(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय आलेख कैसे करें साहित्यिक समीक्षा ?। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 73 ☆
☆ कैसे करें साहित्यिक समीक्षा ? ☆
लेखन की विभिन्न विधाओ में एक समीक्षा भी है. हर लेखक समीक्षक नही हो सकता. जिस विधा की रचना की समीक्षा की जा रही है, उसकी व्यापक जानकारी तथा उस विधा की स्थापित रचनाओ का अध्ययन ही समीक्षा को स्तरीय बना सकता है.
समीक्षा करने के कई बुनियादी सिद्धांत हैं:
समीक्षा में रचना का गहन विश्लेषण, काम की सामग्री के संदर्भ में तर्क और इसके मुख्य विचार के बारे में संक्षिप्त निष्कर्ष की होना चाहिये.
विश्लेषण की गुणवत्ता समीक्षक के स्तर और क्षमताओं पर निर्भर करती है।
समीक्षक को भावनात्मक रूप से जुड़े बिना अपने विचारों को तर्कसंगत और तार्किक रूप से व्यक्त करना चाहिए. विश्लेषणात्मक सोच समीक्षक को समृद्ध बनाती है.
समीक्षा की जा रही रचना को बिना हृदयंगम किये जल्दबाजी में लिखी गई सतही समीक्षा न तो रचनाके साथ और न ही रचनाकार के साथ सही न्याय कर सकती है. समीक्षा पढ़कर रचना के गुणधर्म के प्रति प्रारंभिक ज्ञान पाठक को मिलना ही चाहिये, जिससे उसे मूल रचना के प्रति आकर्षण या व्यर्थ होने का भाव जाग सके. यदि समीक्षा पढ़ने के बाद पाठक मूल रचना पढ़ता है और वह मूल रचना को समीक्षा से सर्वथा भिन्न पाता है तो स्वाभाविक रूप से समीक्षक से उसका भरोसा उठ जायेगा, अतः समीक्षक पाठक के प्रति भी जबाबदेह होता है. समीक्षक रचना का उभय पक्षीय वकील भी होता है और न्यायाधीश भी.
पुस्तक समीक्षा महत्वपूर्ण आलोचना है और इसका एक उद्देश्य रचनाकार का संक्षिप्त परिचय व रचना का मूल्यांकन भी है, विशेष रूप से जिनके बारे में आम पाठक को कुछ भी पता नहीं है.
पुस्तक समीक्षा लिखने में कई सामान्य गलतियाँ हो रही हैं
मूल्यांकन में तर्क और उद्धरणों का अभाव
कथानक के विश्लेषण का प्रतिस्थापन
मुख्य सामग्री की जगह द्वितीयक विवरण ओवरलोड करना
पाठ के सौंदर्यशास्त्र की उपेक्षा
वैचारिक विशेषताओं पर ध्यान न देना
मुंह देखी ठकुर सुहाती करना
रचनात्मक काम का मूल्यांकन करते समय, समीक्षक को विषय प्रवर्तन की दृढ़ता और नवीनता पर भी ध्यान देना चाहिए. यह महत्वपूर्ण है कि रचना समाज के निर्माण व मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों के लिये, जो साहित्य की मूलभूत परिभाषा ही है कितनी खरी है.इन बिन्दुओ को केंद्र में रखकर यदि समीक्षा की जावेगी तो हो सकता है कि लेखक सदैव त्वरित रूप से प्रसन्न न हो पर वैचारिक परिपक्वता के साथ वह निश्चित ही समीक्षक के प्रति कृतज्ञ होगा, क्योंकि इस तरह के आकलन से उसे भी अपनी रचना में सुधार के अवसर मिलेंगे. समीक्षक के प्रति पाठक के मन में विश्वास पैदा होगा तथा साहित्य के प्रति समीक्षक सच्चा न्याय कर पायेगा.
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
आदरणीय श्री अरुण डनायक जी ने गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर 02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)
☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर विशेष ☆
☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 18 – यही तो पवित्र दान है ☆
खादी-यात्रा के समय दक्षिण के बाद गांधीजी उड़ीसा गये थे ।
घूमते-घूमते वे ईटामाटी नाम के एक गांव में पहुंचे । वहां उनका व्याख्यान हुआ और उसके बाद, जैसा कि होता था, सब लोग चंदा और भेंट लेकर आये । प्रायः सभी स्थानों पर रुपया-पैसा और गहने आदि दिये जाते थे, लेकिन यहां दूसरा ही दृश्य देखने में आया । कोई व्यक्ति कुम्हड़ा लाया था, कोई बिजोरा, कोई बैंगन और कोई जंगल की दूसरी भाजी । कुछ गरीबों ने अपने चिथड़ों में से खोल खोलकर कुछ पैसे दिये ।
काकासाहब कालेलकर घूम-घूमकर पैसे इकट्ठे कर रहे थे । उन पैसों के जंग से उनके हाथ हरे हो गये । उन्होंने अपने हाथ बापू को दिखलाये । वे कुछ कह न सके, क्योंकि उनका मन भीग आया था । उस क्षण तो गांधीजी ने कुछ नहीं कहा । उस दृश्य ने मानों सभी को अभिभूत कर दिया था । अगले दिन सवेरे के समय दोनों घूमने के लिए निकले । रास्ता छोड़कर वे खेतों में घूमने लगे । उसी समय गांधीजी गम्भीर होकर बोले,”कितना दारिद्र्य और दैन्य है यहां! क्या किया जाये इन लोगों के लिए ? जी चाहता है कि अपनी मरण की घड़ी में यहीं आकर इन लोगों के बीच में मरूं । उस समय जो लोग मुझसे मिलने के लिए यहां आयेंगे, वे इन लोगों की करुण दशा देखेंगे । तब किसी-न-किसी का हृदय तो पसीजेगा ही और वह इनकी सेवा के लिए यहां आकर बस जायेगा ।” ऐसा करुण दृश्य और कहीं शायद ही देखने को मिले ।
लेकिन जब वे चारबटिया ग्राम पहुंचे तो स्तब्ध रह गये । सभा में बहुत थोड़े लोग आये थे । जो आये थे उनमें से किसी के मुंह पर भी चैतन्य नहीं था, थी बस प्रेत जैसी शून्यता । गांधीजी ने यहां भी चन्दे के लिए अपील की । उन लोगों ने कुछ-न-कुछ दिया ही, वही जंग लगे पैसे । काकासाहब के हाथ फिर हरे हो गये । इन लोगों ने रुपये तो कभी देखे ही नहीं थे । तांबे के पैसे ही उनका सबसे बड़ा धन था । जब कभी उन्हें कोई पैसा मिल जाता तो वे उसे खर्च करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे । इसीलिए बहुत दिन तक बांधे रहने या धरती मैं गाड़ देने के कारण उस पर जंग लग जाता था । काकासाहब ने कहा, “इन लोगों के पैसे लेकर क्या होगा?”
