हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

गांधीजी दो बातें कहते हैं .हिन्दुस्तान से कारीगरी जो करीब-करीब ख़तम हो गयी, वह मैनचेस्टर का ही काम है और मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं। निश्चय ही  गांधीजी के मन में यह विचार युरोप की औद्योगिक क्रांति के, जो अठारहवीं सदी के अंत व उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुई थी और इसने सारे यूरोप को प्रभावित किया था, दुष्परिणामों को देखते हुए आया होगा। आरंभ में यह क्रान्ति वस्त्र उद्योग के मशीनीकरण से हुई,  और फिर तरह तरह की मशीनों की खोज हुई। इसके साथ ही लोहा बनाने की तकनीकें आयीं और शोधित कोयले का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। कोयले को जलाकर बने भाप  की शक्ति का उपयोग होने लगा। शक्ति-चालित मशीनों (विशेषकर वस्त्र उद्योग में) के आने से उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। उन्नीसवी सदी के प्रथम् दो दशकों में पूरी तरह से धातु  से बने औजारों का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप दूसरे उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के निर्माण को गति मिली। उन्नीसवी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी युरोप तथा उत्तरी अमेरिका में फैल गयी।कच्चे माल को पाने के लिए यूरोप ने सारे विश्व में अपने उपनिवेश बनाए जो इन देशों की गुलामी का कारण बने। मशीनों ने उत्पादन बढ़ाया तो माल की खपत इन्ही उपनिवेश देशों में हुई फलत वहाँ के लघु उद्योग चौपट हो गये, माल बेचने से प्राप्त धन यूरोप मे अमीरी और औपनवेशिक देशों में गरीबी का कारण बना।औद्योगिक क्रान्ति के कारण आपसी मानवीय सम्बन्ध खराब हुए और नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। गांधीजी जब यंत्रों का विरोध करते हैं तो वे तत्कालीन भारत की इन्ही कठनाइयों के परिप्रेक्ष्य में यह बात करते हैं।  जब गांधीजी कहते हैं कि गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा, लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा तो मुझे देश के वर्तमान हालात दीखते हैं। भारत के औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों ने, राजनीतिज्ञों व सरकारी अफसरों से गठजोड़ कर अनीतिपूर्वक जो धन कमाया है अंतत: उसकी परिणीती कालेधन में हुई है। इस काले धन ने सारे सिस्टम को तहस नहस कर दिया है, भ्रष्टाचार के फलने फूलने में इसी औद्योगिकरण का हाँथ है,    नोटबंदी जैसे प्रयास भी हमें इसके दुष्चक्र से मुक्ति नहीं दिला पाए हैं, आयकर विभाग, ईडी आदि लाख छापे मारें पर कभी कभार ही सफल होते दिखाई पढ़ते हैं। यही नैतिक पतन है जिसे गांधीजी ने एक सौ दस वर्ष पूर्व ही महसूस कर लिया था, और हमें चेताने की कोशिश की थी। उनकी चेतावनी का यह अर्थ कदापि न था कि हम यंत्रीकरण न करे उद्योगों की स्थापना न करे। वे तो बस इसके उचित बढ़ावे के पक्षधर थे। मशीनीकरण के अन्धानुकरण ने हमारे स्वास्थ को प्रभावित किया है। इससे भला कौन इनकार कर सकता है। हमने पैदल चलना और श्रम करना तो लगभग छोड़ ही दिया है। हमारे बच्चे इतने आलसी हो गए हैं कि वे सौ कदम भी नहीं चलना चाहते। उन्हें नजदीक के स्थान जाने के लिए भी वाहन चाहिए।  यही हमारे गिरते हुए स्वास्थ का कारण है।जब गान्धीजी यह कहते हैं कि  मैनचेस्टर के कपडे के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी हम अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए तब वे स्वदेश में मशीनों व यंत्रो के उपयोग के पक्षधर दिखाई देते हैं। वे चाहते हैं कि हम बजाय विदेशी माल खरीदने के देश में ही यंत्रो का प्रयोग कर अपनी जरूरतों के मुताबिक़ उत्पादन करें।गांधीजी जब कहते हैं कि  समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, पर वह किसी ख़ास वर्ग की नहीं बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए तो वे मशीनों व यंत्रों के उपयोग के समर्थन की बात करते हैं व उसका उपयोग मानव कल्याण के लिए करना चाहते हैं। गांधीजी बार बार कहते हैं कि  यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए, मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जाना चाहिए और यंत्र रुकावट बनने के बजाय मददगार होने चाहिए। जब वे कहते हैं कि  ‘मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है‘। वे तो कहते हैं कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें।इन बातों को अगर हम ध्यान से सोचे तो पायेंगे कि  वे यंत्रों के विरोधी नहीं हैं ।

यंत्रों का उपयोग मानव कल्याण के लिए हो ऐसी गान्धीजी  की भावना का पता हमें उनके इस कथन  से चलता है: “हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुंचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुंचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं,उनमे से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था,इसलिए मानव-सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है कि मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लोहारों का तकुवे बनाने का काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढा हो जाय तब हरेक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए  लोभ की जगह हम प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #30 – भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 30 ☆

☆ भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर

हाल ही वर्ष २०११ के लिये क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेंकिंग की घोषणा की गई है.क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेंकिंग शैक्षणिक शोध,नवाचार,  छात्र अध्यापक अनुपात, क्वालिटी एजूकेशन, शैक्षिक सुविधायें आदि विभिन्न मापदण्डो के आधार पर प्रतिवर्ष दुनिया की श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थाओ की वरीयता सूची जारी करता है. देश के ख्याति लब्ध संस्थान आई आई एम या आई आई टी का भी  इस सूची में चयन न हो पाना हमारी शैक्षिक गुणवत्ता पर सवालिया निशान बनाता है, शायद यही कारण है कि इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति सहित अनेक विद्वानो ने  भारत के शैक्षिक वातावरण, छात्रो के चयन की गुणवत्ता  आदि पर प्रश्न चिन्ह लगाये हैं . दरअसल पिछले दशको में शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति से अधिक धन प्राप्ति के लिये बड़े पैकेज पर कैंपस सेलेक्शन हो चला है, इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई है. ऐसे समय में देश की एक मात्र विज्ञान को समर्पित संस्था भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर (आईआईएससी) का विश्वस्तरीय भारतीय विज्ञान शिक्षण संस्थानो में नाम होना देश के लिये गौरव का विषय है.

