हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 581 ⇒ पुरानी फिल्मों का संगीत ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पुरानी फिल्मों का संगीत।)

?अभी अभी # 581 ⇒ पुरानी फिल्मों का संगीत ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रेडियो सीलोन के पुराने श्रोता जानते हैं, सुबह ७.३० का समय पुरानी फिल्मों के गीतों का होता था, जिसका समापन हर रोज के.एल.सहगल के गीत से ही होता था। ८ बजे का समय लोमा टाइम होता था, जिसके पश्चात् आप ही के गीत शुरू हो जाते थे।

तब रेडियो पर पिताजी का ही एकाधिकार होता था। आठ बजते ही सभी रेडियो सेट्स पर एक ही आवाज़ आती थी, ये आकाशवाणी है, अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए।।

बात पुरानी फिल्मों के गीतों की हो रही थी। कुंदनलाल सहगल केवल ४३ वर्ष की उम्र में सन् १९४७ में कई यादगार गीत छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह गए। सहगल के अलावा तलत महमूद, सी. एच.आत्मा, के. सी. डे., रफी, मुकेश और किशोर भी लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे। कौन भूल सकता है सुरैया श्याम की अनमोल घड़ी, आवाज दे कहां है, और नूरजहां और सुरेंद्र का कलजयी गीत, तू मेरा चांद तू मेरी चांदनी और उमा देवी की दर्द भरी आवाज, अफसाना लिख रही हूं।

आज इन गायकों में से कोई भी हमारे बीच मौजूद नहीं है, और ना ही है रेडियो सीलोन का ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन, लेकिन श्रोता हैं कि आज भी रेडियो सीलोन को यू ट्यूब पर भी सुने जा रहे हैं। हम एक अच्छे श्रोता जरूर हैं लेकिन ऐसे अंध भक्त भी नहीं। समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है, इसलिए हमने भी समझौता एक्सप्रेस में सवार हो, कई वर्ष पहले ही आकाशवाणी के पचरंगी प्रोग्राम विविध भारती से समझौता कर लिया है और मजबूरी में ही सही, रोज सुबह सात बजे प्रसारित पुरानी फिल्मों के प्रोग्राम, भूले बिसरे गीत, सुनना शुरू कर दिया है।।

आज के रेडियो और टीवी पर पहला अधिकार विज्ञापन का है और अगर वह आकाशवाणी है तो उस पर दूसरा अधिकार समाचार का है। मनोरंजन का स्थान तो इनके बाद ही आता है। आइए विविध भारती सुनें।

सुबह की सभा प्रातः ६ बजे, मंगल ध्वनि से शुरू होती है, और समाचारों के पश्चात् चिंतन और भजनों का प्रोग्राम वंदनवार, जिसमें एक भजन भारत रत्न लता जी का तय है। अक्सर सभी भजन सुने हुए होते हैं और गैर फिल्मी होते हैं। ६.२० बजे देशभक्ति के गीत के साथ भजनों का कार्यक्रम  समाप्त हो जाता है। पंद्रह मिनट के लिए रामचरित मानस का पाठ होता है और उसके बाद नियमित प्रोग्राम संगीत सरिता, जिसमें अधिकांश प्रोग्राम पुराने ही रिपीट किए जा रहे हैं।।

लिजिए सुबह के सात बज गए और अब भूले बिसरे गीत शुरू होने जा रहे हैं।

एक विज्ञापन के बाद मुश्किल से दो गीत आप सुन पाएंगे और प्रादेशिक समाचार शुरू हो जाएंगे।

समाचार की शुरुआत भी विज्ञापन से ही होती है और उसका समापन भी विज्ञापन से ही होता है। बड़ी मुश्किल से खींच तानकर दो अथवा साढ़े दो/ढाई भी नहीं, और भूले बिसरे गीतों का समय समाप्त हो जाता है।

विविध भारती के पास पुराने मनोरंजक प्रोग्रामों का कुबेर का खजाना है, जिसे वह आजकल विज्ञापनों के जरिए प्रचारित करता रहता है।

नौशाद, मीनाकुमारी और जीवन से इस बहाने दिन में हमारी बीस पच्चीस बार मुलाकात हो जाती है।

आखिर विविध भारती को भी अपने मन की बात कहने का पूरा पूरा अधिकार जो है।।

बात भूले बिसरे गीतों और पुरानी फिल्मी गीतों की हो रही थी। क्या पुरानी फिल्मों के सभी गीत भूले बिसरे होते हैं। जो गीत ज्यादा पॉपुलर होता है, वह अधिक बजता है और बेचारे कुछ गीत समय के साथ भुला दिए जाते हैं।

जब कि कुछ गीत सदाबहार होते हैं और वक्त का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। रफी साहब को गुजरे अब ४५ वर्ष हो गए। इस हिसाब से तो इनके सभी गीत पुराने ही हो जाना चाहिए लेकिन क्या दिल तेरा दीवाना, दिल देके देखो अथवा प्रोफेसर, पारसमणि, आरजू, सूरज और गाइड के गीत सुनकर आपको लगता है कि हम कुछ पुराना अथवा भूला बिसरा सुन रहे हैं।।

ओल्ड इज गोल्ड। कुछ गीत वाकई सदाबहार होते हैं और समय की धूल उन पर कभी जमा नहीं होती।

फिर चाहे वे गीत लता जी ने गाए हों अथवा आशा जी ने। हमारे कुछ संगीतकार भी इसी श्रेणी में आते हैं, जिनमें प्रमुख हैं, ओ पो नय्यर, उषा खन्ना और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, जिनकी पहली फिल्म का गीत भी ऐसा लगता है, मानो आज पहली बार सुन रहे हैं।

संगीत के बारे में हर श्रोता के अपने अपने आग्रह और पूर्वाग्रह होते हैं। अच्छे सदाबहार गीत बताना तो बहुत आसान है, लेकिन सबसे मुश्किल होता है, सबसे खराब गीत के बारे में एक आम राय रखना। हां अगर गायक और संगीतकार से पूछा जाए, तो वह जरूर ईमानदारी से बताएगा।

