हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #41 ☆ अंतस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  अंतस

महाभारत युद्ध के पूर्व सहयोगी के रूप में नारायण या नारायणी सेना चुनने का विकल्प दुर्योधन और अर्जुन के सामने था। मदांध दुर्योधन ने सेना को चुना। श्रीकृष्ण, पार्थसारथी हुए। महाभारत का परिणाम सर्वविदित है।

जो अंतस में है, उसे जागृत करने का अंतर्भूत सौभाग्य उपलब्ध  होते हुए भी जो बाहर दिख रहा है; मन भागता है उसकी ओर। वाह्य आडंबर न कभी सफलता दिलाते हैं न असफलता के कालखंड में न्यायसंगत मार्ग पर होने का सैद्धांतिक संतोष ही देते हैं।

सनद रहे, अंतस के सारथी के अनुरूप यात्रा करनेवाला पार्थ ही जीवन के महाभारत में विजयी होता है।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ समाज के जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य ☆ डा. स्मृति शुक्ल

डा. स्मृति शुक्ल

 

डॉ स्मृति शुक्ल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  आप मानकुंवर बाई शासकीय महिला महाविद्यालय जबलपुर में प्रध्यापिका (हिन्दी विभाग)। यह आलेख सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत विमर्श। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।  आज प्रस्तुत है डॉ स्मृति शुक्ल जी का आलेख “समाज के जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य”।)

 ☆ समाज के जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य ☆ 

विवेक रंजन श्रीवस्तव व्यवसाय से इंजीनियर हैं, और हृदय से साहित्यकार। साहित्य में उनकी आत्मा बसती है, साहित्य के प्रति प्रेम उन्हें अपने परिवार से  विरासत में मिला है। उनके पिता श्री चित्रभूषण श्रीवास्तव जी हिन्दी के वरिष्ठ कवि, अनुवादक व चिंतक हैं। उनके पितामह स्व सी एल श्रीवास्तव आजादी के आंदोलन के सहभागी तथा मण्डला के सुपरिचित हस्ताक्षर रहे थे।

हिन्दी व्यंग्य विधा में विवेक रंजन श्रीवास्तव ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। वे एक अच्छे व्यंग्यकार इसलिये हैं क्योंकि वे एक अच्छे समाज दृष्टा हैं । परिवार, समाज, राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था जैसे विषयों की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना पर वे सतत अपनी पैनी नजर रखते हैं। एक व्यंग्यकार के रूप में उन्होंने अपने संचित अनुभवों और समाज के प्रति प्रतिबद्धता तथा बहुत ही दोस्ताना शैली में समाज के प्रत्येक छद्म विषय पर अपनी लेखनी चलायी हैं। जब विवेक रंजन जी सामाजिक विसंगतियों पर, राजनैतिक छद्म पर, धार्मिक पाखंड पर अपनी रचनात्मक कलम चलाते हैं तब उनके मन में समाज को बदलने की बलवती स्पृहा होती है। उनकी इसी सकारात्मक परिवर्तनकामी दृष्टि से उनके व्यंग्यों का जन्म होता है। दरअसल व्यंग्य रचना एक गंभीर कर्म है। विवेक रंजन श्रीवास्तव बीस-पच्चीस वर्षो से अनवरत् व्यंग्य लिख रहे हैं। चाहे कोई भी घटना हो उनका ध्यान उस घटना के मूल कारणों पर जाता है और वे एक मारक, मार्मिक तथा तीखे व्यंग्य लेख की रचना कर देते हैं, जिसके अंत में प्रायः वे समस्या का समुचित समाधान भी सुझाते हैं, इस दृष्टि से वे अन्य हास्य व्यंग्य के कई लेखको से भिन्न हैं। विवेकरंजन के तीन व्यंग्य संग्रह ‘राम भरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’, और ‘मेरे प्रिय व्यंग्य लेख’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं। चौथा व्यंग्य संग्रह धन्नो बसंती और बसंत ई बुक के रूप में मोबाईल पर सुलभ है।

विवेक रंजन जी बहुत ही पारिवारिक अंदाज में अपने व्यंग्यों का प्रारंभ करते हैं बात पत्नी बच्चों से आरंभ होती है और देश की किसी बड़ी समस्या पर जाकर समाप्त होती है ‘भोजन-भजन’, फील गुड, आओ तहलका-तहलका खेलूँ, रामभरोसे की राजनैतिक सूझ-बूझ आदि ऐसे ही व्यंग्य लेख हैं । रामभरोसे जो इस देश का आम वोटर है, मिस्टर इंडिया जो गुमशुदा, सहज न दिखने वाला आम भारटिय नागरिक है तथा उनकी पत्नी उनके वे प्रतीक हैं जिनसे वे अपने व्यंग्य बुनते हैं। विवेक रंजन ने अपने व्यंग्य ‘आल इनडिसेंट इन ए डिसेंट वे’ में आज के युग में विवाह समारोहों में किये जा रहे वैभव प्रदर्शन, फूहड़ता, आत्मीयता का अभाव, अपव्ययता आदि पर विचार किया है। इस व्यंग्य के मूल में समाज-सुधार का भाव गहराई से निहित है।

‘नगदीकरण मृत्यु का’, ‘चले गये अंग्रेज’ आदि व्यंग्यों में व्यवस्था के तमाम अंतर्विरोध उजागर हुए हैं। आजादी के बाद भारत में जो स्थितियाँ बनी , सामाजिक राजनैतिक जीवन में जो विसंगत स्थितियाँ उपजीं, भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ा, धर्म के क्षेत्र में पाखंडी बाबाओं का अतिचार बढ़ा अर्थात भारतीय समाज के सभी घटकों में इतनी असंगतियाँ बढ़ी कि तमाम साहित्यकारों का ध्यान इस ओर गया। हरीशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के.पी.सक्सेना, लतीफ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी के साथ विवेक रंजन श्रीवास्तव ने जीवन यथार्थ के जटिलतम रूपों का बड़ी गहराई से अध्ययन करके अत्यंत सूक्ष्म और कलात्मक व्यंग्य लिखे। विवेक रंजन के व्यंग्य एक बुद्धिजीवी, सच्चे समाज दृष्टा, ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति तथा समाज सचेतक की कलम से निकले व्यंग्य है। इन व्यंग्यों में सदाशयता है तो विसंगतियों के प्रति तीव्र दायित्व बोध और आक्रामकता भी है ।

‘जरूरत एक कोप भवन की’ में भगवान राम के त्रेता युग से प्रारंभ करते हुए विवेक रंजन कोप भवन की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हुए वर्तमान युग में कोप भवन की प्रासंगिकता को सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि – ‘आज कोप भवन पुनः प्रासंगिक हो चला है। अब खिचड़ी सरकारों का युग है। ………. अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधानसभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह का एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे। इससे बड़ा लाभ मोर्चा के संयोजकों को होगा। विभाग के बँटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही माँग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा वह कोप भवन में चला जायेगा। रेड अलर्ट का सायरन बजेगा संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुँचे, रूठे को मना लेंगे, फुसला लेंगे।

“लोकतंत्र पर छाया खतरा कोप भवन की वजह से टल जायेगा।“ इस उद्धरण में हास्य के पुट के साथ देश की राजनैतिक स्थिति पर बड़ा पैना व्यंग्य है। विवेक रंजन ने अपनी एक भाषा निर्मित की है। वे शब्द की स्वाभाविक अर्थवत्ता को आगे बढ़ाकर चुस्त बयानी तक ले जाते हैं। सही शब्दों का चयन उनका संयोजन, शब्दों के पारंपरिक अर्थों के साथ उनमें नये अर्थ भरने की सामथ्र्य ही उनकी व्यंग्य भाषा को विशिष्ट बनाती है। उदाहरण के लिये ‘पिछड़े होने का सुख व्यंग्य की ये पंक्तियाँ जो एक कहावत से प्रारंभ होती है –

‘‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम,

दास मलूका कह गये सबके दाता राम ।’’

‘‘इन खेलों से हमारी युवा पीढ़ी पिछड़ेपन का महत्व समझकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन कर सकेगी । दुनिया के विकसित देश हमसे प्रतिस्पर्धा करने की अपेक्षा अपने चेरिटी मिशन से हमें अनुदान देंगे। बिना उपजाये ही हमें विदेशी अन्न खाने को मिलेगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का हवाला देकर हम अन्य देशो के संसाधनों पर अपना अधिकार प्रदर्शित कर सकेंगे। दुनिया हमसे डरेगी। हम यू.एन.ओ.में सेन्टर आफ अट्रेक्शन होंगे।’’ वस्तुतः यह व्यंग्य हमारे देश में आज तक जारी आरक्षण व्यवस्था पर है। अपने व्यंग्यों के माध्यम से विवेक रंजन जी आज के बदलते परिवेश और उपभोक्तावादी युग में मनुष्य के स्वयं एक वस्तु या उत्पाद में तब्दील होते जाने को, इस हाइटेक जमाने की एक-एक रग की बखूबी पकड़ा है। उनके शब्दों में निहित व्यंजना और विसंगतियों के प्रति क्षोभ एक साथ जिस कलात्मक संयम से व्यंग्यों में ढलता है वही उनके व्यंग्य लेखों को विषिश्ट बनाता है। विवेक रंजन के पास विवेक है जिसका उपयोग वे किसी घटना, व्यक्ति या स्थिति को समझने में करते हैं, सच कहने का साहस है जिससे बिना डरे वे अपनी मुखर अभिव्यक्ति या असंगत के प्रति अपनी असहमति दर्ज कर सकते हैं, संत्रास बोध और तीव्र निरीक्षण शक्ति और संतुलित दृष्टि बोध है, परिहास और स्वयं को व्यंग्य के दायरे में लाकर स्वयं पर भी हँसने का माद्दा है। अनुभवों का ताप और संवेदना की तरलता के साथ सकारात्मक परिवर्तनकारी सोच तथा एक  धारदार भाषा है जो सीधे पाठक को संबोधित और संप्रेषित है।

निष्कर्शतः विवेक रंजन जी के व्यंग्य पाठक को सोचने के लिये  बाध्य करते है क्योंकि वे उपर से सहज दिखने वाली घटनाओं की तह में जाते हैं और भीतर छिपे हुए असली मकसद को पाठक के सामने लाने में सफल होते हैं। हाँ कुछ व्यंग्य लेखों में उतना पैनापन नहीं आ पाया है इस कारण वे हास्य लेख बन गये हैं। यद्यपि ऐसे व्यंग्य लेखों की संख्या कम ही है। उनके सफल व्यंग्यों में जीवन की जटिलता और परिवेशगत विसंगति अपनी संपूर्ण तीव्रता के साथ व्यक्त हुई। वे जितने कुशल सिविल इंजीनियर हैं उतने ही कुशल सोशियो इंजीनियर भी हैं। इसी सोशियो इंजीनियरी ने विवेक रंजन के व्यंग्यों को इतना सशक्त और धारदार बनाया है।वे अनवरत व्यंग्य लिख रहे हैं, अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर प्रायः उनकी उपस्थिति दर्ज हो रही है।  उनसे हिन्दी व्यंग्य को दीर्घकालिक आशायें हैं। .

