और अच्छी अच्छी बातों का अतिश्योक्तिपूर्ण तरीके से वर्णन करता है और उसके कमजोर पक्ष को या तो पूरी तरह दरकिनार कर देता है या उसे कुतर्क से उचित ठहराने के कोशिश करता है।

कभी कभी इसका उल्टा भी होता है। लेखक अपनी निष्पक्षता और पारदर्शिता दिखाने के चक्कर में जरूरत से ज्यादा आलोचनात्मक दृष्टिकोण अख्तियार कर लेता है। गांधी में खुद यह गुण या अवगुण था कि वे अपनी अच्छाइयों से ज्यादा अपनी कमियों को बड़ा करके देखते थे।

इस कृति के लेखक के रूप में राजमोहन गांधी की तारीफ बनती है कि उन्होंने पूरी कोशिश की है कि पाठकों को गांधी को जस का तस दिखाने की कोशिश करें। इसीलिए शायद उन्होंने किताब का नाम Excellent Boatman आदि नहीं रखा।

इस किताब को लिखने के लिए लेखक ने जबरदस्त शोध किया है इसलिए इसमें कुछ ऐसी चीजें भी आ सकी हैं जो गांधी वांग्मय में नहीं हैं। ज्यादातर तथ्यों के साथ उनके रेफरेंस देने से किताब की विश्वसनीयता बढ़ी है।

गांधी के जीवन और विचार को समग्रता से समझने के लिए इस किताब को जरूर पढ़ा जाना चाहिए।

विश्व पुस्तक दिवस पर सभी लेखकों और पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं।

 ☆ रमजान मुबारक

इस बार रमजान में दोहरी परेशानी है। एक तो गर्मी का मौसम है दूसरे कोरोना की वैश्विक महामारी ने भय का माहौल बनाया हुआ है और खाने की चीज़ों की किल्लत हो रही है। ऐसे माहौल में त्योहार को सामूहिक रूप में भी नहीं मना सकते।

चाहे रमजान हो या नव दुर्गों का साप्ताहिक उपवास, वह तन और मन दोनों की शुद्धि और जन कल्याण की सदभावना के लिए होता है। उम्मीद है इस रमजान में भी ऊपर वाले के करम से सब खैरियत रहेगी और रमजान के खत्म होने के पहले महामारी भी खत्म हो जाएगी और हम सब मिलकर अच्छे से ईद मना सकेंगे।

रमजान मुबारक 

© श्री राकेश कुमार पालीवाल

हैदराबाद

(आदरणीय श्री राकेश कुमार पालीवाल जी की फेसबुक वाल से साभार) 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साहित्यकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – साहित्यकार ☆

-साहित्यकार हूँ, अपने समय का दस्तावेज़ लिखता हूँ।

-जो दस्तावेज़ लिखे, इतिहासकार होता है, साहित्यकार नहीं।

..और सुनो, बीते समय को जानने के लिए उस काल का प्रमाणित इतिहास पढ़ा जाता है, साहित्य नहीं।

हाँ, उन स्थितियों ने अंतर्चेतना को कैसे झिंझोड़ा, अंतर्द्वंद कैसे अपने समय से द्वंद करने उठ खड़ा हुआ, व्यष्टि का साहस कैसे समष्टि का प्रताप बना, कैसे भीतर के प्रकाश ने समय में व्याप्त तिमिर को उजालों से भरकर विचार को प्रभासित किया, यह जानने के लिए तत्कालीन साहित्य पढ़ा जाता है।

जिसका लिखा समय के प्रवाह में दस्तावेज़ बनकर उभरा, वही साहित्यकार कहलाया।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

भोर 3:51 बजे, 24.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 40 – दस महाविद्याएँ ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  शिक्षाप्रद आलेख  “दस महाविद्याएँ । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 40 ☆

