हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 40 ☆ परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक भावनात्मक पत्र    “परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी”।  मानवता के अदृश्य शत्रु  से युद्ध में  हम सभी  परिवार के सदस्य / मित्र गण तकनीकी रूप  (ऑडियो / वीडियो )  से पहले से ही नजदीक  थे किन्तु भौतिक रूप से ये दूरियां बढ़ गई हैं । हम अपने घर /देश में कैद हो गए हैं।  आशा है कोई न कोई वैज्ञानिक हल शीघ्र  ही निकलेगा और हम फिर से पहले  जैसा जीवन जी सकेंगे। यह पत्र  उन कई लोगों के लिए प्रारूप होगा जो अपने परिवार के सदस्यों को ईमेल पर  अपनी भावनाएं प्रकट करना चाह रहे होंगे। श्री विवेक रंजन जी  को इस  बेहतरीन रचना / पत्र के   लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 40 ☆ 

☆ परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी ☆

 

हमारे आल्हाद के केंद्र प्यारे रुवीर बेटा

नानी नाना का बहुत सारा दुलार,

हमारा यह पत्र  तुम शायद पांच, छः साल बाद पढ़कर कुछ समझ सकोगे. तुम्हारे आने से हम सबके जीवन में खुशियों की नई फुहार आई है. हम सबने तुम्हारे आने की खूब खुशियां मनाई थी, और पल पल तुम्हें बढ़ते हुये महसूस किया था.  समय बीतता गया,तुम्हारे पहली करवट लेने,खुद बैठ पाने,  घुटनो के बल चलने, तुम्हारा पहला दांत निकलने, और पहला कदम चल लेने के हर पल की गवाह तुम्हारी मम्मी बनी रहीं. फोटो, वीडीयो काल्स के जरिये हम सब हर दिन तुम्हें लेकर खुश होते रहे हैं. इस बीच तुम्हारे पापा मम्मी ने हर पल तुम्हें बढ़ते देखा,  दादी, नानी बारी बारी से तुम्हारे पास आती जाती रहीं.

कल तुम एक वर्ष के हो जाओगे. तुम्हारे पहले जन्म दिन को धूमधाम से सब साथ साथ पहुंचकर मनाने के लिये हम सबकी बहुत सारी प्लानिंग थी. पेरिस से लेकर स्विटजरलैंड, लंदन से लेकर हांगकांग  कई प्लान डिस्कस हुये थे. तुम्हारे दादा जी कीनिया के जंगलों में या जयपुर के पैलेस में पार्टी देना चाहते थे तो कोई कहीं और.  अंततोगत्वा पेरिस फाईनल हुआ और तुम्हारे पापा ने तो पेरिस की फलाईट टिकिट्स भी बुक कर दी थी. यह वर्ष २०२० के शुरूवाती दिनों की बात थी. किन्तु बेटा समय के गर्भ में क्या होता है यह किसी को भी नही पता होता.

पिछले दो महीनों में चीन से शुरू हुआ करोना वायरस का संक्रमण इस तेजी से पूरी दुनियां में फैला कि मानव जाति के इतिहास में पहली बार सारी दुनियां बिल्कुल थम गई है. हर कहीं लाकडाउन है. सब घरों में कैद होने को विवश हैं, जो नासमझी से घरों में स्वयं बन्द नहीं हो रहे हैं, सरकारें उन्हें घरों में रहने को मजबूर कर रही हैं.क्योकि यह संक्रमण आदमी से आदमी के संपर्क से फैलता है. अब तक इस सब के मूल कारण करोना कोविड २०१९ वायरस का कोई उपचार नही खोजा जा सका है. दुनियां भर में संपन्न से संपन्न देशों में भी इस महामारी के लिये अब तक चिकित्सा सुविधायें अपर्याप्त हैं. अब तेजी से इस सब पर बहुत काम हो रहा है. तुम्हारे अमिताभ मामा भी न्यूयार्क में एम आई टी के एक प्रोजेक्ट में सस्ते इमरजेंसी वेंटीलेटर्स बनाने और ऐसे ब्रेसलेट बनाने पर काम कर रहे हैं जो दो लोगों के बीच एक मीटर की दूरी से कम फासले पर आते ही वाइब्रेट करेंगे, क्योकि इस फासले से कम दूरी होने पर इस वायरस के संक्रमण का खतरा होता है. मतलब यह ऐसा अजब समय आ गया है कि इंटरनेट के जरिये दूर का आदमी पास हो गया है पर पास के आदमी से दूरी बनाना जरूरी हो गया है. तुम्हारे पापा दुबई में तुम्हारे पास घर से ही इंटरनेट के जरिये आफिस का काम कर रहे हैं, मौसी हांगकांग में घर से ही उसके आफिस का काम कर रही है. मैं यहा जबलपुर में बंगले में बंद हूं. दुनिया  भर की सड़कें सूनी हैं, ट्रेन और हवाई जहाज थम गये हैं. सोचता हूं  सब कुछ घर से तो नही हो सकता, खेतो में किसानो के काम किये बिना फल, सब्जी, अनाज कुछ नही हो सकता, मजदूरों और कारीगरो की मेहनत के बिना ये मशीनें सब कुछ नहीं बना सकती. पर समय से समझौता ही जिंदगी है.

आज बाजार, कारखाने धर्मस्थल सब बंद हैं. पर कुछ धर्मांध कट्टर लोग जो इस एकाकी रहने के आदेश को मानने तैयार नही है, और यह कुतर्क देते हैं कि उन्हें उनका भगवान या खुदा बचा लेगा, उन्हें मैं यह कहानी बताना चाहता हूं. हुआ यूं कि  एक बार बाढ़ आने पर किसी गांव में सब लोग अपने घरबार छोड़ निकल पड़े पर एक इंसान जो स्वयं को भगवान का बहुत बड़ा बक्त मानता था, अपने घर से हटने को तैयार ही नही था, उसे मनाने पास पडोसियो से लेकर सरपंच तक सब पहुंचे पर वह यही रट लाये रहा कि उसे तो भगवान बचा लेंगें क्योकि वह उनका भक्त है, प्रशासन ने हेलीकाप्टर भेजा पर हठी इंसान नही माना और आखिरकार बाढ़ में बहकर मर गया , जब वह मरकर भगवान के पास पहुंचा तो उसने भगवान से कहा कि मैं तो आपका भक्त था पर आपने मुझे क्यो नही बचाया ?  भगवान ने उसे उत्तर दिया कि मैं तो तुम्हें बचाने कभी पडोसी, कभी सरपंच, कभी हेलीकाप्टर चालक बनकर तुम तक पहुंचता रहा पर तुम ही नही माने. आशय मात्र इतना है कि वक्त की नजाकत को पहचानना जरुरी है, आज डाक्टर्स के वेश में भगवान हमारी मदद को हमारे साथ खड़े हैं. और यह समय भी बीत ही जायेगा. दुनियां के इतिहास में पहले भी कठिनाईयां आई हैं. दो विश्वयुद्ध हुये, प्लेग, हैजा, जैसी महामारियां फैलीं, जगह जगह बरसात न होने से अकाल पड़े, पर ये सारी मुसीबतें कुछ देशों या कुछ क्षेत्रो तक सीमित रहीं. महात्मा गांधी ग्राम स्वराज की इकानामी की परिकल्पना करते थे जिसका अर्थ यह था कि देश का हर गांव अपने आप में आत्मनिर्भर इकाई होता. पर विकास ने इतने पांव फैलाये हैं कि अब दुनियां इंटरनेटी वैश्विक मंच बन गया है. इसी साल २०२० के सूर्योदय की खुशियां हमने हांग कांग में  मौसी के संग  शुरू कर भारत, दुबई, लंदन, न्यूयार्क में तुम्हारे मामा के साथ उगते सूरज को देखकर, मतलब  लगभग २४ घंटो तक महसूस की हैं.

हम सब हमेशा तुम्हारे लिये क्षितिज की सीमाओ के सतरंगे इंद्रधनुष की रंगीनियों की परिकल्पना करते हैं. तुम्हें खूब पढ़ लिख कर, गीत संगीत, खेलकूद जिसमें भी तुम्हारी रुचि हो उसमें बढ़चढ़ कर मेहनत करना और मन से बहुत अच्छा इंसान बनना है. आज हर देश अपने वीसा अपने पासपोर्ट अपनी सीमा के बंधनो में सिमटे हुये हैं, पर सोचता हूं शायद तुम उस दिन के साक्षी जरूर बनो जब कोई भी कहीं भी स्वतंत्र आ जा सके. हर वैज्ञानिक प्रगति पर सारी मानव जाति का बराबरी का अधिकार हो. बस यही कामना है कि इंसानी दिमाग में ऐसा फितूर कभी न उपजे कि न दिखने वाले परमाणु बम अथवा किसी वायरस की विभीषिका से हम यूं दुबकने को मजबूर होवें.

दिल से सारा आशीर्वाद

तुम्हारी नानी और नाना

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी का लम्बा किन्तु , विचारणीय एवं पठनीय आलेख  ” मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा“।  वास्तव में  यह संस्मरणात्मक आलेख मानवता के अदृश्य शत्रु के कारण सारे विश्व में व्याप्त भय के वातावरण में अनुशासन ही नहीं अपितु, इस भय से भी लाभ कमाने वालों को नसीहत देता दस्तावेज है।  मानवता के इस सफरनामे  के माध्यम से डॉ गंगाप्रसाद जी ने अपने संवेदनशील हृदय की मनोभावनाओं को रेखांकित किया है। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक आलेख के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ संस्मरणात्मक आलेख – – मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆

दिनांक –26-03- 2020
दिन-गुरुवार, समय 2:42

सुबह-सुबह मेरे ड्राइवर ने आकर दस्तक दी। आते ही जुमला उछाला, ‘जो डरा सो मरा’। मैंने यह जानते हुए भी कि जुमला मुझ पर ही उछाला  गया है सिर नीचे कर बाउंसर जाने दिया। वह गेट के बाहर ज़मीन पर ही बैठ गया और उसके ठीक पीछे लिफ्ट के बगल वाली सीढ़ियों पर उसकी बीबी जिसे कोरोना के डर से हमने बर्तन मांजने से चार दिन पहले ही मना किया है। मेरा अनुमान यही है कि मेरी ही तरह के और भी सामान्य काल के वीरों और संकट काल के भीरुओं ने उसे मना कर दिया होगा। अन्य दिनों की तरह ना तो उसे अंदर आने को कहा और ना ही कुर्सी ही ऑफ़र की। पहले भी वह भीतर भले आ जाता था पर कुर्सी पर कभी नहीं बैठा। हमेशा यही कहता था ‘साहब हमें ज़मीन पर ही बैठना अच्छा लगता है।’ उसका इस तरह बैठना मुझे पहले अच्छा लगता रहा है। कल उसका जमीन पर बैठना मुझे उतना बेतकल्लुफ नहीं लगा सो अच्छा भी नहीं लगा लेकिन इसे बुरा लगना भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह अखरने वाली बात मुझे उसके जाने के बाद पता चली।