 

डा. स्मृति शुक्ल

प्रध्यापिका , हिन्दी विभाग , मानकुंवर बाई शासकीय महिला महाविद्यालय जबलपुर

ए-16, पंचशील नगर, नर्मदा रोड, जबलपुर-482001

मो.नं. 9993416937

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ म प्र के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक व्यवस्था – पुनरावलोकन जरूरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  एवं “ पुस्तक  – चर्चा ”   में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है, लोकतंत्र  के सजग एवं निष्पक्ष विचारधारा के नागरिक एवं जागरूक लेखक के रूप में  श्री विवेक रंजन  जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय आलेख  “म प्र के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक व्यवस्था – पुनरावलोकन जरूरी ”।  श्री विवेक रंजन जी  को इस समसामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए बधाई। इस आलेख  के सन्दर्भ में मैं  डॉ राजकुमार तिवारी  ‘सुमित्र ‘ जी की निम्न पंक्तिया  उद्धृत करना चाहूंगा, जिसका गंभीरता से पालन किया गया है । 

सजग नागरिक की तरह, जाहिर हो अभिव्यक्ति । 

सर्वोपरि है देशहित, उससे बड़ा न व्यक्ति ।। 

☆ आलेख – म प्र के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक व्यवस्था – पुनरावलोकन जरूरी  ☆

[श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी को विभिन्न सामाजिक विषयों पर लेखन के लिए राष्ट्रीय स्तर के अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार श्री विवेक रंजन जी के व्यक्तिगत विचार हैं।] 

हर छोटा बड़ा नेता जब तब संविधान की दुहाई देता है पर क्या हम सचमुच संवैधानिक व्यवस्था का पालन कर रहे हैं ? शायद बिलकुल नही। चुनाव को लेकर ही देखें, संवैधानिक व्यवस्था तो यह है कि पहले स्थानीय स्तर पर योग्य प्रतिनिधि चुने जावें, फिर वे प्रतिनिधि अपने अपने दलो में अपना मुखिया चुने। जो सबसे बड़ा दल हो उसका मुखिया सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करे। इस संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन करते हुये हमने शार्टकट यह प्रचलन में ला दिया है कि चुने गये प्रतिनिधियो का नेता चुना ही नही जाता। वह हाईकमान की मर्जी से थोपा जाता है या स्वयं अपने कद के चलते स्थापित हो जाता है। स्थानीय स्तर पर चुनाव उम्मीदवार की योग्यता पर नही इसी पूर्व घोषित मुखिया के व्यक्तित्व के नाम पर जीते जाते हैं।उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान जनता को सीधे प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार ही नही देता। यह सीधे राष्ट्रपति चुनने वाली व्यवस्था अमेरिकन संविधान में है। इस शार्टकट के चलते स्थानीय जन प्रतिनिधि पार्टी के टिकिट पर संभावित बड़े नेता के नाम पर  चुन लिया जाता है। ऐसे वेव से चुने गये अयोग्य जन प्रतिनिधि बाद में या तो संसद में सोते हैं या कुछ काला पीला करने में लिप्त रहते हैं वे स्थानीय मुद्दो पर जन आकांक्षाओ को पूरा करने में असफल रहते हैं।रातो रात पार्टी बदलकर आये लोग या सेलिब्रिटीज क्षेत्र में जनता के बीच अपनी जन सेवा से नही पूर्व नियोजित बड़े व्यक्तित्व के नाम पर ही चुनाव लड़ते देखे जाते हैं।

पिछले अनेक खण्डित चुनाव परिणामो से वर्तमान संवैधानिक प्रावधानो में संशोधन की जरूरत लगती है।  सरकार बनाने के लिये बड़ी पार्टी के मुखिया को नही वरन चुने गये सारे प्रतिनिधियो के द्वारा उनमें आपस में चुने गये मुखिया को बुलाया जाना चाहिये। आखिर हर पार्टी के चुने गये प्रतिनिधि  भले ही उनके क्षेत्र  के वोटरों के बहुमत से चुने जाते हैं किन्तु हारे हुये प्रतिनिधि को भी तो जनता के ही वोट मिलते हैं, और इस तरह वोट प्रतिशत की दृष्टि से हर पार्टी की सरकार में भागीदारी लोक के सच्चे प्रतिनिधित्व हेतु उचित लगती है।एक देश एक सरकार की दृष्टि से भी इस तरह का प्रतिनिधित्व तर्कसंगत लगता है। वर्तमान स्थितियो में राज्यपाल के विवेक पर छोड़े गये निर्णय ही हर बार विवादास्पद बनते हैं, व रातो रात सुप्रीम कोर्ट खोलने पर मजबूर करते हैं। किसी भी स्वस्थ्य समाज में कोर्ट का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिये पर पिछले कुछ समय में जिस तरह से न्यायालयीन प्रकरण बढ़ रहे हैं वह इस तथ्य का द्योतक है कि कही न कही हमें बेहतर व्यवस्था की जरूरत है।

कोई भी सभ्य समाज नियमों से ही चल सकता है। जनहितकारी नियमों को बनाने और उनके परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए शासन की आवश्यकता होती है। राजतंत्र, तानाशाही, धार्मिक सत्ता या लोकतंत्र, नामांकित जनप्रतिनिधियों जैसी विभिन्न शासन प्रणालियों में लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि लोकतंत्र में आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है एवं उसे भी जन नेतृत्व करने का अधिकार होता है। भारत में हमने लिखित संविधान अपनाया है। शासन तंत्र को विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के उपखंडो में विभाजित कर एक सुदृढ लोकतंत्र की परिकल्पना की है। विधायिका लोकहितकारी नियमों को कानून का रूप देती है। कार्यपालिका उसका अनुपालन कराती है एवं कानून उल्लंघन करने  पर न्यायपालिका द्वारा दंड का प्रावधान है।

विधायिका के जनप्रतिनिधियों का चुनाव आम नागरिको के सीधे मतदान के द्वारा किया जाता है किंतु हमारे देश में आजादी के बाद के अनुभव के आधार पर, मेरे मत में इस चुनाव के लिए पार्टीवाद तथा चुनावी जीत के बाद संसद एवं विधानसभाओं में पक्ष विपक्ष की राजनीति ही लोकतंत्र की सबसे बडी कमजोरी के रूप में सामने आई है।

सत्तापक्ष कितना भी अच्छा बजट बनाये या कोई अच्छे से अच्छा जनहितकारी कानून बनाये विपक्ष उसका पुरजोर विरोध करता ही है। उसे जनविरोधी निरूपित करने के लिए तर्क कुतर्क करने में जरा भी पीछे नहीं रहता। ऐसा केवल इसलिए हो रहा है क्योंकि वह विपक्ष में है। हमने देखा है कि वही विपक्षी दल जो विरोधी पार्टी के रूप में जिन बातो का सार्वजनिक विरोध करते नहीं थकता था, जब सत्ता में आया तो उन्होनें भी वही सब किया और इस बार पूर्व के सत्ताधारी दलो ने उन्हीं तथ्यों का पुरजोर विरोध किया जिनके  वे खुले समर्थन में थे। इसके लिये लच्छेदार शब्दो का मायाजाल फैलाया जाता है। ऐसा लोकतंत्र के नाम पर  बार-बार लगातार हो रहा है। अर्थात हमारे लोकतंत्र में यह धारणा बन चुकी है कि विपक्षी दल को सत्ता पक्ष का विरोध करना ही चाहिये। शायद इसके लिये स्कूलो से ही, वादविवाद प्रतियोगिता की जो अवधारणा बच्चो के मन में अधिरोपित की जाती है वही जिम्मेदार हो। वास्तविकता यह होती है कि कोई भी सत्तारूढ दल सब कुछ सही या सब कुछ गलत नहीं करता । सच्चा  लोकतंत्र तो यह होता कि मुद्दे के आधार पर पार्टी निरपेक्ष वोटिंग होती, विषय की गुणवत्ता के आधार पर बहुमत से निर्णय लिया जाता, पर ऐसा हो नही रहा है।

हमने देखा है कि अनेक राष्ट्रीय समस्या के मौको पर  किसी पार्टी या किसी लोकतांत्रिक संस्था के निर्वाचित जनप्रतिनिधी न होते हुये भी अन्ना या बाबा रामदेव जैसे तटस्थ जनो को जनहित एवं राष्ट्रहित के मुद्दो पर अनशन तथा भूख हडताल जैसे आंदोलन में व्यापक जन समर्थन मिला। समूचा शासनतंत्र तथा गुप्तचर संस्थायें इनके आंदोलनों को असफल बनाने में सक्रिय रही। यह लोकतंत्र की बडी विफलता है। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव को  उनके आंदोलनो में देश व्यापी जनसमर्थन मिला मतलब जनता भी यही चाहती थी  । मेरा मानना  यह है कि आदर्श लोकतंत्र तो यह होता कि मेरे जैसा कोई साधारण एक व्यक्ति भी यदि देशहित का एक सुविचार रखता तो उसे सत्ता एवं विपक्ष का खुला समर्थन मिल सकता।आखिर ग्राम सभा स्तर पर जो खुली प्रणाली हम विकास के लिये अपना रहे हैं उसे राष्ट्रीय स्तर पर क्यो नही अपनाया जा सकता। आम नागरिको में वोटिंग के प्रति हतोत्साही भावना का एक बड़ा कारण यह ही है कि वर्तमान व्यवस्था में उसकी सच्ची भागीदारी सरकार में है ही नही। इसीलिये लोग वोट की कीमत भी लगाने लगे हैं। नेताओ पर फब्तियां कसी जाती हैं कि वे जीतने के बाद  पांच सालो बाद ही दिखेंगे। न तो जनता को जन प्रतिनिधियो को वापस बुलाने का अधिकार है।

चुनावी घोषणाओ पर कोई किसी का कई नियंत्रण ही नही है। बजट में तो छोटी बड़ी हर घोषणा पर जन प्रतिनिधि बहस करके निर्णय करते हैं पर जनता के टैक्स के अनमोल खजाने को घोषणा पत्रो में ऐरा गैरा कोई भी नेता यूं ही लुटा देने की बड़ी बड़ी उल जलूल घोषणा करके वोट बटोरने को स्वतंत्र है। टैक्स पेयर का अपने दिये हुये रुपये पर कोई नियंत्रण नही है।टैक्स पेयर की भरपूर उपेक्षा सारी व्यवस्था में है। कहने को तो संविधान धर्म निरपेक्षता का वादा करता है पर सरे आम चुनाव धर्म और जाति के आधार पर लड़े जा रहे हैं, वोट की अपीलें जातिगत हो रही हैं, फतवे जारी हो रहे हैं और संविधान बेबस है।

आरक्षण जैसे संवेदन शील तथा आम नागरिको के आधारभूत विकास से जुड़े मुद्दो पर तक संविधान को ठेंगा दिखाकर  वोट के लिये सरकारो को निर्णय लेते, पार्टियो को आंदोलन करते हम देख रहे हैं।

इन अनुभवो से यह स्पष्ट होता है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में सुधार की व्यापक संभावना है।  दलगत राजनैतिक धु्व्रीकरण एवं पक्ष विपक्ष से ऊपर उठकर मुद्दों पर आम सहमति या बहुमत पर आधारित निर्णय ही विधायिका के निर्णय हो, ऐसी सत्ताप्रणाली के विकास की जरूरत है। इसके लिए जनशिक्षा को बढावा देना तथा आम आदमी की राजनैतिक उदासीनता को तोडने की आवश्यकता दिखती है। जब ऐसी व्यवस्था लागू होगी तब किसी मुद्दे पर कोई 51 प्रतिशत या अधिक जनप्रतिनिधि एक साथ होगें तथा किसी अन्य मुद्दे पर कोई अन्य दूसरे 51 प्रतिशत से ज्यादा जनप्रतिनिधि, जिनमें से कुछ पिछले मुद्दे पर भले ही विरोधी रहे हो साथ होगें तथा दोनों ही मुद्दे बहुमत के कारण प्रभावी रूप से कानून बनेगें.