गांधीजी बोले,” यही तो पवित्र दान है. यह हमारे लिए दीक्षा है । इसके द्वारा इन लोगों के हृदय में आशा का अंकुर उगा है । यह पैसा उसी आशा का प्रतीक है. इन्हें विश्वास हो गया है कि एक दिन हमारा भी उद्धार होगा ।”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है राजभाषा माह के परिपेक्ष्य में स्थानीय / आंचलिक भाषा पर आधारित एक ज्ञानवर्धक लेख “भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज ☆
किसी भी भाषा की संरचना का मूल आधार व्याकरण है बिना व्याकरण के ज्ञान के न तो कोई भाषा शुद्ध रूप से लिखी जा सकती है न बोली जा सकती है न पढ़ी जा सकती है। भाषा साहित्य के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। व्याकरण के ज्ञान द्वारा ही त्रुटिहीन लेखन वाचन संभव होता है। जिस भाषा का प्रसार राष्ट्रीय स्तर पर होता है वह राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त करती है। जो भाषा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लिखी पढ़ी बोली जाती है उसे अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त होता है। लेकिन राष्ट्र भाषा के साथ आंचलिक भाषा जिसे मातृभाषा कहते हैं भी बोली लिखी पढ़ी जाती है।
मातृभाषा का ज्ञान बच्चा बिना व्याकरण ज्ञान के मात्र माता पिता तथा परिवार से सुनकर अथवा बोल कर प्राप्त करता है। क्षेत्रीय भाषा के साथ आंचलिक भाषा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, आंचलिक भाषा का प्रभाव शब्दों के उच्चारण तथा बोलने के अंदाज में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से बिहार के भोजपुर तक बोली जाने वाली आंचलिक भाषा को भोजपुरी भाषा कहते हैं जो भोजपुरिया समाज द्वारा लिखी पढ़ी व बोली जाती है । जिसका असर राष्ट्रभाषा पर पड़ता है जो क्षेत्रीय अंचल के साथ बदलती चली जाती जैसे पूर्वांचल में भोजपुरी, अवध में अवधी, मथुरा में ब्रज भाषा के रूप में बोली जाती है। या यूं कह लें, वह क्षेत्रीय लोक कलाओं, लोक संस्कृति तथा लोक संस्कारों का मातृभाषा पर गहरा असर दीखता है । जैसे राम-सीता तथा राधा-कृष्ण के कथा चरित्र पर आंचलिक भाषा का प्रभाव दिखता है। भाषा ज्ञान बच्चा बिना पढ़े लिखे मात्र सुनकर समझ कर भी बोल कर भी कर सकता है। आंचलिक भाषा की आत्मा उसकी लोक रीतियां लोक परंपराये तथा उनमें पलने वाली लोक संस्कृति ही आंचलिक भाषा को सुग्राह्य तथा समृद्ध बनाती है ।
तभी तो आंचलिक स्तर पर बोली जाने वाली भाषा भाव से समृद्ध होती है उसकी संस्कृति में रचा बसा माधुर्य लोक विधाओं का माधुर्य बन प्रस्फुटित होता है, जो अंततोगत्वा विधाओं की प्राण चेतना बन लोक साहित्य तथा लोक धुनों के रूप में अपने आकर्षण के मोहपाश में बांध लेता ह तथा श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। जो कभी आल्हा, कभी कजरी, कभी चैता के रूप में आम जन के मानस पर गहरी छाप छोड़ता है। कभी बारह मासा, कभी विदेशिया के रूप दृष्टिगोचर होता है। गो ० तुलसी साहित्य जो मुख्यत: अवधी ब्रज संस्कृति तथा भोजपुरी-मैथिली आदि के सामूहिक रूप का दर्शन कराता है तो वहीं सूर साहित्य पूर्ण रूप से ब्रज भाषा पर आधारित है। जिसके संम्मोहन से कोई बच नहीं सकता, भर्तृहर-चरित्र, कृष्ण-सुदामा चरित आज भी अपने कारुणिक प्रसंग के चलते श्रोताओं की आंख में पानी भर देता है। भोजपुरी भाषा को उसके भावों को न समझने वाला भी उसे गुनगुना लेता है, एक छोटा सा उदाहरण देखे—–
गवना कराई पियवा गइले बिदेशवा,
भेजले ना कवनो सनेश।
नेहिया के रस बोरी, पिरीति के डोरि तोरी।
गईले भुलाई आपन देश।
पुरूआ के गरदी से जरदी चनरमा पे,
देहिया के टूटे पोरे पोर।
घरवा में सेजिया पे तरपत तिरियवा,
दुखवा के नाही ओर छोर।
वहीं पर दूसरा उदाहरण देखे——
बगिया में गूजेला कोइलिया के बोलियां,
खेतवा में बिरहा के तान ।
अंग अंग गोरिया के बंसरी बजावे रामा,
लोगवा के डोलेला ईमान ।
नखरा गोरकी पतरकी अजब करें हो,
जब नियरे बोलाई अब तब करें हो ।
अथवा —-जोगी जी धीरे धीरे ,नदी के तीरे तीरे, का नशा अभी भी लोगों की स्मृतियों में हावी है जिसे सुनते सुनते आम जनमानस गुनगुना उठता है । इसी तरह तमाम आंचलिक भाषायें अपनी संस्कृति का साहित्य तमाम क्षेत्रीय घटनाक्रम क्षेत्रीय साहित्य के कथा कोष को समृद्ध करने का काम करती हैं। आत्मसौंदर्य समेटे लोकसंस्कृति तथा लोक विधाओं का ध्वज वाहक बनी दीखती है। तोता मैना, शीत बसंत, सोरठी बृजाभार की कहानियां आज भी उसी चाव से कही सुनी जाती हैं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़। इस गंभीर विमर्श को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 63 ☆
☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆
अल्फ़ाज़ जो कह दिया/ जो कह न सके जज़्बात/ जो कहते-कहते कह ना पाए अहसास। अहसास वह अनुभूति है, जिसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। जिस प्रकार देखती आंखें हैं, सुनते कान हैं और बयान जिह्वा करती है। इसलिए जो हम देखते हैं, सुनते हैं, उसे यथावत् शब्दबद्ध करना मानव के वश की बात नहीं। सो! अहसास हृदय के वे भाव हैं, जिन्हें शब्द रूपी जामा पहनाना मानव के नियंत्रण से बाहर है। अहसासों का साकार रूप हैं अल्फ़ाज़, जिन्हें हम बयान कर देते हैं… वास्तव में ही सार्थक हैं। वे जज़्बात, जो हृदय में दबे रह गए, वे अस्तित्वहीन हैं, नश्वर हैं… उनका कोई मूल्य नहीं। वे किसी की पीड़ा को शांत कर, सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं; वे निष्फल व निष्प्रयोजन हैं। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का वह दोहा…’ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ के द्वारा मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया गया है, जिस से दूसरों के हृदय की पीड़ा शांत हो सके। मानव को अपना मुख तभी खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों। यथासमय सार्थक वाणी का उपयोग सर्वोत्तम है। मानव के शब्दों व अल्फाज़ों में वह सामर्थ्य होनी चाहिए कि सुनने वाला उसका क़ायल हो जाए, मुरीद हो जाए। जैसाकि सर्वविदित है, शब्द-रूपी बाणों के घाव कभी भर नहीं सकते, वे आजीवन सालते रहते हैं। इसलिए मौन को नवनिधि के समान उपयोगी व प्रभावकारी बताया गया है। चेहरा मन का आईना होता है और अल्फ़ाज़ हृदय के भावों व मन:स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं। सो! जैसी हमारी मनोदशा होगी, वैसे हमारे अल्फ़ाज़ होंगे। इसीलिए कहा जाता है, यदि आप गेंद को ज़ोर से उछालोगे, तो वह उतनी ऊपर जाएगी। यदि हम जलधारा में विक्षेप उत्पन्न करते हैं, वह उतनी ऊपर की ओर जाएगी। यदि हृदय में क्रोध के भाव होंगे, तो अहंनिष्ठ प्राणी दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म व राग-द्वेष में हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होगी। जैसे शब्द हमारे मुख से प्रस्फुटित होंगे, वैसा उनका प्रभाव होगा। शब्दों में बहुत सामर्थ्य होता है। वे पल-भर में दोस्त को दुश्मन व दुश्मन को दोस्त बनाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मानव को अपने भावों को सोच-समझ कर अभिव्यक्त करना चाहिए।