भारतीय विज्ञान संस्थान की स्थापना २७ मई सन् १९०९ मे स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से महान उद्योगपति जमशेदजी नुसरवानजी टाटा के दूरदृष्टि के परिणामस्वरूप हुई। सन १८९८ मे संस्थान की रूपरेखा व निर्माण के लिये एक तात्कालिक समिति बनायी गयी थी। नोबेल पुरस्कार  विजेता सर विलियम राम्से ने इस संस्थान की स्थापना हेतु बंगलोर का नाम सुझाया और मॉरीस ट्रॅवर्स इसके पहले निदेशक बने।1956 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना के साथ, संस्थान डीम्ड विश्वविद्यालय के रूप में अपने वर्तमान स्वरूप में सक्रिय है.

विज्ञान शिक्षा में दक्ष संस्थान के अब तक के  निदेशकों की सूची में ये महान नाम हैं मॉरीस ट्रेवर्स, FRS, वर्ष 1909-1914 , सर ए जी बॉर्न, FRS, सन् 1915-1921, सर एम ओ फोरस्टर, FRS, 1922-1933,  सर सी.वी. रमन, FRS, वर्ष 1933-1937, सर जे.सी. घोष, [6] 1939-1948, एम एस ठेकर, 1949-1955 , एस भगवन्तम्, 1957-1962,  सतीश धवन, 1962-1981,  डी के बनर्जी, 1971-1972,  एस रामशेषन , [7] 1981-1984,    सी एन आर  राव, FRS, 1984-1994, जी पद्मनाभन, 1994-1998, जी मेहता, 1998-2005,      वर्तमान में वर्ष २००५ से पी. बलराम संस्थान के निदेशक हैं.

होमी भाभा, सतीश धवन, जी. एन. रामचंद्रन,सर सी. वी. रमण,राजा रामन्ना,सी. एन. आर. राव,विक्रम साराभाई, जमशेदजी टाटा, मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जेसे महान विज्ञान से जुड़े व्यक्तित्व इस संस्थान के विद्यार्थी रह चुके हैं या किसी न किसी रूप में भारतीय विज्ञान संस्थान से जुड़े रहे हैं. आज भी जब नये छात्र यहां अध्ययन के लिये आते हैं तो होस्टल के जिन कमरो में कभी ये महान वैज्ञानिक रहे थे उन कमरो में रहने के लिये छात्रो में एक अलग ही उत्साह होता है.

संस्थान के वेब पते इस तरह हैं. http://www.iisc.ernet.in , http://www.iisc.ernet.in/ug , http://www.iisc.ernet.in/scouncil , http://admissions.iisc.ernet.in/

इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साईंस बेंगलोर का विकिपीडिया के अनुसार विश्व स्तर पर रैंकिग आफ वर्ल्ड यूनिवर्सिटिज में प्रथम १०० में स्थान है,विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने हेतु यह देश का एक मात्र इंडियन इंस्टीट्यूट है, जिसे डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त है.अब तक संस्थान से स्नातक या शोध के एम.एससी.  (Engg), एम.टेक., एम.बी.ए. व पीएच.डी.  पाठ्यक्रम ही संचालित थे पर इसी वर्ष २०११ जुलाई से अपने पहले बैच के प्रवेश के १००वें वर्ष से संस्थान ने विश्व स्तरीय ४ वर्षीय बी.एस. पाठ्यक्रम प्रारंभ भी किया है, जिसमें अधिकतम कुल ११० सीटें  हैं. प्रवेश के लिये किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना को प्रमुख मापदण्ड बनाया गया है, कुछ सीटें आई आई टी जे ई ई, तथा ए आई ई ई ई तथा ए आई पी एम टी के उच्च स्थान प्राप्त बच्चो को भी दी जाती हैं .हायर सेकेण्डरी की शिक्षा के बाद कालेज एजूकेशन में  जो छात्र केवल  नम्बर मात्र लाने के उद्देश्य से पढ़ाई नही करना चाहते  , और न ही फार्मूले रटते हैं वरन्  जो पढ़ने को इंजाय करते हैं अर्थात जिनमें विज्ञान के प्रति नैसर्गिक अनुराग है, जो जीवन यापन के लिये केवल धनार्जन के लिये नौकरी ही नही करना चाहते बल्कि कुछ नया सीखकर कुछ नया  करना चाहते हैं, समाज को कुछ देना चाहते हैं, उनके लिये ज्ञानार्जन का यह भारत में सर्वश्रेष्ठ विज्ञान शिक्षण संस्थान है.

संस्थान का  कैम्पस 400 एकड़ हरे भरे १०० से अधिक प्रजातियो के सघन वृक्षो से सजी जमीन पर फैला हुआ है,मैसूर के महाराजा कृष्णराजा वोडयार चतुर्थ के समय में इस संस्थान का निर्माण किया गया था.  आईआईएससी परिसर उत्तर बंगलौर में स्थित है जो शहर के मुख्य रेलवे स्टेशन से ६ कि मी,  बस स्टैंड से 4 किलोमीटर की दूरी पर है. यशवंतपुर निकटतम रेल्वे हेड है जो लगभग २.५ कि मी पर है. संस्थान बहुत पुराना है और टाटा इंस्टीट्यूट के नाम से आटो रिक्शा चालक सहज ही इसे पहचानते हैं.परिसर में 40 से अधिक विज्ञान शिक्षण के विभागो के भवन हैं, छह कैंटीन (कैफेटेरिया), एक जिमखाना (व्यायामशाला और खेल परिसर),  फुटबॉल और  क्रिकेट मैदान, नौ पुरुषों के और पाँच महिलाओं के हॉस्टल हैं, एक हवाई पट्टी, “जेआरडी टाटा मेमोरियल लाइब्रेरी,एक भव्य कंप्यूटर केंद्र भी है जो  भारत के सबसे तेज सुपर कंप्यूटर्स में  है. नेनो टैक्नालाजी की नई प्रयोगशाला विश्वस्तरीय आकर्षण है. खरीदारी केन्द्रों,  मसाज पार्लर, ब्यूटी पार्लर और  स्टाफ के सदस्यों के लिए निवास भी परिसर में है. यह पूर्णतः आवासीय शिक्षण संस्थान है. मुख्य भवन के बाहर  संस्थापक जे.एन. टाटा की स्मृति में उनकी आदमकद मूर्ति स्थापित की गई है.

