(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 108 ☆ देश-परदेश – भोजन की बर्बादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆
भोजन की बर्बादी को तो हमारे धर्म में पाप तक माना जाता है। कृषक कितनी मेहनत से अपनी फसल की पैदावार कर अनाज की उपज लेकर हमारी भूख को मिटाता है।
आप सोच रहे होंगे, विवाह का मौसम अभी आरंभ हुआ नहीं और भोजन की बर्बादी का ज्ञान देना आरंभ हो गया है। आज चर्चा ऑनलाइन भोजन उपलब्ध करवाने वाली बड़ी कंपनियां एक नई सुविधा आरंभ कर रहे हैं, उस को लेकर है।
ऑर्डर कर देने के बाद भी ग्राहक ऑनलाइन ऑर्डर रद्द भी कर सकता हैं। ऐसे मौके पर इस भोजन सामग्री का क्या हश्र होता होगा? इन खाद्य दूत कंपनियों को आज इस विषय पर चिंता होने लगी है। घर पहुंच सेवा देकर देश के लोगों और विशेषकर युवा पीढ़ी को आलसी बनाने में इनका योगदान सर्वविदित है।
अब इन रद्द हुए भोजन को सस्ते दाम में ये कंपनियां जनता को उपलब्ध करवा कर अपना श्रेय लेना चाहती हैं। कुछ नियम बन चुके हैं। युवा वर्ग या बाहरी भोजन के चटोरे इस को अधिक समझते हैं।
कल हमारे युवा पड़ोसी ने हमारे फोन से ज़ोमत्तों से भोजन ऑर्डर कर कुछ देर में कैंसिल कर दिया। उसके पांच मिनट बाद उसी भोजन को पच्चीस प्रतिशत दाम में अपने मोबाईल से ऑर्डर कर दिया।
हमारे फोन के इस्तेमाल करने की एवज में पड़ोसी ने हमको भी बाजार का घटिया भोजन अपने साथ करवाया। उसने तो भोजन की खरीदी मात्र 25% में करी। बाज़ार का भोजन दिखने और खाने में अच्छा लगता है। हमें तो और भी स्वादिष्ट लगा, बिल्कुल घर बैठे मुफ्त में जो मिला था। पाठक भी अपने रिस्क पर इस का लाभ ले सकते हैं, इससे पूर्व ऑनलाइन वाले इस योजना की कोई काट निकाल देवें।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ एन्जॉय करें…“।)
अभी अभी # 528 ⇒ आओ एन्जॉय करें श्री प्रदीप शर्मा
(Joy & enjoy)
खेलना कूदना, मौज मस्ती करना, सब एन्जॉय करना ही तो है आज की पीढ़ी के लिए। क्या खुशी और आनंद भी कभी अलग हुए हैं। लगता है अंग्रेजी के शब्द एन्जॉय में जॉय शब्द भी इनबिल्ट ही है।
जरा John Keats की जॉय की परिभाषा तो देखिए ;
A thing of beauty is a joy forever…
एक सुंदर चीज अंतहीन खुशी का स्रोत है। इसमें शाश्वत सुंदरता है जो कभी फीकी नहीं पड़ती। खुशी को तो महसूस किया जा सकता है, लेकिन एन्जॉय का अर्थ तो मौज मस्ती होता है, जो बाहरी होती है।
एक बच्चा जॉय और एन्जॉय में फर्क नहीं समझता। उसके लिए तो उसका टॉय ही जॉय और एंजॉयमेंट का साधन है। उम्र के साथ साथ उसके खिलौने भी बदलते रहते हैं, क्योंकि वह तो खुद ही एक कच्ची मिट्टी का घड़ा होता है। जिसे हम teens कहते हैं, यानी तेरह से उन्नीस वर्ष के बीच की उम्र, उसमें वह जैसा ढल गया, सो ढल गया। बाद में तो सिर्फ उसे तराशा ही जा सकता है। ।
युवा पीढ़ी की उम्र खाने पीने और मौज करने की होती है, जैसे अंग्रेजी में Eat, drink and be merry कहा जाता है। वे जॉय और एन्जॉय में फर्क नहीं करते क्योंकि उनके जीवन में के एल सहगल नहीं बाबा सहगल, हनी सिंह और अरिजीत सिंह होते हैं। वे तबला हारमोनियम के नहीं, डीजे और zaaz के शौकीन होते हैं। हमारी उम्र में हमने भी अंग्रेजी धुनों पर डांस किया है, एन्जॉय किया है।
शायद यही फर्क है जॉय और एन्जॉय में। आज की शादियों में जब स्टेज पर डांस होता है, तब जरा अपने आसपास की युवा पीढ़ी पर नजर डालकर देखिए, उनके पांव संगीत की धुन पर ऐसे थिरकने लगते हैं, मानो वे अभी नाचने लगेंगे। उनकी खुशी कब की आनंद में ढल चुकी है, जॉय एन्जॉय का भेद कबका मिट चुका है। उनके लिए वही समाधि अवस्था है, परमानंद है। ।
वह सर्वेश्वर नटवर नागर, रासबिहारी कृष्ण कन्हैया भी तो सोलह कलाओं से परिपूर्ण है।
संगीत, साहित्य और नृत्य की साधना भी तो ईश्वर की आराधना ही है। उसकी कलाओं में आकंठ डूब जाना ही वास्तविक आनंद है। जॉय एन्जॉय से ऊपर भी एक अवस्था है, जिसे परमानंद सहोदर कहा गया है, एक अतीन्द्रिय अनुभूति जिसे अंग्रेजी में ecstasy कहते हैं।
अनुभूति की सभी अवस्थाओं से गुजरने के पश्चात् ही तो ईश्वर की अनुभूति संभव है। हर अवस्था एक पड़ाव है, बाहर अगर मौज मस्ती है तो अंदर आंतरिक आनंद। कब आपकी मौज मस्ती में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता, अतः…
हर पल को एंज्वॉय करें, मन की मौज और मस्ती आपका इंतजार कर रहे हैं। ।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 265 ☆ वासुदेव: सर्वम्…
अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-
॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥
(10.181.2)
अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।
ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।
अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-
॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥
(3.30.3)
अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(अध्याय 4, श्लोक 71)
अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति। ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-
॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥
अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।
इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
(गीता 10।39)
अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥
(11/ 7)
अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।
एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(6।30)
अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’
इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥
अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।
संपृक्त श्रीमद्भागवत के इस अनहद नाद को सुनिए-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम
(2।9।32)
अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।
सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।…इति।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपके उपन्यास “पथरीला सोना” पर आधारित श्री राजेश सिंह “श्रेयस का आलेख “– प्रवासी साहित्य, साहित्यकार और “पथरीला सोना”–” । ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए हम श्री राजेश सिंह “श्रेयस” जी का आलेख जस का तस साभार प्रस्तुत कर रहे हैं।)
~ मॉरिशस से ~
☆ आलेख ☆ श्री राजेश सिंह श्रेयस की कलम से – प्रवासी साहित्य, साहित्यकार और “पथरीला सोना” ☆ साभार – श्री रामदेव धुरंधर ☆
(मेरे मित्र कलमकार राजेश सिंह जी ने ‘पथरीला सोना’ उपन्यास के जिक्र से मुझे वहाँ पहुँचा दिया जब मैं इसका लेखन कर रहा था। मैंने कभी पढ़ा था आचार्य चतुरसेन जी ने लिखा था वैशाली की नगर वधू जैसी दुरुह कृति लिखते वक्त उनकी आँखें खराब हो गई थीं। पथरीला सोना सात खंड लिखने से मेरी आँखें खराब नहीं हुईं। अस्सी के आस पास की उम्र में मेरी आँखें ठीक चल रही हैं। पर पथरीला सोना उपन्यास ने मेरी सेहत पर बहुत प्रहार किया। वह मुझे भुगतना पड़ा और मैंने स्वीकार किया। एक वृहत रचना के लिए वह एक तपस्या थी। अब श्री केशव मोहन पांडेय जी के सर्वभाषा प्रकाशन गृह दिल्ली की ओर से मेरी रचनावली छपने वाली है। इसमें मेरी तमाम विधाओं की रचनाएँ शामिल रहेंगी। विशेष कर पथरीला सोना उपन्यास के सात खंडों पर मुझे फिर से काम करना पड़ रहा है जो मैं कर रहा हूँ। बाकी आप लोंगों का प्रेम मेरे साथ है। विशेष कर राजेश सिंह तो मेरे बहुत ही अपने हो गए हैं। मैं डाक्टर दीपक पांडेय और उनकी श्रीमती नूतन पांडेय के प्रति बराबर रूप से कृतज्ञ हूँ जिन्होंने हिन्दी जगत में मेरे नाम को बहुत विस्तार दिया है। … आप लोगों का अपना ही रामदेव धुरंधर)
प्रवासी साहित्य और विशेष रूप से मॉरीशस के प्रवासी साहित्यकारों के विषय में मेरी रुचि क्यों बढ़ी… – राजेश सिंह “श्रेयस”
यह प्रश्न मेरे अपने और कुछ अन्य साहित्यकारों के मन में उठते थे और वे बार-बार मुझसे पूछते थे कि आपकी रुचि प्रवासी साहित्य और विशेष रूप से मॉरीशस के साहित्य पर और साहित्यकारों पर क्यों है तो मेरा इस प्रश्न का जवाब यह है कि इसका मूल कारण मेरा जनपद बलिया ही है। मुझको बलिया से बलिया के रग -रग से, बलिया की भाषा- बोली अपनी भोजपुरी से अत्यधिक लगाव है, जिसे मैं बयां नहीं कर सकता।
बलिया के एक गांव में पैदा हुआ उसकी धूल मिट्टी में खेल कर बडा हुआ। गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की, जहां पटरी, झोरा और टाट की बात होती थी। थोड़ा और आगे बढ़ा तो मैंने अपनी पढ़ाई रसड़ा के अमर शहीद भगत सिंह इंटर कॉलेज तत्कालीन किंग जार्ज सिल्वर जुबली इंटर कॉलेज में शुरू की। जब और ऊंची शिक्षा लेने का सौभाग्य मिला। तो मुझे मुरली मनोहर टाउन डिग्री कॉलेज और उसका खुला मैदान मिला।
जीवन के 40 वर्ष जब बलिया गुजरे हों तो क्या 18 – 20 वर्षों में लखनऊ में रहने से मेरे स्वभाव में परिवर्तन हो जाता क्या। मुझे मेरा बलिया छूट जाता क्या, कभी भी नहीं.