तूफ़ान में किश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं।ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध की बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। मानव को मुसीबत में साहस व धैर्य को बनाए रखना चाहिए; अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही अभिमान को भी स्वयं से कोसों दूर रखना चाहिए। यह अकाट्य सत्य है कि वे ही उस मुक़ाम पर पहुंचते हैं, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन में विश्वास करते हैं। मुसीबतें तो सब पर आती हैं–कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है और जो आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखता है, सभी आपदाओं पर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। स्वेट मार्टन का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है…’केवल विश्वास ही हमारा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल पर पहुंचा देता है।’ शायद इसीलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत पर बल दिया है। यह वाक्य मानव में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, क्योंकि एकांत में रह कर विभिन्न रहस्यों का प्रकटीकरण होता है और इंसान उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त होता है। इसीलिए मानव को मुसीबत की घड़ी में इधर-उधर न झांकने का संदेश प्रेषित किया गया है।
सुंदर संबंध वादों व शब्दों से जन्मते नहीं, बल्कि दो अद्भुत लोगों द्वारा स्थापित होते हैं…जब एक अंधविश्वास करे और दूसरा उसे बखूबी समझे। जी हां! संबंध वह जीवन-रेखा है, जहां स्नेह, प्रेम, पारस्परिक संबंध, अंधविश्वास और मानव में समर्पण भाव होता है। संबंध विश्वास की स्थिति में ही शाश्वत हो सकते हैं, अन्यथा वे भुने हुए पापड़ के समान पल भर में टूट सकते हैं व ज़रा-सी ठोकर लगने पर कांच की भांति दरक़ सकते हैं। सो! अहं संबंधों में दरार ही उत्पन्न नहीं करता, उन्हें समूल नष्ट कर देता है। इगो (EGO) शब्द तीन शब्दों का मेल है, जो बारह शब्दों के रिलेशनशिप ( RELATIONSHIP) अर्थात् संबंधों को नष्ट कर देता है। दूसरे शब्दों में अहं चिर-परिचित संबंधों में सेंध लगा हर्षित होता है; फूला नहीं समाता और एक बार उनमें दरार पड़ने के पश्चात् उसे पाटना अत्यंत दुष्कर ही नहीं, असंभव होता है। इसीलिए मानव को बोलने से तोलने अर्थात् सोचने-विचारने की सीख दी जाती है। ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है, उसके संबंध सबके साथ सौहार्दपूर्ण बने रहते हैं और वह कभी भी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता।
मित्रता, दोस्ती व रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है। लगाव दिल से होना चाहिए; दिमाग से नहीं। यहां सम्मान से तात्पर्य उसकी सुंदर-सार्थक भावाभिव्यक्ति से है। भाव तभी सुंदर होंगे, जब मानव की सोच सकारात्मक होगी और आपके हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होगा। इसलिए मानव को सदैव सर्वहिताय व अच्छा सोचना चाहिए, क्योंकि मानव दूसरों को वही देता है जो उसके पास होता है। शिवानंद जी के मतानुसार ‘संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं। जो मनुष्य इस विशेष गुण से संपन्न है, त्रिलोक में सबसे बड़ा धनी है।’ रहीम जी ने भी कहा है, ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ इसके लिए आवश्यकता है… आत्म-संतोष की, जो आत्मावलोकन का प्रतिफलन होता है। इसी संदर्भ में मानव को इन तीन समर्थ, शक्तिशाली व उपयोगी साधनों को कभी न भूलने की सीख दी गई है…प्रेम, प्रार्थना व क्षमा। मानव को प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और प्रभु से उनके हित प्रार्थना करनी चाहिए। जीवन में क्षमा को सबसे बड़ा गुण स्वीकारा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात्’ अर्थात् बड़ों को सदैव छोटों को क्षमा करना चाहिए। बच्चे तो स्वभाव-वश नादानी में ग़लतियां करते हैं। वैसे भी मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। अक्सर मानव को दूसरों में सदैव ख़ामियां-कमियां नज़र आती हैं और वह मंदबुद्धि स्वयं को गुणों की खान समझता है। परंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत होती है। मानव स्वयं में तो सुधार करना नहीं चाहता; दूसरों से सुधार की अपेक्षा करता है। यह तो चेहरे की धूल को साफ करने के बजाय, आईने को साफ करने के समान है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं, जो आपको उन्नति करते देख आपके नीचे से सीढ़ी खींचने में विश्वास रखते हैं। मानव को ऐसे लोगों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि ‘ढूंढना है तो परवाह करने वालों को ढूंढिए, इस्तेमाल करने वाले तो खुद ही आपको ढूंढ लेंगे।’ परवाह करने वाले लोग आपकी अनुपस्थिति में भी सदैव आपके पक्षधर रहेंगे तथा मुसीबत में आपको पथ-विचलित नहीं होने देंगे, बल्कि आपको थाम लेंगे। परंतु यह तभी संभव होगा, जब आपके भाव व अहसास उनके प्रति सुंदर होंगे और आपके ज़ज़्बात समय-समय पर अल्फ़ाज़ों के रूप में उनकी प्रशंसा करेंगे। जब आपके संबंधों में परिपक्वता आ जाती है, आप के मनोभाव आपके साथी की ज़ुबान बन जाते हैं… तभी यह संभव हो पाता है। सो! अल्फ़ाज़ वे संजीवनी हैं, जो संतप्त हृदय को शांत कर सकते हैं; दु:खी मानव का दु:ख हर सकते हैं और हताश-निराश प्राणी को ऊर्जस्वित कर, उसकी मंज़िल पर पहुंचा देते हैं। अच्छे व मधुर अल्फ़ाज़ रामबाण हैं, जो दैहिक, दैविक, भौतिक अर्थात् त्रिविध ताप से मानव की रक्षा करते हैं।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि“. )
☆ किसलय की कलम से # 16 ☆
☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि☆
एक सामाजिक प्राणी होने के कारण ही मनुष्य गाँवों और शहरों में एक साथ निवास करता है। मनुष्य अकेला रहकर सुरक्षित वह सुखमय जीवन यापन नहीं कर सकता। समाज में रहते हुए परस्पर आवश्यकताओं के विनिमय तथा सहयोग से ही मानव आज प्रगति की अकल्पनीय ऊँचाई पर पहुँच चुका है। इन गावों और नगरों से ही बने देश में हम एक प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत जीवन यापन करते हैं। हमारा देश भारत व्यापक भौगोलिक सीमा तथा विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। हमारे देश की संस्कृति, आचार-विचार, जीवनशैली, प्राकृतिक-परिवेश एवं वर्ण-व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं के कारण अन्य देशों से भिन्न है। रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथों में हमारी ऐसी अनेक विशेषताओं का विस्तृत वर्णन मिलता है जहाँ अपने परिवार, परमार्थ, अपने समाज व अपने देश की आन-बान-शान को सर्वोच्च स्थान प्रदत्त है। समाज कल्याण व देशहित के ऐसे हजारों-हजार उदाहरण हैं, जिन्हें आज भी हम ग्रंथों, काव्यों, पुस्तकों, लोकोक्तियों, मुहावरों सुभाषितों, नृत्य-नाटकों और अब रेडियो टी.वी. तथा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं, देख और सुन भी सकते हैं।
सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर युग के राजा-महाराजाओं, ऋषि-मुनियों, विशिष्ट तथा आम लोगों द्वारा अपने समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन के जो कीर्तिमान स्थापित किए गए वे विश्व में अन्यत्र कहीं दिखाई या सुनाई नहीं देते। तत्पश्चात इस कलयुग में भी देशभक्त व जनहितैषी राजा-महाराजाओं, दिशादर्शकों एवं समाजसुधारकों की एक लंबी श्रृंखला है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, महारानी लक्ष्मीबाई जैसे पूजनीय और चिरस्मरणीय व्यक्तित्वों का नाम आते ही सीना फूल जाता है। श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। देश और समाज के प्रति निर्वहन किए गए उनके कर्त्तव्य याद आते ही हम बौनेपन का अनुभव करने लगते हैं। उनके सामने तराजू के पासंग के बराबर भी स्वयं को नहीं पाते।
