हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 21 – महात्मा गांधी : आज़ादी का ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी : आज़ादी का ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 21 – महात्मा गांधी : आज़ादी का ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन

द्वितीय विश्व युद्ध के समय गठित ब्रिटिश वार कैबिनेट ने कुछ प्रस्ताव के साथ सर स्टैफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा ताकि काँग्रेस व ब्रिटिश सरकार के बीच जारी गतिरोध समाप्त किए जा सकें।यह प्रयास क्रिप्स मिशन  के नाम से जाना गया। चूंकि इन प्रस्तावों में कोई खास नई बात न थी अत: काँग्रेस व गांधीजी इससे सहमत न हुये और सर स्टैफर्ड क्रिप्स बैरंग वापस लौट गए। बम्बई में 7 व 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी ने खुली सभा कर भारत छोड़ो प्रस्ताव पास किया। गांधीजी  देश को अगले दिन 9 अगस्त  को विशाल आम सभा में ‘करो या मरो’ का जोशीला नारा देते उसके पहले ही वे गिरफ्तार कर लिए गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी किताब डिस्कवरी आफ इंडिया में लिखते हैं –

“8 अगस्त 1942 को काफी रात गए यह प्रस्ताव आखरी तौर पर मंजूर हुआ। चंद घंटों बाद, 9 अगस्त को सुबह बम्बई में और देश में दूसरी जगहों से बहुत-सी गिरफ्तारियाँ हुई। सारे प्रमुख नेता अचानक ही अलग हटा दिये गए थे और जान पड़ता है कि किसी की समझ में न आता था कि क्या करना चाहिए। विरोध तो होता ही और अपने-आप ही उसके प्रदर्शन हुये। इन प्रदर्शनों को कुचला गया, उन पर गोली चलाई गई, आँसू गैस इस्तेमाल की गई और सार्वजनिक भावना को प्रकट करने वाले सारे तरीके रोक  दिये गए। और तब ये सारी दबी हुई भावनाएँ फूट पड़ी और शहरों में और देहाती हलकों में भीड़ें इकट्ठी हुई और पुलिस और फौज के साथ खुली लड़ाई हुई। इस तरह 1857 के गदर के बाद बहुत बड़ी जनता हिदुस्तान में  ब्रिटिश राज्य के ढांचे को चुनौती देने के लिए पहली बार बलपूर्वक उठ खड़ी हुई। यह चुनौती बेमानी और बेमौके थी, क्योंकि दूसरी तरफ सुसंगठित हथियारबंद ताकत थी। यह हथियारबंद ताकत इतिहास में पहले किसी मौके पर इतनी ज्यादा नहीं थी।“

करेंगे या मरेंगे और इस मंत्र ने देश दीवाना बना दिया

आज अगस्त क्रान्ति की शुरुआत की वर्षगांठ है। आज से छियत्तर वर्ष पूर्व महात्मागांधी के आह्वान पर देश भर में राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का जूनून जन जन में व्याप्त हो गया था। कुछ मुट्ठी भर लोगों और एकाध संगठन को छोड़ सारा देश महात्मागांधी के मंत्र करेंगे या मरेंगे की भावना के साथ अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के साथ खड़ा हो गया।

बलिया का नाम मैंने अपनी युवावस्था में तब सुना जब जय प्रकाश नारायण की जीवनी पढ़ते समय जाना कि उनका जन्म स्थान सिताबदियारा बलिया से लगा हुआ है। फिर बलिया चन्द्रशेखर की कर्म स्थली भी थी। वहीं चन्द्रशेखर जो कांग्रेस में युवा तुर्क थे, इन्दिरा गांधी की नीतियों के घोर विरोधी और उनके मंत्रीमंडल को छोड़ने वाले  समाजवादी जो आपातकाल के दौरान जेल भी गये, बाद को भारत के प्रधानमंत्री बने तथा जिनके समय हमें सोना गिरवी रख देश की प्रतिष्ठा बचानी पड़ी।

स्टेट बैंक की लंबी सेवा के दौरान मैं अनेक बार बलिया वासियों से मिला और मैंने उनसे बलिया की क्रांति के बारे में जाना पर सटीक जानकारी तो मुझे पढ़ने मिली राजस्थान के कांग्रेसी  श्री गोवर्धन लाल पुरोहित द्वारा रचित  स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास में। वे लिखते हैं :-

” नौ अगस्त को यहां के सभी कार्यकर्ता बंदी बना लिए गए। सरकारी दमन के बाद भी  10 से  12 अगस्त को बलिया में पूर्ण हड़ताल रही। 12 अगस्त  को सारे जिले में तार काटने व यातायात के सभी साधन नष्ट करने का काम शुरु हुआ।14अगस्त तक तो सारे बलिया जिले का संबंध पूरे प्रांत से तोड़ डाला गया। 15अगस्त को जिला कांग्रेस के दफ्तर पर कांग्रेस का फिर से अधिकार हो गया। यहां के मजिस्ट्रेट ने जनता के सामने आत्म समर्पण कर दिया।

सोलह अगस्त को कांग्रेस कमेटी की आज्ञा से समस्त बाजार खुले। पुलिस ने सत्ता को जाते देख, गोली चला दी, परंतु स्वातंत्र्य वीरों पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ।19अगस्त को बलिया में ब्रिटिश शासन समाप्त कर दिया गया।सभी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को जेल से छोड़ दिया गया।20अगस्त को चित्तू पांडे की अध्यक्षता में नवीन राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हुई।इस सरकार के अधीन गांवों में ग्राम पंचायतें स्वतंत्र रुप से काम करने लगीं। 22 अगस्त तक बलिया में जनता सरकार चलती रही। 23 अगस्त की रात को गोरी पल्टन ने बलिया में प्रवेश किया, लूट खसोट व मारपीट का तांडव नृत्य होने लगा। सेना से मुठभेड़ करते हुए 46स्वातंत्र्य वीर काम आए। एक सौ पांच मकान फूंक दिये गये।लगभग अडतीस लाख रुपए की हानि समस्त जिले को उठानी पड़ी।

मन्मथ नाथ गुप्त ने लिखा कि बलिया प्रजातंत्र बना और कांग्रेस कमेटी का दफ्तर उसका केन्द्र बना। पंडित चीतू पांडे पहले जिलाधीश कहलाये। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक  इस समय तक जिले के दस थानों में से सात पर क्रान्तिकारियों का अधिकार हो गया था। शहर में ढिंढोरा पीट कर यह बता दिया गया कि अब बलिया में कांग्रेसी राज्य है।

सेना ने बलिया में प्रवेश करते हुए घोर दमन चक्र चलाया। सबसे पहले नौजवानों को पकड़ा गया। इन्हें ठोकरों से मारा गया, जेलों में अनेक कष्ट दिये गये। उमाशंकर दीक्षित, सूरज प्रसाद, हीरा पंसारी, विश्वनाथ, बच्चालाल व राजेन्द्र लाल बेरहमी से पीटे गए। बलिया के बाद अन्य गांवों में भी सेना ने कहर ढा दिया। सुखपुरा गांव के महन्त को इसलिए पीटा गया कि उसने बलिया प्रजातंत्र सरकार को दस हजार रुपए का चंदा दिया था। बासडी में जहां सरकारी खजाना लूटा गया था, वहां पर अंग्रेज सेनापति नेदरशील ने अंधाधुंध गोलियां चलवाई। रामकृष्ण सिंह व वागेश्वर सिंह को इतना पीटा गया कि वे शहीद हो गये। बलिया के तीस गांव में आग लगाई गई। रेवती गांव का सारा बाजार लूट लिया गया। जेल में बंद क्रान्तिकारियों पर अत्याचार का वर्णन यहां लिखते भी नहीं बनता है। थोड़े में गोरी सरकार के काले कारनामों की यह पराकाष्ठा थी।

देवनाथ उपाध्याय ने 64ऐसे लोगों की सूची तैयार की है जो बलिया क्रान्ति में शहीद हुए। वास्तव में इनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमिट रहेगा।”

यह तो बलिया की कहानी है। सारे देश में भारत छोड़ो आंदोलन  फैल गया। 1857के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद विदेशी सत्ता के विरूद्ध भारत में यह सबसे बड़ा व व्यापक संघर्ष था। दमोह जहां कभी मैंने पढ़ाई की वहां के महादेव गुप्ता सबसे कम उम्र के स्वतंत्रता सेनानी बने। वे शायद तब नाबालिग ही थे जब उन्होंने कांग्रेस का झंडा दमोह के  थाने या स्कूल भवन में फहराया था। गली गली शहर शहर स्वतंत्रता के दीवाने महात्मागांधी के मंत्र करो या मरो को दीवारों पर लिख रहे थे या जोर शोर से बोल रहे थे। इस अगस्त क्रान्ति का भारत की स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान है।

आज पद्मनाथ तैंलग का एक लेख सन 42 का क्रान्ति-पर्व पढ़ने मिला। शायद वे सागर के निवासी होंगे ऐसा अंदाज मैंने लेख पढ़कर लगाया। इस लेख की दो घटनाओं ने मुझे आकर्षित भी किया और प्रभावित भी। आप भी सुनिए :-