क्या हम निहित स्वार्थो से उपर उठकर ऐसी आदर्श व्यवस्था की दिशा में बढ सकते है एवं संविधान में इस तरह के संशोधन कर सकते है. यह खुली बहस का एवं व्यापक जनचर्चा का विषय है जिस पर अखबारो, स्कूल, कालेज, बार एसोसियेशन, व्यापारिक संघ, महिला मोर्चे, मजदूर संगठन आदि विभिन्न विभिन्न मंचो पर खुलकर बाते होने की जरूरत हैं, जिससे इस तरह के जनमत के परिणामो पर पुनर्चुनाव की अपेक्षा मुद्दो पर आधारित रचनात्मक सरकारें बन सकें जिनमें दलो की तोड़ फोड़, दल बदल या निर्दलीय जन प्रतिनिधियो की कथित खरीद फरोख्त घोड़ो की तरह न हो बल्कि वे मुद्दो पर अपनी सहमति के आधार पर सरकार का सकारात्मक हिस्सा बन सकें।गठबंधन का गणित  दलगत नही मुद्दो परआधारित हो।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 35 – मानव शरीर ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “मानव शरीर। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 35 ☆

☆ मानव शरीर

चक्र मूल रूप से एक से अधिक नाड़ियों के संयोजन या मिलन स्थल होते हैं । नाड़ियाँ सूचना या भौतिक प्रवाह के माध्यम हैं जो शरीर के विभिन्न भागों से बहती हैं । प्रत्येक चक्र एक विशेष दर और वेग पर कपंन करता है । ऊर्जा परिपथ (सर्किट) के निम्नतम बिंदु पर चक्र कम आवृत्ति पर कार्य करते हैं । निम्नतम बिंदु पर उनका तत्व स्थूल होता हैं और वह स्थूल जागरूकता की स्थिति बनाते हैं । ऊर्जा परिपथ के शीर्ष के चक्र उच्च आवृत्ति पर कार्य करते हैं, जैसे जैसे शरीर में नीचे से ऊपर की ओर बढ़ते है चक्रों की आवृति बढ़ती जाती है और जागरूकता उच्च बुद्धिमत्ता की ओर बढ़ती जाती है ।

पहले चक्र को आधार या ‘मूलाधार चक्र’ कहा जाता है । मूल का अर्थ है ‘जड़’ या ‘मुख्य’ और आधार का अर्थ ‘नींव’ है, इसलिए ‘मूलाधार चक्र’ अन्य चक्रों और पूरे प्राणिक शरीर के लिए आधार के रूप में कार्य करता है ।

आत्मा के बाहर शरीर के पाँच आवरण होते हैं और वे बाहर से अंदर की ओर अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश हैं । सभी चक्र ‘प्राणमय कोश’ के अधीन आते हैं क्योंकि ‘प्राणमय कोश’ शरीर के अंदर के सभी प्राणों के सभी कार्यों के लिए मंच का कार्य करता है जो कि ऊर्जा कि मूल इकाई है और सभी चक्र भी इस ऊर्जा के भंडार गृह का ही कार्य करते हैं । यदि आप विभिन्न कोशों के नाम देखते हैं तो वे अन्नमय कोश, प्राणमय कोश आदि हैं कोश का अर्थ है शरीर या आश्रय (आत्मा का) ।

अन्नमय दो शब्दों का संयोजन है, अन्न का अर्थ है शरीर और मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ और ‘मय’ या ‘माया’ का बहुत गहरा अर्थ है कि यह शरीर हमारी एक ‘झूठी’ या नकली पहचान है जो एक दिन समाप्त हो जानी है । तो अन्नमय कोश का अर्थ है एक ‘शरीर’, या बाहरी निकाय से निर्मित शरीर जो आकश-समय परिसर में दिखाई देता है या जिस शरीर को अन्य अनुभव कर सकते हैं या देख सकते हैं । तो अन्नमय कोश का अर्थ है अन्न (भोजन) से बना आश्रय, जो एक दिन नष्ट हो जाता है । प्राणमय कोश जैसे अन्य चार निकायों का भी लगभग समान अर्थ जैसे प्राणमय कोश के लिए एक दिन प्राण से बना शरीर नष्ट हो जाएगा इत्यादि अन्य कोशों के लिए । अंत में ‘आनंदमय कोश’ का अर्थ है कि एक दिन आनंद या खुशी का आश्रय समाप्त हो जाएगा और इस तरह जब ये सभी पाँचों आश्रय नष्ट हो जाएंगे, तब केवल शुद्ध आत्मा ही रहेगी और उसी को मोक्ष या निर्वाण या अनंत का ज्ञान कहा जाता है ।

विभिन्न प्रकार के कोशों ने हमारी आत्मा को पाँच अवास्तविक सीमाओं से ढक रखा है । एक-एक करके, जब हमारे विभिन्न कोशों से संबंधित कर्म जलते जाते हैं या हमारे कर्मों का असर ख़त्म हो जाता हैं, तो सभी कोश अदृश्य हो जाते हैं और केवल आत्मा बचती है जो ईश्वर में विलीन हो जाती है ।

हमारे शरीर में कई छोटी छोटी नाड़ियाँ होती हैं जो वाहक के रूप में कार्यकरती हैं और हमारे शरीर में सूचना को एक बिंदु से दूसरे बिंदुतक ले जाने का कार्य करती हैं । ये हमारे शरीर के अंदर विद्युत चुम्बकीय संकेतो के रूप में कार्य करते हैं । पुराने ऋषि हमारे शरीर के अंदर 72,000 नाड़ियों का उल्लेख करते हैं ताकि सूचनात्मक प्रवाह सक्रिय रह सके ।

नाड़िया हमारे शरीर की हर कोशिकाओं, और भागों को अपने विशालजाल-तंत्र के माध्यम से ऊर्जा प्रदान करती हैं और विभिन्न प्रकार के प्राणों को आगे और पीछे की दिशा में ले जाती हैं । शरीर के भीतर कुछ महत्वपूर्ण नाड़िया हैं, जिनमें तीन और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं । पहली को ईड़ा या गंगा या चंद्रमा या चुंबकीय नाड़ी कहा जाता है, दूसरी को पिंगला या यमुना या विद्युतीय नाड़ी कहा जाता है, और तीसरी सबसे महत्वपूर्ण है, जो सुषुम्ना या सरस्वती या अग्नि नाड़ी है ।

ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वाह करती है । शिव स्वरोदय ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है । इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है । इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है – जो मेरुदण्ड में सबसे नीचे स्थित है । स्वरयोग के अनुसार जब श्वास का प्रवाह बाईँ नसिका-रंध्र में होता है तो वह मानसिक कार्यों के हेतु मनस शक्ति प्रदान करती है । इससे माँशपेशियों में शिथिलता आती है और शरीर का तापमान कम होता है । यह इस बात का भी संकेत है कि इस अवधि में मन अन्तर्मुखी तथा सृजनात्मक होता है । ऐसी स्थिति में मनुष्य को थकाने वाले और परिश्रम के कार्य को टालना चाहिए ।

शरीर के दाये भाग में पिंगला नाड़ी होती है । इससे शरीर में प्राण शक्ति का वहन होता है जिसके फलस्वरूप शरीर में ताप बढ़ता है । इससे शरीर को श्रम, तनाव और थकावट सहने की क्षमता प्राप्त होती है। यह मनुष्य को बहिर्मुखी बनाती है । पिंगला नाड़ी में सूर्य का निवास रहता है । जिस समय पिंगला नाड़ी कार्य करती है उस समय साँस दाहिने नथने से निकलती है । प्रणतोषिणी में बहुत से कार्य गिनाए गए हैं जो यदि पिंगला नाड़ी के कार्यकाल में किए जायँ तो शुभ फल देते हैं—जैसे, कठिन विषयों का पठनपाठन, स्त्रीप्रसंग, नाव पर चढ़ना, सुरापान, शत्रु के नगर ढाना, पशु, बेचना, जुई खेलना, इत्यादि ।

सुषुम्ना नाड़ी वह नाड़ी है जो नाड़ी का जिस स्थान पर मिलन होता है, उसी स्थान से निकल कर आज्ञा-चक्र से होते हुए मूलाधार स्थित मूल में लिपटी हुई कुण्डलिनी-शक्ति (Serpent Fire) रूप सर्पिणी के मस्तक पर जाकर लटक जाती है तत्पश्चात् यह नाड़ी कुण्डलिनी-शक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपूरक-चक्र, अनाहत्-चक्र एवं विशुद्ध-चक्र होते हुए आज्ञा-चक्र में पहुँचकर ‘सः’ रूप आत्मा के स्थान पर खुली हुई पड़ी रहती है । दूसरे शब्दों में सुषुम्ना नाड़ी वह नाड़ी है जो आत्मा (सः) रूप चेतन शक्ति को जीव रूप अहम रूप में परिवर्तन हेतु कुण्डलिनी-शक्ति रूप आत्मा से एक-दूसरे को मिलने का मार्ग प्रशस्त करते हुए दोनों को जोड़ती है । सुषुम्ना नाड़ी की सांसारिक कोई उपयोगिता नहीं होती परन्तु (शिव और शक्ति से मिलने अर्थात) इसके बिना योग की कोई क्रिया नहीं की जा सकती ।