ऐसा हरगिज नहीं होता। मेरे बलिया के माटी से जुड़े होने की पहचान मेरे दोनों उपन्यास भी कराते हैं, चाहे वह “चाक सी नाचती जिंदगी” हो या “तुमसे क्या छुपाना हो बलिया” मेरी मातृभूमि और भोजपुरी मेरे साथ साथ यात्रा करती है।
बात कर रहा था मैं प्रवासी साहित्य का तो अधिकांश गिरमिटिया मजदूर या तो उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल से मारिशस या अन्य कैरेबियन देश गए या तो बिहार से गए। वे अपनी जड़ से दूर बेशक गए लेकिन अपने साथ ले गए भारतीय संस्कृति, भारतीय संस्कार, अपनी बोली, अपनी भाषा और अपनी भोजपुरी। इधर मैं बलिया में आयोजित होने वाले राष्ट्रीय साहित्य समारोह के सिलसिले में साहित्य के साहित्यकारों के कुछ अनछुए अंश को छूने की कोशिश कर रहा था, तभी अचानक मेरे हाथ में एक ग्रंथ छू गया जिसका नाम था पथरीला सोना।
पथरीला सोना एक ऐसा ग्रंथ है जो कि पोने दो सौ साल पहले भारत से सुदूर देश मारिशस गए गिरमिटिया मजदूर की यात्रा की कहानी लिखता है। जब कुछ और गहराई में गया तो पता चला कि रामदेव धुरंधर के इन उपन्यासों जिनके प्रत्येक खंड 500 पेज का है और इसके छ : खंड प्रकाशित हो चुके हैं। यदि सातवें खंड को छोड़ दिया जाए तो शेष है छः खंड लगभग साढ़े तीन सौ पेज के हुए।
मॉरीशस में हिंदी के कई एक साहित्यकार बहुत ही प्रसिद्ध हुए और उनकी कृतियों ने बहुत ज्यादा ख्याति बटोरी।
श्री अभिमन्यु अनत उन्हीं साहित्यकारों में से एक है, और उनकी कृति होती है लाल पसीना। जैसा कि उस कृति का शीर्षक लाल पसीना है यह गिरमिटिया मजदूरों के शुरुवाती दिनों के संघर्ष को बयां करती है,।
वहीं यदि श्री रामदेव धुरंधर के पथरीला सोना (समग्र ) की बात करूं तो साहित्य सोने की यह चट्टान भारत से मॉरीशस गए मजदूरों के हर दर्द और ख़ुशी को बतलाने के लिए पर्याप्त है।
हम बलियावासी या पूर्वांचलवासी लोग या बिहार के लोग सीधे-साधे होते रहे, मेहनतकश होते हैं और मेहनत करके हम सब कुछ पाने की कला जानते रहे हैं, ऐसा सब लोग कहते हैं। यही एक कारण था कि ब्रिटिश और फ्रेंच शासको के एजेंट इन्हे एग्रीमेंट के तहत अपने देश ले गए और उन्होंने कहा कि आप वहां चलोगे तो पत्थर हटाओगे तो उसके नीचे से सोना निकलेगा। इस सोने की तलाश में भारत से ढेर सारे गरीब मजदूर अपने घर – द्वार को छोड़कर पानी की जहाज से मॉरीशस के लिए चल दिए। उन्हें क्या पता था कि यह एग्रीमेंट उसको गिरमिटिया बना देगा। सोना पाने की इच्छा से यात्रा आगे तो अवश्य बढ़ रही थी, लेकिन उन्हें नरक सा जीवन मिलने वाला है, ऐसा उन्हें बिल्कुल भी पता नही था।
पथरीला सोना को पढ़ते पढ़ते, मुझे ऐसा लगने लगा कि हम अपनी माटी से जुड़ते चले जा रहे हैं। भारत से मॉरीशस गए एक मजदूर की तीसरी पीढ़ी की कलम इतने दिनों बाद कुछ ऐसा लिखेंगी, जिसमे मेरी माटी की सुगंध आ रही हो।
उपन्यास अपनी यात्रा पर था। उसके कथानक में जहाज समुद्र के बीचो-बीच पहुंच जाता है। अचानक जहाज के शीर्ष पर एक पक्षी आता है, जहाज में बैठे मजदूरो को लगता है इन कि शायद वह देश आ गया जहां के लिए हम निकले थे लेकिन यह उसकी सोच झूठी थी क्योंकि वह जगह हुआ। यह पंछी तो फिर से वापस लौट के और जाकर दोबारा जहाज के शीर्ष पर नहीं बैठे। जहाज तो किसी अन्य दीप के बगल से गुजर रहा था और वह पंछी वहां का था, जो वापस लौटकर अपने दीप चला गया। लेकिन मझधार में फंसा कौन था। फंसा था वह गरीब मजदूर – एक बेबस इंसान, जो किसी भरोसे की यात्रा पर निकाला था। पर वह भरोसा सच में धोखा था।
लेकिन अब वह करता ही क्या। प्रवासी घाट पर उतरने के बाद एक दृष्टांत आता है कि मजदूरों को ले जाने के लिए अलग-अलग ठेकेदार अपने लिए आवंटित संख्या के साथ खड़े थे। जितने मजदूर उतरते थे, उन्हें उस अनुपात में बांट दिया जाता। जिन्दे सामान की छिना झपटाई में कब पति से पत्नी, बाप से बेटा अलग हो गए कुछ पता नहीं चला। किसी का चिल्लाना कहीं काम नही आया।
पूरे दिन पत्थरों को उलटते पुलटते, वे सोना नही ढूढ़ रहे थे, वे तो एक मिट्टी की तलाश कर रहे थे, जिनमे गोरो के लिए गन्ना पैदा हो। इन मजदूरों के गिरते पसीने की बूंदें, लहू सी लाल दिखती। यही धुरंधर जी का पथरीला सोना और अभिमन्यु अनत का लाल पसीना आपस में सन रहा था। दोनों लेखक एक ही विद्यालय के शिक्षक थे और दोनों गहरे मित्र भी थे।
शायद कलम मूल चर्चा से भटक गई, और फिर वापस लौट कर वहां आना चाहती थी जहाँ पूरे दिन पसीना बहाकर मजदूर वापस लौटे थे।
जाना कहां कहां जा पहुंचे, छूटा अपना देश। इस पीड़ा से सभी निकलना चाह रहे, लेकिन सभी रास्ते बंद थे।