जैसे लता जी ने फिल्म संगम के गीत, हाय का करूं राम, के बारे में अपनी राय जाहिर करी थी। यह गीत उन्होंने बेमन से गाया था, क्योंकि यह उनकी रुचि से मेल नहीं खाता था।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहिर और महेन्द्र कपूर।)

?अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो साहिर अपनी मर्जी के शायर थे और किसी खूंटे से बंधे नहीं थे, लेकिन फिल्म नया दौर से, वक्त तक, बी आर चोपड़ा से उनकी जोड़ी खूब जमी। नया दौर में अभिनेता दिलीपकुमार थे, और इस फिल्म के सभी हिट गीतों को जहां मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था, वहीं ओ पी नैय्यर ने इन्हें अपने मधुर संगीत में ढाला था।

लेकिन बी आर चोपड़ा, ओ पी नैय्यर और साहिर लुधीयानवी की तिकड़ी और रफी साहब की आवाज का यह करिश्मा आगे चल नहीं पाया। बी आर चोपड़ा चाहते थे कि मोहम्मद रफी केवल उनकी फिल्मों के लिए ही गीत गाएं, जो कि रफी साहब को मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि उनकी आवाज सभी संगीतकारों के लिए बनी है, वे कोई दरबारी गायक नहीं हैं।।

बस यही बात चोपड़ा साहब को चुभ गई और उन्होंने प्रण कर लिया कि वे एक और मोहम्मद रफी खड़ा करेंगे और इसके लिए उन्होंने रफी साहब के ही शागिर्द महेन्द्र कपूर को चुना। वैसे भी मुकेश, किशोर कुमार और रफी साहब के चलते महेन्द्र कपूर साहब को फिल्में कम ही मिलती थी, फिर भी उपकार फेम मनोज कुमार भी उन पर पूरी तरह से मेहरबान थे, जिस कारण कल्याण जी आनंद जी के भी वे प्रिय हो चले थे। याद कीजिए, दिलीप कुमार की फिल्म गोपी के रफी साहब के एक भजन को छोड़कर, सभी गीत महेन्द्र कपूर ने ही गाये थे।

अधिक विषयांतर ना करते हुए हम साहिर और महेन्द्र कपूर के साथ के बारे में चर्चा करते हैं। फिल्म गुमराह के गीतों को ही ले लीजिए। चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। यहां संगीतकार ओ पी नैय्यर नहीं हैं, रवि हैं। श्रोता को समझ भी नहीं आता, वह शब्दों में खो गया है, अथवा आवाज की मिठास में। इसी फिल्म के एक और गीत, इन हवाओं में, इन फिज़ाओं में, में आशा भोंसले का कंठ अधिक मधुर है अथवा महेन्द्र कपूर का, आप ही बताइए।।

गुमराह(1963) के बाद वक्त(1965) और हमराज(1967) गीत संगीत के हिसाब से सफल रही, जहां साहिर और महेन्द्र कपूर अपने जलवे बिखेरते नजर आए। इसके बाद की तीन फिल्में क्रमशः धुंध, (1973)इंसाफ का तराजू(1980) और निकाह(1982) बॉक्स ऑफिस पर चली जरूर लेकिन तब तक चोपड़ा साहब का एक और रफी तैयार करने का सपना चूर चूर हो चला था। फिल्म वक्त में थक हारकर उन्हें वापस रफी साहब की ही आवाज लेनी पड़ी। आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे, कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज़।।

फिल्म हमराज़ के तीनों गीत, नीले गगन के तले, तुम अगर साथ देने का वादा करो अथवा किसी पत्थर की मूरत से, जब मैं सुनता हूं, तो मुझे महेन्द्र कपूर की सूरत में साहिर की सीरत नजर आती है।

इतनी सॉफ्ट मखमली आवाज से वे शुरू करते हैं, लेकिन अपनी रेंज में रहते हुए खूबसूरत आलाप भी बखूबी ले लेते हैं। वे कहीं भी बेसुरे नजर नहीं आते। साहिर और महेन्द्र कपूर के सर्वश्रेष्ठ गीतों का एल्बम अगर बनेगा तो उसमें ये गीत अवश्य शामिल होंगे।

साहिर और महेंद्र कपूर की सबसे यारी रही। गुरुदत्त की प्यासा हो या कागज़ के फूल, साहिर ने अगर संगीतकार रवि के लिए गीत लिखे तो चित्रगुप्त और लक्ष्मी प्यारे के लिए भी। बस शायद नौशाद और शंकर जयकिशन को कभी साहिर की याद नहीं आई। एक के पास अगर शकील थे तो दूसरे के हाथ में दो दो लड्डू, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी।।

साहिर और महेन्द्र कपूर का ही एक गीत है, संसार की हर शै का, इतना ही फसाना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है। एक और शायर कैफ़ी आज़मी गुरुदत्त के लिए भी कह गए, जो हम सब पर लागू होता है,

देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #263 ☆ नसीहत बनाम तारीफ़… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नसीहत बनाम तारीफ़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 263 ☆

☆ नसीहत बनाम तारीफ़… ☆

‘नसीहत वह सच्चाई है, जिसे हम कभी ग़ौर से नहीं सुनते और तारीफ़ वह धोखा है, जिसे हम पूरे ध्यान से सुनते हैं’–जी हाँ! यही है हमारे जीवन का कटु सत्य। हम वही सुनना चाहते हैं, जिसमें हमें श्रेष्ठ समझा गया हो; जिसमें हमारे गुणों का बखान और हमारा गुणगान हो। परंतु वह एक धोखा है, जो हमारे विकास में बाधक होता है। इसके विपरीत जो नसीहत हमें दी जाती है, उसे हम ग़ौर व ध्यान से कभी नहीं सुनते और न ही जीवन में धारण करते हैं। नसीहत हमारे भीतर के सत्य को उजागर करती है और हमें सही राह पर चलने को प्रेरित करती है; पथ-विचलित होने से हमारी रक्षा करती है। परंतु जीवन में चमक-दमक वाली वस्तुएं अधिक आकृष्ट करती हैं, क्योंकि उनमें बाह्य सौंदर्य होता है। यही आज के जीवन की त्रासदी है कि लोग आवरण को देखते हैं, आचरण को नहीं।