” ज्यों ही मैंने अपने साथी पं ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी के साथ अपनी स्कूल की नौकरी से त्याग पत्र दिया हम लोग की गिरफ्तारी के वारंट निकल गए। ज्योतिषी जी गिरफ्तार होकर जेल भेज दिए गए और सागर के डिप्टी कमिश्नर श्री एस.एन. मेहता ने भी मुझे गिरफ्तार करते हुए मेरे पाकिट में जो सत्याग्रह संबंधी  पर्चे थे, उन्हें फड़वा दिया ताकि मेरे उपर जुर्म साबित न हो सके। कुछ दिन पहले भी इन्ही श्रीनाथ मेहता ने  कटरा बाजार आंदोलन के समय अपने अंग्रेज पुलिस कप्तान वाटसन का हाथ पकड़ कर उसे रिवाल्वर की गोली चलाने से रोका था, जो एक नवयुवक सत्याग्रही पर रिवाल्वर तान ही रहा था, क्योंकि उस नवयुवक ने पुलिस कप्तान वाटसन के सर पर डंडा मारा था। उन दिनों विदेशी शासनकाल में भी ऐसे अधिकारियों की कमी नहीं थी। श्रीनाथ मेहता उनमें  एक थे।”

बाद में शायद इन घटनाओं के कारण उनका तबादला अंग्रेज सरकार ने कर दिया और उनकी जगह एक अंग्रेज को सागर का डिप्टी कमिश्नर बनाया गया। श्रीनाथ मेहता खेड़ावाल ब्राह्मण थे । वे दमोह जिले की हटा तहसील में पैदा हुए थे और हम सबके  पूर्वज कोई तीन सौ बरस हुए गुजरात से आकर पहले पन्ना और फिर हटा, दमोह में बस गए।

दूसरी घटना और भी लोमहर्षक है और बुंदेलखंडी गौरव की प्रतीक है।

“उन दिनों स्वाधीनता संग्राम की  लहर देहातों तक में फ़ैल  गई थी हम लोग प्रथम श्रेणी के सुरक्षा बंदी के रुप में सागर जेल में खुले मैदान में बैठे हुए थे कि आठ नौ साल का एक देहाती बालक कुर्ता और चड्डी पहने तथा अपना स्कूल बैग दबाए कुछ देहाती सत्याग्रहियों को लेकर जेल के अंदर दाखिल हुआ। हम लोगों ने उससे सरलता से पूंछा काय भैया , तुम्हें अपने बऊ द्ददा की याद तो आऊत हुईये। तुम माफी मांग के चले जैहो।

उस छोटे भोले भाले अपढ़ देहाती बालक ने जिस सरलता और निर्भीकता से उत्तर दिया, उसको सुनकर हम लोग दंग रह गये।उस बालक ने कहा कुतका मांगे माफी। हमारी बऊ ने कै दई है कि बैटा मर जइयो पै माफी मांग के अपनों करिया मौं हमें न दिखाइयो। एक टुरवा तो बिमारी से मर गओ, एक देस की खातिर सई, दादा मैं तो अपना जो बस्ता दबाए पढबै मदरसा जा रओ थो। रस्ता में कछु गांव वारे पेड़े काट के गिरफ्तार हो रये हते। मैंने भी एक कुल्हरिया मांग के एक पेड़े पै हनके दो हत दैं मारे। बस पुलिस को एक सिपाही हमें सोई गिरफ्तार करकें बंडा से मोटर गाड़ी पै बिठार के इनै लै आऔ। दादा, आपई  बताओ हम माफी कायखों मांगन चले।”

ऐसा जादू था महात्मा गांधी के आह्वान अंग्रेजों भारत छोड़ो और उनके मूल मंत्र करेंगे या मरेंगे का। इस बालक सरीखे असंख्य ऐसे लोग उस आंदोलन के साक्षी बने जिनके मन में आजादी की लौ महात्मागांधी ने जगाई और वे सब निस्वार्थ भाव से इस आंदोलन में कूद पड़े। उन सबको नमन।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कोरोना वायरस और हम- 3 (घर बैठे क्या करें ) ?☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कोरोना वायरस और हम- 3☆

घर बैठे क्या करें?

भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर देश ने 22 मार्च 2020 को जनता कर्फ्यू का जिस तरह समर्थन किया वह अभूतपूर्व था। इस समय भारत के कुछ राज्यों में लॉकडाउन है। इसके सिवा देश के विभिन्न राज्यों के 76 जिलों में भी लॉकडाउन घोषित हो चुका है। पंजाब ने लॉकडाउन को सख्ती से लागू करने के लिए कर्फ्यू लगा दिया है। महाराष्ट्र के 10 जिलों में लॉकडाउन है पर पूरे प्रदेश में निषेधाज्ञा लगा दी गई है। यह लेख पोस्ट करते समय महाराष्ट्र में भी कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई है।

सरकार और प्रशासन के स्तर पर जो हो सकता है, वह किया जा रहा है। आज भारत के मुख्य न्यायाधीश ने भी भारत सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही हमारे प्रधानमंत्री की पीठ थपथपा चुका है।

आज चर्चा हमारे स्वानुशासन और घर की व्यवस्था की। दौड़ती-भागती ज़िंदगी के हम ऐसे आदी हो चुके हैं कि अब घर पर रुकने की मानसिकता ही नहीं रही। इस समय घर पर रहना हम सब का सबसे बड़ा धर्म है पर घर में क्या करें, यह भी हम सबके सामने सबसे बड़ा प्रश्न है।

परिजनों के घर पर होने के कारण इस समय घर की महिलाओं का वर्कलोड बेतहाशा बढ़ा हुआ है। अपेक्षित है कि सभी परिजन विशेषकर पुरुष सदस्य घर के सभी कामों में बराबरी से नहीं अपितु ज्यादा से ज्यादा हाथ बटाएँ। घर के हर सदस्य का साथ मिलेगा तो घर की स्त्री पर काम का बोझ तो कम होगा ही, साथ ही वह परिजनों के घर में रहने का सही सुख भी उठा सकेगी।

टीवी और स्मार्टफोन तक खुद को सीमित रखने के कारण घर के सदस्यों में आपसी संवाद निरंतर कम हो रहा है। इसका दुष्परिणाम पुणे में देखने को मिला। घर से बाहर खेलने जाने पर मना किए जाने के कारण 11 वर्षीय बच्चे ने आत्महत्या का प्रयास किया। यह सुन्न कर देने वाली घटना है। बेटा या बेटी जिस भी आयु के हैं, प्रयास करके हम उसी आयु में लौटें और उनके मित्र बनें। गैजेट्स एकमात्र विकल्प नहीं हैं। मोक्षपटम/ शतरंज, लूडो, सांप-सीढ़ी, शब्दसंपदा, व्यापार जैसे अनेक बैठे खेल हम बाल-गोपालों और अन्य सदस्यों के साथ खेल सकते हैं। हमें अपने बचपन के खेल याद करने चाहिएँ। इससे हमारा बचपन लौटेगा और हमारे बच्चों का बचपन खिल उठेगा।

हम इस समय घर में आर्ट, क्राफ्ट से जुड़ी चीज़ें बनाना सीख सकते हैं और बना सकते हैं।ललित कलाओं से सम्बंधित लोगों के लिए यह आपाधापी से परे शांत समय है। इसका सृजनात्मक उपयोग कीजिए।

घर पर समय बिताना इस समय हमारी अनिवार्य आवश्यकता है। अलबत्ता इस समय को ‘क्वालिटी टाइम’ में बदल पाना हमारी प्रगल्भता होगी। क्वालिटी टाइम के लिए पुस्तकें पढ़ना और संगीत सुनना दो उत्कृष्ट साधन हैं।

मित्रों से अनुरोध है कि आप अपना समय कैसे बिता रहे हैं, इसे शेयर करें। इससे अनेक लोगों का मार्गदर्शन होगा।

करोना से लड़ना है हर पल। सार्थक बिताना  है  हर पल। शुभकामनाएँ।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

4:57 बजे, 23.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कोरोना वायरस और हम- 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कोरोना वायरस और हम- 2☆

1) वुहान.., मानो शब्द ही संक्रमित हो चला है। कोई उच्चारण भी नहीं करना चाहता। चीन के हुबेई प्रांत की राजधानी इस शहर से शुरू हुआ कोरोनावायरस और कोविड-19 का कहर। इसी शहर में फँसे हैं कुछ भारतीय नागरिक, विशेषकर छात्र। भारत सरकार लेती है एक दायित्वपूर्ण और साहसिक निर्णय। एयर इंडिया के पायलट, को-पायलट, क्रू ने बांधा मास्क, आवश्यक दवाइयाँ लिए साथ चली डॉक्टरों की टीम। ग्रामीण मेले में ‘मौत का कुआँ’ खेल दिखाया जाता है। ज़रा-सा संतुलन बिगड़ा कि मौत ने निगला। मौत के कुएँ में उतरा विमान, भारतीयों को साथ लिया और अपने देश के लिए भारी उड़ान।