ग्रहस्थ वर्ग के लिए ईड़ा नाड़ी और पिंगला नाड़ी नियत है परन्तु योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा आदि के लिए सुषुम्ना नाड़ी ही नियत की गयी है । ईड़ा और पिंगला नाड़ी सुख, प्रसन्नता आदि के लिए हैं तो सुषुम्ना नाड़ी आनन्द और शान्ति के लिए नियत की गई है । ईड़ा और पिंगलानाड़ी सांसारिक सुखोपलब्धि कराने वाली होती हैं तो सुषुम्ना नाड़ी ब्रम्हानन्दोपलब्धि कराने वाली होती है । सुषुम्ना नाड़ी आत्मिक अथवा शाक्तिक कार्यों में जितनी ही सुगमता पूर्वक सफलता उपलब्ध कराती है, सांसारिक कार्यों में उतनी ही दुरूहता और विध्न उत्पन्न करती है । सांसारिक लाभ किसी भी रूप में इससे हासिल नहीं हो सकता है ।

प्रत्येक चक्र एक से अधिक नाड़ियों का मिलन स्थल होता है जैसे मूलाधार चक्र में चार नाड़ियों का मिलन होता हैं । ऋषियों ने इन नाड़ियों को कमल की पंखुड़ियों के रूप में बताया है । तो मूलाधार चक्र में चार कमल पंखुड़िया होती हैं ।

यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि एक चक्र ऐसी नाड़ियों का मिलान स्थल होता है जो लगभग एक ही प्रकार के संकेतों को स्थानांतरित करता है । उदाहरण के लिए मूलाधार चक्र की ओर आने वाली और वहाँ से शरीर के अन्य भागों की ओर जाने वाली नाड़ियों में एक ही तरह की चेतना से युक्त संकेत होते हैं अर्थात पृथ्वी तत्व से संबंधित विभिन्न प्रकार की संवेदनाएं । इसी प्रकार दूसरे चक्र या स्वाधिष्ठान चक्र की छः नाड़ियों में जल तत्व से संबंधित संवेदनाएं होती है जो की मूलाधार चक्र के तत्व पृत्वी की संवेदनाओं की तुलना में पूर्णतया पृथक होती है । जैसा कि आप जानते हैं, प्रत्येक चक्र एक तत्व से संबंधित है । आज्ञा चक्र के बाद प्राण और चेतना के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता है और केवल ब्रह्माण्डीय जागरूकता ही शेष रहती है ।

मूलाधार चक्र और इसके तत्व पृथ्वी को लो । पृथ्वी तत्व में प्राण के कंपन शून्य या सबसे कम होते हैं । यह वास्तव में पदार्थ की ‘जड़ता’ की अवस्था है या आप इसे प्रकृति के ‘तामस’ गुण के रूप में बेहतर ढंग से समझ सकते हैं । जैसे जैसे हम पहले से दूसरे से तीसरे चक्र तक जाते हैं इसी तरह, संबंधित तत्वों में प्राण के कंपन बढ़ते रहते हैं और आज्ञाचक्र में अधिकतम संभव हो जाते हैं । क्योंकि अंजना या आज्ञा चक्र में, प्राण के कंपन अधिकतम संभव होते हैं, इसलिए आप ब्रह्मांड के किसी भी कोनों से अधिकतम संभव दूरी से जानकारी को प्राप्त कर सकते हैं इसे ही दिव्य दृष्टि या अतिन्द्रिय दृष्टि (clairvoyance) कहा जाता है । अर्थात अगर हम अंजना चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो अंतर्ज्ञान संभव है ।

‘अनाहत चक्र’ जो की शरीर के सात चक्रों में मध्य का होता है, का तत्व वायु है और इस अनाहत चक्र में प्राण के कंपन नीचे के तीनों चक्रों से ज्यादा होते हैं, लेकिन अंजना और ‘सहस्रार चक्र’ से कम होते हैं, और यहाँ तत्व गतिशील रूप में या प्रकृति के ‘राजस’ गुण में होता है । इसी तरह से सातवें चक्र ‘सहस्रार’ की बात करें तो वहाँ पर प्राण के कंपन अनंत हो जाते हैं इसलिए यहाँ कोई फर्क नहीं पड़ता है की तत्व की अवस्था द्रव्य है या ऊर्जा, यहाँ केवल चमकदार चेतना का वास होता है । प्राण मूलाधार चक्र में उत्पन्न होता है, मणिपुर में संग्रहित, विशुद्धी में शुद्ध और अंजना से शरीर के विभिन्न भागों को वितरित किया जाता है । यहाँ मूलाधार चक्र में प्राण उत्पन्न होने का तात्पर्य है कि मूलाधार चक्र में प्राण उस रूप में आ जाता जैसे कि शरीर को आवश्यक होता है जैसे कि मैं पहले भीप्राणोंऔर उप-प्राणों के विषय में समझा चूका हूँ ।

मैं इसे आपको और विस्तार से समझाऊंगा । पदार्थ ऊर्जा की एक अभिव्यक्ति है । हम इसे प्रसिद्ध समीकरण ऊर्जा = द्रव्यमान x प्रकाश की गति का वर्ग या ‘सांख्य दर्शन’ से हम कह सकते हैं कि राजस  = तामस x प्रकाश की गति का वर्ग । इसी तरह ऊर्जा भी चेतना की एक अभिव्यक्ति है । हम उपरोक्त समान समीकरण बना सकते हैं और कह सकते हैं, चेतना = ऊर्जा x M, जहाँ M गुणांक है, जो विचारों की गति को दर्शाता है (मन की गति) ।

पूरे अभिव्यक्ति के लिए हम दोनों समीकरणों का गठबंधन कर सकते हैं अर्थात चेतना = ऊर्जा x M + द्रव्यमान x प्रकाश की गति लेकिन मन की गति M>>>>>प्रकाश की गति ।

तांत्रिक इस चेतना को शिव और ऊर्जा को शक्ति कहते हैं । संख्या दर्शन में, इस चेतना को ‘पुरुष’ कहा जाता है और ऊर्जा को ‘प्रकृति’ कहा जाता है और वेदांत के अनुसार, इसी चेतना को ‘ब्रह्म’ कहा जाता है और ऊर्जा को ‘माया’ कहा जाता है । तो हम कह सकते हैं कि चेतना, M के साथ सीधे आनुपातिक है, जो विचारों की गति है । क्या आप मन की गति के विषय में जानते हैं? यह आँखों की झपकी के भीतर ब्रह्मांड में कहीं भी यात्रा कर सकता है । हिंदू इतिहास में रथों के कई ऐसे उदाहरण हैं, जो विचारों की गति से उड़ सकते थे । यहाँ तक ​​कि जब भगवान राम ने रावण को हराकर उसका वध कर दिया, और लंका से अयोध्या जाने के लिए तैयार थे, तब मैंने उन्हें पुष्पक विमान से अयोध्या जाने का अनुरोध किया, जो मन की गति से कहीं भी यात्रा कर सकता था । अब यह उपरोक्त स्पष्टीकरण से बहुत स्पष्ट है कि मन की गति सीधे चेतना पर निर्भर करती है। उस स्थिति में, पुष्पक विमान की गति उस व्यक्ति की चेतना पर निर्भर करती है जो उसे उड़ा रहा हो ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 38 ☆ खामोश रिश्ते ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक अतिसुंदर, विचारणीय  एवं सार्थक आलेख   “खामोश रिश्ते”.  डॉ मुक्ता जी का यह आलेख हमें  हम से ही रूबरू  कराता  है  एवं विवश करता है यह विचार करने के लिए कि – हम और हमारे सम्बन्ध या रिश्ते कितने स्वार्थी हैं और कितने निःस्वार्थी ।  इस  प्रेरणादायक आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 38 ☆

☆ खामोश रिश्ते 

‘मतलब के बग़ैर बने संबंधों का फल हमेशा मीठा होता है’… यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु है कहां आजकल ऐसे संबंध? आजकल तो सब संबंध स्वार्थ के हैं। कोई संबंध भी पावन नहीं रहा। सो! उनकी तो परिभाषा ही बदल गई है। ‘पहाड़ियों की तरह खामोश हैं/ आज के संबंध और रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ यह बयान करते हैं दर्द के संबंधों और संबंधों की हक़ीक़त। रिश्ते खामोश हैं, पहाड़ियों की तरह और उनकी अहमियत तब उजागर होती है, जब आप उन्हें पुकारते हैं, अर्थात् आपके शब्दों की गूंज लौट आती है। आपके पहल करने पर ही उत्तर प्राप्त होता है, वरना तो अंतहीन मौन व गहन सन्नाटा ही छाया रहता है। इसका मुख्य कारण है– संसार का ग्लोबल विलेज के रूप में सिमट जाना, जहां इंसान प्रतिस्पर्द्धा के कारण एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। अधिकाधिक धन कमाना उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। यह आत्मकेंद्रितता के रूप में जीवन में दस्तक देता है और अपने पांव पसार कर बैठ जाता है, जैसे यह उसका आशियां हो। वैसे भी मानव सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है, क्योंकि उसके स्वार्थ दूसरों से टकराते हैं। वह सब संबंधों को नकार केवल ‘मैं ‘अर्थात् अपने ‘अहं’ का पोषण करता है; उसकी ‘मैं’ उसे सब से दूर ले जाती है। उस स्थिति में सब उसे पराये नज़र आते हैं और स्व-पर व राग-द्वेष के व्यूह में फंसा में आदमी बाहर  निकल ही नहीं सकता। उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता और स्वार्थ-लिप्तता के कारण वह उनसे मुक्ति भी नहीं प्राप्त कर सकता।

आधुनिक युग में कोई भी संबंध पावन नहीं रहा; सबको ग्रहण लग गया है। खून के संबंधों को तो वह परमात्मा अथवा सृष्टि-नियंता बना कर भेजता है, इन्हें स्वीकारना मानव की विवशता होती है। दूसरे स्वनिर्मित संबंध, जिसे आप स्वयं स्थापित करते हैं। अक्सर यह स्वार्थ पर टिके होते हैं और लोग आवश्यकता के समय इनका उपयोग करते हैं। आजकल लोग ‘यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास करते हैं, जो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। समाज में इसका प्राधान्य है। इसलिए जब तक ज़रूरी है, उसे महत्व दीजिए; इस्तेमाल कीजिए, उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति बाहर फेंक दीजिए…जिसका प्रमाण  हम गिरते जीवन-मूल्यों के रूप में देख रहे हैं। आजकल बहन, बेटी, माता-पिता का रिश्ता भी पावन नहीं रहा। इनके स्थान पर एक ही रिश्ता काबिज़ है औरत का…चाहे दो महीने की बालिका हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा, उन्हें मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है, जिसका प्रमाण हमें दिन-प्रतिदिन बढ़ते दुष्कर्म के हादसों के रूप में दिखाई देता है। परंतु आजकल तो मानव बहुत बुद्धिमान हो गया है। वह  दुष्कर्म करने के पश्चात् सबूत मिटाने के लिए, उनकी हत्या करने के लिए विविध  ढंग अपनाने लगा है। वह कभी तेज़ाब डालकर उसे ज़िंदा जला डालता है, तो कभी पत्थर से रौंद, उसकी पहचान मिटा देता है और कभी गंदे नाले में  फेंक… निज़ात पाने का हर संभव प्रयास करता है।