‘आवरण नहीं, आचरण बदलिए/ चेहरे से अपने मुखौटा उतारिए/ हसरतें रह जाएंगी मुंह बिचकाती/ तनिक अपने अंतर्मन में तो झांकिए।’ ये स्वरचित पंक्तियां जीवन के सत्य को उजागर करती हैं कि हमें चेहरे से मुखौटा उतार कर सत्य से साक्षात्कार करना चाहिए। हमारे हृदय की वे हसरतें, आशाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं पीछे रह जाएंगी; उनका हमारे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा, क्योंकि झूठ हमेशा पर्दे में छिप कर रहना चाहता है और सत्य अनेक परतों को उघाड़ कर प्रकट हो जाता है। भले ही सत्य देरी से सामने आता है और वह केवल उपयोगी व लाभकारी ही नहीं होता; हमारे जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है तथा उसकी सार्थकता को नकारने का सामर्थ्य किसी में नहीं होता। सत्य सदैव कटु होता है और उसे स्वीकारने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। इसलिए सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा साहित्य में वर्णित है, जो सबके लिए मंगलकारी है। सत्य सदैव शिव व सुंदर होता है, जो शुभ तथा सर्वजन- हिताय होता है।

सौंदर्य के दो रूप हैं–बाह्य व आंतरिक सौंदर्य। बाह्य सौंदर्य रूपाकार से संबंध रखता है और उसमें छल की संभावना बनी रहती है। इस संदर्भ में यह कथन सार्थक है– ‘Beautiful faces are always deceptive.’ क्योंकि जो चमकता है, सदैव खरा व सोना नहीं होता। उस पर भरोसा करना आत्म-प्रवंचना है। यदि सोने को कीचड़ में फेंक दिया जाए, तो भी उसकी चमक-दमक कम नहीं होती और हीरे के जितने भी टुकड़े कर दिए जाएं; उसकी कौंध भी यथावत् बनी रहती है। इसलिए आंतरिक सौंदर्य अनमोल होता है और मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों का संचय करना चाहिए। प्रसाद जी भी जीवन में दया, माया, ममता, स्नेह, करूणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग आदि की आवश्यकता पर बल देते हैं। वे जीवन को केवल सुंदर ही नहीं बनाते; आलोकित व ऊर्जस्वित भी करते हैं। वास्तव में वे अनुकरणीय जीवन-मूल्य हैं।

जीवन में दु:ख व करुणा का विशेष स्थान है। महादेवी जी दु:ख को जीवन का अभिन्न अंग स्वीकारती हैं। क्रोंच वध को देखकर बाल्मीकि जी के मुख से जो शब्द नि:सृत हुए, वे ही प्रथम श्लोक के रूप में स्वीकारे गये। ‘आह से उपजा होगा गान’ भी यही दर्शाता है कि दु:ख, दर्द व करुणा ही काव्य का मूल है और संवेदनाएं स्पंदन हैं, प्राण हैं। वे जीवन को संचालित करती हैं और संवेदनहीन प्राणी घर-परिवार व समाज के लिए हानिकारक होता है। वह अपने साथ-साथ दूसरों को भी हानि पहुंचाता है। जैसे सिगरेट का धुआं केवल सिगरेट पीने वाले को ही नहीं; आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। उसी प्रकार सत्साहित्य व धर्म-ग्रंथों को उत्कृष्ट स्वीकारा गया है, क्योंकि वे आत्म-परिष्कार करते हैं और जीवन को उन्नति के शिखर पर ले जाते हैं। इसलिए निकृष्ट साहित्य व ग़लत लोगों की संगति न करने की सलाह दी गई है और बुरी संगति की अपेक्षा अकेले रहने को श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। श्रेष्ठ साहित्य मानव को शीर्ष ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं तथा जीवन में समन्वय व सामंजस्य की सीख देते हैं, क्योंकि समन्वय  के अभाव में जीवन में संतुलन नहीं होगा और दु:ख अनवरत आते रहेंगे। सो! मानव को सुख में कभी फूलना नहीं चाहिए और दु:ख में विचलित होने से परहेज़ रखना चाहिए। यहां मेरा संबंध अपनी तारीफ़ सुनकर फूलने से है। वास्तव में वे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमारी तारीफ़ों के पुल बांधते हैं तथा उन शक्तियों व गुणों को दर्शाते हैं;जो हमारे भीतर होती ही नहीं। यह प्रशंसा का भाव हमें केवल पथ-विचलित ही नहीं करता, बल्कि इससे हमारी साधना व विकास के पहिये भी थम जाते हैं। हमारे अंतर्मन में अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव जाग्रत हो जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हृदय में संचित स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति आदि दैवीय भाव इस प्रकार नदारद हो जाते हैं, जैसे वह उनका आशियाँ ही न हो।

वास्तव में निंदक व प्रशंसा के पुल बांधने वाले हमारे शत्रु की भूमिका अदा करते हैं। वे नीचे से हमारी सीढ़ी खींच लेते हैं और हम धड़ाम से फर्श पर आन पड़ते हैं। इसलिए कबीरदास जी ने निंदक को सदैव अपने अंग-संग रखने की सीख दी है, क्योंकि ऐसे लोग अपना अमूल्य समय लगाकर हमें अपने दोषों से परिचित कराते हैं; जिनका अवलोकन कर हम श्रेष्ठ मार्ग पर चल सकते हैं और समाज में अपना रुतबा क़ायम कर सकते हैं। सो! प्रशंसक निंदक से अधिक घातक व पथ का अवरोधक होते हैं, जो हमें अर्श से सीधा फर्श पर धकेल देते हैं।

हम अपने स्वाभावानुसार नसीहत को ध्यान से नहीं सुनते, क्योंकि वह हमें हमारी ग़लतियों से अवगत कराती है। वैसे ग़लत लोग सभी के जीवन में आते हैं, परंतु अक्सर वे अच्छी सीख देकर जाते हैं। शायद इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ग़लती बेशक भूल जाओ, लेकिन सबक अथवा नसीहत हमेशा याद रखो, क्योंकि दूसरों के अनुभव से सीखना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम कला है।’ इसलिए जीवन में जो आपको सम्मान दे; उसी को सम्मान दीजिए, क्योंकि हैसियत देखकर सिर झुकाना कायरता का लक्षण है। आत्मसम्मान की रक्षा करना मानव का दायित्व है और जो मनुष्य अपने आत्म- सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, वह किसी अन्य के क्या काम आएगा? सो! विनम्र बनिए, परंतु सत्ता व दूसरों की हैसियत देखकर स्वयं को हेय समझ, दूसरों के सम्मुख नतमस्तक होना निंदनीय है, कायरता का लक्षण है।

