हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 51 ☆ मानव ग़लतियों का पुतला है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मानव ग़लतियों का पुतला है ।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 51 ☆

☆ मानव ग़लतियों का पुतला है

‘ग़लत लोगों से अच्छी वस्तुओं की अपेक्षा करके हम दु:खों व ग़मों को प्राप्त करते हैं और आधी मुसीबतें हम अच्छे लोगों में दोष ढूंढ कर प्राप्त करते हैं’… इसमें अंतर्निहित है बहुत सुंदर संदेश… एक ऐसी सीख, जिसे अपना कर आप अपना जीवन सफल बना सकते हैं। इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि इंसान वही देता है, जो उसके पास होता है। यदि आप ग़लत लोगों की संगति में रहकर श्रेष्ठ पाने की चेष्टा करेंगे, तो आपको शुभ परिणाम की प्राप्ति कदापि नहीं होगी और एक दिन आपको अपनी भूल पर अवश्य पछताना पड़ेगा। ‘यह मथुरा काजर की कोठरि, जे आवहिं ते कारे’ से आप स्वयं ही अनुमान लगाएं कि काजल की कोठरी से बाहर आने वाला इंसान उजला कैसे हो सकता है? इसी प्रकार ‘कोयला होई न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ से स्पष्ट होता है कि बुरी व दूषित मनोवृत्ति वाले व्यक्ति से शुभ की आशा व अपेक्षा करना, स्वयं के साथ विश्वासघात करना है; जो भविष्य में दु:ख व अवसाद का कारण बनती है और उस स्थिति में मानव की दशा अत्यंत दयनीय हो जाती है, शोचनीय हो जाती है।’अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय निकल जाने के पश्चात् प्रायश्चित करना व्यर्थ है, निष्फल है, क्योंकि उसका परिणाम कभी शुभ हो ही नहीं सकता। इसलिए आज में अर्थात् वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, क्योंकि कल कभी आता नहीं और आज कभी जाता नहीं। सो! अतीत का स्मरण कर अपने वर्तमान को नष्ट मत करें। हां! अतीत से सबक व शिक्षा ग्रहण कर अपने आज अर्थात् वर्तमान को सुंदर अवश्य बनाएं, क्योंकि भविष्य सदा वर्तमान के रूप में ही दस्तक देता है।
दोष-दर्शन मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। हम प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति में दोष देखते हैं, जो हमारे अंतर्मन की नकारात्मकता को दर्शाता है। आधी मुसीबतों का सामना तो मानव को अच्छे लोगों में अवगुण तलाशने के कारण करना पड़ता है। इसलिए हमें दूसरों पर दोषारोपण करने की अपेक्षा, आत्मावलोकन करना चाहिए…अपने अंतर्मन में निहित दोषों व अवगुणों पर दृष्टिपात कर, उनसे मुक्ति पाने के उपाय तलाशने चाहिएं। जीवन में जो भी अच्छा व उपयोगी दिखाई पड़े; उसे न केवल सहेज-संजोकर रखना चाहिए, बल्कि जीवन में धारण करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए अर्थात् जो अच्छा व उपयोगी नहीं है; उसके विषय में सोचना भी हानिकारक है, त्याज्य है, जीवन में विष समान है। जीवन में जो भी होता है, मानव के हित के लिए होता है और परमात्मा कभी किसी का बुरा करना तो दूर–मात्र उसकी कल्पना भी नहीं करता, क्योंकि हम सब उस परम-पिता की संतान हैं। सो! आवश्यकता है, उसकी महत्ता को जानने-समझने व स्वीकारने  की।
सो! उस लम्हे को बुरा मत कहो; जो आपको ठोकर मारता है; कष्ट पहुंचाता है, बल्कि उस लम्हे की क़द्र करो, क्योंकि वह आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है अर्थात् यदि जीवन में कोई आपदा आती है, तो उस स्थिति में किसी को दोष मत दो और शत्रु व अपराधी मत स्वीकार करो, बल्कि उससे सीख लो और भविष्य में उस ग़लती को कभी मत दोहराओ। उस लम्हे को जीवन में सदैव स्मरण रखो, क्योंकि वह आपका गुरु है, शिक्षक है… जो जीने की सही राह दर्शाता है। ‘इस संसार में सबसे कठिन है… परवाह करने वालों को ढूंढना, क्योंकि इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ निकालते हैं।’ आधुनिक युग में हर इंसान स्वार्थी है तथा उपयोगिता के आधार पर संबंध कायम करता है, क्योंकि वह सदैव अहं में लिप्त रहता है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और अहंनिष्ठ मानव में सर्वश्रेष्ठता का भाव कूट-कूट कर भरा रहता है। इसलिए मानव ‘यूज़ एंड थ्रो’ के सिद्धांत में विश्वास करता है। इसी प्रकार संबंध भी उसी आधार पर कायम किए जाते हैं, जिससे मानव को लाभ प्राप्त होता है और वे उसकी स्वार्थ-सिद्धि में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही वह उन्ही कार्यों को अंजाम देता है; उन लोगों से ‘हैलो हाय’ करके स्वयं को भाग्यशाली स्वीकार, केवल उनकी ही सराहना करता है तथा समाज में अपना रूतबा कायम कर संतोष प्राप्त करता है।
सो! मानव को सदैव ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए, जो उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर बन, ढाल के रूप में खड़े रहें। एक सच्चा मित्र भले ही उसे साथ दिखाई न दे, परंतु कठिनाई के समय में वह उसका साथ अवश्य निभाता है। ऐसे लोगों की संगति मानव को श्रेष्ठतम स्थिति तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है तथा वह उसे अपने जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि स्वीकार करता है। सच्चा मित्र उसे बियाबान जंगल में अकेला भटकने के लिए कभी नहीं छोड़ता, बल्कि दु:ख के समय धैर्य बंधाता है;  प्रोत्साहित करता है… ‘मैं हूं न’ कहकर उसे टूटने नहीं देता। वह उसे आगामी आपदाओं के भंवर से निकाल, अपने दायित्व का यथोचित निर्वहन करता है।
आइए! मित्रता में दरार उत्पन्न करने वाले तत्वों के विषय में भी जानकारी प्राप्त कर लें। मानव का अहं अर्थात् स्वयं के सम्मुख दूसरे के अस्तित्व को नकार कर उसे हेय समझना– मैत्री भाव में शत्रुता का मुख्य कारण होता है। इसके साथ दूसरों से अपेक्षा करना भी मित्रता में सेंध लगाने के समान है। दोस्ती में छोटे -बड़े व अमीरी-गरीबी का भाव संबंध-विच्छेद का मुख्य कारण स्वीकार किया जाता है। कृष्ण सुदामा की दोस्ती आज भी विश्व-प्रसिद्ध है, क्योंकि वे तुच्छ स्वार्थों में लिप्त नहीं थे और वहां त्याग, सौहार्द व अधिकाधिक देने का भाव विद्यमान था। अविश्वास, संशय, शक़ व संदेह का भाव ही शत्रुता का मूल है। सो! मित्रता में अटूट विश्वास व समर्पण भाव होना अपेक्षित है। हमें यह नहीं सोचना है कि उसने हमारे लिए क्या किया है, बल्कि हममें वह सब करने का जुनून होना अपेक्षित है, जिसे करने का हम में साहस व सामर्थ्य है। सो! जितना हममें त्याग का भाव सुदृढ़ होगा; हमारी दोस्ती उतनी प्रगाढ़ होगी।
‘मौन सभी समस्याओं का समाधान है। आप तभी बोलिए, जब आप अनुभव करते हैं कि आपके शब्द मौन से बेहतर हैं।’ मौन नौ निधियों का आग़ार है। यदि आप किसी विषय, संवाद व समस्या पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते और कुछ समय तक शांत बने रहते है, तो उसका समाधान स्वयं निकल आता है। मौन में वह असीम, अद्वितीय व अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं; जिनका प्रभाव अक्षुण्ण होता है। वाणी का माधुर्य व यथासमय बोलना– शत्रुता का शमन करता है। वैसे अधिकतर समस्याओं का मूल हमारे कटु वचन हैं; जिसके अनगिनत उदाहरण हमारे समक्ष हैं। इसके साथ सभी उलझनों का जवाब व समस्याओं का समाधान भी अपनी जगह सही है। ‘तू भी सही है और अपनी जगह मैं भी सही हूं’– जब हम इस सकारात्मक दृष्टिकोण को जीवन में अपना लेते हैं, तो समस्याएं अस्तित्वहीन हो जाती हैं। हां! इसके लिए हमें दरक़ार होगी– विनम्रता से दूसरे की महत्ता स्वीकारने की। सो! यदि हम इस सिद्धांत को जीवन का हिस्सा बना लेते हैं, तो जीवन रूपी गाड़ी में स्पीड-ब्रेकर अर्थात् अवरोधक कभी आते ही नहीं।
सो! हमें सदैव अच्छे लोगों की संगति करनी चाहिए और उनमें अवगुणों-दोषों की तलाश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मानव तो ग़लतियों का पुतला है। यदि हम संपूर्ण मानव की तलाश में निकलेंगे, तो हमें सफलता नहीं प्राप्त होगी और हम नितांत अकेले रह जाएंगे। इसलिए हमें उनसे यह सीख लेनी चाहिए कि ‘जब दूसरे लोग हमारे दोषों को अनदेखा कर, हमारे साथ संबंध-निर्वाह कर सकते हैं, तो हम उन्हें दोषों के साथ क्यों नहीं स्वीकार कर सकते?’ इसके साथ ही हमें ग़लत लोगों से शुभ की अपेक्षा करने के भाव का त्याग करना होगा…यही मानव जीवन की उपलब्धि व पराकाष्ठा होगी। इसलिए जो आपको मिला है, उसे श्रेष्ठ समझ स्वीकार करना– सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम बनाना ही मानव की सफलता का रहस्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 4 ☆ समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का।)