डीआरडीओ, इसरो, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, वैमानिकी विकास एजेंसी, नेशनल एयरोस्पेस लेबोरेटरीज, सीएसआईआर, सूचना प्रौद्योगिकी विभाग (भारत सरकार) इत्यादि वैज्ञानिक संगठनो से  आईआईएससी अनेक परियोजनाओ में निरंतर सहयोग कर रहा है.कार्पोरेट जगत के साथ तादात्म्य बनाने के लिये भी संस्थान सक्रिय है और अनेक निजी क्षेत्र की कंपनियां कैम्पस सेलेक्शन तथा प्रोडक्ट रिसर्च में सहयोग हेतु यहां पहुंचती हैं.  विदेशी शिक्षण संस्थानो से भी आईआईएससी अनेक एम ओ यू हस्ताक्षरित कर रहा है.

संस्थान के एक शतक की उपलब्धियो की कहानी बहुत लंबी है, देश विदेश में विज्ञान शिक्षण व शोध से जुड़े अनेकानेक महान वैज्ञानिक भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलूर की ही देन हैं. आने वाले समय में जब नई पीढ़ी के युवा वैज्ञानिक इस वर्ष प्रारंभ किये गये ४ वर्षीय बी एस पाठ्यक्रम को पूरा कर इस संस्थान से निकलेंगे तो निश्चित है कि उनके माध्यम से यह संस्थान देश में अनुसंधान और नवाचार की बढ़ती जरूरतो को पूरा करने में एक नई इबारत लिखेगा.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #27 – निष्कर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 27 ☆

☆ निष्कर्ष ☆

 

दूसरे के जागने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, हँसने-बोलने, यहाँ तक की चुप रहने में भी मीन-मेख निकालना, आदमी को एक तरह का विकृत सुख देता है। तुलनात्मक रूप से एक भयंकर प्रयोग बता रहा हूँ, विचार करना।

रात को बिस्तर पर हो, आँखों में नींद गहराने लगे तो कल्पना करना कि इस लोक की यह अंतिम नींद है। सुबह नींद नहीं खुलने वाली। …यह विचार मत करना कि तुम्हारे कंधे क्या-क्या काम हैं। तुम नहीं उठोगे तो जगत का क्रियाकलाप कैसे बाधित होगा। जगत के दृश्य-अदृश्य असंख्य सजीवों में से एक हो तुम। तुम्हारा होना, तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है पर जगत में तुम्हारी हैसियत दही में न दिखाई देनेवाले बैक्टीरिया से अधिक नहीं है। तुम नहीं उठोगे तो तुम्हारे सिवा किसी पर कोई दीर्घकालिक असर नहीं पड़ेगा।

तुम तो यह विचार करना कि क्या तुम्हारे होने से तुम्हारे सगे-सम्बंधी, तुम्हारे परिजन-कुटुंबीय, मित्र-परिचित, लेनदार-देनदार आनंदी और संतुष्ट हैं या नहीं। बिस्तर पर आने तक के समय का मन-ही-मन हिसाब करना। अपने शब्दों से किसी का मन दुखाया क्या, आचरण में सम्यकता का पालन हुआ क्या, लोभवश दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण हुआ क्या, अहंकारवश ऊँच-नीच का भाव पनपा क्या..?… आदि-आदि..। हाँ आत्मा के आगे मन और आचरण को अनावृत्त कर अपने प्रश्नों की सूची तुम स्वयं तैयार कर सकते हो।

प्रश्नों की सूची टास्क नहीं है। प्रश्न तुम्हारे, उत्तर भी तुम्हारे। असली टास्क तो निष्कर्ष है। अपने उत्तर अपने ढंग व अपनी सुविधा से प्राप्त कर क्या तुम मुदित भाव से शांत और गहरी नींद लेने के लिए प्रस्तुत हो?

यदि हाँ तो यकीन मानना कि तुम इहलोक को पार कर गए हो।

सच बताना उठकर बैठ गए हो या निद्रा माई के आँचल में बेखटके सो रहे हो?

निष्कर्ष से अपनी स्थिति की मीमांसा स्वयं ही करना।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 23 – कर्म और फल ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “कर्म और फल।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 23 ☆

☆ कर्म और फल 

क्या आपको लगता है कि भगवान हनुमान बाली को नहीं मार सकते थे? हाँ वो बिल्कुल मार सकते थे। बजरंगबली से ज्यादा शक्तिशाली कौन है? लेकिन अगर भगवान हुनमान बाली को मारते तो उन्हें भी वृक्ष के पीछे छुपकर उसे मारना पड़ता और इस कर्म का परिणाम उन्हें अपने आने वाले जीवन में भुगतान करना पड़ता। लेकिन भगवान हनुमान के लिए कर्म के नियम के कानून की एक अलग योजना थी।  क्योंकि उन्हें लोगों को भक्ति (भगवान राम की भक्ति) सिखाने में सहायता करने के लिए अमर रहना था।तो या तो भगवान राम को या भगवान हनुमान को बाली को मारने की ज़िम्मेदारी लेनी थी और भगवान राम ने यह कार्य आपने हाथों से किया जिसके लिए उन्हें वृक्ष के पीछे से बाली को मारना पड़ा। भगवान राम ने इससे पहले और बाद में कभी भी कोई नियम नहीं तोड़ा था। यह कर्मों के कानून द्वारा पूर्व-नियोजित किया गया था कि भगवान राम इस अधिनियम को करेंगे क्योंकि उन्हें अपने शरीर को छोड़ना था।  उनके त्रेता युग के उद्देश्य को पूर्ण करने के बाद, लेकिन भगवान हनुमान के जन्म का उद्देश्य अनंत काल तक लोगों को अज्ञानता से भक्ति के ज्ञान तक मार्गदर्शन करना है। तो भगवान हनुमान को कर्मों के कानून से दूर रखा जाने की योजना पहले से ही तैयार थी।