भला हो रामचरितमानस, रामायण और हनुमान चालीसा का कि वे उसको भी अपने साथ ले गए। कुछ पढ़ना जानते थे कुछ पढ़ तो नहीं सकते थे लेकिन सुनते थे और कुछ ऐसे थे कि जो लाल कपड़े में बने उसे रामायण को देखकर अपने अंदर के आत्मविश्वास जागाते थे कि एक दिन ऐसा आएगा, जब हमें अपना अस्तित्व और अपना देश मिल जाएगा।
यह उनका आदमी विश्वास और भरोसा था कि उनका संघर्ष रंग लाया और अब उनके सामने आया, रामायण के मारीच का आपका मॉरीशस, मुड़िया पहाड़, गंगा तलाव, दिखने लगा। उनके संस्कृति और संस्कार आज तक फूलते फलते रहे जिसको ये लाल कपडे में रामायण के रूप में बाँध कर ले गए थे। मेरी नजर में रामदेव धुरंधर जी का उपन्यास पथरीला सोना इस यात्रा में सब कुछ एक साथ लेकर चलने वाला दस्तावेज समझ में आ रहा था।
इस उपन्यास के कुछ एक शब्द एवं कथांश मिले, जिसकी व्याख्या भी मैंने वर्ष 2020 में करने की कोशिश की जो हमारे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश और अवधी की लोक संस्कृति और लोग बोली के शब्द थे, जो मुझे मेरी माटी और मेरे बलिया से मुझे जोड़ रहे थे।
अब मै अपने पिछले दो आलेखों को जस का तस प्रस्तुत करता हूँ…
1. जहाज के पंक्षी
[ श्री रामदेव धुरंधर जी के उपन्यास पथरीला सोना के प्रथम खंड के पंद्रहवे पृष्ठ से ]
जहाजिया भाईयों को लेकर मारीच देश जाने के लिए जहाज कलकत्ता के बंदरगाह से आगे निकला तो इसी के साथ ही आदरणीय धुरंधर जी के पथरीला सोना की भी यात्रा शुरू हो गई। ऐसे मे मैंने भी इस सोने मे से कुछ सोना बटोरने की कोशिश कर दी। पथरीला सोना के प्रथम खंड के पंद्रहवे पेज के एक भाग मे आस पास के दीपो से पँख फैलाये पंक्षी जहाज के मस्तूल पर आकर बैठ गए। ना जाने ये पंक्षी क्या सोच कर और क्या देखने के लिए इस जहाज पर आये होंगे, लेकिन पुस्तक के इस भाग मे लेखक की नजरे जहाज पर उड़ कर आये इन पंक्षियों और जहाज मे सफर कर रहे भारतीय मजदूरों दोनों की की मनोस्थिति को बड़े ही ध्यान से देखने की कोशिश कर रहीं थी।
जहजिया भाई लोगों की आपस की यह चर्चा कि….देखो अब यह पंक्षी जो उड़ कर इस जहाज के मस्तूल पर आकर बैठ गये, यह इस बात का संकेत है, कि जिस देश को हम जा रहे हैं, वह देश अब आने वाला है। लेकिन यह सब बस उनके मन को ढाधस बढ़ाने वाला ही था क्योंकि समुन्दर के आस पास के दीप से आये ये पंक्षी अपने देश को छोड़ने वाले तो बिल्कुल ही नही थे। शायद वे सिर्फ अपनी जमीन छोड़ कर नई जमीन पर अपने पाँव की नई थाप जमाने जा रहे, लोगो के मन के गम और ख़ुशी थाहने आते थे। कुछ ऐसे भी पंक्षी थे, जो यात्रा की शुरुवात मे ही आकर जहाज के मस्तूल पर बैठ गए। यह उनकी भूल हुई, या बदकिस्मती हुई, पता नही क्या पर वे भी इन्हीं भाइयों के साथ यात्रा पर निकल पडे थे तो निकल पडे। लेकिन वे बीच मे उड़ कर कही इसलिए नही जा भी नही सकते थे, क्योंकि वे जिस दीप मे उड़ कर जायेगे, वह तो उनका देश हआ नही और उनको पहचान वाला कोई होगा भी नही। कम से कम वे अपने इन लोगो को पहचानते तो थे।, उनके साथ यात्रा कर रहे थे। लेकिन लेखक को इतना पता जरूर था कि जहाज के साथ मारीशस पहुचने पर इन पंक्षियों के पास अपने पँख है, और अपने चोंच भी हैं। मारिशस के पेड़ो पर अपनी मर्जी उड़ कर बैठ जायेगे, घोसला बना लेगे और चारा भी चुंग लेगे। यदि मन नही लगा तो लौटती जहाज के मस्तूल पर बैठ कर फिर कलकत्ता भी लौट आएंगे। लेकिन जहाज से मारीशस पहुचे इन लोगो के पास न तो उडने के लिए न पँख थे, न बैठने के लिए पेड़ मिलेंगे। इन्हे तो बस एक नई जमीन मिलेगी जिसपर पर उतरना ही होगा। अब “यह जमीन इन्हे जीवन देती है, या मृत्यु।”
लेखक की लेखनी, आगे के भाग या खंडो से जरूर कुछ लिखेगी.. जिसे आगे देखते हैं।
2. सुरेखा का भात
कहानी मर्म को स्पर्श करें तो मार्मिक बन जाती है, और आँखों के सामने नाच जाय, तो जीवंत हो उठती है, जीवंत का अर्थ यह हुआ कि पुरी घटना पढ़ी नही जा रही हो बल्कि लगे की आँखों के आगे भी हो रही हो।
मै बात कर रहा हुँ हिंदी के महान कहानीकार श्री रामदेव धुरंधर जी के कालजयी उपन्यास “पथरीला सोना ” की..
आज सुबह सुबह पथरीला सोना के चतुर्थ खंड को पढ़ने का मन हुआ, सुरेखा का भात थोड़ी लापरवाही से गीला हो सकता था, और उसको इसके लिए सजग रहना भी होगा। चैतन्यता भंग होने की आशंका तो बनी ही रहती है पर उसे चैतन्य रहना होगा क्यों कि भात पसाने में देरी ना हो जाय, तो भात गीला हो सकता है इसका भी खास ख्याल वह रख रही थी। बीच बीच में डेकची से चावल के दाने को उठा कर मीस कर देख लेती कि भात पसाने का वक्त हो गया ..