☆ किसलय की कलम से # 4 ☆

☆ समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का ☆

प्रकृति और पर्यावरण परस्पर पूरक हैं। प्रकृति का असंतुलन ही पर्यावरण क्षरण का अहम कारक है। देश में जहाँ कांक्रीट जंगल बढ़ते जा रहे हैं और वन्यक्षेत्र कम हो रहे हैं, बावजूद इसके भारत में अब भी विस्तृत और सुरक्षित हरित् क्षेत्रफल की कमी नहीं है। सत्यता यह भी है कि आवास, उद्योग व कृषि क्षेत्रों के विस्तार से वन्य क्षेत्रफल में कमी आई है परंतु प्राकृतिक असंतुलन का मूल कारण शहरी, कृषि और औद्योगिक भूखंडों में अनिवार्यतः वृक्षारोपण एवं वन्यक्षेत्रों का और विस्तार न किया जाना है। घरों, इमारतों, सड़कों, औद्योगिक क्षेत्रों व कृषिभूमि में यथोचित वृक्षारोपण की अनिवार्यता सुनिश्चित होना चाहिए। आज प्रमुखतः शहरी क्षेत्रों में इसकी उपेक्षा का दंश वहाँ का हर नागरिक झेल रहा है। गर्मी का प्रकोप, जलस्तर में कमी एवं वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी आज स्पष्ट देखी जा सकती है। हमारे आसपास व सड़कों के किनारे छायादार वृक्षों की कमी समस्त जीवधारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है। वनों तथा पेड़ों की कटाई से जलस्रोत कम हो रहे हैं। नदियों का पानी घट रहा है। अंधाधुंध विषैले धुएँ से वायुमंडल जहरीला होता जा रहा है। इसके ठीक विपरीत आज भी ग्राम्यांचलों की हरियाली और लहराते खेत सभी को आकर्षित करते हैं। शुद्ध वायु ग्रामीणों की तंदुरुस्ती का एक प्रमुख कारक है।

हम कुछ प्रतिशत सक्षम परिवारों को छोड़ दें तो आज शहरी क्षेत्रों में आवास की विकट समस्या खड़ी हो गई है। लोग घोंसलों जैसे  छोटे कमरों, फ्लैट्स और मकानों में रहने हेतु बाध्य हैं। नगरों-महानगरों की बहुमंजली इमारतों में निवासरत मनुष्यों का घनत्व मधुमक्खियों के छत्तों जैसा हो गया है। ऐसी परिस्थितियों में आदमी अपने स्वास्थ्य व पर्यावरण पर ध्यान न देकर तथाकथित समृद्धि की चाह में अपने ही स्वास्थ्य की बाजी लगा बैठा है। निरंतर प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध चलने की हठ ने भी मनुष्यों में जो बीमारियाँ व परेशानियाँ पैदा की हैं, इन मानवघाती गलतियों का क्रम पिछली सदी से ही शुरू हो चुका था और तब से अभी तक हम अर्थ व स्वार्थ में ही संलिप्त हैं। हमने अपने उन ऋषि-मुनियों, महात्माओं और बुद्धिजीवियों से कुछ नहीं सीखा, जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से मानव कल्याण हेतु अपना श्रेष्ठ अर्पण किया। हम अपनी अधिकांश अच्छी परंपराएँ, प्रथाएँ और आदर्श कर्त्तव्य तक भूलते जा रहे हैं।

पाश्चात्य जीवनशैली, परिस्थितियाँ व संस्कृति के मूलभाव को जाने बगैर हम भारत में रहकर उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। विश्व के प्रत्येक देश अथवा भू-भाग के लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियाँ स्वमेव निर्धारित कर लेती हैं। हमारी भारतीय भौगोलिक परिस्थितियाँ उनसे बहुत भिन्न हैं। संस्कार और संस्कृति अहिंसावादी व उदार है, लेकिन आज के वैज्ञानिक युग ने विश्वस्तरीय नजदीकियाँ बढ़ा दी हैं, जिसके अब फायदे कम नुकसान ज्यादा दिखाई पड़ने लगे हैं। विश्व में बढ़ती वैमनस्यता, प्रतिस्पर्धा, वर्चस्व की भावना और अर्थ की आकांक्षा ने मतभेद और मनभेद दोनों पैदा कर दिए हैं। आज सीधा, सरल, सुखी व शांतिमय जीवनयापन किताबी बातों जैसा हो गया है।

एक जमाने में लोग ताजी हवा, स्वच्छ जल, प्राकृतिक परिवेश, शुद्ध-पौष्टिक-खाद्यान्न, योग, व्यायाम व नियम-संयम पर अधिक ध्यान दिया करते थे। शनैः शनैः यही ऐशोआराम और धनोपार्जन इंसान का ही दुश्मन बनता जा रहा है। स्वास्थ्य को छोड़कर सुख का मोह ही आज इंसान की सबसे बड़ी समस्या बन गई है। बदलती जीवनशैली एवं समयाभाव से उत्पन्न परिस्थितियों पर यदि हम गौर करें तो आज अपनाई जा रही दिनचर्या और रहन-सहन स्वयं को अप्रासंगिक तथा हास्यास्पद लगने लगेगी। हमने सुना है कि एक समय जब हमें पानी पीना होता था तो हमारे घर के लोग कुएँ आदि जलस्रोतों से ताजा-शीतल जल सामने प्रस्तुत कर देते थे। घरों के चारों ओर फलदार तथा छायादार वृक्ष हुआ करते थे। बिना रासायनिक खाद के बाड़ियों व खेतों में सब्जियाँ उपलब्ध रहती थीं। गर्मी में पेड़ों के नीचे शीतल छाया में आराम करना कितना सुखद होता था। आँगन में शीतल मंद पवन व प्राकृतिक वातावरण के आनंद की आज कल्पना ही रह गई है।

आज हमारी जो दिनचर्या है, हम जो करने हेतु बाध्य हैं, यदि चाह लें तो उसे बदला भी जा सकता है। कुछ भविष्यदृष्टा व प्रकृति प्रेमियों ने स्वयं को बदलना भी प्रारंभ कर दिया है। लोग दूषित शहरी जीवन को त्याग गाँवों की ओर पलायन करने लगे हैं। लोग प्रकृति की गोद में वृक्षारोपण, जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने के अभियान में जुट गए हैं। कुछ लोग योग व स्वाध्याय के माध्यम से अपनी जीवनशैली  बदलने में लगे हैं। इस समझदारी की आज सबसे बड़ी जरूरत इसलिए भी है कि ‘जान है तो जहान है’, जब हम ही नहीं रहेंगे तो हमारे द्वारा कमाये गए धन और संसाधनों का क्या औचित्य रहेगा?

सोचिए, अब पहले ताजे और शीतल जल को भूमि से निकालकर छत पर बनी टंकियों में कई दिनों के लिए भंडारण करते हैं। फिर दुबारा फ्रिज में शीतल करने रखा जाता है। तत्पश्चात उसके पीने की बारी आती है। पहले ईंट-कंक्रीट के बने कमरों का निर्माण किया जाता है जहाँ प्राकृतिक वायु, सूर्यप्रकाश और खुलापन नहीं होता। फिर वहाँ कृत्रिम प्रकाश, पंखे, ए.सी. से सामान्य वातावरण का अनुभव कर खुश होते हैं। पहले घरों के वातायन-दरवाजे बंद किये जाते हैं फिर बिजली और पंखों के उपयोग से खुलेपन का अनुभव करते हैं। पेड़-पौधे, पुष्प-लताएँ, पशु-पक्षी व पर्वत-जंगलों की कृत्रिमता से कमरे व हाल सजाकर नकली खुशी पाते हैं। ताजे फल-फूल, जूस व खाद्य पदार्थों को खाने के बजाए उन्हें रसायनों से संरक्षित कर सीलबंद कर उन्हें फ्रिजों और कोल्ड स्टोरों में रखते हैं। फिर रसायनों और संरक्षण अवधि के दुष्परिणामों की चिंता किए बगैर एक्सपायरी डेट के पहले खाकर स्वयं को सुरक्षित मान लेते हैं। चिंतन करने से ही समझ में आएगा कि हम अपने स्वास्थ्य की खातिर तरोताज़ा चीजों के उपयोग हेतु समय न निकालकर अपने ही शरीर को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं। अर्थ को जीवन से अधिक मूल्यवान मानकर ऐसी असंयमित जीवनशैली का अभ्यस्त आज का इंसान अपनी बेवकूफियों को बुद्धिमानी समझ बैठा है।

यह बड़ी विडंबना ही कही जाएगी कि इस मानव और मानव समाज के हितार्थ जब प्रकृति अपने खुले हाथों से सब कुछ लुटाना चाहती है, तब भी मानव उसका उपभोग नहीं करना चाहता, लेकिन कुछ ही अवधि पश्चात प्रकृति प्रदत्त इन्हीं चीजों को हमने खाने-पीने की आदत में शुमार कर लिया है, अर्थात ताजी व स्वस्थ चीजें खाने-पीने के लिए हम प्रयास और अवसर भी नहीं निकाल पा रहे हैं।

देखते ही देखते एक शताब्दी में ही हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। इतनी प्रगति और इतना परिवर्तन मानव समाज के स्वास्थ्य को लेकर किया गया होता तो आज मानव जीवन कितना सुखद व स्वस्थ होता? बीमारियों का कहीं नामोनिशान नहीं होता। आज जितना धन स्वास्थ्य को लेकर निजी व शासकीय स्तर पर व्यय किया जा रहा है, उससे हमारी यथार्थ प्रगति को पंख लग गए होते। सारांश यह है कि हमने आज तक स्वार्थान्ध हो जितनी स्वयं की क्षति की है जितने विनाश की ओर अग्रसर हुए हैं, यदि यही क्रम और गति रही तो एक दिन इस मानवीय जीवन की भयावह दुर्गति निश्चित है।

हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय उन अंतिम अवसरों में एक उपयुक्त अवसर है जब हम अपनी सोच, अपनी मानसिकता और अपनी जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, व मोह इन पाँचों विकारों को सीमित व नियंत्रण में रखना होगा, तभी मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी। यदि हम बदलेंगे तो युग निश्चित रूप से बदलेगा, बस शर्त यही है कि दूसरों का इंतजार किए बगैर हमें स्वयं से ही शुरुआत करना पड़ेगी। आज एक नए जीवन, नए समाज और इस नवीन विचारधारा से जुड़ने और जोड़ने का भी समय आ गया है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 32 – बापू के संस्मरण-6 बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 32 – बापू के संस्मरण – 6 – बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ☆ 

 

गांधीजी दक्षिण  अफ्रीका  मे सत्याग्रह  चलाने  के सिलसिले मे  गिरफ्तार  होकर फाक्सरस्ट जेल मे  बंद  कर  दिये  गए थे।जेल मे उनके  एक सहयोगी  श्री  वेस्ट  ने उन्हे  तार भेज  उनकी  पत्नी  कस्तूरबा  की बीमारी  की सूचना  दी। गांधीजी  के जेल के सहयोगिओ ने उन्हे सलाह  दी थी  कि वे जुर्माना  अदा  कर  जेल  से बाहर  होकर अपनी  पत्नी  कस्तूरबा  को देख  आयें  लेकिन  गांधी जी ने दृढ़ता  के साथ  इस सुझाव  को खारिज   कर दिया  और 9 नवम्बर 1908 को जेल से ही कस्तूरबा  को एक बहुत मार्मिक  पत्र  लिखा।

गांधीजी अपने  पत्र मे लिखते  हैं  कि  तुम्हारी  तबीयत  खराब  होने  की सूचना  पाकर मेरा हृदय  फटा जा रहा  है  और  मैं  रो रहा हूँ  लेकिन तुम्हारी सुश्रुषा करने  कैसे आऊँ, ऐसी स्थिति  नहीं है।सत्याग्रह  संघर्ष  को मैंने अपना सब कुछ अर्पित  कर दिया है।इस लिए मेरा  आना  नहीं हो सकता।

जुर्माना  दूँ  तभी आ सकता  हूँ  और जुर्माना मुझसे दिया नहीं जाएगा।मेरी बदकिस्मती से कहीं  ऐसा हो कि तुम चल बसो  तो मैं  इतना ही कहूँगा  कि तुम पर मेरा इतना  स्नेह  है कि तुम मर  कर भी मेरे मन मे जीवित  रहोगी।मैं तुम्हें विश्वासपूर्वक  कहता हूँ  कि यदि तुम चली जाओगी  तो मैं तुम्हारे  पीछे  दूसरी  शादी  नहीं करूंगा।ऐसा मैं  कई बार  कह भी चुका  हूँ।

तुम ईश्वर मे आस्था  रखकर  प्राण त्यागना। तुम मर जाती  हो तो यह भी सत्याग्रह  होगा। हमारा  संघर्ष  मात्र राजनीतिक  नहीं  है। यह संघर्ष  धार्मिक  है  इसलिए अत्यंत शुद्ध  है।उसमे मर  जाएँ  तो क्या ,और जीवित  रहे  हो क्या ? आशा है , तुम भी  ऐसा सोंच  कर तनिक भी खिन्न  नहीं होगी। इतना  मैं  तुमसे  मांगे  लेता  हूँ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ एक अनोखे व्यक्तित्व की स्वामिनी… परम पूज्यनीय माता जी स्वर्गीय दुर्गा सिंह रघुवंशी ☆

☆ एक अनोखे व्यक्तित्व की स्वामिनी… ☆

(आज का अंक  ई – अभिव्यक्ति परिवार के परम आदरणीय सदस्य वरिष्ठ साहित्यकार एवं हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी एवं उर्दू के विद्वान अग्रज कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी की परम पूज्यनीय माता जी स्वर्गीय  दुर्गा सिंह पत्नी स्व० डा० शिवमूरत सिंह जी निवासिनी ग्राम व पोस्ट कैथी वाराणसी को समर्पित है।) 

आज हमारे बीच नहीं रही वह मातृत्व सत्ता जो हमें हर बार मिलने पर ममतामयी स्नेह के बंधन में बांधती नजर आती थी।

जिनके हृदय में दुखी तथा पीड़ित जनों के लिए अपार स्नेह, सेवा भाव, तथा अपने दरवाजे पर हर आगंतुकों के लिए आतिथ्य धर्म का निर्वहन ही जिनकी दैनिक दिनचर्या का अंग थी।

उम्रदराज होने पर भी उमंग तथा उत्साह की प्रतिमूर्ति थी, जिनके भीतर नेतृत्व क्षमता कूट-कूट कर भरी थी दुबले-पतले शरीर पर  भी उम्र का प्रभाव अथवा आलस्य का नामोनिशान नहीं, समय के प्रति पाबंदी, सब मिलाकर एक ऐसी शख्सियत की संरचना जो लोगों को संम्मोहित कर देती थी।

उनका हम लोगों के बीच से अचानक चले जाना जहां हम सभी को अचंभित कर गया, वहीं परिवार जनों  को हतप्रभ, तथा स्तब्ध कर देने वाला रहा, हम जब कभी  भी उस राह से गुजरेंगे तब  कदाचित हमारे नेत्र उन्हें अवश्य ढूंढेंगे।

वे हमारी स्मृति पर हमेशा विराजमान रहेंगी, जाते जाते वे  अपने पीछे एक भरा पूरा परिवार छोड़ गई है जिसमें पुत्र नवीन सिंह,आईएफएस,  पुत्र कैप्टन प्रवीण सिंह रघुवंशी, NM, भारतीय नौसेना तथा पुत्रियाँ पुत्र वधुएं समेत परिवार जनों की लंबी श्रृंखला जो उनके सुखी पारिवारिक जीवन की कहानी कहती हैं।  आपने गीता तथा रामायण के भाष्य को अपने दैनिक आचरण में जिया था।

हम ऐसे व्यक्तित्व की स्वामिनी दुर्गा मइया को शत् शत् नमन अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए ईश्वर से कामना करते  कि पंचतत्व में विलीन मरणधर्मा पुण्य शरीरा  की  मृतक आत्मा को शांति प्रदान करें तथा परिवार जनों को दुख सहने की असीम शक्ति दे।।।

सादर नमन। अश्रुपूर्ण  विनम्र श्रद्धांजलि ।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः !!

 

श्री सूबेदार पाण्डेय, वाराणसी,   हेमन्त बावनकर, पुणे एवं समस्त ई -अभिव्यक्ति साहित्यिक  परिवार

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आध्यत्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – त्रयोदश अध्याय (21) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

त्रयोदश अध्याय

(ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय)

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌ ।

कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।।21।।

प्रकृति से उपजे गुणों का ,करता पुरूष है भोग

यही गुणों के संग से , जनम-मरण का रोग ।।21।।

भावार्थ :  प्रकृति में (प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिए) स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।)॥21॥

 

The soul seated in Nature experiences the qualities born of Nature; attachment to the qualities is the cause of his birth in good and evil wombs.।।21।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रिय मित्रों,

श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है  की श्रृंखलाबद्ध कड़ियों की अगली कड़ी का प्रकाशन कल से यथावत जारी रहेगा। पर्यावरण दिवस की महत्ता को देखते हुए इस लघु आलेख को आपसे साझा न कर पाना कदाचित अपने आप में अन्याय होगा।  

☆ संजय दृष्टि  ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆

(मित्रो!  पर्यावरण दिवस 5 जून 2020 के अवसर पर अपना एक  लघु आलेख साझा कर रहा हूँ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस आलेख को आप सबका भरपूर नेह मिला है।)

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( 30 मई 2017 को  मुंबई से पुणे लौटते हुए लिखी पोस्ट। )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार 

(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का बंजारा लोक गीतों के सांस्कृतिक अध्ययन पर एक शोधपरक आलेख बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन। यह आलेख आपको बंजारों के लोकगीतों के माध्यम से उनके जन-जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं से भी अवगत कराने का प्रयास करेगा। हम भविष्य में आपसे ऐसे ही सकारात्मक साहित्य कि अपेक्षा करते हैं। इस अतिसुन्दर आलेख के लिए आपकी लेखनी को सादर नमन। )

☆ बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन ☆

भारत देश में कई सारी लोकसंस्कृतियाँ हैं। लोक संस्कृति को लोग साधारणतया ग्रामीण संस्कृति का पर्याय मानते हैं। जबकि यह उन सभी लोगों की संस्कृति है जो किसी समुदाय का हिस्सा है, जिनकी अपनी कुछ मान्यताएं तथा परंपराएं हैं। बंजारा संस्कृति भी भारत की एक महत्वपूर्ण संस्कृति है और जिसकी अपनी एक भाषा तो है किंतु न तो उसकी अपनी कोई लिपि है और ना ही कोई उसका अपना कोई व्याकरण। फिर भी इनके गीत और कथाएं आज भी मौखिक रूप में जीवित है। इनकी संस्कृति में समय के साथ कुछ बदलाव तो आते रहे हैं किंतु इनके लोकगीतों में कभी ठहराव नहीं आया है। वे किसी नदी की धारा के समान निरंतर प्रवाहमान रहे हैं, जिसमें उसकी अपनी एक सुगंध भी होती है। उनके गीतों से उनकी संस्कृति की छवियाँ साकार होती रही है।