त्रेता युग हिंदू मान्यताओं के अनुसार चार युगों में से एक युग है। त्रेता युग मानवकाल के द्वितीय युग को कहते हैं। इस युग में विष्णु के पाँचवे, छठे तथा सातवें अवतार प्रकट हुए थे। यह अवतार वामन, परशुराम और राम थे। यह मान्यता है कि इस युग में ॠषभ रूपी धर्म तीन पैरों में खड़े हुए थे। इससे पहले सतयुग में वह चारों पैरों में खड़े थे। इसके बाद द्वापर युग में वह दो पैरों में और आज के अनैतिक युग में, जिसे कलियुग कहते हैं, सिर्फ़ एक पैर पर ही खड़े हैं। यह काल भगवान राम के देहान्त से समाप्त होता है। त्रेतायुग 12,96000 वर्ष का था। ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:

चारों युग

4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)       सत युग

3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष)       त्रेता युग

2 चरण (864,000 सौर वर्ष)          द्वापर युग

1 चरण (432,000 सौर वर्ष)          कलि युग

यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं।

जब द्वापर युग में गंधमादन पर्वत पर महाबली भीम हनुमान जी से मिले तो हनुमान जी से कहा कि “हे पवन कुमार आप तो युगों से पृथ्वी पर निवास कर रहे हो।  आप महाज्ञान के भण्डार हो, बल बुधि में प्रवीण हो, कृपया आप मेरे गुरु बनकर मुझे शिष्य रूप में स्वीकार कर के मुझे ज्ञान की भिक्षा दीजिये”। भगवान हनुमान जी ने कहा “हे भीम सबसे पहले सतयुग आया उसमे जो कार्य मन में आता था वो कृत (पूरी )हो जाती थी  इसलिए इसे क्रेता युग (सत युग)कहते थे।  इसमें धर्म की कभी हानि नहीं होती थी उसके बाद त्रेता युग आया इस युग में यज्ञ करने की प्रवृति बन गयी थी । इसलिए इसे त्रेता युग कहते थे।  त्रेता युग में लोग कर्म करके कर्म फल प्राप्त करते थे।  हे भीम फिर द्वापर युग आया । इस युग में विदों के 4 भाग हो गये और लोग सत भ्रष्ट हो गए । धर्म के मार्ग से भटकने लगे अधर्म बढ़ने लगा। परन्तु, हे भीम अब जो युग आयेगा, वो है कलियुग। इस युग में धर्म ख़त्म हो जायेगा। मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलेगा। चारों और अधर्म ही अधर्म का साम्राज्य ही दिखाई देगा।”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ स्त्री ब्रेल लिपि नहीं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “स्त्री ब्रेल लिपि नहीं”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख जहाँ एक ओर स्त्री शक्ति की असीम  शक्तिशाली कल्पनाओं पर विमर्श करता है वहीँ दूसरी ओर पुरुषों को सचेत करता है कि स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ स्त्री ब्रेल लिपि नहीं