अब “भात पसाने” और “चावल के दाने को मीस” कर ये दोनों शब्द जब कहानी में जब समाते है, तो मेरे जैसे व्यक्ति को जिसके बचपन की परवरिस गांव के मिट्टी के चूल्हे से शुरू होती हो, उसे तो वे पुराने दिन के भात पसाने की तस्वीर आँखों के सामने नाच जायेगा ही जायेगा। बसर्ते आज हमारे बच्चे जिन्होंने वह माटी वाला चूल्हा और भात पसाना देखा ही ना हो
.. शायद वह भात पसाना भी ना जानते हो। खैर यदि वे आधुनिक युग में लेखन कर रहे होगे या हिंदी के शोधार्थी होंगे तो आदरणीय धुरंधर जी कहानियों से अतीत की जीवन शैली के दृश्य उठा कर अपनी लेखनी को जरूर अमर कर रहे होंगे।
मेरे साथ तो एक घटना घटती है, जब लेखनी को लिखने की धुन समायी हो और पत्नी को मुझे ड्यूटी जाने की तैयारी में जल्दी से भोजन बनाने की धुन समायी हो तो वह प्लेट में लहसुन के जवे लाकर रखते हुए कह देंगी ही कि ये लीजिये इसे जरा जल्दी से छिल दीजिये, देर हो गई है।.. मुझे पता है, यह घटना तो कोई कहे ना कहे गाहे बेगाहे सबके साथ हो ही जाती होगी।
खैर मुझे चंद समय का व्यवधान तो हुआ लेकिन मेरे आज के इस लेख के लिए प्रहसन के लिए कथा वस्तु अवश्य मिल गई..
पत्नी को क्या पता था, कि मै श्री धुरंधर जी की पुस्तक पथरीला सोना से कुछ सोना निकाल कर साहित्य रच रहा हूँ।
अब इस आलेख को विराम देते हुए इतना कहुँगा की, इस कालजयी उपन्यास को जितनी भी बार पढ़ो, नई नई बात निकल कर आती ही आती है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्ते और मर्यादा…“।)
अभी अभी # 525 ⇒ रिश्ते और मर्यादा श्री प्रदीप शर्मा
रिश्ता क्या है, तेरा मेरा !
मैं हूं शब, और तू है सवेरा।
कुछ तो ऐसा है हममें, जो हमें आपस में जोड़ता है। जिसे हम हयात कहते हैं, जिन्दगी कहते हैं, वह अकेले नहीं कटती, भले ही विपरीत हो, लेकिन सिक्के के भी दो पहलू होते हैं। सुख दुख, अमीरी गरीबी, धूप छाँव, दोस्त दुश्मन और जिंदगी और मौत का आपस में वही रिश्ता है जो एक मां का बेटे के साथ ही है, पति का पत्नी के साथ और अच्छाई का बुराई के साथ है। घर में दरवाजा जरूरी है और आटे में नमक, धरती आसमान बिना अधूरी और मीन पानी बिना। जिंदगी तो उसी को कहते हैं, जो बसर तेरे साथ होती है।
हमारा आपका भी आपस में वही रिश्ता है जो एक फूल का डाली से, बगीचे का माली से, और भोजन का थाली से है। आभूषण की शोभा जिस तरह से स्त्री से है, सिंदूर की सुहाग से और कपड़ों की पहनने वाले से। जिस तरह एक धागा मोतियों को माला में पिरोए रखता है, एक ऐसा रिश्ता, एक ऐसा चुंबकीय आकर्षण हम सबको दूर रहते हुए भी आपस में जोड़े रखता है। हमारा अस्तित्व ही जुड़ने से है, टूटना ही बिखरना है, एक कांच सा हमारा व्यक्तित्व है, बड़ी मुश्किल से जुड़ा हुआ, जिसे टूटते बिखरते, टुकड़े टुकड़े होते ज्यादा वक्त नहीं लगता। ।
आखिर एक कमीज़ का हमसे क्या रिश्ता है। हमने उसे दर्जी से बनवाया अथवा बाज़ार से रेडीमेड खरीदकर लाए। रिश्ता हमारा दर्जी से भी हुआ और दुकानदार से भी। एक कमीज हमें कितने लोगों से जोड़ती है। इसी तरह एक घड़ी हमें समय से जोड़ती है, नौकरी मालिक से जोड़ती है, धंधा किसी को व्यापार से जोड़ता है तो खेती किसान से। दूध, बिजली, पानी और सब्जी हमें कितने लोगों से जोड़ती है, बस यही रिश्ता कहलाता है, जिस पर हमारा ध्यान अक्सर कम ही जाता है।
हम बड़े खुदगर्ज होते हैं, इन रिश्तों की अहमियत नहीं समझते। अच्छे रिश्ते, स्वार्थ वाले, हित कारी और गुणकारी को हम गले लगाते हैं और बाकी रिश्तों को नमक के गरारे की तरह, गले की खराश मिटते ही, निकाल बाहर फेंकते हैं। सब्जी में अधिक नमक हमें बर्दाश्त नहीं होता तो किसी को फीका खाना गले नहीं उतरता। हमारी आवश्यकता ही हमारी आदत बन जाती है। ।
हर रिश्ता थोड़ी परवाह मांगता है, लापरवाही किसी रिश्ते को पसंद नहीं। अगर आप खाने के सामान को नहीं ढंकेंगे तो उसमें मक्खी गिर जाएगी, किताबों को नहीं संभालेंगे तो उनमें दीमक लग जाएगी और रिश्तों की कद्र नहीं करेंगे तो रिश्ते भी आपकी कद्र नहीं करेंगे। घर को साफ रखेंगे तो घर, घर कहलाएगा और खुद की भी परवाह नहीं करेंगे तो सेहत भी आपका साथ नहीं देगी।
जहाँ परवाह है, फिक्र है, चिंता है, वहां प्रेम है, आसक्ति है, लगाव है, रिश्ता है, जीवन है। हर रिश्ते की एक मर्यादा है। कपड़े तक रखरखाव और सफाई मांगते हैं, जूता पॉलिश मांगता है और आइना भी धूल बर्दाश्त नहीं करता। रिश्तों को सिर्फ करीने से सजाकर ही नहीं रखा जाता उनकी मर्यादा भी निभानी पड़ती है। मर्यादा एक अलिखित कानून है जिसका कहीं हया नाम दिया गया है तो कहीं आँखों की शर्म। मां बेटा, भाई बहन, पति पत्नी तो ठीक प्रेमी प्रेमिका के बीच भी अगर मर्यादा नहीं तो वह प्रेम नहीं। एक दूसरे का सम्मान सबसे बड़ी मर्यादा है। ।
लेकिन जब रिश्तों में दरार आई, दोस्त ना रहा दोस्त, भाई ना रहा भाई। स्वार्थ और लालच में कैसा रिश्ता, कैसी मर्यादा। अक्सर जब भी मर्यादा की बात होती है, नैतिकता का जिक्र भी होता ही है। समाज के रीति रिवाज हमारे चरित्र का निर्धारण करते हैं। पति पत्नी के संबंधों को जायज और पवित्र माना गया है, मर्यादित माना गया है। लेकिन उस अंधे कानून का क्या करें, जो अवैध रिश्तों को भी लिव इन रिलेशन नाम देकर कानून की किताब को काली किताब बना रहा है।