25 फ्लैट वाले हमारे अपार्टमेंट का वह केयर टेकर भी है। इन दिनों उसकी पत्नी, दो बेटे और उसे मिलाकर परिवार के कुल 4 सदस्य बस एक कमरे में गुजर-बसर करते हैं। कोई तीन-चार महीने पहले उसका बड़ा  बेटा, बहू और पोती भी इसी के साथ रहते थे। यानी इसका कुल मिलाकर 7 जनों का कुनबा  है। लेकिन जिन दिनों इसके बहू बेटा साथ रहते थे, केवल वही कमरे में सोते थे और शेष जन 12:00 बजे रात के बाद बाहर की पार्किंग में अपनी अपनी खाट बिछाकर सो जाते थे। लेकिन ये सभी तभी सो पाते थे जब अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर ताला लग जाए और ताला लगने का समय 12:00 रात निर्धारित है। इसके बावज़ूद ‘निबल की बहू सबकी सरहज। ‘आने जाने वालों की आज़ादी के कारण ताला कभी-कभी एक-दो बजे भी खोलना पड़ता  है। संभव है कि इन दिनों इन लोगों को कुछ राहत हो क्योंकि अभी लॉकडाउन का काल है। यह सब केवल मैं अनुमान से कह रहा हूँ । वह इसलिए कि दो दिनों से नीचे उतरना क्या दरवाज़े से बाहर भी कदम नहीं रखा है। लेकिन केवल नींद ही तो सब कुछ नहीं है भूख भी तो कुछ है। नींद भी तभी लगती है जब पेट में कुछ पड़े। जब मुझ पेट भरे हुए को नींद  नहीं आ रही है तो उन्हें कैसे आती होगी।  रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों का दर्द  भला वे क्या जानेंगे जिनके घर बिसलेरी की बोतलें आती हैं।

बीते रविवार को ये लोग अपने भांजे की मंगनी में गए थे। ज़ाहिर सी बात है सारी जमा पूंजी वही खरच आए होंगे। ड्राइवर के उस जुमले पर जो जीवन का असली फलसफा था मैंने सौ रुपए निछावर किए तो उसने ऐसे लपक लिए जैसे कोई बंदर हाथ से थैली लपक लेता है। ऐसा एक  वाकया उज्जैन में वास्तव में मेरे साथ उस समय घटा था जब भैरवनाथ के दर पर गया था। चढ़ाने जा रहे प्रसाद को एक लंगूर मेरे हाथ से बिजली की गति से लपक ले गया था। यह तो गनीमत है कि प्रसाद वाले के द्वारा लाख कहने के बावजूद मैंने शराब की बोतल नहीं ली थी। नहीं तो हो सकता है कि वह उसे भी लपक ले जाता और मेरे ही सामने बैठकर गटकता।  इंसान के भीतर की पीड़ा के लिए इतनी भोंड़ी उपमा मैं उसके अपमान के लिए नहीं अपितु उसकी ज़रूरत की तीव्रता को दर्शाने के लिए दे रहा हूँ। यद्यपि मेरे बिस्तर पर डेढ़ सौ रुपए और पड़े थे लेकिन एटीएम के कुंजीपटल को दबाने के डर से मेरे मन ने पुनः अपने बढ़े  हुए हाथ सायास रोक लिए थे। उसकी पत्नी को कुछ दिनों के लिए काम से विरमित के कारण और कुछ अपने जीवनानुभव से भी उस अपढ़ ने मेरे डर को पढ़ लिया था। इसमें झूठ भी क्या है। आज की रात मिलाकर दो रातें हो रही हैं बिना सोए हुए। यह डर नहीं तो और क्या है!

मेरी पत्नी शुगर की मरीज़ है। टीवी पर बार-बार शुगर वालों को हाई रिस्क कहा जा रहा है। इटली में रह रहे एक भारतीय शेफ और देशभक्त गायिका श्वेता पण्डित के डरावने अनुभव वाले वीडियो। इसी तरह से अन्य देशों के डरावने दृश्यों से भरे संदेश पर संदेश के बावज़ूद अपने कुछ देश वासियों की नादानियां और भी डराती हैं। इस वज़ह से कई दफ़े टी वी बंद करके कुछ ही मिनटों में पुन: उसे खोल के बैठ जाता हूँ।

बच्चे और नातिनें पोतियाँ,नाते रिश्तेदार और मित्र हमसे दूर हैं। उनके ठहाके और  दूर से दिखने वाले चेहरों की आभासी खुशी  जब तक देखता हूँ खुश रहता हूँ। उसके बाद फिर वही मायूसी। कंपनी के काम से गया बीमार भांजा इन्दौर में फँस गया है और भतीजा बंगलौर में। गाँव में माँ और भाई, उनकी पत्नियाँ, बहुएँ और पोते-पोतियाँ। लब्बोलुआब यह कि बहिनें और उनके  परिवार समेत पूरा कुनबा अलग-अलग गाँवों और शहरों में। इन सबसे कम से कम बारह सौ से डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर बैठा मैं। डर को इतने भयावह रूप में वह भी इतने करीब से बल्कि अपने ही भीतर ज़हर बुझे बरछे  की मानिंद धंसे पहले कभी नहीं देखा। शायद अपने-अपने जीवन में पहली दफ़ा इतने बड़े और अदृश्य शत्रु से हर कोई अकेले लड़ रहा है। यह भी इस धरती के इतिहास का पहला युद्ध है जिसे एक जुटता के साथ किंतु अकेले-अकेले लड़ते हुए घर बैठे जीता जा सकता है।

टीवी चैनलों पर बैठे डरे-डरे चेहरे और भी डरा रहे हैं। उनसे भी ज़्यादा विकसित देशों से आने वाली खबरें डरा रही हैं। फिर हम क्यों ना डरें। आखिर हम भी तो हांड़-माँस के ही हैं ना। जिसके परिणाम का पता ना हो डर लगता ही है। बड़े से बड़ा प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी परीक्षा परिणाम के पूर्व डरा डरा-डरा रहता है। यह दीगर बात है कि बाद में  वह कहे कि मैं अपने परिणाम से आश्वस्त था। मैं भी अपनी ही तरह के डरे हुए दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह बाद में झूठ बोलूं इसके पूर्व ही अपने डर को लिपिबद्ध कर लेना चाहता हूँ। हो सकता है कुछ दिन बीतने के बाद मैं इसे लिख देने के बावज़ूद अपनी ईमानदारी कह कर कॉलर ऊँचा करूँ। अपने को खुद ही हरिश्चंद्र या गाँधी  पुकारूँ। इसे अपना अप्रतिम साहस बताऊँ। यह और बात है। पर, अभी तो अपने भीतर का डर यथार्थ है। वास्तविक है।

ऊपर मैं जिस ड्राईवर की बात कर रहा था ऐसे न जाने कितने हर गली, हर मोहल्ले, हर गांव और हर शहर में पड़े होंगे। बहुतेरे नालों के किनारे की झुग्गियों में भी होंगे। कूड़ेदानों और भिनभिनाती मक्खियों (इससे अनजान कि मक्खियाँ भी कोरोना की संवाहिका हैं) से भरे कूड़े  के ढेरों  में जीविका खोजने वालों पर ढेर के ढेर मुंह बना रहे होंगे। उन सबके चूल्हे ठंडे पड़े होंगे। शराबियों की बीबियाँ अपने शौहरों को अब न कोस रही होंगी। जब कोई काम पर ही न गया होगा तो पिएगा क्या? अब वह भी अपनी करनी पर पछता रहा होगा। सुनारों की दुकानें भी नहीं खुली होंगी जहां अपने इकलौते जेवर पायल या  बिछियों को बेचकर कोई मजबूर मज़दूरन  अपने बच्चों के लिए आटा ला सके। माना कि इनकी नींद तो इस मज़बूरी से भी उड़ी होगी। परंतु मेरी नींद क्यों उड़ी हुई है?

कल के पहले मेरा यही ड्राइवर जिसका नाम ए बी चौहाण है, स्वाभिमानी लगता रहा है। ज़बरन देने पर ही इसने कभी कुछ पैसे  अपनी हथेली पर  रखने दिए हैं। लेकिन कल उसमें यह स्वाभिमान गायब-सा दिखा। अपने स्वाभिमान की भरपाई एक और नए जुमले से की कि, ‘मौत से वह डरे जिसके पास कुछ हो। मेरे पास न तो कोई दुकान है न मकान फिर मैं क्यों डरूं।’ शायद यही जीवन दर्शन अन्य निर्धनों का भी हो। हमें उन्हें डराने से अधिक समझाना है। मुझे लगता है हम बुद्धिजीवियों ने यही नहीं किया।

मुंबई और पुणे से अपने-अपने वतनों को गठरी लादे भाग रही  भीड़ों का भी  ध्येय वाक्य मेरे ड्राइवर वाला ही ध्येय वाक्य रहा होगा। हो यह भी सकता है कि सामने खड़ी मौत के डर और भूख के भय की वज़ह से इंसान से भीड़ में तब्दील यह जन सैलाब ‘मरता क्या न करता’ की रहन पर  हज़ार-हज़ार किलोमीटर तक के सफ़र पर पैदल, रिक्शे, साइकिल, ट्रेन या बस में ठूंसे-ठूंसे जाने को खुशी-खुशी तैयार हो। इन सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं। पर वे सड़क की ओर पागलों की तरह क्यों भागे जा रहे हैं जिनके घर कम से कम महीने भर का राशन है। मौज़-मस्ती के चक्कर में उठ-बैठ रहे हैं या फिर पुलिस से धींगामुश्ती कर रहे हैं। कोई जन प्रतिनिधि वह भी विधायक सपर्पित चिकित्सकों के लिए गालियों का उपहार दे रहा है। हाथ उठा रहा है। इनमें कुछेक सही भी हो सकते हैं। पर पुलिस भी इतनी पागल या महाबली  नहीं कि दिन भर भागती हुई लाठियाँ ही भाँजती रहे। पुरी की सब्जी मंडी से भी हम कुछ सीख ले सकते हैं।

मेरा डर कुछ इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि कल रात को 9:00 बजे से ही कुत्ते भौंकने लगे थे। अभी  जब सुबह के 4:00 बज रहे हैं कहीं से भी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ नहीं आ रही है और न ही सड़क पर किसी भी प्रकार के वाहन का स्वर। फर फर फर फर पत्तियां फड़काने वाली सामने की नीम भी मौन है और कभी हर हर हर हर हरहराने वाले कोने वाले पीपल बाबा भी।

नींद अभी तक नहीं आई है और सात बजते-बजते टीवी पर देखता हूँ कि मुश्किल से पाँच साल का बच्चा अपने पिता को ड्यूटी पर नहीं जाने दे रहा है। रो-रो कर उसका बुरा हाल है। वह अपने पिता से गुहार कर रहा है कि, “पापा प्लीज़ बाहर मत जाओ कोरोना है।” बिलखते बच्चे और पिता को कर्तव्य और वात्सल्य के बीच झूलते कारुणिक दृश्य किसे नहीं द्रवित कर देंगे। पिता आखिर चला गया और बाहर जाकर रोया होगा। यही सोच-सोच कर मेरी आँखें अभी तक नम हैं। भीतर-बाहर कहीं से भी कुछ भी सामान्य नहीं लग रहा है। कभी-कभी लगता है कि  कहीं यह सब कुछ अपने ही भीतर का रचा हुआ तो नहीं है जो उमड़ घुमड़ कर बादलों-सा फट पड़ने को आतुर है। लेकिन हाथ-पाँव पटक-पटक बेहाल हुए जा रहे बच्चे के विलाप को कैसे झुठलाऊँ।