सृष्टि की सुंदर व सर्वश्रेष्ठ रचना स्त्री, जिसे परमात्मा ने पूरे मनोयोग से बनाया… उसे सृष्टि रचना का दायित्व सौंपा तथा शिशु की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बनाया। भ्रूण रूप में नौ माह तक उसकी रक्षा व पालन-पोषण एक अजूबे से कम नहीं है। शिशु के जन्म के पश्चात् मां के अमृत समान दूध की संकल्पना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। मां का शिशु की गतिविधियों को देखकर, उसकी आवश्यकता व सुख-दु:ख की अनुभूति करना,उसकी की सुख-सुविधा के निमित्त स्वयं गीले में सोना व   उसे सूखे में सुलाना…उसे बोलना, चलना, पढ़ना- लिखना सिखलाना व  सुसंस्कारित करना…वास्तव में श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है, अद्वितीय है, बेमिसाल है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। हां! इसके एवज़ में उसे प्राप्त होता है मातृत्व सुख जो किसी दिव्य व अलौकिक आनंद से कम नहीं है।
जयशंकर प्रसाद जी की कामायनी में मनु व श्रद्धा को सृष्टि-रचयिता स्वीकारा गया है…इस संदर्भ में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। प्रलय के पश्चात् मनु व श्रद्धा का मिलन, एक-दूसरे के प्रति आकर्षण, वियोगावस्था में मनु व इड़ा का प्रेम व मिलन मानव को जन्म देता है और वे दोनों संसार रूपी सागर में डूबते-उतराते रहते हैं। अंत में इड़ा का मानव को सम्पूर्ण मानव बनाने के लिए श्रद्धा के पास ले जाना और उसे तीनों लोकों निर्वेद, दर्शन, रहस्य की यात्रा करवा कर जीने का सही अंदाज़ सिखलाना अलौकिक आनंद की प्रतीति कराता है, जो वास्तव में श्लाघनीय है, मननीय है। जीवन में सामंस्यता प्राप्त करने के लिए, जिस कर्म को आप करने जा रहे हैं, उसके बारे में पूरी जानकारी होना आवश्यक है, अन्यथा आप द्वारा किये गये कार्य से आपकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो पाएगी…आपकी भटकन कभी समाप्त नहीं होगी और जीवन में समरसता नहीं आ पाएगी। कामायनी का जीवन-दर्शन मानवतावादी है और समरसता…आनंदोपलब्धि का प्रतीक है।
मुझे स्मरण हो रहा है वह उद्धरण… जब मानव को परमात्मा ने सृष्टि में जाने का फरमॉन सुनाया, तो उसने प्रश्न किया कि वे उसे अपने से दूर क्यों कर हैं…वहां उसका ख्याल कौन रखेगा? वह किसके सहारे ज़िंदा रहेगा? इस पर प्रभु ने उसे  समझाया कि मैं…. मां अथवा जननी  के रूप में सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा अर्थात् संसार में मां से बढ़कर दूसरा कोई हितैषी नहीं और वह तुम्हें स्वयं से बढ़ कर प्यार करेगी… तुम्हारी अच्छे ढंग से परवरिश करेगी…तुम्हें किसी प्रकार का अभाव अनुभव नहीं होने देगी। सो!  सृष्टि-नियंता ने स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे का पूरक बनाया है… एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है, अधूरा है। वे गाड़ी के दो पहियों के समान हैं और उनका चोली-दामन का साथ है। इसमें जीवन का सार छिपा है कि मानव को पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे के सुख-दु:ख में साथ देना चाहिए… इसके लिए उन्होंने विवाह की व्यवस्था निर्धारित की, ताकि मानव मर्यादा में रहकर, घर-परिवार व समाज में स्नेह व सौहार्द उत्पन्न करे तथा अपने दायित्वों का बखूबी वहन करें। वास्तव में एक के अधिकार दूसरे के कर्त्तव्य होते हैं और कर्त्तव्यों की अनुपालना से, दूसरे के अधिकारों की रक्षा संभव है। दूसरे शब्दों में इसमें छिपा है… त्याग व समर्पण का भाव, जो पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द का मूल है।
 परंतु आधुनिक युग में प्रेम, सौहार्द, सहनशीलता, त्याग, सहानुभूति व समर्पण आदि दैवीय भाव गुज़रे ज़माने की बातें लगती हैं…इनका सर्वथा अभाव है। रिश्तों की अहमियत रही नहीं और कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। चारों ओर आपाधापी का वातावरण है और विश्वास का भाव नदारद है। हर इंसान स्वार्थ- पूर्ति और अधिकाधिक धन कमाने के लिये दूसरे को रौंदने व किसी के प्राण लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता। वह मर्यादा व समस्त निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण कर गुज़रता है। जहां तक स्त्री का संबंध है, वह तो हजारों वर्ष से दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है…हाड़-मांस की प्रतिमा, जिसके साथ पुरूष मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। वर्षों पूर्व उसे पांव की जूती स्वीकारा जाता था,जिसका कारण  था….उसे मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन स्वीकारना।आज भी कहां अहमियत दी जाती है उसे…आज भी हर उस अपराध के लिए भी वह ही दोषी ठहरायी जाती है, जो उसने किया ही नहीं।
सो! अहंनिष्ठ पुरुष उसे मात्र वस्तु समझ, उस पर कभी भी, कहीं भी निशाना साध सकता है। अपनी वासना-पूर्ति के लिए उसका अपहरण कर, उसका शील-हरण कर सकता है, उससे दरिंदगी कर सबूत मिटाने के लिए उसके चेहरे पर पत्थरों से प्रहार  कर, उसके टुकड़े-टुकड़े कर, दूरस्थ किसी नाले या गटर में फेंक सकता है। आजकल एकतरफ़ा प्यार में  तेज़ाब का प्रयोग, उसे ज़िंदा जलाने में अक्सर किया जाने लगा है। हर दिन ऐसे हादसे सामने आ रहे हैं। उदाहरणत: हैदराबाद की प्रियंका, उन्नाव की दुष्कर्म पीड़िता, जिस पर रायबरेली जाते समय ज्वलनशील पदार्थ उंडेल दिया गया। बक्सर में भी ऐसे ही हादसे को अंजाम दिया गया। चार दिन में तीन निर्दोष युवतियां  उन सिरफिरों के वहशीपन का शिकार हुयीं और तीनों  इस जहान से रुख़्सत हो गयीं…. परंतु वे अपने पीछे अनगिनत प्रश्न छोड़ गयीं। आखिर कब तक चलता रहेगा यह सिलसिला? ऐसे जघन्य अपराधी कब तक छूटते रहेंगे और ऐसे हादसों को पुन:अंजाम देते रहेंगे?
प्रश्न उठता है, जिस पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है…’ स्त्री कोई ब्रेल लिपि  नहीं, जिसे समझने के लिए स्पर्श की ज़रूरत पड़े। स्त्री तो संकेतिक भाषा है, जिसे समझने के लिए संवेदनाओं की ज़रूरत है। वह स्वभाव से ही छुई-मुई व कोमल  है, समझने के लिए स्पर्श की आवश्यकता नहीं है। वह तो छूने-मात्र से संकोच का अनुभव करती है,पल भर मुरझा जाती है। वह दया, करूणा व ममता का अथाह सागर है… जीवन-संगिनी है, हमसफ़र है, त्याग की प्रतिमा है और सेवा व समर्पण उसके मुख्य गुण हैं। बचपन से वृद्धावस्था तक वह दूसरों के लिए जीती है तथा उनकी खुशियों में अपना संसार देखती है…बलिहारी जाती है। बचपन में भाई-बहनों पर स्नेह लुटाती, घर के कामों में माता का हाथ बंटाती, भाई व पिता के सुरक्षा-दायरे में कब बड़ी हो जाती… जिसके उपरांत पिता के घर से विदा कर दी जाती है, जहां उसे पति व परिवारजनों की खुशी व सबकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए अपने अरमानों का गला घोंटना पड़ता है। वह ता-उम्र अपने बच्चों के लिए पल-पल जीती, पल-पल मरती है और पति के हाथों हर दिन तिरस्कृत प्रताड़ित होती अपना जीवन बसर करती है…वृद्धावस्था में सब की उपेक्षा के दंश झेलती एक दिन दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती है।
यह है औरत की कहानी… परंतु आजकल 85% बालिकाएं अपनों द्वारा छली जाती हैं और उनकी गलत आदतों का शिकार होती हैं। बड़े होने पर मनचलों द्वारा उन्हें बीच राह रोक कर फब्तियां कसना, बसों आदि में गलत इशारे करना,उनके शरीर का स्पर्श करना, बेहूदगी करना, व्यंग्य-बाण चलाना … उनके विरोध करने पर अंजाम भुगतने को तैयार रहने की धमकी देना, उन्हें बीच बाज़ार बेइज़्ज़त व बेआबरू करना, सरे-आम अपहरण कर निर्जन स्थान पर ले जाकर उससे दुष्कर्म करना आदि आजकल सामान्य सी बात हो गई है। इसके साथ उनके साथ होने वाले भीषण व जघन्य हादसों का चित्रण हम पहले ही कर चुके हैं।
काश! हम बच्चों को अच्छे संस्कार दे पाते… प्रारंभ से बेटी-बेटे में अंतर न करते हुए, बेटों को अहमियत न देते, उन्हें बहन-बेटी के सम्मान करने का संदेश देते, आपदाग्रस्त हर व्यक्ति की सहायता करने का मानवतावादी पाठ पढ़ाते, रिश्तों की अहमियत समझाते, तो वे सामान्य इंसान बनते, जिनमें लेशमात्र भी अहंनिष्ठता का भाव नहीं  होता। उनका गृहस्थ जीवन सुखी होता। तलाक अर्थात् अवसाद के किस्से आम नहीं होते। हर तीसरे घर में तलाकशुदा लड़की माता-पिता के घर में बैठी दिखलायी न पड़ती। आज कल तो युवा पीढ़ी विवाह रूपी बंधन को नकारने लगी है और समाज में ‘तू नहीं और सही’ का प्रचलन बढ़ने लगा है, जिसका मुख्य कारण है…अहंनिष्ठता व सर्वश्रेष्ठता का भाव होना,भारतीय संस्कृति की अवहेलना करना व मानव-मूल्यों को नकारना।
वास्तव में अहं ही संघर्ष का मूल है, जिसके कारण दोनों ही समझौता नहीं करना चाहते और परिवार टूटने के कग़ार पर पहुंच जाते हैं। जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए समर्पण व त्याग की आवश्यकता है। शायद! इसीलिए स्त्री को सांकेतिक भाषा की संज्ञा से अभिहित किया गया है… जैसे वह  बच्चे के मनोभावों व संकेतों को समझ, उसकी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करती है, वैसे ही उसे भी अपेक्षा रहती है कि कोई उसे समझे, जीवन में अहमियत दे और उसके अहसासों व जज़्बातों को अनुभव करे। वह अपनत्व चाहती है तथा उसे दरक़ार रहती है कि कोई उसकी भावनाओं की कद्र करे। वह केवल स्नेह की अपेक्षा करती है, जिसे पाने के लिए वह सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर रहती है। उस मासूम को तो पिता के घर में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं, वह यहां पराई है तथा पति का घर ही उसका अपना घर होगा। परंतु वहां भी सी•सी• टी• वी• कैमरे लगे होते हैं, जिनमें उसकी हर गतिविधि कैद होती रहती है और वह सब की उपेक्षा-अवहेलना की शिकार होती है। अंत में उसे पुत्र व पुत्रवधू के संकेतों को समझ, उनके आदेशों की अनुपालना करनी पड़ती है और उसकी तलाश का अंत इस जहान को अलविदा कहने के पश्चात् ही होता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि रिश्ते तभी मज़बूत होते हैं, जब हम उन्हें महसूसते हैं अर्थात् जब हम संवेदनशील होते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करते हैं, तभी रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है। औरत को समझने के लिए संकेतों अथवा संवेदन- शीलता की आवश्यकता होती है। जिस दिन हम यह सोच लेंगे कि हर इंसान में कमियां होती हैं। उसे उनके साथ स्वीकारने से ही ज़िंदगी में सुक़ून प्राप्त हो सकता है और वह  सुख-शांति से गुज़र सकती है। समाज में सौहार्द, समन्वय व सामंजस्यता और अपराध-मुक्त साम्राज्य की स्थापना हो सकती है।
सो! स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। वह वस्तु नहीं है, जिसे समझने के लिए उलट-फेर व उसकी चीर-फाड़ करना आवश्यक है। वह तो मात्र चिंगारी है, जो जंगलों को को जलाकर राख कर सकती है…उसके हृदय का लावा किसी भी पल फूट सकता है तथा सब कुछ तहस-नहस कर सकता है। इसलिए उसके धैर्य की परीक्षा मत लेना। वह केवल नारायणी ही नहीं, उसमें दुर्गा व काली की शक्तियां भी निहित हैं, जिन्हें यथा समय संचित कर वह पल भर में रक्तबीज जैसे शत्रुओं का मर्दन कर सकती है। इसलिए उसे गुप्त अबला व प्रसाद की श्रद्धा समझने की भूल मत करना। वह असीम- अनन्त साहस व विश्वास से आप्लावित है, जिसके शब्दकोष में असंभव शब्द नदारद है। इसलिए उसे छूने का साहस मत करना… वह सारी क़ायनात को जलाकर राख कर देगी और सृष्टि में हाहाकार मच जायेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खूबसूरती ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  खूबसूरती  