आखिर हममें इतना बदलाव कैसे आ गया? क्या केवल इसलिए कि आज हम एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं? क्या राष्ट्र निर्माण, राष्ट्र प्रगति और सामाजिक व्यवस्था की संपूर्ण जवाबदेही केवल शासन-प्रशासन की है? क्या हमें अपने और अपने परिवार के आगे किसी और के विषय में सोचना ही नहीं चाहिए? क्या समाज और राष्ट्र के प्रति हमारे कोई दायित्व नहीं हैं? सच तो यही है कि अधिकांश लोगों की सोच कुछ ऐसी ही बन चुकी है। उन्हें न तो समाज हित दिखाई देता है और न ही राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निर्वहन। इन सब के पीछे अनेक तथ्यों को गिनाया जा सकता है। किसी भी तथ्य को जानने के लिए उसके दोनों पहलुओं अथवा पक्षों का जानना अति आवश्यक होता है। सीधी सी बात है कि मिठास, अच्छाई और प्रेम को भलीभाँति तभी समझा जा सकता है जब हमें कड़वाहट, बुराई और घृणा के बारे में भी जानकारी हो। यदि मानव ने ये स्वयं भोगे हों अथवा अनुभव किया हो तो उन सबके मूल्यों को वह अच्छी तरह से समझ सकता है।
आज स्वतंत्रता पूर्व के उन लोगों का बहुत कम प्रतिशत बचा है जिन्होंने अपनी आँखों से अंग्रेजों के अत्याचार और स्वातंत्र्य वीरों की गतिविधियों एवं बलिदान को देखा या सुना है। यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि ऐसे अधिकांश लोगों को आजादी की कीमत और महत्त्व भलीभाँति स्मृत होगा। आजादी के लम्बे आंदोलन तथा अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचारों की पराकाष्ठा ने मानवता की जो धज्जियां उड़ाई थीं, उसकी कल्पना मात्र भी आज की पीढ़ी को असहज कर सकती है।
हर इंसान इस सच्चाई को जानता है कि उसे एक न एक दिन सब कुछ छोड़कर मरना ही है, फिर भी वह निजी हितों के आगे सब कुछ भुला देता है। आज हमारे जीवनचर्या की भी अजीब विडंबना है। पहले हम अपनी सुख-शांति की चाह में उद्योग-धंधे, कोठियाँ और गाड़ियाँ खड़ी करने हेतु दिन-रात पैसे कमाने में जुटे रहते हैं, लेकिन सब कुछ मिल जाने के बाद कभी रात में नींद नहीं आती, तो कभी छप्पन भोग की व्यवस्था होने पर भी कुछ खा नहीं पाते। अनेक लोग कहीं शुगर से, कहीं हृदयाघात से और कहीं रक्तचाप जैसी बीमारियों से जूझते देखे जा सकते हैं। उनकी सारी धन-दौलत तथा सुख-संपन्नता किसी कोने में धरी की धरी रहती है।
आज एक ऐसा शोषक वर्ग बढ़ता जा रहा है जो गरीब, मजदूर व कमजोरों की रोजी-रोटी, लघु उद्योग एवं मजदूरी तक छीन रहा है। पहले ऐसे बहुत कुछ जरूरत के सामान व सामग्री हुआ करती थी, जो यह गरीब तबका बनाकर अपनी रोजी-रोटी चला लेता था, लेकिन आज अधिकतर वही चीजें निर्माणियों में बनने लगी हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बहुत बड़ी संख्या में मजदूर बेरोजगारी की कगार पर खड़े हो गये हैं। क्या समाज के इस दीन-हीन वर्ग के हितार्थ ये धनाढ्य आगे नहीं आ सकते? आखिर आएँगे भी कैसे। बड़े से और बड़े होने की महत्वाकांक्षा जो इनके आड़े आ जाती है। इन पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोगों को समाज के प्रति इनके दायित्वों को भला कौन समझाने की जुर्रत करेगा?
आज की राजनीति बिना पैसों के असंभव है। एक साधारण व्यक्ति सारी जिंदगी छुटभैया नेता बनकर रह जाता है। एक ईमानदार, चरित्रवान, सामाजिक सरोकार में रुचि रखने वाले नेता का वर्तमान में कोई भविष्य नहीं है। धनाढ्यों की संतानें पीढ़ी दर पीढ़ी देशप्रेम और देशहित की दुहाई दे देकर राजनीति करते रहते हैं। देश के प्रति समर्पण की भावना या समाज के प्रति अपने दायित्व निर्वहन का तो इनके पास समय ही नहीं रहता। अरबों-खरबों की धन दौलत वाले भी दिखावे के लिए ही समाज सेवा का ढोंग रचते देखे गए हैं। ऐसे देशहितैषी और समाजहितैषी धनाढ्यों को बहुत कम ही देखा गया है जो निश्छल भाव से अपनी कमाई का कुछ अंश देश और समाज हित में लगाते हैं।
आज की पीढ़ी को व्यवसाय आधारित शिक्षा ग्रहण करने हेतु जोर दिया जाता है। इसमें न रिश्ते होते हैं, न मान-मर्यादा का पाठ, न व्यावहारिक ज्ञान और न ही कर्त्तव्य बोध। जब शिक्षा ही केवल व्यवसाय और नौकरी के लिए होगी तब शेष व्यावहारिक संस्कार और कर्त्तव्यों को कौन सिखाएगा। उद्योग, व्यवसाय अथवा नौकरी पेशा माता-पिता तो सिखाएँगे नहीं, क्योंकि उनके पास अपनी संतानों के लिए भी इतना वक्त नहीं होता कि वे उनको स्नेह, लाड़-प्यार व अच्छी सीख दे सकें। रही सही अच्छी बातें जो आजा-आजी व नाना-नानी सिखाया करते थे तो उन लोगों से इन बच्चों का वर्तमान समय में मिलना-जुलना ही बहुत कम होता है। सही कहा जाए तो इन बच्चों के माँ-बाप स्वयं उनके आजा-आजी या नाना-नानी के पुराने विचारों व संस्कारों को सिखाने उनके पास रहने का अवसर ही नहीं देते। अब आप ही सोचें, जब बच्चों को कोई बड़े बुजुर्ग उन्हें धर्म, संस्कृति और संस्कारों की बात नहीं सिखाएगा, विद्यालयीन और महाविद्यालयीन अध्ययन के पश्चात बच्चे जब सीधे उद्योग-धंधों अथवा नौकरियों में चले जायेंगे तब वे हमारे इतिहास, हमारी समृद्ध संस्कृति, सामाजिक उत्तरदायित्व व देशप्रेम को कैसे समझेंगे।
इसे हम आज की एक बड़ी भूल या कमी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यथार्थता के धरातल पर देखा जाए तो निश्चित रूप से यह हमारे समाज व हमारे देश के लिए एक घातक बीमारी से कम नहीं है। हमारे पास सुखी व शांतिपूर्ण जीवन यापन हेतु साधन उपलब्ध हों। हमारी संताने भविष्य में सुखी-संपन्न जीवन यापन कर सकें, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन इससे भी आगे हम लालसा करें तो क्या यह उचित होगा? हमें परोपकार, समाज सेवा, तथा देशहित में कर्त्तव्य परायणता अन्तस में जगाना होगी। उक्त बातें कड़वी जरूर है लेकिन शांतचित्त और निश्चल भाव से सोचने पर सच ही लगेंगी। हम सबको खासतौर पर आजादी के बाद जन्म लेने वालों को स्वयं तथा अपनी संतानों में ऐसे भाव जाग्रत करने की आवश्यकता है, जिससे हम व हमारी संतानों में समाज एवं राष्ट्र के प्रति दायित्व निर्वहन की रुचि प्रमुखता से दिखाई दे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का राजभाषा माह के अंतर्गत एक विशेष आलेख भाषायें अनुपूरक होती हैंं । इस विचारणीय समसामयिक आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 72 ☆
☆ राजभाषा विशेष – भाषायें अनुपूरक होती हैंं ☆
चरित्र प्रमाण पत्र का अपना महत्व होता है, स्कूल से निकलते समय हमारे मा
संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है. स्वाधीनता आन्दोलन के सहभागी रहे हमारे नेता जिनके प्रयासो से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया आखिर क्यो चाहते थे कि हिन्दी केन्द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? स्पष्ट है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी. उन मनीषियो ने एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से तत्कालीन राजकीय संपर्क भाषा अंग्रेजी का पिछलग्गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो. यही स्वराज अर्थात अपने ऊपर अपना ही शासन की अवधारणा की संकल्पना भी थी. इस कल्पना में आज भी वही शक्ति है. इसमें आज भी वही राष्ट्रीयता का आकर्षण है.
आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है. आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे, आज साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ा है. इस बीच भारत की आबादी भी बहुत अधिक बढ़ी है,अर्थात आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं.
हिन्दी आज ३० से अधिक देशो में ८० करोड़ लोगो की भाषा है.विश्व हिन्दी सम्मेलन सरकारी रूप से आयोजित होने वाला हिन्दी पर केंद्रित महत्वपूर्ण आयोजन है. यह सम्मेलन प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मारीशस में आयोजित हो रहा है.वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विविध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई है । हिन्दी को वैश्विक सम्मान दिलाने की परिकल्पना को पूरा करने की दिशा में विश्वहिन्दी सम्मेलनो की भूमिका निर्विवाद है.