2) इटली हो, ईरान, फिलीपींस, स्पेन या दुनिया का कोई भी देश, कर्तव्य, राष्ट्रनिष्ठा और साहस की यह गाथा हर जगह लागू है। देश या देश से बाहर, हमारा एक भी नागरिक संकट में है तो हमारी सरकार उसे उबारने के लिए तत्पर खड़ी है।

3) सरकारी अस्पतालों में भीड़ है। डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ, सफाई कर्मचारी, कपड़े धोने वाला सब अपनी ड्यूटी पर हैं। अपने प्राण की चिंता न कर हरेक मुस्तैदी से डटा है मरीज़ों की सुश्रुषा में।

4) कोविड-19 का संक्रमण बढ़ रहा है। सरकार ने शहरों को सैनिटाइज़ करने का निर्णय किया है। सफाई कर्मचारी अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए शहर का कोना-कोना सैनिटाइज कर रहे हैं।

5) रेल चल रही है, ड्राइवर अपनी ड्यूटी पर है। बस चल रही है, कंडक्टर और ड्राइवर ऑनड्यूटी हैं।

6) इस वैश्विक संकट का विश्व की अर्थव्यवस्था पर दुष्परिणाम होगा। लेकिन बैंक बंद कर दिए तो व्यवस्था चरमरा जाएगी। अत: समर्पण से अपना काम कर रहे हैं, बैंककर्मी।

7) भय, अफवाहों को जन्म देता है। ऐसी स्थिति में अपने प्राणों को संकट में डाल कर यथासंभव ऑनग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे हैं प्रसार माध्यमों के कर्मी।

8) मनुष्य ‘सोशल एनिमल’ है। हम ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग मोड’ पर हैं लेकिन सोशल मीडिया ने हमें सोशल बनाए रखा है। इंटरनेट और टेलीफोन विभाग के कर्मी चौबीस घंटे मुस्तैद हैं।

9) व्यापार का लाभ नहीं दायित्व का बोध है जो मेडिकल स्टोर्स,पंसारी, फल, सब्जी, दूध की दुकान, पेट्रोल, सीएनजी, डीजल के पम्प पर मालिक और कर्मचारी को निरंतर कार्यरत रखे हुए है।

10) ‘होम क्वारंटीन’, ‘आइसोलेशन’, ‘वर्क फ्रॉम होम’ अनेक विकल्पों का भार एक साथ ढो रही है महिलाएँ। परिवार के छोटे-बड़े हर एक के लिए दिन-रात जुटी है महिलाएँ।

11) ये कुछ उदाहरण भर हैं। अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिनके कर्मियों के बल पर देश चल रहा है और हम सबका अस्तित्व टिका है। इन सब के साथ खड़ी दिखती है भारत सरकार और राज्य सरकारों की सक्रियता, केंद्रीय स्वास्थ्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्रालय की चेतना।

महाभारत में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया था। असंख्य राष्ट्रसेवकों के रूप में योगेश्वर, कलयुग के इस महाभारत में साक्षात दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

आज शाम 5:00 बजे अपने घर की बालकनी में आकर थाली, ताली, घंटानाद, शंखनाद से इस विराट रूप को नमन अवश्य कीजिएगा। साथ ही नमन कीजिएगा उस विलक्षण सेनापति को भी जिसके नेतृत्व में देश कोरोना से अभूतपूर्व युद्ध लड़ रहा है।….जय हिंद!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

22.3 2020, 13.21 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #42 ☆ जनता कर्फ्यू और हम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  जनता कर्फ्यू और हम

मित्रो, कोरोनावायरस के संक्रमण से बचाव के एक उपाय के रूप में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कल रविवार 22 मार्च 2020 को  *जनता कर्फ्यू* का आह्वान किया है। हम सबको सुबह 7 से रात 9 बजे तक घर पर ही रहना है। 24 घंटे की यह फिजिकल डिस्टेंसिंग इस प्राणघातक वायरस की चेन तोड़ने में मददगार सिद्ध होगी।

मेरा अनुरोध है कि हम सब इस *जनता कर्फ्यू का शत-प्रतिशत पालन करें।* पूरे समय घर पर रहें। सजगता और सतर्कता से अब तक भारतवासियों ने इस वायरस के अत्यधिक फैलाव से देश को सुरक्षित रखा है। हमारा सामूहिक प्रयास इस सुरक्षा चक्र का विस्तार करेगा।

एक अनुरोध और, आदरणीय प्रधानमंत्री ने संध्या 5 बजे अपनी-अपनी बालकनी में आकर *थाली और ताली* बजाकर हमारे लिए 24 x 7 कार्यरत स्वास्थ्यकर्मियों, स्वच्छताकर्मियों, वैज्ञानिकों और अन्य राष्ट्रसेवकों के प्रति धन्यवाद का भी आह्वान किया है। हम इस धन्यवाद में परिवार के लिए अखंड कर्मरत महिलाओं को भी सम्मिलित करें।

समूह के साथी भाई सुशील जी ने एक पोस्ट में इसका उल्लेख भी किया है। कल शाम ठीक 5 बजे हम *अपनी-अपनी बालकनी में आकर थाली एवं ताली अवश्य बजाएँ।*

एक बात और, कृपया बच्चों को घर से बाहर खेलने के लिए न जाने दें। यह कठिन अवश्य है पर इस कठिन समय की यही मांग है। बच्चों को एकाध मित्र/सहेली के साथ घर पर ही खेलने को प्रेरित करें। बच्चों के हाथ भी साबुन/सैनिटाइजर से धुलवाते रहें।

विश्वास है कि हमारा संयम और अनुशासन हमें सुरक्षित रखेगा। स्मरण रहे, जो सजग हैं, उन्हीं के लिए जग है।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 36 – वर्ण संकर ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “वर्णसंकर। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 35 ☆

☆ वर्णसंकर

सभी चारों वर्णों में चार मुख्य दोष या विकार भी होते हैं प्रत्येक वर्ण में एक-एक । ब्राह्मणों में मोह या लगाव नामक विकार होता है, क्षत्रियों में क्रोध विकार होता है, लोभ या लालच वैश्यों का विकार है, और शूद्रों में काम-अवैध यौन संबंध विकार होता है । अब विभिन्न वर्णों में ये दोष कहाँ से आते हैं? आप कह सकते हैं कि ये दोष या विकार प्रकृति के विभिन्न गुणों के दुष्प्रभाव हैं । मोह शरीर और मस्तिष्क में अतिरिक्त या ज्यादा सत्त्व का दुष्प्रभाव है (सत्त्व प्रकृति के तीनों गुणों में सबसे शुद्ध और श्रेष्ठ है लेकिन फिर भी यह भौतिकवाद के अधीन ही है और इसकी अति भी नकरात्मकता उत्पन्न करती है)। क्रोध शरीर और मस्तिष्क में राजस गुण की अधिकता का दुष्प्रभाव है (राजस का अर्थ गतिविधि, गति, बेचैनी है जो निश्चित रूप से क्रोध में वृद्धि करता है), और इसी तरह अन्य दो वर्णों के लिए भी । चारों वर्णों में कई अन्य मामूली दोष भी होते हैं । जब वर्ण व्यवस्था बनाई गयी थी तब ब्राह्मणों में कम से कम दोष होते थे, क्षत्रियों में ब्राह्मणों से अधिक और बाकी दो से कम, और इसी तरह से अन्य वर्णों के लिए ।

अब अंतरजातीय विवाह और वर्णसंकर को समझने की कोशिश करें। मान लीजिए कि एक ब्राह्मण लड़का वैश्य लड़की से शादी करता है । झूठ बोलना भी वैश्य वर्ण का एक दोष है, क्योंकि व्यापार में यदि आप झूठ नहीं बोलते हैं तो आपको व्यापार में लाभ नहीं मिल सकता है । अब मान लीजिए कि विवाह के परिणाम स्वरूप इस ब्राह्मण पुरुष और वैश्य लड़की के यहाँ एक लड़के का जन्म होता है । मान लीजिए कि जब यह लड़का बड़ा हो जाता है तो वह अपने वंश के अनुसार ब्राह्मण के कार्यों शिक्षक या पुजारी या ज्योतिषी आदि को अपनाकर अपने गृहस्थ जीवन को चलाने के लिए धन अर्जित करना चाहता है। अब इस लड़के में अपने पिता और माता दोनों के गुण होना स्वाभाविक हैं, इसका अर्थ है कि उसके अंदर वैश्य जैसे लालच और झूठ बोलने का दोष भी अपनी माता से आ गया होगा । तो क्या वह पुजारी के अपने कर्तव्य का पालन करने में सक्षम हो सकता है? क्या लालच उसके मस्तिष्क में नहीं आयेगा जब वह किसी व्यक्ति के लिए अनुष्ठानों और समारोहों के लिए कुछ पूजा या कर्मकाण्ड करेगा? हर बार जब भी कोई उसे यज्ञ या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों आदि के लिए आमंत्रित करेगा तो क्या उसका लालच समय के साथ साथ नहीं बढ़ेगा? वह उन्हें पूरी श्रध्दा या ध्यान से नहीं कर पायेगा क्योंकि उसका लक्ष्य केवल धन एकत्र करना होगा । इसके अतिरिक्त, अगर किसी ने उससे पूछा कि क्या वह अनुष्ठान ठीक से कर रहा है, तो क्या वह झूठ नहीं बताएगा कि “हाँ मैं ठीक से कर रहा हूँ” क्योंकि उसमे अपनी माँ वैश्य के गुण भी प्राप्त हुए हैं । और जिन लोगों के लिए वह इन अनुष्ठानों को करेंगे, उन्हें गलत अनुष्ठानों के कारण नकारात्मक प्रभाव का सामना भी करना पड़ेगा ।