आजकल तो सिरफिरे लोग गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, बहन-भाई, सब सीमाओं को ताक पर रख, हमारी भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वे मासूम बालिकाओं को अपनी धरोहर समझते हैं, जिनकी अस्मत से खिलवाड़ करना, वे अपना हक़ समझते हैं। इसलिए हर दिन ऐसी प्रताड़ना व यातना को झेलना पड़ता है औरत को… वह अपनों की हवस का शिकार बनती है। चाचा, मामा, मौसा, फूफा या मुंह बोले भाई आदि द्वारा की गयी दुष्कर्म की घटनाओं को दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है, क्योंकि इससे उनकी इज़्ज़त पर आंच आती है। सो! बेटी को चुप रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है, क्योंकि इसके लिए अपराधी उसे ही स्वीकारा जाता है, न कि उन रिश्तों के क़ातिलों को… वैसे भी अस्मत तो केवल औरत की होती है, पुरूष तो जहां भी चाहे, मुंह मार सकता है… उसे कहीं भी अपनी क्षुधा शांत करने का अधिकार प्राप्त है।

आजकल तो पोर्न फिल्मों का प्रभाव पुरूषों अर्थात् युवा से वृद्धों पर इस क़दर हावी रहता है कि वे अपनी भावनाओं पर अंकुश लगा ही नहीं पाते और जो भी बालिका, युवती अथवा वृद्धा उन्हें नज़र आती है, वे उसी पर झपट पड़ते हैं। चंद दिनों पहले दुष्कर्मियों ने इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहा था कि यह पोर्न-साइट्स उन्हें वासना में इस क़दर अंधा बना देती हैं कि वे अपनी जन्मदात्री माता की इज़्ज़त पर भी डाका डाल बैठते हैं। इसका मुख्य कारण है… माता-पिता व गुरुजनों का बच्चों को  सुसंस्कारित न करना; उनकी गलत हरकतों पर  बचपन से अंकुश न लगाना, उन्हें प्यार-दुलार व सान्निध्य देने के स्थान पर सुविधाएं प्रदान कर, उनके जीवन के एकाकीपन व शून्यता को भरने का प्रयास करना… जिसका प्रमाण मीडिया से जुड़ाव, नशे की आदतों में लिप्तता व एकांत की त्रासदी को झेलते हुए, मनमाने हादसों को अंजाम देने के रूप में परिलक्षित है। वे इस दलदल में इस प्रकार धंस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाते।

आधुनिक युग में संबंध-सरोकार तो रहे नहीं, रिश्तों की गर्माहट भी समाप्त हो चुकी है। संवेदनाएं मर चुकी हैं। प्रेम, सौहार्द, त्याग,सहानुभूति आदि भाव इस प्रकार. नदारद हैं, जैसे चील के घोंसले से मांस। सो! इंसान किस पर विश्वास करे? इसमें भरपूर योगदान दे रही हैं महिलाएं, जो पति के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं।वे शराब के नशे में धुत्त, सिगरेट के क़श लगा, ज़िंदगी को धुंए में उड़ाती, क्लबों में जुआ खेलती, रेव पार्टियों में प्रसन्नता से सहभागिता प्रदान करती दिखाई पड़ती हैं। घर परिवार व अपने बच्चों की उन्हें तनिक भी फिक्र नहीं होती और बुज़ुर्गों को तो वे अपने साये से भी दूर रखती हैं। शायद!वे इस तथ्य से बेखबर रहते हैं कि एक दिन उन्हें भी उसी अप्रत्याशित स्थिति से गुज़रना पड़ेगा, एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा और उनका दु:ख इससे भी भयंकर होगा। आजकल तो विवाह संस्था को युवा पीढ़ी पहले ही नकार चुकी है। वे उसे बंधन स्वीकारते हैं। इसलिए ‘लिव-इन’  व विवाहेतर संबंध सुरसा के मुख की भांति तेज़ी से अपने पांव पसार रहे हैं। सिंगल पैरेंट का प्रचलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। आजकल तो महिलाओं ने विवाह को पैसा ऐंठने का धंधा बना लिया है, जिसके परिणाम-स्वरूप लड़के विवाह-बंधन में बंधने से क़तराने लगे हैं। वहीं उनके माता-पिता भी उनके विवाह से पूर्व, अपने आत्मजों से किनारा करने लगे हैं, क्योंकि वे उन महिलाओं की कारस्तानियों से वाकिफ़ होते हैं, जो उस घर में कदम रखते, उसे नरक बना कर रख देती हैं। पैसा ऐंठना, परिवार जनों पर झूठे इल्ज़ाम लगा उन्हें जेल की सीखचों के पीछे भेजना उनके जीवन का मक़सद बन जाता है।

हैरत की बात तो यह है कि बच्चे भी कहां अपने माता-पिता को सम्मान देते हैं? वे तो यही कहते हैं, ‘तुमने हमारा पालन-पोषण करके हम पर एहसान नहीं किया है; जन्म दिया है… तो हमारे लिए सुख-सुविधाएं जुटाना आपका प्राथमिक दायित्व था। हम भी तो अपनी संतान के लिए वही सब कर रहे हैं इस स्थिति में अक्सर माता-पिता को न चाहते हुए भी, वृद्धाश्रम की ओर रुख करना पड़ता है। यदि वे तरस खाकर उन्हें अपने साथ रख भी लेते हैं, तो उनके हिस्से में स्टोर-रूम आता है, जहां अनुपयोगी वस्तुओं को, कचरा समझ कर रखा जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें तो अपने पौत्र-पौत्रियों से बात तक भी नहीं करने दी जाती,क्योंकि उन्हें आधुनिक सभ्यता व उनके कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ समझा जाता है। उन्हें तो ‘हेलो-हाय’,मॉम-डैड की आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति पसंद होती है। सो! मम्मी तो पहले से ही ममी है, और डैड भी डैड है…जिनका अर्थ मृत्त होता है। सो! वे कैसे अपने बच्चों को अच्छे संस्कारों से पल्लवित कर सकते हैं, जबकि वे तो माता-पिता के रूप में उनकी अहमियत स्वीकारने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं, अपनी तौहीन समझते हैं।

आइए! आत्मावलोकन करें, क्या स्थिति है, मानव की आधुनिक युग में, जहां ज़िंदगी ऊन के गोलों की भांति उलझी हुई प्रतीत होती है। मानव विवश है; आंख बंद कर जीने को…और होम कर देता है, वह अपनी समस्त खुशियां, परिवार के लिए… करता है सर्वस्व समर्पण। वास्तव में हर इंसान मंथरा है…  ‘मंथरा! मन स्थिर नहीं जिसका/ विकल हर पल/ प्रतीक कुंठित मानव का।’ चलिए ग़ौर करते हैं, नारी की स्थिति पर ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है, पति के हाथों का।’  और द्रौपदी/ पांच पतियों की पत्नी/ सम-विभाजित पांडवों में / मां के कथन पर/ स्वीकारना पड़ा आदेश/ …..और नारी के भाग्य में/ लिखा है/ सहना और कुछ न कहना’…इससे स्पष्ट होता है कि नारी को हर युग में पति का अनुगमन करने व चुप रहने का संदेश दिया गया है, अपना पक्ष रखने का नहीं। जहां तक नारी अस्मिता का प्रश्न है, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। चलिए विचार करते हैं, आज के इंसान पर… ‘आज का हर इंसान/ किसी न किसी रूप में  रावण है/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य में/ … शायद ठंडी हो चुकी है अग्नि/ जो नहीं जला सकती/ इक्कीसवीं सदी के रावण को।’ यह पंक्तियां स्पष्ट करती हैं– आज की भयावह परिस्थितियों का…  जहां संबंध इस क़दर दरक चुके हैं कि चारों ओर पसरे…’परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है… शैतान/ वे हैं नर-पिशाच।’ जिसके कारण जन्मदाता बन जाता है/ वासना का उपासक/ और राखी का रक्षक/ बन जाता है भक्षक/ या उसका जीवन साथी ही/ कर डालता है सौदा/ उसकी अस्मत का/ जीवन का।’ रावण कविता की अंतिम पंक्तियां समसामयिक समस्या की ओर इंगित करती हैं… ‘शायद ठंडी हो चुकी है अग्नि/ जो नहीं जला सकती इक्कीसवीं  सदी के/ रावण को।’ हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष भी   अधिकाधिक धन-संपत्ति पाने और जीने का हक़ मिटाने में भी संकोच नहीं करते। कहां है उनकी आस्था… नारायण अथवा सृष्टि-नियंता में…आधुनिक युग में तो सारा संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। यह सब पंक्तियां 2007 में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह अस्मिता की हैं, जो आज भी समसामयिक हैं।

विश्रृंखलता के इस दौर में संबंध दरक़ रहे हैं, अविश्वास का वातावरण है…जहां भावनाओं व संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं। सो! मानव के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है? इंसान कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संपदा ही नहीं कमाना चाहता है…और प्रसिद्धि पाने के लिए वह ज़ुल्म करने व जीने का हक़ मिटाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता।

‘हमारी बात सुनने की/ फ़ुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ इरफ़ान राही सैदपुरी की ये पंक्तियां कारपोरेट जगत् के बाशिंदों अथवा बंधुआ मज़दूरों की हकीक़त को बयान करती है। वैसे भी इंसान व्यस्त हो या न हो, परंतु अपनी व्यस्तता के ढोल पीट, शेखी बघारता है…जैसे उसे दूसरों की बात सुनने की फ़ुर्सत ही नहीं है। सो! चिन्तन-मनन करने का प्रश्न कहां उठता है? ‘बहुत आसान है /ज़मीन पर मकान बना लेना/ परंतु दिल में जगह बनाने में /ज़िंदगी गुज़र जाती है’ यह कथन कोटिश: सत्य है। सच्चा मित्र बनाने के लिए मानव को जहां स्नेह-सौहार्द लुटाना पड़ता है, वहीं अपनी खुशियों को भी होम करना पड़ता है।सुख-सुविधाओं को दरक़िनार करने व दूसरों पर खुशियां उंडेलने से ही सच्चा मित्र अथवा सुख-दु:ख का साथी प्राप्त हो सकता है। वैसे तो ज़माने के लोग अजब-ग़ज़ब हैं. उपयोगितावाद में विश्वास रखते हैं और बिना मतलब के तो कोई ‘हेलो हाय’ करना भी पसंद नहीं करता। इंसान को नहीं, उसकी पद-प्रतिष्ठा को सलाम करते हैं; एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं।वाट्सएप, ट्विटर व फेसबुक से दुआ-सलाम करना आजका फैशन हो गया है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद, अहं में लीन, सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर…हां! सब प्रतीक्षा करते हैं, एक-दूसरे की…वार्तालाप करने की पहल कौन करे…उनके मनो-मस्तिष्क में यह सब घूमता रहता है।