इच्छाओं की सड़क बहुत दूर तक जाती है। बेहतर यही है कि ज़रूरतों की गली में मुड़ जाएं। जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा लेते हैं तो तनाव व अवसाद की स्थिति नहीं प्रकट होती। सो! जब हमारे मन में आत्म-संतोष का भाव व्याप्त होता है; हम किसी को अपने से कम नहीं आंकते। सो! झुकने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि संवाद में विश्वास रखें, विवाद में नहीं, क्योंकि विवाद से मनमुटाव व अंतर्कलह उत्पन्न होता है। हम बात की गहराई व सच्चाई से अवगत नहीं हो पाते और हमारा अमूल्य समय नष्ट होता रहता है। संवाद की राह पर चलने से रिश्तों में मज़बूती आती है तथा समर्पण भाव पोषित होता है। इसलिए हमें दूसरों की नसीहत पर ग़ौर करना चाहिए और उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मानव को जीवन में जो अच्छा लगे; अपना लेना चाहिए तथा जो मनोनुकूल न हो; मौन रहकर त्याग देना चाहिए। सो! प्रोत्साहन व प्रशंसा के भेद को समझना आवश्यक है। प्रोत्साहन हमें ऊर्जस्वित कर बहुत ऊंचाइयों पर ले जाता है, वहीं प्रशंसा का भाव हमें फ़र्श पर ला पटकता है। यदि प्रशंसा गुणों की जाती है तो सार्थक है और हमें अच्छा करने को प्रेरित करती है। दूसरी ओर यदि प्रशंसा दुनियादारी के कारण की जा रही है, उसके परिणाम विध्वंसक होते हैं। जब हमारे भीतर अहम् रूपी शत्रु प्रवेश पा जाता है तो हम अपनी ही जड़ें काटने में मशग़ूल हो जाते हैं। हम अपने सम्मुख दूसरों के अस्तित्व को नकारने लगते हैं तथा अपने सब निर्णय दूसरों पर थोप डालना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने आदेशों के अनुपालना न होने पर हम प्रतिपक्षी के प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करते। हर चीज की अधिकता बुरी होती है, चाहे अधिक मीठा हो या अधिक नमक। अधिक नमक रक्तचाप का कारण बनता है, तो अधिक चीनी मधुमेह का कारण बनती है। सो! जीवन में संतुलन रखना आवश्यक है। जो भी निर्णय लें–उचित- अनुचित व लाभ-हानि को देख कर लें अन्यथा वे बहुत हानि पहुंचाते हैं। ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही न ज़िंदगी को रुसवा कीजिए/ हसरतें न रह जाएंगी दिल में अधूरी/ कभी ख़ुदा से भी राब्ता किया कीजिए। ‘जी हां! आत्मावलोकन कीजिए। विवाद व प्रशंसा रूपी रोग से बचिए तथा दूसरों की नसीहत को स्वीकारिए, क्योंकि जो व्यक्ति दूसरों के अनुभव से सीखते हैं; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का अनुसरण करते हैं और जीवन में खुशी व सुक़ून से जीवन जीते हैं। कोई सराहना करे या निंदा–लाभ हमारा ही है, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है तो निंदा सावधान होने का अवसर प्रदान करती है। इसलिए मानव को अच्छी नसीहतों को विनम्र भाव से जीवन में धारण करना चाहिए।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 579 ⇒ बड़े बूढ़े और महान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े बूढ़े और महान।)

?अभी अभी # 579 ⇒ बड़े बूढ़े और महान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जन्म से कोई बड़ा नहीं होता। बिना बड़ा हुए कोई बूढ़ा भी नहीं होता। कुछ लोग बड़े तो हो जाते हैं, लेकिन कभी बूढ़े नहीं होते। ऐसे लोग बोलचाल की भाषा में बिग बी कहलाते हैं। बिन्दास रोमांस और कम उम्र की लड़कियों के साथ फ्लर्ट करते हैं, और अगर इन्हें बूढ़ा कहो, तो पलटकर जवाब देते हैं, बूढ़ा होगा तेरा बाप।

होते हैं, होते हैं कुछ लोग ऐसे भी, जो ठीक से बड़े भी नहीं हो पाते, और बूढ़े हो जाते हैं। नीरज ने शायद इशारों इशारों में ही सही, यही बात कही है ;

नींद भी खुली ही न थी

कि हाय धूप ढल गई

पांव जब तलक उठे

कि जिंदगी फिसल गई

बड़ा होने, और बूढ़ा होने में बहुत फर्क है। जहां बड़प्पन और बुढ़ापा एक साथ नजर आता है, वहीं आसपास हमें एक बड़ा बूढ़ा नजर आता है। ए.के.हंगल को आपमें हर दृष्टि से एक बड़ा बूढ़ा नजर आएगा।।

बहुत पहले डाबर च्यवनप्राश का एक विज्ञापन आता था, जिसमें एक अधेड़ व्यक्ति को सीढियां चढ़ते दिखाया जाता था, इस शीर्षक के साथ, साठ साल के बूढ़े अथवा साठ साल के जवान ? आजकल ऐसे विज्ञापन आउट ऑफ फैशन हो गए हैं, क्योंकि योगा और जिम, मेन्स पार्लर और विमेंस ब्यूटी पार्लर, हेयर डाई, डेंटल केयर और आई एंड फेशियल सर्जरी इंसान को बूढ़ा होने ही नहीं देती। कल के एक पैंतालीस वर्ष के अधेड़ इंसान के आगे आज का एक पचहत्तर वर्ष का आधुनिक इंसान, पुराने लेकिन हमेशा जवां गीत की तरह आकर्षक और मनमोहक प्रतीत होता है।