☆ दस महाविद्याएँ

पहली महाविद्या देवी ‘काली‘ है जिसका अर्थ ‘समय’ या ‘काल’ या ‘परिवर्तन की शक्ति’ है वह निष्क्रिय गतिशीलता, विकास की संभावित ऊर्जा, ब्रह्मांड में महत्वपूर्ण या प्राणिक शक्ति अर्थात समय की गति ही काली है । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार से उत्पन्न शक्ति! अंधकार से जन्मा होने के कारण देवी काले वर्ण वाली तथा तामसी गुण सम्पन्न हैं । देवी, प्राण-शक्ति स्वरूप में शिव रूपी शव के ऊपर आरूढ़ हैं, जिसके कारण जीवित देह शक्ति सम्पन्न या प्राण युक्त हैं । देवी अपने भक्तों के विकार शून्य हृदय (जिसमें समस्त विकारों का दाह होता हैं) में निवास करती हैं, जिसका दार्शनिक अभिप्राय श्मशान से भी हैं । देवी श्मशान भूमि (जहाँ शव दाह होता हैं) वासी हैं । मुखतः देवी अपने दो स्वरूपों में विख्यात हैं, ‘दक्षिणा काली’ जो चार भुजाओं से युक्त हैं तथा ‘महा-काली’ के रूप में देवी की 20 भुजायें हैं । स्कन्द (कार्तिक) पुराण, के अनुसार ‘देवी आद्या शक्ति काली’ की उत्पत्ति आश्विन मास की कृष्णा चतुर्दशी तिथि मध्य रात्रि के घोर में अंधकार से हुई थी । परिणामस्वरूप अगले दिन कार्तिक अमावस्या को उनकी पूजा-आराधना तीनों लोकों में की जाती है, यह पर्व दीपावली या दीवाली नाम से विख्यात हैं तथा समस्त हिन्दू समाजों द्वारा मनाई जाती हैं । शक्ति तथा शैव समुदाय का अनुसरण करने वाले इस दिन देवी काली की पूजा करते हैं तथा वैष्णव समुदाय महा लक्ष्मी जी की, वास्तव में महा काली तथा महा लक्ष्मी दोनों एक ही हैं । भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति या संहारक शक्ति ‘मायामय या आदि शक्ति’ ही हैं, महालक्ष्मी रूप में देवी उनकी पत्नी हैं तथा धन-सुख-वैभव की अधिष्ठात्री देवी हैं । दस महा-विद्याओं में देवी काली, उग्र तथा सौम्य रूप में विद्यमान हैं, देवी काली अपने अनेक अन्य नामों से प्रसिद्ध हैं, जो भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाली हैं ।

देवी काली मुख्यतः आठ नामों से जानी जाती हैं और ‘अष्ट काली’, समूह का निर्माण करती हैं ।

  1.  चिंता मणि काली
  2.  स्पर्श मणि काली
  3.  संतति प्रदा काली
  4.  सिद्धि काली
  5.  दक्षिणा काली
  6.  कार्य कला काली
  7.  हंस काली
  8.  गुह्य काली

 

© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 43 ☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक आलेख आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत जिसे चारु चिंतन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 43 ☆

☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत

 

‘ज़िंदगी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, समय की बर्बादी से छोटी बनायी जा सकती है’  जॉनसन का यह कथन आलसी लोगों के लिए रामबाण है, जो अपना समय ऊल-ज़लूल बातों में नष्ट कर देते हैं; आज का काम कल पर टाल देते हैं, जबकि कल कभी आता नहीं। ‘जो भी है, बस यही एक पल है/ कर ले पूरी आरज़ू’ वक्त की ये पंक्तियां भी आज अथवा इसी पल की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने अथवा जीने का संदेश देती हैं। कबीरदास जी का यह दोहा ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में परलय होयगी,मूरख करेगा कब ‘ आज अर्थात् वर्तमान की महिमा को दर्शाते हुए सचेत करते हैं कि ‘कल कभी आने वाला नहीं और कौन जानता है, कौन सा पल आखिरी पल बन जाए और सृष्टि में प्रलय आ जाए। चारवॉक दर्शन का संदेश ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ आज की युवा-पीढ़ी के जीवन का लक्ष्य बन गया है। इसीलिए वे आज ही अपनी हर तमन्ना पूरी कर लेना चाहते हैं। कल अनिश्चित है और किसने देखा है? इसलिए वे भविष्य की चिंता नहीं करते; हर सुख को इसी पल भोग लेना चाहते हैं। वैसे तो ठीक से पता नहीं कि अगली सांस आए या नहीं। सो! कल के बारे में सोचना, कल की प्रतीक्षा करना और सपनों के महल बनाने का औचित्य नहीं है।

ऐसी विचारधारा के लोगों का आस्तिकता से कोसों दूर का नाता होता है। वे ईश्वर की सत्ता व अस्तित्व को नहीं स्वीकारते तथा अपनी ‘मैं’ अथवा अहं में मस्त रहते हैं। उनकी यही अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता की भावना उन्हें सबसे दूर ले जाती है तथा आत्मकेंद्रित कर देती है। वास्तव में एकांतवास अथवा आइसोलेशन–कारण भले ही कोरोना ही क्यों न हो।