काश! हम अपने निजी स्वार्थों, स्व-पर व राग-द्वेष के बंधनों से, पहले आप…पहले आप की औपचारिकता से स्वयं को मुक्त कर सकते… तो यह जहान कितना सुंदर, सुहाना व मनोहारी प्रतीत होता और वहां केवल प्रेम, समर्पण व त्याग का साम्राज्य होता। हमारे इर्द-गिर्द खामोशियों की चादर न लिपटी रहतीऔर हमें मौन रूपी सन्नाटे का दंश नहीं झेलना पड़ता। रिश्ते पहाड़ियों की भांति खामोश नहीं होते, बल्कि पारस्परिक संवाद से जीवन-रेखा के रूप में प्रतिस्थापित होते। हमें संबंधों को पुकारना अर्थात्  अपनत्व और ‘मैं हूं न’ का अहसास नहीं दिलाना पड़ता, न ही वे हमारी पुकार की गूंज के मोहताज होते अथवा उसे सुनकर चिरनिद्रा से जागते।

रिश्तों को स्वस्थ व जीवंत रखने के लिए प्रेम, त्याग  समर्पण आदि की आवश्यकता होती है, वरना ये रेत के कणों की भांति, पल भर में मुट्ठी से फिसल जाते हैं। अपेक्षा व उपेक्षा रिश्तों में सेंध लगा, एक-दूसरे को घायल कर तमाशा देखती हैं। सो! न किसी की उपेक्षा करो, न किसी से अपेक्षा रखो…यही सफलता प्राप्ति का मूल साधन है और शुभकामनाएं तभी फलीभूत होती हैं, जब ये तहे-दिल से निकलें।   ‘खामोश सदाएं व दुआए, दवाओं से अधिक कारग़र व प्रभावशाली सिद्ध होती हैं, परंतु खामोशियां अक्सर अंतर्मन को नासूर-सम सालती व आहत करती रहती हैं। वे सारी खुशियों को लील, जीवन को शून्यता से भर देती हैं और हृदय में अंतहीन सन्नाटा पसर जाता है, जिससे निज़ात पाना मानव के वश में नहीं होता। सो सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधे रहने से, संदेह व शक़ को जीवन में दस्तक न देने से ही संबंध ज़िंदा रह सकते हैं, शाश्वत रूप ग्रहण कर सकते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #40 ☆ नेह का नवांकुरण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 40 – नेह का नवांकुरण

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य
अपने भीतर देखो  रंगों का इंद्रधनुष।

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नवांकुरण भीतर भी होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा, परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय।

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीष देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..! खेलें होली, मिलें होली…!..शुभ होली।

©  संजय भारद्वाज

धूलिवंदन, प्रात: 9:33 बजे, मंगलवार 10 मार्च 2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 19 – महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस”। )

☆ गांधी चर्चा # 19 – महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस

 

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 1938 में हरिपुरा में हुये काँग्रेस अधिवेशन में निर्विरोध अध्यक्ष चुने गये। वे   भी गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत से पूर्णत: सहमत न थे। त्रिपुरी (जबलपुर)  में अगले वर्ष 1939 में हुये काँग्रेस अधिवेशन में वे गांधीजी के प्रत्याक्षी पट्टाभी सीतारम्मइया को हरा कर पुनः अध्यक्ष चुने गये,  जिसे गांधीजी ने अपनी व्यक्तिगत हार माना। स्वतंत्रता का आंदोलन कमज़ोर न पड़ जाय इस भावना से वशीभूत हो कर सुभाष चन्द्र बोस ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और काँग्रेस के अंदर ही फारवर्ड ब्लाक की स्थापना कर डाली। श्री राकेश कुमार पालीवाल, भारतीय राजस्व सेवा से चयनित आयकर विभाग के उच्च अधिकारी हैं व गांधीजी के विचारों के अध्येता हैं, ने अपनी पुस्तक “गांधी जीवन और विचार” में आजाद हिन्द फौज और गांधी सुभाष संबंध पर प्रकाश डाला है वे लिखते हैं- “ गांधी और सुभाष चन्द्र बोस के संबंधो को कुछ लोग अतिरेक के साथ प्रस्तुत कर एक दूसरे के धुर विरोधी की तरह चित्रित कर भ्रम फैलाते रहे हैं। यह सच है कि  गांधी और सुभाष के बीच कुछ वैचारिक मतभेद थे लेकिन यह मतभेद आज़ादी के आंदोलन को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाये उसके तौर तरीकों को लेकर था जिसमे एक दूसरे के प्रति लेशमात्र भी द्वेष नही था अपितु दोनों के मध्य पिता पुत्र जैसी आत्मीयता थी। गांधी विचार की अध्येता सुजाता चौधरी ने ‘गांधी और सुभाष’ कृति में कई ऐतिहासिक तथ्यों एवं दस्तावेजों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि सुभाष चन्द्र बोस गांधी की बहुत इज्जत करते थे और गांधी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति स्नेह भाव रखते थे।“

श्री राकेश कुमार पालीवाल  आगे लिखते हैं “जहाँ तक गांधी और सुभाष के मध्य मतभेद का प्रश्न है उसका प्रमुख कारण था कि गांधी आज़ादी के आंदोलन में न हिंसक युद्ध (आज़ाद हिन्द फौज) के समर्थक थे और न जर्मनी और जापान जैसी फासिस्ट ताकतों का सहयोग चाहते थे जबकि सुभाष चन्द्र बोस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के दुश्मनों का समर्थन लेने और आज़ाद हिन्द फौज के द्वारा सशस्त्र संघर्ष के प्रबल पक्षधर थे। गांधी के प्रति सुभाष चन्द्र बोस का आदर इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि उन्होने आज़ाद हिन्द फौज की पहली टुकड़ी का नाम गांधी ब्रिगेड रखा था और अपने सिपाहियों को कहा था कि देश की आज़ादी के बाद हम सब गांधी के नेतृत्व में समाज की सेवाकरेंगे।“

आज़ाद हिन्द फौज की हार के बाद जब उसके सैन्य अधिकारियों कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह तथा मेजर जनरल शाहनवाज खान पर लालकिले में मुक़दमा चला तो तेज बहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, कैलाश नाथ काटजू जैसे काँग्रेस के नेताओं ने काला चोगा पहन अपने इन देश भक्त साथियों जिनसे उनके तीक्ष्ण वैचारिक मतभेद थे कि सफल पैरवी करी। यह सब गांधीजी की अनुमति से ही हुआ होगा और गांधीजी का यह निर्णय उस जनमत का सम्मान था जिसे देश की आज़ादी के इन दीवानों से अगाध प्रेम था।

रूद्रांक्षु मुखर्जी ने  पंडित जवाहरलाल नेहरु और नेताजी सुभाष के आपसी संबंधों को लेकर एक पुस्तक लिखी है नेहरु बनाम सुभाष। इसमें भी अक्सर उन बातों की चर्चा है जिसमे नेताजी और महात्माजी के बीच मतभेदों पर प्रकाश पड़ता है। नेताजी शुरू से फ़ौजी अनुशासन के प्रेमी थे 1928 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की अगवानी में फौजी वेशभूषा में की थी जिसे गांधीजी ने नापसंद किया था।

‘अंतिम झांकी’ में उस डायरी की बातें दर्ज हैं जिसे महात्मागांधी के चचेरे भाई की पौत्री मनु बेन ने जनवरी 1948 के दौरान लिखा और इस डायरी में दर्ज तथ्यों को गांधी जी नियमित रूप से जांचते व सही करते थे। इस प्रकार यह डायरी महात्मागांधी जो  तब बिरला भवन नई दिल्ली में ठहरे थे कि दैनिक कार्यक्रम का सच्चा विवरण देती है। गांधी जी रोजाना शाम को सर्व धर्म प्रार्थना सभा में लोगों से चर्चा करते थे‌ ।नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिवस की याद दिलाने पर गांधीजी ने 23 जनवरी 1948 को निम्न विचार व्यक्त किए।

“शैलन भाई ने खबर दी कि आज नेताजी (सुभाष बाबू ) का जन्म दिवस है, इसलिए बापू प्रार्थना में उनके बारे में कुछ कहें।”

बापू ने कहा: “आज सुभाष बोस का जन्म दिवस है। यद्यपि मैं किसी का जन्म दिवस कदाचित ही याद रखता हूं, फिर भी आज मुझे इसकी याद करायी गई, इसलिए खुश हूं।”

“सुभाष बाबू हिंसा के पुजारी रहे और मैं अहिंसा का! लेकिन उससे क्या? तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है:

‘संत हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकारी’

हंस जैसे पानी छोड़ दूध पी जाता है, वैसे ही मानव में गुण दोष होते ही हैं; पर हमें तो गुणों का पुजारी बनना चाहिए। सुभाष बाबू कितने देशभक्त थे, इसका वर्णन करना असामयिक होगा। उन्होंने देश के लिए जिंदगी का जुआं खेलकर दिखा दिया। कितनी बड़ी सेना खड़ी की और वह भी किसी तरह के जात-पात के भेदभाव के बगैर! उनकी सेना में प्रांतीय भेदभाव भी नहीं थि और न रंगभेद ही था। स्वयं सेनापति होने के बावजूद यह बात न थी कि स्वयं विशेष सुख सुविधा होगें और दूसरे कम। सुभाष बाबू सर्व धर्म समभाव रखते थे, इसी कारण उन्होंने सारे देश के भाई बहनों के हृदय जीत लिए थे। स्वयं निर्धारित काम पूरा किया। उनके इन गुणों को याद रखकर हम उन्हें अपने जीवन में उतारें, यही उनकी स्थायी स्मृति होगी।”

अंत में मैं यही निवेदन करूँगा कि हम अक्सर ऐसे विवादों को जन्म देते हैं जिनकी तथ्य परक  जानकारी हमे होती ही नहीं है। प्राय: हम सुनी सुनाई बातों पर कोई भी धारणा बना लेते है व वाद विवाद में उलझ जाते हैं। ऐसे वाद विवादों की शुरुआत व  अंत कटुता से भरा होता है जिसके हिमायती ना तो गरम दल या  नरम दल के कांग्रेसी नेता थे और नाही भगत सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारी, गांधीजी तो कटुता को भी एक प्रकार हिंसा मानते थे और ऐसे वाद विवादों के बिल्कुल भी पक्षधर न थे।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – महिला स्वतंत्रता आंदोलन  की प्रणेता – सिमोन द बुआ ☆ श्री सुरेश पटवा