बच्चे से बूढ़े  तक में व्यापे डर के इतने सारे रूप और कारणों के होते हुए भी हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है जो जीवन के प्रति साहस बढ़ाने और आशा बँधाने के लिए पर्याप्त है बल्कि पर्याप्त ही नहीं पर्याप्त से भी कुछ अधिक है। अपवाद स्वरूप एकाध जनप्रतिनिधियों की नापाक हरक़तों के विपरीत विधायकों, सांसदों, सरकारों की राहत वाली घोषणाएँ। करोड़ों  गरीबों के लिए हाथ बढ़ाते भामा शाह। भूखों को खाना खिलाते, सैनेटाइज़र और मास्क लिए राहों में खड़े उत्साही नागरिक। अपनी आँखों के तारे को झिटक कर ड्यूटी जाते पुलिस कर्मी। अपनी गीली आँखों से अपने परिवार को भूले हुए उनसे महीनों से दूर राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाते समर्पित चिकित्सक। इनमें से बहुतों की हफ्तों और महीनों से उड़ी नीँदें भी मेरी नींद उड़ने का कारण है। हमें क्या पता कि  हमारे प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और अधिकारी कब से नहीं सोए हैं। कर्मचारी कब नहाते-धोते हैं। इसका पता तो उनके घर वालों को भी नहीं होगा। सब कुछ सबसे नहीं कहा जा सकता। कुछ बातें महसूसने की भी होती हैं। शायद मेरी बेचैनी का एक कारण यह भी है।

अपनी महासागरीय संस्कृति महाप्रलय के बाद भी सँभली है। संस्कृति-शूरों के शौर्य और धैर्य से धरती लहलहाई है। इस संकट काल में कल्पना करें कि मनु का अकेलापन हमारे इस अकेलेपन या घर में अपनों के बीच  बैठकर समाज से कटाव (वह भी करुणार्द्र  अपील के साथ कही जा रही ‘दूरी पर रहने’ का) से कितना बड़ा रहा होगा। निश्चय ही अपने आयतन में भी और गुरुत्त्व में भी हमारे इस एकांतवास से यहाँ तक कि कैदियों के एकांतवास से भी इतना बड़ा रहा होगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी तुलना में हमारा यह अकेलापन कितना लघु, हल्का और सीमित है। लक्ष्मण को शक्ति लगने के बाद वाले राम, यदुवंश के सर्वनाश के बाद वाले कृष्ण, पुत्र के दाह संस्कार के लिए अपनी ही पत्नी से कर मांगते हरिश्चंद्र, अपने बेटों को दीवार में चुने जाते देखने वाले गुरु गोविंद सिंह हों या दूसरे सिक्ख गुरु थाल में अपने ही बेटे का कटा सिर इस उपहास के साथ हृदय विदारक दृश्य को देखते-सहते हुए कि, ‘यह तरबूज है।’  मानव जाति और राष्ट्र के लिए अपने को इन विषम स्थितियों में संभालने वाले परम साहसी और सन्तोखी  गुरु हों या फिर शीश महल गुरुद्वारा पर मत्था टेकते ही आज भी रोंगटे खड़े कर देने जैसे असर रखने वाले  क्रूरता के शिकार हुए गुरु तेग बहादुर जैसे वीर बहादुर हों। क्या ये वीर बहादुर हमें कुछ भी साहस नहीं देते? हमारा मनोबल नहीं बढ़ाते? बढ़ाते हैं। बहुत बढ़ाते हैं तभी तो हम अब तक अजेय माने जाने वाले शत्रु के सामने पहाड़-सा सीना ताने खड़े हैं।

बात सिर्फ इतनी-सी ही नहीं है कि हम इन साहसी त्यागियों और बलिदानियों से कुछ भी साहस नहीं ले पा रहे हैं। बात कुछ और  है जिसके कारण हमारी साहसी और बलिदानी  संस्कृति के संवाहक प्रबुद्ध जन तक के भीतर भी डर  समाया हुआ है और मेरी ही तरह और भी बहुतों की नींद उड़ी हुई है। हमारे इन बलिदानियों के शत्रु दृश्य थे और हमारा शत्रु अदृश्य।

इन कारणों के बीच से अपना सिर उठाता एक और बड़ा कारण भी है मेरे भीतर समाए डर और उसके फलस्वरूप नींद उड़ने का। यह है नक्सलियों द्वारा 17 जवानों की निर्मम हत्या। इसी के साथ एक और घटना भी है जो भीतर तक दहला देती है। वह घटना किसी और स्थल की नहीं बल्कि उस स्थल की है जिसके दरवाज़े  हमेशा-हमेशा के लिए  जितना किसी भक्त के लिए खुले रहते हैं उतना ही भूखे के लिए भी और जिसका एक धर्म लंगर खिलाना भी है। यह घटना अफगानिस्तान के उस गुरुद्वारे की है जिसमें हमने 20 लाशें बिछी हुई देखीं। इतना ही नहीं कइयों के तो चिथड़े भी उड़े हुए थे। नक्सली और आतंकी गतिविधियों में बिछी हुई है लाशें भय को भी भयभीत कर देने की क्षमता रखती हैं। मेरी पीड़ा के यह और पिछले सारे कारण या तो ममता के कारण हैं या फिर करुणा के। मेरी चिंता का एक विषय और है कि मेरी वृत्ति के विपरीत एक वृत्ति घृणा भी इनके साथ-साथ मेरे भीतर किसी के लिए  हिलोरें मारे जा रही है।

कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के कारण बने आपातकाल में एक ओर जहाँ सारा विश्व एकजुट होकर अपने अदृश्य शत्रु से लोहा ले रहा है वहीं दूसरी ओर आतंकी और नक्सली गतिविधियाँ  जारी हैं। इन्हीं के सहधर्मी  साइबर जालसाज, मुनाफ़ाखोर और नकली मास्क बनाने वाले भी अवसर का लाभ उठाकर सक्रिय हैं। ऐसी मुश्किल घड़ी में जब पता नहीं कब कहां से और किसके द्वार पर मौत अपने लावलश्कर के साथ आ खड़ी हो और जो इन  दुष्टों के द्वार भी आ सकती है वह भी बिना दस्तक दिए, इनकी हरकतें घृणा ही पैदा कर सकती  हैं।

निष्प्राण ट्रेन तक का एक टर्मिनल पॉइंट होता है।वह वहीं ठहर भी जाती है। उसके आगे वह एक इंच भर भी नहीं जाती। लेकिन लगता है कि क्रूरता और लोभ का कोई टर्मिनल पॉइंट है ही  नहीं। माना इन नक्सलियों और आतंकियों का कोई भी दीन-ईमान नहीं होता। लेकिन मानवता की सेवा का ढोंग रचने वाले  व्यापारियों तक में भी तो कुछ न कुछ होना ही चाहिए। अगर  नकली मास्क पकड़ में ना आए होते तो न जाने कितने धरती के भगवान (हमारे जीवन रक्षक चिकित्सक) इनके लोभ की भेंट चढ़ गए होते। उन्हें पहनने वाले मरीज़ और चिकित्सक केवल एक विश्वास के नाते मारे जाते। ऐसे धन लोलुप भी हमारे हत्यारे ही हैं। हाँ, एक बात ज़रूर है कि इनके द्वारा की गई हत्याओं से न तो खून फैलता है और न खौलता है फिर भी न जाने क्यों मेरा खून खौल रहा है।

हमारा समकाल भीषण संकट का काल है,जिसमें हमारे देश के प्रधानमंत्री से लेकर हर जिम्मेदार पत्रकार, नागरिक, नेता, अभिनेता, रचनाकार और गायक अपने-अपने तरीके से और पूरी ईमानदारी से बहुत संवेदनशील तरीके से अपील कर रहे हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इनसे पत्थर भी पसीज  गए होंगे। पर, मनुष्य जाति के कलंक  नक्सली आतंकी और धन लोलुप व्यापारी बिंदास भाव से अपने कुत्सित, क्रूर और बर्बर कृत्य में लिप्त हैं। मेरे भीतर कुंडली मारकर बैठ गया डर और उससे उड़ी नींद को असली समाधान तभी मिलेगा जब ये हत्यारे भी निर्भया के हत्यारों की तरह तख्ते पर झूल रहे होंगे। आखिर इनका भी तो कोई न कोई टर्मिनस होना ही चाहिए।

अपने ही घर में रहना न किसी से मिलना-जुलना  न किसी को बुलाना। इसके बावजूद बीस-बीस बार हाथ धोना यह आज का यथार्थ है डर नहीं । लेकिन यह डर में तब्दील हो रहा है? कोई और अवसर होता तो इतनी बार और इतनी  देर तक हाथ धोने के कारण किसी न किसी मनोचिकित्सक के पास जाना ही पड़ता। लेकिन आज समय की माँग है। युग सत्य है। हर युग का अपना धर्म होता है। चारित्र होता है। युग सत्य होता है। इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता। इसलिए बड़े से बड़ा चिकित्सक भी इसे ही सही ठहराएगा। हो भी क्यों न! एक-एक करके अपने भाइयों को खोता हुआ रावण या बेटों को  खोता हुआ धृतराष्ट्र भी कभी इतना न डरा होगा। यदि वे इतना डरे होते तो न तो ये युद्ध होते और न ही रावण और धृतराष्ट्र का सर्व(वंश)नाश होता है।

मेरी समझ में सर्वसहा भारत भूमि भी इतना और पहले कभी न डरी होगी। न तो भीतरी आक्रमणकारियों के आतंक से और न ही बाहरी आक्रांताओं के आक्रमणों से। शायद उनके द्वारा अनेकश: किए गए  नरसंहारों से भी नहीं। जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी हमारा देश इतना भयभीत न हुआ होगा। दोनों विश्व युद्धों से भी दुनिया इतनी तो नहीं ही डरी  होगी वरना ये दोनों युद्ध 5-5 सालों तक न खिंचे होते। लेकिन हम दुस्साहसी रावण नहीं हैं और मोहांध धृतराष्ट्र भी नहीं। हमारी आँखें खुली हैं और दृष्टि भी साफ़ है। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि यह डर सकारात्मक है। लेकिन इसे इतना भी पैनिक नहीं बनने देना है कि सीधे अटैक ही पड़  जाए।

सारी बातें एक तरफ़ और यह कहावत एक तरफ़  यानी कि सौ बातों की एक बात ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत।’

हम जीतेंगे इस कोरोना से भी। जैसे जीतते आए हैं त्रेता में रावण को और द्वापर में कौरव दल को। भले ही यह कलयुग का समय है। पर,यह जीत तभी संभव है जब हम सरकारी लॉकडाउन का उसी आस्था से सम्मान करें जिनके साथ अपने पूजा स्थलों पर जाते हैं। घर में कोई सामान न हो तो अपरिग्रही होकर 14 अप्रैल तक रह सह लें। खाने का सामान भी कम पड़ जाए तो कुछ दिनों के लिए उपवास  और रोज़े रख लें। इसी में बुद्धिमानी है। -“सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध्ं  त्यजति पण्डित:।”

इस तरह यदि अपने संकल्पशील मन से लड़ें तो इस कलयुग में भी इस महायुद्ध को जीतने में महाभारत से  तीन दिनों का ही अधिक समय लगेगा यानी इक्कीस दिनों में जीता जा सकेगा। इनमें से भी इतने दिन तो बीत ही चुके हैं कि बस महाभारत के युद्धकाल के बराबर का ही समय बचा है।

यकीन मानो ये दिन ब्रह्मा के दिन नहीं हैं। कट जाएँगे। कोई सरकार और उसके अधिकारियों-कर्मचारियों को शत्रु न समझें। सरकारी प्रयासों के उलटे अर्थ न लें। कोई भी कर्मचारी न तो किसी के झूठे सज़्दे में है और न ही किसी से दुश्मनी निभाने के मूड में। वह अपने कर्तव्य और धर्म को निभा रहा है न कि किसी दूसरे के। तुम्हें कष्ट देने की मंशा भी उसकी कत्तई नहीं है। हथेली पर जान लिए  सीमा पर  संगीनें ताने खड़े वीर जवानों की भाँति चिकित्सक, पुलिस और अन्य कर्मचारी जो हमारी आवश्यक सेवाओं में लगे हैं, कोरोना वारियर्स हैं। दुनिया भर से मिल रही सूचनाएं बताती हैं कि कोरोना के दूसरे चरण में प्रवेश तक ही कई चिकित्सक जान भी गवां चुके थे। अपने देश में भी एक चिकित्सक शहीद हुआ है।  फिर भी चिकित्सक  सेवाएँ दे रहे हैं। इसी तरह के खतरे दूसरे कर्मचारियों को भी हैं। उनके त्याग को समझें। इसे दुष्यंत के एक शेर की मदद से (उसके परिप्रेक्ष्य को सीधे ऋजु कोण पर बदलते हुए) भी समझा जा सकता है-

“अपने ही बोझ से दुहरा हुआ होगा
वह सज़दे में नहीं था तुम्हें धोखा हुआ होगा।”

अत:आइए हम सब मिलकर अपने मन को बिना हराए इसे घर में ही रहकर हराने का संकल्प लें, ‘तन्मे मन: शिव संकल्पम् अस्तु!’