बंजारा वह व्यक्ति है, जो बैलों पर अनाज लादकर बेचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है।  इन बंजारों का कोई ठौर ठिकाना नहीं होता ना ही कोई घर द्वार। अपना पूरा जीवन वे यायावार, घुम्मकड्ड बनकर रह जाते हैं। इनका किसी स्थान विशेष से कोई लगाव नहीं होता। सदियों से यह समाज देश के दूर दराज इलाकों में निडर होकर यात्राएँ करता रहता है।

बंजारों का मूल लगभग सभी इतिहासकारों ने राजस्थान को ही माना है।  बंजारा समाज भारत के प्रत्येक प्रांत में अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे महाराष्ट्र में बंजारा, कर्नाटक में लमाणी, आंध्र में लंबाडा, पंजाब में बाजीगर, उत्तर प्रदेश में नायक । अनादि काल से यह समाज व्यापार करता रहा था। तब से इस जाति को वाणिज्यकार के नाम से संबोधित किया जाता है। वाणिज्य शब्द को हिंदी में वणज कहा जाता है तथा बनज से ही बनजारा शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। बणजारा शब्द मुक्त जीवन के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, आप को हिंदी गीत की वह  पंक्तियाँ तो याद ही होगी,

ईक बणजारा गाये, जीवन के गीत सुनाये

हम सब जीनेवालों को जीने की राह सिखाए।

कर्नाटक की कई जातियों में बंजारा प्रमुख हैं। रंगीन आकर्षक पहनावे और गहनों से अलंकृत इन बंजारा स्त्री पुरूषों में उनकी संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। उत्तर भारत के राजस्थान मूल के ये लोग भारत के कोने कोने में फैले हुए हैं और समूचे भारत में इन्हें बंजारा के नाम से पहचाना जाता है। इनकी विशिष्ट वेशभूषा, भाषा, संस्कृति, रहन सहन आदि में अधिक समानता है।

जिस प्रकार किसी भी शुभ कार्य के प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, भगवान से प्रार्थना की जाती है वैसे ही बंजारों में प्रार्थना की जाती है। इसके लिए भी एक गीत है,

ये पणि जे पणि

गंगा पणि सरसती

निरंकार तू हर जे बोलो।

उपर्युक्त प्रार्थना के अनुसार गंगा सरस्वती का परिसर ही बंजारा संस्कृति का मूल बस्ती स्थान है। बंजारा समाज में नारियों को भी ‘हरपळी’ कहा जाता है। ‘हरपळी’ का बंजारा बोली में अर्थ- हडप्पा की रहनेवाली। इस संदर्भ में यह गीत दिखाई देता है।–

मारा हरपळी याडी

मारी हरपळी बाई

मार हरपळ नायकन

बंजारा संस्कृति में ज्यादातर लोग गाय-बैलों का ही व्यापार करते थे। जिस कारण बंजारा समाज को ‘गोर समाज’ भी कहा जाता है। हडप्पा संस्कृति के लोग भी खेती, व्यापार करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि, बंजारा जाति यह सिंधु संस्कृति तथा हडप्पा संस्कृति के काल की रही है। सिंधु संस्कृति की बहुत सारी मान्यताएँ बंजारा संस्कृति में दिखाई देती हैं।

एक सर्वे के अनुसार कर्नाटक में बंजारों की जनसंख्या 44,72.000 है और इनको परिशिष्ट जातियों में वर्गीकृत किया गया है। बेलगाँव डिविजन में जिसमें बागलकोट, वेलगाव, विजापुर, धारवाड, गदग, हावेरी और उत्तर कन्नड इलाको में इनकी संख्या रगभग 14 से 15  लाख  तक मानी गयी है। इनकी बस्तियाँ शहर से दूर होने के कारण शिक्षा, बिजली, सडक, जल आदि सुविधाएं इन तक  बहुत कम पहुँचती हैं। ये लोग अपने अपने तांडों में रहने के कारण भी इन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति  को सुरक्षित रखा है।  ये लोग अपनी भाषा को गोरबोली, बंजाराभाषा या लमाणी भाषा कहते हैं।  कर्नाटक में इनकी भाषा पर मराठी और कन्नड का प्रभाव विशेष रूप से दिखाई देता है।  इस भाषा की अपनी कोई लिपि तो नहीं है। किंतु देवनागरी लिपि का प्रयोग आज उनके साहित्य के लिखित रूप के लिए किया जा रहा है।

इनका साहित्य विशाल और वैविध्यपूर्ण है। बंजारा लोगों को कर्नाटक में लम्बानि या लमाणि के नाम से जाना जाता है। इनके कबिलों को तांडा कहा जाता है। ये स्वयं को राजपुतों के वंशज मानते हैं और हिंदु धर्म का ही परिपालन करते हैं। अतः विशिष्ट अनुष्ठानों, तीज, त्योहारों में इनकी जुँबा पर अपने आप कुछ विशेष गीत आने लगते हैं। इनमें जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न अवसरों पर गीत गाए जाते हैं।  इनको संस्कार गीत कहा जाता है। ये उनके जीवन का अभिन्न अंग है। ये गीत लिपिबद्ध नहीं है। इनमें जो गीत गाए जाते हैं उनके कुछ विशिष्ट नाम भी हैं जैसे एकळपोयेर या वदाओं ( पुत्र जन्म से संबंधित), वळंग (मुंडन के समय का गीत), धुंड गीत ( होली के समय सुखमय जीवन की कामना का गीत), इसके अलावा देवी देवताओं से मिन्नत मांगने के लिए भी गीत गाए जाते हैं, इनमें तुलजा भवानी. सीतलामाता  प्रमुख हैं। विवाह के समय मंगलगीत, प्रेमगीत, छेडछाड गीत, ढावलों तथा हवेली आदि गीत भी गाए जाते हैं।  दूसरी  ओर कटाई, बुआई करते समय, चक्की पीसते समय आदि विभिन्न अवसरों पर भी गीत गाए जाते हैं।

इनके गीतों में मुग्धता, भोलापन, मादकता, मधुरता तो है ही साथ ही जीवन के प्रति आस्था भी है।  लय, ताल इनके गीतों की विशेषता है। ये गीत मौखिक होने के कारण इनका लिखित रूप नहीं मिलता और पीढि दर पीढि एक मूँह से दूसरे मूँह तक पहुँचते समय इनमें काफी परिवर्तन भी हो जाता है। इनके गीतों में व्याकरण का ध्यान नहीं रखा जाता।  इन गीतों का किसी व्यक्ति के नाम से गीत का कोई पेटेंट नहीं होता। लोग बस यह मौखिक परंपरा बनाए रखते हैं। बंजारों के गीत लिखित रूप में संकलित नहीं है। वह संगोष्ठियों, शोध कार्य आदि के कारण कुछ संकलित रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। इन गीतों के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग कर लिखित रूप दिया जाता है। महाराष्ट्र में मराठी के प्रभाव से हिंदी प्रदेश में हिंदी के प्रभाव से यह संकलित किए जा रहे हैं। इसलिए यह अल्पज्ञात है जिसे लिखित रूप में सामने लाया जा रहा है।

बंजारा लोक साहित्य में लोकगीत शीर्ष पर हैं। सर्वप्रिय भी है। इन लोकगीतों में एकजीवन पद्धति है, संस्कार है, संस्कृति है और जीवन दर्शन भी है। इन लोकगीतों में तीज-त्योहार, जन्म मृत्यु, सुख-दुख, प्रकृति- परिश्रम, नीति-भक्ति आदि से संबंधित भाव विचार मिलते हैं। इन गीतों में अभिव्यक्त संस्कृति का अध्ययन यहाँ प्रस्तुत है।

संस्कार गीत बंजारों में विशेष महत्व के हैं। जन्म, नामकरण, मुंडन, विवाह और मृत्यु आदि से संबंधित संस्कार बंजारा समुदाय में परंपरागत रूप से आचरण में लाए जाते हैं और ऐसे समय कुछ संस्कार गीत भी गाए जाते हैं। इनमें एक जो महत्वपूर्ण गीत है जिसे एकळपोयु गीद कहा जाता है। यह गीत पुत्रजन्म के अवसर पर गाया जाता है। बंजारों के परिवार में पुत्र का जन्म किसी उत्सव से कम नहीं होता है। इस पुत्र को सेवाभाया कहा जाता है। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं,

‘सेवाभाया जलमों येघर दूयों वजाळो/ भगवान जलमों येघर हूयो वजाळो।

याडि बापूरि आसिस ये बेटा जलमों ये/ देवू, धरमूरि आसिस ये बेटा जलमो ये।

आचि आचि घडी ये सूरज्या जलमों ये/ छटीमातार आसिस ये याडी घडी ये।

चांदा सूरजोरी उमर ये बेटान आसिस ये। माँ-बापेरि रे छडिवेन रिसतू/

सेवाभायार आसिस तोनरे बेटा/ भगवानेर आसिस तोनरे बेटा’।[1]

यह एक प्रकार का प्रार्थना गीत है जिससे बच्चे को भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हो सकें। इस गीत में  बच्चा बडा होकर अपने माता पिता तथा समाज के रक्षक बनने की प्रार्थना की जाती है। इसमें आनेवाले प्रतीक, रूपक तथा लय आदि अर्थपूर्ण होते हैं। इन गीतों के माध्यम से बंजारों का अभिव्यक्ति सौंदर्य तथा उनकी कल्पनाशीलता को देखा जा सकता है। पुत्र जन्म पर होनेवाली खुशी इतनी है कि उनको लगता है जैसे सारा घर सूर्य के प्रकाश से भर गया है। इस गीत में वजाळो, बापूरि, आचि आचि घडी,  आसिस ये शब्द हिंदी और मराठी से प्रभावित है। उजालो – वजाळो, अच्छि- आचि, घडी- क्षण, आसिस- आशिष।