बढ़े और बूढ़े के बीच की एक अवस्था और होती है जहां आदमी बड़ा होने के बाद और भी बड़ा होता चला जाता है। इसे आप बोलचाल की भाषा में कामयाबी कह सकते हैं। कामयाबी कभी इंसान को बूढ़ा नहीं होने देती। आदमी पढ़ लिखकर बड़ा आदमी तो बन सकता है, लेकिन उपलब्धियां ही उसे एक कामयाब इंसान भी बनाती है।।

उपलब्धियां कोई लॉलीपॉप नहीं और ना ही कोई फूले हुए रंग बिरंगे गुब्बारे। कामयाबी से प्रसिद्धि, प्रसिद्धि से उपलब्धि और अल्टीमेट उपलब्धि तो खैर महानता ही है, जो इंसान को न तो बूढ़ा होने देती है और न ही मरने देती है। महान लोग अमर हो जाते हैं।

कहने वाले तो यहां तक कह गए हैं, कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महान बनकर दिखाते हैं, और कुछ पर महानता थौंप दी जाती है। जन्म से महानता की बात तो हमारी समझ से परे है, और बाकी के बारे में, नो कमेंट्स।।

कोई साधारण व्यक्ति कब एक बड़ा आदमी बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। बूढ़ा होना भी कहीं कोई उपलब्धि है।

पहले सिटिजन थे, फिर सीनियर सिटिजन बन गए। वे तनकर चले, जब तक वेतन था, लाइफ सर्टिफिकेट पर तो झुककर ही हस्ताक्षर किया जाता है।

अगर आप बूढ़ा नहीं होना चाहते, हमेशा बड़ा बने रहना चाहते हैं तो उपलब्धियों की बैसाखी को थामे रहिए। कुछ पद्म पुरस्कार, कुछ सम्मान, एक ऐसी संजीवनी है, जो आपको अपनी निगाहों में ऊंचा उठा देगी। हो सकता है, महानता आपकी राह देख रही हो, अथवा बिल्ली के भाग से छींका टूट जाए और आप पर महानता थौंप दी जाए। महानता तेरा बोलबाला, बुढ़ापा, तेरा मुंह काला।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 228 ☆ मेलजोल का प्रतीक : मकर संक्रांति पर्व… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मेलजोल का प्रतीक : मकर संक्रांति पर्व। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 228 ☆ मेलजोल का प्रतीक : मकर संक्रांति पर्व

सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण संक्रांति कहलाता है । 14 जनवरी को सूर्य उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं इसलिए ये और भी खास होता है । सनातनी सभी लोग तीर्थ स्थानों में जाकर वहाँ नदियों में श्रद्धा पूर्वक डुबकी लगाते हैं । दान पुण्य करके प्रसन्नता का भाव रखते हुए तिल -गुड़ व खिचड़ी का सेवन करते हैं।

प्रयागराज महाकुंभ का मेला आस्था, भक्ति, श्रद्धा , विश्वास , साधना, शक्ति व सम्पूर्ण समर्पण का प्रतीक है । आइए प्रेम से कहें…

तिल गुड़ के लड्डू खायेंगे, पर्व संक्रांति का मनायेंगे ।

झूमेंगे संग  गुनगुनायेंगे, कुंभ मेले में हम तो जायेंगे ।।

*

तिल – तिल कर न जले कोई, राह ऐसी नयी बनायेंगे ।

गीत खुशियों भरे जहाँ होवें, गम के बादल को मिल ढहायेंगे ।।

*

सजा है आसमाँ  पतंगों   से, नेह के  रंग सब उड़ायेंगे ।

पेंच पड़ते हुए गजब देखो, डोर मिल प्रीत की बढ़ायेंगे ।।

*

दृश्य क्या खूब हुआ मौसम का, संगम में डुबकियाँ लगायेंगे ।

श्रद्धा से भोग चढ़ा आयेंगे, पर्व संक्रांति का मनायेंगे ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 578 ⇒ सूत उवाच ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सूत उवाच…।)

?अभी अभी # 578 ⇒ सूत उवाच ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यारों, शीर्षक हमारे पर मत जाओ ! कल एक भूले बिसरे मित्र का फोन आया, प्रदीप भाई कैसे हो !

ठंड में कोई खैरियत पूछे तो वैसे ही बदन में थोड़ी गर्मी आ जाती है। क्या आपने कभी पतंग उड़ाई है, उनका अगला प्रश्न था। उन्होंने मेरे जवाब का इंतजार नहीं किया और दूसरा प्रश्न दाग दिया, क्या कभी मंजा सूता है ? जो प्रश्न उन्हें सूत जी से पूछना था, वह उन्होंने मुझसे पूछ लिया। इसके पहले कि सूत उवाच, मैं अवाक् !और मैं पुरानी यादों में खो गया।

आज जिसे हमारे स्वच्छ शहर की कान्हा नदी कहा जाता है, तब यह खान नदी कहलाती थी, और हमें इसकी गंदगी से कोई शिकायत नहीं थी। रामबाग और कृष्णपुरा ब्रिज के बीच, एक पुलिया थी, जिसे हम बीच वाली पुलिया कहते थे। यह हमारे घर और मिडिल स्कूल को आपस में जोड़ती थी। खान नदी के आसपास तब बहुत सा, हरा भरा मैदान था, जो हमारे लिए खुला खेल प्रशाल था। यह पुलिया सूत पुत्रों के लिए मंजा सूतने के काम आती थी। कांच को बारीक पीसने से लगाकर पतंग उड़ाने, काटने और लूटने का काम यहां बड़े मनोयोग से किया जाता था।।

ऐसा नहीं कि हमने कभी पतंग नहीं उड़ाई। जब भी उड़ाई, पतंग ने आसमान नहीं देखा, हमने हमेशा मुंह की खाई। जिसके खुद के पेंच ढीले होते हैं, वे दूसरों की पतंग नहीं काटा करते। लूटमार से हम शुरू से ही दूर रहे हैं, किसी की कटी पतंग भला हम क्यों लूटें।

हमारे इसी शांत स्वभाव के कारण हमने देवानंद की फिल्म लूटमार और ज्वेल थीफ़ भी नहीं देखी।