 

..लाल रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..पीले रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..सफेद रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..नीले रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..गुलाबी रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

“ऐसे मैसेज भेजता है रोज़। उसकी आँखों में कहीं ‘कलर ब्लाइंडनेस’ तो नहीं आ गया”, आशंकित होकर उसने अपनी सहेली से पूछा।

“बेवकूफ है तू। दरअसल खूबसूरती उसकी आँख में बसी हुई है”, सहेली ने गहरा साँस लेकर कहा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 9.50, 24.12.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 9 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 9 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

श्री रामचंद्रन ने गांधीजी से सरल भाव से पूंछा :  “ क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?

गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा : ‘ वैसा मैं कैसे कह सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत-कुरेदनी  भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, पर वह किसी ख़ास वर्ग की नहीं बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। कुछ गिने गिनाये लोगों के पास सम्पत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोडो की गर्दन पर कुछ लोगों के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रो के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण हैं वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। आज की इस चालू अर्थ-व्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी तमाम ताकत लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।

श्री रामचंद्रन ने आतुरता से पूंछा : ‘तब तो बापूजी, आपका झगड़ा यंत्रों के खिलाफ नहीं, बल्कि आज यंत्रों का जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके खिलाफ है?’

गांधीजी ने कहा : ‘ज़रा भी आनाकानी किये बिना मैं कहता हूँ कि ‘हाँ’। लेकिन मैं इतना जोड़ना चाहता हूँ कि सबसे पहले यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए। फिर मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जायेगा, और यंत्र रुकावट बनने के बजाय मददगार हो जायेंगे। मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है।

श्री रामचंद्रन ने कहा: ‘इस दलील को आगे बढ़ाएं तो उसका मतलब यह होता है कि भौतिक शक्ति से चलने वाले और भारी पेचीदा तमाम यंत्रों का त्याग करना चाहिए।‘

गांधीजी ने मंजूर करते हुए कहा: ‘त्याग करना भी पड़े। लेकिन एक बात मैं साफ़ करना चाहूँगा। हम जो कुछ करें उसमे मुख्य विचार इंसान के भले का होना चाहिए। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। इसलिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। जैसे सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा। आज की सब खोजों में जो बहुत काम की थोड़ी चीजें हैं, उनमे से एक यह सीने की मशीन है। उसकी खोज के पीछे अद्भुत इतिहास है। सिंगर ने अपनी पत्नी को सीने और बखिया लगाने का उकतानेवाला काम करते देखा। पत्नी के प्रति रहे उसके प्रेम ने गैर-जरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए सिंगर को ऐसी मशीन बनाने की प्रेरणा दी। ऐसी खोज करके उसने ना सिर्फ अपनी पत्नी का श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी सीने की मशीन खरीद सकते हैं, उन सबको हाथ से सीने के उबानेवाले श्रम से छुड़ाया है।‘