अब समय आ गया है, रिश्तों की मर्यादा की रक्षा हम आप स्वयं ही करें। नैतिकता और कानून से ऊपर हमारा जागृत विवेक भी है जो स्वयं एक लक्ष्मण रेखा खींचने के लिए सक्षम है। हमारे रिश्तों को सहेजना और मर्यादित रखना हमारे हाथ में हैं। मन, वचन और कर्म की पवित्रता ही रिश्तों की बुनियाद है, मर्यादा है। सभी रिश्तों को एक नया नाम दें, सम्मान दें तब ही हमारे रिश्ते खुली हवा में सांस ले पायेंगे। जब तक रिश्ते लौकिक हैं, लौकिकता निभाएं अलौकिक रिश्ते तो सिर्फ राधा और मीरा के होते हैं। हमें तो अभी समय की धारा में ही बहना है, बहती गंगा में नहीं, पावन प्रेम की गंगा में हाथ धोना है।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “पर्यावरण से जुड़ाव…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 220 ☆पर्यावरण से जुड़ाव… ☆
कार्तिक मास जीवन को प्रकाशित करने का, देवउठनी का, जगमग दीपमाला का, अन्नकूट का प्रतीक है। केवल स्वयं तक सीमित न रहकर चारों खुशियों को बिखेरने का मार्ग। आँवला, तुलसी, गन्ना, सिंघाड़ा, सीताफल, चनाभाजी, फली, काचरिया साथ ही सभी सब्जियाँ। इनका पूजन सनातनी पूरे मास किसी न किसी रुप में करते हैं। खील- बताशे संग मिठाइयों को एक दूसरे के साथ बाँटकर कर खाना।
इस मास उपहार में मेवा मिष्ठान के साथ फलों की टोकरी भी उपहार में देने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। देने का भाव जहाँ एक ओर आपमें उम्मीद जगाता हैं वहीं दूसरी ओर प्रकृति आपको इसे कई गुना करके लौटाती है। इससे सकारात्मकता व प्रसन्नता का भाव बढ़ता है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शंख प्रक्षालन…“।)
अभी अभी # 524 ⇒ शंख प्रक्षालन श्री प्रदीप शर्मा
हम कभी हाथ धोया करते थे, आजकल की पीढ़ी हैण्ड वॉश किया करती है। कबीर के समय में भी साबुन उपलब्ध था और आज भी। लेकिन आजकल सभी साबुन कंपनियों ने अपने अपने हैण्ड वॉश निकाल लिए हैं, कोरोना काल में हमने तबीयत से हाथ धोये। आप यह भी कह सकते हैं कि हम हाथ धोकर कोरोना के पीछे पड़ गए और उसे भगाकर ही दम लिया। हमने भले ही माथे पर टीका लगाकर संकल्प नहीं लिया हो, लेकिन अपने बाजुओं में एक बार नहीं, दो दो बार टीका लगाकर उसे हमेशा के लिए भगाने के लिए कमर जरूर कस ली है।
हैण्ड शेक, अथवा हाथ धोने को ही संस्कृत में हस्त प्रक्षालन कहते हैं। पूजा और हवन में पुरोहित बार बार हमारे हाथ में जल देते हैं, और मंत्र पढ़ते हैं, हस्त प्रक्षालयामि। प्रक्षालन का अर्थ धोना अथवा साफ करना होता है। शंख प्रक्षालन हठयोग की एक क्रिया है।।
शंख हमें समुद्र से प्राप्त होता है, इसे पूजा में भी रखा जाता है, और इसे मुंह से बजाकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है। शंख को फूंककर बजाने के पहले धोया जाता है लेकिन शंख प्रक्षालन में इस शंख का कोई काम नहीं। हमारे शरीर में बड़ी और छोटी दो आँतें हैं। शंख प्रक्षालन बड़ी आँत की सफाई की प्रक्रिया है।
आयुर्वेद के अनुसार हमारी बीमारियों की जड़ हमारा बिगड़ा हुआ पाचन तंत्र है। कफ, पित्त और वात का अनुपात जब बिगड़ जाता है तो पेट में गड़बड़ शुरू हो जाती है। अपच, खट्टी डकार और कब्ज़ का महाकाल। कब तक चूरन चाटते रहें और एनीमा लगवाते रहें। महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का तो आरंभ ही यम नियम से होता है। यम की चर्चा फिर कभी लेकिन उनका पहला नियम ही शौच है। सबसे पहले शरीर की आंतरिक सफाई। शौच बिना कहां संतोष ! उसके लिए कुंजल, जल नेति, धौती और वस्ति जैसी क्रियाएं करवाई जाती हैं लेकिन जहां मामला ज्यादा गड़बड़ होता है वहां शंख प्रक्षालन अर्थात् बड़ी आँत की सफाई करवाई जाती है।।
बड़ी खतरनाक सफाई है यह शंख प्रक्षालन। नमक और नीबू का गुनगुना पानी पीना। एक दो ग्लास नहीं, भरपेट भी नहीं, गले तक, जब तक उल्टी जैसा महसूस न होने लगे। फिर कुछ योगासन करवाए जाते हैं, जिससे डायफ़्राम यानी आँतों पर दबाव पड़ता है और उल्टी अथवा दस्त की संभावना बढ़ जाती है। शौच की त्वरित व्यवस्था का बदोबस्त भी करना ही पड़ता है। हमारे समय में खुले में शौच ही उपयुक्त था इस प्रक्रिया के लिए।
आप जितनी बार गर्म सलाइन वॉटर पीयेंगे, उतनी ही बार शौच की क्रिया भी संपन्न होगी। हम कमोड को तो कई बार फ्लश कर लेते हैं, क्या कभी अपने पाचन तंत्र को फ्लश किया है। पानी की टंकी की तरह इस पेट की सफाई भी तो जरूरी है। शंख प्रक्षालन की यह प्रक्रिया तब तक दोहराई जाती है, जब तक मल की जगह डिस्टिल्ड वॉटर की गंगा न बह निकले। जी हां, शंख प्रक्षालन से यह चमत्कार होता है, हमारी बड़ी आँत की सफाई हो जाती है, जिसके साथ पेट संबंधित कई बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है।।
दो ढाई घंटे की इस क्रिया के बाद आप किसी काम के नहीं रहते। दिन भर आपको आराम करना पड़ता है और केवल दोनों वक्त मूंग की दाल की खिचड़ी का सेवन करना पड़ता है और यह भी खयाल रखना पड़ता है कि आपकी खिचड़ी में जरूरत से ज्यादा घी हो। क्योंकि यही घी अंदर जाकर अभी अभी साफ हुई आंतों को लुब्रिकेट करता है, चिकनाई प्रदान करता है। जब भी भूख लगे, बस खिचड़ी का ही सेवन किया जाए।
शंख प्रक्षालन की यह क्रिया बार बार दोहराई नहीं जाती , क्योंकि इसके बाद शरीर में बहुत कमजोरी आ जाती है। आज के व्यस्त जीवन में समयाभाव के साथ साथ, इतना खुला स्थान, प्राइवेसी और योग्य प्रशिक्षक के अभाव में अन्य कारगर उपचार की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है।।
आजकल योग, ध्यान और प्राकृतिक चिकित्सा के केंद्र हर जगह उपलब्ध हैं। अपनी रुचि, सुविधा और बटुए की सीमा को देखते हुए साल भर में , कम से कम पंद्रह दिन तो हम अपने आपको दे ही सकते हैं। कौन नहीं चाहता स्वस्थ और प्रसन्न रहना। आखिर कुछ दिन तो निकालिए अपने आप के लिए। गाड़ियों की तरह अपने खुद की सर्विसिंग पर ध्यान दें। शरीर अच्छा एवरेज देगा ..!!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆
आलेख – भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
☆
घर-आंगन में आग लग रही। सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर- छाजन।
तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन।
दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला,
देश हमारा जल रहा है, कौन बुझानेवाला
– डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन
विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है। आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं। इंटरनेट और मोबाइल दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं। इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं। दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है। रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं। बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है। दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए”। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है। एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है। औद्योगिक कचरे को बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है। पर्यावरण प्रदूषण की ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच कोई नहीं है।
भोपाल गैस त्रासदी को वर्षौं हो गए हैं। वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है। कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे। परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है।
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है।
एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है। इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा।
प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं। इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन, रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने, फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं। जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी।
इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है। लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है। इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं। इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है।
मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है।
उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र, बड़े बाँध, प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं . सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं। राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं। सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है। इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें। परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी.
एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है। गंगा के किनारे के नगरों की पानी, ससवीरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे, भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है . मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन, कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है। इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं। औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं । किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।
पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है, जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है। केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है। २५ माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों काकचरा डालने पर रोक रहेगी। नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे। पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है। इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है। इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है। कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती हे जो वायु प्रदूषण फैलाती है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है। गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां भी गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है। अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है।
कहा जा सकता है कि औद्योगिक कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – यात्रा
यात्रा पर हूँ। बृहद जीवनयात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की लघुकाय सहज यात्रा पर हूँ। ध्यान रहे कि जीवनयात्रा को बृहद कहा है क्योंकि जीवनयात्रा एक जन्म तक सीमित नहीं है। वह जन्म-जन्मांतर अबाध है। सृष्टि में आने, सृष्टि से जाने, चोला बदल-बदल कर फिर-फिर आने की यात्रा है जीवनयात्रा। अधिकांश समय यात्रा पर ही रहते हैं मेरे जैसे जीव। अपवादस्वरूप किंचित जन परिक्रमा से मुक्त होकर यात्रा के नियंता वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। घोष से मुक्त मोक्ष को, परित्राण से परे निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं।