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  विगत  29 जनवरी  2020 को  नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक  “स्त्री -पुरुष “ प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी दो पुस्तकों गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में  पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  नवीन पुस्तक “स्त्री-पुरुष “रिश्तों की दैहिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की विश्लेषणात्मक व्याख्या आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करती है।  प्रस्तुत है  उनकी इस पुस्तक  से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष आलेख महिला स्वतंत्रता आंदोलन  की प्रणेता – सिमोन द बुआ )

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष  – महिला स्वतंत्रता आंदोलन  की प्रणेता – सिमोन द बुआ  

दुनिया में महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता एक महिला दार्शनिक सिमोन को माना जाता है। सिमोन द बुआ (फ़्रांसीसी: Simone de Beauvoir) (जन्म: 9 जनवरी 1908 – मृत्यु : 14 अप्रैल 1986) एक फ़्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक थीं। स्त्री उपेक्षिता (फ़्रांसीसी:Le Deuxième Sexe, जून 1949) अंग्रेज़ी में “Second Sex” जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने वाली सिमोन का जन्म पैरिस में हुआ था। लड़कियों के लिए बने कैथलिक विद्यालय में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। समाज ने उसे गढ़ने का सामान चर्च, मंदिर और मस्जिद के रीति रिवाज के रूप मे तैयार कर रखा है।

श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तकों के ऑनलाइन लिंक्स 

Notion Press Link  >>  1. स्त्री – पुरुष  2. गुलामी की कहानी 

Amazon  Link  >>    1. स्त्री – पुरुष   2. गुलामी की कहानी   3. पंचमढ़ी की कहानी 

सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, जबकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में हो सकते हैं। सिमोन का बचपन सुखपूर्वक बीता, लेकिन बाद के वर्षो में उन्होंने अभावग्रस्त जीवन भी जिया। 15 वर्ष की आयु में सिमोन ने निर्णय ले लिया था कि वह एक लेखिका बनेंगी। उनके क्रांतिकारी लेखन ने यूरोप अमेरिका में स्त्री स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा बदल कर रख दी। दुनिया की संसद और सरकारों में महिला की आज़ादी के नए विचार उनकी किताब से छन कर आने और सत्ता के गलियारों में छाने लगे।

दर्शनशास्त्र, राजनीति और सामाजिक मुद्दे उनके पसंदीदा विषय थे। दर्शन की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने पैरिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनकी भेंट बुद्धिजीवी ज्यां पॉल सा‌र्त्र से हुई। बाद में यह बौद्धिक संबंध आजीवन चला। डा. प्रभा खेतान द्वारा उनकी किताब “द सेकंड सेक्स” का हिंदी अनुवाद “स्त्री उपेक्षिता” भी बहुत लोकप्रिय हुआ। 1970 में फ्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में सिमोन ने भागीदारी की। स्त्री-अधिकारों सहित तमाम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सिमोन की भागीदारी समय-समय पर होती रही। 1973 का समय उनके लिए परेशानियों भरा था। सा‌र्त्र दृष्टिहीन हो गए थे। 1980 में सा‌र्त्र का देहांत हो गया। 1985-86 में सिमोन का स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया था। निमोनिया या फिर पल्मोनरी एडोमा में खराबी के चलते उनका देहांत हो गया। सा‌र्त्र की कब्र के बगल में ही उन्हें भी दफनाया गया। दोनों विवाह के बिना साथ रहे वे दुनिया के पहले सहनिवासी (living together) जोड़े थे जिनके उदाहरण हमारे महानगरों मे हम अब देख रहे हैं।

सार्त्र ऐसे महान दार्शनिक थे कि जिन्हें उनके महान दार्शनिक सिद्धांत अस्तित्ववाद के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया था जिसे लेने से उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि वे अपने व्यक्तित्व का संस्थाकरण नहीं करना चाहेंगे। तब नोबल समिति ने कहा था कि लोग यह पुरस्कार लेकर सम्मानित होते हैं परंतु वे यदि पुरस्कार ले लेते तो नोबल पुरस्कार पुरस्कृत होता।

द सेकेंड सेक्स (The Second Sex) सिमोन द बुआ  द्वारा फ्रेंच में लिखी गई पुस्तक है जिसने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। स्त्री समानता विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक नारी अस्तित्ववाद को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि जो स्त्री जन्म लेती है उसका मौलिक रूप विकसित न होने देकर, उम्र बढ़ने के साथ भोग के लिए बनाई जाती है। उसके दिमाग़ को नैसर्गिक रूप से गढ़ते रहने के बजाय वह कई अवधारणा में बाँध दी जाती है। लड़की एक अनचाहे भ्रूण की तरह गर्भ में पलती है। उनकी यह व्याख्या हीगेल के सोच को ध्यान में रखकर स्वयं (self) से अलग “दूसरा” (the Other) की संकल्पना प्रदान करती है। जो बच्ची पैदा हुई वह “पहला” है उसके बाद उसे संस्कारों के नाम पर ज़ंजीरों में बांधा जाना “दूसरा” है।

उनकी इस संकल्पना के अनुसार, नारी को उसके जीवन में उसकी पसंद-नापसंद के अनुसार रहना और काम करने का हक़ होना चाहिए और वो पुरुष से समाज में आगे बढ़ सकती है। ऐसा करके वो स्थिरता से आगे बढ़कर श्रेष्ठता की ओर अपना जीवन आगे बढ़ा सकतीं हैं। ऐसा करने से नारी को उनके जीवन में कर्त्तव्य के चक्रव्यूह से निकल कर स्वतंत्र जीवन की ओर कदम बढ़ाने का हौसला मिलता हैं। यह  एक ऐसी पुस्तक है, जो यूरोप के उन सामाजिक, राजनैतिक, व धार्मिक नियमो को चुनौती देती हैं, जिन्होंने नारी अस्तित्व एवं नारी प्रगति में हमेशा से बाधा डाली है और नारी जाति को पुरुषो से नीचे स्थान दिया हैं। अपनी इस पुस्तक में सिमोन ने  पुरुषों के ढकोसलों से नारी जाति को पृथक कर उनके जीवन में नैसर्गिक सोच विकसित न करने की नीति के विषय में अपने विचार प्रदान किये हैं। इसका हिन्दी अनुवाद स्त्री उपेक्षिता नाम से राजपाल एंड संस से प्रकाशित हुआ है।

श्री सुरेश पटवा की पुस्तक “स्त्री-पुरुष” से साभार 

© श्री सुरेश पटवा, भोपाल

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #39 ☆ दृश्य और अदृश्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष 

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 39 –  दृश्य और अदृश्य  ☆

आज हम वैश्विक महिला दिवस पर ‘संजय उवाच’ के एक अंश का पुनर्पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं ।

दृश्य और अदृश्य की बात अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों करते हैं। यों देखा जाये तो मनोविज्ञान, अध्यात्म को समझने की भावभूमि तैयार करता है जबकि अध्यात्म, उदात्त मनोविज्ञान का विस्तार है। अदृश्य को देखने के लिए दर्शन, अध्यात्म और मनोविज्ञान को छोड़कर सीधे-सीधे आँखों से दिखते विज्ञान पर आते हैं।

जब कभी घर पर होते हैं या कहीं से थक कर घर पहुँचते हैं तो घर की स्त्री प्रायः सब्जी छील रही होती है। पति से बातें करते हुए कपड़ों की कॉलर या कफ पर जमे मैल को हटाने के लिए उस पर क्लिनर लगा रही होती है। टीवी देखते हुए वह खाना बनाती है। पति काम पर जा रहा हो या शहर से बाहर, उसके लिए टिफिन, पानी की बोतल, दवा, कपड़े सजा रही होती है। उसकी फुरसत का अर्थ हरी सब्जियाँ ठीक करना या कपड़े तह करना होता है।

पुरुष की थकावट का दृश्य, स्त्री के निरंतर श्रम को अदृश्य कर देता है। अदृश्य को देखने के लिए मनोभाव की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। मनोभाव की भूमि के लिए अध्यात्म का आह्वान करना होगा। परम आत्मा के अंश आत्मा की प्रचिति जब अपनी देह के साथ हर देह में होगी तो ‘माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया’  की अनुभूति होगी।

जगत में जो अदृश्य है, उसे देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो भूत और भविष्य के रहस्य भी खुलने लगेंगे। मृत्यु और उसके दूत भी बालसखा-से प्रिय लगेंगे। आँख से  विभाजन की रेखा मिट जायेगी और समानता तथा ‘लव बियाँड बॉर्डर्स’ का आनंद हिलोरे लेने लगेगा।

जिनके जीवन में यह आनंद है, वे ही सच्चे भाग्यवान हैं। जो इससे वंचित हैं, वे आज जब घर पहुँचें तो इस अदृश्य को देखने से आरंभ करें। यकीन मानिये, जीवन का दैदीप्यमान नया पर्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #41 – मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता”।  यह इस लेखमाला की  अंतिम कड़ी है । इस साप्ताहिक स्तम्भ श्रृंखला के लिए हम सुश्री अनुभा जी के हार्दिक आभारी हैं। )  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 41 ☆