जब मंजा सूतने में मैने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई तो मित्र ने अगला प्रश्न किया, अच्छा आपने सराफे की चाट तो खाई ही होगी और कभी दाल बाफले भी तो सूते ही होंगे और जब स्कूल में माड़ साब बेंत से सूतते थे, तब कैसा लगता था। पहले चाट और दाल बाफले और बाद में सुताई, यह क्या है भाई, हम फोन रखते हैं भाई। और हमने फोन रख दिया।।

हमारा यह मिडिल स्कूल वैसे भी सुभाष मार्ग और महात्मा गांधी मार्ग के बीच सैंडविच बना हुआ था। हमारे गांधीवादी हेडमास्टर ने हमसे चरखा भले ही नहीं चलवाया हो, तकली पर सूत जरूर कतवाया है।

हम यह भी जानते हैं कि सूत को सूत्र भी कहते हैं और पुरुष मंगलसूत्र नहीं, यज्ञोपवीत धारण करते हैं, जो सूत के धागों से ही बनती है। सूत पुत्र दासी के पुत्र को भी कहते हैं और पवन के पुत्र को भी पवनसुत कहते हैं।।

आज तिल गुड़ का दिन है, जिन्हें मंजा सूतना है, मंजा सूतें, पतंग उड़ाएं, पेंच लड़ाएं, किसी की पतंग तो किसी के विधायक लूटें, हम तो बस मीठा खाएंगे मीठा बोलेंगे, मंजा नहीं, मज़ा लूटेंगे और भरपूर प्यार लुटाएंगे।

शुभ मकर सक्रांति !

सूत उवाच ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 200 – व्यंग्य- – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “परीक्षा की तैयारी के पंच)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 200 ☆

☆ आलेख – परीक्षा की तैयारी के पंच ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

परीक्षा की तैयारी छात्र जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। यह सफलता प्राप्त करने का एक माध्यम है, लेकिन इसके लिए सही रणनीति और मानसिक तैयारी की आवश्यकता होती है। हम इसकी जितनी बेहतर तैयारी करेंगे सफलता उसी अनुपात में हमें प्राप्त होगी।यही वजह है कि अच्छे परिणामों के लिए एक व्यवस्थित योजना बनानी चाहिए और उसे समय पर लागू करना चाहिए।

1. समय प्रबंधन:

राजीव कहता है कि यदि समय प्रबंधन करके मैंने पढ़ाई नहीं की होती तो मैं आज सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण नहीं होता। यही वजह हैं कि छात्रों के लिए सबसे पहले, समय का सही उपयोग करना आवश्यक है। इसके लिए आप तीन काम कर सकते हैं –

अध्ययन के लिए निश्चित समय तय करें और उसे नियमित रूप से पालन करें।

लिखने और पढ़ने का एक टाइम टेबल बनाकर उसे सही तरीके से फॉलो करें।

इसके साथ खेलने और मनोरंजन का समय भी तय करें।

2. विषयों को प्राथमिकता:

अपने समय में सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण हुई अनीता का कहना है कि सबसे पहले मैंने अपनी कमजोरी को समझा। मैं किस विषय में कमजोर हूं। यह जानकर मैंने विषय को प्राथमिकता देना तय किया। इसके लिए मैंने एक महत्वपूर्ण कार्य किया जो इस प्रकार है–

सभी विषयों को एक समान महत्व देने के बजाय, कठिन और महत्वपूर्ण विषयों को पहले तय करें।

उन्हें अच्छे से समझने का प्रयास करें।

अध्ययन के समय पहले कठिन फिर सरल, फिर कठिन और फिर सरल के क्रम में विषय को विभक्ति करें। तदनुसार उसको समझने का प्रयास करें।

3. मानसिक शांति:

वैभव कहता है कि एक बात बहुत जरूरी है जिनका छात्र कभी ध्यान नहीं रखते हैं। वह है- परीक्षा के समय तनाव प्रबंधन करने की। परीक्षा के समय मानसिक तनाव सामान्य होना, सामान्य बात होती है, मगर इसे नियंत्रित करना जरूरी है। इसके लिए प्रत्येक छात्र को दोएक काम करना चाहिए–

योग, ध्यान, और अच्छी नींद नियमित रूप से ले।

परीक्षा से घबरा बिना मानसिक शांति बनाए रखें।

4. निरंतर अभ्यास:

गौरव अपनी सफलता का राज अपने अभ्यास को देता है। उसका कहना है कि हरेक छात्र को यह काम नियमित रूप से करना चाहिए—

नियमित रूप से मॉक टेस्ट और पुराने प्रश्न पत्र को हल करें। इससे न केवल आत्मविश्वास बढ़ता है, बल्कि परीक्षा के पैटर्न का भी ज्ञान होता है।

5. आत्म-मूल्यांकन:

मोनिका कहती है कि परीक्षा में आत्मविश्वास बनाए रखना सबसे बड़ी बात है। यदि हमने अपना आत्म मूल्यांकन किया हो तो हमें अपने ऊपर आत्मविश्वास भरपूर होता है। इसके लिए हम निम्न काम कर सकते हैं –

समय-समय पर अपनी तैयारी का मूल्यांकन करें।

यह देखे कि कौनसा विषय मजबूत हैं और किसमें सुधार की आवश्यकता है।

जिसमें सुधार की आवश्यकता है उसमें मेहनत करके उसमें सुधार करें।

निष्कर्षतः

राहुल का कहना है कि इसके बावजूद हमें एक बात सदैव ध्यान रखना चाहिए। परीक्षा की तैयारी धैर्य, समर्पण और सही दिशा से की जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसे अपने आत्मविश्वास और सही दृष्टिकोण से अपनाने की जरूरत है। इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03/01/2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 577 ⇒ बहुत बड़ा आदमी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बहुत बड़ा आदमी।)

?अभी अभी # 577 ⇒ बहुत बड़ा आदमी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे शहर में जब जैमिनी सर्कस आता था, तो शाम को आकाश से सर्च लाइट चमकती थी और दिन में दो लंबे बांस के ऊपर चलता आदमी जैमिनी सर्कस का प्रचार करता हुआ सड़क पर चलता नज़र आता था। हमारी नज़र में तब वह सबसे बड़ा आदमी नज़र आता था।