सम्मेलन में विश्व भर से हि्दी अनुरागी भाग लेते हैं. जिनमें गैर हिन्दी मातृ भाषी ‘हिन्दी विद्वान’ भी शामिल होते हैं। 1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से संपन्न हुआ था, जिसमें विनोबा जी ने हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किये जाने हेतु संदेश भेजा था. उसके बाद मॉरीशस, ट्रिनिदाद एवं टोबैको, लंदन, सूरीनाम में ऐसे सम्मेलन हुए। इनमें से कम से कम चार सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप स्थान दिलाये जाने संबंधी प्रस्ताव पारित भी हुए.
यह सम्मेलन प्रवासी भारतीयों के लिए बेहद भावनात्मक आयोजन होता है. क्योंकि भारत से बाहर रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वे जिस समर्पण और स्नेह से भूमिका निभाते हैं उसकी मान्यता और प्रतिसाद भी उन्हें इसी सम्मेलन में मिलता है. निर्विवाद रूप से देश से बाहर और देश में भी हम सब को एकता के सूत्र में जोड़ने में हिन्दी की व्यापक भूमिका है. अनेक हिन्दी प्रेमियो के द्वारा निजी व्यय व व्यक्तिगत प्रयासो से विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे सरकारी आयोजनो के साथ ही समानान्तर प्रयास भी किये जा रहे हैं. स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता तथा सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य के लिए अवसर उपलब्ध कराना भी ऐसे आयोजनो का उद्देश्य है. इस तरह के प्रयास समर्पित हिन्दी प्रेमियो का एक यज्ञ हैं. विश्व हिन्दी सम्मेलनो की प्रासंगिकता हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करने में है.प्रायः ऐसे सम्मेलनो में हिस्सेदारी और सहभागिता प्रश्न चिन्ह के घेरे में रहती है क्योकि लेखक, रचनाकार, साहित्यकार होने के कोई मापदण्ड निर्धारित नही किये जा सकते. सत्ता पर काबिज लोग अपने लोगो को हिन्दी के ऐसे पवित्र यझ्ञ के माध्यम से उपकृत करने से नही चूकते.यही हाल हिन्दी को लेकर सरकारी सम्मानो और पुरस्कारो का भी रहता है. वास्तविक रचनाधर्मी अनेक बार स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है. अस्तु.
शहरों, छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज मोबाइल के माध्यम से इन्टरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस नये संपर्क माध्यम को हिन्दी सक्षम बनाना, हिन्दी में तकनीकी, भाषाई, सांस्कृतिक जानकारियां इंटरनेट पर सुलभ करवाने के व्यापक प्रयास आवश्यक हैं. सरल हिंदी के माध्यम से विद्यार्थियों, शिक्षकों, व्यापारियों एवं जन सामान्य हेतु व्यापार के नए आयाम खोज रहे हर एक हिंदी भाषी भारतीय का न सिर्फ ज्ञान वर्धन बल्कि एक सफल भविष्य-वर्धन अति आवश्यक है. विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ व्यापारियों ने एक छोटी सी सोच को बड़ा व्यापार बनाया है. भाषा का इसमें बड़ा योगदान रहा है. चिंतन मनन हिन्दी के अनुकरण प्रयोग को बढ़ावा देने, विचारों को जागृत करना ही विश्व हिन्दी सम्मेलनो, हिन्दी दिवस के आयोजनो का मूल उद्देश्य है.
प्रायः जब भी हिन्दी की बात होती है तो इसे अंग्रेजी से तुलनात्मक रूप से देखते हुये क्षेत्रीय भाषाओ की प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह धारणा नितांत गलत है. आपने कभी भी हाकी और फुटबाल में, क्रिकेट और लान टेनिस में या किन्ही भी खेलो में परस्पर प्रतिद्वंदिता नही देखी होगी. सारे खेल सदैव परस्पर अनुपूरक होते हैं, वे शारीरिक सौष्ठव के संसाधन होते हैं, ठीक इसी तरह भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं, वे संस्कृति की संवाहक होती हैं वे परस्पर अनुपूरक होती हैंं प्रतिद्वंदी तो बिल्कुल नही यह तथ्य हमें समझने और समझाने की आवश्यकता है. इसी उदार समझ से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वास्तविक दर्जा मिल सकता है.
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
आदरणीय श्री अरुण डनायक जी ने गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर 02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)
☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर विशेष ☆
☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 17 – मैं फरिश्ता नहीं, छोटा सा सेवक हूँ ☆
नोआखली-यात्रा के समय की बात है । गांधीजी चलते-चलते एक गांव में पहुंचे ।
वहां किसी परिवार में नौ-दस वर्ष की एक लड़की बहुत बीमार थी । उसके मोतीझरा निकला था । उसी के साथ निमोनिया भी हो गया था । बेचारी बहुत दुर्बल हो गई थी । मनु को साथ लेकर गांधीजी उसे देखने गये । लड़की के पास घर की और स्त्रियां भी बैठी हुई थीं । गांधीजी को आता देखकर वे अंदर चली गईं । वे परदा करती थीं ।
बेचारी बीमार लड़की अकेली रह गई । झोंपड़ी के बाहरी भाग में उसकी चारपाई थी । गांव में रोगी मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटे गंदी-से-गंदी जगह में पड़े रहते । वही हालत उस लड़की की थी ।
मनु उन स्त्रियों को समझाने के लिए घर के भीतर गई। कहा, ” तुम्हारे आंगन में एक महान संत-पुरुष पधारे हैं । बाहर आकर उनके दर्शन तो करो ।” लेकिन मनु की दृष्टि में जो महान पुरुष थे, वही उनकी दृष्टि में दुश्मन थे । उनके मन में गांधीजी के लिए रंचमात्र भी आदर नहीं था । स्त्रियों को समझाने के बाद जब मनु बाहर आई तो देखा, गांधीजी ने लड़की के बिस्तर की मैली चादर हटाकर उस पर अपनी ओढ़ी हुई चादर बिछा दी है । अपने छोटे से रूमाल से उसकी नाक साफ करदी है । पानी से उसका मुंह धो दिया है । अपना शाल उसे उढ़ा दिया है और कड़ाके की सर्दी में खुले बदन खड़े-खड़े रोगी के सिर पर प्रेम से हाथ फेर रहे हैं । इतना ही नहीं बाद में दोपहर को दो तीन बार उस लड़की को शहद और पानी पिलाने के लिए उन्होंने मनु को वहां भेजा । उसके पेट और सिर पर मिट्टी की पट्टी रखने के लिए भी कहा. मनु ने ऐसा ही किया । उसी रात को उस बच्ची का बुखार उतर गया ।
अब उस घर के व्यक्ति, जो गांधीजी को अपना दुश्मन समझ रहे थे, अत्यंत भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करने आये बोले,”आप सचमुच खुदा के फरिश्ते हैं । हमारी बेटी के लिए आपने जो कुछ किया, उसके बदले में हम आपकी क्या खिदमत कर सकते हैं?” गांधीजी ने उत्तर दिया, “मैं न फरिश्ता हूं और न पैगम्बर , मैं तो एक छोटा-सा सेवक हूं। इस बच्ची का बुखार उतर गया, इसका श्रेय मुझे नहीं है । मैंने इसकी सफाई की । इसके पेट में ताकत देने वाली थोड़ी सी खुराक गई, इसीलिए शायद बुखार उतरा है ।
अगर आप बदला चुकाना चाहते हैं तो निडर बनिये और दूसरों को भी निडर बनाइये. यह दुनिया खुदा की है । हम सब उसके बच्चे हैं । मेरी यही विनती है कि अपने मन में तुम यही भाव पैदा करो कि इस दुनिया में सभी को जीने-मरने का समान अधिकार है ।”