☆ मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता

खदान से प्राप्त होने वाला हीरा तभी उपयोगी और मूल्यवान बनता है जब कुशल कारीगर उसे उचित आकार में तराश कर आकर्षक बना देते हैं। तभी ऐसा हीरा राजमुकुट, राजसिंहासन या अलंकार की शोभा बढ़ाने के लिये स्वीकार किया जाता है। यही नियम हर क्षेत्र में लागू होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी शिक्षा के द्वारा निखारा जाता है और उसे समाज के लिये उपयोगी गुण प्रदान किये जाते है। शिक्षा का यही महत्व है। इसी लिये हर देश में शासन ने शिक्षा व्यवस्था की है।क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक एवं महाविद्यालयीन संस्थाये नागरिको को देश की आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रकार की विद्यायें सिखाने का कार्य कर रही हैं। हमारे देश में भी इसी दृष्टि से ‘‘सर्व शिक्षा अभियान” चलाया गया है जिसमें 6 से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बच्चे को सुशिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। शिक्षा का अर्थ सिखाने से है और विद्या का अर्थ विषय या तकनीक का ज्ञान देने से है।  इस तरह शिक्षा के दो प्रकार कहे जा सकते है। एक प्रारंभिक शिक्षा जिसमें अक्षर ज्ञान- पढना लिखना तथा प्रारंभिक गणित का ज्ञान होना होता है  और दूसरा किसी विशेष विषय की शिक्षा जिसके द्वारा उच्च तकनीकी ज्ञान की किसी एक शाखा मे विशेषज्ञ तैयार किये जाते हैं। ज्ञान की अनेको शाखाये है, सभी के जानकार व्यक्तियो की समाज को आवश्यकता होती है जिससे देश की आवश्यकताओ को पूरी करने वाले नागरिक तैयार हो सकें और उनकी सहायता व सेवाओ से देश प्रगति कर सके। ये सुशिक्षित लोग अपनी गुणवत्ता के साथ ही ऐसे भी होने चाहिये, जिनका आचरण अच्छा हो जिनमें अनुशासनप्रियता हो,  कर्मठता हो, समाज सेवा की भावना हो, नियमितता हो ,सहयोग की भावना हो, सहिष्णुता हो तथा सब के प्रति आदर का भाव हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसीलिये हमने देश के राजचिन्ह मे ‘‘सत्यमेव जयते” का आदर्श वाक्य अपनाया है। 1789 में अठारहवी सदी की फ्रांस की राज्य तथा वैचारिक क्रांति ने विश्व को एक नयी शासन व्यवस्था दी जिसे अंग्रेजी में डेमोक्रेसी अर्थात प्रजातंत्र के नाम से जाना जाता है। हमने भी देश की आजादी के बाद इसी जनतंत्र को अपने भारत के समुचित और सही विकास के लिये अपनाया है। जनसंख्या की दृष्टि से हम विश्व के सबसे बडे लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। हमारी आबादी लगभग 125 करोड है और हमारे जनतांत्रिक आदर्शो को विश्व के विभिन्न देश आदर्श के रूप में देखते हैं।

जनतंत्र के प्रमुख सिद्धांत हैं  (1) स्वतंत्रता (2) समानता (3) बंधुता तथा (4) न्याय। इन्हीं चार स्तंभो पर जनंतत्र की इमारत खडी है। प्रत्येक सिद्धांत के बडे गहरे अर्थ हैं और उसके बडे दूरगामी प्रभाव होते हैं। हमारे राष्ट्रीय संविधान में इनकी विस्तार से चर्चा और निर्देश हैं। आजादी से अब तक देश में निरंतर इसी शासन व्यवस्था को , जिसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान के द्वारा अपना जनप्रतिनिधि चुनकर शासन में भेजने का महत्वपूर्ण मूल्यवान अधिकार है , का पालन किया जाता है। विश्व के अन्य देश बडे आश्चर्य  व उत्सुकता से हमारे देश में इस व्यवस्था का पालन किया जाना देख रहे हैं। इस जनतांत्रिक व्यवस्था में हमारी सफलता के उपरांत भी हम देखते हैं कि कुछ कमियां है। इन कमियों के कारण देशवासियों के पारस्परिक व्यवहार तथा बर्ताव में शुचिता की कमी देखी व सुनी जाती है जो सरकार के सामने कई कठिनाईयां खडी करती है।

जनतंत्र में प्रमुख पहला सिद्धांत स्वतंत्रता का है। प्रत्येक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है , व्यवहार की स्वतंत्रता है परंतु यह स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं हो सकती जिससे अन्य नागरिको को जरा भी हानि हो।प्रत्येक नागरिक को वही समान अधिकार प्राप्त हैं  अतः टकराव नहीं होना चाहिये इसका पूरा ख्याल हर नागरिक के मन में निरंतर बना रहना चाहिये। यही बात समानता , बंधुता और न्याय के सिंद्धांतो के लिये भी समझदारी , ईमानदारी और पूरी निष्ठा से व्यवहार के हर क्षेत्र में आवश्यक है। परंतु क्या ऐसा हो रहा है?  सिद्धांत तो बडे अच्छे हैं परंतु उन्हें व्यवहार में अपनाये जाने में कमी दिखती है। नारा तो है “सत्यमेव जयते” परंतु व्यवहार में देखा जाता है और कहा जाता है “चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो”। ऐसे में देश का विकास और प्रगति कैसे संभव है? हर क्षेत्र में रूकावटें हैं। आये दिन स्वार्थ पूर्ति के लिये नये नये संगठन बनकर सामने आते है। प्रदर्शन,  बंद, धरने और शक्ति प्रदर्शन के लिये जुलूस निकाले जाते हैं। क्रोध और विरोध दिखाकर  देश की लाखो की संपत्ति जो वास्तव में जनता के धन से ही उपलब्ध कराई गई होती है, नष्ट कर दी जाती है।आंदोलन व प्रजातांत्रिक अधिकार के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति में आग लगा दी जाती है। अनेकों के सिर फूटते हैं और अनेको वर्षो में धन और श्रम से किये गये निर्माणो को देखते देखते नष्ट कर बहुतों को शारीरिक और मानसिक संकट में डाल दिया जाता है। कुछ ऐसी  ही अराजकता चुनावो के समय अनेक मतदान केन्द्रो में भी देखी जाती है। कभी तो निर्दोष व्यक्तियों की जान तक ले ली जाती है। यदि यह सब जनतंत्र में हो रहा है तो यह विचार करना जरूरी है कि क्यों ? सिद्धांतो को कितना अपनाया गया है और यह राजनीति कैसी है।

हमारा देश तो प्राचीन धर्मप्राण देश है। अनेको धर्मो का उद्गम स्थान है। विश्वगुरू कहा जाने वाला देश है फिर हमारा आचरण इतना धर्मविरूद्ध क्यों हो गया ? जब इस तथ्य पर चिंतन करते है तो नीचे लिखे कुछ विचार समने आते है:-

  1. विगत दो शताब्दियों में विज्ञान  ने (भौतिक विज्ञान ने) बहुत उन्नति की है। नये नये अविष्कार किये गये। जन साधारण को जीवन की नई नई सुविधायें प्राप्त हुई। इससे लोगो मे तार्किक प्रवृत्ति का विकास हुआ। कल कारखानो , आवागमन के संसाधनों , संचार की सुविधाओं से दूर देशों का संपर्क सघन हुआ है। इससे परस्पर संपर्क भी बढे , निर्भरता व व्यापार बढा। आर्थिक निर्भरता विश्वव्यापी हुई । लोगों ने अपने विचारो में परिर्वतन देखा पर चारित्रिक गिरावट आई।
  2. भारत में धार्मिक बंधनो में ढील आई। आत्मविश्वास के साथ अंह के भाव भी बढे। धार्मिक रीति रिवाजो पारिवारिक परंपराओ, मान्यताओ में शिथिलता ने चारित्रिक मूल्यो का हृास किया।
  3. राजनैतिक पैंतरेबाजी, स्वार्थ और धनलोलुपता ने घपलों घोटालों को जन्म दिया। आचार विचारों में भारी परिवर्तन हुये।
  4. निर्भीकता और उद्दंडता से अनुशासन नष्ट हुआ। अपने सिवाय औरो के लिये सम्मान और आदरपूर्ण व्यवहार में कमी आई।
  5. निरर्थक दिखावे, झूठे प्रदर्शन और आडम्बरों को बढावा मिला धन का अनुचित उपयोग बढा, औरों की उपेक्षा हुई। दिखावे के चलन ने सारे पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन को प्रदूषित किया। धार्मिक भावना का हृास होने से चारित्रिक शुचिता नहीं रही। व्यवहार में ईमानदारी कम हुई। गबन घोटाले बढे। सादा जीवन उच्च विचार की परंपरा नष्ट हो गई।

यह स्थिति केवल हमारे देश  में ही नहीं समूचे विश्व में ही  हुई है। आंतकवाद सब जगह फैल गया है। मानवता त्रस्त है। इन सबका कारण नासमझी है।  धर्म की गलत व्याख्या है।   स्वार्थ, लालच, क्रोध, असहिष्णुता ने अदूरदर्शिता का प्रसार किया है तथा अनाचार व आतंक को जन्म दिया है। आचार विचार और सुसंस्कारो को समाप्त किया है। सारे परिवेश को दूषित किया है। जनता में  पढाई लिखाई का तो प्रसार हुआ है परंतु लोगों के मन का वास्तविक संस्कार नहीं हो पाया है। मन ही मनुष्य के सारे क्रियाकलापो का संचालक है। जैसा मन होता है वैसे ही कर्म होते है अतः सही वातावरण के निर्माण हेतु मन का सुसंस्कार कर शुभ विचार की उत्पत्ति किया जाना आवश्यक है। शिक्षा से व्यक्ति को सुखी समृद्ध और समाज के लिये मूल्यवान बनाया जा सकता है। अतः प्रारंभ सद्शिक्षा से ही करना होगा। शिक्षा से मनुष्य का शारीरिक ,  मानसिक ,  बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिये समुचित पाठ्यक्रम अपनाया जाना चाहिये। मन के सुधार के लिये नीति प्रीति की रीति सीखने समझने के अवसर प्रदान किये जाने चाहिये। बचपन के संस्कार जो बच्चा घर ,परिवार ,परिवेश,  धार्मिक संस्थानो में देख सुन व व्यवहार का अनुकरण कर सीखता है , जीवन भर साथ रहते हैं। माता, पिता, शिक्षकों तथा समाज में बडों के आचरण का अनुकरण कर छात्र जल्दी सीखते है। अतः  शालाओ और सामाजिक परिवेश में नैतिक मूल्यों का वातावरण विकसित किया जाना  चाहिये। अर्थकेन्द्रित आज के संसार में सदाचार केन्द्रित शिक्षा के द्वारा ही परिवर्तन की  आशा की जा सकती है .  भविष्य को बेहतर बनाने के लिये मूल्यपरक शिक्षा के द्वारा समाज को सदाचार की ओर उन्मुख किया जाये। संपूर्ण शिक्षा पाठयक्रम और संस्थानो के कार्यक्रमो में नैतिक शिक्षा की गहन आवश्यकता है। क्योंकि शिक्षा का रंग ही व्यक्ति के जीवन को सच्चे गहरे रंग से रंग देता है। पहले संयुक्त परिवारो में दादी नानी व बड़े बूढ़े  कहानियों व चर्चाओ से बालमन को जो नैतिक संस्कार देते थे आज के युग में एकल परिवारो के चलते केवल शिक्षण संस्थाओ को ही यह जिम्मेदारी पूरी करनी है।

अतः वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में मूल्यपरक शिक्षा अतिआवश्यक है, जिससे हर शिक्षा पाने वाले विद्यार्थी  को विभिन्न विषयों के ज्ञान के साथ साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियो का सही सही बोध हो सके।   एक नागरिक के रूप में उसके अधिकार ही नहीं कर्तव्यों का भी दायित्व वह समझ सके ।  बुद्धि के साथ साथ छात्र का हृदय भी विकसित हो,  उसे खुद के साथ अपने पडोसियों के प्रति भी संवेदना हो। समाज में सद्भाव,सहयोग, समन्वय और सहिष्णुता विकसित हो सके।

© अनुभा श्रीवास्तव

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