 

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 36 – प्राण गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “प्राण गीता। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 36 ☆

☆ प्राण गीता

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मेरे प्यारे मित्र, हमारा मस्तिष्क चार मुख्य भावनाओं से बंधा हैं, और ये काम या वासना, क्रोध, लोभ और मोह या मैं और मेरे का अनुलग्नक हैं । हर मानव मन इन चार भावनाओं में ही घूमता रहता है । कुछ में अन्य भावनाओं की तुलना में एक अधिक और अन्य कम अनुपात में होती है, अन्य मनुष्यों के पास दूसरी अधिक और अन्य कम और इसी तरह । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति में एक समय अधिक क्रोध और लोभ हो सकता है तो उस समय उसमे मोह और काम स्वभाविक रूप से कम हो जायेंगे ऐसे ही अन्य के लिए भी सत्य हैं । इन भावनाओं की मात्रा हमारे अंदर तेजी से बदलती रहती हैं । आप ध्यान दे सकते हैं कि कभी-कभी आप अधिक काम, कम मोह, या अधिक क्रोध, और अधिक मोह और कम लोभ अनुभव करते हैं । ऐसे ही कई संयोजन संभव हैं”

तब मैंने भगवान हनुमान से पूछा, “ओह! मेरे भगवान, तो गृहस्थ द्वारा एक बिंदु पर मन को स्थिर बनाये रखने का क्या उपाय है ?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “आप इसे इस तरह से सोच सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में सभी चार भावनाओं का कुल प्रतिशत 100% होता है जिसमें चार भावनाओं का अलग अलग प्रतिशत शामिल है। अब भावनाओं को नियंत्रित करने के दो उपाय हैं एक सन्यासियों का मार्ग है और इस मार्ग में सभी चार भावनाओं काम, क्रोध, लोभ और मोह के प्रतिशत को परिवर्तित करके अनासक्ति से जुड़ना है । जब कुल 100 प्रतिशत अलगाव में परिवर्तित हो जाएंगे, तो सन्यासी को आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाएगाऔर मोक्ष मिल जायेगा ।

दूसरा मार्ग गृहस्थ आश्रम वालों के लिए है जिसमे सभी भावनाओं को बराबर प्रतिशत में लाना है। अर्थात इसे आप 25 प्रतिशत काम, 25 प्रतिशत क्रोध, 25 प्रतिशत लोभ, 25 प्रतिशत मोह की स्थिति कह सकते हैं ।

ऐसा करने से उसके मनुष्य जीवन के तीन मुख्य स्तम्भों, धर्म (वर्ण, समाज, पृष्ठभूमि के अनुसार उसके लिए निर्धारित कार्यो का निर्वाह करना), अर्थ (परिवार और समाज में उस मनुष्य की स्थिति के अनुसार जीवित रहने के लिए मूलभूत बुनियादी आवश्यकताएँ) और काम (विलासिता, सेक्स आदि की गहरी इच्छा) के लिए उसका मस्तिष्क संतुलित बनेगा । और वो अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामजिक जिम्मेदारियां अच्छी तरह से निभा पायेगा । फिर उसके जीवन की गति स्वतः ही मनुष्य जीवन के चौथे स्तम्भ मोक्ष की ओर बढ़ने लगेगी । इसलिए मध्यस्थता और व्यक्ति के लिए परिभाषित धर्म का अभ्यास करके, वह अपनी चार मुख्य भावनाओं को संतुलित कर सकता है  (अन्य भावनाएं इन चारों की ही उप-श्रेणियां होती हैं)

तब मैंने पूछा, “हे भगवान, हम अपने आस-पास इतनी उच्च नीच, छोटा बड़ा क्यों देखते हैं? एक ही तरह की परिस्थिति किसी एक के लिए बहुत अच्छी हो सकती है और वह ही परिस्थिति किसी दूसरों के लिए बुरी क्यों है?”

भगवान हनुमान ने कहा, “हर व्यक्ति केवल अपने ही ब्रह्मांड को देख सकता है, जो कि उसके अपने पक चुके कर्मों का परिणाम होता है उसका ब्रह्मांड उसके कर्मों से निर्मित होता है और उसकी मुक्ति के साथ चला जाता है । यद्यपि यह बाक़ी उन लोगों के लिए वैसा ही बना रहता है जो अभी भी बंधन में हैं, क्योंकि उसके सारे कर्मों के फल उस समय भी बाक़ी होते हैं । इसके अतरिक्त अच्छे और बुरे सापेक्ष शब्द हैं। जो वस्तु मेरे लिए अच्छी है वह ही वस्तु आपके लिए बुरी हो सकती है । एक ही बात या वस्तु हमारे जीवन के एक भाग में हमारे लिए हितकारी हो सकती है और किसी अन्य भाग में वो ही समान बात या वस्तु हमारे लिए बुरी हो सकती है । बचपन में हर बच्चे को मिठाई खाना पसंद होता है । बच्चों के लिए यह अच्छा है, लेकिन जब वह ही बच्चा बूढ़ा हो जाता है और उसके शरीर के अंदर कई विकार या बीमारियाँ प्रवेश कर लेती हैं, तो वो ही मिठाई उसके स्वास्थ की लिए खराब हो जाती है । मेरे प्यारे मित्र, वह एक ही चेतना है जो हमें एक समय खुशी का अनुभव करवाती है और दूसरे समय उदासी का। आप और क्या जानना चाहते हैं?”

तब मैंने पूछा, “मेरे भगवान आप वायु देव के पुत्र हैं, और हर प्रकार की वायु पर आपका पूर्ण नियंत्रण है। आप हमारे शरीर के अंदर प्राण के रूप में प्रवाह होने वाली वायु हैं। तो तीनों लोकों में प्राण वायु के विषय में सिखाने के लिए आप से अच्छा शिक्षक और कौन होगा?

भगवान हनुमान मुस्कुराये और कहा, “ठीक है, मैं आपको प्राण वायु के रहस्य बताने जा रहा हूँ जिसका ज्ञान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है”

तब भगवान हनुमान ने मुझसे कहा, “प्राण के कारण ही यह ब्रह्मांड सक्रिय है और यह प्राण हर अभिव्यक्ति जीवन में उपस्थितहै । दुनिया के विभिन्न तत्व अलग-अलग आवृत्तियों पर प्राण के कंपन के अतरिक्त और कुछ भी नहीं हैं । आपको मनुष्य शरीर में विभिन्न प्रकार के प्राणों का ज्ञान अवश्य होगा”

मैंने कहा, “हाँ भगवान मैं हमारे शरीर के अंदर के दस प्राणों के विषय में थोड़ी बहुत जानकारी रखता हूँ, जिसमें से पाँच सबसे महत्वपूर्ण हैं- प्राण, उदान, व्यान, समान और अपान है”

भगवान हनुमान जी ने कहा, “हाँ जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो मन में उपस्थित विचार प्राण वायु में प्रवेश कर जाते हैं । प्राण और उदान आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं और उसे इच्छित दुनिया में ले जाते हैं । उदान रीढ़ की हड्डी के केंद्र से गुजरने वाली नाड़ी में स्थिर रहता है । मृत्यु के समय यदि उदान रीढ़ की हड्डी के ऊपरी हिस्से में है तो व्यक्ति स्वर्ग या ऊपरी लोकों में जाता है, यदि रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से में है वो निचले लोकों में जाता है और यदि बीच में, तो उसे लगभग वर्तमान के स्वरूप ही मानव जीवन मिलता है । विभीषण मैंने आपको चार मुख्य भावनाओं के विषय में बताया था, लेकिन नौ रस या भावनाएं मुख्य हैं जो आसानी से मनुष्यों में पहचानी जा सकती हैं । अब मैं आपको बता दूँ कि मस्तिष्क में भावनाएं कैसे उत्पन्न होती हैं । जब प्राण वायु शरीर में आयुर्वेदिक दोषों (वात, कफ और पित्त) के साथ मिलता हैं, तो हमारे मस्तिष्क  में रस का अनुभव होता हैं । यह प्राण द्वारा कुछ निष्क्रिय प्रतिमानों को सक्रिय करने की तरह है । उस समय पर ‘मैं’ या अहंकार को यह तय करना होता है कि क्या यह अनुभवी रस (भावना) स्वीकार करके उसका परिणाम शरीर में प्रत्यक्ष निरूपित करना है । यदि अहंकार, बुद्धि से परामर्श करने के बाद, रस का समर्थन नहीं करता है, तो यह इच्छा शक्ति के कार्य से बदल जाता है । यदि अहंकार रस का समर्थन करता है, तो बुद्धि भी कुछ नहीं कर सकती है और बुद्धि को भी उस रस को स्वीकार करना पड़ता है और वो हमारे शरीर और मस्तिष्क में प्रत्यक्ष उपज जाता है । जब अहंकार रस का समर्थन करता है, तो यह हमारे अहंकार की मूल प्रकृति, जिसका निर्माण मनुष्यों की चार दैनिक आवश्यकताओं, यौन-इच्छा,नींद, भोजन और आत्म-संरक्षण से होता है, पर निर्भर करता है कि वो नौ में से किस रस का समर्थन करता है । इन चारों के विभिन्न संयोजन विभिन्न प्रकार की अहंकार श्रेणियां बनाते हैं जिन्हें नौ प्रकार की भावनाओं में विभाजित किया जा सकता है ।

सभी योगों का उद्देश्य हमारी बुद्धि को इतना मजबूत बनाना है कि अहंकार द्वारा किसी भी भावना को मस्तिष्क में उपजने से पहले ही बुद्धि उसे अस्वीकार कर सके, ताकि मन किसी एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित कर सके ।

मैंने पूछा, “भगवान, इसका अर्थ है कि हमारी सभी भावनाएं शरीर के विभिन्न विभिन्न भागों में उपस्थित आयर्वेद के तीनों दोषों के संयोजन के परिणाम और प्राण वायु के मिलने से उत्पन्न होती हैं?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मैं आपको एक सरल उदाहरण से समझाता हूँ कि हमारे शरीर और मस्तिष्क में श्रृंगार रस या प्रेम की भावना कैसे उत्पन्न होती है । प्राण वायु का प्रवाह जब हृदय क्षेत्र से नीचे नाभि तक आता है तो पित्त दोष के साथ मिलता है । इसे याद रखें, पित्त दोष जल और अग्नि तत्वों का संयोजन है, इसलिए तीन संभावनाएं हैं- एक, जब जल तत्व की मात्रा अग्नि से अधिक होती है, जैसे की हमारी इस स्थिति में, तो ये प्रेम की भावना या श्रृंगार रस उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार होता है। दूसरी सम्भावना, जब अग्नि तत्व की मात्रा जल तत्व से अधिक हो तो इस परिस्थिति में क्रोध रस उत्पन्न होता है और तीसरी सम्भावना जब दोनों तत्वों अग्नि और जल की मात्रा बराबर हो, तो शाँत रस उत्पन्न होता हैं । जब यह प्राण पानी की अधिकता वाले पित्त दोष के साथ मिश्रित होता है तो यह प्रवाह मनोमय कोश की ओर बढ़ता है और अहंकार में गतिशील उत्तेजना उत्पन्न करता है, और फिर ऊपर की दिशा (हृदय के पास) की ओर बढ़ता है, यह उत्तेजना हमारे मस्तिष्क के कणों की संरचना को बहुत ही सरल स्वरूप में व्यवस्थित करती है और ज्ञात प्रतिमान पुरे शरीर में सनसनी उत्पन्न करता है । इस सनसनी को ही प्रेम कहा जाता है । अब आप समझे?”