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – ?? मानस प्रश्नोत्तरी?? ☆
प्रश्न- श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर- पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।
प्रश्न- मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।
प्रश्न- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर- परकाया प्रवेश आना चाहिए।
प्रश्न- परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर- अद्वैत भाव जगाना चाहिए।
प्रश्न- अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर- जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।
प्रश्न- ‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर- सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।
प्रश्न- सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर- अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त, दोस्त व रिश्ते। इस गंभीर विमर्श को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 62 ☆
☆ वक्त, दोस्त व रिश्ते☆
‘वक्त, दोस्त व रिश्ते हमें मुफ़्त में मिलते हैं। पर इनकी कीमत का पता, हमें इनके खो जाने के पश्चात् होता है और वक्त, ख्वाहिशें और सपने हाथ में बंधी घड़ी की तरह होते हैं, जिसे उतार कर कहीं भी रख दें, तो भी चलती रहतीं है।’ दोनों स्थितियों में विरोधाभास है। वास्तव में ‘वक्त आपको परमात्मा ने दिया है और जितनी सांसें आपको मिली हैं ,उनका उपयोग-उपभोग आप स्वेच्छा से कर सकते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उन्हें व्यर्थ में खो देते हैं या हर सांस का मूल्य समझ एक भी सांस को रखते व्यर्थ नहीं जाने देते। आप जीवन का हर पल प्रभु के नाम-स्मरण में व्यतीत करते हैं और सदैव दूसरों के हित में निरंतर कार्यरत रहते हैं। यह आपके अधिकार-क्षेत्र में आता है कि आप वर्तमान में शुभ कर्म करके आगामी भविष्य को स्वर्ग-सम सुंदर बनाते हैं या बुरे कर्म करने के पश्चात् नरक के समान यातनामय बना लेते हैं। वर्तमान में कृत-कर्मों का शुभ फल, आपके आने वाले कल अर्थात् भविष्य को सुंदर व सुखद बनाता है।
वक्त निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं और आप लाख प्रयत्न करने व सारी दौलत देकर, उसके बदले में एक पल भी नहीं खरीद सकते। जीवन की अंतिम वेला में इंसान अपनी सारी धन-संपदा देकर, कुछ पल की मोह़लत पाना चाहता है, जो सर्वथा असंभव है।
इसी प्रकार दोस्त, रिश्ते व संबधी भी हमें मुफ़्त में मिलते हैं; हमें इन्हें खरीदना नहीं पड़ता। हां! अच्छे- बुरे की पहचान अवश्य करनी पड़ती है। इस संसार में सच्चे दोस्त को ढूंढना अत्यंत दुष्कर कार्य है, क्योंकि आजकल सब संबंध स्वार्थ पर टिके हैं। जहां तक रिश्तों का संबंध है, कुछ रिश्ते जन्मजात अर्थात् प्रभु-प्रदत्त होते हैं, जिन्हें आप चाह कर भी बदल नहीं सकते। वे संबंधी अच्छी व बुरी प्रकृति के हो सकते हैं और उनके साथ निर्वाह करना अनिवार्य ही नहीं, आपकी विवशता होती है। परंतु आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। खून के रिश्ते–माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी व विश्वासपात्र दोस्त का मिलना अत्यंत दुष्कर है, टेढ़ी खीर है। आधुनिक युग प्रतिस्पर्द्धात्मक युग है, जहां चारों ओर संदेह, शक़ व अविश्वास का दबदबा कायम है। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री व भाई-बहिन के संबंध भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। जहां समाज में अराजकता व विश्रंखलता का वातावरण व्याप्त है, वहां मासूम बच्चियों से लेकर वृद्धा तक की अस्मत सुरक्षित नहीं है। वे उपभोग व उपयोग की वस्तु-मात्र बनकर रह गयी हैं। आजकल हर रिश्ते पर प्रश्नचिन्ह लगा है और सब कटघरे में खड़े हैं।
हां! आजकल दोस्ती की परिभाषा भी बदल गई है। कोई व्यक्ति बिना स्वार्थ के, किसी से बात करना भी पसंद नहीं करता। आजकल तो ‘हैलो-हॉय’ भी पद- प्रतिष्ठा देखकर की जाती है। वैसे तो हर इंसान आत्म-मुग्ध अथवा अपने में व्यस्त है तथा उसे किसी की दरक़ार नहीं है। कृष्ण-सुदामा जैसी दोस्ती की मिसाल तो ढूंढने पर भी नहीं मिलती। आजकल तो दोस्त अथवा आपका क़रीबी ही आपसे विश्वासघात करता है…आपकी पीठ में छुरा घोंपता है, क्योंकि वह आपकी रग-रग से वाकिफ़ होता है। विश्व अब ग्लोबल-विलेज बन गया है तथा भौगोलिक दूरियां भले ही कम हो गई हैं, परंतु दिलों की दूरियां इस क़दर बढ़ गई हैं कि उन्हें पाटना असंभव हो गया है। हर इंसान कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संग्रह करना चाहता है और उसके लिए वह घर-परिवार व दोस्ती को दाँव पर लगा देता है। इसमें शक़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। शक़ दिलों में दरारें उत्पन्न कर देता है, जिसका जन्म अनास्था व अविश्वास से होता है। विश्वास तो न जाने पंख लगा कर कहां उड़ गया है, जिसे तलाशना अत्यंत दुष्कर है। परंतु इसका मुख्य कारण है … कानों-सुनी बात पर विश्वास करना। सो! संदेह हृदय में ऐसी खाई उत्पन्न कर देता है, जिसे पाटना असंभव हो जाता है। शायद! हम कबीरदास जी को भुला बैठे है… उन्होंने आंखिन-देखी पर विश्वास करके शाश्वत साहित्य की रचना की, जो आज भी विश्व-प्रसिद्ध है। शुक्ल जी ने भी यही संदेश दिया है कि जब भी आप बात करें, धीरे से करें, क्योंकि तीसरे व्यक्ति के कानों तक वह बात नहीं पहुंचनी चाहिए। परंतु दोस्ती में संबंधों की प्रगाढ़ता होनी चाहिए; जो आस्था, निष्ठा व विश्वास से पनपती है।
यदि आप दूसरों की बातों पर विश्वास कर लेंगे, तो आपके हृदय में क्रोध-रूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाएगी… आप अपने मित्र को बुरा-भला कहने लगेंगे तथा उसके प्रति विद्वेष की भावना से भर जायेंगे। आप सबके सम्मुख उसकी निंदा करने लगेंगे और समय के साथ मैत्रीभाव शत्रुता के भाव में परिणत हो जायेगा। परंतु जब आप सत्यान्वेषण कर उसकी हक़ीक़त से रू-ब-रू होंगे… तो बहुत देर हो चुकी होगी और संबंधों में पुन: अक्षुण्ण प्रगाढ़ता नहीं आ पायेगी। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रहेगा।