जानता हूँ कि मोक्ष की योग्यता नहीं है मेरी। यदि कल्पना करूँ कि मोक्ष और यात्रा में से किसी एक को चुनने का विकल्प मिले तो मैं यात्रा चुनूँगा। कितना देती है हर यात्रा! लघुकाय यात्रा भी महाकाय जीवनयात्रा के दर्शन के किसी न किसी अंश को आत्मसात करने में सहायक होती है। कागज़ और कलम साथ हों तो हर यात्रा मुझे मोक्ष की प्रतीति कराती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री लक्ष्मी-नारायण साधना सम्पन्न हुई । अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब महल…“।)
अभी अभी # 523 ⇒ किताब महल श्री प्रदीप शर्मा
किताबों का स्थान घर में हो सकता है, लाइब्रेरी में हो सकता है, लेकिन महल में किताबों का क्या काम ! अक्सर महलों की किताबों में कीड़े और दीमक ही लगते देखे गए हैं। किताब किसी को मारती नहीं, पढ़ने वाले को अपनी गिरफ्त में ज़रूर ले लेती है।
बचपन में एक किताब के शीर्षक पर लिखा देखा, प्रकाशक किताब महल, दरियागंज, दिल्ली ! मैंने सुना था, आगरा में ताजमहल है, और जयपुर में हवामहल। दिल्ली के किताब महल ने मेरी बालमन की जिज्ञासा बढ़ा दी। कैसा होगा किताबों का महल ? किताबों की खिड़कियाँ, किताबों के ही दरवाज़े। पिताजी तक बात पहुँची। उन्होंने समझाया, यहाँ से किताबें छपती यानी प्रकाशित होती हैं। यह प्रकाशक का नाम है, जिस तरह कल्याण गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित होता है।।
मेरी दरियागंज और पहाड़गंज में रुचि तो कम हो गई, लेकिन किताबों में बढ़ गई। तब मुझे ज्ञात हुआ कि असली किताब महल तो प्रकाशक ही है। राजपाल एंड संस, राजकमल और राधाकृष्ण प्रकाशन और ज्ञानपीठ प्रकाशन से लेकर हिन्द पॉकेट बुक्स और डायमंड पॉकेट बुक्स तक यह किताब महल फैला हुआ है। ओरिएंट लॉंगमन्स और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की तो कुछ अंग्रेज़ी किताबें कोर्स में भी थी। तब मेरे छोटे से शहर में कई लाइब्रेरियां थीं, जिन्हें सार्वजनिक वाचनालय कहते थे। कॉलेज और यूनिवर्सिटी में केवल कोर्स से संबंधित किताबें ही रहती थीं। फिर भी हिंदी, अंग्रेज़ी साहित्य और दर्शन शास्त्र की किताबें तो उपलब्ध हो ही जाती थी।
(प्रसंगवश विगत विदेश यात्राओं में इस प्रकार के पुस्तकालय (Street Library) देखने को मिले। आपको ऐसे पुस्तकालय सड़क के किनारे देखेने मिल जाएंगे। उपरोक्त पुस्तकालय पर जर्मन भाषा में लिखा है “Offener Bucherschrank. Schaut rein, lasst was hier, nehmt was mit.” जिसका अंग्रेजी अर्थ है “Open bookcase. Take a look, leave something here, take something with you.” आप ऐसे पुस्तकालयों की मुफ्त सुविधा ले सकते हैं। बस आप कितनी भी पुस्तकें इनमें से ले सकते हैं। बस ईमानदारी से आपकी इसमें अपनी भी कुछ पुस्तकें रखनी होंगी। आप पास की बेंच पर बैठ कर पुस्तकें पढ़ कर वापिस इनमें रख सकते हैं। – संपादक )
फिल्मों के अलावा समय बिताने का तब और कोई साधन नहीं था। सैम पित्रोदा का लोगों ने तब तक नाम भी नहीं सुना था। लाइब्रेरी समय काटने के लिए एक मुफ़ीद और रचनात्मक जगह मानी जाती थी। यह वह समय था जब अधिकांश साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाएँ एक अथवा सवा रुपए की आती थी। हिन्द पॉकेट बुक्स ने प्रेमचंद और शरदचंद्र को एक एक रुपए में लोगों के घर तक पहुँचाया। और लोगों में किताबें खरीदने के प्रति रुचि बढ़ी। अन्य प्रमुख साहित्यिक प्रकाशनों ने भी प्रसिद्ध कृतियों के पेपरबैक एडिशन निकालने शुरू कर दिए, जिनमें राजकमल प्रकाशन अग्रणी था।।
शहर में एक समानांतर साहित्य भी चलता था जिसके पाठक अनगिनत थे। ये लेखक ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी का पुरस्कार तो प्राप्त नहीं कर पाए, लेकिन लोगों में किताबों के प्रति रुझान बढ़ाने में सफल अवश्य हुए। गुलशन नंदा, ओमप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत और सुरेन्द्र मोहन पाठक के पाठकों की तो आप गिनती ही नहीं कर सकते।
गुरुदत्त और आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने हिंदुत्व की बात की तो के एम मुंशी और नरेंद्र कोहली ने भारतीय संस्कृति की। टैगोर की गीतांजलि और तिलक की गीता कृष्ण के कर्मयोग को समर्पित थी।।
मेरे शहर में किताब महल न सही, एक अदद किताब घर था, खजूरी बाज़ार में दीनानाथ बुक डिपो और तुलसी साहित्य सदन था, जानकीप्रसाद पुरोहित की नवजीवन पुस्तकमाला थी। मराठी पुस्तकों के लिए आज भी घर पोच वाचनालय है। हिंदी साहित्य समिति भी है, और देवी अहिल्या पुस्तकालय भी।
धार्मिक किताबों के लिए आज भी सरदार सोहनसिंह बुक सेलर उपलब्ध है, तो ज्ञानवर्धक साहित्य के लिए सर्वोदय साहित्य भंडार। नई पीढ़ी के रुझान के लिए बुरहानी का रीडर्स पैराडाइस भी मौजूद है।।
एक समय वह भी था, जब फुटपाथ से पुराने ज्ञानोदय और सारिका के अंक पाठकों के घर पहुँचने लगे। कुछ पुरानी किताबों की दुकानों से कुबेरनाथ राय भी हाथ लग गए ! विषाद योग और निषाद बाँसुरी साथ साथ बजने लगी। बिमल मित्र, शंकर और शिवाजी सावंत, अज्ञेय और भारती के साथ बुक-शेल्फ में स्थान पाने लगे। मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव ने नई कहानियों को एक धरातल दिया, ऊँचाई दी। मन्नू भंडारी, रवींद्र-ममता कालिया, अमरकांत, ज्ञानरंजनशैलेष मटियानी जैसे अनगिनत नाम आज भी जिस महल को संजोए हुए हैं, क्या वह किताब महल नहीं।
सृजन का संसार ही किताब महल है। यहाँ रानियों का नहीं, कहानियों का वास होता है। यहाँ बड़े बड़े आदमकद आइनों के सामने केश-विन्यास नहीं होता, शेखर एक जीवनी, राग दरबारी और मैला आँचल जैसा
उपन्यास होता है। प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी के गीतों की निर्झरिणी यहाँ सदा प्रवाहित होती है। यहाँ हर पल सरस्वती का वीणा-वादन होता है। क्योंकि यह किताब-महल है।।