उनका एक अन्य गीत ‘दळना धोकायेरो’ कहलाता है। जिसमें बंजारा लोग जन्म के बाद ‘छठी मता’ की आराधना करते हैं। उसके बाद बच्चे को पालने में डालने की रस्म की जाती है जिसे ‘छोरान तोटलाम घोलेरो’ का कहा जाता है। इस गीत की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है

वेमाता हासती हासती आयेस।/ रोती रोती जायेस।।

लेपो, लावण लेन पर जायेस। /सुवो सुतळी लेन आयेस।।

वेमाता हालन फूलन रकाडेस / सण ढेरो लेन आयेस

वेमाता सुई दोरा लेन पर जा लेन जायेस / सण सुतळी सुवो लेन आयेस।

इस गीत में स्त्री वेमाता अर्थात प्रसुता से हंसते हँसते घर आने को तथा रोते रोते जाने को कह रही है। इस गीत में लेपो -लावण तथा सुई-धागा शब्दों का प्रयोग बहुत ही उल्लेखनीय है। लेपो लावण बंजारा स्त्रियों के लहंगे  को कहते हैं। सुई धागा लमाणी महिलाओं के जीवन से जुडा अहम हिस्सा है।  इस गीत की यह पंक्तियाँ कि हँसते आना और रोते जाना भी विशेष उल्लेखनीय है जिसका अर्थ है यदि लडकी का जन्म हो तो तुम यहाँ से रोते जाना और पुत्र का जन्म हो तो हँसते आना। ‘बंजारों में भी बेटी का जन्म भी संभवतः बोझ माना जाता रहा होगा जैसा की अन्य समुदायों में भी है’।[2] कारण बेटी के जन्म पर पिता को उसकी शादी ब्याह की चिंता रहती है।

‘छोरोम धुंडेरो’ नामक एक और रस्म है जिसमें बच्चे का नामकरण किया जाता है। ‘बाळलट्टा काढेरो’ नामक संस्कार मुंडन संस्कार है।

विवाह संस्कार में प्रत्येक अवसर पर इनके यहाँ गीत है। जिसमें सगाई से लेकर विवाह संपन्न होने तक के विविघ विधि विधान हैं, जिसपर उनके गीत हैं और इन गीतों में उनकी संस्कृति भी झलकती है। इन गीतों में उनके भाव भी है और पारंपरिक नृत्य भी। इनके विदाई के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं उसमें दुल्हन के मनोभाव अभिव्यक्त होते हैं। वह अपने माता, पिता, भाई, सखियाँ तथा तांडा के नायकों से संबोधित करते हुए अपने मन के भाव व्यक्त करती है और पराए घर जाने का दुख व्यक्त करती है। कितुं इस गीत की जो सबसे बडी सांस्कृतिक विशेषता यह  है कि दुल्हन हवेली से, गाय, बैल, बकरी से संबोधित करती है और उनसे बिछुडन का दर्द उसके गीतों में झलकता है, द्रष्टव्य है,

हवेली ये आँ हियाँ..

तोती छुटो धोळो घन/ मोतो छुटो मारे जे

बापुरो बंगला आँ हियाँ…

वेसु  तो सो कांसेरी वाळ न लाग

काडी काडी कर सासी  ये माया जोडी

xxx

ये हवेली ये आँ हियाँ…

दूध,घी ये रो कालवा चलायेस

अन धनेरी कमी नवेस पाणी पावसेरी

कमी न वेस

ये हवेली ये आँ हियाँ…

गुरु र आसिस देस ये

ये हवेली आँ हियाँ

यह एक बहुत ही लंबा गीत है। किंतु इसमें मैंने उन्हीं पंक्तियों को लिया है जिसमें मुझे बंजारा संस्कृति की कुछ भिन्न विशेषता नज़र आयी।  दुल्हन अपनी विदाई के समय हवेली के प्रति हित की कामना करती है कि यहाँ जिस नगर में मेरे पिता की हवेली है वहाँ दूध घी की नदियाँ बहे, वहाँ अन्न. धन और पानी की  कभी कमी ना आए और इन पर गुरु का आशिष बना रहें। इसमें ‘पानी की कमी कभी ना हो’ इसमें जो विशिष्ट गर्भितार्थ है। बंजारो का निवास स्थान प्रमुखता से राजस्थान है, जो रगिस्तानी इलाका है। जहाँ पानी की कमी होती है। रेगिस्तान में बदरी का घिर आना और पानी का गिरना आहोभाग्य होता है। दुल्हन की चाहत है कि उसके पिता की नगरी में कभी पानी की कमी ना हो।

मनुष्य जीवन का अंतिम पडाव मृत्यु इस अवसर पर भी एक गीत उपलब्ध हैं। यह गीत शोक गीत है।  किंतु इनमें एक जो उल्लेखनीय है वह यह कि तांडा के नायक अंतिम संबोधिन, वह कहता है,

सामळो भाईयो

गोरमाटी मा एत कावत छ

जिवतेन बाटी

मूयेन माटी

इ जग रूढी छ करन म

रोवामत सासो करोमत

करन केरोचू भाईयों।। [3]

तांडा नायक सभी को संबोधित कर कहता है कि हम सब जानते हैं कि बंजारों में एक कहावत है कि जीवित को बाटी  (रोटी) मृतक को मिट्टी। यह तो संसार का दस्तुर ही है, इसलिए रोना नहीं है।

बंजारों में जीवन के विभिन्न अवसरों पर किए जानेवाले विधिविधानों के अवसरों पर जो गीत गाए जाते हैं उनसे एक बात निश्चित रूप से ज्ञात होती है कि  इन गीतों में  जहाँ खुशी है, उपदेश है वहीं शोक  भी है। वहीं दूसरी ओर कलात्मकता की दृष्टि से इन गीतों में ताल और लय के साथ गीतात्मकता है।  पहाडी नदी सा उबड खाबडपन है किंतु उसका अपना प्राकृतिक सौंदर्य भी है जो अपनी सहजता से सबको आकर्षित करती है।

संस्कार गीतों के अलावा बंजारों के धार्मिक गीत भी होते हैं।  इन गीतों में प्रार्थना, स्तुति, भजन तथा उपदेशपरक गीतों का समावेश होता है। ये लोग प्रकृति पूजक होने के कारण वे प्रकृति को ही अपना ईश्वर मानते हैं और सर्वप्रथम प्रकृति की स्तुति करते हैं। उसके बाद बंजारा लोग संत सेवालाल, तुळजाभवानी, मरिमाया, जगदंबा आदि के प्रति अपना भक्तिभाव व्यक्त करते हैं।  देवी के प्रति उनकी भक्ति भावना उल्लेखनीय है।  इस संदर्भ में डॉ. वी. सी रामकोटी ने कहा है कि, बंजारा मुख्य रूप से देवी के उपासक हैं। विभिन्न प्रांतों में बसे हुए बंजारें मेराना माडी (देवी) की पूजा करते हैं। कुछ देवियाँ तांडे में पूजी जाती है और कुछ देवियाँ जंगलों में या खेतखलिहानों में पूजी जाती है। ये लोग देवी ( माउली) को व्यक्तिगत रूप से पूजते हैं और सार्वजनिक रूप से भी।[4] इनके धार्मिक लोक गीतों में मानवता, बंधुता, लोक कल्याण, समता आदि को विशेष महत्व दिया गया है। इनकी लोक कल्याण की भावना मुझे अथिक भा गयी, जिसमें वे सेवालाल के प्रति अपने  को समर्पित करते है और सकल जीवों के प्रति ‘सेन साई वेस’ (सबको सुखी रखना) की मंगल कामना करते है। जिसमें जीव जन्तुओं के साथ संपूर्ण मनुष्य जाति का समावेश है। गीत के प्रारंभ में ये लोग तुळजा भवानी से अपनी चूक भूल माफ करने की प्रार्थना करते हैं और सबको सुखी रखने की प्रार्थना करते हैं। अंत में कहते हैं,

जिन्दगीर नैया पार लगायेस

अन ई – पूजा तारे देवळेम मंजूर करलेस याडी।

सा…ई… वेस.. याडी साहेबानी।

बंजारा समाज में तीज त्योहारों के समय भी खूब गीत गाए जाते हैं।  इनके महत्वपूर्ण त्योहार है, दीवाली, दशहरा, होली और गणगौर। दीवाली और होली ये प्रमुख त्योहार है। हिंदुओं की तरह ये भी इन दोनों त्योहारों का उत्साह के साथ मनाते हैं। बंजारे दीवाली को दवाळी या काली अमावस कहते  हैं। इस दिन वे बकरे की बलि देते है। दिवाली होली के संबंध में इनका लोक गीत है,

होळी- दवाळी दोई भनेडी

होळी को मांग छळहाक बोकडो

दवाळी तो मांग झगमग दिवळो

होळी आती ते, गेरियान बेटा गे जाती

दवाळी आती तो बळदान सक दे जाती।

बंजारों  में श्रृगार, देशभक्ति, श्रम  तथा प्रकृतिपरक अन्य गीत भी हैं।  जिसमें शब्द  का स्वाभाविक सौदर्य है। गीतात्मकता के साथ भाव सौंदर्य भी है।

इन सारे लोकिगीतों में अभिव्यक्त संस्कारों का जीवन में बडा महत्व है। मानव इन संस्कारों के द्वारा जन्मजात अपवित्रताओं से छुटकारा पाकर सच्चे मनुष्यत्व को प्राप्त करता है। संस्कारों के विधान के पीछे यही दृष्टिकोण लोकगीतों में समाहित है। लोकगीतों में लोकमानस की सहज अभिव्यक्ति होती है। लोकगीतों के पीछे सामाजिक परंपरा होती है। मानवीय मूल्य और सम्मान का भाव छिपा रहता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि लोकगीत की भावसंगती सूपर्ण लोक की मंगलकामना के रूप में उद्भाषित नजर आती है।