समय समय की बात है ! जैसे जैसे हम बड़े होते गए, बड़े और बहुत बड़े आदमी की परिभाषा बदलती चली गई। सड़क पर खड़े पुलिस वाले से, पुलिस बाबा राम राम कहना, बड़े फख्र की बात थी, और जब वह जवाब देता, तो यही फीलिंग आती थी, मानो किसी बड़े आदमी से मिलकर आ रहे हों। जब कोई बड़ा आदमी पूछता, बेटा, बड़े होकर क्या बनोगे, तो मुँह से झट से पुलिस वाला ऐसा निकलता था, मानो अमेरिका का राष्ट्रपति बनने की बात कही हो।।

ईश्वर की निगाह में हर इंसान बराबर है। आदमी की एक जात होती है, लेकिन हर आदमी की अपनी औकात भी होती है। आप सुविधा की दृष्टि से इन्हें छोटा आदमी, आम आदमी, बड़ा आदमी और बहुत बड़ा आदमी कह सकते हैं।

छोटा आदमी बड़ा सुखी होता है, वह सिर्फ आदमी बनना चाहता है। उसे बड़ा आदमी नहीं बनना ! बड़ा आदमी बनना इतना आसान भी नहीं। खूब पढ़ना-लिखना, धंधा-व्यापार करना, रिश्वत लेना-देना, शेयर मार्केट पर नज़र रखना सबके बस की बात नहीं। राजनीति में चालाक, धूर्त, बेईमान और स्वार्थी बने बिना क्या कोई बड़ा आदमी बना है। ईमानदार बनने और दिखने में बड़ा अंतर होता है।।

कोशिश करके छोटा आदमी, आदमी भी बना रह सकता है, और बड़ा आदमी भी बन सकता है, लेकिन बहुत बड़ा आदमी बनना इतना आसान नहीं ! आपकी पहुँच किसी बड़े आदमी तक तो आसानी से हो सकती है, लेकिन बहुत बड़े आदमी तक पहुँचने के लिए आपको कम से कम बड़ा आदमी तो बनना ही होगा।

हममें से बहुत, बड़े आदमी बन गए, लेकिन उनमें से जो बहुत बड़े आदमी बन गए, वो हमसे बहुत दूर चले गए। अब हम उनके महज प्रशंसक बन रह गए। आप whatsapp पर अपने मित्रों, रिश्तेदारों और परिचितों से जुड़ सकते हो। कई बड़े आदमी आपके फेसबुक फ़्रेंड भी हो सकते हैं। लेकिन बहुत बड़ा आदमी आजकल केवल ट्विटर पर उपलब्ध होता है, और फेसबुक पर वायरल होता है।।

बहुत बड़े आदमी आजकल ट्वीट करते हैं। ट्विटर पर उनके प्रशंसकों के आंकड़े आते हैं। बहुत बड़े आदमी के प्रशंसक ही फेसबुक पर उसका मोर्चा संभाल लेते हैं। बहुत बड़े आदमी का सम्मान उनका सम्मान होता है, और बहुत बड़े आदमी का अपमान, उनका अपना अपमान। आप बहुत से बड़े आदमियों को जानते होंगे, लेकिन वे आपको नहीं, केवल अपने प्रशंसकों को जानते हैं। हर आदमी किसी बहुत बड़े आदमी को जानता है, लेकिन बहुत बड़ा आदमी उस आदमी को नहीं जानता।

बहुत से आदमी आज भी ऐसे हैं जो सिर्फ बिग बी और मोदी जी को ही बहुत बड़ा आदमी मानते हैं। बहुत बड़े आदमी को जाना नहीं जाता, सिर्फ माना जाता है। इसमें आखिर अपना क्या जाता है। आप जिसे चाहें बड़ा आदमी मानें, जिसे चाहे, बहुत बड़ा आदमी, आपकी मर्जी, आपकी पसंद। बस, उसमें एक खूबी हो, वह आदमी पहले हो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “कुम्भ, धार्मिक पर्यटन की विरासत…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

?  आलेख – कुम्भ, धार्मिक पर्यटन की विरासत…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रयागराज में आस्था का महाकुंभ 2025 पौष पूर्णिमा के दिन यानी 13 जनवरी 2025 से प्रारंभ होगा और 26 फरवरी 2025 को समाप्त होगा। महाकुंभ मेला हर 12 साल में एक बार होता है।)

भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है. भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं. प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है. और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है. द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा, नेपाल में पशुपतिनाथ, व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है.

इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं. मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई. प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है. शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है.

भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर, पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है. जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है. इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं.

इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर, चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं. चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा, नर्मदा नदी की परिक्रमा, जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं, एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं. आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है, स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार, जीवन शैली में जोड़ने का कार्य, विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है, जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं . हरिद्वार का नैसर्गिक महत्व, ॠषीकेश, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री चार धाम, मनसा देवी पीठ तथा माँ गंगा के कारण हरिद्वार कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है.

प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं, आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा. समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है. वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है, शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है, गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत, संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें होती हैं. लोगों का मिलना जुलना, वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है. धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है. पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है, हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है.

जब ऐसे विशाल, महीने भर की अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य, नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं, कला  विकसित होती है. प्रिंट मीडिया, व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोजन की  व्यापक चर्चा हो रही  है. लगभग हर अखबार प्रतिदिन कुंभ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है. अनेक पत्रिकाओ ने तो कुंभ के विशेषांक ही निकाले हैं. कुंभ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हो रही  हैं, जिनमें साधु संतो, मनीषियो और जन सामान्य की, साहित्यकारो, लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है. कुंभ के बहाने साहित्यकारो, चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है. विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है. क्षेत्र का विकास होता है, व्यापार के अवसर बढ़ते हैं.

कुंभ सदा से धार्मिक ही नहीं एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है, और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा. इस वर्ष कोविड के विचित्र संक्रमण काल में हरिद्वार कुंभ नये चैलेंज लिये आयोजित हो रहा है, हम सब की नैतिक व धार्मिक  सामाजिक जबाबदारी है कि हम कोविड प्रोटोकाल का खयाल व सावधानियां रखते हुये ही कुंभ स्नान व आयोजन में सहभागिता करें, क्योंकि यदि मन चंगा तो कठौती में गंगा. और मन तभी चंगा रह सकता है जब शरीर चंगा रहे.