इसी तरह कल्पना करें कि यदि वह ज्योतिषी के पेशे का विकल्प चुनता है, तो क्या वह पैसे कमाने के लिए गलत भविष्यवाणी नहीं करेगा और वह अपने ग्राहकों को कुछ अंधविश्वास पूर्ण अनुष्ठान या दान देने के लिए मजबूर भी कर सकता है ।

इसी प्रकार एक शूद्र लड़की के साथ एक क्षत्रिय लड़के के अंतरजातीय विवाह की परिस्थिति लें । मान लीजिए कि ऐसे विवाह के पश्चात एक लड़की का जन्म हुआ, जिसमें क्रोध और वासना का दोष पैतृक रूप से आ जायेगा ।

क्या यह समाज में अवैध यौन संबंध और अपराध (क्रोध और वासना के कारण) नहीं बढ़ाएगा? इस प्रकार के अवैध यौन संबंध जातियों और वर्णो के नियमों से परे हैं जो अवश्य ही शादी के लिए लड़के और लड़की के गुणों को मेल करके करने चाहिए (यहाँ शादी में लड़के और लड़की की जन्म कुंडली और शादी समारोह में किये जाने वाले अनुष्ठानों और कर्मकांडो के आलावा उनके प्रकृति के तीन गुणों सत्व, राजस और तामस के संयोजन का मिलान भी है) ।

इस तरह के वर्णसंकर से दुनिया की वर्तमान स्थिति की कल्पना करें, जो वास्तव में सभी के लिए अराजक हो चुकी है । मैंने आपको एक स्तर का उदाहरण दिया है । अब आप कल्पना करें कि अभी तक जातियों के बीच कितना मिश्रण और अंतर-मिश्रण हो चूका है । तो जरा सोचिये मानव शरीर और मस्तिष्क के अंदर प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, राजस और तामस कितने पतले (dilute) हो चुके हैं । यही कारण है कि कलियुग नरक से भी बुरा है । यहाँ राजनेता जनता के पैसे को उड़ा रहे हैं । ब्राह्मण माँसाहारी भोजन तक कर रहे है यहाँ तक की लोग परिवारों के भीतर भी अवैध यौन संबंध स्थापित कर रहे हैं । लोग छोटी छोटी बातों के लिए एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं । और आप जानते हैं कि यह सब शुरू हुआ केवल वर्णसंकर की वजह से ।

आशीष एक पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा था । उन्होंने अपनी चेतना एकत्र की और विभीषण से कहा, “महोदय, क्या इसका कोई समाधान नहीं है? इस परिदृश्य के अनुसार, भविष्य में परिस्थितियाँ और भी बदतर हो जाएंगी?”

कहा, “मेरे प्रिय मित्र, यह कलियुग का भविष्य है और यह ऐसा ही है । यहाँ तक ​​कि अगर हम लोगों को इसके विषय में बताने की कोशिश करते हैं, और कहते हैं कि वे गलत कर रहे हैं, तो वे हमारी बात नहीं सुनेंगे । मैंने आपको बताया कि प्रत्येक युग के अपने नियम हैं और भगवान विष्णु प्रत्येक युग में पृथ्वी के लोगों की सहायता के लिए आते हैं और उस युग की आवश्यकताओं के अनुसार धर्म को फिर से स्थापित करते हैं । त्रेतायुगमें भगवान राम के रूप में आये थे, जिन्होंने कभी कोई नियम नहीं तोड़ा और पक्षियों, बंदरों, आदि जैसे ब्रह्मांड के छोटे जीवों की सहायता से रावण जैसे राक्षस का अंत किया और शारीरिक बल के उपयोग से नकारात्मकता समाप्त की । द्वापर युग में भगवान कृष्ण के रूप में आये जिन्होंने हमें सिखाया कि पारिवारिक जीवन का आनंद भोगते हुए भगवान की प्राप्ति कैसे की जाये और हमें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ भगवद गीता दिया । लेकिन कलियुग में यदि हम भगवद गीता के ज्ञान को आम लोगों को देने का प्रयास करेंगे, तो वे इसे सुनेंगे लेकिन अपने अमल में नहीं लायेंगे । कलियुग के लिए, भगवान की अलग योजना हैं, बस प्रतीक्षा करें और आपको याद रखना चाहिए कि भगवान विष्णु के कलियुग का अवतार अपने हाथों में तलवार के साथ आयेगा”

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 39 ☆ कितनी और निर्भया ? ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक अति संवेदनशील आलेख   “कितनी और निर्भया”.  डॉ मुक्ता जी  एवं देश के कई संवेदनशील साहित्यकारों ने अपरोक्ष रूप से साहित्य जगत में एक लम्बी लड़ाई लड़ी है। डॉ मुक्ता जी की संवेदनाएं  उनके निम्न कथन से समझी जा सकती है – 

“अति निंदनीय।यह खोज का विषय है और ऐसे पक्षधरों की मंशा के बारे में जानना अत्यंत आवश्यक है।आखिर किस मिट्टी से बने हैं वे संवेदनशून्य लोग…जो ऐसे दरिंदों के लिए लड़ रहे हैं।शायद उनका ज़मीर मर चुका है।हैरत होती है,यह सब देख कर…मुक्ता।”

समस्त स्त्री शक्ति को  उनके अघोषित युद्ध में विजयी होने के लिए शत शत नमन  इस युद्ध में  सम्पूर्ण सकारात्मक पुरुष वर्ग भी आप के साथ  हैं और रहेंगे। इन पंक्तियों के लिखे जाते तक दोषी फांसी के फंदे पर लटकाये जा चुके हैं।

आपके समाज को सचेत करते आलेखों के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 39 ☆

☆ कितनी और निर्भया ? 

‘एक और निर्भया’ एक उपहासास्पद जुमला बनकर रह गया है। कितना विरोधाभास है इस तथ्य में… वास्तव में  निर्भय तो वह शख्स है, जो अंजाम से बेखबर ऐसे दुष्कर्म को बार-बार अंजाम देता है। वास्तव में इसके लिए दोषी हमारा समाज है, लचर कानून-व्यवस्था है, जो पांच-पांच वर्ष तक ऐसे जघन्य अपराधों के मुकदमों की सुनवाई करता रहता है। वह ऐसे नाबालिग अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, यह निर्णय नहीं ले पाता कि उन्हें दूसरे अपराधियों से भी अधिक कठोर सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कम आयु में, नाबालिग़ होते हुए ऐसा क्रूरत्तम व्यवहार कर… उस मासूम के साथ दरिंदगी की सभी हदों को पार कर दिया। 2012 में घटित इस भीषण हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। आज तक उस केस की सुनवाई पर समय व शक्ति नष्ट की की जा रही है। इन सात वर्षों में न जाने  कितनी मासूम निर्भया यौन हिंसा का शिकार हुईं और उन्हें अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।

हर रोज़ एक और निर्भया शिकार होती है, उन सफेदपोश लोगों व उनके बिगड़ैल साहबज़ादों की दरिंदगी की, उनकी पलभर की वासना-तृप्ति का मात्र उपादान बनती है। इतना ही नहीं,उसके पश्चात् उसके शरीर के गुप्तांगों से खिलवाड़, तत्पश्चात् प्रहार व हत्या,उनके लिए मनोरंजन मात्र बनकर रह जाता है। यह सब वे केवल सबूत मिटाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसे तड़पते हुए देख,मिलने वाले सुक़ून पाने के निमित्त करते हैं।

क्या हम चाह कर भी, कठुआ की सात वर्ष की मासूम, चंचल आसिफ़ा व हिमाचल की गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की दास्तान को भुला सकते हैं…. नहीं… शायद कभी नहीं। हर दिन एक नहीं,चार-चार  निर्भया बनाम आसिफा,गुड़िया आदि यौन हिंसा का शिकार होती हैं। उनके शरीर पर नुकीले औज़ारों से प्रहार किया जाता है और उनके चेहरे पर ईंटों से प्रहार कर कुचल दिया जाता है ताकि उनकी पहचान समाप्त हो जाए। यह सब देखकर हमारा मस्तक लज्जा-नत हो जाता है कि हम ऐसे देश व समाज के बाशिंदे हैं, जहां बहन-बेटी की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं … उसे किसी भी पल मनचले अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। अपराधी प्रमाण न मिलने के कारण अक्सर छूट जाते हैं। सो!अब तो सरे-आम हत्याएं होने लगी हैं।लोग भय व आतंक की आशंका के कारण मौन धारण कर, घर की चारदीवारी से बाहर आने में भी संकोच करते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि ग़वाहों पर तो जज की अदालत में गोलियों की बौछार कर दी जाती है और कचहरी के परिसर में दो गुटों के झगड़े आम हो गए हैं। पुलिस की गाड़ी में बैठे आरोपियों पर दिन-प्रति दिन प्रहार किये जाते हैं, जिन्हें देख हृदय दहशत से आकुल रहता है।