कोरोना वायरस ने भले ही पूरे विश्व में तहलक़ा मचा रखा है, परंतु उसने हमें अपने घर की चारदीवारी में, अपने प्रियजनों के सानिध्य में रहने और बच्चों के साथ मान-मनुहार करने का अवसर प्रदान किया …अक्सर लोगों को वह भी पसंद नहीं आया। मौन एकांत का जनक है, जो हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है और सृष्टि के विभिन्न रहस्यों को उजागर करता है। सो! एकांतवास की अवधि में हम आत्मचिंतन कर, ख़ुद से मुलाकात कर सकते हैं, जो जीवन में असफलता व तनाव से बचने के लिए ज़रूरी है। इतना ही नहीं, यह स्वर्णिम अवसर है; अपनों के साथ रहकर समय बिताने का, ग़िले- शिक़वे मिटाने का, ख़ुद में ख़ुद को तलाशने का, मन के भटकाव को मिटा कर, अंतर्मन में प्रभु के दर्शन पाने का। सो! एकांत वह सकारात्मक भाव है, जो हमारे अवचेतन मन को जाग्रत कर, सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाने अथवा अभिव्यक्ति प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है। आपाधापी भरे आधुनिक युग में रिश्तों में खटास व अविश्वास से उपजा अजनबीपन का अहसास मानव को अलगाव की स्थिति तक पहुंचाने का एकमात्र कारक है और व्यक्ति उस मानसिक प्रदूषण अर्थात् चिंता, तनाव व अवसाद की ऊहापोह से बाहर आना चाहता है।

जब व्यक्ति एकांतवास में होता है, जीवन की विभिन्न घटनाएं मानस-पटल पर सिनेमा की रील की भांति आती-जाती रहती हैं और वह सुख-दु:ख की मन:स्थिति में डूबता-उतराता रहता है। इस मनोदशा से उबरने का साधन है एकांत, जिसका प्रमाण हैं– लेखक, गायक और प्रेरक वक्ता विली जोली, जो 1989 में न्यूज़ रूम कैफ़े में अपना कार्यक्रम पेश किया करते थे। उनकी लाजवाब प्रस्तुति के लिए उन्हें अनगिनत पुरस्कारों व सम्मानों से नवाज़ा गया था। परंतु मालिक के छंटनी के निर्णय ने उन्हें आकाश से धरा पर ला पटका और उन्होंने कुछ दिन एकांत अर्थात् आइसोलेशन में रहने का निर्णय कर लिया। एक सप्ताह तक आइसोलेशन की स्थिति में रहने के पश्चात् उनकी ऊर्जा, एकाग्रता व कार्य- क्षमता में विचित्र-सी वृद्धि हुई। सो! उन्होंने अपनी शक्तियों को संचित कर, स्कूलों में प्रेरक भाषण देने प्रारंभ कर दिए और वे बहुत प्रसिद्ध हो गये। एक दिन लुइस ब्राउन ने उन्हें अपने साथ कार्यक्रम आयोजित करने को आमंत्रित किया,जिसने उनकी ज़िंदगी को ही बदल कर रख दिया। इससे उन्हें एक नई पहचान मिली, जिसका श्रेय वे क्लब-मालिक के साथ-साथ आइसोलेशन को भी देते हैं। इस स्थिति में वे गंभीरता से अपने अवगुणों व कमियों को जानने के पश्चात्, तनाव से मुक्ति प्राप्त कर सके। सो! एकांतवास द्वारा हम अपने हृदय की पीड़ा व दर्द को…अपनी आत्मचेतना को जाग्रत करने के पश्चात्, अदम्य साहस व शक्ति से सितारों में बदल सकते हैं अर्थात् अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।

ब्रूसली के मतानुसार ग़लतियां हमेशा क्षमा की जा सकती हैं; यदि आपके पास उन्हें स्वीकारने का साहस है। दूसरे शब्दों में यह ही प्रायश्चित है। परंतु अपनी भूल को स्वीकारना दुनिया में सबसे कठिन कार्य है, क्योंकि हमारा अहं इसकी अनुमति प्रदान नहीं करता; हमारी राह में पर्वत की भांति अड़कर खड़ा हो जाता है। अब्दुल कलाम जी के मतानुसार ‘इंसान को कठिनाइयों की भी आवश्यकता होती है। सफलता का आनंद उठाने के लिए यह ज़रूरी और अकाट्य सत्य भी है कि यदि जीवन में कठिनाइयां, बाधाएं व आपदाएं न आएं, तो आप अपनी क्षमता से अवगत नहीं हो सकते।’ कहां जान पाते हो आप कि ‘मैं यह कर सकता हूं?’ सो! कृष्ण की बुआ  कुंती ने का कृष्ण से यह वरदान मांगना इस तथ्य की पुष्टि करता है कि ‘उसके जीवन में कष्ट आते रहें, ताकि प्रभु की स्मृति बनी रहे।’ मानव का स्वभाव है कि वह सुख में उसे कभी याद नहीं करता, बल्कि स्वयं को ख़ुदा अर्थात् विधाता समझ बैठता है। ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोई /जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ अर्थात् सुख- दु:ख में प्रभु की सुधि बनी रहे, यही सफल जीवन का राज़ है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग–जब एक राजा ने भाव-विभोर होकर संत से अनुरोध किया कि वे प्रसन्नता से उनकी मुराद पूरी करना चाहते हैं। संत ने उन्हें कृतज्ञता-पूर्वक मनचाहा देने को कहा और राजा ने राज्य देने की पेशकश की, जिस पर उन्होंने कहा –राज्य तो जनता का है, तुम केवल उसके संरक्षक हो। महल व सवारी भेंट-स्वरूप देने के अनुरोध पर संत ने उन्हें भी राज-काज चलाने की मात्र सुविधाएं बताया। तीसरे विकल्प में राजा ने देह-दान की अनुमति मांगी। परंतु संत ने उसे भी पत्नी व बच्चों की अमानत कह कर ठुकरा दिया। अंत में संत ने राजा को अहं त्यागने को कहा,क्योंकि वह सबसे सख्त बंधन होता है। सो! राजा को अहं त्याग करने के पश्चात् असीम शांति व अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई।