इनके लोकगीतों का अध्ययन करते समय एक बात विशेष रूप से ध्यान में आयी वह यह है कि इनकी भाषा में कई सारे शब्द मराठी, पंजाबी और हिंदी से प्रभावित है।  जिस क्षेत्र में रहते हैं उस भाषा का प्रभाव इनकी भाषा पर हो जाता है। कई शब्द क्षेत्रिय भाषा से प्रभावित हो जाते है और उनका प्रयोग भी अनायास उनकी भाषा में होने लगता है। उसीप्रकार वाक्यसंरचना भी प्रभावित हो जाती है। जैसे उदाहरण को लिए ऊपर एख संस्कार का उल्लेख किया छोरोम तोटलाम घालेरो। जहाँ तक मुझे लगता है तोटलाम और घालेरो दोनों शब्दों पर मराठी भाषा का प्रभाव है। मराठी में झुले के लिए लोकभाषा में ‘तोटला’ कहा जाता है और ‘डालना’ (क्रिया)  के लिए ‘घालणे’  (क्रिया) शब्द का प्रयोग किया जाता है।

बंजारों मे केवल गीत भी नहीं है उनकी लोकथाएं भी हैं। ये लोकगीत तथा लोककथाएँ मौखिक ही रही हैं। उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है ना ही कोई व्याकरण। कुछ लोगों ने इनके मौखिक साहित्य का अध्ययन किया है और उनको लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।  इनमें कर्नाटक में एक नाम विशेष हैं और वह है प्रो.  हेगप्पा लमाणी और दूसरे है डॉ. गुलाब राठोड जिन्होंने इस लिपिबद्ध किया है। मुझे लगता है, बंजारों का  जो मौखिक साहित्य इतनी मात्रा में उपलब्ध है उनका प्रतिलेखन देवनागरी लिपि में कर उसको सुरक्षित करने की आवश्यकता है। जिससे अध्ययन के, शोध के कई आयाम खुल सकते हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि इस भाषा के प्रलेखन से हमें इस समुदाय के सांस्कृतिक, सामाजिक स्वरूप को भी परिचय हो जाएगा। भारत जैसे बहुभाषाभाषी तथा बहुस संस्कृति देश में ऐसी अल्पज्ञात भाषाओं को सुरक्षित करना आवश्यक है।

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

 

❃❃❃❃❃❃❃❃❃❃

[1] बंजारा लोकगीत – ड़ा. गुलाब राठोड – पृ -21 लेखनी प्रकाशन, नई दिल्ली

[2]  The art and literature of Banjara’s – A socio- cultural study. Dhansing B Nayak – Page -17

[3]  बंजारा लोकगीत – डॉ गुलाब राठोड –लेखनी, नई दिल्ली –पृ 71

[4] बंजारा लोकगीत  डॉ, वी. रामकोटी – पृ -84

 

संदर्भ ग्रंथ

  • बंजारा लोकगीत – डॉ गुलाब राठोड
  • बंजारा लोकगीत – डॉ. वी.टी रामकोटी
  • The art and literature of Banjara’s – A socio- cultural study. Dhansing B Nayak

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 46 – कला ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “ कला । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 46 ☆

☆ कला  

जैसा कि मैंने आपको बताया था, कला का अर्थ कुछ विशेष गुणवत्ता है कई कलाओं के विशेष गुणों का समुच्चय ही किसी व्यक्ति को पूर्ण बनता है ।

भगवान कृष्ण के पास 16 कलाएँ और भगवान राम के पास 12 कलाएँ थी । इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि भगवान राम भगवान कृष्ण से किसी तरह से कम थे । किन्तु दोनों अलग-अलग राजवंशों में पैदा हुए थे और जिस जिस वंश में उनका जन्म हुआ था उनमे उस वंश की सभी कलाएँ उपस्थित थी । भगवान कृष्ण चंद्र वंश के थे और चंद्रमा की 16 कलाएँ होती हैं, इसलिए भगवान कृष्ण चंद्र की 16 कलाओं से युक्त थे । मैंने आपको चंद्रमा की 16 कलाएँ और उनकी 16 देवियों के विषय में बताया था ।

भगवान राम सूर्य वंश में जन्मे थे, और उनमे सूर्य की सभी 12 कलाएँ उपस्थित थी ना की चंद्रमा की 16 कलाएँ । और सूर्य की इन 12 कलाओं के देवता पुरुष हैं, न कि चंद्रमा की तरह उसकी 16 कलाओं की देवियाँ । सूर्य के ये 12 कला देवता 12 आदित्य हैं । उनके नाम एक शास्त्र से दूसरे में भिन्न हो सकते हैं, लेकिन वे 12 महीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और उनकी अलग-अलग विशेषताएं होती हैं, और पर्यावरण पर भी उनका अलग अलग प्रभाव पड़ता हैं जैसे चंद्रमा की विभिन्न तिथियों की भिन्न भिन्न देवियाँ होती है और उनका हर रात्रि हमारे मस्तिष्क और प्रकृति पर अलग अलग प्रभाव पड़ता हैं ।

तो आप समझते हैं कि सूर्य पुरुष ऊर्जा या शारीरिक ऊर्जा को दर्शाता है, इसलिए सूर्य की कलाओं के देवता पुरुष है और चंद्रमा स्त्री ऊर्जा या मानसिक ऊर्जा को दर्शाती है तो उसकी कलाओं की देवी स्त्री रूप है ।

यही कारण है कि भगवान राम ने रावण को भौतिक शक्ति से पराजित किया और भगवान कृष्ण ने मानसिक शक्तियों का उपयोग करके पांडवों की सहायता करके कौरवों का अंत किया । ना केवल सूर्य और चंद्रमा बल्कि अग्नि की भी कलाएँ होती हैं । अग्नि की दस कलाएँ होती हैं और वे धुमरा, अर्चि, ऊष्मा, ज्वालिन्यै, विस्फुलिंगिनैयी, सुसारी, सुरुपा, कपिला, हव्यवाह एवं काव्यवाह हैं ।

क्या आप जानते हैं कि भगवान विष्णु का कौन सा अवतार है जो अग्नि की सभी दस कलाओं से युक्त था ?

वह भगवान नरसिंह है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 50 ☆ रिश्ते नहीं रिसते ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते नहीं रिसते।  यह आलेख  रिसते हुए रिश्तों  पर एक शोधपरक आलेख है।  टूटते – बिखरते रिश्तों के कारणों का  यह दस्तावेज सिर्फ कारण की विवेचना ही नहीं करता अपितु उन्हें संजोने के उपाय भी बताता है। इस आलेख के कई महत्वपूर्ण कथन हमें विचार करने के लिए उद्वेलित करते हैं। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 49 ☆

☆ रिश्ते नहीं रिसते

इक्कीसवीं सदी में संबंध व रिश्तों की परिभाषा बदल गई है। कोई संबंध पावन रहा नहीं; न ही रही  उसकी अहमियत व मर्यादा। रिश्ते आजकल दरक़ रहे हैं– उस इमारत की भांति, जो खंडहर के रूप में खड़ी तो दिखाई पड़ती है, परंतु उसके गिरने का अंदेशा सदा बना रहता है। यही दशा है– आज के संबंधों की। संबंध अर्थात् सम+बंध, समान रूप से बंधा हुआ अर्थात् दोनों पक्ष के लोग उसकी महत्ता को समान रूप से समझें व स्वीकारें। परंतु आजकल तो संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। वैसे तो कोई हैलो- हाय करना भी पसंद नहीं करता। इसमें दोष हमारी सोच व तीव्रता से जन्मती-पनपती आकांक्षाओं का है; जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जा रही हैं और मानव उनकी पूर्ति हेतु जी-जान से स्वयं अपने जीवन को खपा देता है। उस स्थिति में उसे न दिन की परवाह रहती है; न ही रात की। वह तो प्रतिस्पर्द्धा के चलते; दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाता है। इस परिस्थिति में वह रिश्ते-नातों को भुला कर: दोस्ती को दांव पर लगा, निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहता है और अपने आत्मजों व प्रियजनों से बहुत दूर निकल जाता है…सांसारिक चकाचौंध में वह सबको भुला बैठता है। उसे दिखायी पड़ता है–केवल-मात्र अपना स्वार्थ-सिक्त लक्ष्य; जो पुच्छल तारे की भांति उसके विनाश का कारण बनता है। इस स्थिति में उसके पास पीछे मुड़कर देखने का समय भी नहीं होता।

‘रिश्तों की माला जब टूटती है, तो दोबारा जोड़ने से छोटी हो जाती है, क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं।’ यह कथन कोटिश: सत्य है–इसलिए उन्हें बहुत प्यार व सावधानी से सहेजने व संजोने की दरक़ार है। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।’ सो! रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं; किसी भी पल दरक़ जाते हैं और रिश्तों में आयी दरार कहीं खाई न बन जाए; उसका ख्याल रखना अत्यंत आवश्यक है। एक फिल्म की ये पंक्तियां, ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’ व ‘ताल्लुक बोझ बन जाए, तो उसको तोड़ना अच्छा’ इन्हीं भावों को परिपुष्ट करती हैं। हृदय में संशय, संदेह, अविश्वास से अति-विषाक्त हो जाने से पूर्व अजनबी बन जाना बुद्धिमत्ता का प्रतीक है, ताकि संबंधों को पुन: स्थापित करने की संभावना बनी रहे। इसी संदर्भ में मेरे मनो-मस्तिष्क में दस्तक दे रही हैं वे पंक्तियां, ‘दुश्मनी इतनी करो कि पुन: दोस्त बनने की संभावना शेष बनी रहे।’ सो! संभावना जीवन में अपना अहम् दायित्व निभाती है और वह सदैव बनी रहनी चाहिए। रहीम जी का दोहा ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ जोरे से पुनि न जुरै, जुरै गांठ परि जाइ’ भी यही संदेश देता है… जैसे धागे के टूटने पर, वह दोबारा जो नहीं जुड़ पाता; उसमें गांठ पड़ना अवश्यंभावी है। उसी प्रकार रिश्तों में भी शक़, आशंका, संशय व ग़लतफ़हमी ऐसी दरारें उत्पन्न कर देते हैं; जिन्हें पाटना अत्यंत दुष्कर होता है।