गोलीकांड, हत्याकांड, मिर्चपुर कांड व तेज़ाब कांड तो आजकल अक्सर चौराहों पर दोहराए जाते हैं। एकतरफ़ा प्यार, ऑनर-किलिंग आदि के हादसे तो समाज के हर शख्स के अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं, जिसका मूल कारण है, निर्भयता-निरंकुशता, जिस का प्रयोग वे आतंक फैलाने के लिये करते हैं।

सामान्यतः आजकल अपराधी दबंग हैं, उन्हें राज- नैतिक संरक्षण प्राप्त है या उनके पिता की अक़ूत संपत्ति, उन्हें निसंकोच ऐसे अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है।

समाज में बढ़ती यौन हिंसा का मुख्य कारण है, पति- पत्नी की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा, सुख- सुविधाएं जुटाने की अदम्य लालसा, अजनबीपन का अहसास, समयाभाव के कारण बच्चों से अलगाव व उनका मीडिया से लम्बे समय तक जुड़ाव, संवाद- हीनता से उपजा मनोमालिन्य व संवेदनहीनता, बच्चों में पनपता आक्रोश, विद्रोह व आत्मकेंद्रितता का भाव, उन्हें गलत राहों की ओर अग्रसर करता है। वे क्राइम की दुनिया में  पदार्पण करते हैं और लाख कोशिश करने पर भी उनके माता-पिता उन्हें उस दलदल से बाहर निकालने में नाकाम रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि बेकाबू यौन हिंसा की भीषण समस्या से छुटकारा कैसे पाया जाए?संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण, बच्चों में असुरक्षा का भाव पनप रहा है…सो! उनका सुसंस्कार से सिंचन कैसे सम्भव है? इसका मुख्य कारण है, स्कूलों व महाविद्यालयों में संस्कृति-ज्ञान के शिक्षण का अभाव, बच्चों में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों के प्रति अरुचि, घंटों तक कार्टून- सीरियलस् देखने का जुनून, मोबाइल-एप्स में ग़ज़ब की तल्लीनता, हेलो-हाय व जीन्स कल्चर को जीवन  में अपनाना, खाओ पीओ व मौज उड़ाओ की उपभोगवादी संस्कृति का वहन करना… उन्हें निपट स्वार्थी बना देता है। इसके लिए हमें लौटना होगा… अपनी पुरातन संस्कृति की ओर, जहां सीमा व मर्यादा में रहने की शिक्षा दी जाती है। हमें गीता के संदेश ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें भुगतना पड़ेगा’ का अर्थ बच्चों को समझाना होगा।और इसके साथ-साथ उन्हें इस तथ्य से भी अवगत कराना होगा कि मानव जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिएं क्योंकि ये ही मृत्योपरांत हमारे साथ जाते हैं।वैसे तो इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौटना है।

यदि हम चाहते हैं कि निर्भया कांड जैसे जघन्य अपराध समाज में पुन: घटित न हों, तो हमें अपनी बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी सुसंस्कारित करना होगा…उन्हें भी शालीनता और मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ाना होगा। यदि हम यथासमय उन्हें सीख देंगे, महत्व दर्शायेंगे,तो बच्चे उद्दंड नहीं होंगे। यदि घर में समन्वय और संबंधों में प्रगाढ़ता होगी, तो परिवार व समाज खुशहाल होगा। हमारी बेटियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त होंगे और कोई भी, किसी की अस्मत पर हाथ डालने से पूर्व उसके भीषण-भयंकर परिणामों के बारे में अवश्य विचार करेगा।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बुराई को पनपने से पूर्व ही समूल नष्ट कर दिया जाए, उसका उन्मूलन कर दिया जाए। यदि माता-पिता व गुरुजन अपने बच्चे को गलत राह पर चलते हुए देखते हैं, तो उनका दायित्व है कि वे साम, दाम, दंड, भेद..की नीति के माध्यम से उसे सही राह पर लाने का प्रयास करें। इसमें कोताही बरतना, उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है, उन्हें जीते-जी नरक में झोंक सकता है। यदि बचपन से ही उनकी गलत गतिविधियों पर अंकुश लगाया जायेगा तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा और उन्हें किसी गलत कार्य करने पर आजीवन शारीरिक व मानसिक यंत्रणा-प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ेगा।

इस ओर भी ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि ‘भय  बिनु होइहि न प्रीति’ तुलसीदास जी का यह कथन सर्वथा सार्थक है। यदि हम समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहते हैं, तो हमें कठोरतम कानून बनाने होंगे, न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाना होगा, त्वरित निर्णय हो सके क्योंकि देरी से किये गये निर्णय निर्णय की न सार्थकता होती, ही उपयोगिता… वह तो महत्वहीन होता है, व्यर्थ व निष्फल होता है। सो! हमें बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। यदि कोई असामाजिक तत्व समाज में उत्पात मचाता है, तो उसके लिए त्वरित कठोर दंड-व्यवस्था का प्रावधान करना, न्याय-पालिका का प्रमुख दायित्व होना चाहिए, ताकि ऐसे घिनौने हादसों की पुनरावृत्ति न हो। समाज में महिलाओं की अस्मिता सुरक्षित रह सके और सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कोरोनावायरस और हम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कोरोनावायरस और हम ☆

मित्रो,

देश इस समय कोविड-19 के संक्रमण से जूझ रहा है। यह वायरस भारत में तीसरे चरण में प्रवेश करने जा रहा है। चीन, इटली और अन्य देशों में इसके विभिन्न चरणों की तुलनात्मक स्थिति देखें तो तीसरे चरण में इससे संक्रमित होनेवालों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। यही चरण है जब हमें मिलकर इसका मुकाबला करना है।

इस संक्रमण से बचाव के लिए भारत सरकार अभूतपूर्व काम कर रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस संबंध में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की है। प्रधानमंत्री, स्वास्थ्यमंत्री जो स्वयं डॉक्टर हैं, स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी, सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी और बड़ी संख्या में स्वच्छताकर्मी इस मिशन में जुटे हैं। 130 करोड़ जनसंख्या के देश में कोविड-19 के संक्रमण से जनता को बचाने के लिए जो कुछ संभव है, केंद्र सरकार और सारी राज्य सरकारें  कर रही हैं।

हम देश के नागरिक हैं। नागरिक देश की इकाई होता है। संक्रमण को रोकने के उपायों को लागू करने में हमारी भूमिका महत्वपूर्ण है। हम, भारत के नागरिक  कुछ बिंदुओं का पालन कर इस संक्रमण को रोकने में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। एक नागरिक के नाते इन बिंदुओं को विनम्रता से आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ।

  1. कोविड-19 को हल्के में न लें। इसकी गंभीरता को समझें। व्हाट्सएप पर आने वाले अवैज्ञानिक और भ्रामक उपचारों का प्रचार-प्रसार न करें।
  2. उपचार और रोकथाम के लिए भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की अधिकृत वेबसाइट और वैश्विक स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट पर संबंधित पृष्ठ को विजिट करें। हम केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जारी हेल्पलाइन नंबर पर भी संपर्क कर सकते हैं।
  3. कोरोना का संक्रमण असाध्य नहीं है। हम भारतीयों की जीवनशैली विशेषकर खान-पान हमारे लिए बचाव का काम भी करता है, तथापि अपने डॉक्टर आप ना बनें।
  4. कोविड-19 के लक्षण दिखने पर संबंधित अस्पताल में जाएँ। पृथक या आइसोलेशन में रहना हमारे स्वयं के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, देश के लिए लाभप्रद है, इससे घबराएँ नहीं।
  5. गंभीर बीमारियों और मधुमेह, रक्तचाप के मरीज़ अपनी दवाइयाँ नियमित रूप से लें। अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम न होने दें।
  6. सैनिटाइजर या साबुन से कम से कम 20 सेकंड हाथ धोने का नियम अवश्य पालें।यथासंभव सार्वजनिक कार्यक्रम न आयोजित करें, न उनमें सहभागी हों।
  7. आवश्यक ना होने पर घर से बाहर न निकलें। यह वैश्विक आपदा है, पिकनिक मनाने का समय नहीं।
  8. कोविड-19 के ख़तरों को समझना और आगाह करना हम सबका कर्तव्य है। बेहद महत्वपूर्ण है कि हम इसके प्रति लापरवाह ना रहें।
  9. स्वच्छता रखें, सतर्कता बरतें, सरकार का साथ दें।
  10. कोविड-19 को हराया जा सकता है। तीसरा चरण निकट है। आवश्यकता है सामूहिक अनुशासन और गंभीर प्रयासों की।

सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत्।।

संजय भारद्वाज
भारत का एक नागरिक

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 38 ☆ बिजली और राजनीति ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  विचारणीय आलेख  “बिजली और राजनीति”।  राष्ट्रीय स्तर पर रेल, पोस्ट, दूरसंचार, इंटरनेट सेवाएं और टैक्स पर भी एक सामान दर है तो फिर  इस श्रेणी से बिजली अलग क्यों और उसपर राजनीति क्यों ?  श्री विवेक रंजन जी  को इस  सार्थक एवं विचारणीय आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 38 ☆ 

☆ बिजली और राजनीति ☆

 हमारे संविधान में बिजली केंद्र व राज्य दोनो की संयुक्त सूची में है, इसी वजह से बिजली पिछले कुछ दशको से  राजनीति का विषय बन चुकी है. जब संविधान बनाया गया था तब बिजली को विकास के लिये  ऊर्जा के रूप में आवश्यक माना गया था अतः उसे केंद्र व राज्यो के विषय के रूप में बिल्कुल ठीक रखा गया था. समय के साथ एक देश एक रेल, एक पोस्ट, एक दूरसंचार, एक इंटरनेट, अब एक टैक्स के कानसेप्ट तो आये किंतु बिजली से आम नागरिको के सीधे हित जुड़े होने के चलते वह राजनीति और सब्सिडी, के मकड़जाल में उलझती गई.