अंतर्मन की शुद्धता व नाम-स्मरण ही कलयुग में पाप-कर्मों से मुक्ति पाने का साधन है। अंतस शुद्ध होगा, तो केवल पुण्य कर्म होंगे और पापों से मुक्ति मिल जाएगी। विकृत मन से अधर्म व पाप होंगे। हृदय की शुद्धता, प्रेम, करुणा व ध्यान से प्राप्त होती है… उसे पूजा-पाठ, तीर्थ-यात्रा व धर्म-शास्त्र के अध्ययन से पाना संभव नहीं है। सो! जहां अहं नहीं, वहां स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा व एकाग्रता का निवास होता है। आशा, विश्वास व निष्ठा जीवन का संबल हैं। तुलसीदास जी का ‘एक भरोसो,एक बल, एक आस विश्वास/ एक राम,घनश्याम हित चातक  तुलसीदास।’ आशा ही जीवन है। डूबते को तिनके का सहारा…घोर संकट में आशा की किरण, भले ही जुगनू के रूप में हो; उसका पथ-प्रदर्शन करती है; धैर्य बंधाती है; हृदय में आस जगाती है। ‘नर हो ना निराश करो मन को/ कुछ काम करो, कुछ काम करो’ मानव को निरंतर कर्मशीलता के साथ आशा का दामन थामे रखने का संदेश देता है…यदि एक द्वार बंद हो जाता है, तो किस्मत उसके सम्मुख दस द्वार खोल देती है। सो! उम्मीद जिजीविषा की सबसे बड़ी ताकत है। राबर्ट ब्रॉउनिंग का यह कथन ‘आई ऑलवेज रिमेन ए फॉइटर/ सो वन, फॉइट नन/ बैस्ट एंड द लॉस्ट।’ सो! उम्मीद का दीपक सदैव जलाए रखें। विनाश ही सृजन का मूल है। भूख, प्यास, निद्रा –आशा व विश्वास के सम्मुख नहीं ठहर सकतीं; वे मूल्यहीन हैं।

सो! आइसोलेशन मन की वह सकारात्मक सोच है, जिसमें मानव समस्याओं को नकार कर, स्वस्थ मन से चिंतन-मनन करता है। चिंता मन को आकुल- व्याकुल व  हैरान-परेशान करती है और चिंतन सकारात्मकता प्रदान करता है। चिंतन से मानव सर्वश्रेष्ठ को पा लेता है। राबर्ट हिल्येर के शब्दों में ‘यदि आप अपना सर्वश्रेष्ठ दे रहे हैं, तो आपके पास असफलता की चिंता करने का समय ही नहीं रहेगा।’ असफलता हमें चिंतन के अथाह सागर में अवगाहन करने को विवश कर देती है, तो सफलता चिंतन करने को, ताकि वह सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुंच सके। सो! एकांतवास वरदान है, अभिशाप नहीं; इसे भरपूर जीएं, क्योंकि यह विद्वतजनों की बपौती है, जो केवल भाग्यशाली लोगों के हिस्से में ही आती है। इस लिए आइसोलेशन के अनमोल समय को अपना भाग्य कोसने व दूसरों की निंदा करने में नष्ट मत करो। जीवन में जब जो, जैसा मिले, उसमें संतोष पाना सीख लें, आप दुनिया के सबसे महान् सम्राट् बन जाओगे। जीवन में चिंता नहीं, चिंतन करो…यही सर्वोत्तम मार्ग है; उस सृष्टि-नियंता को पाने का; आत्मावलोकन कर विषम परिस्थितियों का धैर्यपूर्वक सामना कर, सर्वश्रेष्ठ दिखाने का। सो! हर पल का आनंद लो, क्योंकि गुज़रा समय कभी लौट कर नहीं आता…जिसके लिए अपेक्षित है; अहम् का त्याग;  अथवा अपनी ‘मैं’  को मारना। जब ‘मैं’… ‘हम’ में परिवर्तित हो जाता है, तो तुम अदृश्य हो जाता है। यही है अलौकिक आनंद की स्थिति; राग-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठने की मनोदशा, जहां केवल ‘तू ही तू’ अर्थात् सृष्टि के कण-कण में प्रभु ही नज़र आता है। सो! आइसोलेशन अथवा एकांत एक बहुमूल्य तोहफ़ा है… इसे अनमोल धरोहर-सम स्वीकारिए व सहेजिए तथा जीवन को उत्सव समझ, आत्मोन्नति हेतु हर लम्हे का भरपूर सदुपयोग कर, अलौकिक आनंद प्राप्त कीजिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ लॉकडाउन और मैं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – लॉकडाउन और मैं ☆