श्री रामचंद्रन ने कहा: ‘लेकिन सिंगर की सीने की मशीनें बनाने के लिए तो बड़ा कारखाना चाहिए और उसमे भौतिक शक्ति से चलने वाले यंत्रों का उपयोग करना पडेगा।‘

गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा : ‘हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुंचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुंचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं,उनमे से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था,इसलिए मानव-सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है कि मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लोहारों का तकुवे बनाने का काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढा हो जाय तब हरेक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए  लोभ की जगह हम प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।‘

महादेव हरी भाई देसाई इस चर्चा के समापन में लिखते हैं कि : ‘ मुझे नहीं लगता कि ऊपर के संवाद में गांधीजी ने जो कहा है, उसके बारे में इन आलोचनाओं में से किसी का सिद्धांत के दृष्टी में विरोध हो। देह की तरह यंत्र भी, अगर वह आत्मा के विकास में मदद करता हो तो, और जितनी हद तक मदद करता हो उतनी हद तक ही उपयोगी है।‘

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सच्चा फैसला ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

( आज प्रस्तुत है  श्रीमती छाया सक्सेना जी का एक विचारणीय  व्यंग्यात्मक किन्तु सत्य के धरातल पर रचित विचारणीय आलेख “सच्चा फैसला”. हम भविष्य में भी उनकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे.)

☆ सच्चा फैसला☆

जब भी सम्मान पत्र बँटते हैं, उथल -पुथल, गुट बाजी,  किसी भी संस्था का दो खेमों में बँट जाना स्वाभाविक होता है ।  कई घोषणाएँ सबको विचलित करने हेतु ही की जाती हैं  जिससे जो जाना चाहे चला जाए क्योंकि ये दुनिया तो  कर्मशील व्यक्तियों से भरी है ऐसा कहते हुए संस्था के एक प्रतिनिधि  उदास होते हुए माथे पर हाथ रखकर बैठ गए।

इस समूह में कुछ विशिष्ट जनों पर ही टिप्पणी दी जाती है, वही लोग आगे- आगे  बढ़कर  सहयोग करते दिखते हैं या नाटक करते हैं पता नहीं ।

क्या मेरा यह अवलोकन ग़लत है …?  मुस्कुराते हुए एक सामान्य सदस्य ने पूछा ।

वर्षो से संस्था के शुभचिन्तक रहे विशिष्ट सदस्य ने गंभीर मुद्रा अपनाते हुए, आँखों का चश्मा ठीक करते हुए कहा बहुत ही अच्छा प्रश्न है ।

सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु सभी कार्यों में तन मन धन से सहभागी बनें, सबकी सराहना करें, उन्हें सकारात्मक वचनों से प्रोत्साहित  करें, ऐसा करते ही सभी उत्तर मिल जाएंगे ।

सामान्य सदस्य ने कहा मेरा कोई प्रश्न ही नहीं, आप जानते हैं, मैं तो ….

अपना काम और जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाता हूँ । आगे जो समीक्षा कर रहा है कामों की वो जाने।

एक अन्य  विशिष्ट  सदस्य  ने कहा आप भी  कहाँ की  बात ले बैठे  ये तो सब खेल है कभी भाग्य, कभी कर्म का, बधाई पुरस्कृत होने के लिये आपका भी तो नाम है ।

आप हमेशा ही सार्थक कार्य करते हैं, आपके कार्यों का सदैव मैं प्रशंसक हूँ ।

तभी एक अन्य सदस्य  खास बनने की कोशिश करते हुए कहने लगा,  कुछ लोगों को गलतफहमी है मेरे बारे में, शायद पसंद नहीं करते ……मुँह बिचकाते हुए बोले,  मैं तो उनकी सोच बदलने में असमर्थ हूँ और समय भी नहीं  ये सब सोचने का….।

पर कभी कभी लगता है  चलिए  कोई बात नहीं ।

जहाँ लोग नहीं चाहते मैं रहूँ सक्रियता कम कर देता हूँ । जोश उमंग कम हुआ बस..।

सचिव महोदय जो बड़ी देर से सबकी बात सुन रहे थे  कहने लगे #इंसान की कर्तव्यनिष्ठा उसके कर्म सबको आकर्षित करते हैं। समयानुसार  सोच परिवर्तित  हो जाती है।

मुझे ही देखिये  कितने लोग पसंद करते हैं.. …. हहहहहह ।

अब भला संस्था के दार्शनिक महोदय भी  कब तक चुप रहते  कह उठे #जो_व्यक्ति_स्वयं_को_पसंद_करता_है उसे ही सब पसंद करते हैं ।

सामान्य सदस्य जिसने शुरुआत की थी बात काटते हुए कहने लगा शायद यहाँ वैचारिक भिन्नता हो ।

जब सब सराहते हैं  तो किये गए कार्य की समीक्षा और सही मूल्यांकन होता है तब खुद के लिये भी अक्सर पाजिटिव राय बनती है और बेहतर करने की कोशिश भी ।

दार्शनिक महोदय ने कहा दूसरे के अनुसार चलने से हमेशा दुःखी रहेंगे अतः जो उचित हो उसी अनुसार चलना चाहिए जिससे कोई खुश रहे न रहे कम से कम हम स्वयं तो खुश होंगे।

#सत्य_वचन, आज से आप हम सबके गुरुदेव हैं, सामान्य सदस्य ने कहा  ।

सभी ने #हाँ_में_हाँ मिलाते हुए फीकी  सी मुस्कान  बिखेर दी और अपने-अपने गंतव्य की ओर चल  दिए ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘ प्रभु 

जबलपुर (म.प्र.)
मो.- 7024285788

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #29 – संचार क्रांति ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संचार क्रांति”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 29 ☆

☆ संचार क्रांति

 

विगत वर्षो में संपूर्ण विश्व में संचार क्रांति हुई है. हर हाथ में मोबाइल एक आवश्यकता बन गया है, सरकार ने इसकी जरूरत को समझते हुये ही मोबाइल, टैब व पर्सनल कम्प्यूटर मुफ्त बांटने की योजनाये प्रस्तुत की हैं. मल्टी मीडिया मोबाइल पर  कैमरे की सुविधा तथा किसी भी भाषा में टिप्पणी लिखकर उसे सार्वजनिक या किसी को व्यक्तिगत संदेश के रूप में भेजने की व्यवस्था के चलते मोबाइल बहुआयामी बहुउपयोगी उपकरण बन चुका है.