परंतु वक्त, दोस्त व रिश्तों की कीमत का पता, इंसान को उनके खो जाने के पश्चात् ही होता है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए समय को सबसे अनमोल धन कहा गया है और उसकी कद्र करने की नसीहत दी गयी है। समय का सदुपयोग कीजिए …उसे व्यर्थ नष्ट मत कीजिए। खूब परिश्रम कीजिए तथा तब तक चैन से मत बैठिये, जब तक आपको मंज़िल नहीं मिल जाती। वक्त, ख्वाहिशें व सपने जीने का लक्ष्य होते हैं तथा उन्हें जीवित रखना ही जुनून है, ज़िंदगी जीने का सलीका है, मक़सद है। समय निरंतर नदी की भांति अपने वेग से बहता रहता है। इच्छाएं, ख्वाहिशें, आशाएं व आकांक्षाएं अनंत हैं…सुरसा के मुख की भांति फैलती चली जाती हैं। एक के पश्चात् दूसरी का जन्म स्वाभाविक है और बावरा मन इन्हें पूरा करने के निमित्त संसाधन जुटाने में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है, परंतु इनका पेट नहीं भरता। इसी प्रकार मानव नित्य नये स्वप्न देखता है तथा उन्हें साकार करने में आजीवन संघर्षरत रहता है। मानव अक्सर दिवा-स्वप्नों के पीछे भागता रहता है। उसके कुछ स्वप्न तो फलित हो जाते हैं और शेष उसके हृदय में कुंठा का रूप धारण कर, नासूर-सम आजीवन सालते रहते हैं। यहां अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति सार्थक प्रतीत होती है कि ‘मानव को खुली आंखों से स्वप्न देखने चाहिएं तथा उनके पूरा होने से पहले अथवा मंज़िल को प्राप्त करने से पहले मानव को सोना अर्थात् विश्राम नहीं करना चाहिए, निरंतर संघर्षरत रहना चाहिए ।’
ख्वाहिशों व सपनों में थोड़ा अंतर है। भले ही दोनों में जुनून होता है; कुछ कर गुज़रने का …परंतु विकल्प भिन्न होते हैं। प्रथम में व्यक्ति उचित-अनुचित में भेद न स्वीकार कर, उन्हें पूरा करने के निमित्त कुछ भी कर गुज़रता है, जबकि सपनों को पूरा करने के लिए, घड़ी की सुइयों की भांति अंतिम सांस तक लगा रहता है।
सो! वक्त की क़द्र कीजिए तथा हर पल को अंतिम पल समझ उसका सदुपयोग कीजिए…जब तक आपके सपने साकार न हो सकें और आपकी इच्छाएं पूरी न हो सकें । इसके लिए अच्छे-सच्चे दोस्त तलाशिए; भूल कर भी उनकी उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि सच्चा दोस्त हृदय की धड़कन के समान होता है। विपत्ति के समय सबसे पहले वह ही याद आता है। सो! उसके लिए मानव को अपने प्राण तक न्योछावर करने को सदैव तत्पर रहना अपेक्षित है। इसलिए संबंधों की गहराई को अनुभव कीजिए और उन्हें जीवंत रखने का हर संभव प्रयास कीजिए …जब तक वे आपके लिए हानिकारक सिद्ध न हो जाएं, संबंधों का निर्वहन कीजिए। इसके लिए त्याग व बलिदान करने को सदैव तत्पर रहिए, क्योंकि रिश्तों की माला टूटने पर उसके मनके बिखर जाते हैं तथा उनमें दरार रूपी गांठ पड़ना स्वाभाविक है। लाख प्रयत्न करने पर भी उसका पूर्ववत् स्थिति में आ पाना असंभव हो जाता है। सो! संबंधों को सहज रूप में विकसित व पुष्पित होने दें। सदैव अपने मन की सुनें तथा दूसरों की बातें सुन कर हृदय में मनोमालिन्य को दस्तक न देने दें, ताकि संबंधों की गरिमा व गर्माहट बरक़रार रहे। यदि ऐसा संभव न हो, तो उन्हें तुरंत अथवा एक झटके में तोड़ डालें। सो! सहज भाव से ज़िंदगी बसर करें। हृदय में स्व- पर व राग-द्वेष के भावों को मत पनपने दें। अपनों का साथ कभी मत छोड़ें तथा सदैव परोपकार करें। लोगों की बातों की ओर ध्यान न दें। दोस्तों को उनके दोषों के साथ स्वीकारना उत्तम, बेहतर व श्रेयस्कर है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पाक़-साफ़ नहीं होता। यदि आप ऐसे शख़्स की तलाश में निकलेंगे, तो नितांत अकेले रह जायेंगे। वैसे भी वस्तु व व्यक्ति के अभाव अथवा न रहने पर ही उनकी कीमत अनुभव होती है। उस स्थिति में उसे पाने का अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहता। ‘जाने वाले चाहे वे दिल से जाएं या जहान से…कभी लौट कर नहीं आते।’ सो! जो गुज़र गया, कभी लौटता नहीं… यह कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल अथवा भविष्य, जो वर्तमान बन कर आता है… वह सदैव सत्य ही होगा। इसलिये हर पल को जी लो, सत्कर्म करो तथा अपनी ज़िंदगी को सार्थक बनाओ। यह आपकी सोच व नज़रिये पर निर्भर करता है कि आप विषम परिस्थितियों में कितने सम रहते हैं। सो! सकारात्मक सोच रखिए, अच्छा सोचिए और अच्छा कीजिए… उसका परिणाम भी शुभ व मंगलमय होगा, सर्वहिताय होगा।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट”. )
☆ किसलय की कलम से # 15 ☆
☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट☆
दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति संपन्न नहीं हो सकता। समय एवं परिस्थितियाँ नौकर-मालिक या राजा-रंक की दशा बदल देती हैं। भले हम कहें कि श्रम व समर्पण सुपरिणाम देते हैं लेकिन कभी-कभी विपरीत परिस्थितियाँ सब उलट-पुलट कर देती हैं। इसीलिए युगों-युगों से मजदूरों का अस्तित्व रहा है और आगे भी निरंतर रहेगा। प्रत्येक मालिक व उद्योगपतियों का उद्देश्य बड़े से और बड़ा होना होता है। मजदूरों का शोषण जानबूझकर तो किया ही जाता है, अनजाने में भी होता है। दुनिया में शोषित व शोषक वर्ग सदैव से रहे हैं। समय साक्षी है कि श्रम का मूल्यांकन तथा आदर हमेशा कम ही हुआ है। हम सभी जानते हैं कि एक मजदूर का हमारा समाज कितना आदर करता है। अपनी गृहस्थी व अपने परिवार हेतु एक मजदूर अपना घर, अपने परिवार के सभी सदस्यों को छोड़कर रोजी-रोटी के लिए दर-ब-दर भटकता है। ये हजारों-हजार किलोमीटर की दूरी केवल इसलिए नाप लेते हैं ताकि उनके परिवार को दो जून की रोटी नसीब हो सके। उनके बच्चे पढ़-लिख सकें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। मजदूर जीवन भर अपना शरीर खपाता रहता है और अंत तक मजदूर का मजदूर ही रहता है। उनकी कमजोर आर्थिक परिस्थितियाँ न ही उन्हें संपन्न बना पातीं और न ही उनकी संतानें उच्च शिक्षा ग्रहण कर पातीं।
बदलती तकनीकि व इक्कीसवीं सदी के अंधाधुंध व्यवसायीकरण की प्रक्रिया ने आज जीवन के एक-एक क्षण की आरामदेही हेतु नवीनतम यांत्रिक सुविधायें उपलब्ध करा दी हैं। श्रम, दूरी, यातायात, मनोरंजन, दूरसंचार के साधनों सहित स्वच्छता, जल, हवा, ऊर्जा, ईंधन आदि हरेक जरूरतों की पूर्ति आज चुटकी बजाते ही पूर्ण हो जाती है। पहले सिर पर मटकी से पानी लाना, पैदल या बैलगाड़ी से आवागमन, चूल्हे जलाना, संदेश वाहको से संदेश भेजना, हल और हाथों से कृषि करना आदि सभी में मानवशक्ति का ही अधिक उपयोग होता था। इस तरह सभी के पास रोजगार, उद्योग-धंधे व मजदूरी हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे हर कार्य मशीनों द्वारा अच्छा व जल्दी होने लगा। उत्पादों, साधनों एवं सेवाओं में लागत भी कम पड़ने लगी। एक तरह से धीरे-धीरे मजदूरों का कार्य मशीनें करने लगीं। यहाँ तक भी ठीक था लेकिन जब मानवशक्ति का उपयोग आधे से भी कम हुआ, तब इस मजदूर वर्ग की मुसीबतें और बढ़ना शुरू हो गईं। अब मजदूर अपने परम्परागत हुनर को विवशता में त्यागकर अन्य कार्य करने हेतु बाध्य होने लगा। घर से हजारों किलोमीटर दूर जाने हेतु भी तैयार हो गया। कुछ बचे हुए लोगों ने अपने परम्परागत रोजगार-धंधे जैसे हैंडलूम, मिट्टी एवं धातुओं के बर्तन व विभिन्न सामग्री, हस्त निर्मित फर्नीचर आदि बनाकर आगे बढ़ना चाहा लेकिन इन सब में समय व परिश्रम अधिक लगने और लागत बढ़ने के कारण लोगों की अभिरुचि मशीन निर्मित वस्तुओं की ओर ज्यादा बढ़ती गई। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि इन कारोबारियों, हस्तशिल्पियों व कुशल कारीगरों की अनदेखी एक दिन इन लोगों का अस्तित्व ही समाप्त कर सकती है। सर्वविदित है कि मानवशक्ति का अधिक से अधिक उपयोग हो, इसीलिए हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी ने हथकरघा निर्मित खादी के वस्त्रों पर जोर दिया था।