समाचारपत्रों में कभी-कभार पढ़ता था कि फलां विभाग में  पेनडाउन आंदोलन हुआ। लेखक होने के नाते  ‘पेनडाउन’ शब्द कभी नहीं भाया। फिर नॉकडाउन से परिचय हुआ। मुक्केबाजी से सम्बंधित समाचारों ने सबसे पहले नॉकआउट शब्द से परिचय कराया।कारोबार के समाचारों ने लॉकआउट का अर्थ समझाया। फिर आया लॉकडाउन। यह शब्द अपरिचित नहीं था पर पिछले लगभग एक माह ने इससे चिरपरिचित जैसा रिश्ता जोड़ दिया है।

जब आप किसी निर्णय को मन से स्वीकार करते हैं तो भाव उसके अनुपालन के अनुकूल होने लगता है। इस अनुकूलता का विज्ञान के अनुकूलन अर्थात परिस्थिति के अनुरूप ढलने के सिद्धांत से मैत्री संबंध है।

इस संबंध को मैंने भ्रमण या पैदल चलने के अभ्यास में अनुभव किया। सामान्यत: मैं सुबह 3 से 3.5 किलोमीटर भ्रमण करता हूँ। इस भ्रमण के अनियमित हो जाने पर पूर्ति करने या लंबी दूरी तय करने का मन होने पर अथवा प्राय: अन्यमनस्क होने पर देर शाम 8 से 10 किलोमीटर की पदयात्रा करता हूँ। चलने के आदी पैर लॉकडाउन के कारण अनमने रहने लगे तो परिस्थिति के अनुरूप मार्ग भी निकल आया। एक कमरे की बालकनी के एक सिरे से दूसरे कमरे की बालकनी के सिरे के बीच तैंतीस फीट के दायरे में पैरों ने तीन किलोमीटर रोजाना की यात्रा सीख ली।

पहले विचार किया था कि लेखन में बहुत कुछ छूटा हुआ है जो इस कालावधि में पूरा करूँगा। बहुत जल्दी यह समझ में आ गया कि नई  गतिविधि का अभाव मेरे लेखन की गति को प्रभावित कर रहा है।  यद्यपि दैनिक लेखन अबाधित है तथापि अपने भीतर जानता हूँ कि जैसे कुछ कार्यालयों में पच्चीस प्रतिशत कर्मचारियों के साथ ही काम हो रहा है, मेरी कलम भी एक चौथाई क्षमता से ही चल रही है। बकौल अपनी कविता,

घर पर ही हो,

कुछ नहीं घटता

कुछ करना भी नहीं पड़ता

इन दिनों..,

बस यही अवसर है

खूब लिखा करो,

क्या बताऊँ

लेखन का सूत्र

कैसे समझाऊँ,

साँस लेना ज़रूरी है

जीने के लिए..,

घटना और कुछ करना

अनिवार्य हैं लिखने के लिए!

अलबत्ता समय का सदुपयोग करने की दृष्टि से सृजनात्मक लेखन का मन न होने पर प्रकाशनार्थ पुस्तकों का प्रूफ देखना, पुस्तकों का अलाइनमेंट या सुसंगति निर्धारित करना जैसे काम चल रहे हैं। पुस्तकों की भूमिका लिखने का काम भी हो रहा है। निजी लेखन की फाइलें भी डेस्कटॉप पर अलग सेव करता जा रहा हूँ।