मैं भगवान हनुमान के चरणों में गिर गया और उनसे आत्मा के विषय में बताने के लिए अनुरोध किया ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समष्टि और व्यष्टि (कोरोनावायरस और हम- भाग-4) ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – समष्टि और व्यष्टि ☆

(कोरोनावायरस और हम- भाग-4)

“अलग कमरा है, बड़ा बेड है, तैयार भोजन मिल रहा है, टीवी है, अख़बार है, फोन है, सारी सुख सुविधाएँ हैं..,और क्या चाहिए? आराम से पड़े रहो, अपने दिन काटो..!”, वृद्धजन अपनी युवा संतानों या अन्य परिजनों से प्राय: ऐसी बातें सुनते हैं।

कोरोना संक्रमण के कारण देशव्यापी लॉकडाउन में अब युवा घर बैठे बोर हो रहे हैं।  ‘टाइमपास नहीं हो रहा…!’ ‘….आपस में कितनी बातें करें?’ ‘… मैं बाहर नहीं निकला तो बीमार पड़ जाऊँगा…!’ बोर होना तीन-चार दिन में ही बौराने में बदल रहा है। युवा मनोदशा में परिवर्तन के इस रहस्य को समझ नहीं पा रहा है।

आदिशंकराचार्य ने गृहस्थ जीवन के रहस्य को समझने के लिए एक राजा के शरीर में प्रवेश किया था। दूसरे की मनोदशा को समझने के लिए परकाया प्रवेश ही करना होता है।

अच्छा बेड, तैयार भोजन, टीवी, अखबार, सोशल मीडिया, सुख- सुविधाएँ सब तो हैं पर समय नहीं बीत रहा, ज़ंग चढ़ रहा है।

यही ज़ंग हमारे बूढ़े माँ-बाप-परिजनों पर भी चढ़ता है। इस ज़ंग से उन्हें बचाना हमारा दायित्व होता है जिससे प्रायः हम मुँह मोड़ लेते हैं। छोटी-सी कालावधि में हम आपस में बातें करके थक चुके जबकि वे वर्षों हमसे बातें करने के लिए तरसते हैं। अंतत: उन्हें एकांतवास भोगने के लिए विवश होना पड़ता है।

कोरोना वायरस से उपजे कोविड-19 से रक्षा के लिए आज कहा जा रहा है कि देहांत से बचना है तो एकांत अपनाओ। यही अखंड एकांत बूढ़ों को इतना सालता है कि वे देहांत मांगने लगते हैं।

समय ने एक अनुभव हम सबकी झोली में डाला है। इस अनुभव को हम न केवल ग्रहण करें अपितु सकारात्मक क्रियान्वयन भी करें। घर के वृद्धजनों को समय दें। उनसे बोले, सकारण नहीं अकारण बतियाएँ। गप लड़ाएँ, उनके साथ हँसे, मज़ाक करें। सपरिवार जब कभी घर से बाहर जाएँ तो उन्हें अपने साथ अवश्य रखें। कभी-कभी बाहर जाना केवल उनके लिए ही प्लान करें। कुछ बातें केवल उनके लिए ही करें ताकि परिवार में वे अपनी भूमिका और सक्रियता का आनंद अनुभव कर सकें। इससे जब तक श्वास रहेगा तब तक वे जीवन जीते रहेंगे।

स्मरण रहे, समष्टि का साथ व्यष्टि को चैतन्य रखता है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रातः 7:11 बजे, 26.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ चिंतन करे पर चिंता मुक्त रहकर परिणाम सुनहरे होंगे ☆ श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी  कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं। आज प्रस्तुत है उनका एक विचारार्थ आलेख उनकी एक समसामयिक आलेख चिंतन करे पर चिंता मुक्त रहकर परिणाम सुनहरे होंगे। )

☆ चिंतन करे पर चिंता मुक्त रहकर परिणाम सुनहरे होंगे☆

 चिंता और चिंतन – ओह चिंता शब्द पढ़ते ही चिंता में डाल दिया है। क्या लिखे, क्या नहीं लिखे, क्या करे… क्या नहीं करे.. और जो लिखे या कुछ ऎसा करे वो किसी अनुकूल हो सकता है। अगर नहीं हुआ तो परिणाम क्या होगा। ऎसे हजारों अनगिनत प्रश्नों की मन में बौसार लग जाती है। यही चिंता है जिसका परिणाम भयंकर होता है। दूसरी तरफ किसी बात या कार्य को करने से पहले उस पर चिन्तन किया जाए तो परिणाम कुछ और होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि दोनो शब्दों में बहुत बड़ा फ़र्क है। वैसे फर्क होना भी स्वाभाविक है। तो आईए मित्रों आज हम कुमार जितेन्द्र “जीत” के साथ चिंता और चिन्तन को एक विश्लेषण से समझने का धीरे धीरे प्रसास करते हैं। विश्वास है मेरा विश्लेषण आपके के अनुकूल होगा।

मन में क्यों उत्पन्न होती है चिंता –  जी हां एक अच्छा प्रश्न उभर कर सामने आया है कि आख़िर हमारे मन में क्यों उत्पन्न होती है चिंता? क्या वजह है उसकी जो इंसान को अन्दर से खोखला कर देती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो चिंता जब हम मन में किसी को पाने की चाहत रखते हैं, जो हमारे पास नहीं है और वह पूरी न हो या उसको खो जाने का डर लगा रहता है। किसी काम को तय समय पर पूरा नहीं करने से हमारा मन एवं बुद्धि दोनों अशांत से रहते हैं। जिससे चिंता उत्पन्न होती है। दूसरे रूप में नजर डाली जाए तो चिंता एक संज्ञानात्मक रूप, शारीरिक रूप, भावनात्मक रूप और व्‍यवहारिक रूप से उत्पन्न घटको की  मनोवैज्ञानिक दशा है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार चिंताचिन्ता को अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। जिसमें से कुछ प्रमुख विश्लेषण निम्न है-

‘‘चिन्ता एक ऐसी भावनात्मक एवं दु:खद अवस्था होती है, जो व्यक्ति के अहं को आलंबित खतरा से सतर्क करता है, ताकि व्यक्ति वातावरण के साथ अनुकूली ढंग से व्यवहार कर सके।’’

‘‘प्रसन्नता अनुभूति के प्रति संभावित खतरे के कारण उत्पन्न अति सजगता की स्थिति ही चिन्ता कहलाती है।’’

 

‘‘चिन्ता एक ऐसी मनोदशा है, जिसकी पहचान चिन्ह्त नकारात्मक प्रभाव से, तनाव के शारीरिक लक्षणों लांभवित्य के प्रति भय से की जाती है।

‘‘चिन्ता का अवसाद से भी घनिष्ठ संबंध है।’’

‘‘चिन्ता एवं अवसाद दोनों ही तनाव के क्रमिक सांवेगिक प्रभाव है। अति गंभीर तनाव कालान्तर में चिन्ता में परिवर्तित हो जाता है तथा दीर्घ स्थायी चिन्ता अवसाद का रूप ले लेती है।’’

जानिए क्या होता है चिंतन –  जब हम किसी बात को लेकर मन में कुछ पल के लिए सोचे और सोचने के बाद हमें शांति, एकाग्रता, उत्साहपूर्ण और प्रेम की अनुभूति होने लगे तो उसे हम चिंतन कह सकते हैं।

चिंतन के रूप – वर्तमान समय में इंसान किसी बात को लेकर चिंतन जरूर करता है। आज हम आपको चिंतन के रूप के बारे जागरूक करेंगे। ताकि हमारी भविष्य की पीढ़ी अच्छी राह मिले।

सकारात्मक चिंतन –  ओह शब्द पढ़ते ही मन में कुछ अच्छे ख्याल आने शुरू हो जाते हैं। वैसे आना भी स्वाभाविक है क्योंकि हम ठहरे इंसान….. हाँ हाँ… थोड़ा हंस लेते हैं। मित्रों  वर्तमान परिस्थितियों में अगर देखा जाए तो एक गहरी चिंता पूरे विश्व के सामने खड़ी हो गई है। और वो हम सब जानते ही हैं। समझ भी गए होंगे… वो है नोवेल कोरोना वायरस का कहर जो पूरे विश्व में फैल गया है। जिसका इलाज पूर्णतः अभी हुआ नहीं है। हजारों की संख्या में लोगों की मौते भी हो गई है। अब अगर हम उस चिंता पर सकारात्मक ऊर्जा से चिंतन करना शुरू कर दिया जाए तो परिणाम अपने स्वयं, परिवार, समाज, क्षेत्र और देश के लिए अच्छा रहेंगा। कहने का तात्पर्य यह है कि कोरोना वायरस के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए हम सरकार द्वारा जो हमे सावधानी रखने की सलाह दी जाती है। उन सावधानियों को समझे उस पर मनन करे। क्योकि वर्तमान स्थिति को देखते हुए कोरोना वायरस से बचने का एकमात्र उपाय बचाव ही है। यानी हम अपने आप को कितना सुरक्षित रख सकते हैं। *मित्रों* पूरी दुनिया विषम परिस्थितियों से गुजर रही है। हमे आवश्यकता है उस पर सकारात्मक चिंतन कर सभी को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए।

नकारात्मक चिंतन – ओह पड़ गए न सोचने की अब किसकी बात होने जा रही है। तो मित्रों आज हम चिंतन के दूसरे रूप जो सदियों से मानव जाति के लिए नुकसानदेह रहा है वो है नकारात्मक चिंतन। चलो हम वर्तमान परिस्थितियों पर ही विश्लेषण करे… आज हमारे सामने कोरोना वायरस के कहर को लेकर जो चारों ओर घमासान मचा हुआ है। हम उसको समझ नहीं रहे हैं। कुछ लोग उस पर नकारात्मक चिंतन करने में लगे हुए हैं। कोरोना वायरस के प्रभाव को हल्के में ले रहे हैं। उसके ऊपर न जाने कितने हँसी मजाक के संदेश, वीडियो बना रहे हैं। जो हमारे लिए घातक हो सकता है। क्योकि कोरोना वायरस की जागरूकता के बिना हम उसको रोक नहीं सकते हैं। और यह सब नकारात्मक चिंतन का ही एक भाग है। जिसका परिणाम कैसा होगा उसके बारे में हम कह नहीं सकते हैं। जैसा नाम वैसे परिणाम होंगे।