इन नवीनतम संचार उपकरणो के द्वारा इंटरनेट के माध्यम से लगभग नगण्य व्यय पर सोशल मीडिया के माध्यम से लोग परस्पर संपर्क में रह सकते हैं. सोशल मीडिया के अनेकानेक साफ्टवेयर विकसित हुये हैं. २०० से अधिक सोशल साइटस् प्रचलन में हैं, किन्तु लोकप्रिय साइट्स फेसबुक, ट्विटर, माई स्पेस, आरकुट, हाई फाइव, फ्लिकर, गूगल प्लस, ड्यूओ, स्कैप। लिंकेड इन  आदि ही हैं. इन  के द्वारा लोग परस्पर संवाद करते रहते हैं. व्यक्तिगत या सामाजिक विषयो पर इन साइट्स पर बड़े बड़े लेखो की जगह छोटी टिप्पणियो या फोटो के माध्यम से लोग परस्पर वैचारिक आदान प्रदान करते रहते हैं. संपादन की बंदिशें नही होती. इधर लिखो और क्लिक करते ही समूचे विश्व में कहीं भी तुरंत संदेश प्रेषित हो जाता है. युवा पीढ़ी जो इन संसाधनो से यूज टू है, बहुतायत में इनका प्रयोग कर रही है. एक ही शहर में होते हुये भी परिचितो से मिलने जाना समय साध्य होता है, किन्तु इन सोशल साइट्स के द्वारा लाइव चैट के जरिये एक दूसरे को देखते हुये सीधा संवाद कभी भी किया जा सकता है, मैसेज छोड़ा जा सकता है, जिसे पाने वाला व्यक्ति अपनी सुविधा से तब पढ़ सकता है, जब उसके पास समय हो. इस तरह संचार के इन नवीनतम संसाधनो की उपयोगिता निर्विवाद है.

फिल्म सत्याग्रह कुछ समय पूर्व प्रदर्शित हुई, जिसमें नायक ने फेस बुक के माध्यम से जन आंदोलन खड़ा करने में सफलता पाई, इसी तरह चिल्हर पार्टी नामक फिल्म में भी बच्चो ने फेसबुक के द्वारा परस्पर संवाद करके एक मकसद के लिये आंदोलन खड़ा कर दिया था. फिल्मो की कपोल कल्पना में ही नही वास्तविक जीवन में भी विगत वर्ष मिस्र की क्राति तथा हमारे देश में ही अन्ना के जन आंदोलन तथा निर्भया प्रकरण में सोशल नेटवर्किंग साइटस का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. गलत इरादो से इन साइट्स के दुरुपयोग के उदाहरण भी सामने आये है, उदाहरण के तौर पर दक्षिण भारत से उत्तर पूर्व के लोगो के सामूहिक पलायन की घटना फेसबुक के द्वारा फैलाई गई भ्राति के चलते ही हुई थी.

कारपोरेट जगत ने मल्टी मीडिया की इस ताकत को पहचाना है. ग्राहको से सहज संपर्क बनाने के लिये फेसबुक व ट्विटर जैसे सोशल पोर्टल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है. विभिन्न कंपनियो ने अपने उत्पादो के लिये फेसबुक पर पेज बनाये हैं, जिन्हें लाइक करके कोई भी उन पृष्ठो पर प्रस्तुत सामग्री देख सकता है तथा अपना फीड बैक भी दे सकता है. इन कंपनियो ने बड़े वेतन पर प्राडक्ट की जानकारी रखने वाले, उपभोक्ता मनोविज्ञान को समझने वाले तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञ रखे हैं जो इन सोशल साइट्स के जरिये अपने ग्राहको से जुड़े रहते हैं व उनकी कठिनाईयो को हल करते हैं. तरह तरह की प्रतियोगिताओ के माध्यम से ये पेज मैनेजर अपने ग्राहको को लुभाने में लगे रहते हैं.

सरकारी संस्थानो में व्यापक रूप से इस तरह की उच्च स्तरीय पहल मोदी सरकार ने की है.  अनेक मंत्रियो व अधिकारियो ने अपने कार्य क्षेत्र में उत्साह से सोशल मीडिया के महत्व को समझते हुये इसके जन हित में उपयोग करने के प्रयास किये हैं. अनेक ऐसी परियोजनाये पुरस्कृत भी हुई हैं. फेसबुक की पारदर्शिता के कारण समस्यायें तथा निदान संबंधित अधिकारियो व उपभोक्ताओ के बीच साझा रहती हैं. फेस बुक पर प्राप्त सुझावो व समस्याओ के विश्लेषण से  क्षेत्र की समान समस्याओ की ओर सभी संबंधित अधिकारियो को सरलता से जानकारी मिल सकती है व उनका तुरंत निदान हो सकता है. फेसबुक की सदैव व सभी जगह उपलब्धता के कारण उपभोक्ता व नागरिको को सहज ही अपनी बात कहने का अधिकार मिल गया है. इस तरह सोशल मीडिया के उपयोग की अभिनव पहल से उपभोक्ता संतुष्टि का लक्ष्य कम से कम समय में ज्यादा पारदर्शिता तथा बेहतर तरीके से पाया जा सकेगा. फेसबुक के साथ ही चौबीस घंटे सुलभ टेलीफोन लाइनें एवं ईमेल के द्वारा भी  संपर्क करने की सुविधा भी शासन ने सुलभ की  है, अब गेद जनता की पाली में है. देखें कितना सार्थक होता है यह प्रयास.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #26 – प्रतिरूप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 26☆

☆ प्रतिरूप ☆

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरूआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’… ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’..’गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’…’बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ की संकीर्णता व्यक्ति को निर्लज्जता के पथ पर ढकेलती है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ,

बचपन में घोड़ा बनकर

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था,

दूसरे को सीढ़ी बनाकर

ऊँचाई हासिल करने के

गुरु से सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की

उसकी अदा पर इठलाता था,

जो बोया मेरी राह में अड़ा है

मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है,

बीज पर तो नियंत्रण कर लेता

वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से

नित लज्जित होना

मेरा समुचित दंड है।

 

(कविता संग्रह ‘योंही।’)

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा। इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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