लॉकडाउन के इस समय में प्रकृति को निहारने का सुखद अनुभव हो रहा है। सूर्योदय के समय खगों की चहचहाट, सूर्यास्त का गरिमामय अवसान दर्शाता स्वर्णिम दृश्य, सामने के पेड़ पर रहनेवाले तोतों और चिड़िया के समूहों का शाम को घर लौटना, कौवों का अपने घोंसले की रक्षा करना, ततैया का पानी पीने आना, पानी पीते कबूतरों का भयभीत होकर भागने के बजाय शांत मन से तृप्त होने तक जल ग्रहण करना, सब साकार होने लगा है।

संभवत: साढ़े तीन दशक बाद कोई सीरियल देखने की आदत बनी। पिछले दिनों ‘रामायण’ का प्रसारण नियमित रूप से देखा। रावण ने अपने अहंकार के चलते सम्पूर्ण असुर जाति का अस्तित्व दांव पर लगा दिया था। लॉकडाउन में अनावश्यक रूप से बाहर घूमनेवाले अति आत्मविश्वास और लापरवाही के चलते मनुष्य जाति के लिए वही भूमिका दोहरा रहे हैं।

हर क्षण जीवन बीत रहा है। इसलिए अपने  समय का बेहतर उपयोग करने के लिए सर्वदा कुछ नया और सार्थक सीखना चाहिए। ख़ासतौर पर उन विषयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जिनसे  अबतक अनजान हों या जिनमें प्रवीणता नहीं है।

पाकशास्त्र में प्रवीणता दीर्घ कालावधि और सम्पूर्ण समर्पण से मिलती है। दोनों आवश्यकताएँ पूरी करने में अपनी असमर्थता का भलीभाँति ज्ञान होने के कारण रसोई बनाने के सामान्य ज्ञान पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ। अपने काम के सिलसिले में घर से बाहर    काफी दिन रुकना पड़े तो होटल से मंगाने के बजाय अपना भोजन स्वयं सरलता से बना सकूँ, कम से कम इतना सीख लेना चाहता हूँ। मनुष्य को यों भी यथासंभव स्वावलंबी होना चाहिए।  लॉकडाउन इसका एक अवसर है।

लॉकडाउन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि यह रोग को फैलने से रोकने के लिए सामाजिक वैक्सिन है। मेडिकल वैक्सिन आने में लगभग आठ से दस माह की अवधि लग सकती है। ऐसे में लॉकडाउन और सामाजिक- भौतिक दूरी, रोग और वैक्सिन के बीच हमें सुरक्षित रख सकती है। अत: आप सबसे भी अनुरोध है कि घर में रहें, सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज

संध्या 7:50 बजे, 21.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 15 ☆ बदलता दौर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर समसामयिक रचना “बदलता दौर।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 15 ☆

☆ बदलता दौर

ऑन द वे, ऑन द स्पॉट तो सुना था अब ऑन लाइन भी बहुचर्चित हो रहा है सारे कार्य इसी तरीके से हो रहे । ई शिक्षा का बढ़ता महत्व;  आखिरकार हम लोग इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं । मंगल पर मंगल करने की योजना तो धरी की धरी रह गयी ; साथ ही साथ अंतरिक्ष में भी उसी तरह भ्रमण करना है जैसे सात समंदर पार करते रहे हैं ; इस  पर भी कुछ समय के लिए रोक लग गयी ।

चूँकि सब चीज हम लोग ब्रांडेड व इम्पोटेड चाहते हैं इसलिए अब की बार  बीमारी भी परदेश से ही आ गयी ;  सुंदर सा नाम धर के । तरक्क़ी का इससे बड़ा सबूत और क्या दिया जाए ?

हम लोग हमेशा कहते रहते अच्छा सोचो अच्छा बनो पर ये क्या…. पॉजिटिव लोगों का साथ छोड़ निगेटिव लोगों के बीच रहना ही आज की आवश्यकता है ।  खैर जब बीमारी बाहरी होगी तो  उल्टी विचारधारा तो फैलायेगी ही । ऐसा उल्टा -सीधा परिवर्तन करने का माद्दा तो कोरोना जी के पास ही है । जब से इनका आगमन हुआ तभी से *वर्क फ्रॉम होम विथ वर्क फॉर होम*  की संकल्पना उपजी । बीबी बच्चों  के साथ  पति घरेलू प्राणी बन गया । घर में रहने का सुख ,साथ ही साथ एक प्रश्न का उत्तर जो हमेशा ही अपनी धर्म पत्नी चाहता था कि आखिर तुम दिनभर करती क्या हो ;  वो भी उसे मिल गया । अब तो कान पकड़ लिए कि तौबा – तौबा  कोई प्रश्न नहीं करेंगे । वरना ऐसे उत्तर मिलेंगे इसकी कल्पना भी नहीं की थी ।

खैर जब पुराना दौर ज्यादा नहीं चल सका तो ये भी बीत जायेगा आखिर बदलाव ही तो जीवन की पहचान है इसके साथ जो जीना सीख गया समझो सफलता की सीढ़ी चढ़ गया ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जग, सजग का है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जग, सजग का है  ☆

 

प्रश्न- जग सो रहा है और तुम अब तक जाग रहे हो?