कुछ दशकों पहले बिजली का उत्पादन कम था, तब बिजली कटौती से जनता परेशान रहती थी, बिजली सप्लाई को लेकर  पक्ष विपक्ष के राजनीतीज्ञ आंदोलन करते थे. चुनावों के समय दूसरे राज्यों से बिजली खरीदकर विद्युत कटौती रोक दी जाती थी, बिजली वोट में तब्दील हो जाती थी. समय के साथ निजी क्षेत्र का बिजली उत्पादन में प्रवेश हुआ. बिजली खरीदी के करारो के जरिये  राजनीतिज्ञो को आर्थिक रूप से निजी कंपनियो ने उपकृत भी किया. दुष्परिणाम यह हुआ कि अब जब बिजली को संविधान संशोधन के जरिये एक देश एक बिजली की नीति के लिये केवल केंद्र का विषय बना दिया जाना चाहिये, तब कोई भी राजनैतिक दल इस सुधार हेतु तैयार नही होगा.  बिजली की दरें राज्य के विद्युत  नियामक आयोग तय करते हैं, और सब्सिडी के खेल से सरकारें वोट बना लेती हैं.  चिंता का विषय है कि बिजली ऐसी कमोडिटी बनी हुई है, जिसकी दरें मांग और आपूर्ति के इकानामिक्स के सिद्धांत से सर्वथा विपरीत तय किये जाते हैं. चुनावों के समय  बिजली को विकास का संसाधन मानकर बिजली सामाजिक मुद्दा बना दिया जाता है तो चुनाव जीतते ही बिजली कंपनियो को कमर्शियल आर्गनाईजेशन बता कर उसमें कार्यरत कर्मचारियो को सरकारो द्वारा सरे आम रेवेन्यू बढ़ाने के लिये प्रताड़ित किया जाने लगता है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही एक ट्वीट कर कहा कि “मुझे खुशी है कि सस्ती बिजली राष्ट्रीय राजनीति में बहस का मुद्दा बन चुका है। दिल्ली ने दिखा दिया कि निशुल्क या सस्ती बिजली उपलब्ध कराना संभव है। दिल्ली ने दिखा दिया कि इससे वोट भी मिल सकते हैं। 21वीं सदी के भारत में 24 घंटे सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध होनी चाहिए।”

दिल्ली के चुनावों में हम सबने केजरीवाल सरकार द्वारा फ्री बिजली का प्रलोभन देकर जीतने का करिश्मा देखा ही है.

पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार के चुनाव आसन्न हैं.दिल्ली सरकार की तर्ज पर पश्चिम बंगाल की सरकार ने भी मुफ्त बिजली देने की घोषणा की है। अपने फैसले में ममता सरकार ने कहा है कि तीन महीने में 75 यूनिट बिजली की खपत करने वालों से बिल नहीं लिया जाएगा। दिल्ली की केजरीवाल सरकार लोगों को 200 यूनिट तक फ्री बिजली दे रही है।

झारखंड सरकार भी दिल्ली की तरह झारखंड में घरेलू उपयोग के लिए फ्री बिजली देने की तैयारी शुरू कर दी है। मुख्यमंत्री के निर्देश पर ऊर्जा विभाग 100 यूनिट फ्री बिजली का प्रस्ताव तैयार कर रहा है। यह झारखंड मुक्ति मोर्चा की चुनावी घोषणा में शामिल है।

महाराष्ट्र सरकार द्वारा भी बिजली पर सब्सिडी देने संबंधी प्रस्ताव विचाराधीन है. म. प्र. सरकार में  भी निश्चित सीमा तक फ्री बिजली दी जा रही है. अन्य राज्यो की सरकारें भी कम ज्यादा सब्सिडी के प्रलोभन देकर जनता को दिग्भ्रमित कर रही हैं. केवल बिजली ही ऐसी कमोडिटी है जिसकी दरो में देश में क्षेत्र के अनुसार, उपयोग के प्रकार तथा खपत के अनुसार व्यापक अंतर परिलक्षित होता है. आज आवश्यक हो चला है कि एक देश एक बिजली की नीति बनाकर बिजली की दरो में सबके लिये समानता लाई जावे. क्या कारण है कि केंद्र की नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन, पावर ग्रिड, नेशनल हाईडल पावर कारपोरेशन, एटामिक पावर आदि संस्थान जहां नवरत्न कंपनियो में लाभ अर्जित करने वाले संस्थान हैं वहीं प्रायः राज्यो की सभी बिजली कंपनियां बड़े घाटे में हैं. इस घाटे  से इन संस्थानो को निकालने का एक ही तरीका है कि बिजली को लेकर हो रही राजनीति बंद हो.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 20 – महात्मा गांधी  और उनके अनुयायी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी  और उनके अनुयायी”। )

☆ गांधी चर्चा # 20 – महात्मा गांधी  और उनके अनुयायी

अपने जीवन काल में गांधीजी ने जो कुछ अनुभव प्राप्त किए, लोगों से सीखे और जो भी सिद्धांत बनाए उन्हे सबसे पहले स्वयं पर लागू किया और उन्हे परखा। उनके अनेक कार्यक्रम समाज सुधार की भावना से भी प्रेरित थे और उन्हे लागू करवाने में उन्हे विरोधों का भी सामना करना पड़ता यहाँ तक कि अनेक बार उनकी पत्नी कस्तूरबा भी उनसे सहमत न होती पर गांधीजी ने हार नही मानी वे सदैव अपने नियमों, सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करते रहे। स्वतंत्रता के आन्दोलान में अनेक लोग उनके संपर्क में आए उनसे प्रभावित हुये और उनके सच्चे अनुयायी बन गए।इन व्यक्तियों ने आजीवन गांधीजी द्वारा बताई गई जीवन शैली का परिपालन किया। ऐसे अनेक नाम है उनमे से कुछ की चर्चा मैं करना चाहता हूँ।

गांधीजी की पत्नी के विषय में उनकी नातिन सुमित्रा गांधी कुलकर्णी अपनी पुस्तक “महात्मा गांधी मेरे पितामह” में लिखती हैं “ मेरा ऐसा विश्वास है कि आदि युग की अरुंधती के समान ही वर्तमान की कस्तूरबा गांधी अपने तेजस्वी सत्यनिष्ठ पति की सुयोग्य अर्धांगनी थीं जो स्वयं अपनी निर्भीकता, कर्मठ सेवा भाव और अपनी सुलझी हुई उदारता और चारित्र्य की प्रखरता से बापुजी के सारे देशी-विदेशी आश्रमों को प्रभासित किए हुए थीं।“ गांधीजी  ने कस्तूबा की सहनशीलता पर अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में अफ्रीका के घर में पेशाब के बर्तन उठाने के संदर्भ में लिखा है “ इसमे से हरेक कमरे में पेशाब के लिए खास बर्तन रखा जाता। उसे उठाने का काम नौकर का न था, बल्कि हम पति पत्नी का था। कस्तूर बाई दूसरे बर्तन तो उठाती पर पञ्चम कुल में उत्पन्न मुहर्रिर का बर्तन उठाना उसे असह्य लगा।इससे हमारे बीच कलह हुआ। मेरा उठाना उससे सहा न जाता था और खुद उठाना उसे भारी हो गया था।“ दुखी मन से कस्तूरबा का बर्तन उठाना गांधीजी को पसंद न आया। वे उनपर भड़क उठे और बोले “यह कलह मेरे घर में नहीं चलेगा”  कस्तूरबा भी कहाँ चुप रहती वे भी भड़क उठीं और बोली “ तो अपना घर अपने पास रखो मैं यह चली” गांधीजी आगे लिखते हैं “ मैंने उस अबला का हाथ पकड़ा और दरवाजे तक खींच कर ले गया। दरवाजा आधा खोला । कस्तूरबाई की आखों में गंगा जमुना बह रही थी वह बोली – तुम्हें तो शरम नहीं है। लेकिन मुझे है। जरा तो शरमाओ। मैं बाहर निकल कर कहाँ जा सकती हूँ ? मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, इसलिए मुझे तुम्हारी डांट फटकार सुननी पड़ेगी। अब शरमाओ और दरवाजा बंद करो। कोई देखेगा तो दो में से एक की भी शोभा नहीं रहेगी।“ गांधीजी कहते हैं कि “हमारे बीच झगड़े तो बहुत हुये, पर परिणाम सदा शुभ ही रहा है। पत्नी ने अद्भुत सहनशक्ति द्वारा विजय प्राप्त की है।“ गांधीजी और कस्तूरबा के दांपत्य जीवन पर श्री राकेश कुमार पालीवाल अपनी पुस्तक  ” गांधी जीवन और विचार”  में लिखते हैं –  एक बार गांधी ने स्वास्थ लाभ के लिए कस्तूरबा को नमक और दाल छोड़ने की सलाह दी। कस्तूरबा ने कहा – ये दो चीज तो आप भी नही छोड़ सकते। गांधी ने तभी दोनों को त्यागने का व्रत ले लिया। कस्तूरबा को गांधी का त्याग देखकर बड़ा अफसोस हुआ। उन्होने यह दोनों चीजें छोड़ दी और गांधी से  अनुरोध किया कि वे अपना ब्रत तोड़ दे लेकिन गांधी भी उतने ही दृढ़ संकल्पी थे उन्होने आजीवन यह व्रत निभाया। बाद के सालों में दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए थे।“