परंतु आजकल माधुर्यपूर्ण रिश्ते तो गुज़रे ज़माने की बात हो गए हैं। संबंध-सरोकार शेष बचे ही नहीं। हर रिश्ते में अजनबीपन का अहसास व्याप्त है। रिश्ता चाहे पति-पत्नी का हो या भाई-भाई का हो; पिता- पुत्र का हो या मां बेटी का– सब एकांत की त्रासदी झेल रहे हैं; यहां तक कि बच्चे भी अकेलेपन से जूझ रहे हैं। पति-पत्नी में स्नेह, प्रेम, त्याग व समर्पण के अभाव होने का ख़ामियाज़ा सबसे अधिक बच्चे भुगत रहे हैं तथा उनके हृदय में अनगिनत प्रश्न ग़ाहे-बेग़ाहे कुनमुनाते हैं और वे अपने माता-पिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, जिसे सुन वे स्तब्ध रह जाते हैं। ‘यदि उनके पास उनके पालन-पोषण करने का समय ही नहीं था, तो उन्होंने उन्हें जन्म ही क्यों दिया?’

अक्सर माता-पिता बच्चों को खिलौने व सुख- सुविधाएं प्रदान कर, अपने दायित्वों की इति-श्री समझ लेते हैं; परंतु बच्चों को उनकी दरक़ार नहीं होती, बल्कि उन्हें तो माता-पिता के प्यार-दुलार व सान्निध्य-साहचर्य की आवश्यकता होती है; जिसके अभाव में उन मासूमों के हृदय में आक्रोश की स्थिति पनपने लगती है– जिसका परिणाम हमें बच्चों के नशे के आदी होने व अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त होने के रूप में दिखने को मिलता है। इस स्थिति में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है? मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से उनका जुड़ाव व सर्वाधिक प्रतिभागिता सर्वत्र झलकती है; जो उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है, जिसके परिणाम- स्वरूप वे मानसिक रोगी बन जाते हैं।

आजकल अहंनिष्ठता के कारण माता-पिता में अलगाव की स्थिति पनप रही है, जिसके कारण सिंगल-पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। सो! बच्चों को माता का स्नेह-दुलार व पिता का सुरक्षा- दायरा नसीब नहीं हो पाता और वे कुंठा-ग्रस्त हो जाते हैं। उनके जीवन से आस्था व विश्वास के भाव नदारद हो जाते हैं और जीवन के प्रति उनका नज़रिया अथवा दृष्टिकोण सदैव नकारात्मक रहता है। सब्र, संतोष, करुणा, सहानुभूति, त्याग व  सहनशीलता से उनका दूर का नाता भी नहीं रहता। वे उसके श्रेय-प्रेय व शुभ-अशुभ पक्षों की ओर ग़ौर नहीं फ़रमाते; न ही निर्णय लेने व उसे कार्यान्वित करने में समय लगाते हैं; जिसका परिणाम हमें उनके प्रतिदिन फ़िरौती, अपहरण, लूटपाट, दुष्कर्म आदि के हादसों में लिप्त होने के रूप में दिखाई पड़ता है।

आज की युवा-पीढ़ी चार्वाक दर्शन से प्रभावित है तथा हर क्षण का तुरंत उपभोग कर लेना चाहती है। वे अगले पल अर्थात् कल व भविष्य की प्रतीक्षा नहीं करते। सो! युवावस्था में पदार्पण करने से पूर्व ही वे मासूम बच्चियों की अस्मत लूटने, एकतरफ़ा प्यार में तेज़ाब फेंकने व सरे-आम गोलियां चलाने से गुरेज़ नहीं करते। दुष्कर्म करने के पश्चात् उसकी दर्दनाक हत्या कर देना भी आजकल सामान्य सी घटना स्वीकारी जाती है, क्योंकि वे अपनी सुरक्षा-हेतु कोई भी सबूत छोड़ना नहीं चाहते। इस स्थिति में बहन, बेटी व मां के संबंध की सार्थकता उनकी दृष्टि में कहां महत्व रखती है? पहले पत्नी को छोड़कर हर महिला को मां, बहन, बेटी के रूप में मान्यता प्रदान की जाती थी और उनके आत्म-सम्मान पर आंच आने की स्थिति में; वे अपने प्राणों की बाज़ी तक लगा देने को तत्पर रहते थे। परंतु आजकल तो दुधमुंही मासूम बच्चियां भी अपने माता-पिता के आंचल तले महफूज़ नहीं हैं… गिद्ध नज़रें हर-पल उनके चारों ओर मंडराती दिखाई पड़ती हैं।

चलिए! प्रकाश डालते हैं– पति-पत्नी के विवाहेतर संबंधों पर– पति-पत्नी और वो अर्थात् पर-स्त्री-गमन आज के समाज का फैशन हो गया है। ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ के दुष्परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं, जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं। वैसे पैसा भी रिश्तों में दरार उत्पन्न करने में अहम् भूमिका अदा करता है। भाई-भाई, भाई-बहन, पिता-पुत्र व मां-बेटी के पावन संबंध भी दांव पर लगे रहते हैं।अक्सर वे एक-दूसरे की जान लेने पर सदैव आमादा रहते हैं। संतान द्वारा माता-पिता की हत्या के किस्से सामान्य हो गये हैं। पहले संयुक्त परिवार-प्रथा का प्रचलन था। एक कमाता था, दस खाते थे। परंतु आजकल हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में व्यस्त है, परंतु स्थिति सर्वथा भिन्न है। परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक सिमट कर रह गये हैं और संवादहीनता के कारण  पनप रही संवेदनशून्यता की स्थिति के परिणाम-स्वरूप रिश्तों में ग्रहण लग गया है …माता- पिता को वृद्धाश्रमों में शरण लेनी पड़ रही है। वे कमरे के बंद दरवाज़ों व शून्य छत की ओर ताकते; उन आत्मजों की प्रतीक्षा में रत रहते हैं; जिनके लौटने की संभावना नगण्य होती है। अक्सर बच्चों के विदेश-गमन के पश्चात् वे जीवन में अकेले जूझते व संघर्ष करते रहते हैं; जिसका परिणाम दस माह पश्चात् एक फ्लैट में महिला का कंकाल प्राप्त होना है। यह आधुनिक समाज के सभी वर्ग के लोगों को कटघरे में खड़ा कर प्रश्न करता है– ‘क्या बच्चों का माता-पिता के प्रति कोई दायित्व नहीं है?’

वैसे इस अप्रत्याशित व भयावह स्थिति के लिए अपराधी केवल बच्चे नहीं; उनके माता-पिता भी हैं, जो उनके विदेश में होने पर फ़ख्र महसूस करते हैं। परंतु जब बच्चे वहां से लौट कर नहीं आते, तो उनकी जान पर बन आती है। सो! मैं अमुक घटना पर आपकी तवज्जो चाहूंगी; जिसे सुनकर आपके पांव तले से ज़मीन खिसक जाएगी। चंद दिन पहले पिता ने अपने बेटे को उसकी मां की गंभीर बीमारी के बारे में सूचित करते हुए कहा कि वह उसे बहुत याद करती है। एक बार आकर वह उसे मिल जाए। परंतु वह नहीं आया। इतना ही नहीं– उसका अपने भाई से यह आग्रह करना कि भविष्य में मां के निधन पर वह चला जाए और पिता के निधन पर वह चला जाएगा। क्या यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा नहीं है?

आजकल तो लहू का रंग लाल ही नहीं रहा; श्वेत हो गया है। संवेदना-सरोवर सूख चुके हैं। अब उनमें कोई हलचल नहीं रही। संवाद संबंधों की जीवन- रेखा हैं। जब आप बात करना बंद कर देते हैं; अमूल्य संबंध खोने लगते हैं। उन्हें जीवित रखने के लिए आवश्यकता है– विवाद से बचने की और संबंधों को शाश्वत बनाए रखने की…जिसकी शर्त है, झुकना; सहन करना व प्रसन्नता से खुद पराजय स्वीकार कर, दूसरों को विजयी बनाने की बलवती इच्छा होना। सच्चे संबंध जीवन की वास्तविक पूंजी व धरोहर होते हैं, जो विषम परिस्थितियों में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इनसे निबाह करने के लिए मानव को अहम् का त्याग करना अनिवार्य होता है, अन्यथा उसी के बोझ से वे टूट जाते हैं। ‘तूफ़ान में किश्तियों का बचना तो संभव है, परंतु अहं से हस्तियों का डूबना अनिवार्य है, निश्चित है।’

सो! आजकल सब संबंध दिखावे के हैं, जो मात्र छलावा हैं। वास्तव में हर शख्स भीतर से अकेला है। यही है, जिंदगी की कशमकश; जिससे जूझता हुआ इंसान आवागमन के चक्र से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि उसे आजीवन सुनामी की आशंका बनी रहती है। वह हर पल इसी आशंका में जीता है कि वे रिश्ते किसी पल भी दरक़ सकते हैं, क्योंकि अविश्वास, संदेह व शंका रूपी दीमक उसे खोखला कर चुकी होती है और वे संबंध नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु फिर भी एक आशा; एक उम्मीद अवश्य बनी रहती है।