प्रयागराज में आयोजित हो रहा महाकुंभ इसी धार्मिक पर्यटन, सांस्कृतिक कार्यों की हमारी विरासत का साक्षी बना हुआ है।

(चित्र – इंटरनेट से साभार)

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 575 ⇒ हठ – कड़ी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हठ – कड़ी।)

?अभी अभी # 575 ⇒ हठ – कड़ी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो किसी अपराधी को हाथों में बांधी जाती है, वह हथकड़ी होती है। आज बँधी है, कल छूट जाएगी, हो सकता है, वह अपराधी न हो। और अगर हो भी तो सज़ा काटने के बाद रिहा भी हो सकता है। देश के लिए मर मिटने वालों के लिए क्या फाँसी और क्या हथकड़ी। फिल्मों और आजकल के टीवी सीरियल ने वैसे भी हथकड़ी को मज़ाक बना दिया है। कई निर्माता निर्देशकों का ऐसा कोई सीरियल नहीं होगा, जिसमें नायक-नायिका ने हथकड़ी न पहनी हो, जेल न तोड़ी हो, और फाँसी के फंदे से वापस न आया हो।

हम इसीलिए हथकड़ी की नहीं हठ-कड़ी की बात कर रहे हैं। हठ एक रोग भी है, और योग भी। आज हम बाल-हठ, त्रिया-हठ और राज-हठ की चर्चा तो करेंगे ही, बाबा  के हठ-योग पर भी सर्च-लाइट डालेंगे।।

तो क्यों न त्रिया चरित्र के बजाय बाबा के हठयोग से ही शुरुआत की जाए। हठयोग प्रदीपिका के अनुसार ह (हकार) हमारी सूर्य नाड़ी अर्थात इड़ा है, और ठ (ठकार )चंद्र नाड़ी सुषुम्ना है। साधारण भाषा में प्राणायाम द्वारा सूर्य-चंद्र (उष्ण-शीतल)का सम अवस्था में सुषुम्ना में प्रवेश होता है, लेकिन अगर योग के नाम पर केवल कठिन आसन और यात्राएं ही निकाली जाएँ, तो वह केवल एक हठ के नाम पर बाजारवाद फैलाना ही है, जिसका समय समय पर राजनैतिक फायदा वैसे ही उठाया जा सकता है, जैसा धर्म के नाम पर राजनीति में होता आया है। कबीर जिस इड़ा पिंगला सुषुम्ना की बात करते हैं, वही अध्यात्म है, वास्तविक हठ योग है।

हठ को आप ज़िद कह दें, जुनून कह दें, चाहें तो एक तरह का पागलपन कह दें। सभी प्रकार के हठ में बाल-हठ निर्दोष और मासूम होते हुए भी दिलचस्प और श्रेष्ठ है। बच्चों जैसी ज़िद कभी कभी बड़े-बूढ़े भी करते हैं, लेकिन अगर एक बार बच्चा ज़िद पर आ गया, तो आकाश पाताल एक कर देता है। वह केवल माँ की सूझ-बूझ ही होती है, जो बच्चे की ज़िद पूरी करने के लिए आसमान के चाँद को जल के थाल में उतरने के लिए मज़बूर कर देती है। बच्चे के पहाड़ जैसे हठ को एक छोटा सा खिलौना पल भर में समतल कर उसके मन को बहला सकता है।।

त्रिया हठ पर अधिक कहना उचित नहीं ! हम सब अपनी गृहस्थी लिए बैठे हैं। जो गुज़र रही है मुझ पर, उसे कैसे मैं बताऊँ। सबके अपने अपने किस्से हैं, अनुभव हैं। एक त्रिया का हठ हमने देखा, जब उसमें राजहठ भी शामिल हो गया। यानी करेला और नीम चढ़ा।

राज हठ में टके सेर भाजी और टके सेर खाजा बिकना कोई बड़ी बात नहीं ! जब यह राजहठ हिटलर बन जाता है तो दुनिया में तबाही खड़ी कर देता है। दुर्योधन के हठ और धृतराष्ट्र के पुत्रमोह के कारण अगर महाभारत हो सकता है, तो एक चाणक्य के अपमान के कारण समूचे नंद-वंश का संहार। यही हठ अगर नेताजी सुभाषचंद्र बोस को अंग्रेजों के खिलाफ आज़ाद हिंद फ़ौज़ खड़ी करने की हिम्मत देता है तो एक लाठी लंगोटी वाले को न केवल महात्मा का दर्ज़ा दिलवाता है, अपितु बँटवारे का दोषी भी करार दिया जाता है।

नमक सत्याग्रह और जेल भरो आंदोलन से क्या कभी किसी देश को आज़ादी मिली है। स्वदेशी भावना के लिए विदेशी कपड़ों की होली जैसी नौटँकी में अगर दम होता, तो बाबा कब के गाँधीजी के अनुयायी हो जाते।।

गुलज़ार साहब ने एक गीत लिखा, चप्पा चप्पा चरखा चले ! उससे प्रेरित हो, एक बार मोदीजी ने चरखा चला भी दिया। लेकिन किसी ने प्रेरणा नहीं ली। जिस देश में गर्मी के मौसम में भी, गन्ने की चरखी को भी कोई नहीं पूछ रहा, वहाँ चरखे का क्या औचित्य ? अब गाँधी-भक्त  डिजिटल चरखा लाने से तो रहे।

हथकड़ी तो इंसान को केवल एक अपराधी ही घोषित करती है, लेकिन हठ, एक ऐसी हथकड़ी है, जो इंसान खुद अपने हाथ से ही पहन लेता है। उसे हठधर्मिता कहते हैं। केवल अपना नुकसान तो ठीक, महापुरुषों का हठ तो देश के साथ भी खिलवाड़ कर गुजरता है। समझौता एक्सप्रेस भले ही न चलाएं, लेकिन जब हठ का मामला हो, थोड़ा ठहर जाएँ। किसी का कहा मान जाएँ।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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