नकारात्मक चिंतन से फैलती है अफवाहें – ओह…. सबसे बड़ा वायरस जो कोरोना से भी तेज फैलता है वो है नकारात्मकत चिंतन से फैलती अफवाहें। *मित्रों*  वर्तमान में इन अफवाहें से बच के रहना होगा। किसी प्रकार का भ्रामक संदेश  फैलाने की कोशिश ना करे। हमें सोशल मीडिया पर सावधानी रखनी होगी। और एक अच्छे जागरूक इंसान बनने की कोशिश करनी होगी।

मित्रों आपसे सकारात्मक चिंतन में सहयोग की आशा –  मित्रों वर्तमान समय में साफ़ सफाई का विशेष ध्यान रखें। यही सबसे बड़ा उपाय है। किसी भीड़ भाड़ वाले इलाकों में एक पल भी नहीं रुके। किसी स्वास्थ्य संबधी कोई तकलीफ हो तो उसे छिपाने की कोशिश कताई ना करे। समय रहते अपने नजदीकी अस्पताल में दिखाने की मेहरबानी जरुर करे। तथा वर्तमान में अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो 24 घंटे का कर्फ्यू कोरोना वायरस चक्र में एक ब्रेक साबित हो सकता है। जी हां मित्रों 24 घंटे अगर कोरोना वायरस को नए इंसानी रूपी शरीर देखने को नहीं मिलेंगे तो वातावरण में मौजूद बड़ी संख्या में कोरोना वायरस खत्म हो जाएँगे। और हमारे लिए एक नए उजाले की किरण होगी।

मित्रों  हमारी सड़कें, बाज़ार ,दफ्तरों के दरवाजे, रैलिंग लिफ्ट आदि स्वतः ही स्टरलाइज हो जाएंगे। अंतः आप सभी से हाथ जोड़ कर निवेदन है कि आप इस मुहिम में साथ दें और सकारात्मक चिंतन कर अपने सकारात्मक विचारो से दूसरो को जागरूक करे । और हमारे लिए काम करने वाले जन सेवकों, चिकित्सकों व सैनिकों का उत्साह वर्धन करे।  चिंतन जरूरी है अवश्य करे, पर चिंता मुक्त रहकर

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 21 – महात्मा गांधी : आज़ादी का ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी : आज़ादी का ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 21 – महात्मा गांधी : आज़ादी का ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन

द्वितीय विश्व युद्ध के समय गठित ब्रिटिश वार कैबिनेट ने कुछ प्रस्ताव के साथ सर स्टैफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा ताकि काँग्रेस व ब्रिटिश सरकार के बीच जारी गतिरोध समाप्त किए जा सकें।यह प्रयास क्रिप्स मिशन  के नाम से जाना गया। चूंकि इन प्रस्तावों में कोई खास नई बात न थी अत: काँग्रेस व गांधीजी इससे सहमत न हुये और सर स्टैफर्ड क्रिप्स बैरंग वापस लौट गए। बम्बई में 7 व 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी ने खुली सभा कर भारत छोड़ो प्रस्ताव पास किया। गांधीजी  देश को अगले दिन 9 अगस्त  को विशाल आम सभा में ‘करो या मरो’ का जोशीला नारा देते उसके पहले ही वे गिरफ्तार कर लिए गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी किताब डिस्कवरी आफ इंडिया में लिखते हैं –

“8 अगस्त 1942 को काफी रात गए यह प्रस्ताव आखरी तौर पर मंजूर हुआ। चंद घंटों बाद, 9 अगस्त को सुबह बम्बई में और देश में दूसरी जगहों से बहुत-सी गिरफ्तारियाँ हुई। सारे प्रमुख नेता अचानक ही अलग हटा दिये गए थे और जान पड़ता है कि किसी की समझ में न आता था कि क्या करना चाहिए। विरोध तो होता ही और अपने-आप ही उसके प्रदर्शन हुये। इन प्रदर्शनों को कुचला गया, उन पर गोली चलाई गई, आँसू गैस इस्तेमाल की गई और सार्वजनिक भावना को प्रकट करने वाले सारे तरीके रोक  दिये गए। और तब ये सारी दबी हुई भावनाएँ फूट पड़ी और शहरों में और देहाती हलकों में भीड़ें इकट्ठी हुई और पुलिस और फौज के साथ खुली लड़ाई हुई। इस तरह 1857 के गदर के बाद बहुत बड़ी जनता हिदुस्तान में  ब्रिटिश राज्य के ढांचे को चुनौती देने के लिए पहली बार बलपूर्वक उठ खड़ी हुई। यह चुनौती बेमानी और बेमौके थी, क्योंकि दूसरी तरफ सुसंगठित हथियारबंद ताकत थी। यह हथियारबंद ताकत इतिहास में पहले किसी मौके पर इतनी ज्यादा नहीं थी।“

करेंगे या मरेंगे और इस मंत्र ने देश दीवाना बना दिया

आज अगस्त क्रान्ति की शुरुआत की वर्षगांठ है। आज से छियत्तर वर्ष पूर्व महात्मागांधी के आह्वान पर देश भर में राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का जूनून जन जन में व्याप्त हो गया था। कुछ मुट्ठी भर लोगों और एकाध संगठन को छोड़ सारा देश महात्मागांधी के मंत्र करेंगे या मरेंगे की भावना के साथ अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के साथ खड़ा हो गया।

बलिया का नाम मैंने अपनी युवावस्था में तब सुना जब जय प्रकाश नारायण की जीवनी पढ़ते समय जाना कि उनका जन्म स्थान सिताबदियारा बलिया से लगा हुआ है। फिर बलिया चन्द्रशेखर की कर्म स्थली भी थी। वहीं चन्द्रशेखर जो कांग्रेस में युवा तुर्क थे, इन्दिरा गांधी की नीतियों के घोर विरोधी और उनके मंत्रीमंडल को छोड़ने वाले  समाजवादी जो आपातकाल के दौरान जेल भी गये, बाद को भारत के प्रधानमंत्री बने तथा जिनके समय हमें सोना गिरवी रख देश की प्रतिष्ठा बचानी पड़ी।

स्टेट बैंक की लंबी सेवा के दौरान मैं अनेक बार बलिया वासियों से मिला और मैंने उनसे बलिया की क्रांति के बारे में जाना पर सटीक जानकारी तो मुझे पढ़ने मिली राजस्थान के कांग्रेसी  श्री गोवर्धन लाल पुरोहित द्वारा रचित  स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास में। वे लिखते हैं :-

” नौ अगस्त को यहां के सभी कार्यकर्ता बंदी बना लिए गए। सरकारी दमन के बाद भी  10 से  12 अगस्त को बलिया में पूर्ण हड़ताल रही। 12 अगस्त  को सारे जिले में तार काटने व यातायात के सभी साधन नष्ट करने का काम शुरु हुआ।14अगस्त तक तो सारे बलिया जिले का संबंध पूरे प्रांत से तोड़ डाला गया। 15अगस्त को जिला कांग्रेस के दफ्तर पर कांग्रेस का फिर से अधिकार हो गया। यहां के मजिस्ट्रेट ने जनता के सामने आत्म समर्पण कर दिया।

सोलह अगस्त को कांग्रेस कमेटी की आज्ञा से समस्त बाजार खुले। पुलिस ने सत्ता को जाते देख, गोली चला दी, परंतु स्वातंत्र्य वीरों पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ।19अगस्त को बलिया में ब्रिटिश शासन समाप्त कर दिया गया।सभी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को जेल से छोड़ दिया गया।20अगस्त को चित्तू पांडे की अध्यक्षता में नवीन राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हुई।इस सरकार के अधीन गांवों में ग्राम पंचायतें स्वतंत्र रुप से काम करने लगीं। 22 अगस्त तक बलिया में जनता सरकार चलती रही। 23 अगस्त की रात को गोरी पल्टन ने बलिया में प्रवेश किया, लूट खसोट व मारपीट का तांडव नृत्य होने लगा। सेना से मुठभेड़ करते हुए 46स्वातंत्र्य वीर काम आए। एक सौ पांच मकान फूंक दिये गये।लगभग अडतीस लाख रुपए की हानि समस्त जिले को उठानी पड़ी।

मन्मथ नाथ गुप्त ने लिखा कि बलिया प्रजातंत्र बना और कांग्रेस कमेटी का दफ्तर उसका केन्द्र बना। पंडित चीतू पांडे पहले जिलाधीश कहलाये। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक  इस समय तक जिले के दस थानों में से सात पर क्रान्तिकारियों का अधिकार हो गया था। शहर में ढिंढोरा पीट कर यह बता दिया गया कि अब बलिया में कांग्रेसी राज्य है।

सेना ने बलिया में प्रवेश करते हुए घोर दमन चक्र चलाया। सबसे पहले नौजवानों को पकड़ा गया। इन्हें ठोकरों से मारा गया, जेलों में अनेक कष्ट दिये गये। उमाशंकर दीक्षित, सूरज प्रसाद, हीरा पंसारी, विश्वनाथ, बच्चालाल व राजेन्द्र लाल बेरहमी से पीटे गए। बलिया के बाद अन्य गांवों में भी सेना ने कहर ढा दिया। सुखपुरा गांव के महन्त को इसलिए पीटा गया कि उसने बलिया प्रजातंत्र सरकार को दस हजार रुपए का चंदा दिया था। बासडी में जहां सरकारी खजाना लूटा गया था, वहां पर अंग्रेज सेनापति नेदरशील ने अंधाधुंध गोलियां चलवाई। रामकृष्ण सिंह व वागेश्वर सिंह को इतना पीटा गया कि वे शहीद हो गये। बलिया के तीस गांव में आग लगाई गई। रेवती गांव का सारा बाजार लूट लिया गया। जेल में बंद क्रान्तिकारियों पर अत्याचार का वर्णन यहां लिखते भी नहीं बनता है। थोड़े में गोरी सरकार के काले कारनामों की यह पराकाष्ठा थी।

देवनाथ उपाध्याय ने 64ऐसे लोगों की सूची तैयार की है जो बलिया क्रान्ति में शहीद हुए। वास्तव में इनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमिट रहेगा।”

यह तो बलिया की कहानी है। सारे देश में भारत छोड़ो आंदोलन  फैल गया। 1857के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद विदेशी सत्ता के विरूद्ध भारत में यह सबसे बड़ा व व्यापक संघर्ष था। दमोह जहां कभी मैंने पढ़ाई की वहां के महादेव गुप्ता सबसे कम उम्र के स्वतंत्रता सेनानी बने। वे शायद तब नाबालिग ही थे जब उन्होंने कांग्रेस का झंडा दमोह के  थाने या स्कूल भवन में फहराया था। गली गली शहर शहर स्वतंत्रता के दीवाने महात्मागांधी के मंत्र करो या मरो को दीवारों पर लिख रहे थे या जोर शोर से बोल रहे थे। इस अगस्त क्रान्ति का भारत की स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान है।

आज पद्मनाथ तैंलग का एक लेख सन 42 का क्रान्ति-पर्व पढ़ने मिला। शायद वे सागर के निवासी होंगे ऐसा अंदाज मैंने लेख पढ़कर लगाया। इस लेख की दो घटनाओं ने मुझे आकर्षित भी किया और प्रभावित भी। आप भी सुनिए :-