महात्मा गांधी के एक अनन्य मित्र थे शंकर धर्माधिकारी जो दादा धर्माधिकारी के नाम से ही प्रसिद्ध हुये।  उनके पिता ब्रिटिश हुकूमत में जज की नौकरी करते थे पर दादा गांधीजी के सिद्धांतों के पक्के अनुयायी थे। गांधीजी की अनेक मान्यताओं की उन्होने बड़ी सुंदर व्याख्या की है। ऐसी ही व्याख्या स्त्री को बराबरी का दर्जा देने को लेकर है। गांधीजी यह मानते थे कि “स्त्रियों का मन कोमल होता है इसका मतलब वह कमजोर होती है ऐसी बात नही”। गांधीजी की इस मान्यता का भाष्य करते हुये दादा कहते हैं, “ स्त्री सुरक्षित नही, पर स्वरक्षित हो। शिक्षा के विकास के लिए उसमे दो तत्त्वो का समावेश होना चाहिए, सामंजस्य और अनुबंध। शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम विनयशीलता में हो। स्त्रियों को स्त्रियों के और पुरुषो के साथ भी मैत्री की समान भूमि पर विचरण करने की कला साध्य होनी चाहिए। स्त्री पुरुषों का सामान्य मनुष्यत्व शिक्षा के कारण विकसित हो। स्त्री पुरुष के बराबर रहे यानी वह पुरुष जैसी होगी ऐसा नही। विकसित स्त्री का मतलब नकली पुरुष नहीं।समानत्व का अर्थ तुल्यत्व नहीं। स्त्री की भूमिका पुरुष की भूमिका तुल्य रहेगी, कभी-कभी वह उससे सरस या कई बातों में उसके जैसी होगी परंतु वह निम्न स्तर की कभी नही रहेगी। स्त्री की प्रतिष्ठा केवल ‘वीरमाता’ या ‘वीरपत्नी’ बनने में नही। उसका पराक्रम स्वायत्त होगा। वीरपुरुष की तरह वीरस्त्री बनना उसके लिए भूषणावह होना चाहिए।“ ( एक न्यायमूर्ति का हलफनामा से साभार।)  आज जब बीएचयू जैसे उच्च शिक्षा केंद्रों में स्त्री अपमान, नारी समानता, स्त्री सुरक्षा जैसे  अनेक प्रश्न उठ रहे है, इनको लेकर आंदोलन हो रहे है तब  क्या गांधीजी की मान्यताओं की ऐसी व्याख्या हमे मार्ग नही दिखाती? गांधीजी  आज भी प्रासंगिक है यह मानने की जरूरत है।

दादा धर्माधिकारी के  एक पुत्र न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी हैं, उन्होने अपनी पुस्तक “एक न्यायमूर्ति का हलफनामा “ में गांधीजी के अनेक अनुयायियों का जिक्र किया है और उन घटनाओं का सजीव चित्रण किया है जो हमे बताती हैं कि लोगों पर गांधीजी का प्रभाव कितना व्यापक था और लोग किस निष्ठा के साथ उनके बताए मार्ग पर चलने का सफल प्रयास करते थे। न्यायमूर्ति धर्माधिकारी अपनी इस पुस्तक में श्रीकृष्णदासजी जाजू को याद करते हुए लिखते हैं कि “गांधीजी के एकादश व्रतों में ‘अस्तेय’ और अपरिग्रह ये दो व्रत हैं। जाजूजी इन  व्रतों के जीते जागते उदाहरण थे। एक बार दादा और माँ  जाजूजी के साथ गांधी सेवा संघ के सम्मेलन में हुदली गए थे। वहाँ खड़ी ग्राम-उद्योग की वस्तुओं की प्रदर्शनी लगी थी। दादा और माँ  जाजूजी प्रदर्शनी देखने निकले। दादा  ने माँ से कहा, ‘थोड़े पैसे साथ ले लेना।’ सुनकर जाजूजी ने कहा, प्रदर्शनी  में देखने और कुछ सीखने जाना है या चीजें खरीदने के लिए ? दादा ने  कहा, ‘यह तय करके की कुछ खरीदना ही है नही जा रहे। अगर कोई अच्छी चीज दिखी तो ले लेंगे।‘ जाजूजी को बहुत अचरज हुआ। बोले ‘यह क्या बात हुयी ? अगर आपको किसी चीज की जरूरत है तो उसे ढूढ़ेंगे’।पर केवल कोई चीज अच्छी ढीखती है, इसलिए बिना जरूरत उसका संग्रह करना कहाँ तक उचित है? अनावश्यक चीजे याने कबाड़।“

गांधीजी ने देश के उद्योगपतियों के लिए ट्रस्टीशिप का  सिद्धांत प्रतिपादित किया था। जमना लाल बजाज, घनश्याम दास बिरला आदि ऐसे कुछ देशभक्त उद्योगपति हो गए जिन्होने  गांधीजी के निर्देशों को अक्षरक्ष अपने व्यापार में उतारा। गांधीजी  से प्रभावित ये उद्योगपति आज के व्यापारियों जैसे न थे जिनका लक्ष्य केवल और केवल मुनाफा कमाना रह गया है। और  मुनाफाखोरी की यह आदत सारे नियम कानूनों का उल्लघन करने से भी नही चूकती। जन कल्याण , समाज सेवा आदि की भावना अब उद्योगपतियों के लिए गुजरे जमाने की बातें हैं, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्ति के साधन बन गए हैं और  टीवी पर डिबेट की विषयवस्तु बन कर रह गई है। जमना लाल बजाज के विषय में न्यायमूर्ति धर्माधिकारी अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं “ महात्मा गांधी ने जमनालालजी को जैसा प्रमाणपत्र दिया, वैसा शायद ही अन्य किसी को मिला हो! गांधीजी की राय से ‘उनकी और जमनालालजी की सच्ची राजनीति याने विधायक कार्य। जमनालालजी अपनी सम्पति के ट्रस्टी या संरक्षक के नाते ही बर्ताव करते थे। अगर वे  ट्रस्टीशिप की पूर्णता तक पहुँचे न होंगे तो उसका कारण मैं ही हूँ। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जमनालालजी ने अनीति से एक पाई तक नहीं कमाई और जो भी कमाया वह सब जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च किया।‘ सच क्या आजकल ऐसे उद्योगपति बचे हैं? जमना लाल बजाज ने सत्याग्रहाश्रम , महिला सेवा मंडल, शिक्षा मंडल, चरखा संघ, गांधी सेवा संघ आदि संस्थाओं की नीव डाली। उन्होने ही सबसे पहले वर्धा का अपना ‘श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर’ 17 जुलाई 1928 को अस्पृश्यों के लिए खुला कर, उनके प्रेरणास्त्रोत गांधीजी के सहयोगी व पुत्र होने का सम्मान प्राप्त किया।