 

उत्तर- जग शब्द स्वयं कहता है- जग, नेत्र खुले रख। स्थूल की निद्रा में भी सूक्ष्म को जागृत रख। जग में आगमन जगने, जगे रहने, जगाते रहने और जगाये रखने के लिए है। जग में आकर जो जगे रहने का अर्थ नहीं समझा, वह अज-सा काल का भक्ष्य है। जो जगता रहा, जगाता रहा, सजगता उसका लक्ष्य है।

 

….ध्यान रहे जग, सजग का है।

 

सजग रहें। घर में रहें। सुरक्षित और स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सोमवार 1 जुलाई 2018, रात्रि 1:27 बजे

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 25 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर हम आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास  कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का तृतीय आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 25 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 3

द्वितीय गोलमेज कांफ्रेस में भी डाक्टर आम्बेडकर ने दलितों के उद्धार हेतु अपनी तार्किक प्रस्तुति देकर विश्व भर के अखबारों में सुर्खियाँ बटोरी। भारत की जनता के बीच उनके तर्क उन्हें अंग्रेज परस्त और हिन्दुओं का दोषी बता रहे थे। जनता में यह भावना बलवती होती जा रही थी कि डाक्टर आम्बेडकर की उक्तियों से अंग्रेज सरकार की भारत को खंडित करने की कूटनीतिक चाल सफल हो रही है। डाक्टर आम्बेडकर का यह तर्क कि अगर मुसलमानों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दे देने से भारत बंटने वाला नहीं है तो दलितों को यह अधिकार मिलने से हिन्दू समाज कैसे बंट जाएगा ? लोगों के गले नहीं उतर रहा था। लन्दन में गांधीजी और आम्बेडकर दोनों  अल्पसंख्यक समुदाय व अस्पृश्यों के लिए निर्वाचन हेतु आवंटित किये जाने वाले स्थानों हेतु बनाई गई अल्पसंख्यक समिति के सदस्य थे। गांधीजी के मतानुसार आम्बेडकर अस्पृश्यों के सर्वमान्य नेता नहीं थे। यह समिति भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकी।