” ज्यों ही मैंने अपने साथी पं ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी के साथ अपनी स्कूल की नौकरी से त्याग पत्र दिया हम लोग की गिरफ्तारी के वारंट निकल गए। ज्योतिषी जी गिरफ्तार होकर जेल भेज दिए गए और सागर के डिप्टी कमिश्नर श्री एस.एन. मेहता ने भी मुझे गिरफ्तार करते हुए मेरे पाकिट में जो सत्याग्रह संबंधी  पर्चे थे, उन्हें फड़वा दिया ताकि मेरे उपर जुर्म साबित न हो सके। कुछ दिन पहले भी इन्ही श्रीनाथ मेहता ने  कटरा बाजार आंदोलन के समय अपने अंग्रेज पुलिस कप्तान वाटसन का हाथ पकड़ कर उसे रिवाल्वर की गोली चलाने से रोका था, जो एक नवयुवक सत्याग्रही पर रिवाल्वर तान ही रहा था, क्योंकि उस नवयुवक ने पुलिस कप्तान वाटसन के सर पर डंडा मारा था। उन दिनों विदेशी शासनकाल में भी ऐसे अधिकारियों की कमी नहीं थी। श्रीनाथ मेहता उनमें  एक थे।”

बाद में शायद इन घटनाओं के कारण उनका तबादला अंग्रेज सरकार ने कर दिया और उनकी जगह एक अंग्रेज को सागर का डिप्टी कमिश्नर बनाया गया। श्रीनाथ मेहता खेड़ावाल ब्राह्मण थे । वे दमोह जिले की हटा तहसील में पैदा हुए थे और हम सबके  पूर्वज कोई तीन सौ बरस हुए गुजरात से आकर पहले पन्ना और फिर हटा, दमोह में बस गए।

दूसरी घटना और भी लोमहर्षक है और बुंदेलखंडी गौरव की प्रतीक है।

“उन दिनों स्वाधीनता संग्राम की  लहर देहातों तक में फ़ैल  गई थी हम लोग प्रथम श्रेणी के सुरक्षा बंदी के रुप में सागर जेल में खुले मैदान में बैठे हुए थे कि आठ नौ साल का एक देहाती बालक कुर्ता और चड्डी पहने तथा अपना स्कूल बैग दबाए कुछ देहाती सत्याग्रहियों को लेकर जेल के अंदर दाखिल हुआ। हम लोगों ने उससे सरलता से पूंछा काय भैया , तुम्हें अपने बऊ द्ददा की याद तो आऊत हुईये। तुम माफी मांग के चले जैहो।

उस छोटे भोले भाले अपढ़ देहाती बालक ने जिस सरलता और निर्भीकता से उत्तर दिया, उसको सुनकर हम लोग दंग रह गये।उस बालक ने कहा कुतका मांगे माफी। हमारी बऊ ने कै दई है कि बैटा मर जइयो पै माफी मांग के अपनों करिया मौं हमें न दिखाइयो। एक टुरवा तो बिमारी से मर गओ, एक देस की खातिर सई, दादा मैं तो अपना जो बस्ता दबाए पढबै मदरसा जा रओ थो। रस्ता में कछु गांव वारे पेड़े काट के गिरफ्तार हो रये हते। मैंने भी एक कुल्हरिया मांग के एक पेड़े पै हनके दो हत दैं मारे। बस पुलिस को एक सिपाही हमें सोई गिरफ्तार करकें बंडा से मोटर गाड़ी पै बिठार के इनै लै आऔ। दादा, आपई  बताओ हम माफी कायखों मांगन चले।”

ऐसा जादू था महात्मा गांधी के आह्वान अंग्रेजों भारत छोड़ो और उनके मूल मंत्र करेंगे या मरेंगे का। इस बालक सरीखे असंख्य ऐसे लोग उस आंदोलन के साक्षी बने जिनके मन में आजादी की लौ महात्मागांधी ने जगाई और वे सब निस्वार्थ भाव से इस आंदोलन में कूद पड़े। उन सबको नमन।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कोरोना वायरस और हम- 3 (घर बैठे क्या करें ) ?☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कोरोना वायरस और हम- 3☆

घर बैठे क्या करें?

भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर देश ने 22 मार्च 2020 को जनता कर्फ्यू का जिस तरह समर्थन किया वह अभूतपूर्व था। इस समय भारत के कुछ राज्यों में लॉकडाउन है। इसके सिवा देश के विभिन्न राज्यों के 76 जिलों में भी लॉकडाउन घोषित हो चुका है। पंजाब ने लॉकडाउन को सख्ती से लागू करने के लिए कर्फ्यू लगा दिया है। महाराष्ट्र के 10 जिलों में लॉकडाउन है पर पूरे प्रदेश में निषेधाज्ञा लगा दी गई है। यह लेख पोस्ट करते समय महाराष्ट्र में भी कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई है।

सरकार और प्रशासन के स्तर पर जो हो सकता है, वह किया जा रहा है। आज भारत के मुख्य न्यायाधीश ने भी भारत सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही हमारे प्रधानमंत्री की पीठ थपथपा चुका है।

आज चर्चा हमारे स्वानुशासन और घर की व्यवस्था की। दौड़ती-भागती ज़िंदगी के हम ऐसे आदी हो चुके हैं कि अब घर पर रुकने की मानसिकता ही नहीं रही। इस समय घर पर रहना हम सब का सबसे बड़ा धर्म है पर घर में क्या करें, यह भी हम सबके सामने सबसे बड़ा प्रश्न है।

परिजनों के घर पर होने के कारण इस समय घर की महिलाओं का वर्कलोड बेतहाशा बढ़ा हुआ है। अपेक्षित है कि सभी परिजन विशेषकर पुरुष सदस्य घर के सभी कामों में बराबरी से नहीं अपितु ज्यादा से ज्यादा हाथ बटाएँ। घर के हर सदस्य का साथ मिलेगा तो घर की स्त्री पर काम का बोझ तो कम होगा ही, साथ ही वह परिजनों के घर में रहने का सही सुख भी उठा सकेगी।

टीवी और स्मार्टफोन तक खुद को सीमित रखने के कारण घर के सदस्यों में आपसी संवाद निरंतर कम हो रहा है। इसका दुष्परिणाम पुणे में देखने को मिला। घर से बाहर खेलने जाने पर मना किए जाने के कारण 11 वर्षीय बच्चे ने आत्महत्या का प्रयास किया। यह सुन्न कर देने वाली घटना है। बेटा या बेटी जिस भी आयु के हैं, प्रयास करके हम उसी आयु में लौटें और उनके मित्र बनें। गैजेट्स एकमात्र विकल्प नहीं हैं। मोक्षपटम/ शतरंज, लूडो, सांप-सीढ़ी, शब्दसंपदा, व्यापार जैसे अनेक बैठे खेल हम बाल-गोपालों और अन्य सदस्यों के साथ खेल सकते हैं। हमें अपने बचपन के खेल याद करने चाहिएँ। इससे हमारा बचपन लौटेगा और हमारे बच्चों का बचपन खिल उठेगा।

हम इस समय घर में आर्ट, क्राफ्ट से जुड़ी चीज़ें बनाना सीख सकते हैं और बना सकते हैं।ललित कलाओं से सम्बंधित लोगों के लिए यह आपाधापी से परे शांत समय है। इसका सृजनात्मक उपयोग कीजिए।

घर पर समय बिताना इस समय हमारी अनिवार्य आवश्यकता है। अलबत्ता इस समय को ‘क्वालिटी टाइम’ में बदल पाना हमारी प्रगल्भता होगी। क्वालिटी टाइम के लिए पुस्तकें पढ़ना और संगीत सुनना दो उत्कृष्ट साधन हैं।

मित्रों से अनुरोध है कि आप अपना समय कैसे बिता रहे हैं, इसे शेयर करें। इससे अनेक लोगों का मार्गदर्शन होगा।

करोना से लड़ना है हर पल। सार्थक बिताना  है  हर पल। शुभकामनाएँ।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

4:57 बजे, 23.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कोरोना वायरस और हम- 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कोरोना वायरस और हम- 2☆

1) वुहान.., मानो शब्द ही संक्रमित हो चला है। कोई उच्चारण भी नहीं करना चाहता। चीन के हुबेई प्रांत की राजधानी इस शहर से शुरू हुआ कोरोनावायरस और कोविड-19 का कहर। इसी शहर में फँसे हैं कुछ भारतीय नागरिक, विशेषकर छात्र। भारत सरकार लेती है एक दायित्वपूर्ण और साहसिक निर्णय। एयर इंडिया के पायलट, को-पायलट, क्रू ने बांधा मास्क, आवश्यक दवाइयाँ लिए साथ चली डॉक्टरों की टीम। ग्रामीण मेले में ‘मौत का कुआँ’ खेल दिखाया जाता है। ज़रा-सा संतुलन बिगड़ा कि मौत ने निगला। मौत के कुएँ में उतरा विमान, भारतीयों को साथ लिया और अपने देश के लिए भारी उड़ान।

2) इटली हो, ईरान, फिलीपींस, स्पेन या दुनिया का कोई भी देश, कर्तव्य, राष्ट्रनिष्ठा और साहस की यह गाथा हर जगह लागू है। देश या देश से बाहर, हमारा एक भी नागरिक संकट में है तो हमारी सरकार उसे उबारने के लिए तत्पर खड़ी है।

3) सरकारी अस्पतालों में भीड़ है। डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ, सफाई कर्मचारी, कपड़े धोने वाला सब अपनी ड्यूटी पर हैं। अपने प्राण की चिंता न कर हरेक मुस्तैदी से डटा है मरीज़ों की सुश्रुषा में।

4) कोविड-19 का संक्रमण बढ़ रहा है। सरकार ने शहरों को सैनिटाइज़ करने का निर्णय किया है। सफाई कर्मचारी अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए शहर का कोना-कोना सैनिटाइज कर रहे हैं।

5) रेल चल रही है, ड्राइवर अपनी ड्यूटी पर है। बस चल रही है, कंडक्टर और ड्राइवर ऑनड्यूटी हैं।

6) इस वैश्विक संकट का विश्व की अर्थव्यवस्था पर दुष्परिणाम होगा। लेकिन बैंक बंद कर दिए तो व्यवस्था चरमरा जाएगी। अत: समर्पण से अपना काम कर रहे हैं, बैंककर्मी।

7) भय, अफवाहों को जन्म देता है। ऐसी स्थिति में अपने प्राणों को संकट में डाल कर यथासंभव ऑनग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे हैं प्रसार माध्यमों के कर्मी।

8) मनुष्य ‘सोशल एनिमल’ है। हम ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग मोड’ पर हैं लेकिन सोशल मीडिया ने हमें सोशल बनाए रखा है। इंटरनेट और टेलीफोन विभाग के कर्मी चौबीस घंटे मुस्तैद हैं।

9) व्यापार का लाभ नहीं दायित्व का बोध है जो मेडिकल स्टोर्स,पंसारी, फल, सब्जी, दूध की दुकान, पेट्रोल, सीएनजी, डीजल के पम्प पर मालिक और कर्मचारी को निरंतर कार्यरत रखे हुए है।

10) ‘होम क्वारंटीन’, ‘आइसोलेशन’, ‘वर्क फ्रॉम होम’ अनेक विकल्पों का भार एक साथ ढो रही है महिलाएँ। परिवार के छोटे-बड़े हर एक के लिए दिन-रात जुटी है महिलाएँ।