गांधीजी के सामुदायिक जीवन में प्रार्थना का बड़ा महत्व था। उनके द्वारा स्थापित आश्रमों में सुबह और शाम सर्वधर्म प्रार्थना होती और इसका क्रमिक विकास हुआ, जिसमें काका कालेलकर का बहुत बड़ा योगदान है। आश्रम-भजनावली का संपादन उन्होने ही किया और इसकी प्रस्तावना में उन्होने बड़े विस्तार से बताया है कि किस प्रकार बौद्ध मंत्रों, कुरान की आयतों, जरथोस्ती गाथा, बाइबल, देवी देवताओं की स्तुतियाँ, भजन, रामचरित मानस,  उपनिषद के श्लोक, गीता आदि का समावेश आश्रम-भजनावली में हुआ। काका लिखते हैं कि सुबह की प्रार्थना में अनेक देव-देवियों की उपासना आती है। इसका विरोध भी अनेक आश्रमवासियों ने किया था। गांधीजी ने कहा कि ये सब श्लोक एक ही परमात्मा की उपासना सिखाते हैं। नाम रूप की विविधता हमें ना केवल सहिष्णुता सिखाती है,बल्कि हमे सर्व-धर्म-सम-भाव  की ओर ले जाती है। यह विविधता हिन्दू धर्म की खामी नहीं किन्तु खूबी है।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष – महात्मा गांधी का स्वास्थ्य उनका स्वच्छता अभियान और छूत की बीमारीयां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के उत्कृष्ट साहित्य को हम समय समय पर आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  150 वीं गाँधी जयंती पर विशेष आलेख  “महात्मा गांधी का स्वास्थ्य उनका स्वच्छता अभियान और छूत की बीमारीयां ”।  इस आलेख में  श्री विवेक रंजन जी ने गांधी जी की स्वयं के स्वास्थ्य  के अतिरिक्त सामाजिक स्वास्थ्य  के प्रति उनके दृष्टिकोण पर गहन विमर्श किया है। साथ ही गाँधी जी के स्वास्थय की ऐतिहासिक जानकारी भी प्रस्तुत की है। इस ऐतिहासिक जानकारी के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष – महात्मा गांधी का स्वास्थ्य उनका स्वच्छता अभियान और छूत की बीमारीयां ☆ 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पहचान उनके अहिंसा के आदर्श के साथ ही स्वच्छता अभियान , अश्पृश्यता निवारण  व कुष्ठ रोगियों तक की सेवा में खुले दिल से उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर है .

अपनी आत्मकथा ” सत्य के साथ मेरे प्रयोग”  में, गांधी लिखते हैं -‘ मैं सोलह वर्ष का था . मेरे पिता, फिस्टुला से पीड़ित थे. मेरी मां घर की सेवा करते-करते बुजुर्ग हो चुकी थी, और मैं उनका प्रमुख परिचारक था. मैंने एक नर्स की भांति उनकी सेवा में अपना कर्तव्य निभाया … हर रात मैं उनके पैरों की मालिश करता था और तब तक करता रहता था, जब तक कि वे सो ना जाएं. मुझे यह सेवा करना पसंद था.

‘गांधी जी का पहला बच्चा उनके घर में ही पैदा हुआ था. उन्होंने साउथ आर्मी में रहते हुए नर्सिंग सीखी थी. उन्होंने लिखा है, ‘मुझे छोटे अस्पताल में सेवा करने का समय मिला … इसमें मरीजों की शिकायतों का पता लगाने, डॉक्टर के सामने तथ्यों को रखने और पर्चे बांटने का काम शामिल था. इसने मुझे पीड़ित भारतीयों के साथ घनिष्ठ संपर्क में ला दिया, उनमें से अधिकांश तमिल, तेलुगु या उत्तर भारत के पुरुष थे. … मैंने बीमार और घायल सैनिकों की नर्सिंग के लिए अपनी सेवाओं की पेशकश की थी … मेरे दक्षिण अफ्रीका में दो बेटे पैदा हुए और अस्पताल में किये गये मेरे कार्य का अनुभव उनके पालन-पोषण में मददगार रहा .

अपने माता पिता की बीमारियो की  परिस्थितियों का सामना करने के दौरान गांधी जी को शरीर, स्वास्थ्य और दवाओं के बारे में काफी जानकारी मिली और इसका उनपर गहरा प्रभाव पड़ा. एक तरफ स्वच्छता की भूमिका और दूसरी ओर पारंपरिक प्रथाओं की तुलना में आधुनिक सर्जरी की उत्कृष्टता ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया.

हाल ही उनकी हेल्थ फाइल पहली बार सामने आई है. इसमें गांधी जी के स्वास्थ्य को लेकर कई विवरण सामने आये हैं। इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च (IJMR) के स्पेशल एडिशन में इससे जुड़े फैक्ट्स पहली बार प्रकाशित किए गए हैं.

गांधीजी हाई ब्लड प्रेशर से पीड़ित थे.  1939 में उनका वजन 46.7 किलो और ऊंचाई 5 फिट 5 इंच  थी. उन्हें  1925, 1936 और 1944 में तीन बार मलेरिया  हुआ. उन्होंने 1919 में पाइल्स और 1924 में अपेन्डिसाइटिस का ट्रीटमेंट करवाया था. लंदन में रहने के दौरान वे प्लूरिसी के रोग से भी पीड़ित रहे. गांधी जी प्रतिदिन औसत 18 किमी पैदल चला करते थे. 1913 से लेकर 1948 तक की कैंपेनिंग के दौरान वे करीब 79 हजार किमी पैदल चले. गांधीजी स्वयं को प्राकृतिक तरीकों से स्वस्थ रखते थे. नेचुरोपैथी में उनका भरोसा था . संतुलित आहार, प्राकृतिक इलाज और फिजिकल फिटनेस की महत्ता को वे समझते थे.उन पर जनता की आकांक्षा का दबाव तो था ही साथ ही अंग्रेजी शासन से जूझने की नीति तय करने का दबाव भी था, क्रांति की सामान्य सोच के विपरीत अहिंसा की सोच थी किंतु इतने तनाव के बाद भी गांधी जी के हृदय में कभी कोई समस्या नहीं आई, उनकी 1937 में हुई ईसीजी जांच से यह तथ्य स्पष्ट होता है. वे  कहते थे कि जो मानसिक श्रम करते हैं, उनके लिए भी शारीरिक परिश्रम करना बेहद जरूरी है. वे शाकाहार के प्रबल समर्थक थे .गांधी जी ने  हाइड्रोथेरेपी या जल-शोधन,  फाइटोथेरेपी (पौधों द्वारा उपचार),  मिट्टी के पुल्टिस (मिट्टी और कीचड़ द्वारा उपचार), और आत्म-नियमन  पर जीवन पर्यंत जोर दिया . पुस्तक हिंद स्वराज में वे कहते हैं, ‘मैं एक समय चिकित्सा पेशे का बड़ा प्रेमी था. देश की खातिर मैं डॉक्टर बनना चाहता था.

लंबे समय तक भारत में क्षय रोग तथा चेचक  बहुत घातक बीमारियां थी. चेचक के बारे में समाज में धारणा थी कि किसी गलती, पाप या दुराचार के परिणाम स्वरूप यह बीमारी होती थी .गाधी जी ने कहा कि सावधानी के साथ चेचक के रोगियो को छूने व उनकी सेवा करने से यह बीमारी नही हो जाती .  गांधी जी दवाओ के पेटेंट एवं चिकित्सा हेतु विज्ञापनो के विरोधी थे .  वैकल्पिक रूप से, उन्होंने स्वच्छता व प्राकृतिक जीवन शैली पर जोर दिया जिससे बीमारियां होने ही न पावें . जिस समय बापू लोगों को आजादी के लिए एकजुट करने में लगे हुए थे तब भारत में अस्पृश्यता और छुआछूत का बोलबाला था , कुष्ठ रोग के प्रति  समाज में उपेक्षा का भाव था .  गांधी जी ने स्वयं जमीनी कार्यकर्ता के रूप में सफाई अभियान को अपनाया , कुष्ठ रोगियो की सेवा से वे कभी पीछे नही हटे .

गांधी की पुण्य तिथि को भारत सरकार एंटी लिपरेसी डे के रूप में मनाती है. गांधी जी ने अपने चंपारण प्रवास के दौरान विशेष रूप से कुष्ठ रोगियों की बहुत सेवा की थी तब अंग्रेजो द्वारा किसानो से जबरदस्ती नील की खेती कराई जाती थी. नील की खेती के साइड अफेक्ट के रूप में किसानों को कुष्ठ रोग होने लगा था. गांधी जी ने चम्‍पारण सत्‍याग्रह से चम्‍पारण वासियों को नील की खेती करने पर मजबूर करने वाले जमींदारों के आतंक तथा शोषण से मुक्ति दिलाई तथा स्‍वच्‍छता और स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति लोगों को जागरूक कर अपनी अवधारणाओं को प्रतिपादित किया. यह आंदोलन स्‍वतंत्रता इतिहास का स्‍वर्णिम अध्‍याय का सृजन  करता है.चम्पारण के किसान शरीर से दुर्वल और बीमार रहते थे, नील की खेती से किसान कुष्ठ व क्षय रोग के शिकार हो रहे थे. गांधी जी व स्‍वयंसेवकों ने मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारू तक का काम किया. स्‍वास्‍थ्‍य जागरूकता का पाठ पढाते हुए लोगों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराया गया, ताकि किसान स्वस्थ रह सकें और अपने में रोग प्रतिरोधक क्षमता को विकसित कर सकें. गांधीजी ने स्‍वच्‍छ और स्‍वस्थ रहने के संदर्भ में कहा था कि हमें अपने संस्‍कारों और स्थापित विधियों को नहीं भूलना चाहिए .स्‍वच्‍छ रहकर ही हम स्‍वस्‍थ्‍य रहेंगे.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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