आज हमें बस थोड़ी सी उदारता व संतोष रखकर सहृदयतापूर्वक कुछ ही अधिक मूल्य देकर इनसे सामग्री खरीदना होगी। आपके द्वारा किये गए प्रयास न जाने कितने लोगों को मजदूरी का अवसर दे सकते हैं और इस बहाने हम मजदूरों और कारीगरों की कला का सम्मान भी कर पाएँगे। यही इन लोगों के श्रम का मूल्यांकन भी होगा। आज हम देख रहे हैं कि बड़ी-पापड़ और दोना-पत्तल से लेकर कपड़ों की धुलाई, सिलाई, अनाजों की पिसाई सब कुछ मशीनों से होने लगा है। अब तक इन धंधों में लगे मजदूरों को आखिर अन्य काम तो करने ही होंगे। काम न मिलने पर ये पलायन भी करेंगे। आज ऐसी ही परिस्थितियों के चलते हर शहरों में कुछ स्थान नियत हो गए हैं जहाँ सुबह-सुबह मजदूरों का हुजूम दिखाई देता है। एक अदद मजदूर की तलाश में आए व्यक्ति के चारों ओर काम मिलने की आस में मजदूर झुण्ड के रूप में उस व्यक्ति को घेर लेते हैं। आशय यह है कि अब यह भी निश्चित नहीं है कि यहाँ एकत्र सभी मजदूरों को उस दिन काम मिल ही जाए। सीधी और स्पष्ट बात यह है कि अब मजदूरी के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं। बावजूद इसके कभी-कभी बिना मजदूरी और पैसों के खाली हाथ घर वापस भी आना पड़ता है। घर में या तो फाके की स्थिति होती है अथवा बची खुची सामग्री से घरवाली पेट भरने लायक कुछ बना देती है और यदि ऐसा ही कुछ दिन और चला तो भूखे मरने की नौबत भी आ जाती है। आज भी यह सब होता है। हो रहा है। सरकारें चाहे जितने वायदे करें, प्रमाण दें, लेकिन सच्चाई तो यही है कि कल का मजदूर आज भी उतना ही मजबूर और भूखा है।
क्या कभी ऐसे आंकड़े जुटाए गए हैं कि सरकारी सहायता प्राप्त मजदूर की पाँच-दस साल बाद क्या स्थिति है। निःशुल्क आंगनवाड़ी एवं निःशुल्क शिक्षा के बावजूद मजदूरों के कितने प्रतिशत बच्चे स्नातक अथवा उच्च शिक्षित हो पाए हैं। आखिर हमारी योजनाएँ ऐसी अधूरी क्यों है? आखिर इतना सब करने के पश्चात भी हम गरीब या मजदूरों को वे सारी सुख-सुविधाएँ व शिक्षा देने में असफल क्यों हैं। सत्यता व कागजी बातों के अंतर को पाटने हेतु ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? वैसे भी हमारे देश में इस मजदूर वर्ग की हालत एक बड़ी समस्या से कम नहीं है। अधिकांश मजदूर व उनके परिवार आज भी नारकीय जीवन जीने हेतु बाध्य हैं। अभावग्रस्त मजदूर बस्तियों में आज भी बिजली-सड़क-पानी की संतोषजनक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। बस्तियाँ बजबजाती नालियों से भरी पड़ी रहती हैं। सारे वायदे व घोषणाएँ केवल चुनावी दौर में सुनाई देते हैं। फिर अगले पाँच साल तक सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है।
कुछ समय पूर्व तक ठीक नहीं पर काम चलाऊ तो था परंतु कोविड-19 के बढ़ते कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह ऐसी विभीषिका है जो इसके पूर्व कभी देखी नहीं गई। विश्व के द्वितीय सबसे अधिक जनसंख्या वाले हमारे देश में अभी भी कोविड-19 महामारी लगातार बढ़ती ही जा रही है। खौफ इतना बढ़ा कि प्रायः सभी मजदूर अपने परिवार और अपने घर में ही पहुँच कर एक साथ जीना-मरना चाहते हैं। मजदूरों की घर वापसी न मालिक रोक पाए न सरकार। बिना पैसे के, बिना रुके, भूखे-प्यासे मजदूर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूरी तय कर एनकेन प्रकारेण अपने घरों तक पहुँच गए। घर की जमापूँजी घर चलाने में खर्च होने लगी। अब मजदूरी न के बराबर ही है। वापस आए मजदूर आखिर अपने गाँव अथवा समीप के शहरों में क्या और कितना करेंगे। लोगों के काम-धन्धों पर मंदी की मार पड़ रही है। निर्माण और अन्य ऐसे अन्य काम जिनमें मजदूरों की आवश्यकता होती है, लॉकडाउन के पश्चात रफ्तार नहीं पकड़ पा रहे हैं। हम उपभोग की वस्तुओं की बात करें तो जब माँग ही नहीं होगी तो उत्पादन क्यों किया जाएगा? उत्पादन अथवा काम न होने का तात्पर्य यह है कि मजदूरों के काम की छुट्टी। बिना काम किए जब मजदूरी ही नहीं मिलेगी तो क्या होगा इन बेचारों का। उद्योग, कारखाने एवं धंधे-व्यवसाय वालों ने मंदी के चलते अपने मजदूरों की छटनी शुरू कर दी है।
हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या पहले से ही है और अब कोरोना के कहर से बेरोजगारी का संकट और गहराने लगा है। यदि यही हाल रहा तो आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि बिना जमापूँजी वाले मजदूरों और उनके परिवार की क्या दशा होगी? आज मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट इसी कोविड-19 जैसे हालात निर्मित न कर दे, इस पर दीर्घकालीन शासकीय योजनाएँ व नीतियों की अविलम्ब आवश्यकता है। आज मजदूर वर्ग में आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इनमें असंतोष व्याप्त नहीं है। आप मानें या न मानें कल की चिंता हर मजदूर व गरीब तबके को सता रही है। इन्हें शीघ्र अतिशीघ्र रोजगार, व्यवसाय अथवा धंधों में लगाने की महती आवश्यकता है, ताकि ये भविष्य की रोजी-रोटी के प्रति निश्चिंत हो सकें। वर्तमान में यह मजदूर वर्ग इतना टूट चुका है कि वह अपने व अपने परिवार के उदर-पोषण हेतु कुछ भी करने को आमादा हो सकता है। अनैतिक कार्यों व धंधों में संलिप्त हो सकता है। लूटमार, चोरी-डकैती जैसी वारदातें भी बढ़ सकती हैं। ऐसी कठिन व अराजक परिस्थितियाँ आने के पूर्व भविष्य की नजाकत को देखते हुए शासन का आगे आना बहुत जरूरी हो गया है, वहीं समाज के सभी सक्षम व्यक्तियों, धनाढ्य, उद्योगपतियों से भी अपेक्षा है कि वे अपने कर्मचारियों को इस विपदा की घड़ी में जितना बन पड़े अपनापन और आर्थिक सहयोग देने से पीछे न हटें। मजदूर व गरीबों के लिए जन सामान्य, संस्थाएँ व प्रशासन यथोचित मदद हेतु आगे आएँ, ताकि मानवता कलंकित होने से बच सके।
इस कठिन समय में स्वार्थ, कालाबाजारी, जमाखोरी, धर्म एवं संप्रदाय से ऊपर उठकर इन मजदूरों को रोजगार देने का प्रयास करें। इनकी यथायोग्य सहायता करें। इनके रोजगार, व्यवसाय आदि में मदद करें। आपका एक छोटा सा प्रयास, आपकी सलाह, आपका परोपकार एक मजदूर ही नहीं उसके पूरे परिवार की खुशहाली के द्वार खोल सकता है। इस तरह हम सब आज मजदूरों पर बढ़ती बेरोजगारी के संकट का समाधान कुछ हद तक तो कर ही सकते हैं।