11) ये कुछ उदाहरण भर हैं। अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिनके कर्मियों के बल पर देश चल रहा है और हम सबका अस्तित्व टिका है। इन सब के साथ खड़ी दिखती है भारत सरकार और राज्य सरकारों की सक्रियता, केंद्रीय स्वास्थ्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्रालय की चेतना।

महाभारत में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया था। असंख्य राष्ट्रसेवकों के रूप में योगेश्वर, कलयुग के इस महाभारत में साक्षात दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

आज शाम 5:00 बजे अपने घर की बालकनी में आकर थाली, ताली, घंटानाद, शंखनाद से इस विराट रूप को नमन अवश्य कीजिएगा। साथ ही नमन कीजिएगा उस विलक्षण सेनापति को भी जिसके नेतृत्व में देश कोरोना से अभूतपूर्व युद्ध लड़ रहा है।….जय हिंद!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

22.3 2020, 13.21 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #42 ☆ जनता कर्फ्यू और हम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  जनता कर्फ्यू और हम

मित्रो, कोरोनावायरस के संक्रमण से बचाव के एक उपाय के रूप में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कल रविवार 22 मार्च 2020 को  *जनता कर्फ्यू* का आह्वान किया है। हम सबको सुबह 7 से रात 9 बजे तक घर पर ही रहना है। 24 घंटे की यह फिजिकल डिस्टेंसिंग इस प्राणघातक वायरस की चेन तोड़ने में मददगार सिद्ध होगी।

मेरा अनुरोध है कि हम सब इस *जनता कर्फ्यू का शत-प्रतिशत पालन करें।* पूरे समय घर पर रहें। सजगता और सतर्कता से अब तक भारतवासियों ने इस वायरस के अत्यधिक फैलाव से देश को सुरक्षित रखा है। हमारा सामूहिक प्रयास इस सुरक्षा चक्र का विस्तार करेगा।

एक अनुरोध और, आदरणीय प्रधानमंत्री ने संध्या 5 बजे अपनी-अपनी बालकनी में आकर *थाली और ताली* बजाकर हमारे लिए 24 x 7 कार्यरत स्वास्थ्यकर्मियों, स्वच्छताकर्मियों, वैज्ञानिकों और अन्य राष्ट्रसेवकों के प्रति धन्यवाद का भी आह्वान किया है। हम इस धन्यवाद में परिवार के लिए अखंड कर्मरत महिलाओं को भी सम्मिलित करें।

समूह के साथी भाई सुशील जी ने एक पोस्ट में इसका उल्लेख भी किया है। कल शाम ठीक 5 बजे हम *अपनी-अपनी बालकनी में आकर थाली एवं ताली अवश्य बजाएँ।*

एक बात और, कृपया बच्चों को घर से बाहर खेलने के लिए न जाने दें। यह कठिन अवश्य है पर इस कठिन समय की यही मांग है। बच्चों को एकाध मित्र/सहेली के साथ घर पर ही खेलने को प्रेरित करें। बच्चों के हाथ भी साबुन/सैनिटाइजर से धुलवाते रहें।

विश्वास है कि हमारा संयम और अनुशासन हमें सुरक्षित रखेगा। स्मरण रहे, जो सजग हैं, उन्हीं के लिए जग है।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 36 – वर्ण संकर ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “वर्णसंकर। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 35 ☆

☆ वर्णसंकर

सभी चारों वर्णों में चार मुख्य दोष या विकार भी होते हैं प्रत्येक वर्ण में एक-एक । ब्राह्मणों में मोह या लगाव नामक विकार होता है, क्षत्रियों में क्रोध विकार होता है, लोभ या लालच वैश्यों का विकार है, और शूद्रों में काम-अवैध यौन संबंध विकार होता है । अब विभिन्न वर्णों में ये दोष कहाँ से आते हैं? आप कह सकते हैं कि ये दोष या विकार प्रकृति के विभिन्न गुणों के दुष्प्रभाव हैं । मोह शरीर और मस्तिष्क में अतिरिक्त या ज्यादा सत्त्व का दुष्प्रभाव है (सत्त्व प्रकृति के तीनों गुणों में सबसे शुद्ध और श्रेष्ठ है लेकिन फिर भी यह भौतिकवाद के अधीन ही है और इसकी अति भी नकरात्मकता उत्पन्न करती है)। क्रोध शरीर और मस्तिष्क में राजस गुण की अधिकता का दुष्प्रभाव है (राजस का अर्थ गतिविधि, गति, बेचैनी है जो निश्चित रूप से क्रोध में वृद्धि करता है), और इसी तरह अन्य दो वर्णों के लिए भी । चारों वर्णों में कई अन्य मामूली दोष भी होते हैं । जब वर्ण व्यवस्था बनाई गयी थी तब ब्राह्मणों में कम से कम दोष होते थे, क्षत्रियों में ब्राह्मणों से अधिक और बाकी दो से कम, और इसी तरह से अन्य वर्णों के लिए ।

अब अंतरजातीय विवाह और वर्णसंकर को समझने की कोशिश करें। मान लीजिए कि एक ब्राह्मण लड़का वैश्य लड़की से शादी करता है । झूठ बोलना भी वैश्य वर्ण का एक दोष है, क्योंकि व्यापार में यदि आप झूठ नहीं बोलते हैं तो आपको व्यापार में लाभ नहीं मिल सकता है । अब मान लीजिए कि विवाह के परिणाम स्वरूप इस ब्राह्मण पुरुष और वैश्य लड़की के यहाँ एक लड़के का जन्म होता है । मान लीजिए कि जब यह लड़का बड़ा हो जाता है तो वह अपने वंश के अनुसार ब्राह्मण के कार्यों शिक्षक या पुजारी या ज्योतिषी आदि को अपनाकर अपने गृहस्थ जीवन को चलाने के लिए धन अर्जित करना चाहता है। अब इस लड़के में अपने पिता और माता दोनों के गुण होना स्वाभाविक हैं, इसका अर्थ है कि उसके अंदर वैश्य जैसे लालच और झूठ बोलने का दोष भी अपनी माता से आ गया होगा । तो क्या वह पुजारी के अपने कर्तव्य का पालन करने में सक्षम हो सकता है? क्या लालच उसके मस्तिष्क में नहीं आयेगा जब वह किसी व्यक्ति के लिए अनुष्ठानों और समारोहों के लिए कुछ पूजा या कर्मकाण्ड करेगा? हर बार जब भी कोई उसे यज्ञ या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों आदि के लिए आमंत्रित करेगा तो क्या उसका लालच समय के साथ साथ नहीं बढ़ेगा? वह उन्हें पूरी श्रध्दा या ध्यान से नहीं कर पायेगा क्योंकि उसका लक्ष्य केवल धन एकत्र करना होगा । इसके अतिरिक्त, अगर किसी ने उससे पूछा कि क्या वह अनुष्ठान ठीक से कर रहा है, तो क्या वह झूठ नहीं बताएगा कि “हाँ मैं ठीक से कर रहा हूँ” क्योंकि उसमे अपनी माँ वैश्य के गुण भी प्राप्त हुए हैं । और जिन लोगों के लिए वह इन अनुष्ठानों को करेंगे, उन्हें गलत अनुष्ठानों के कारण नकारात्मक प्रभाव का सामना भी करना पड़ेगा ।

इसी तरह कल्पना करें कि यदि वह ज्योतिषी के पेशे का विकल्प चुनता है, तो क्या वह पैसे कमाने के लिए गलत भविष्यवाणी नहीं करेगा और वह अपने ग्राहकों को कुछ अंधविश्वास पूर्ण अनुष्ठान या दान देने के लिए मजबूर भी कर सकता है ।

इसी प्रकार एक शूद्र लड़की के साथ एक क्षत्रिय लड़के के अंतरजातीय विवाह की परिस्थिति लें । मान लीजिए कि ऐसे विवाह के पश्चात एक लड़की का जन्म हुआ, जिसमें क्रोध और वासना का दोष पैतृक रूप से आ जायेगा ।

क्या यह समाज में अवैध यौन संबंध और अपराध (क्रोध और वासना के कारण) नहीं बढ़ाएगा? इस प्रकार के अवैध यौन संबंध जातियों और वर्णो के नियमों से परे हैं जो अवश्य ही शादी के लिए लड़के और लड़की के गुणों को मेल करके करने चाहिए (यहाँ शादी में लड़के और लड़की की जन्म कुंडली और शादी समारोह में किये जाने वाले अनुष्ठानों और कर्मकांडो के आलावा उनके प्रकृति के तीन गुणों सत्व, राजस और तामस के संयोजन का मिलान भी है) ।

इस तरह के वर्णसंकर से दुनिया की वर्तमान स्थिति की कल्पना करें, जो वास्तव में सभी के लिए अराजक हो चुकी है । मैंने आपको एक स्तर का उदाहरण दिया है । अब आप कल्पना करें कि अभी तक जातियों के बीच कितना मिश्रण और अंतर-मिश्रण हो चूका है । तो जरा सोचिये मानव शरीर और मस्तिष्क के अंदर प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, राजस और तामस कितने पतले (dilute) हो चुके हैं । यही कारण है कि कलियुग नरक से भी बुरा है । यहाँ राजनेता जनता के पैसे को उड़ा रहे हैं । ब्राह्मण माँसाहारी भोजन तक कर रहे है यहाँ तक की लोग परिवारों के भीतर भी अवैध यौन संबंध स्थापित कर रहे हैं । लोग छोटी छोटी बातों के लिए एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं । और आप जानते हैं कि यह सब शुरू हुआ केवल वर्णसंकर की वजह से ।

आशीष एक पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा था । उन्होंने अपनी चेतना एकत्र की और विभीषण से कहा, “महोदय, क्या इसका कोई समाधान नहीं है? इस परिदृश्य के अनुसार, भविष्य में परिस्थितियाँ और भी बदतर हो जाएंगी?”

कहा, “मेरे प्रिय मित्र, यह कलियुग का भविष्य है और यह ऐसा ही है । यहाँ तक ​​कि अगर हम लोगों को इसके विषय में बताने की कोशिश करते हैं, और कहते हैं कि वे गलत कर रहे हैं, तो वे हमारी बात नहीं सुनेंगे । मैंने आपको बताया कि प्रत्येक युग के अपने नियम हैं और भगवान विष्णु प्रत्येक युग में पृथ्वी के लोगों की सहायता के लिए आते हैं और उस युग की आवश्यकताओं के अनुसार धर्म को फिर से स्थापित करते हैं । त्रेतायुगमें भगवान राम के रूप में आये थे, जिन्होंने कभी कोई नियम नहीं तोड़ा और पक्षियों, बंदरों, आदि जैसे ब्रह्मांड के छोटे जीवों की सहायता से रावण जैसे राक्षस का अंत किया और शारीरिक बल के उपयोग से नकारात्मकता समाप्त की । द्वापर युग में भगवान कृष्ण के रूप में आये जिन्होंने हमें सिखाया कि पारिवारिक जीवन का आनंद भोगते हुए भगवान की प्राप्ति कैसे की जाये और हमें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ भगवद गीता दिया । लेकिन कलियुग में यदि हम भगवद गीता के ज्ञान को आम लोगों को देने का प्रयास करेंगे, तो वे इसे सुनेंगे लेकिन अपने अमल में नहीं लायेंगे । कलियुग के लिए, भगवान की अलग योजना हैं, बस प्रतीक्षा करें और आपको याद रखना चाहिए कि भगवान विष्णु के कलियुग का अवतार अपने हाथों में तलवार के साथ आयेगा”

© आशीष कुमार  

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