द्वतीय गोलमेज कांफ्रेस के विफल वार्तालाप और गांधी इरविन पैक्ट की असफलता के साथ ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन को पुन: शुरू करने की मांग तेज होने लगी और गांधीजी समेत बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए । जब गांधीजी पूना के निकट यरवदा जेल में बंद थे तभी अंग्रेज सरकार ने कम्युनल अवार्ड की घोषणा अगस्त 1932 में करते हुए राज्यों की विधानसभाओं में अल्पसंख्यक वर्ग के लिए पहले की अपेक्षा दुगने स्थान सुरक्षित कर दिए। अल्पसंख्यकों के साथ दलितों के लिए भी पृथक निर्वाचन मंडल का गठन करने और उनके लिए 71 विशेष सुरक्षित स्थानों के साथ साथ सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से भी चुनाव लड़ने की छूट दे दी गई। ब्रिटिश प्रधानमंत्री की इस घोषणा के विरुद्ध गान्धीजी ने अपनी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार बीस सितम्बर से आमरण अनशन प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी। गांधीजी की इस घोषणा से मानो पूरे भारत में भूचाल सा आ गया। गांधीजी के इस निर्णय से उनके समर्थक भी भौंचक्के रह गए। स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरु को गांधीजी का इस राजनीतिक समस्या को धार्मिक और भावुकतापूर्ण दृष्टि से देखना पसंद नहीं आया। गांधीजी के आमरण अनशन की घोषणा से लोग घबरा उठे। नेताओं के साथ साथ आम जनता के मन में भी यह भावना प्रबल हो उठी कि अगर गांधीजी ने अपने प्राणों की आहुति दे दी तो भारत का क्या होगा, स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व कौन ? लोगों को देश का भविष्य सूना और अंधकारमय दिखने लगा। गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के समर्थकों के बीच आरोप प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया तो दूसरी ओर मध्यस्थता की कोशिशें तेज हो चली। पंडित मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में 19 सितम्बर को मुंबई में हिन्दू नेताओं की बैठक हुई जिसमे डाक्टर आम्बेडकर भी शामिल हुए। यद्दपि डाक्टर आम्बेडकर का दृढ़ मत था कि वे गांधीजी के प्राण बचाने के लिए ऐसी किसी बात के लिए सहमत नहीं हो सकते जिससे दलितों का अहित हो तथापि वे वार्तालाप के लिए तत्पर रहे। इसके बाद डाक्टर सर तेज बहादुर सप्रू आदि ने यरवदा जेल जाकर गांधीजी से मुलाक़ात की और फिर डाक्टर आम्बेडकर की मुलाक़ात गांधीजी से जेल में करवाई गई। वार्ताओं के अनेक दौर चले और इसमें राजगोपालचारी, घनश्याम दास बिड़ला, राजेन्द्र प्रसाद आदि ने बड़ी भूमिका निभाई। अनशन के छठवें दिन डाक्टर आम्बेडकर ने जब चर्चा के दौरान कटुता भरे शब्दों में कहा कि ‘ये महात्मा कौन होते हैं अनशन करने वाले? उनको मेरे साथ डिनर के लिए बुलाइए।‘ उनके इस कथन पर बड़ा बवाल मचा और दक्षिण भारत के एक अन्य दलित नेता श्री एम सी राजा ने भी उन्हें समझाया व गांधीजी के अछुतोद्धार के प्रयासों की सराहना करते हुए समझौते के लिए दबाब डाला ।  इन सब दबावों व अनेक वार्ताओं के फलस्वरूप 23 सितम्बर 1932 को गांधीजी और आम्बेडकर के बीच समझौता हो गया जिस पर दलितों की ओर से डाक्टर आम्बेडकर व हिन्दू समाज की ओर से मदन मोहन मालवीय ने अगले दिन हस्ताक्षर किये और इस प्रकार गांधीजी के प्राणों की रक्षा हुई। यह समझौता पूना पेक्ट के नाम से मशहूर हुआ और इस प्रकार अछूतों को निर्वाचन में आरक्षण मिला तथा सरकारी नौकरियों में उनके साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव बिना योग्यता के अनुरूप स्थान देने के साथ साथ अस्पृश्यता ख़त्म करने और उन्हें शिक्षा में अनुदान देने की बाते भी शामिल की गई। पूना पेक्ट के तहत विधान सभा की कुल 148 सीटें अस्पृश्यों के लिए आरक्षित की गई जोकि कम्युनल अवार्ड के द्वारा आरक्षित 71 सीटों से कहीं ज्यादा थी। इस पेक्ट पर हस्ताक्षर करने के लिए डाक्टर आम्बेडकर को तैयार करने में मदन मोहन मालवीय ने महती भूमिका निभाई और वे डाक्टर आम्बेडकर को यह समझाने में सफल रहे कि राष्ट्र हित में गांधीजी के प्राणों की रक्षा होना अत्यंत आवश्यक है और इसके लिए डाक्टर आम्बेडकर को पृथक निर्वाचन संबंधी अपनी जिद्द छोड़ देनी चाहिए। समझौता हो जाने के बाद डाक्टर आम्बेडकर ने गांधीजी की भूरि-भूरि प्रसंशा की और माना कि अन्य राष्ट्रीय नेताओं की तुलना में गांधीजी दलित समाज के दुःख दर्द को बेहतर समझते हैं। यहाँ यह विचारणीय प्रश्न है कि गांधीजी द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस तक आम्बेडकर की बातों से सहमत न थे फिर वे पूना समझौते के लिए क्यों तैयार हो गए। वस्तुत गांधीजी के उपवास ने आम जनमानस में अस्पृश्यता  को लेकर चिंतन शुरू हुआ और इस बुराई को दूर करने  के प्रति लोगों में जागरूकता आई। अनेक संभ्रांत और प्रतिष्ठित परिवारों के सदस्यों ने दलित समाज के लोगों के साथ बैठकर भोजन किया और इसकी सार्वजनिक घोषणा की, मंदिरों के दरवाजे दलितों के लिए खोल दिए गए, सार्वजनिक कुएं से उन्हें पानी भरने दिया जाने लगा। ह्रदय परिवर्तन कर रुढियों की समाप्ति करने का यही गांधीजी का तरीका था। गांधीजी के उपवास ने एक बार पुन: यह सिद्ध कर दिया कि लोगों के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकने की उनमे अद्भुत कला थी। अगर गांधीजी आमरण अनशन का रास्ता न अपनाते तो हिन्दू समाज दलितों के साथ हो रहे भेदभावों को समाप्त करने में रूचि न दिखलाता और संभवत: इसका दुष्परिणाम देश की राजनीतिक पटल पर पड़े बिना न रहता। मंदिर प्रवेश जैसे मुद्दों पर दलित समाज को लम्बे आन्दोलन करने पड़े उस समस्या से गांधीजी के यरवदा जेल में किये गए अनशन से निजात दिलाने में और सवर्ण हिन्दुओं को इस हेतु मानसिक रूप से तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

……….क्रमशः  – 4

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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