आइए! पारस्परिक मनोमालिन्य को तज, सहज रूप से जीवन जीएं व अहं का त्याग कर मंगल-कामना करें और ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठें। संसार में जो सत्य है; वह सुंदर व कल्याणकारी है। सो! सत्य को सदैव संजो कर रखना व विषम परिस्थितियों में सम बने रहना श्रेयस्कर है।। क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि वह पल-भर में सब रिश्तों में सेंध लगाकर, उन्हें नष्ट कर देता है। सो! दूसरों की भावनाओं का सदैव सम्मान करें व  उनसे वैसा व्यवहार करें; जिसकी अपेक्षा हम उनसे करते हैं। पहले लोग भावुक होते थे; भावना में बह कर रिश्ते निभाते थे। फिर लोग प्रैक्टिकल हुए–भावना का कोई स्थान नहीं रहा; रिश्तों से फायदा उठाने लगे और अब प्रोफेशनल हो गए हैं और वही रिश्ते निभाने लगे हैं; जिनसे अपने स्वार्थ साधे जा सकें। ‘रिश्ते नम्रता से निभाए जा सकते हैं; छल-कपट से तो केवल महाभारत रची जा सकती है।’ इसलिए बुरा मत मानिए–अगर लोग आपको ज़रूरत के समय याद करते हैं, बल्कि गर्व कीजिए, क्योंकि मोमबत्ती की याद तभी आती है; जब अंधेरा होता है। सो! रिश्तों की गहराई को अनुभव कीजिए-समझिए। सहृदय बनिये और स्नेह-सौहार्द बनाए रखिए। रिश्तों में प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए; केवल देना सीखिए अर्थात् समर्पण व त्याग की महत्ता व अहमियत स्वीकारिए, ताकि रिश्ते स्वस्थ बने रहें और उनमें ताज़गी बरकरार रहे। रिश्ते रिसते न रहें। रिश्तों का अहसास बना रहे और वे जीवन को आंदोलित करते रहें; जिससे जीवन-बगिया महकती रहे; लहलहाती रहे और वहां चिर-वसंत का वास हो… मलय वायु के झोंके सभी दिशाओं को आलोड़ित व अलौकिक आनंद से सराबोर करते रहें– यही अनमोल रिश्तों की सार्थकता है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 3 ☆ कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं’।)

☆ किसलय की कलम से # 3 ☆

☆ कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं ☆

(यह आलेख लॉक डाउन के प्रथम चरण से संदर्भित है किन्तु, इसके तथ्य आज भी विचारणीय हैं जिन्हें आत्मसात करने की आवश्यकता है।) 

लगभग सौ वर्ष पूर्व का भारतीय सामाजिक परिवेश देखें तो हम पाएँगे कि समाज में वर्ण व्यवस्था जीवित तो थी लेकिन शिथिल भी होती जा रही थी। लोग वर्ण से इतर कामकाज और व्यवसाय-धंधे अपनाने लगे थे। धीरे-धीरे रूढ़िवादियाँ और असंगत प्रथाएँ समाप्त हो रहीं थी, वहीं पाश्चात्य की दस्तक से जीवनशैली बदलने लगी थी। जो समाज छुआछूत, ऊँच-नीच अथवा निम्न जातियों से परहेज करता था, उनके भी मायने बदलने लगे थे। लोगों में रहन-सहन, खान-पान और मेलजोल बढ़ने लगा था। यह कितना उचित था, कितना प्रासंगिक था? अथवा कितना आवश्यक था? ये सब वक्त और परिस्थितियों के साथ बदलता रहता है।

पहले स्नान-ध्यान, पूजा-भक्ति, नियम-संयम अथवा जाति-धर्म का बहुत महत्त्व होता था। जहाँ तक मैंने अध्ययन एवं चिंतन किया है, ये सब बातें कपोलकल्पित नहीं थीं। हर व्यवस्था अथवा कार्य के पृष्ठ में एक तर्क, सत्यता, व्यवस्था अथवा सुरक्षा का भाव निश्चित रूप से होता था। स्वस्थ जीवन के इस रहस्य को युगों-युगों से भारतीय जानते हैं। आज भी स्नान, स्वच्छता, शुद्धता, सद्भावना आदि का पहले जैसा ही महत्त्व है। आज बदलते परिवेश और प्रगति की अंधी दौड़ में हमारी दिनचर्या इतनी अनियमित व असुरक्षित हो गई है, जिस पर चिंतन किया जाए तो उसे कोई भी स्वीकार्य नहीं कर पायेगा।

घर में लाया गया खाद्यान्न हो अथवा कोई भी सीलबंद सामग्री, उसकी विश्वसनीयता हमेशा से संदेह के घेरे में रही है, आज के समय में क्या आप बाहर की किसी भी वस्तु या खाद्य पदार्थ घर में लाना चाहेंगे? शायद आज बिल्कुल नहीं, फिर भी हम विवश हैं। राम भरोसे सब कुछ ला रहे हैं और खा भी रहे हैं। वर्तमान में उत्पन्न हुईं ये परिस्थितियाँ हमारी महत्त्वाकांक्षाओं का ही कुपरिणाम है। आज आदमी आदमी के निकट आने से घबरा रहा है। हाथ मिलाने के स्थान पर दूर से नमस्ते करने लगा है। आज सुरक्षा की दृष्टि से दूसरे के हाथों बने भोजन से परहेज करने लगा है। कुछ ही महीने पहले ऐसा लगता था कि इन सबके बिना आदमी जिंदा नहीं रह पाएगा परन्तु अब ऐसा लगने लगा है जैसे नए रूप में ही सही कुछ पुरानी प्रथाएँ पुनर्जीवित हो उठीं हों।

आज ट्रेनें बंद हैं। बाजार बंद हैं। आवश्यक सेवाएँ तक न के बराबर हैं, फिर भी सभी जिंदा हैं। इसका मतलब यही हुआ कि आदमी चाह ले तो सब संभव है। इसी को वक्त का बदलना कहते हैं। आज हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर आदमी अपने घरों को लौट रहे हैं। घर से बाहर निकला मजदूर अपने शहर और गाँव की ओर भाग रहा है। उसके मन में बस एक ही बात है कि जो भी हो, जैसे भी रहेंगे, अपने घर और अपनों के बीच में रहेंगे। इसीलिए कहा गया है कि-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’

सुख हो अथवा दुख अपनी माटी, अपने लोक और अपनी संस्कृति में आसानी से कट जाते हैं। आज जब आदमी अपने घरों की ओर भाग रहा है, तब उन उद्योगों-धंधों और व्यवसाय का क्या होगा? जहाँ बहुतायत में बाहरी मजदूर व कर्मचारी काम करते थे। उन मजदूरों, छोटे व्यापारियों और कुटीर उद्योगों का क्या होगा, जिनसे लोगों की रोजी-रोटी चलती थी। कुछ ही समय में ऐसे अनेक परिवर्तनों का खामियाजा हमारा समाज भुगतेगा,  जिन पर अभी तक किसी ने सोचा भी नहीं है। बड़े उत्पादों हेतु जब कर्मचारियों की कमी होगी तो उत्पादन और गुणवत्ता पर असर पड़ेगा ही। क्या उत्पाद महँगे नहीं होंगे? जब मजदूरों को मजदूरी नहीं मिलेगी तो क्या उनकी दिनचर्या में फर्क नहीं पड़ेगा? उनकी रोजी रोटी कैसे चलेगी? जब रोजी रोटी नहीं चलेगी तो बेरोजगारी, भूखमरी और अराजकता नहीं फैलेगी?  क्या निम्नवर्गीय बेरोजगार तबका न चाहते हुए भी अनैतिक और उल्टे-सीधे कार्य नहीं करेगा?

यदि समय रहते देश के जागरूक, बड़े उद्योगपति, देश के कर्णधार और प्रशासन देशहित में आगे नहीं आये, समृद्ध लोगों ने उदारता नहीं दिखलाई तो बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, चोरी-डकैती, लूटमार की घटनाएँ बढ़ने में देर नहीं लगेगी। आज कोरोना-कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। कुछ ही महीनों में इस बीमारी के दुष्परिणाम दिखाई देने लगे हैं। अभी पूरा का पूरा निम्न वर्ग अपनी जमापूँजी के सहारे अपनी रोजी-रोटी जैसे-तैसे चला रहा है। जब पूँजी समाप्त हो जाएगी और रोजगार भी नहीं रहेगा, फिर क्या होगा? इसकी कल्पना ही भयावह लगती है।

कुछ लोगों की नासमझी, कुछ विवशताएँ एवं कुछ असावधानियाँ भी कोविड-19 को विकराल बनाने में सहायक हो रही हैं। आज वह चाहे छोटा हो या बड़ा, अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा, धनवान हो या निर्धन, जिस तरह बिजली और आग किसी में फर्क नहीं करती ठीक उसी तरह यह कोरोना किसी के साथ भेदभाव नहीं करता, जो सामने पड़ा उस पर वार करेगा ही। गंभीरता से सोचने पर कहा जा सकता है कि यह वह पीड़ा है जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं।

अतः हमें स्वयं को, अपने परिवार को, अपने गाँव-शहर को या यूँ कहें कि अपने देश को इस संकट से उबारना है तो हमें प्रशासन व चिकित्सकों के सभी निर्देशों का स्वस्फूर्तभाव से पालन करना होगा। यदि हम सब कृतसंकल्पित होते हैं तो शीघ्र ही हमारी और हमारे देश की परिस्थितियाँ वापस सामान्य होने लगेंगी और एक बार पुनः निर्भय, स्वस्थ और सुखशांतिमय जीवन की शुरुआत हो सकेगी।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

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